योग विषयक समझ

 


सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः ।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ।। 5.4 ।।


बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग-अलग फल वाले कहते हैं, न कि पंडितजन; क्योंकि इन दोनों में से एक साधन में भी अच्छी तरह से स्थित मनुष्य दोनों के फलस्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।


‘सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्त न पंडिताः’- इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ने कर्मों का स्वरूप से त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करने के साधन को ‘कर्मसंन्यास’ नाम से कहा है। भगवान ने भी दूसरे श्लोक में अपने सिद्धांत की मुख्यता रखते हुए उसे ‘संन्यास’ और ‘कर्मसंन्यास’ नाम से कहा है। अब उस साधन को भगवान यहाँ ‘सांख्य’ नाम से कहते हैं। भगवान शरीर-शरीरी के भेद का विचार करके स्वरूप में स्थित होने को ‘सांख्य’ कहते हैं। भगवान के मत में ‘संन्यास’ और ‘सांख्य’ पर्यायवाची हैं, जिसमें कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। अर्जुन जिसे ‘कर्मसंन्यास’ नाम से कह रहे हैं, वह भी निःसंदेह भगवान के द्वारा कहे ‘सांख्य’ का ही एक अवान्तर भेद है। कारण कि गुरु से सुनकर भी साधक शरीर-शरीरी के भेद का ही विचार करता है।


‘बालाः’ पद से भगवान यह कहते हैं कि आयु और बुद्धि में बड़े होकर भी जो सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग-अलग फल वाले मानते हैं, वे बालक अर्थात बेसमझ ही हैं।


जिन महापुरुषों ने सांख्ययोग और कर्मयोग के तत्त्व को ठीक-ठीक समझा है, वे ही पंडित अर्थात बुद्धिमान हैं। वे लोग दोनों को अलग-अलग फल वाले नहीं कहते; क्योंकि वे दोनों साधनों की प्रणालियों को न देखकर उन दोनों के वास्तविक परिणाम को देखते हैं।


साधन प्रणाली को देखते हुए स्वयं भगवान ने तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में सांख्ययोग और कर्मयोग को दो प्रकार का साधन स्वीकार किया है। दोनों की साधन-प्रणाली तो अलग-अलग है, पर साध्य अलग-अलग नहीं है।


‘एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विदन्ते फलम्’- गीता में जगह-जगह सांख्ययोग और कर्मयोग का परमात्मप्राप्ति का रूप फल एक ही बताया गया है। तेरहवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में दोनों साधनों से अपने-आप में परमात्मतत्त्व का अनुभव होना बताया गया है। तीसरे अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में कर्मयोगी के लिये परमात्मा की प्राप्ति बतायी गयी है और बारहवें अध्याय के चौथे श्लोक में तथा तेरहवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में ज्ञानयोगी के लिये परमात्मा की प्राप्ति बतायी गयी है। इस प्रकार भगवान के मत में दोनों साधन एक ही फल वाले हैं।


यत्सांख्यैः प्राप्तये स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । 

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। 5.5 ।। 

अर्थ- सांख्ययोगियों के द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोग को एक देखता है, वही ठीक देखता है। व्याख्या- ‘यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते’- पूर्व श्लोक के उत्तरार्ध में भगवान ने कहा था कि एक साधन में भी अच्छी तरह से स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनों के फलस्वरूप परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर लेता है। उसी बात की पुष्टि भगवान उपर्युक्त पदों में दूसरे ढंग से कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्त करते हैं, वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं। संसार में जो यह मान्यता है कि कर्मयोग से कल्याण नहीं होता, कल्याण तो ज्ञानयोग से ही होता है- इस मान्यता को दूर करने के लिये यहाँ ‘अपि’ अव्यय का प्रयोग किया गया है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी- दोनों का ही अंत में कर्मों से अर्थात क्रियाशील प्रकृति से संबंध विच्छेद होता है। प्रकृति से संबंध विच्छेद होने पर दोनों ही योग एक हो जाते हैं। साधन काल में भी सांख्य योग का विवेक[2] कर्मयोगी को अपनाना पड़ता है और कर्मयोग की प्रणाली[3] सांख्य योगी को अपनानी पड़ती है। सांख्ययोग का विवेक प्रकृति पुरुष का संबंध विच्छेद करने के लिये होता है और कर्मयोग का कर्म संसार की सेवा के लिये होता है। सिद्ध होने पर सांख्ययोगी और कर्मयोगी- दोनो की एक स्थिति होती है; क्योंकि दोनों ही साधकों की अपनी निष्ठाएँ हैं।[4] संसार विषम है। घनिष्ठ-से-घनिष्ठ सांसारिक संबंध में भी विषमता रहती है। परंतु परमात्मा सम हैं। अतः समरूप परमात्मा की प्राप्ति संसार से सर्वथा संबंध विच्छेद होने पर ही होती है। संसार से संबंध विच्छेद करने के लिये दो योगमार्ग हैं- ज्ञानयोग और कर्मयोग। मेरे सत्-स्वरूप में कभी अभाव नहीं होता, जबकि कामना आसक्ति अभाव में ही पैदा होती है- ऐसा समझकर असंग हो जाय- यह ज्ञानयोग है। जिन वस्तुओं में साधक का राग है, उन वस्तुओं को दूसरे की सेवा में खर्च कर दे और जिन व्यक्तियों में राग है, उनकी निःस्वार्थ भाव से सेवा कर दे- यह कर्मयोग है। इस प्रकार ज्ञानयोग में विवेक-विचार के द्वारा और कर्मयोग में सेवा के द्वारा संसार से संबंध विच्छेद हो जाता है। ‘एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति’- पूर्व श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान ने व्यतिरेक रीति से कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोग को बेसमझ लोग ही अलग-अलग फल देने वाले कहते हैं। उसी बात को अब अन्वय रीति से कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनों को फल दृष्टि से एक देखता है, वही यथार्थ रूप में देखता है। इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्लोक का सार यह है कि भगवान सांख्ययोग और कर्मयोग- दोनों को स्वतंत्र साधन मानते हैं और दोनों का फल एक ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति मानते हैं और दोनों का फल एक ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति मानते हैं। इस वास्तविकता को न जानने वाले मनुष्य को भगवान बेसमझ कहते हैं और इसे जानने वाले को भगवान यथार्थ जानने वाला कहते हैं। 


