आवश्यक कर्म

 



संभवतः एक पूर्ण संन्यासवादी का उत्तर यह होगा कि ऐच्छिक कर्मों के रूप में केवल भिक्षाटन, भोजन और ध्यान को ही स्वीकार करना होगा और वैसे इनके अतिरिक्त शरीर की केवल आवश्यक चेष्टाओं को ही अंगीकार करना होगा। गीता ने इस उत्तर का उल्लेख नहीं किया है, संभवतः यह उत्तर उस समय पूर्ण रूप से प्रचलित नहीं था। परंतु स्पष्ट ही, एक अधिक उदार तथा व्यापक समाधान यह था कि तीन अत्यंत सात्त्विक कार्यों, यज्ञ, दान और तप को जारी रखना ही चाहिये। और गीता कहती है कि ये कार्य अवश्यमेव करने चाहियें, क्योंकि ये ज्ञानियों को पवित्र करते हैं। परंतु अधिक व्यापक दृष्टि से तथा इन तीन कार्यों को इनके व्यापकतम अर्थ में समझते हुए यह कहा जा सकता है कि अवश्य करने योग्य कर्म वह है जो यथायथ रूप से नियंत्रित कर्म, नियतं कर्म हो अर्थात् जो शास्त्र के द्वारा, यथार्थ ज्ञान यथार्थ कर्म, यथार्थ जीवन-यापन की विद्या एवं कला के द्वारा या मूल स्वभाव के द्वारा नियंत्रित हो, स्वभावनियतं कर्म, अथवा अंततः और श्रेष्ठतःजो हमारे अंदर और ऊपर अवस्थित भगवान् के संकल्प के द्वारा नियंत्रित हो।


इनमें से अंतिम ही मुक्त पुरुष का वास्तविक तथा एकमात्र कर्म है, मुक्तस्य कर्म। इन कर्मों का त्याग करना यथायथ गति नहीं है-यह बात गीता ने अंत में स्पष्ट और तीव्र रूप में कह दी है, इस प्रकार का त्याग ही सच्ची मुक्ति का सक्षम साधन है-इस अज्ञानपूर्ण विश्वास के साथ कर्मों का त्याग कर देना तमसिक त्याग है। हम देखते हैं कि कर्मां के त्याग में भी गुण उसी प्रकार हमारा पीछा करते हैं जिस प्रकार कि कर्मों के बीच। अकर्म में आसक्ति रखते हुए संगः अकर्मणि, कर्मों का त्याग करना भी उसी प्रकार एक तामसिक त्याग होगा। और इन्हें इस कारण त्यागना कि सब दुःखदायक हैं या शारीरिक कष्ट तथा मानसिक उद्वेग के हेतु हैं अथवा इस भाव से त्यागना कि सब कुछ ही व्यर्थ और आत्मा के लिये संतापजनक है, राजसिक त्याग है और यह उच्च आध्यात्मिक फल नहीं प्रदान करताः यह भी सच्चा त्याग नहीं। यह बौद्धिक निराशावाद या प्राणिक क्लांति का परिणाम है; इसका मूल अहंकार में है। इस स्वार्थ-मुखी नीति के द्वारा नियंत्रित त्याग से किसी प्रकार की भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। त्याग का सात्त्विक सूत्र कर्म से पीछे हटना नहीं बल्कि व्यक्तिगत मांग एवं उसके मूल में रहले वाले अहं-तत्त्व से पीछे हटना है।


इसका मतलब है यथायथ जीवन-यापन के विधान के द्वारा या मूल प्रकृति, उसके ज्ञान एवं उसके आदर्श के द्वारा, अपने-आपमें तथा स्वानुभूत सत्य में उसकी श्रद्धा के द्वारा कर्म करना, कामना से प्रेरित होते हैं और वे योगयुक्त मन के साथ, कर्म या उसके फल के प्रति किसी व्यक्तिगत आसक्ति के बिना संपत्र किये जाते हैं। समस्त कामना का, समस्त स्वार्थदर्शी अहंकारमय चुनाव और आवेग का तथा अंत में संकल्प के उस अति सूक्ष्मतर अहंभाव का पूर्ण परित्याग करना आवश्यक है जो या तो यह कहता है कि कर्म मेरा है मैं ही कर्ता हूँ या यहाँ तक कि कर्म परमेश्वर का है पर कर्ता मैं हूँ किसी प्रिय, काम्य, लाभजनक या सफलतापूर्ण कर्म के प्रति कोई भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये और न यह उचित है कि उसके ऐसा होने के कारण ही उसे संपत्र किया जाये; किंतु इस प्रकार का कर्म भी करना होगा,-पर केवल तभी अप्रिय अकाम्य या अर्तप्तिकर कर्म के प्रति या जो कर्म हो, कर्तव्यं कर्म हो। किसी अप्रिय, अकाम्य या अतृप्तिकर कर्म के प्रति या जो कर्म अपने साथ दुःख विपदा विषम अवस्थाऐं एवं अनिष्ट परिणाम लाता है या ला सकता है उसके प्रति कोई घृणा नहीं होनी चाहिये; क्योंकि वह भी जब एक कर्तव्य-कर्म हो, तब उसे पूर्ण रूप से, निःस्वार्थ भाव से तथा उसकी आवश्यकता एवं प्रयोजन को गहराई के साथ समझते हुए अंगीकार करना होगा।


ज्ञानी मनुष्य कामनात्मक सत्ता की जुगुप्साओं तथा द्विविधाओं को तज देता है और जो साधारण मानवीय बुद्धि क्षुद्र, व्यक्तिगत और रूढ़ मानदंडो के द्वारा या किसी अन्य प्रकार के संकीर्ण आदर्शों के द्वारा नापती है उसके संशयो को वह निकाल फेंकता है। पूर्ण सात्त्विक मन के प्रकाश में द्वारा नापती है उसके संशयों को वह निकाल फेंकता है। पूर्ण सात्त्विक मन के प्रकाश में तथा अंतरात्मा को निर्व्यक्तिकता की ओर, परमेश्वर विश्वगत और सनातन सत्ता की ओर उठाने वाले आंतरिक त्याग की शक्ति के साथ वह अपनी प्रकृति के उच्चतम आदर्श धर्म का अनुसरण करता है अथवा उसकी निगूढ़ आत्मा में कर्मों के अधीश्वर का जो संकल्प विद्यमान है उसीका वह अनुवर्तन करता है। वह किसी व्यक्तिगत फल या किसी ऐहिक पुरस्कार के लिये अथवा सफलता, लाभ या परिणाम के प्रति किसी आसक्ति के साथ कर्म नहीं करताः न ही वह अदृश्य परलोक में किसी प्रकार का फल प्राप्त करने के लिये करता है, न दूसरे जन्मो में या हमसे परे के लोकों में किसी ऐसे पुरस्कार की याचना करता है।


जिसके लिये अपरिपक्व धार्मिक बुद्धिवाला मनुष्य लालयित रहता है। इस लोक में या अन्य किन्हीं लोकों में, इस जीवन में या अन्य किसी जीवन मे इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित इन तीन प्रकार के जो फल मिलते हैं वे कामना तथा अहं के दासों के लिये है; मुक्त आत्मा इनमें लिप्त नहीं होता। जो मुक्त कर्मी आभ्यंतरिक संन्यास के द्वारा अपने कर्मों को महत्तर शक्ति के प्रति उत्सर्ग कर चुका है वह कर्म से मुक्त है। कर्म वह अवश्य करेगा, क्योंकि किसी-न-किसी प्रकार का कर्म, वह चाहे कम हो या अधिक, छोटा हो या देहधारी जीव के लिये अनिवार्य, स्वाभाविक एवं समुचित ही है,-कर्म जीवन के दिव्य विधान का अंग है, यह आत्मा की उच्च क्रियाशक्ति का पक्ष है। त्याग का सार, सच्चा त्याग, सच्चा संन्यास कोई गतानुगतिक नियम का अनुसरण करने वाला कर्मत्याग नहीं है बल्कि वह है आत्मा की निष्कामता, मन की निःस्वार्थता अहंभाव को अतिक्रम कर मुक्त, निर्व्यक्तिक एवं आध्यात्मिक प्रकृति में प्रतिष्ठित होना। इस आभ्यंतरिक त्याग का भाव ही सात्त्विक साधना की उच्चतम परिणति की सर्वप्रथम मानसिक शर्त है।


इसके आगे गीता सांख्य-दर्शन के अनुसार कर्म-सिद्धि के पांच कारणों या अनिवार्य साधनों की चर्चा करती है। ये पांच इस प्रकार हैं, पहला अधिष्ठान अर्थात् देह, प्राण और मन का ढांचा जो प्रकृति के अंदर जीव का आधार या अवस्थानभूमि है, उसके बाद है कर्ता, तीसरा है करण अर्थात प्रकृति के विविध करणोपकरण चौथा है चेष्टाः, अर्थात् अनेक प्रकार के प्रयत्न जो कर्म-शक्ति का गठन करते हैं, और अंतिम है दैवम् या दैव, अर्थात मानवीय कतृत्व से, प्रकृति की गोचर कर्म-पद्धति से भिन्न शक्ति या शक्तियों का प्रभाव वे शक्तियां इनके पीछे रहकर कर्म को संशोधित करती हैं तथा कर्म और कर्मफल के नियमानुसार फल का विधान करती हैं। इन पांच तत्त्वों के परस्पर-संयोगों से ही कर्म के सब निमित्त-कारण गठित होते हैं; इस प्रकार मनुष्य अपने मन, शरीर और वाणी से जो कोई करता है उसका रूप-स्वरूप और परिणाम इन्हींके द्वारा निर्धारित होते हैं। साधारणतः हमारे स्थूल व्यक्तिगत अहं को ही कर्ता समझा जाता है, पर यह समझ उस बुद्धि की मिथ्या धारणा है जिसे ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ है। देखने में तो अहं की कर्ता है, पर अहं और इसका संकल्प प्रकृति की गढ़ी हुई चीजें हैं, उसी के यंत्र हैं जिन्हे अज्ञानपूर्ण बुद्धि भ्रांतिवश हमारी आत्मा से एकमय समझ लेती है, ये मानव-कर्म के भी एकमात्र निर्धारक नहीं हैं, कर्म की दिशा और उसके फल का निर्धारण करना तो दूर रहा।


जब हम अंह से मुक्त हो जाते हैं तो हमारी पीछे की वास्तविक आत्मा, निर्व्यक्तिक और विश्वगत आत्मा सामने आ जाती है, विश्वात्मा के साथ अपने एकत्व से साक्षात्कार में वह देखती है कि विश्व -प्रकृति ही कर्म की कत्रीं है और उसके पीछे अवस्थित भगवत्संकल्प विश्व-प्रकृति का स्वामी है। जब तक हमें यह ज्ञान नहीं प्राप्त होता केवल तभी तक हम इस भाव से बंधे रहते हैं कि अहं और उसका संकल्प ही कर्ता और तभीतक हम शुभाशुभ कर्म करते तथा अपनी तामसिक, राजसिक या सात्त्विक प्रकृति की तुष्टि प्राप्त करते हैं। पंरतु एक बार जब हम उस महत्तर ज्ञान में वास करने लगते हैं तब कर्म के स्वरूप और फलाफल से आत्मा के स्वातंत्रय में कोई अंतर नहीं पड़ सकता। बाहर से वह कर्म कुरुक्षेत्र के इस महान् युद्ध और संहार जैसा घोर कर्म भी हो सकता है; परंतु मुक्त पुरुष उस संघर्ष में भाग भले ही ले और इन सब प्रजाओं का वध भले ही कर डाले फिर भी वह किसी का वध नहीं करता और अपने कर्म से बद्ध नहीं होता, क्योंकि वह कर्म सब लोकों के महेश्वर का होता है और उन्हींने अपने गुप्त सर्वशक्तिमय संकल्प में पहले से ही इन सब सेनाओं का वध कर रखा होता है। यह संहार-कर्म आवश्यक ही था-इसलिये कि मानवजाति एक अन्य सृष्टि तथा नूतन उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सके, मानों अपने अतीत कर्म की अग्नि में ही अधर्म, अत्याचार और अन्यास से छुटकारा पा सके और धर्म के राज्य की ओर आगे बढ़ सके। मुक्त पुरुष को जो काम सौंपा जाता है उसे अपनी आत्मा में विश्वात्मा के साथ एक होकर एक जीवंत यंत्र के रूप में संपन्न करता है। और यह जानते हुए कि यह सब अवश्यंभावि है, बाह्य प्रतीति से परे दृष्टिपात करते हुए वह अपने लिये नहीं वरन् परमेश्वर और मनुष्य के लिये तथा मानवीय और वैश्व व्यवस्था[1] के लिये कर्म करता है, वास्तव में वह स्वयं कर्म नहीं करता बल्कि अपने कार्यों तथा उनके परिणाम में भागवत शक्ति की उपस्थिति और प्रभाव का सचेतन रूप से अनुभव करता है। उसे इस बात का ज्ञान होता है कि पराशक्ति ही उसके मन-प्राण-शरीररूपी आधार, अधिष्ठान के अंदर एकमात्र कत्रीं के रूप में दैव-नियत कर्मों को संपत्र कर रही है, और वह दैव वास्तव में दैव नहीं कोई यांत्रिक कर्म-विधान नहीं बल्कि एक ज्ञानमय सर्वदर्शी संकल्प है जो मानव-कर्म के पीछे क्रियाशील है। यह घोर कर्म जिसकी धुरी पर गीता की संपूर्ण शिक्षा केद्रित है एक ऐसे कर्म का चरम दृष्टांत है जो देखने में अमंगल, अकुशलम् प्रतीत होता है, यद्यपि इसके बाह्य रूप के परे महान् कल्याण निहित है। भगवान् के द्वारा नियुक्त व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह जगत को इसके लक्ष्य की ओर सम्यक धारित रखने के लिये लोकसंग्रहार्थम निवैयक्तिक भाव से इस कर्म को संपत्र करे, किसी वैयक्तिक उद्देश्य या कामना से नहीं बल्कि इसलिये करे कि भगतदर्पित सेवा है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कर्म ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं है; जिस ज्ञान के आधार पर हम कर्म करते हैं। 


वह आध्यात्मिक दृष्टि से उसमें अत्यधिक अंतर ले आता है गीता कहती है कि तीन चीजें हैं जो कर्मों की मानसिक प्रेरणा का गठन करती हैं। वे हैं-हमारे संकल्प का आधारभूत ज्ञान, ज्ञान का विषय और ज्ञाता; के अंदर त्रिगुण का व्यापार सदा ही आ घुसता है। त्रिगुण के उस व्यापार के कारण ही ज्ञातवस्तु-विषयक हमारी दृष्टि में तथा ज्ञाता की अपना कर्म करने की भावना में कितना कुछ अंतर पड़ जाता है। तामसिक अज्ञानपूर्ण ज्ञान वस्तुओं को देखने का एक क्षुद्र एवं संकीर्ण,मंद या जड़ाग्रही तरीका है जिसमें कि जगत का या कृत कर्म या उसके क्षेत्र का अथवा कर्म या उसकी परिस्थितियों का वास्तविक स्वरूप जानने के लिये हमारें अंदर दृष्टि नहीं होती। तामसिक मन वास्तविक कार्य-कारण पर दृष्टिपात नहीं करता, बल्कि किसी एक क्रिया या कार्यपरिपाटी में तीव्र आसक्ति के साथ तल्लीन हो जाता है, वैयक्तिक कर्म का जो छोटा-सा अंश उसकी आंखो के सामने होता है उसे छोड़कार वह और कुछ भी नहीं देख सकता और सच पूछो तो वह यह भी नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है, बल्कि वह एक अंधे की न्याई प्राकृतिक प्रवृति को उसके कर्म के द्वारा ऐसे परिणामों को उत्पन्न करने देता है जिनके संबंध में स्वयं उसे कोई धारणा, पूर्वदृष्टि ये व्यापक समझ नहीं होती।


राजसिक ज्ञान वह है जो इन सब भूतों में अनेकानेक वस्तुओं को केवल उनके पृथक-पृथक रूप तथा नानाविध व्यापार पर ही दृष्टि रखते हुए देखता है और जो न तो एकत्व का सच्चा सूत्र ढूंढ सकता है और न अपने संकल्प तथा कर्म में यथार्थ सुसंगति स्थापित कर सकता है, बल्कि आभ्यंतरिक तथा पारिपाश्विक प्रेरणाओं और शक्तियों की पुकार के प्रत्युत्तर में अहं और कामना की प्रवृत्ति का तथा अपनी बहुमुखी अहम्मयी इच्छाशक्ति और नानाविध एवं मिश्रित प्रेरकभाव की क्रिया का अनुसरण करता है। यह ज्ञान ज्ञान के, प्रायःविश्रृंखल ज्ञान के कुछ ऐसे खंडों का अस्तव्यस्त मिश्रण होता है जिन्हें मन हमारे अर्द्ध-ज्ञान और अर्द्ध-अज्ञान के संकर में से किसी प्रकार का रास्ता बनाने के लिये बलपूर्वक संयुक्त किये होता है। अथवा यह एक चंचल राजसिक नानामुखी क्रिया होती है जिसमें न तो कोई स्थिर नियामक उच्चतर आदर्श होता है और न ही ज्योति और शक्ति का कोई स्व-अधिकृत विधान। इसके विपरीत, सात्त्विक ज्ञान सत्ता को इन सब विभाजनों के अंदर एक ही अविभाज्य अखंड सत् सब भूतभावों के अंदर एक ही अविनाशी सत्ता के रूप में देखता है; यह उसके कर्म के नियम को तथा सत्ता के समग्र उद्देश्य के साथ किसी विशिष्ट कर्म के संबध को अधिकृत करता है; यह संपूर्ण प्रक्रिया के प्रत्येक क्रम को उसके समुचित स्थान में विन्यस्त करता है। ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर यह दृष्टि जगत् में, इन सब अनेकानेक भूतों में अवस्थित एक आत्मा का, सब कर्मों के एक ही स्वामी का ज्ञान बन जाती है, यह इस ज्ञान का रूप धारण कर लेती है कि विश्व की शक्तियां भगवान की ही अभिव्यक्तियां हैं और स्वयं कर्म भी मनुष्य, उसके जीवन एवं मूल स्वभाव में होने वाली उनके परम संकल्प और ज्ञान की क्रियाएं हैं।


वैयक्तिक संकल्प पूर्ण रूप से सचेतन एवं ज्ञानदीप्त हो उठता है, आध्यात्मिक दृष्टि से प्रबुद्ध हो जाता है, एकमेव में निवास करने तथा कर्म करने और उनके परम आदेश का उत्तरोत्तर पूर्णता के साथ पालन करले लगता है, मानव-देह में उनकी ज्योति और शक्ति का एक अधिकाधिक निर्दोष यंत्र बनता जाता है। परमोच्च मुक्त कर्म की स्थिति सात्त्विक ज्ञान की इस पराकाष्ठा के द्वारा ही प्राप्त होती है। इसी प्रकार, तीन और चीजें हैं जो मिलकर किसी कर्म को धारण करती तथा संभव बनाती है, वे हैं कर्ता, करण और आचरित क्रिया। यहाँ भी गुणों का भेद ही इन तत्त्वों में से प्रत्येक का स्वरूप निर्धारित करता है। सात्त्विक मन, जो सदैव यथायथ समस्वरता और यथार्थ ज्ञान की खोज करता है, सात्त्विक मनुष्य का प्रधान करण होता है और शेष सारी मशीनरी का परिचालन करता है। कामनात्मा के द्वारा समर्पित कामनामय संकल्प राजसिक कर्मी का प्रधान करण होता है। भौतिक मन और स्थूल प्राणिक प्रकृति की अज्ञ प्रेरणा या अनालोकित प्रवृति तामसिक कर्मी की मुख्य करण-शक्ति है।


मुक्त व्यक्ति का करण होती है महत्तर आध्यात्मिक ज्योति और शक्ति जो उच्चतम सात्त्विक बृद्धि से अत्यधिक उच्चतर है, यह करण उसके अंदर अतिभौतिक केंद्र से एक व्यापक अवतरण के द्वारा कार्य करता है तथा पवित्रीकृत और ग्रहणशील मन, प्राण और शरीर को अपनी शक्ति की निर्मल प्रणालिका के रूप में प्रयुक्त करता है। जो कर्म सहज-प्रेरणाओं आवेगमयी प्रवृत्तियों तथा दृष्टिशून्य धारणाओं का यंत्रवत् अनुसरण करते हुए, विमूढ़ भ्रांत और अज्ञ मन के साथ किया जाता है और जिसमें शक्ति या सामर्थ्य का अथवा अंध दुष्प्रयुक्त प्रयत्न की क्षति एवं अपव्यय का किंवा आवेग, प्रयास या परिश्रम के पूर्ववर्ती कारण और भावी फल तथा यथायथ अवस्थाओं का कुछ भी विचार नहीं किया जाता, वह कर्म तामसिक होता है। जिस कर्म को मनुष्य कामना के वशीभूत होकर केवल कर्म और उसके प्रत्याशित फल पर ही दृष्टि जमाये हुए या अपने कर्मगत व्यक्तित्व के संबध में अहंमूलक भाव रखते हुए संपत्र करता है वह राजसिक कर्म है, वह अपरिमित प्रयत्न एवं तीव्र परिश्रम के साथ तथा अपनी काम्य वस्तु की प्राप्ति के लिये व्यक्तिगत संकल्प के अत्यंत कृच्छ आयास-प्रयास के द्वारा किया जाता है। जिस कर्म को मनुष्य शांत भाव से, करता है कि यह एक करणीय कर्म है भले ही इस लोक में या किसी अन्य लोक में उसे इसका कोई भी फल क्यों न प्राप्त हो, वह सात्त्विक कर्म है।


वह बिना असक्ति के, कर्म के उत्साहजनक या विरक्तिजनक रूप के प्रति कोई रुचि या अरुचि न रखते हुए, केवल अपनी तर्कणा और न्याय-भावना की संतुष्टि के लिये तथा विशद बुद्धि प्रदीप्त संकल्प, शुद्ध एवं निःस्वार्थ मन और उच्च एवं नित्यतृप्त आत्मा की संतुष्टि के लिये किया जाता है। सत्त्व की चरम परिणति की सीमा पर यह रूपांतरित होकर एक उच्चतम निवैंयक्तिक कर्म बन जायेगा जो पहले की तरह बुद्धि के द्वारा नहीं बल्कि हमारी अंतःस्थ आत्मा के द्वारा आदिष्ट होगा, एक ऐसा कर्म बन जायेगा जो प्रकृति के परमोच्च धर्म के द्वारा प्रेरित होगा, निम्न अंह और उसके हल्के या भारी बोझ से मुक्त होगा, यहाँ तक कि सर्वोत्तम सम्मति, उत्कृष्टम कामना, शुद्धतम व्यक्तिगत संकल्प या उच्चतम मानसिक आदर्श के सीमाबंधनों से भी विमुक्त होगा। एक विशद आध्यात्मिक आत्म-ज्ञान और प्रकाश, कर्म करने वाली निभ्रांत शक्ति का तथा जगत् के लिये और जगदीश्वर के लिये किये जाने योग्य कर्म का एक अलंघ्य अंतरंग अनुभव। तामसिक कर्ता वह है जो वस्तुतः कर्म में चित्त नहीं लगाता, बल्कि यांत्रिक मन से कर्म करता है, अथवा साधारण जनता के अत्यंत असंस्कृत विचार का अनुसरण करता है, सामान्य ढर्रे पर चलता रहता है, भ्रांति पर दृढ़ाग्रह करता है और अपने अज्ञानमय कर्म पर मुर्खतापूर्ण गर्व करता है, उसके अंदर संकीर्ण और कुटिल धूर्तता सच्ची बुद्धि का स्थान ले लेती है; जिन लोगों से उसका वास्ता पड़ता उनके प्रति, विशेषकर अपने से अधिक बुद्धिमान एवं श्रेष्ठ लोगों के प्रति उसके अंदर मूढ़ एवं धृष्टतापूर्ण घृणा होती है। जड़तापूर्ण आलस्य, मंदता दीर्घसूत्रता शिथिलता, उत्साह या सदहृदयता का अभाव उसके कर्म के लक्षण होते हैं। तामसिक मनुष्य साधारणतः कर्म करने में मंथर मंदगति और सहज-विषादी होता है, यदि कोई कार्य उसके सामर्थ्य प्रयत्न या धैर्य पर जोर डालता है तो वह उसे शीघ्र ही छोड़ देने के लिये तैयार रहता है। उधर, राजसिक कर्ता वह होता है जो कर्म में आतुरतापूर्वक आसक्त रहता है, उसे जल्दी से समाप्त करने पर तुला होता है, फल, पुरस्कार और परिणाम के लिये तीव्र रूप से उत्कंठित रहता है हृदय से लोभी और मन से अपवित्र होता है, जिन साधनों का वह प्रयोग करता है उनमें वह प्रायः उग्र,कर और पाशविक होता है जब तक उसे अभीष्ट की प्राति होती रहती है, उसकी कामन-वासना की पूर्ति तथा उसके अहं की मांगो का समर्थन होता रहता है। 

तब तक वह इस बात की कुछ परवा नहीं करता कि वह किसे हानि पहुँचाता है या दूसरों की कितनी हानि करता है। सफलता में यह हर्ष के मारे फूला नहीं समाता, विफलता में वह बुरी तरह से व्यथित और आहत होता है। सात्त्विक कर्ता इस सब आसक्ति, इस अहंता, इस उग्र बल या आवेशात्मक दुर्बलता से मुक्त होता है; उसका मन एवं इच्छाशक्ति ऐसी होती है जो सफलता से फूल नहीं जाती, विफलता से विषण्ण नहीं होती; जो कर्म करना होता है उसमें वह दृढ़ निर्वैयक्तिक संकल्प, शांत सदुद्योग या उच्च, शुद्ध, निःस्वार्थ उत्साह से पूर्ण होती है। सत्त्व की चरम रेखा पर और उसके परे यह संकल्प, उद्योग और उत्साह आध्यात्मिक तपस की स्वयं-स्फूर्त क्रिया बन जाते हैं और अंत में तो ये एक उच्चतम आत्मबल, साक्षात भगवत-शक्ति, मानव-यंत्र में दैवी शक्ति की बलशाली और दृढ़-स्थिर गति, द्रष्टृ संकल्प एवं विज्ञानमय मनीषा के स्वंय सुनिश्चित पग और इसके साथ ही मुक्त प्रकृति के कर्मों में स्वतंत्र आत्मा का विशाल आनंद बन जाते है।


सज्ञान संकल्प से युक्त बुद्धि एक मानुषी संपदा है और यह मनुष्य के अंदर जिस रूप में या जितनी मात्रा में होती है उसीके अनुसार उसमें कार्य करती है और उसीके अनुसार ही यह मनुष्य के मन की भाँति यथायथ या विकृत, आच्छत्र या आलोकित, संकीर्ण और क्षुद्र या विशाल एवं व्यापक होती है। उसकी प्रकृति की बुद्धि-शक्ति, बुद्धि ही उसके लिये कर्म का चुनाव करती है अथवा बहुधा यह उसकी जटिल सहजात प्रेरणाओं, प्रवृत्तियों, विचारों और कामनाओं के अनेक सुझावों में से किसी एक या दूसरे का समर्थन करती है तथा उसे अनुमति प्रदान करती है। यही उसके लिये युक्त या अयुक्त, कर्तव्य या अकर्तव्य धर्म या अधर्म का निर्णय करती है। और धृति अर्थात् संकल्प को दृढ़ता मानसिक प्रकृति की वह अनवच्छित्र शक्ति है जो कर्म को धारण करती तथा उसे संगति और दृढंता प्रदान करती है। यहाँ भी त्रिगुण का प्रभाव देखने में आता है। तामसिक बुद्धि एक मिथ्या, अज्ञ, तमसाच्छत्र करण है जो हमें सब चीजों को मलिन और भ्रांत प्रकाश में तथा अयथार्थ धारणाओं के कुहासे में देखने के लिये बाध्य करता है; वह वस्तुओं और व्यक्तियों के मूल्य-महत्त्व की मूर्खतापूर्वक उपेक्षा कर देती है। इस प्रकार की बुद्धि प्रकाश को अंधकार और अंधकार को प्रकाश कहती है, जो धर्म सत्य नहीं है उसे ग्रहण कर लेती तथा उसे धर्म के रूप में प्रस्थापित करती है।


जिस कार्य को करना उचित नहीं उस पर अड़ी रहती है और हमारे सामने उसका इस रूप में समर्थन करती है कि यही एकमात्र यथार्थ कर्तव्य है। इसका अज्ञान अजेय है और इसकी धृति या संकल्पगत दृढ़ता अपने अज्ञान की संतुष्टि एवं उसके जड़ अहंकार को दृढ़ता से पकड़े रहने में ही है। यह सब इसकी अंध क्रिया का पहलू है; पर साथ ही जड़ता और क्लीवता का भारी दबाव, निर्जीवता और निद्रा में आसक्ति,मानसिक परिवर्तन और उन्नति में अरुचि जो भय, शोक और विषाद हमारी प्रगति को रोकते हैं अथवा हमें हीनता, दुर्बलता और कायरता से भरे मार्गों में ही फंसाये रखते हैं उनके विषय में मन की उधेड़बुन-ये सब चीजें तामसिक संकल्प और बुद्धि के पीछे लगी रहती हैं इसके लक्षण हैं-भीरूता कातरता, छल-चातुरी, अलसता, अपने भयों, मिथ्या संदेहों, सतर्कताओं एवं कर्तव्य, विमुखताओं का और हमारी उच्चतर प्रकृति की पुकार से च्युति एवं कर्तव्य- विमुखताओं का और हमारी उच्चतर प्रकृति की पुकार से च्युति एवं पराड्मुखता का मन के द्वारा समर्थन, न्यूनतम प्रतिरोधवाली दिशा का सुरक्षित अनुसरण जिससे कि हमें अपने परिश्रम का फल अर्जित करने में कष्ट, क्लेश और संकट कम-से-कम हो- यह कहती है कि चाहे कोई भी फल न मिले या केवल कोई अति तुच्छ फल ही मिले पर कोई महान् एवं श्रेष्ठ पुरुषार्थ या कठोर एवं संकटपूर्ण परिश्रम और साहस-कार्य न करना पड़े।  


श्राजसिक बुद्धि जब भ्रांति और अशुभ के लिये ही भ्राति और अशुभ का चुनाव जान-बूझकर नहीं करती तब वह धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्य में विभेद कर तो सकती है, पर ऐसा वह यथायथ रूप से नहीं बल्कि उनके यथार्थ मानों को तोड़-मरोड़कर तथा उनके मूल्यों को निरंतर विकृत करके ही करती है और इसका कारण यह है कि इसका तर्क और संकल्प अहं का तर्क और कामना का संकल्प होते हैं और अंहता तथा कामना की ये शक्तियां अपने अहंमूलक उद्देश्य की सिद्धि के लिये सत्य और धर्म को अयथावत् निरूपित करती हैं तथा उन्हें विकृत कर देती है। जब हम अहं और कामना से मुक्त होकर केवल सत्य और उसके परिणामों से ही संबंध रखते हुए शांत, शुद्ध निःस्वार्थ मन के द्वारा धीर-स्थिर भाव से वस्तुओं पर दृष्टिपात करते हैं केवल तभी हम उन्हें सही रूप से तथा उनके यथार्थ मूल्यों सहित देखने की आशा कर सकते हैं, परंतु राजसिक संकल्प-शक्ति अपने स्वार्थ एवं सुख का और जिसे वह धर्म एवं न्याय समझती है या समझना पसंद करती है उसका अनुसरण करती हुई अपनी आसक्तिपूर्ण आकांक्षाओं एवं कामनाओं की तृप्ति पर ही अपना ध्यान दृढ़तापूर्वक लगाये रहती है।


इसकी प्रवृति सदा इसी ओर होती है कि इन चीजों को ऐसा रूप दे दे जो इसकी अपनी कामनाओं का सर्वाधिक अनुरंजन तथा समर्थन करने वाला हो और साथ ही, जो साधन इसे अपने कर्म और प्रयत्न का ईप्सित फल प्राप्त करने में सर्वोत्तम रूप से सहायता देते हों उन्हें यथार्थ या समुचित उद्घोषित करे। मानवीय बुद्धि और संकल्प के संपूर्ण असत्य और अनाचार में से तीन चैथाई का कारण यही है। प्राणिक अहं पर प्रबल आधिपत्य रखने वाला रजस् महान् पापी और सुनिश्चित कुमार्गदर्शक है। विश्व की गति, प्रवृत्ति और निवृत्ति का विधान,कर्तव्य और अकर्तव्य कर्म, जीव के लिये क्या निरापद है और क्या विपत्संकुल, किस चीज से डरने और पीछे हटने की जरूरत है और किस चीज का संकल्प के द्वारा आलिंगन करने की आवश्यकता है, कौन-सी वस्तु मनुष्य की आत्मा को बांधती है और कौन उसे बधंन से मुक्त करती है-इन सबको सात्त्विक बुद्धि इनके यथार्थ स्थान, यथार्थ रूप और यथार्थ मान में देखती है।


अपने प्रकाश की मा़त्रा के अनुसार उच्चतम पुरुष एक आत्मा की ओर अपने ऊर्ध्वमुख आरोहण में यह विकास की जिस अवस्था तक पहुँची है उसके अनुसार यह अपने सचेतन संकल्प की दृढता के द्वारा इन्हीं चीजों का अनुसरण या वर्जन करती है। अभीप्साशील बुद्धि जब साधारण तर्कबुद्धि एवं मानसिक संकल्प से परे की वस्तुओं पर स्थिर रूप से एकाग्र हो जाती है, शिखरों की ओर उन्मुख रहती है, इन्द्रियों और प्राण के स्थिर नियंत्रण, मनुष्य की उच्चतम आत्मा, विश्वमय भगवान् एवं विश्वातीत आत्म-तत्त्व के साथ योग-युक्त होने में प्रवृत्त रहती है तब इसकी उस उच्च धृति के द्वारा सात्त्विक बुद्धि की चरम परिणति उपलब्ध होती है। सत्त्वगुण के द्वारा वहाँ पहुँचने पर ही मनुष्य गुणों को पार कर सकता है, मन और उसकी संकल्प-शक्ति एवं बुद्धि की सीमाओं के परे आरोहण कर सकता है और स्वयं सत्त्व भी उस तत्त्व में विलीन हो सकता है जो गुणों के ऊपर तथा इस यंत्रात्मक प्रकृति के परे है। वहाँ जीव ज्योति में सुप्रतिष्ठित तथा आत्मा अध्यात्म-सत्ता एवं भगवान् के साथ अविचल एकत्व के पद पर अधिरूढ़ हो जाता है। उस शिखर पर पहुँचकर हम अपने अंगो में दिव्य क्रिया की मुक्त स्वच्छंदता के साथ प्रकृति को परिचालित करने का भार परम देव के ऊपर छोड़ सकते हैं: क्योंकि वहाँ न तो कोई ऐसी अयुक्त या अस्त-व्यस्त क्रिया होती है और न ही भ्रांति या अक्षमता का कोई ऐसा तत्त्व होता है जो आत्मा की ज्योतिर्मय सिद्धि एवं शक्ति को तमसाच्छन्न या विकृत कर सके।


इन सब निम्न अवस्थाओं, निम्न धर्मों का हमपर काई प्रभुत्व नहीं रहता; अनंत भगवान् मुक्त पुरुष के अंदर कर्म करते हैं, वहाँ मुक्त आत्मा के अमर सत्य और धर्म के सिवाय और कोई धर्म नहीं होता, कोई कर्म या किसी प्रकार का बंधन नहीं होता। सात्त्विक मन और प्रकृति के विशिष्ट गुण होते हैं सुसंगति और व्यवस्था-अचंचल सुख, स्थिर और प्रसादपूर्ण संतोष, आभ्यंतरिक शांति और निवृत्ति। निःसंदेह, सुख ही वह एकमात्र वस्तु है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारी मानवप्रकृति का सार्वजनीन लक्ष्य है,-भले ही वह सुख हो या उसका आभास या उसकी कोई प्रतिकृति, मन संकल्प-शक्ति प्राणिक वासना या देह का कोई ऐश-आराम भोग या तृप्ति। दुःख एक ऐसा अनुभव है जिसे हमारी प्रकृति अनिच्छापूर्वक, विश्व-प्रकृति की एक आवश्यक, एवं एक अपरिहार्य घटना के रूप में स्वीकार करने को बाध्य होती है, या फिर वह इसे हमारी अभिलषित वस्तु के साधन के रूप में स्वेच्छापूर्वक भी अंगीकार करती है, पर वैसे दुःख कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे कोई स्वयं दुःख के लिये ही चाहता हो,-उस अवस्था की बात दूसरी है जबकि कोई विकृत चित के साथ इसकी चाहना करता है अथवा, इससे उत्पत्र होने वाले उत्कट सुख या प्रचंड बल का कुछ स्पर्श पाने के लिये दुःख भोगने का तीव्र उत्साह रखते हुए, एक काम्य वस्तु के रूप में इसकी कामना करता है।


परंतु हमारी प्रकृति में जिस गुण की प्रधानता होती है उसके अनुसार सुख या भोग-विलास भी अनेक प्रकार का होता है। इस प्रकार तामसिक मन अपनी अलसता और जड़ता में, तंद्रा एवं निद्रा में और अंधता एवं भ्रांति में सुसंतुष्ट रह सकता है। प्रकृति ने इसे मूढता और अज्ञता में गुहा के क्षीण आलोक, जड़ संतोष क्षुद्र या निकृष्ट हर्षों एवं स्थूल सुखों में ही संतृप्त रहने का विशेष सौभाग्य प्रदान किया है। इस सुख-संतोष के आरंभ में भी मोह है और परिणाम में भी, पर फिर भी गुहा के निवासी को अपनी मोह-भ्रांतियों में एक तामसिक सुख प्राप्त रहता है जो किसी भी प्रकार सराहनीय न होता हुआ भी उसके लिये यथेष्ट होता है। तमस और अज्ञान पर आधारित एक तामसिक सुख का भी अस्तित्व है। राजसिक मनुष्य का मन एक अधिक उग्र और मादक प्याले का रसास्वादन करता है; शरीर और इन्द्रियों का तथा इनिद्रयासक्त या प्रचंड-गतिमय संकल्प एवं बुद्धि का तीव्र चंचल एवं सक्रिय सुख ही उसके लिये जीवन का समस्त आनंद और जीवन धारण का वास्तविक अर्थ होता है।


प्रथम स्पर्श में तो यह सुख अधरों के लिये सुधामय होता है, परंतु प्याले के तल में एक प्रच्छन्न विष रखा होता है और पीने के बाद इसका परिणाम होता है निराशा की कटुता, वितृष्णा, क्लांति, विद्रोह, विराग, पाप, यातना, हानि अनित्यता। और ऐसा होना अनिवार्य ही है क्योंकि इन सुखो के बाह्य रूप वे चीजें नहीं हैं जिन्हे हमारी अंतरस्थ आत्मा सचमुच में जीवन से प्राप्त करना चाहती है; बाह्म रूप नश्वरता के पीछे और परे भी कोई चीज है; कोई चिरस्थायी, संतोषप्रद और स्वतःपर्याप्त वस्तु भी है। अतएव सात्त्विक प्रकृति जिस चीज को प्राप्त करना चाहती है वह है उच्चतर मन तथा अंतरात्मा की परितृप्ति और जब वह एक बार अपनी खोज का यह बृहत् लक्ष्य प्राप्त कर लेती है तो अंतरात्मा का शुद्ध और निर्मल सुख,पूर्णता की एक अवस्था, स्थायी शांति और निर्वृति प्राप्त हो जाती है। यह अध्यात्म। सुख बाह्म वस्तुओं पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह निर्भर करता है केवल हमारे अपने ऊपर और साथ ही हमारे अंदर जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ तथा अंतरतम है उसके प्रस्फुटन के ऊपर। परंतु शुरू-शुरू में यह सुख हमारी सामान्य संपदा नहीं होता; इसे आत्म-साधन, आत्मिक पुरुषार्थ और उच्च एवं कठोर प्रयास के द्वारा अर्जित करना होता है।


आरंभ में इसका अर्थ होता है अभ्यस्त सुख की अत्यधिक हानि, बहुत अधिक कष्ट और संघर्ष हमारी प्रकृति के मंथन से, शक्तियों के दुःखदायी संघर्ष से उत्पत्र हलाहल, हमारे अंगो की दुष्प्रवृत्ति या प्राणिक चेष्टाओं के आग्रह के कारण परिवर्तन के प्रति अत्यधिक विद्रोह और दुष्प्रवृत्ति या प्राणिक चेष्टाओं के आग्रह के कारण परिवर्तन के प्रति अत्यधिक विद्रोह और विरोध, परंतु अंत में इस कटु गरल के स्थान पर अमृतत्त्व की सुधा समुद्भूत होती है और जैसे-जैसे हम उच्चतर आध्यात्मिक प्रकृति की ओर आरोहण करते जाते हैं वैसे-वैसे हमारे दुःख का अंत होता जाता है, शोक-संताप का अनायास ही लोप होता जाता है। यही वह निरतिशय सुख है जो सात्त्विक साधना की परिणति की चरम चूड़ा या सीमा पर हमारे ऊपर अवतरित होता है। सात्त्विक प्रकृति का आत्म-अतिक्रमण केवल तभी संपन्न होता है जब हम महान् पर अभी भी अपे़क्षाकृत हीन सात्त्विक सुख से परे, मानसिक ज्ञान औैर पुण्य एवं शांति से मिलने वाले सुखों से परे जाकर आत्मा की शाश्वत शांति और दिव्य एकत्व का आध्यात्मिक परमानंद प्राप्त कर लेते हैं। वह आध्यात्मिक सुख तब सात्त्विक सुख न रहकर परिपूर्ण आनंद हो जाता है। आनंद ही वह गुप्त तत्त्व है जिससे सब वस्तुएं उत्पत्र हुई हैं जिसके द्वारा सब वस्तुएं जीवित रहती हैं और जिसकी ओर वे अपनी आध्यात्मिक परिणति के समय उत्रीत हो सकती हैं। उस आंनद की उपलब्धि केवल तभी हो सकती है जब मुक्त व्यक्ति अहंकार और उसकी कामनाओं से मुक्त होकर, अंततोगत्वा अपने उच्चतम आत्मा से, सर्व भूतों से तथा परमेश्वर से एकीभूत होकर अध्यात्मसत्ता के पूर्णतम आनंद में निवास करता है।




मन और कर्म



त्रिगुण के संबंध में, तथा उच्चतम सात्त्विक साधना अपनी परिणति के समय अपने को अतिक्रम करके जिस त्रिगुणातीत स्थिति की ओर ले जाती है उसके संबध में यह जो मुलभूत विचार है उसके प्रकाश में गीता ने कर्म का जो विश्लेषण किया है वह अभी पूर्ण नहीं हुआ है। किसी स्वयं-विकसनशील कर्म के पीछे, विशेषकर कर्मों के द्वारा जीव को अपना पूर्ण अध्यात्म-विकास साधित करने के पीछे जो प्रधान तत्त्व,जो अपरिहार्य शक्ति विद्यमान रहती है वह है श्रद्धा-जिस सत्य के हमें दर्शन हुए हैं उसपर विश्वास करने, स्वयं वही बन जाने, उसे जानने, जीवन में उतारने तथा कार्य-रूप में परिणत करने का संकल्प। परंतु इसके साथ ही कुछ ऐसी मानसिक शक्तियां, कुछ करणोपकरण एवं अवस्थाऐं भी हैं जो कर्म के वेग, दिशा तथा स्वरूप का निर्धारण करने में सहायक होती हैं और अतएव वे इस आभ्यंतरिक साधना के पूर्ण रूप से समझने में महत्त्व रखती हैं। गीता पहले इन चीजों का संक्षिप्त मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती है और फिर वह अपने उस महान् चरम सिद्धांत की ओर अग्रसर होती है जो उसकी संपूर्ण शिक्षा की परिणति है, एक उच्चतम रहस्य है, आध्यात्मिक रूप से सब धर्मों के ऊपर उठ जाने तथा दिव्य परात्परता लाभ करने का रहस्य है।


हमें उसके संक्षिप्त वर्णनों का अनुसरण करते हुए इन चीजों का निरूपण संक्षेप से ही करना होगा और विस्तार केवल उतना ही करना होगा जितना प्रधान विचार को पूर्ण रूप से हृदयंगम करने के लिये आवश्यक हो; क्योंकि ये गौण वस्तुएं हैं परंतु फिर भी प्रत्येक अपने स्थान में तथा अपने प्रयोजन के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। त्रिगुण के विशिष्ट सांचे में ढली हुई इनकी जो क्रिया होती है उसी को हमें मूल के संक्षिप्त वर्णनों में से बाहर निकालकर प्रकट करना है; गुणों से परे इनमें से कियी की या प्रत्येक की परिणति का क्या स्वरूप होगा यह सामान्य त्रिगुणातीत अवस्था के स्वरूप से स्वयमेव स्पष्ट हो जायेगा। विषय के इस अंश की चर्चा अर्जुन के एक अंतिम प्रश्र के द्वारा आरंभ की गयी है जिसमें वह पूछता है कि संन्यास और त्याग का क्या तत्त्व है तथा इनमें भेद क्या है। गीता ने जो इस महत्त्वपूर्ण भेद का राग पुनः-पुनः अलापा है, इसपर जो बारंबार बल दिया गया है उसका औचित्य परवर्ती भारतीय मन के उत्तरकालीन इतिहास के द्वारा यथेष्ट रूप से प्रमाणित होता है, क्योंकि वहाँ हम देखते हैं कि भारतीय मन इन दो अत्यंत विभिन्न चीजों में लगातार गड़बड़ घोटाला करता आया है और गीता ने जिस भी प्रकार के कर्म की शिक्षा दी है।


उसे इस रूप में नीचा दिखाने की इसकी प्रबल प्रवृत्ति रही है कि वह, अधिक-से-अधिक संन्यास के परम नैष्कर्म्य का प्रारंभिक पग मात्र है। सच पूछो तो, जब लोग त्याग की बात करते हैं तब वे इस शब्द का जो अर्थ समझते हैं या कम-से-कम इसके जिस अर्थ पर वे बल देते हैं, वह सदा जगत् का बाह्य त्याग ही होता है, जबकि गीता का विचार इसके नितांत विपरीत है और वह यह कि वास्तविक त्याग की भित्ति है जगत् में कर्म करना और जीवन-यापन करना न कि जगत् से भागकर मठ-मंदिर, गुहा-कंदरा या गिरि-श्रंग की शरण लेना। वास्तविक त्याग है कामना को त्यागकर कर्म करना और वास्तविक संन्यास भी यही है। निःसंदेह, सात्त्विक आत्म-साधना की मोक्षजनक क्रिया त्याग की भावना से ओतप्रोत होनी चाहिये-यह एक अपरिहार्य तत्त्व हैः परंतु वह त्याग क्या है और त्याग की आत्मिक भावना कैसी होनी चाहिये? जगत् में कर्म का त्याग नहीं, कोई बाह्य तपस्या या भोग के ऊपरी त्याग का कोई बाह्य आडंबर नहीं, बल्कि प्राणिक कामना और अहं का वर्जन वा त्याग, वासनात्मा, अहं-नियंत्रित मन तथा राजसिक प्राण-प्रकृति के पृथक् वैयक्तिक जीवन का पूर्ण विवर्जन, संन्यास। योग के शिखरों पर आरोहण करने के लिये यही सच्ची शर्त है, भले ही वह आरोहण निर्व्यक्तिक आत्मा एवं ब्राह्मी एकता के द्वारा हो या विश्वव्यापी वासुदेव के द्वारा हो अथवा, आभ्यंतरिक रूप से, परम पुरुषोत्तम के भीतर हो। अधिक रूढ़ एवं शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाये तो मनीषिगण की प्रचलित भाषा में संन्यास का अर्थ है कर्मों का भौतिक संन्यास या भौतिक परिवर्जनः मानसिक और आध्यातिमक त्याग को ज्ञानी जनों ने त्याग का नाम दिया है, अर्थात् त्याग का मतलब है अपने कर्मों के फल के प्रति, स्वयं कर्म के प्रति या उसके व्यक्तिगत आरंभ या उसकी राजसिक प्रेरणा के प्रति समस्त आसक्ति का पूर्ण परित्याग-गीता के अनुसार संन्यास और त्याग में यही भेद है। उस अर्थ में संन्यास नहीं त्याग ही श्रेयस्कर मार्ग है। जिस चीज का त्याग करने की आवश्यकता है वह काम्य कर्म नहीं बल्कि कामना है जो कर्म को वह काम्य या कामनात्मक रूप दे देती है। कर्मों के प्रभु के विधान में कार्य का फल प्राप्त हो सकता है। किंतु कर्म करने के पुरस्कार या उसकी शर्त के रूप में फल की कोई अहंपूर्ण मांग बिलकुल नहीं होनी चाहिये। 


अथवा यह भी हो सकता है कि फल बिलकुल मिले ही नहीं और फिर भी हमें एक कर्तव्य कर्म के रूप कर्म करना ही चाहिये, एक ऐसे कर्म के रूप में जिसकी मांग हमारे अंतःस्थ प्रभु हमसे करते हैं। सफलता और विफलता उन्हीं के हाथ में है और इन्हें वे अपने सर्वज्ञ संकल्प तथा प्रयोजन के अनुसार निर्धारित करेगें। इसमें संदेह नहीं कि अंत में कर्म का, कर्म मात्र का त्याग करना होगा, परंतु वह त्याग बाह्य रूप में निवृत्ति निश्चलता या निष्क्रियता के द्वारा नहीं करना होगा; बल्कि आध्यात्मिक रूप में अपनी सत्ता के उन प्रभु के प्रति करना होगा जिनकी शक्ति से कोई भी कर्म निष्पत्र किया जा सकता है। हम ही कर्ता हैं,इस मिथ्या विचार का त्याग करना होगा; क्योंकि वास्तव में विश्व ऊर्जा ही हमारे व्यक्तित्व और अहंभाव के द्वारा कर्म करती है। गीता की शिक्षा के अनुसार, अपने सब कर्मों को आध्यात्मिक रूप से प्रभु तथा उनकी शक्ति को सौंप देना ही सच्चा संन्यास है।


फिर भी यह प्रश्र उठता है कि हमें कौन-कौन से कर्म करने चाहिये? जो लोग संपूर्ण बाह्य त्याग का पक्ष लेते हैं वे भी इस गहन विषय में एकमत नहीं। कुछ लोग यह कहेंगे कि सभी कर्मों को हमें अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकना चाहिये, मानों ऐसा करना संभव नहीं; न ही मुक्ति इस बात में हो सकती है कि हम अपनी सक्रिय सत्ता को समाधि के द्वारा लोष्ट और पाषाण की-सी निर्जीव निश्चलता में परिणत कर दें। समाधि की निश्चल-नीरवता से भी इस समस्या का समाधान नहीं होता, क्योंकि ज्यों ही शरीर के अंदर फिर से सांस चलने लगता है, त्यों ही हम एक बार पुनःकर्म-क्षेत्र में आ पड़ते हैं और आध्यात्मिक सुषुप्ति के द्वारा हमने जो यह मुक्ति प्राप्त की थी उसके शिखरों से एक बार फिर नीचे लुढ़क आते हैं। परंतु सच्ची मुक्ति, अहं के आभ्यंतरिक त्याग तथा पुरुषोतम के साथ ऐक्य-लाभ के द्वारा उपलब्ध मुक्ति हर प्रकार की अवस्था में स्थिर बनी रहती है, वह इस लोक में या इसके बाहर किंवा समस्त लोकों में या समस्त लोकों के बाहर स्थिर बनी रहती है, वह स्वयं-स्थित है, सर्वथा वर्तमानोऽपि, वह नैष्कर्म्य या कर्म पर निर्भर नहीं करती। तो फिर वे कर्म कौन से हैं जो हमें करने ही होंगे?



त्रिगुण और कर्म

 


प्रत्येक मनुष्य की श्रद्धा वहीं रूपरंग और गुंण धारण कर लेती है, जो उसे उसकी सत्ता के उपादान, उसके मूल स्वभाव, उसकी सत्ता की नैसर्गिक शक्ति के द्वारा प्रदान किया जाता है। और इसके बाद एक अदभुत पंक्ति आती है जिसमें गीता हमें बताती है कि यह पुरुष, मनुष्य के अंदर विद्यमान यह जीव मानों जगत की सत्ता पर विश्वास। उसके अंदर का वह संकल्प, वह श्रद्धा या मज्जगत विश्वास कोई भी क्यों न हो, वह वही है और वही वह है। यदि हम इस अर्थगर्भित सूक्ति पर कुछ सूक्ष्मता से विचार करें तो हमें पता चलेगा कि इस एक ही पंक्ति के अंदर गिने-चुने बलपूर्ण शब्दों आधुनिक प्रयोगवाद के सिद्धांत प्रायः सारी ही परिकल्पना अंतर्निहित है। क्योंकि यदि मनुष्य या उसकी अंतरात्मा अपनी अंतरस्थ श्रद्धा से बनी हुई है (श्रद्धा यहाँ अपने उपर्युक्त गंभीरतम अर्थ में अभिप्रेत है), तो इसका यह मतलब हुआ कि वह जिस सत्य के दर्शन करता है और जिसे वह जीवन में उतारना चाहता है, उसके लिये वही अपनी सत्ता का, अपने निज स्वरूप का सत्य है; उस सत्य की सृष्टि उसीने की है या कर रहा है और उसके लिये उसके सिवा और कोई सत्य वास्तविक नहीं हो सकता।


यह सत्य उसके आंतर और बाह्य कर्म का तथ्य है, उसकी संभूति का, अंतरात्मा की क्रियाशक्ति का तथ्य है, उसके अंदर जो वस्तु नित्य-अपरिवर्तनीय है उसका तथ्य नहीं। वह आज जो कुछ भी है उसकी अपनी प्रकृति के किसी अतीत संकल्प के द्वारा गठित हुआ है। इस समय उसके अंदर कुछ जानने, विश्वास करने तथा अपनी बुद्धि और प्राणशक्ति में वही कुछ बन उठने का जो संकल्प है वह उसके अतीत संकल्प को संपुष्ट करता तथा चालू रखता है। उसकी मूल सत्ता तक में भविष्य में उसी नये रूप में परिणत होता जायेगा। हम मन और प्राण के अपने निज कर्म में सत्ता के एक अपने ही सत्य की सृष्टि करते हैं, यह इस बात को कहने का एक दूसरा ढंग है कि हम आप ही अपने स्वरूप की सृष्टि करते हैं, हम आप ही अपने निर्माता हैं। परंतु यह अत्यंत स्पष्ट है कि यह सत्य का केवल एक पक्ष है, और सभी एकपक्षीय स्थापनाएं विचारक के लिये संदेह का विषय होती हैं। हमारा अपना व्यक्तित्व जो कुछ है या जिस भी चीज की यह सृष्टि करता है, सत्य केवल वही नहीं है।


वह सब तो केवल हमारी संभूति का सत्य है, एक अत्यंत विस्तृत आयतन वाली गति में एक विशिष्ट बिंदु या रेखा है। हमारे व्यक्तित्व के परे, सर्वप्रथम एक विश्वाव्यापी सत्ता तथा एक विश्वव्यापी संभूति है, जिसकी एक क्षुद्र गति मात्र हमारी सत्ता और संभूति; और उसके भी परे है सनातन सत जिसमें से यह समस्त संभूति या भूतभाव उत्पन्न होता है और जो उसकी संभाव्य शक्तियों, इसके उपादानों, मूल प्रेरक भावों और चरम उद्देश्यों का स्त्रोत है। निःसंदेह, हम यह कह सकते हैं कि समस्त संभूति विश्व-चेतना की एक क्रिया मात्र है, माया है, संभूत होने के संकल्प के द्वारा सृष्ट हुई है और इसके अतिरिक्त यदि कोई और सद्वस्तु है तो वह है केवल एक शुद्ध सनातन सत्ता जो चेतना से परे है, निराकार, अनिरूक्त एवं अनिर्वचनीय। मायावादी का अद्वैत जिस दृष्टिकोण का अपनाता है वह सद्वस्तुतः यही है; व्यावहारिक सत्य, तथा सृष्टिकारी माया के दूसरी ओर विद्यमान निर्विशेष, केवल, निरपेक्ष सत्ता के बीच वह जो भेद करता है उसका आशय भी यही है।


उसके मन के निकट व्यावहारिक सत्य भ्रमात्मक है, या कम-से-कम यह केवल अस्थायी तथा आंशिक रूप में सत्य है जबकि आधुनिक प्रयोगवाद इसे वास्तविक सत्य मानता है या कम-से-कम वह इसे एकमात्र स्वीकार्य सत्य मानता है क्योंकि केवल यही एक ऐसा सत्य है जिसे हम व्यवहार में ला सकते तथा जान सकते हैं। परंतु गीता के लिये निरपेक्ष ब्रह्म भी परम पुरुष है, और पुरुष सदैव चिन्मय आत्मा है, यद्यपि उसकी सर्वोच्च चेतना, या यूं कहें कि उसकी अतिचेतना-और इसी प्रकार हम कर सकते हैं कि उसकी निश्चेतना नामक निम्नतम चेतना-हमारी उस मानसिक चेतना से अत्यंत भिन्न वस्तु है जिसे हम एकांतिक रूप से चेतना का नाम देने के अभ्यस्त हैं।


उस उच्चतम अतिचेतना में अमरत्व का एक सर्वोच्च सत्य और धर्म है, सत्ता की एक महत्तम दिव्य सरणि है जो कि सनातन और अंनत सत्ता की एक धारा है। जीवन की वह सनातन सरणि और सत्ता का वह दिव्य भाव पुरुषोत्तम की नित्य सत्ता में पहले से ही विद्यमान है। परंतु अब हम उसे योग के द्वारा यहाँ अपनी संभूति में भी सृष्ट करने का यत्न कर रहे हैं; हम भगवान बनने का यत्न कर रहे हैं जैसे वे हैं वैसे ही बनने के लिये, मदभाव के लिये यत्न कर रहे हैं।


यह भी श्रद्धा पर निर्भर है। अपनी सचेतन मूल-सत्ता की एक क्रिया तथा उसके सत्य में विश्वास के द्वारा, उसे जीवन में चरितार्थ करने या वही बन जाने के अंतरतम संकल्प के द्वारा ही हम उसे प्राप्त करते हैं; पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह हमसे परे पहले से ही विद्यमान नहीं है। जब तक हम उसे देख नहीं लेते तथा अपने-आपको नये सिरे से उसके रूप में गढ़ नहीं लेते तब तक वह हमारे बाह्य मन के लिये भले ही अस्तित्व न रखे, तो भी सनातन के अंदर विद्यमान है ही और हम यहाँ तक कह सकते हैं कि हमारी अपनी निगूढ़ आत्मा में भी वह पहले से ही विद्यमान है, क्योंकि हममें भी, हमारी गहराइयों में भी पुरुषोत्तम सदा-सर्वदा विद्यमान है। हमारा उसमें विकसित होना, हमारा उसे सृष्ट सनातन के चिन्मय सत्तत्त्व से प्रादुर्भूत होती है; अतएव वास्तव में यह उनकी एक अभिव्यक्ति है तथा मूल सर्जनकारी चैतन्य, चित-शक्ति में विद्यमान एक श्रद्धा, स्वीकृति एवं संभूत होने के एक संकल्प के द्वारा ही उद्‌भूत होती है।


परंतु इस समय हमारा मतलब इस दार्शनिक प्रश्न से नहीं बल्कि इस बात से है कि हमारी सत्ता के इस संकल्प या श्रद्धा का दिव्य प्रकृति की पूर्णता में विकसित होने की हमारी संभावना के साथ क्या सम्बंध है। कुछ भी क्यो न हों, यह शक्ति, यह श्रद्धा ही हमारा आधार है। जब हम अपनी कामनाओं के अनुसार जीवन यापन करते हैं, श्रद्धा की ही आग्रहपूर्ण क्रिया होती है और वह श्रद्धा अधिकांश में हमारी प्राणिक और भौतिक, तामसिक और राजसिक प्रकृति से सम्बंध रखती है। और जब हम शास्त्र के अनुसार अस्तित्व रखने, जीवन-यापन करने और कर्म करने की चेष्टा करते हैं तो हम जिस श्रद्धा की आग्रहपूर्ण क्रिया के द्वारा अग्रसर होते हैं वह (यदि वह गतानुगतिक विश्वासमात्र न हो) उस सात्त्विक प्रवृत्ति से सम्बंध रखती है जो हमारे राजिसक और तामसिक करणों पर अपने को लादने के लिये निरंतर प्रयास कर रही है। जब हम इन दोनों चीजों को छोड़ देते हैं और किसी आदर्श के अनुसार या सत्य की किसी अनूठी परिकल्पना के अनुसार रहने, जीवन-यापन करने और कर्म करने का यत्न करते हैं जिसे स्वयं हमने ही अविष्कृत किया है या जिसे हमने व्यक्तिगत रूप से स्वीकार किया है, तो यह भी श्रद्धा की एक आग्रहपूर्ण क्रिया है।


इस प्रकार की श्रद्धा हमारे प्रत्येक विचार संकल्प भाव और कर्म पर निरंतर नियंत्रण रखने वाले इन तीन गुणों में से किसी एक के अधीन हो सकती है। और फिर जब हम दिव्य प्रकृति के अनुसार रहने-सहने, जीने और कर्म करने का यत्न करते हैं, गीता के अनुसार यह श्रद्धा उस सात्त्विक प्रकृति की श्रद्धा होनी चाहिये जो अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच चुकी हो तथा अपनी कटी-छंटी सीमाओं को पार करने की तैयारी कर रही हो। परंतु इन सब चीजों मे तथा इनमें से प्रत्येक में प्रकृति की कोई गति या अवस्थान्तर अंतनिहित है, ये सब किसी आंतर या बाह्य दोनों क्रियाओं को मानकर चलती है। तो फिर इस क्रिया का स्वरूप क्या होगा? गीता कहती है कि हमारे कर्तव्य कर्म के तीन मुख्य अंग है, यज्ञ, दान, तप। क्योंकि जब अर्जुन पूछता है कि बाह्य और आंतर त्याग में, संन्यास और त्याग में क्या भेद है तब श्रीकृष्ण आग्रह करते है कि वे तीन कर्म कभी नहीं छोड़ने चाहियें ये तो बराबर करने ही चाहियें क्योंकि ये हमारे कर्तव्य कर्म हैं और ये ज्ञानी लोंगो को पवित्र करते हैं।


दूसरे शब्दों में ये कर्म हमारी पूर्णता के साधन हैं। पर साथ ही यह बात भी ठीक है कि अज्ञानी जन उन्हें अज्ञानपूर्वक या अपूर्ण ज्ञान के साथ भी कर सकते हैं। समस्त गतिमय क्रिया को मूलतः इन तीन अंगो में विश्लेषित किया जा सकता हैं। क्योकि प्रकृति की समस्त गतिमय क्रिया समस्त प्रवृति के अंदर एक ऐच्छिक या अनैच्छिक तपस्या अंतर्भूत रहती है, हमारी शक्तियों या अक्षमताओं की या किसी एक क्षमता की तेजस्विता और एकाग्रता रहती है जो हमें कुछ उपलब्ध या अर्जित करने या कुछ बनने में सहायता देती है, वही तप या तपस है। समस्त क्रिया में, जो कुछ हम हैं या जो कुछ हमारे पास है उसका दान अर्थात एक प्रकार का व्यय अंतर्निहित रहता है जो उस उपलब्धि का, उस अर्जन या संभूति का मूल्य होता है, वही दान है।


समस्त क्रिया में आधिभौतिक शक्तियों या विश्वशक्तियों के प्रति या हमारे कर्मों के परम प्रभु के प्रति एक यज्ञ भी अंतर्गत होता है प्रश्न यह है कि क्या हम ये कार्य अचेतन एवं निष्क्रिय रूप से करते हैं, अथवा अधिक-से-अधिक एक बुद्धिहीन, अज्ञ, अर्धचेतन संकल्प के साथ, या एक ऐसी शक्ति के साथ जो अज्ञानयुक्त या विकृतरूप से चेतन होती है या एक ऐसे संकल्प के साथ जो विज्ञ रूप से चेतन तथा ज्ञान पर सुप्रतिष्ठित होता है।


दूसरे शब्दो में, प्रश्न यह है कि क्या हमारा यज्ञ, दान और तप तामसिक प्रकति के हैं या राजसिक या सात्त्विक प्रकृति के कारण, यहाँ की सभी वस्तुए, भौतिक वस्तुओं समेत, इन्हीं तीन प्रकार की हैं। उदाहरणार्थ, गीता हमें बताती है कि हमारा भोजन अपने गुण के अनुसार तथा शरीर पर होने वाले अपने प्रभाव के अनुसार सात्त्विक, राजसिक या तामसिक होता है। हमारी मानसिक और स्थूल देह में जो सात्त्विक प्रकृति होती है वह स्वभावत: उन चीजों की ओर मुड़ती है जो आयु, सत्त्व और बल की वृद्धि करती हैं, मानसिक, प्राणिक और शारीरिक बल को एक साथ बढ़ाती हैं तथा मन, प्राण और शरीर के सुख संतोष और प्रसन्नता की वृद्धि करती हैं, जो रसपूर्ण स्निग्ध, स्थिर और हृद्य होती हैं। राजसिक प्रकृति स्वभावतः ही ऐसा आहार पसंद करती है जो अतीव खट्टा, कडुआ, गर्म, तीखा, चरपरा, रूखा, तेज और जलाने वाला होता है; ऐसे खाद्य पदार्थ पसंद करती है, जो मन और देह के अस्वास्थ्य तथा दुःख और शोक को बढ़ाते हैं।


तामसिक प्रकृति ठंडे, अपवित्र, बासी गले-सडे़ या निःस्वाद भोजन में विकृत रस लेती है, अथवा यहाँ तक कि पशुओं के समान दूसरों के उच्छिष्ट किये हुऐ पदार्थों को भी ग्रहण करती है। इन तीन गुणों की क्रिया सर्वव्यापी है। दूसरे छोर पर ये गुण मन और आत्मा की चीजों पर भी, यज्ञ दान और तपस्या पर भी इसी प्रकार लागू होते हैः प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीकवाद ने इन तीन चीजों के जिन रूपों की परिकल्पना की थी उन्हीं प्रचलित रूपों कें अनुसार गीता इनमें से प्रत्येक के तीन प्रकार के विभाग करती है। परंतु, स्वयं गीता यज्ञ के विचार को जो अत्यंत व्यापक अर्थ प्रदान करती है उसे स्मरण रखते हुए, हम सहज ही इन संकेतों के स्थूल अर्थ को विस्तृत करके इनका एक उदारतर मर्म प्रकाशित कर सकते हैं। इस प्रयोजन के लिये इन्हें उल्टे क्रम में अर्थात तम, रस, सत्त्व के क्रम में लेना सुविधाजनक होगा, क्योंकि हम इस विषय पर विचार कर रहे हैं कि किस प्रकार हम अपनी निम्न प्रकृति से बाहर निकलकर एक विशेष प्रकार की सात्त्विक परिणति तथा आत्म-अतिक्रमण में से होते हुए त्रिगुण के परे दिव्य प्रकृति और कर्म में आरोहण करते हैं। जो कर्म बिना श्रद्धा के किया जाता है, अर्थात इस प्रकार किया जाता है कि उसमें हमारा कोई पूर्ण सचेतन विचार, स्वीकृति एवं संकल्प नहीं होता और फिर भी प्रकृति जिसे हमसे बरबस करवाती है वह तामसिक यज्ञ है।


यह यंत्रवत किया जाता है, क्योंकि जीवनधारण के लिये उसे करना आवश्यक होता है, क्योंकि वह हमारे सामने आ उपस्थित होता है, और क्योंकि दूसरे लोग उसे करते हैं, अथवा वह इनसे भी बड़ी किसी और ऐसी कठिनाई से बचने के लिये किया जाता है जो उसे न करने से पैदा हो सकती है, या फिर वह किसी अन्य ही तामसिक हेतु से किया जाता है और यदि हमारे अंदर इस प्रकार का स्वभाव परिपूर्ण रूप से हो तो यह भी संभव है कि हम वह कार्य असावधानतापूर्वक, उदासीन भाव से तथा गलत ढ़ग से करें। वह विधि के अनुसार अर्थात शास्त्र के यथार्थ विधान के अनुसार नहीं किया जायेगा, उसकी क्रिया-प्रक्रिया उस यथायथ विधि के अनुसार परिचालित नहीं होगी जो जीवन की कला और विधान के द्वारा तथा करणीय कर्म के सच्चे विज्ञान के द्वारा निर्धारित है। उस यज्ञ में हव्य-दान नहीं किया जायेगा-और भारतीय कर्मकांड में यह क्रिया एक साहाय्यप्रद दान का प्रतीक है, यह दान-तत्त्व वास्तविक यज्ञ कहलाने वाले प्रत्येक कर्म के अंदर निहित है, दूसरों को दिया जाने वाला यह दान एक अनिवार्य वस्तु है, यह दूसरों की एवं जगत की फलप्रद सहायता है जिसके बिना हमारा कर्म एक सर्वथा स्वार्थपूर्ण वस्तु बन जाता है और वह एकसूत्रता तथा आदान-प्रदान के सच्चे विश्व-विधान का उल्लघंन करने वाला होता है।


वह कर्म उस दक्षिणा के बिना संपन्न किया जायेगा जो कि यज्ञीय कर्म के पुरोहितों को देने योग्य एक अत्यावश्यक दान या आत्मदान है, भले ही वह अपने कर्म के किसी बाह्य मार्गदर्शक एवं सहायक को दिया जाये या अपने अंदर विद्यमान प्रच्छन्न या व्यक्त भगवान को। वह बिना मंत्र के अर्थात बिना समर्पणात्मक विचार के किया जायेगा। मंत्र हमारे उस संकल्प तथा ज्ञान की पावन देह है जो हमारे यज्ञ के उपास्य देवों की ओर ऊपर उठे होते हैं। तामसिक मनुष्य अपना यज्ञ देवताओं को नहीं, बल्कि निम्न आधिभौतिक शक्तियों को या पर्दे के पीछे अवस्थित उन स्थूलतर प्रेतात्माओं को अर्पित करता है जो उसके कार्यों के द्वारा अपना भोग-साधन करते हैं तथा उसके जीवन को अपने अंधकार के द्वारा आच्छन्न कर देते हैं। राजसिक मनुष्य अपना यज्ञ निम्न कोटि के देवताओं या विकृत शक्तियों यक्षों, ऐश्वर्य के रक्षकों, या आसुरी एवं राक्षसी शक्तियों के उद्देश्य से करता है। उसका यज्ञ बाहर से शास्त्र के अनुसार अनुष्ठित हो सकता है, पर उस यज्ञ का प्रेरक भाव होता है।


दंभ, मद या अपने कर्म के फल की प्रबल तृष्णा, अपने कर्मों के पुरस्कार के लिये प्रचंड मांग। अतएव, जो भी कर्म उग्र या अंहमय व्यक्तिगत कामना से या वैयक्तिक उद्देश्यों के हित अपने को जगत जर थोपने में लगे हुए दंभपूर्ण संकल्प से उदभूत हो वह राजसिक प्रकृति का है, भले ही वह प्रकाश की चिह्मों से अपने को आवृत क्यों न किये हो, भले ही बाहरी तौर से वह यज्ञ के रूप में क्यों न किया जाये। यद्यपि देखने में वह परमेश्वर या देवताओं को अर्पित किया जाता है, तथापि मूलतः वह आसुरी कर्म ही होता है। हमारे कर्मों का मूल्य केवल उनकी प्रतीयमान बाह्य दिशा से ही निर्धारित नहीं होता, न वह देवताओं के द्वारा निर्धारित होता है जिनके नाम की दुहाई देकर हम अपने कर्मों का अनुमोदन कर सकते हैं और न ही उस सच्चे बौद्धिक विश्वास के द्वारा जो उनके अनुष्ठान में हमारा समर्थन करता प्रतीत होता है, बल्कि वह निर्धारित होता है आंतरिक वृत्ति के द्वारा, आंतरिक प्रेरणा और दिशा के द्वारा। जहाँ कहीं हमारे कर्मों में अहंभाव की प्रधानता होती है, वहाँ हमारा कर्म राजसिक यज्ञ बन जाता है। इसके विपरीत, सच्चे सात्त्विक यज्ञ के तीन विशेष लक्षण हैं जो उसके विशिष्ट स्वरूप की मौन मुद्रा होते हैं।


सर्वप्रथम, वह एक कार्य-साधक सत्य के द्वारा प्रेरित होता है, वह विधि के अनुसार अर्थात हमारे कर्मों की समुचित नीति और यथायथ नियम-पद्धति के अनुसार, उनके यथार्थ लयताल एवं विधान तथा उनकी सच्ची प्रणाली एवं उनके धर्मों के अनुसार संपत्र किया जाता हैं। इसका मतलब यह होता है कि हमारी बुद्धि और प्रदीप्त संकल्प उनकी क्रिया-प्रक्रिया तथा उनके उद्देश्य का निर्देशन और निर्धारण करते हैं। दूसरे, वह एक ऐसे मन के द्वारा किया जाता है जो सच्चे यज्ञ हमारे जीवन के परिचालक दिव्य विधान के द्वारा हम पर लादा जाता है और इसीलिये उसका अनुष्ठान एक उच्च आंतरिक बाध्यता या अपरिहार्य सत्य के अनुसार तथा वैयक्तिक फल की कामना के बिना किया जाता है,-उस कर्म का प्रेरक भाव तथा उसके अंदर उंडेली गयी शक्ति का स्वभाव जितना ही अधिक निर्वैयक्तिक होता है, वह कर्म उतना ही अधिक सात्त्विक प्रकृति का होता है। और उसका अंतिम लक्षण यह है कि वह निःशेष रूप से देवताओं को अर्पित किया जाता है; वह उन दिव्य शक्तियों के द्वारा स्वीकार्य होता है जो सत्ता के स्वामी के छद्मरूप तथा व्यक्तित्व हैं और अतएव, उन्हीं के द्वारा जगत-प्रभु इस जगत का परिचालन करते हैं।


सुतरां, गीता जिस आदर्श की तथा जिस प्रकार के कर्म की मांग करती है, यह सात्त्विक यज्ञ उसके अत्यंत निकट है और यह उसकी ओर सीधे ही ले जाता है; पर यह चरम और परम आदर्श नहीं है, यह अभी उन सिद्ध पुरुष का कर्म नहीं है जो दिव्य प्रकृति में निवास करते हैं। कारण, यह एक सुनियत धर्म के रूप में संपन्न किया जाता है, साथ ही यह देवताओं के प्रति, हमारे अंदर या विश्व के अंदर अभिव्यक्त भगवान की किसी आंशिक शक्ति या रूप के प्रति यज्ञ या सेवा के रूप में अर्पित किया जाता है। निःस्वार्थ धार्मिक विश्वास के साथ अनुष्ठित कर्म या स्वार्थरहित भाव से मानव जाति के लिये अनुष्ठित कर्म अथवा न्याय या सत्य के प्रति निष्ठा से प्रेरित होकर निर्वैयक्तिक भाव से अनुष्ठित कर्म सात्त्विक प्राकृति का होता है, विचार, संकल्प तथा प्राकृत उपादान को शुद्ध करता है। परंतु सात्त्विक कर्म की जिस सर्वोच्च परिणति तक हमें पहुँचना है वह और भी बृहत्तर तथा मुक्ततर कोटि की है; वह एक उच्च कोटि का चरम यज्ञ है जिसे हम पुरुषोत्तम को उपलब्ध करने की अभीप्सा के साथ या सत मात्र में वासुदेव के दर्शन करते हुए परम और समग्र भगवान के प्रति निवेदित करते हैं; वह एक ऐसा कर्म है जो निवैंयक्तिक एवं विश्वगत भाव से, जगत के मंगल के लिये तथा विश्व में भगवत्संकल्प की परिपूर्ति के निमित्त किया जाता है।


वह परिणत फिर अपने से भी परे, अमृत धर्म की ओर ले जाती है। क्योंकि तभी वह मुक्ति प्राप्त होती है जिसमें न तो कोई वैयक्तिक कर्म है, न धर्म का सात्त्विक नियम और न शास्त्र की मर्यादा। वहाँ स्वयं निम्न बुद्धि और संकल्प भी अतिक्रांत हो जाते हैं और उनकी जगह एक उच्चतर प्रज्ञा हमारे कर्म को प्रेरित और परिचालित करती है तथा हमें अधिकारपूर्ण उसके लक्ष्य की ओर ले चलती है। तब वैयक्तिक फल का कोई प्रश्न ही नहीं रहताः क्योंकि जो संकल्प कर्म करता है वह हमारा अपना नहीं बल्कि एक परमोच्च संकल्प होता है, हमारी अंतरात्मा तो उसका एक यंत्र मात्र होती है। वहाँ न कोई स्वार्थपरता होती है न निःस्वार्थता; क्योंकि जीव, भगवान का शाश्वत अंश, अपनी सत्ता में वह तथा सभी एक हैं। तब वैयक्तिक कर्म का अस्तिव नहीं रहता, क्योंकि सभी कर्म अपने कर्मों के प्रभु के प्रति उत्सर्ग कर दिये जाते हैं और तब वही हमारी दिव्यीकृत प्रकृति के द्वारा कर्म करते हैं।


वहाँ कोई यज्ञ भी नहीं होता,-हां हम यह अवश्य कह सकते हैं कि यज्ञ के अधीश्वर जीव में विद्यमान अपनी शक्ति के कर्मों को अपनी ही विश्वरूपमयी सत्ता के प्रति अर्पित कर रहे होते हैं। यज्ञरूप कर्म के द्वारा आत्म-अतिक्रमण की जो परमोच्च स्थिति प्राप्त होती है वह यही है, जो जीव दैवी प्रकृति में अपना पूर्ण चैतन्य लाभ कर लेता है उसकी सिद्ध अवस्था यही है। तामसिक तपस्या वह है जो एक अज्ञानाच्छन्न और भ्रांत विचार के वश, एक दृढ़ और अटल भ्रांति से युक्त विचार के वश की जाती है, जो किसी पोषित असत्य के प्रति अज्ञ श्रद्धा के द्वारा समर्पित होती है, जो किसी सच्चे या महान लक्ष्य के कुछ भी सम्बंध न रखने वाले एक संकीर्ण, जघन्य और अहंकारमय उद्देश्य के हित बलात प्रयास करते हुए तथा अपने को कष्ट पहुँचाते हुए या फिर अपनी सारी शक्ति दूसरों का अनिष्ट करने के संकल्प में लगाते हुए की जाती है। जो चीज इस प्रकार के शक्ति-प्रयोग को तामसिक बनाती है वह कोई जड़ता का तत्त्व नहीं, क्योकि जड़ता तपस्या से विजातीय वस्तु है, बल्कि इसे तामसिक बनाने वाली चीजें है। मन और प्रकृति का अंधकार अनुष्ठान की एक जघन्य क्षुद्रता तथा कुरुपता अथवा लक्ष्य या प्रेरक भाव में एक पाशविक प्रवृत्ति या वासना।


राजसिक तपस्या उन अनुष्ठानों को कहते हैं जो मनुष्यों से मान और पूजा प्राप्त करने के निमित्त, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बाह्य यश और महत्ता के लिये या अहमात्मक संकल्प एवं अभिमान के अनेकानेक हेतुओं में से किसी अन्य हेतु से किये जाते हैं। इस प्रकार का तप विशेष-विशेष क्षणिक उद्देश्यों के लिये किया जाता है जो जीव के ऊर्ध्वमुख विकास और पूर्णता में कुछ भी योगदान नहीं करते; यह एक ऐसी वस्तु है जो किसी निर्दिष्ट एवं सहायक नीति से रहित है, एक ऐसी शक्ति है जो परिवर्तनशील एवं नश्वर निमित्त के साथ बंधी हुई है और स्वयं भी उसी प्रकार की है। अथवा, यद्यपि इसमें कोई अधिक आभ्यंतरिक तथा श्रेष्ठ उद्देश्य दिखायी दे भी, यद्यपि इसमें श्रद्धा और संकल्प उच्चतर कोटि के हों भी, तथापि यदि किसी प्रकार का दंभ या अहंकार या कोई अत्यंत तीव्र प्रबल काम या राग इसमें प्रविष्ट हो जाये, अथवा यदि यह किसी ऐसे उग्र विधिहीन या घोर कर्म में प्रवृत करे जो शास्त्र के विरुद्ध हो, जीवन और कर्म-कलाप के यथायथ नियम के विपरीत हो।


अपने को तथा दूसरों को कष्ट देने वाला हो, या यदि यह आत्म-पीड़न के ढंग का तथा मन, प्राण और शरीर को क्लेश पहुँचाने वाला हो या हमारे आंतरिक सूक्ष्म शरीर में अवस्थित भगवान को उत्पीड़ित करने वाला हो तब भी यह अज्ञानपूर्ण, आसुरी, राजसिक या राजस-तामसिक तपस्या है। सात्त्विक तपस्या वह है जो उच्चतम आलोकित श्रद्धा के साथ, गंभीरता के साथ अंगीकृत कर्तव्य के रूप में या किसी नैतिक या आध्यात्मिक या अन्य उच्चतर हेतु से तथा कर्म के किसी बाह्य या संकीर्ण एवं व्यक्तिगत फल की कामना के बिना की जाती है। वह आत्म-अनुशासन के ढंग की होती है और आत्म-संयम तथा प्रकृति के सामंजस्य-साधन की मांग करती है। गीता ने तीन प्रकार के सात्त्विक तप का निरूपण किया है। पहला है शारीरिक तप, बाह्य कर्म का तप; इस श्रेणी के अंतर्गत, विशेष रूप से, इन चीजों का उल्लेख किया गया है-पूजनीयों की पूजा और मान; शरीर, कर्म और जीवन की शुद्धि सरल व्यवहार, ब्रह्मचर्य, दूसरों की हिंसा और अपकार का परित्याग, अहिंसा। दूसरा है वाणी का तप, और उसके अंतर्गत हैं-स्वाध्याय, सत्य, प्रिय और हितकर वचन, दूसरों के अंदर भय, दुःख और उद्वेग उत्पन्न करले वाले वचनों का सतर्कतापूर्वक परित्याग। अंतिम है मानसिक तथा नैतिक पूर्णता का तप, और उसका अर्थ है संपूर्ण स्वभाव की शुद्धि सौम्यता, मनःप्रसाद, आत्म-विनिग्रह और मौन। इसमें वे सभी चीजें समाविष्ट हो जाती है जो राजसिक एवं अहमात्मक प्रकृति को शांत या अनुशासित करती हैं और वे सब भी जो इसके स्थान पर शुभ और पुण्य के प्रसन्न और शांत तत्त्व की प्रतिष्ठा करती हैं।


यह सात्त्विक धर्म का तप है जिसे प्राचीन भारतीय संस्कृति की विधि-व्यवस्था में इतना अधिक समादृत किया गया है। इसकी महत्तर परिणति होगी-बुद्धि और संकल्प की उच्च पवित्रता, आत्मा की समता, गंभीर शांति और स्थिरता, व्यापक सहानुभूति तथा एकत्व-साधना, मन, प्राण और शरीर के अंदर अंतःपुरुष के दिव्य प्रसाद कि प्रतिच्छाया। उस उच्च शिखर पर नैतिक आदर्श एवं स्वभाव आध्यात्मिक आदर्श और स्वभाव में परिणत हो जाता है और यह परिणति भी अपने को अतिक्रम कर सकती है, यह भी एक उच्चतर और मुक्ततर ज्योति में उन्नीत की जा सकती है तथा परा प्रकृति की सुप्रतिष्ठित दैवी शक्ति में परिणत हो सकती है। और तब जो कुछ शेष रहेगा वह होगा आत्मा का परिपूत तप, सत्ता के सभी अंगो में एक उच्चतम संकल्प एवं ज्योतिर्मयी शक्ति, जो विशाल और ठोस शांति तथा गंभीर एवं विशुद्ध आध्यात्मिक आनंद में कार्य करेगी।


तब फिर तप की और आवश्यकता नहीं रहेगी, कोई तपस्या नहीं रहेगी, क्योंकि सब कुछ सहज-स्वाभाविक रूप से दिव्य होगा, सब कुछ वह तपस ही होगा। वहाँ नीचे की शक्ति की कोई पृथक प्रचेष्टा नहीं रहेगी, क्योंकि प्रकृति की शक्ति पुरुषोत्तम के परात्पर संकल्प में अपना सच्चा उद्गम और आधार प्राप्त कर चुकी होगी। तब, इस उच्च स्त्रोत से प्रवर्तित होने के कारण, इस शक्ति की क्रियाएं निम्नतर स्तरों पर भी एक सहजात पूर्ण संकल्प से तथा एक अंतर्निहित पूर्ण मार्गनिर्देशक के द्वारा स्वाभाविक एवं स्वतःस्फूर्त रूप में निःसृत होंगी। वर्तमान धर्मों में से किसी का भी बंधन नहीं रहेगा; क्योंकि वहाँ होगा एक मुक्त कर्म जो राजसिक और तामसिक प्रकृति से बहुत ऊपर तो होगा ही पर साथ ही कर्म के सात्त्विक नियम की अति-सतर्क और संकीर्ण सीमाओं से भी बहुत परे होगा। तपस्या की भाँति समस्त दान भी अज्ञ तामसिक, बाह्यडम्बरपूर्ण राजसिक या निःस्वार्थ और ज्ञानदीप्त सात्त्विक प्रकृति का होता है। तामसिक दान समुचित देश, काल और पात्र का विचार किये बिना अज्ञानपूर्वक दिया जाता है; वह एक मूर्खतापूर्ण, विवेकहीन और वस्तुतः स्वार्थपूर्ण-क्रिया होती है वह एक अनुदार तथा निकृष्ट त्याग होता है, एक ऐसा दान होता है जो बिना सहानुभूति या सच्ची उदारता के और लेने वाले की भावनाओं का ध्यान रखे बिना ही दिया जाता है तथा जो उसके द्वारा स्वीकार करते समय भी अवज्ञा की दृष्टि से देखा जाता है।


राजसिक कोटि का दान वह है जो अनुताप के साथ, अनिच्छापूर्वक या अपने ऊपर जोर-जबर्दस्ती करके या किसी व्यक्तिगत एवं अहंभावमय उद्देश्य से अथवा किसी भी दिशा से किसी प्रकार के प्रत्युपकार की आशा से या लेने वाले की ओर से अपने-आपको एक तुल्य या महत्तर प्रतिफल मिलने की आशा से किया जाता है। सात्त्विक प्रकार का दान वह है जो यथायथ बुद्धि सदिच्छा तथा सहानुभूति के साथ, समुचित देश-काल को देखकर एक ऐसे सत्पात्र को अर्पित किया जाता है जो दान के योग्य होता है या जिसके लिये दान वस्तुतः उपकारी हो सकता है। ऐसा दान-कार्य दान तथा उपकार के लिये ही किया जाता है, उपकृत के द्वारा पहले किये गये या आगे किये जाने वाले अपने उपकार को दृष्टि में रखकर नहीं, किसी व्यक्तिगत उद्देश्य से नहीं। सात्त्विक प्रकार के दान की पराकाष्ठा कर्म के अंदर दूसरों के प्रति, जगत तथा परमेश्वर के प्रति एक व्यापक आत्मदान एवं आत्म-समर्पण के तत्त्व को क्रमशः अधिकाधिक ले आयेगी; गीता में जिस कर्मयज्ञ का विधान किया गया है वह इस प्रकार का उच्च उत्सर्ग ही है।


दिव्य प्रकृति में ऊर्ध्वतम स्थिति आत्म दान की महत्तम परिपूर्णता होगी जो जीवन के विशालतम अर्थ पर आधारित होगी। इस संपूर्ण नानारूप विश्व की उत्पत्ति और अनवरत स्थिति का मूल यह है कि परमेश्वर अपने-आप तथा अपनी शक्तियों का दान करते हैं तथा इन सब भूतभावों के अंदर अपनी सत्ता और आत्मा को मुक्त-हस्त हो प्रभाहित करते है; वेद में कहा है कि विश्व-सत्ता पुरुष का यज्ञ है। सिद्ध जीव का भी समस्त कर्म होगा-अपना तथा अपनी शक्तियों का इसी प्रकार अखंड रूप दिव्य दान करना, भगवान के अंदर तथा उनके प्रभाव और प्रेरणा के द्वारा उसने जो ज्ञान, ज्योति, बल, प्रेम, हर्ष साहाय्यप्रद शक्ति उपलब्ध की है उसे अपने चारों ओर सबके ऊपर, उनकी ग्रहण-सामर्थ्य के अनुसार उंडेल देना, अथवा इस समस्त जगत तथा इसके प्राणियों पर प्रवाहित कर देना। अपनी सत्ता के स्वामी के प्रति जीव के समग्र आत्मदान का संपूर्ण परिणाम यही होगा।


जिस चर्चा के साथ गीता इस अध्याय का उपसंहार करती है वह प्रथम दृष्टि में दुर्बोध प्रतीत होती है। वह कहती है ओम तत सत-यह सूत्र उन ब्रह्म की त्रिविध परिभाषा है जिन्होंने पुराकाल में ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों की सृष्टि की थी और इसी सूत्र में उनका समस्त हार्द निहित है। तत निरपेक्ष सत्ता का द्योतक है। सत परम और विश्वयम सत्ता के मूलतत्त्व का द्योतक है। ओम त्रिविध ब्रह्म का, बहिर्मुख,अंतर्मुख या सूक्ष्म तथा अतिचेतन कारण-पुरुष का प्रतीक हैं। अ,उ,म-प्रत्येक अक्षर इन तीन में से एक-एक को आरोहण-क्रम मे द्योतित करता है और अपने समूचे रूप में यह पद उस तुरीय अवस्था का बोधक है जो निरपेक्ष सत्ता की ओर उठ जाती है। ओम् श्रीगणेश करने का पद है जो समस्त यज्ञ, समस्त दान, समस्त तप के आरंभ में मंगलाचरण तथा अनुमति के रूप मे उच्चारित किया जाता है; यह इस बात को स्मरण कराता है कि हमें अपने कर्म को अपनी अंतःसत्ता मे त्रिविध भगवान् का प्रकाश करने वाला बनाना होगा और उसे अपनी भावना तथा लक्ष्य में भगवान् की ओर ही फेरना होगा। मुमुक्षुजन इन कर्मों को फल की कामना के बिना और केवल अपनी प्रकृति के पीछे अवस्थित निरपेक्ष भगवान् की परिकल्पना, अनुभुति और उनके आनंद के साथ ही संपन्न करते हैं। अपने कर्मों की इस पवित्रता एवं निर्वैयक्तिकता के द्वारा, उस उच्च निष्कामता, इस बृहत् अहंशून्यता तथा आध्यात्मिक समृद्धि के द्वारा वे इन भगवान् की ही खोज करते हैं।


सत् का अर्थ शुभ भी है और वस्तु-सत्ता भी। ये दोनों चीजें, शुभ का तत्त्व और वस्तु-सत्ता का तत्त्व इन तीनों प्रकार के कर्मों के पीछे अवश्य होने चाहिये। सभी शुभ कर्म सत् हैं क्योंकि वे जीव को हमारी सत्ता के उच्चतर सत्स्वरूप के लिये तैयार करते हैं; यज्ञ, दान और तप मे दृढ़ निष्ठा, और उस प्रधान लक्ष्य को दृष्टि में रखकर यज्ञ,दान और तप के रूप में किये गये समस्त कर्म सत् हैं, क्योंकि वे हमारी आत्मा के उच्चतम सत्य के लिये आधार निर्मित करते हैं। और क्योंकि श्रद्धा हमारी आत्मा सत्ता का केद्रीय तत्त्व है, इनमें से कोई चीज यदि बिना श्रद्धा के की जाये तो वह मिथ्या होती है इहलोक में या परतर लोकों में उसका कोई सत्य अर्थ या सत्य सार नहीं होता, इह-जीवन में या मर्त्य जीवन के पश्चात् हमारी चिन्मय आत्मा के महत्तर लोकों में टिके रहने या सृजन करने के लिये उसमें कोई सत्य या शक्ति नहीं होती। अंतरात्मा की श्रद्धा-कोरा बौद्धिक विश्वास नहीं बल्कि जानने, देखने, विश्वास करने तथा अपनी दृष्टि और ज्ञान के अनुसार कर्म करने तथा अपने को गढ़ने के लिये अंतरात्मा का एकाग्र संकल्प ही अपनी शक्ति के द्वारा हमारे विकास की संभावनाओं का मान निर्धारित करता है, और जब यह श्रद्धा एवं संकल्प-हमारी संपूर्ण बाह्मांतर सत्ता प्रकृति और कर्म सहित-उस सबकी ओर मुड़ जायेगा जो उच्चतम, दिव्यतम, सत्यतम और शाश्वत है, तो यही हमें परम सिद्धि की प्राप्ति में भी समर्थ बना देगा।




त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म

 



जिस धर्म, दर्शन, नैतिक नियम, सामाजिक विचार, सांस्कृतिक विचार में मैं श्रद्धा रखता हूँ वह मुझे मेरी अपनी प्रकृति तथा इसके कर्मों के लिये एक विधान प्रदान करता है, सापेक्ष सदाचार का अथवा आपेक्षित या ऐकांतिक पूर्णता का एक विचार प्रदान करता है और मुझमें जितनी सच्चाई होती है, उस विधान में मेरी श्रद्धा जितनी पूर्ण होती है और उस श्रद्धा के अनुसार जीवन-यापन करने का मेरा संकल्प जितना तीव्र होता है, उतना ही मैं वही कुछ बन सकता हूँ जो कुछ बनने के लिये वह मुझसे कहता है, उतना ही मैं अपने-आपको उस सत्य विधान की प्रतिमूर्ति में या उस पूर्णता के आदर्श दृष्टांत के रूप में परिणत कर सकता हूँ। परंतु हम देखते हैं कि मनुष्य के अंदर एक अधिक स्वतंत्र प्रवृत्ति भी है जो उसकी कामनाओं के निर्देश से तथा धर्म, बद्धमूल कारण, शास्त्र के सुरक्षित नियामक विधि-विधान को स्वीकार करने से संकल्प से भिन्न है।


यह भी देखा जाता है कि व्यक्ति तो कितनी ही बार और समाज अपने जीवन में किसी भी क्षण शास्त्र से मुंह मोड़ लेता है उससे ऊब जाता है, अपने संकल्प और श्रद्धा-विश्वास के उस रूप को त्याग कर देता है और किसी अन्य विधान की खोज में निकल पड़ता है जिसे वह अब जीवन-यापन का यथार्थ विधान स्वीकार करने तथा सत्ता के एक अतिशय प्राणवन्त या उच्चतर सत्य के रूप में मानने की ओर अधिक झुका हुआ होता है। यह उस समय हो सकता है जब प्रचलित शास्त्र जीवंत वस्तु नहीं रहता और ह्रसति या रूढ़ होकर रीति-रिवाजों और लोकाचारों का ढेर बन जाता है। अथवा यह इसलिये हो सकता है कि शास्त्र अपेक्षित प्रगति के लिये अपर्याप्त प्रतीत होता है या वह उसके लिये पर्वूवत उपयोगी नहीं प्रतीत होता; एक नया सत्य, जीवन-यापन का एक अधिक पूर्ण विधान अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है।


यदि वह सत्य विधान विद्यमान न हो तो जाति को अपने प्रयत्न से या किसी महान एवं ज्ञानदीप्त व्यक्ति को, जो जाति की आशा-आकांक्षा का मूर्त प्रतिनिधि होता है, अपनी मनीषा से उसका अविष्कार करना होता है। तब, वैदिक धर्म लोकाचार का रूप धारण कर लेता है और कोई बुद्ध अपने अष्टांग पथ के नये विधान और निर्वाण के लक्ष्य को लेकर आविर्भूत होते हैं; और यहाँ इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि उसे वे एक व्यक्तिगत अविष्कार के रूप में नहीं बल्कि आर्य जीवन के एक ऐसे सत्य विधान के रूप में प्रस्थापित करते हैं।


जिसे बुद्ध, ज्ञानदीप्त मन, प्रबुद्ध आत्म सदैव पुनः-पुनः आविष्कृत करती है। परंतु व्यवहारतः इसका अर्थ यह हुआ कि एक ऐसा आदर्श है, एक ऐसा सनातन धर्म है जिसे धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र तथा मनुष्य की अन्य सब शक्तियां, जो सत्य और पूर्णता की प्राप्ति के लिये यत्नशील हैं, आंतर और बाह्य जीवन की विद्या और कला के नये सिद्धांतों का, एक नये शास्त्र का रूप देने के लिये सदैव प्रयास कर रही हैं। धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक सदाचार के संबंध में मूसा के द्वारा प्रवर्तित धर्म को संकीर्णता एवं अपूर्णता का दोषी ठहराया जाता है, और इसके अतिरिक्त अब वह केवल एक लोकचर बन जाता है; उसके स्थान पर ईसा का धर्म प्रकट होता है और वह एक ही साथ उसका उच्छेद करने तथा जीवन का जो दिव्य विधान उसका लक्ष्य था उसकी मूल भावना को एक गंभीरतर तथा विशालतर ज्योति एवं शक्ति में परिपूर्ण बनाने का दावा करता है। और फिर मानव की खोज यहीं नहीं रूक जाती, बल्कि इन रचनाओं को भी त्याग देती है और किसी ऐसे अतीत सत्य की ओर लौट जाती है जिसे वह छोड़ चुकी थी अथवा वह इन सब विधानों को तोड़-फोड़कर किसी नये सत्य एवं शक्ति की ओर अग्रसर होती है, किंतु सदैव उसी वस्तु की, अपनी पूर्णता के विधान, यथायथ जीवन-यापन के नियम, अपनी पूर्ण, सर्वोच्च और मूलभूत सत्ता एवं प्रकृति की खोज में लगी रहती है। इस खोज किंवा प्रयास का आरंभ करता है व्यक्ति जो प्रचलित विधान से अब और संतुष्ट नहीं होता, क्योंकि वह देखता है कि वह विधान उसकी अपनी सत्ता और जगत-सत्ता के सम्बंध में उसकी अपनी धारणा एवं विशालतम या तीव्रतम अनुभूति से अब और मेल नहीं खाता और अतएव वह उस पर विश्वास तथा आचरण करने के लिये उसमें अपने संकल्प को पहले की तरह नियोजित नहीं कर सकता। वह उसकी जीवन-सत्ता की आंतरिक प्रणाली के अुनरूप नहीं होता, वह उसके लिये ‘सत’ अर्थात कोई ऐसी वस्तु नहीं होता जिसका वस्तुतः अस्तित्व है, न ही वह उसके लिये यथार्थ विधान, उच्चतम या श्रेष्ठ या वास्तवकि कल्याण होता है; वह उसकी सत्ता या समस्त सत्ता का सत्य एवं विधान नहीं होता। शास्त्र व्यक्ति के लिये एक निवैंयक्तिक वस्तु होता है, और वह उसे उसके करणों के संकुचित एवं वैयक्तिक विधान के ऊपर अपना प्रामाणिक विधान प्रदान करता है; पर इसके साथ ही वह समष्टि के लिये वैयक्तिक होता है और उसकी अनुभूति की, संस्कृति या प्रकृति की उपज-स्वरूप होता है। 


वह अपने समस्त रूप और भावना में आत्मा की परिपूर्णता का आदर्श विधान या हमारी प्रकृति के स्वामी का सनातन विधान नहीं होता, भले ही उसके अंदर उस अति महत्तर वस्तु के संकेत, उपक्रम, प्रकाशप्रद आभास कम या अधिक मात्रा में क्यों न विद्यमान हों। व्यक्ति समष्टि को अतिक्रम कर उससे आगे बढ़ा हुआ हो सकता है और एक महत्तर सत्य, एक प्रशस्ततर मार्ग, प्राण-पुरुष के एक गंभीरतर उद्देश्य के लिये प्रस्तुत हो सकता है। उसके अंदर की जो प्रेरणा शास्त्र को छोड़कर चलती है वह सदा उच्चतर गति ही हो यह आव्यश्यक नहीं; वह उस अहंभावमय या राजसिक प्रकृति के विद्रोह का रूप भी ग्रहण कर सकती है जो स्व-परिपूर्णता एवं स्व-उपलब्धि की स्वतंत्रता की अवरोधक प्रतीक होने वाली वस्तु के जुए से मुक्त होना चाहती है। परंतु तब भी वह शास्त्र की किसी संकीर्णता या अपूर्णता के कारण अथवा जीवन के प्रचलित विधान के अवनत होकर केवल एक प्रतिबंधक या निर्जीव आचार बन जाने के कारण प्रायः उचित ही ठहरती है। और इस हद तक वह न्याय संगत है, वह एक सत्य पर आश्रित है, उसके अस्तित्व का एक पर्याप्त और उचित कारण हैः क्योंकि यद्यपि यह सच्चे पथ को नहीं पकड़ पाती तो भी राजसिक अहं की स्वतंत्र चेष्टा लोकाचार के निर्जीव और आग्रहपूर्ण तामसिक अनुसरण से अच्छी होती है, क्योंकि उसके अंदर स्वातंत्र्य और जीवन अधिक मात्रा में होता है।


तामसिक प्रकृति की अपेक्षा राजसिक प्रकृति सदैव अधिक बलशाली तथा अधिक प्रबलतया अनुप्राणित होती है और उसके अंदर संभावनाएं भी अपेक्षाकृत अधिक होती हैं। परंतु शास्त्र का परित्याग करने की यह प्रेरणा मूलतः सात्त्विक भी हो सकती है; उस विशालतर एवं महत्तर आदर्श की ओर झुकी हुई हो सकती है, जो हमें अपनी सत्ता तथा विश्व-सत्ता के अद्यावधि उपलब्ध सत्य की अपेक्षा पूर्णतर एवं बृहत्तर सत्य के अधिक निकट ले जायेगा और अतएव उस उच्चतम विधान के भी अधिक निकट ले जायेगा जो दिव्य स्वातंत्र्य के साथ एकीभूत है। और क्रियात्मक दृष्टि से इस प्रकार की गति या प्रेरणा साधारणतः हमारी अपनी सत्ता के किसी विस्मृत सत्य को अधिकृत करने या अब तक अनुपलब्ध या अचरितार्थ सत्य की ओर अग्रसर होने का प्रयास होती है। यह अनियंत्रित प्रकृति की उच्छृंखल चेष्टा नहीं होती; यह आध्यात्मिक दृष्टि से समीचीन होती है और हमारी आध्यात्मिक प्रगति के लिये आवश्यक और चाहे शास्त्र अभी तक एक प्राणवंत वस्तु हो तथा औसत मनुष्य के लिये सर्वश्रेष्ठ विधान हो।


उसे शास्त्र की रूड़ सीमा-रेखा को पार करने का आह्वान प्राप्त होता है। क्योंकि यह तो सामान्य अपूर्ण मनुष्य के मार्ग-निर्देश, नियंत्रण एवं आपेक्षिक पूर्णत्व के लिये एक विधान होता है और उसे बढ़ना होता है एक अधिक पूर्ण पूर्णतत्त्व की ओरः यह सुनिश्चित धर्मों का शास्त्र होता है और उसे आत्मा के स्वातंत्र्य में निवास करना सीखना होता है। तब भला जो कर्म कामना के निर्देश तथा प्रचलित विधान दोनों से हटकर चलता है उसका सुरक्षित आधार क्या होगा? कारण, कामना के नियम की एक अपनी प्रामाणिकता होती है जो हमारे लिये अब और वैसी सुरक्षित या संतोषजनक नहीं रहती जैसी वह पशु के लिये या जैसी वह आदिम मानवता के लिये रही होगी, परंतु फिर भी अपनी सीमा के भीतर यह हमारी प्रकृति के एक अति जीवंत भाग पर आधारित और उसके प्रबल संकेतों के द्वारा संपुष्ट होती है; इस धर्म किंवा शास्त्र के पीछे रहती है चिर-प्रचलित विधान की समग्र प्रामाणिकता, प्राचीन विधि-विधानों की सफलता और अतीत की सुरक्षित अनुभूति।


परंतु इस नये प्रयास का स्वरूप होता है अज्ञात या ईषत-ज्ञात की ओर शक्तिशाली अभियान, एक साहसिक विकास और एक नूतन विजय। तो फिर वह कौन-सा सूत्र है जिसका अनुसरण करना होगा, वह कौन-सा मार्गदर्शक प्रकाश है जिस पर यह प्रयास भरोसा रख सकता है या हमारी सत्ता के अंदर इसका दृढ़ आधार क्या हो सकता है? इसका उत्तर यह है कि वह सूत्र और आधार हमें मनुष्य की श्रद्धा में मिलेगा; श्रद्धा का मतलब है-जिसे मनुष्य अपनी तथा जगत सत्ता के सत्य के रूप में देखता है या समझता है उस पर विश्वास करने तथा उसके अनुसार जीवन-यापन करने का संकल्प। दूसरे शब्दों में इस प्रयास का अर्थ है-मनुष्य का अपने सत्य स्वरूप, अपने जीवन-विधान, अपनी पूर्णता और सिद्धि के पथ की उपलब्धि के लिये अपनी निज सत्ता के प्रति या फिर अपनी सत्ता या विश्व-सत्ता के अंदर विद्यमान किसी शक्तिशाली एवं अवश्यमान्य वस्तु के प्रति पुकार करना। और सब कुछ निर्भर करता है उसकी श्रद्धा के स्वरूप के ऊपर, अपने अंदर या जिस विश्वात्मा का वह एक अंश या प्राकट्‌य है, उसके अंदर विद्यमान जिस वस्तु के प्रति वह अपनी श्रद्धा अर्पित करता है उसके ऊपर और इसके द्वारा वह अपनी वास्तविक आत्मा तथा विश्व की आत्मा या उसकी वास्तविक सत्ता के कितना निकट पहुँचता है।


इस बात के ऊपर यदि वह तामसिक, मूढ़ एवं मोहाच्छन्न है, यदि उसकी श्रद्धा अज्ञानयुक्त तथा संकल्प अक्षम है तो वह किसी भी वास्तविक वस्तु तक नहीं पहुँच पायेगा तथा अपनी निम्न प्रकृति में जा गिरेगा। यदि वह मिथ्या राजसिक प्रकाशों के प्रलोभन में पड़ गया तो वह अपने स्वेच्छाचारी संकल्प के द्वारा ऐसे उपमार्गों में भटक सकता है, जो उसे दलदल या कगार की ओर ले जा सकते हैं हर हालत में उसके उद्धार का एकमात्र सुयोग इस बात में है कि उसके अंदर सत्त्वगुण फिर से प्रबलता प्राप्त कर ले और वह उसके करणों पर नयी ज्ञानदीप्त नियम-व्यवस्था लागू करे जो उसे उसके स्वच्छंद संकल्प की प्रचंड भ्रांति या उसके तमसाच्छन्न अज्ञान की जड़ भ्रांति सें मुक्त कर देगी। इसके विपरीत यदि उसकी प्रकृति सात्त्विक है और यदि उसे आगे बढ़ने के लिये सात्त्विक श्रद्धा एवं निर्देश प्राप्त है तो एक अद्यावधि-अनुपलब्ध उच्चतर आदर्श-विधान उसे दृष्टिगोचर हो जायेगा, जो उसे किन्हीं विरल प्रसंगों में सात्त्विक प्रकाश से भी ऊपर सत्ता और जीवन की उच्चतम दिव्य ज्योति एवं दिव्य प्रणाली की ओर कुछ दूर तो ले ही जा सकता है। क्योंकि यदि उसके अंदर सात्त्विक प्रकाश इतना प्रबल हो कि वह उसे अपनी चरम सीमा तक ले जाये तो वह उस सीमा से आगे बढ़कर भागवत, विश्वातीत एवं निरपेक्ष सत्ता की किसी प्रथम रश्मि में प्रवेश के लिये मार्ग बनाने में समर्थ होगा।


आत्म-अनुसंधान के सभी प्रयत्नों में ये संभावनाएं विद्यमान हैं; ये इस आध्यात्मिक अभियान की शर्तें हैं। अब हमें यह देखना है कि गीता अध्यात्म-शिक्षा और आत्म-साधना की अपनी सरणि के अनुसार इस प्रश्न का कैसा समाधान करती है क्योंकि अर्जुन तुरंत ही एक ऐसा इंगितपूर्ण प्रश्न करता है जिससे यह समस्या या इसका एक पक्ष उपस्थित होता है वह पूछता है कि जब आदमी श्रद्धापूर्वक परमेश्वर या देवताओं का यजन करते हैं पर शास्त्रविधि का परित्याग कर देते हैं तो वह कौंन-सी निष्ठा है, उनके अंदर भक्ति का वह कौंन-सा एकनिष्ठ संकल्प है जो उनमें यह श्रद्धा उत्पन्न करता है और उन्हें इस प्रकार के कर्म में प्रवृत्त करता है? वह सात्त्विक है या राजसिक या तामसिक? वह हमारी प्रकृति के किस स्तर से सम्बंध रखता है? गीता का उत्तर पहले इस सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि प्रकृति की सभी चीजों की भाँति हमारी श्रद्धा भी त्रिविध होती है और वह हमारी प्रकृति के प्रधान गुण के अुनसार विभिन्न प्रकार की होती है।



योग विषयक समझ

 


सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।। 5.4 ।।


बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग-अलग फल वाले कहते हैं, न कि पंडितजन; क्योंकि इन दोनों में से एक साधन में भी अच्छी तरह से स्थित मनुष्य दोनों के फलस्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।


‘सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्त न पंडिताः’- इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ने कर्मों का स्वरूप से त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करने के साधन को ‘कर्मसंन्यास’ नाम से कहा है। भगवान ने भी दूसरे श्लोक में अपने सिद्धांत की मुख्यता रखते हुए उसे ‘संन्यास’ और ‘कर्मसंन्यास’ नाम से कहा है। अब उस साधन को भगवान यहाँ ‘सांख्य’ नाम से कहते हैं। भगवान शरीर-शरीरी के भेद का विचार करके स्वरूप में स्थित होने को ‘सांख्य’ कहते हैं। भगवान के मत में ‘संन्यास’ और ‘सांख्य’ पर्यायवाची हैं, जिसमें कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। अर्जुन जिसे ‘कर्मसंन्यास’ नाम से कह रहे हैं, वह भी निःसंदेह भगवान के द्वारा कहे ‘सांख्य’ का ही एक अवान्तर भेद है। कारण कि गुरु से सुनकर भी साधक शरीर-शरीरी के भेद का ही विचार करता है।


‘बालाः’ पद से भगवान यह कहते हैं कि आयु और बुद्धि में बड़े होकर भी जो सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग-अलग फल वाले मानते हैं, वे बालक अर्थात बेसमझ ही हैं।


जिन महापुरुषों ने सांख्ययोग और कर्मयोग के तत्त्व को ठीक-ठीक समझा है, वे ही पंडित अर्थात बुद्धिमान हैं। वे लोग दोनों को अलग-अलग फल वाले नहीं कहते; क्योंकि वे दोनों साधनों की प्रणालियों को न देखकर उन दोनों के वास्तविक परिणाम को देखते हैं।


साधन प्रणाली को देखते हुए स्वयं भगवान ने तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में सांख्ययोग और कर्मयोग को दो प्रकार का साधन स्वीकार किया है। दोनों की साधन-प्रणाली तो अलग-अलग है, पर साध्य अलग-अलग नहीं है।


‘एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विदन्ते फलम्’- गीता में जगह-जगह सांख्ययोग और कर्मयोग का परमात्मप्राप्ति का रूप फल एक ही बताया गया है। तेरहवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में दोनों साधनों से अपने-आप में परमात्मतत्त्व का अनुभव होना बताया गया है। तीसरे अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में कर्मयोगी के लिये परमात्मा की प्राप्ति बतायी गयी है और बारहवें अध्याय के चौथे श्लोक में तथा तेरहवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में ज्ञानयोगी के लिये परमात्मा की प्राप्ति बतायी गयी है। इस प्रकार भगवान के मत में दोनों साधन एक ही फल वाले हैं।


यत्सांख्यैः प्राप्तये स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । 

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। 5.5 ।। 

अर्थ- सांख्ययोगियों के द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोग को एक देखता है, वही ठीक देखता है। व्याख्या- ‘यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’- पूर्व श्लोक के उत्तरार्ध में भगवान ने कहा था कि एक साधन में भी अच्छी तरह से स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनों के फलस्वरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर लेता है। उसी बात की पुष्टि भगवान उपर्युक्त पदों में दूसरे ढंग से कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्त करते हैं, वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं। संसार में जो यह मान्यता है कि कर्मयोग से कल्याण नहीं होता, कल्याण तो ज्ञानयोग से ही होता है- इस मान्यता को दूर करने के लिये यहाँ ‘अपि’ अव्यय का प्रयोग किया गया है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी- दोनों का ही अंत में कर्मों से अर्थात क्रियाशील प्रकृति से संबंध विच्छेद होता है। प्रकृति से संबंध विच्छेद होने पर दोनों ही योग एक हो जाते हैं। साधन काल में भी सांख्य योग का विवेक[2] कर्मयोगी को अपनाना पड़ता है और कर्मयोग की प्रणाली[3] सांख्य योगी को अपनानी पड़ती है। सांख्ययोग का विवेक प्रकृति पुरुष का संबंध विच्छेद करने के लिये होता है और कर्मयोग का कर्म संसार की सेवा के लिये होता है। सिद्ध होने पर सांख्ययोगी और कर्मयोगी- दोनो की एक स्थिति होती है; क्योंकि दोनों ही साधकों की अपनी निष्ठाएँ हैं।[4] संसार विषम है। घनिष्ठ-से-घनिष्ठ सांसारिक संबंध में भी विषमता रहती है। परंतु परमात्मा सम हैं। अतः समरूप परमात्मा की प्राप्ति संसार से सर्वथा संबंध विच्छेद होने पर ही होती है। संसार से संबंध विच्छेद करने के लिये दो योगमार्ग हैं- ज्ञानयोग और कर्मयोग। मेरे सत्-स्वरूप में कभी अभाव नहीं होता, जबकि कामना आसक्ति अभाव में ही पैदा होती है- ऐसा समझकर असंग हो जाय- यह ज्ञानयोग है। जिन वस्तुओं में साधक का राग है, उन वस्तुओं को दूसरे की सेवा में खर्च कर दे और जिन व्यक्तियों में राग है, उनकी निःस्वार्थ भाव से सेवा कर दे- यह कर्मयोग है। इस प्रकार ज्ञानयोग में विवेक-विचार के द्वारा और कर्मयोग में सेवा के द्वारा संसार से संबंध विच्छेद हो जाता है। ‘एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति’- पूर्व श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान ने व्यतिरेक रीति से कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोग को बेसमझ लोग ही अलग-अलग फल देने वाले कहते हैं। उसी बात को अब अन्वय रीति से कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनों को फल दृष्टि से एक देखता है, वही यथार्थ रूप में देखता है। इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्लोक का सार यह है कि भगवान सांख्ययोग और कर्मयोग- दोनों को स्वतंत्र साधन मानते हैं और दोनों का फल एक ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति मानते हैं और दोनों का फल एक ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति मानते हैं। इस वास्तविकता को न जानने वाले मनुष्य को भगवान बेसमझ कहते हैं और इसे जानने वाले को भगवान यथार्थ जानने वाला कहते हैं। 


किसी भी साधन की पूर्णता होने पर जीने की इच्छा, मरने का भय, पाने का लालच और करने का राग- ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।


जो निरंतर मर रहा है अर्थात जिसका निरन्तर अभाव हो रहा है; उस शरीर में मरने का भय नहीं हो सकता; और जो नित्य-निरंतर रहता है, उस स्वरूप में जीने की इच्छा नहीं हो सकती तो फिर जीने की इच्छा और मरने का भय किसे होता है? जब स्वरूप शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसमें जीने की इच्छा और मरने का भय उत्पन्न हो जाता है। जीने की इच्छा और मरने का भय- ये दोनों ‘ज्ञानयोग’ से मिट जाते हैं।


पाने की इच्छा उसमें होती है, जिसमें कोई अभाव होता है। अपना स्वरूप भावरूप है, उसमें कभी अभाव नहीं हो सकता, इसलिये स्वरूप में कभी पाने की इच्छा नहीं होती। पाने की इच्छा न होने से उसमें कभी करने का राग उत्पन्न नहीं होता। स्वयं भावरूप होते हुए भी जब स्वरूप अभावरूप शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसे अपने में अभाव प्रतीत होने लग जाता है, जिससे उसमें पाने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है और पाने की इच्छा से करने का राग उत्पन्न हो जाता है। पाने की इच्छा और करने का राग- ये दोनों ‘कर्मयोग’ से मिट जाते हैं।


ज्ञानयोग और कर्मयोग- इन दोनों साधनों में से किसी एक साधन की पूर्णता होने पर जीने की इच्छा, मरने का भय, पाने का लालच और करने का राग- ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।

संन्यासस्तु[2] महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।। 5.6 ।।


अर्थ- परंतु हे महाबाहो! कर्मयोग के बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।


व्याख्या- ‘संन्यास्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः’- सांख्य योग की सफलता के लिये कर्मयोग का साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्ययोग की सिद्धि कठिनता से होती है। परंतु कर्मयोग की सिद्धि के लिये सांख्ययोग से होती है। परंतु कर्मयोग की सिद्धि के लिये सांख्ययोग का साधन करने की आवश्यकता नहीं है। यही भाव यहाँ ‘तु’ पद से प्रकट किया गया है।


सांख्ययोगी का लक्ष्य परमात्मतत्त्व का अनुभव करना होता है। परंतु राग रहते हुए इस साधन के द्वारा परमात्मतत्त्व के अनुभव की तो बात ही क्या है, इस साधन का समझ में आना भी कठिन है।


राग मिटाने का सुगम उपाय है- कर्मयोग का अनुष्ठान करना। कर्मयोग में प्रत्येक क्रिया दूसरों के हित के लिये ही की जाती है। दूसरों के हित का भाव होने से अपना राग स्वतः मिटता है। इसलिये कर्मयोग के आचरण द्वारा राग मिटाकर सांख्ययोग का साधन करना सुगम पड़ता है। कर्मयोग का साधन किये बिना सांख्ययोग का सिद्ध होना कठिन है।


‘योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति’- अपने निष्काम भाव का और दूसरों के हित का मनन करने वाले कर्मयोगी को यहाँ ‘मुनिः’ कहा गया है।


कर्मयोगी छोटी या बड़ी प्रत्येक क्रिया को करते समय यह देखता रहता है कि मेरा भाव निष्काम है या सकाम? सकाम भाव आते ही वह उसे मिटा देता है; क्योंकि सकामभाव आते ही वह क्रिया अपनी और अपने लिये हो जाती है।


दूसरों का हित कैसे हो? इस प्रकार मनन करने से राग का त्याग सुगमता से होता है।


उपर्युक्त पदों से भगवान कर्मयोग की विशेषता बता रहे हैं कि कर्मयोगी शीघ्र ही परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर लेता है। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में विलम्ब का कारण है- संसार का राग। निष्काम भावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करते रहने से कर्मयोगी के राग का सर्वथा अभाव हो जाता है। और राग का सर्वथा अभाव होने पर स्वतः सिद्ध परमात्मतत्त्व की अनुभूति हो जाती है। इसी आशय को भगवान ने चौथे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक में ‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विंदति’ पदों से बताया है कि योगसंसिद्ध होते ही अपने आप तत्त्वज्ञान की प्राप्ति अवश्यमेव हो जाती है। इस साधन में अन्य साधन की अपेक्षा नहीं है। इसकी सिद्धि में कठिनाई और विलंब भी नहीं है।


दूसरा कारण यह है कि देहधारी- देहाभिमानी मनुष्य संपूर्ण कर्मों का त्याग नहीं कर सकता, पर जो कर्मफल का त्यागी है, वह त्यागी कहलाता है। इससे यह ध्वनि निकलती है कि देहधारी कर्मों का त्याग तो नहीं कर सकता, पर कर्मफल का- फलेच्छा का त्याग तो कर ही सकता है। इसलिये कर्मयोग में सुगमता है।


कर्मयोग की महिमा में भगवान कहते हैं कि कर्मयोगी को तत्काल ही शांति प्राप्त हो जाती है- ‘त्यागाच्छान्ति रनन्तरम्’। वह संसार बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है- ‘सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’। अतः कर्मयोग का साधन सुगम, शीघ्र सिद्धिदायक और किसी अन्य साधन के बिना परमात्मप्राप्ति कराने वाला स्वतंत्र साधन है।




कर्मयोग ही श्रेष्ठ



संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसंन्यासकात्कर्मयोगी विशिष्यते ।। 5.2 ।।


श्रीभगवान बोले- संन्यास और कर्मयोग- दोनों ही कल्याण करने वाले हैं। परंतु उन दोनों में भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।


[भगवान के सिद्धांत के अनुसार सांख्ययोग और कर्मयोग का पालन प्रत्येक वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि के मनुष्य कर सकते हैं। कारण कि उनका सिद्धांत किसी वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि को लेकर नहीं है। इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन कर्मों का त्याग करके विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने की प्रचलित प्रणाली को ‘कर्मसंन्यास’ नाम से कहा है। पंरतु भगवान के सिद्धांत के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के लिये सांख्ययोग का पालन प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्रता से कर सकता है और उसका पालन करने में कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की आवश्यकता भी नहीं है। इसलिये भगवान प्रचलित मत का भी आदर करते हुए अपने सिद्धांत के अनुसार अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं।]


‘संन्यासः’- यहाँ ‘संन्यासः’ पद का अर्थ ‘सांख्ययोग’ है, कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं। अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कर्मों के त्यागपूर्वक संन्यास का विवेचन न करके कर्म करते हुए ज्ञान को प्राप्त करने का जो सांख्ययोग का मार्ग है, उसका विवेचन करते हैं। उस सांख्ययोग के द्वारा मनुष्य प्रत्येक वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि में रहते हुए प्रत्येक परिस्थिति में स्वतंत्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त कर सकता है अर्थात अपना कल्याण कर सकता है।


सांख्ययोग की साधना में विवेक विचार की मुख्यता रहती है। विवेक पूर्वक तीव्र वैराग्य के बिना यह साधना सफल नहीं होती। इस साधना में संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव होकर एकमात्र परमात्मतत्त्व पर दृष्टि रहती है। राग मिटे बिना संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव होना बहुत कठिन है। इसलिये भगवान ने देहाभिमानियों के लिये यह साधन क्लेशयुक्त बताया है। इसी अध्याय के छठे श्लोक में भी भगवान ने कहा है कि कर्मयोग का साधन किये बिना संन्यास का साधन होना कठिन है; क्योंकि संसार से राग हटाने के लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है।


‘कर्मयोगश्च’- मानव मात्र में कर्म करने का राग अनादिकाल से चला आ रहा है, जिसे मिटाने के लिये कर्म करना आवश्यक है। परंतु वे कर्म किस भाव और उद्देश्य से कैसे किये जाएँ कि करने का राग सर्वथा मिट जाय, उस कर्तव्य कर्म को करने की कला को ‘कर्मयोग’ कहते हैं। कर्मयोग में कार्य छोटा है या बड़ा, इस पर दृष्टि नहीं रहती। जो भी कर्तव्य कर्म सामने आ जाय, उसी को निष्काम भाव से दूसरों के हित के लिये करना है। कर्मों से संबंध विच्छेद करने के लिये यह आवश्यक है कि कर्म अपने लिये न किये जायँ। अपने लिये कर्म न करने का अर्थ है- कर्मों के बदले में अपने लिये कुछ भी पाने की इच्छा न होना। जब तक अपने लिये कुछ भी पाने की इच्छा रहती है, तब तक कर्मों के साथ संबंध बना रहता है।


‘निःश्रेयसकरावुभौ’- अर्जुन का प्रश्न था कि सांख्ययोग और कर्मयोग- इन दोनों साधनों में कौन सा साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करने वाला है? उत्तर में भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! ये दोनों ही साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करने वाले हैं। कारण कि दोनों के द्वारा ही समता की प्राप्ति होती है। इसी अध्याय के चौथे-पाँचवें श्लोकों में भी भगवान ने इसी बात की पुष्टि की है। तेरहवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में भी भगवान ने सांख्ययोग और कर्मयोग- दोनों से परमात्मतत्त्व का अनुभव होने की बात कही है। इसलिये ये दोनों ही परमात्म प्राप्ति के स्वतंत्र साधन हैं।

अध्याय ‘तयोस्तु कर्मसंन्यासात्’- एक ही सांख्ययोग के दो भेद हैं- एक तो चौथे अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मों का स्वरूप से त्याग है; और दूसरा, दूसरे अध्याय के ग्यारहवें से तीसवें श्लोक तक कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं है। यहाँ ‘कर्मसंन्यासात्’ पद दोनों ही प्रकार के सांख्ययोग का वाचक है। ‘कर्मयोगो विशिष्यते’- आगे के तीसरे श्लोक में भगवान ने इन पदों की व्याख्या करते हुए कहा है कि कर्मयोगी नित्य संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि वह सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। फिर छठे श्लोक में भगवान ने कहा कि कर्मयोग के बिना सांख्य योग का साधन होना कठिन है तथा कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य है कि सांख्ययोग में तो कर्मयोग की आवश्यकता है, पर कर्मयोग में सांख्ययोग की आवश्यकता नहीं है। इसलिये दोनों साधनों के कल्याण कारक होने पर भी भगवान कर्मयोग को ही श्रेष्ठ बताते हैं। कर्मयोगी लोकसंग्रह के लिये कर्म करता है- ‘लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमहर्सि’।[1] लोकसंग्रह का तात्पर्य है- निःस्वार्थभाव से लोक मर्यादा सुरक्षित रखने के लिये, लोगों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाने के लिये कर्म करना अर्थात केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना। इसी को गीता में ‘यज्ञार्थ कर्म’ के नाम से भी कहा गया है। जो केवल अपने लिये कर्म करता है, वह बँध जाता है।[2] परंतु कर्मयोगी निःस्वार्थ भाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करता है; अतः वह कर्मबंधन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है।[3] इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है। कर्मयोग का साधन प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा किया जा सकता है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि का क्यों न हो। परंतु अर्जुन जिस कर्मसंन्यास की बात करते हैं, वह एक विशेष परिस्थिति में किया जा सकता है[4]; क्योंकि तत्त्वज्ञ महापुरुष का मिलना, उनमें अपनी श्रद्धा होना और उनके पास जाकर निवास करना- ऐसी परिस्थिति हरेक मनुष्य को प्राप्त होनी संभव नहीं है। अतः प्रचलित प्रणाली के सांख्ययोग का साधन एक विशेष परिस्थिति में ही साध्य है, जबकि कर्मयोग का साधन प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक व्यक्ति के लिये साध्य है। इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है। प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करना कर्मयोग है। युद्ध जैसी घोर परिस्थिति में भी कर्मयोग का पालन किया जा सकता है। कर्मयोग का पालन करने में कोई भी मनुष्य किसी भी परिस्थिति में असमर्थ और पराधीन नहीं है; क्योंकि कर्मयोग में कुछ भी पाने की इच्छा का त्याग होता है। कुछ-न-कुछ पाने की इच्छा रहने से ही कर्तव्य कर्म करने में असमर्थता और पराधीनता का अनुभव होता है। कर्तृत्व भोक्तृत्व ही संसार है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी- इन दोनों को ही संसार से संबंध विच्छेद करना है, इसलिये दोनों ही साधकों को कर्तृत्व और भोक्तृत्व- इन दोनों को मिटाने की आवश्यकता है। तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि होने से सांख्ययोगी कर्तृत्व को मिटाता है। उतना तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि न होने से कर्मयोगी दूसरों के हित के लिये ही सब कर्म करके भोक्तृत्व को मिटाता है। इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्व का त्याग करके संसार से मुक्त होता है और कर्मयोगी भोक्तृत्व का अर्थात कुछ पाने की इच्छा का त्याग करके मुक्त होता है। यह नियम है कि कर्तृत्व का त्याग करने से भोक्तृत्व का त्याग और भोक्तृत्व का त्याग करने से कर्तृत्व का त्याग स्वतः हो जाता है। 


कुछ-न-कुछ पाने की इच्छा से ही कर्तृत्व होता है। जिस कर्म से अपने लिये किसी प्रकार के भी सुखभोग की इच्छा नहीं है, वह क्रियामात्र है, कर्म नहीं। जैसे यंत्र में कर्तृत्व नहीं रहता, ऐसे ही कर्मयोगी में कर्तृत्व नहीं रहता।


साधक को संसार के प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदि में स्पष्ट ही अपना राग दीखता है। उस राग को वह अपने बंधन का खास कारण मानता है तथा उसे मिटाने की चेष्टा भी करता है। उस राग को मिटाने के लिये कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ आदि को अपना नहीं मानता[1], अपने लिये कुछ नहीं करता तथा अपने लिये कुछ नहीं चाहता। क्रियाओं से सुख लेने का भाव न रहने से कर्मयोगी की क्रियाएँ परिणाम में सबका हित तता वर्तमान में सबकी प्रसन्नता और सुख के लिये ही हो जाती हैं। क्रियाओं से सुख लेने का भाव होने से क्रियाओं में अभिमान[2] और ममता हो जाती है। परंतु उनसे सुख लेने का भाव सर्वथा न रहने से कर्तृत्व समाप्त हो जाता है। कारण कि क्रियाएँ दोषी नहीं है, क्रियाजन्य आसक्ति और क्रियाओं के फल को चाहना ही दोषी है। जब साधक क्रियाजन्य सुख नहीं लेता तथा क्रियाओं का फल नहीं चाहता तब कर्तृत्व रह ही कैसे सकता है? क्योंकि कर्तृत्व टिकता है भोक्तृत्व पर। भोक्तृत्व न रहने से कर्तृत्व अपने उद्देश्य में[3] लीन हो जाता है और एक परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है।


कर्मयोगी का ‘अहम्’[4] शीघ्र तथा सुगमता पूर्वक नष्ट हो जाता है, जबकि ज्ञानयोगी का ‘अहम्’ दूर तक साथ रहता है। कारण यह है कि ‘मैं सेवक हूँ’[5] ऐसा मानने से कर्मयोगी का ‘अहम्’ भी सेव्य की सेवा में लग जाता है; परंतु ‘मैं मुमुक्षु हूँ’ ऐसा मानने से ज्ञानयोगी का ‘अहम्’ साथ रहता है। कर्मयोगी अपने लिये कुछ न करके केवल दूसरों के हित के लिये सब कर्म करता है, पर ज्ञानयोगी अपने हित के लिये साधन करता है। अपने हित के लिये साधन करने से ‘अहम्’ ज्यों-का-त्यों बना रहता है।


ज्ञानयोग की मुख्य बात है- संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव करना और कर्मयोग की मुख्य बात है- राग का अभाव करना। ज्ञानयोगी विचार के द्वारा संसार की सत्ता का अभाव तो करना चाहता है, पर पदार्थों में राग रहते हुए उसकी स्वतंत्रता सत्ता का अभाव होना बहुत कठिन है। यद्यपि विचारकाल में ज्ञानयोग के साधक को पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता का अभाव दीखता है, तथापि व्यवहारकाल में उन पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। परंतु कर्मयोग के साधक का लक्ष्य दूसरों को सुख पहुँचाने का रहने से उसका राग स्वतः मिट जाता है। इसके अतिरिक्त मिली हुई सामग्री का त्याग करना कर्मयोगी के लिये जितना सुगम पड़ता है, उतना ज्ञानयोगी के लिये नहीं। ज्ञानयोग की दृष्टि से किसी वस्तु को मायामात्र समझकर ऐसे ही उसका त्याग कर देना कठिन पड़ता है; परंतु वही वस्तु किसी के काम आती हुई दिखाई दे तो उसका त्याग करन सुगम पड़ता है।


जैसे, हमारे पास कंबल पड़े हैं तो उन कंबलों को दूसरों के काम में आते जानकर उनका त्याग करना अर्थात उनसे अपना राग हटाना साधारण बात है; परंतु[1] उन्हीं कम्बलों को विचार द्वारा अनित्य, क्षणभंगुर, स्वप्न के मायामय पदार्थ समझकर त्याग करने में[2] जिन वस्तुओं में हमारी सुख बुद्धि नहीं है, उन खराब वस्तुओं का त्याग तो सुगमता से हो जाता है, पर जिनमें हमारी सुख बुद्धि है, उन अच्छी वस्तुओं का त्याग कठिनता से होता है। परंतु दूसरे के काम आती देखकर जिन वस्तुओं में हमारी सुख बुद्धि है, उन वस्तुओं का त्याग सुगमता से हो जाता है; उन वस्तुओं का त्याग सुगमता से हो जाता है; जैसे- भोजन के समय थाली में से रोटी निकालनी पड़े तो ठंडी, बासी और रूखी रोटी ही निकालेंगे। परंतु यदि वही रोटी किसी दूसरे को देनी हो तो अच्छी रोटी ही निकालेंगे, खराब नहीँ। इसलिये कर्मयोग की प्रणाली से राग को मिटाये बिना सांख्ययोग का साधन होना बहुत कठिन है। विचार द्वारा पदार्थों की सत्ता न मानते हुए भी पदार्थों में स्वाभाविक राग रहने के कारण भोगों में फँसकर पतन तक होने की संभावना रहती है। केवल असत् के ज्ञान से अर्थात असत् को असत् जान लेने से राग की निवृत्ति नहीं होती।[3] जैसे, सिनेमा में दीखने वाले पदार्थों आदि की सत्ता नहीं है- ऐसा जानते हुए भी उसमें राग हो जाता है। सिनेमा देखने से चरित्र, समय, नेत्र शक्ति और धन- इन चारों का नाश होता है- ऐसा जानते हुए भी राग के कारण सिनेमा देखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वस्तु की सत्ता न होने पर भी उसमें राग अथवा संबंध रह सकता है। यदि राग न हो तो वस्तु की सत्ता मानने पर भी उसमें राग उत्पन्न नहीं होता। इसलिये साधक का मुख्य काम होना चाहिये- राग का अभाव करना, सत्ता का अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधने वाली वस्तु राग या संबंध ही है, सत्ता मात्र नहीं। पदार्थ चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत् से विलक्षण हो, यदि उसमें राग है तो वह बाँधने वाला हो ही जायगा। वास्तव में हमें कोई भी पदार्थ नहीं बाँधता। बाँधता है हमारा संबंध, जो राग से होता है। अतः हमारे पर राग मिटाने की ही जिम्मेवारी है। 

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।। 5.3 ।।


हे महाबाहो! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी का आकांक्षा करता है; वह[1] सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि द्वंद्वों से रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।


‘महाबाहो’- ‘महाबाहो’ संबोधन के दो अर्थ होते हैं- एक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान हों अर्थात जो शूरवीर हो; और दूसरा, जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों। अर्जुन के मित्र थे प्राणिमात्र के सुहृद भगवान श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर। इसलिये यह संबोधन देकर भगवान अर्जुन से मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोग के अनुसार सबकी सेवा करने का बल तुम्हारे में है। अतः तुम सुगमता से कर्मयोग की पालन कर सकते हो।


‘यो न द्वेष्टि’- कर्मयोगी वह होता है, जो किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, सिद्धांत आदि से द्वेष नहीं करता। कर्मयोगी का काम है सबकी सेवा करना, सबको सुख पहुँचाना। यदि उसका किसी के भी साथ किञ्चिन्मात्र भी द्वेष होगा तो उसके द्वारा कर्मयोग का आचरण सांगोपांग नहीं हो सकेगा। अतः जिससे कुछ भी द्वेष हो, उसकी सेवा कर्मयोगी को सर्वप्रथम करनी चाहिये। सबसे पहले ‘न द्वेष्टि’ पद देने का तात्पर्य यह है कि जो किसी को भी बुरा समझता है और किसी का भी बुरा चाहता है, वह कर्मयोग के तत्त्व को समझ ही नहीं सकता।


प्राणिमात्र के हित के उद्देश्य से कर्मयोगी के लिये बुराई का त्याग करना जितना आवश्यक है, उतना भलाई करना आवश्यक नहीं है। भलाई करने से केवल समाज का हित होता है; परंतु बुराई रहित होने से किञ्चिन्मात्र का हित होता है। कारण यह है कि भलाई करने में सीमित क्रियाओं और पदार्थों की प्रधानता रहती है; परंतु बुराईरहित होने में भीतर का असीम भाव प्रधान रहता है। यदि भीतर से बुरा भाव दूर न हुआ हो और बाहर से भलाई करें तो इससे अभिमान पैदा होगा, जो आसुरी संपत्ति का मूल है। भलाई करने का अभिमान तभी पैदा होता है, जब भीतर कुछ न कुछ बुराई हो। जहाँ अपूर्णता होती है, वहीं अभिमान पैदा होता है। परंतु जहाँ पूर्णता है, वहाँ अभिमन का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।


गहराई से देखा जाय तो नाशवान वस्तुओं की सहायता के बिना भलाई नहीं की जा सकती। जिन वस्तुओं से हम भलाई करते हैं, वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं; प्रत्युत उन्हीं की हैं, जिनकी हम भलाई करते हैं। फिर भी यदि भलाई का अभिमान होता है, तो यह नाशवान का संग है। जब तक नाशवान का संग है, तब तक ‘योग’ की सिद्धि नहीं होती। मैंने भलाई की- यह अभिमान बुराई से भी अधिक भयंकर है; क्योंकि यह भाव मैं-पन में बैठ जाता है। कर्म औ फल तो मिट जाते हैं, पर जब तक मैं-पन रहता है, तब तक मैं-पन में बैठा हुआ भलाई का अभिमान नहीं मिटता। दूसरी बात, बुराई को तो हम बुराई रूप से जानते ही हैं, पर भलाई को ‘बुराई रूप से नहीं जानते। इसलिये भलाई के अभिमान का त्याग करना बहुत कठिन है; जैसे- लोहे की हथकड़ी का तो त्याग कर सकते हैं; पर सोने की हथकड़ी का त्याग नहीं कर सकते; क्योंकि वह गहनतारूप से दीखती है। इसलिये बुराई रहित ही भलाई करनी चाहिये। वास्तव में बुराई का त्याग होने पर विश्वामात्र की भलाई अपने आप होती है, करनी नहीं पड़ती। इसलिये बुराई रहित महापुरुष अगर हिमालय की एकान्त गुफा में भी बैठा हो, तो भी उसके द्वारा विश्व का बहुत हित होता है।


‘न कांक्षति’- कर्मयोग में कामना का त्याग मुख्य है। कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदि की कामना नहीं करता। कामना त्याग और परहित में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। निष्काम होने के लिये दूसरे का हित करना आवश्यक है। दूसरे का हित करने से कामना के त्याग का बल आता है।


कर्मयोग में कर्ता निष्काम होता है, कर्म नहीं; क्योंकि जड़ होने के कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते। कर्म कर्ता के अधीन होते हैं, इसलिये कर्मों की अभिव्यक्ति कर्ता से ही होती है। निष्काम कर्ता के द्वारा ही निष्काम कर्म होते हैं, जिसे कर्मयोग कहते हैं। अतः चाहे ‘कर्मयोग’ कहें या ‘निष्काम कर्म’- दोनों का अर्थ एक ही होता है। सकाम कर्मयोग होता ही नहीं। निष्काम होने से कर्ता कर्मफल से असंग रहता है; परंतु जब कर्ता में सकामभाव आ जाता है, तब वह कर्मफल से बंध जाता है। सकामभाव तभी नष्ट होता है, जब कर्ता कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता, प्रत्युत संपूर्ण कर्म दूसरों के हित के लिये ही करता है। इसलिये कर्ता का भाव नित्य निरंतर निष्काम रहना चाहिये। कर्ता में जितना निष्कामभाव होगा, तना ही कर्मयोग का सही आचरण होगा। कर्ता के सर्वथा निष्काम होने पर कर्मयोग सिद्ध हो जाता है।


‘ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी’- अर्जुन ने युद्ध न करके भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने की इच्छा प्रकट की थी- ‘गुरुनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ अर्थात गुरुजनों को न मारकर संन्यास लेना ही श्रेष्ठ है। भगवान उसी बात का उत्तर देते हुए मानो कह रहे हैं कि हे अर्जुन! वह संन्यास तो गुरुजनों के मर जाने के भय से किया जाने वाला बाहरी संन्यास है, पर कर्मयोगी का संन्यास राग द्वेष के त्याग से होने वाला नित्य संन्यास अर्थात भीतरी एवं सच्चा संन्यास है।


आगे छठे अध्याय के पहले श्लोक में भी भगवान ने केवल अग्नि का त्याग करने वाले अर्थात संन्यास आश्रम मात्र ग्रहण करने वाले पुरुष को संन्यासी न कहकर भीतर से संसार के आश्रय का त्याग करने वाले कर्मयोगी को ही संन्यासी कहा है। इस प्रकार भगवान के मत में कर्मयोगी ही वास्तविक संन्यासी है।


कर्म करते हुए भी कर्मों से किसी प्रकार का संबंध न रखना ही संन्यास है। कर्मों से किसी प्रकार का संबंध न रखने वाले को कर्मों का फल कभी किसी अवस्था में किञ्चिन्मत्र भी नहीं मिलता- ‘न तु संन्यासिनां क्वचित्’। इसलिये शास्त्र विहित समस्त कर्म करते हुए भी कर्मयोगी सदा संन्यासी ही है।


कर्मयोग का अनुष्ठान किये बिना सांख्ययोग का पालन करना कठिन है। इसलिये सांख्ययोग का साधक पहले कर्मयोगी होता है, फिर संन्यासी होता है। परंतु कर्मयोग के साधक के लिये सांख्ययोग का अनुष्ठान करना आवश्यक नहीं है। इसलिये कर्मयोगी आरंभ से ही संन्यासी है।


जिसके राग द्वेष का अभाव हो गया है, उसे संन्यास आश्रम में जाने की आवश्यकता नहीं है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु, शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि अपनी नहीं है और अपने लिये भी नहीं है- ऐसा निश्चय होने के बाद राग द्वेष मिटकर ऐसा ही यथार्थ अनुभव हो जाता है, फिर व्यवहार में संसार से संबंध दीखने पर भी भीतर से संबंध होता ही नहीं। यही ‘नित्यसंन्यास’ है। लौकिक अथवा पारलौकिक प्रत्येक कार्य करते समय कर्मयोगी का संसार से सर्वथा संन्यास रहता है, इसलिये वह नित्य संन्यासी ही समझने योग्य है।


संसार से संबंध विच्छेद अर्थात लिप्तता का अभाव ही संन्यास है और कर्मयोगी में राग द्वेष न रहने से संसार से लिप्तता रहती ही नहीं। अतः कर्मयोगी नित्य संन्यासी है।


‘निर्द्वंद्वो हि........ सुखं बंधात्प्रमुच्यते’ साधना के आरंभ में साधक के अंतःकरण में द्वंद्व रहता है। सत्संग, स्वाध्याय, विचार आदि करने वह परमात्मप्राप्ति को अपना ध्येय तो मान लेता है, पर उसके अपने कहलाने वाले मन, इंद्रियों आदि की रुचि स्वाभाविक ही भोग भोगने तथा संग्रह करने में रहती है। इसलिये साधक कभी परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रह को। उसे जैसा संग मिलता है, उसी के अनुसार उसके भावों में परिवर्तन होता रहता है। ऐसा होने पर भी वह भोगों को शांति से नहीं भोग सकता; क्योंकि सत्संग आदि के संस्कार उसके अंतःकरण में वैराग्य[2] पैदा करते रहते हैं। इस प्रकार साधक के अंतःकरण में द्वंद्व चलता रहता है। इस द्वंद्व पर ही अहंभाव टिका हुआ है। हमें सांसारिक भोग और संग्रह में लगना ही नहीं है, प्रत्युत एकमात्र परमात्मतत्त्व को ही प्राप्त करना है- ऐसा दृढ़ निश्चय होने पर द्वंद्व नहीं रहता और अहंभाव परमात्मतत्त्व में लीन हो जाता है।


वास्तव में संसार का महत्त्व अंतःकरण में अंकित हो जाने से ही द्वंद्व रहता है। भोग भोगते रहने से, दूसरों से सुख चाहते रहने से संसार के प्राणी पदार्थों का महत्त्व अंतःकरण में अंकित हो जाता है। उनसे सुख लेने से वह महत्त्व बढ़ता जाता है, जिससे उनको प्राप्त करने की रुचि प्रबल हो जाती है। वह रुचि एक परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य को स्थायी और दृढ़ नहीं होने देती। इससे साधक में द्वंद्व बना रहता है। उद्देश्य की दृढ़ता के लिये साधक को यह पक्का विचार करना चाहिये कि कितना ही सुख, आराम, भोग क्यों न मिल जाये, मुझे उसे लेना ही नहीं है, प्रत्युत परहित के लिये उसका त्याग करना है। यह विचार जितना दृढ़ होगा, उतना ही साधक निर्द्वंद्व होगा।


निर्द्वंद्व होने की मुख्य बात इसी श्लोक में ‘न द्वेष्टि न कांक्षति’ पदों से कही गयी है; जिसका तात्पर्य है- राग द्वेष रहित होना। राग द्वेष को मिटाने के लिये यह विचार करना चाहिये कि अपने न चाहने पर भी अनुकूलता और प्रतिकूलता आती ही है अर्थात अपने चाहने पर अनुकूलता आती हो- ऐसी बात नहीं है और न चाहने पर प्रतिकूलता न आती हो- ऐसी बात भी नहीं है। अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्ध के फलस्वरूप आती जाती रहती है, फिर इसके आने अथवा जाने की चाहना क्यों करें? अनुकूलता के प्रति राग और प्रतिकूलता के प्रति द्वेष अपनी भूल से होता है। इस प्रकार का विचार करने से भूल मिटकर राग द्वेष सर्वथा समाप्त हो जाते हैं।


दूसरी बात यह है कि अपनी सत्ता स्वतंत्र है, किसी पदार्थ, व्यक्ति, क्रिया के अधीन नहीं है; क्योंकि सुषुप्ति- अवस्था में जब हम संसार को भूल जाते हैं, तब भी अपनी सत्ता बनी रहती है; जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भी हम प्राणी, पदार्थ के बिना रह सकते हैं। फिर उनमें राग द्वेष करके हम उनके अधीन क्यों बनें? इस प्रकार विचार करने से भी राग द्वेष मिट जाते हैं।


संसार का राग उत्पन्न और नष्ट होने वाला है। यह राग कभी स्थायी नहीं रहता; किंतु हम नये-नये प्राणी, पदार्थों में राग करके इसे बनाये रखने की चेष्टा करते हैं। परंतु परमात्मा की अभिलाषा उत्पन्न और नष्ट होने वाली नहीं है; क्योंकि परमात्मा का ही अंश होने के नाते जीव का परमात्मा से अखंड संबंध है। परमात्मा की अभिलाषा कभी घटती-बढ़ती भी नहीं। केवल संसार में राग अधिक होने पर वह घटती हुई और राग कम होने पर वह बढ़ती हुई दीखती है। इसलिये ‘मैं सदा जीता रहूँ; मैं सब कुछ जान लूँ; मैं सदा सुखी रहूँ’- इस रूप में सत्-चित् आनंद स्वरूप परमात्मा की अभिलाषा जीव मात्र में निरंतर रहती है। जब संसार का राग मिट जाता है और एकमात्र परमात्मा की अभिलाषा रह जाती है, तब द्वंद्व नहीं रहता।


कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- तीनों ही योग- मार्गों में निर्द्वंद्व होना बहुत आवश्यक है। जब तक द्वंद्व है, तब तक मुक्ति नहीं होती। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में राग और द्वेष- ये दो शत्रु हैं। निर्द्वंद्व होने से ये दोनों मिट जाते हैं और इनके मिटने से सुखपूर्वक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है।


संसार में उलझने के दो ही कारण हैं- राग और द्वेष। जितने भी साधन हैं, सब राग द्वेष को मिटाने के लिये ही है। राग द्वेष के मिटने पर नित्य प्राप्त परमात्मतत्त्व की अनुभूति स्वतः सिद्ध है। इसमें परिश्रम है ही नहीं। कारण कि परमात्मतत्त्व की अनुभूति असत् के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत सत् के त्याग से होती है। असत् की सत्ता राग द्वेष पर ही टिकी ही है। असत् संसार तो स्वतः ही मिट रहा है, पर अपने में राग द्वेष को पकड़ने से संसार स्थिर दीखता है। अतः जो संसार निरंतर मिट रहा है, उसमें राग द्वेष न रहने से मुक्ति नहीं होगी तो क्या सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।



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