किसी भी साधन की पूर्णता होने पर जीने की इच्छा, मरने का भय, पाने का लालच और करने का राग- ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।


जो निरंतर मर रहा है अर्थात जिसका निरन्तर अभाव हो रहा है; उस शरीर में मरने का भय नहीं हो सकता; और जो नित्य-निरंतर रहता है, उस स्वरूप में जीने की इच्छा नहीं हो सकती तो फिर जीने की इच्छा और मरने का भय किसे होता है? जब स्वरूप शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसमें जीने की इच्छा और मरने का भय उत्पन्न हो जाता है। जीने की इच्छा और मरने का भय- ये दोनों ‘ज्ञानयोग’ से मिट जाते हैं।


पाने की इच्छा उसमें होती है, जिसमें कोई अभाव होता है। अपना स्वरूप भावरूप है, उसमें कभी अभाव नहीं हो सकता, इसलिये स्वरूप में कभी पाने की इच्छा नहीं होती। पाने की इच्छा न होने से उसमें कभी करने का राग उत्पन्न नहीं होता। स्वयं भावरूप होते हुए भी जब स्वरूप अभावरूप शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब उसे अपने में अभाव प्रतीत होने लग जाता है, जिससे उसमें पाने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है और पाने की इच्छा से करने का राग उत्पन्न हो जाता है। पाने की इच्छा और करने का राग- ये दोनों ‘कर्मयोग’ से मिट जाते हैं।


ज्ञानयोग और कर्मयोग- इन दोनों साधनों में से किसी एक साधन की पूर्णता होने पर जीने की इच्छा, मरने का भय, पाने का लालच और करने का राग- ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।

संन्यासस्तु[2] महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।। 5.6 ।।


अर्थ- परंतु हे महाबाहो! कर्मयोग के बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।


व्याख्या- ‘संन्यास्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः’- सांख्य योग की सफलता के लिये कर्मयोग का साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्ययोग की सिद्धि कठिनता से होती है। परंतु कर्मयोग की सिद्धि के लिये सांख्ययोग से होती है। परंतु कर्मयोग की सिद्धि के लिये सांख्ययोग का साधन करने की आवश्यकता नहीं है। यही भाव यहाँ ‘तु’ पद से प्रकट किया गया है।


सांख्ययोगी का लक्ष्य परमात्मतत्त्व का अनुभव करना होता है। परंतु राग रहते हुए इस साधन के द्वारा परमात्मतत्त्व के अनुभव की तो बात ही क्या है, इस साधन का समझ में आना भी कठिन है।


राग मिटाने का सुगम उपाय है- कर्मयोग का अनुष्ठान करना। कर्मयोग में प्रत्येक क्रिया दूसरों के हित के लिये ही की जाती है। दूसरों के हित का भाव होने से अपना राग स्वतः मिटता है। इसलिये कर्मयोग के आचरण द्वारा राग मिटाकर सांख्ययोग का साधन करना सुगम पड़ता है। कर्मयोग का साधन किये बिना सांख्ययोग का सिद्ध होना कठिन है।


‘योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति’- अपने निष्काम भाव का और दूसरों के हित का मनन करने वाले कर्मयोगी को यहाँ ‘मुनिः’ कहा गया है।


कर्मयोगी छोटी या बड़ी प्रत्येक क्रिया को करते समय यह देखता रहता है कि मेरा भाव निष्काम है या सकाम? सकाम भाव आते ही वह उसे मिटा देता है; क्योंकि सकामभाव आते ही वह क्रिया अपनी और अपने लिये हो जाती है।


दूसरों का हित कैसे हो? इस प्रकार मनन करने से राग का त्याग सुगमता से होता है।


उपर्युक्त पदों से भगवान कर्मयोग की विशेषता बता रहे हैं कि कर्मयोगी शीघ्र ही परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर लेता है। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में विलम्ब का कारण है- संसार का राग। निष्काम भावपूर्वक केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करते रहने से कर्मयोगी के राग का सर्वथा अभाव हो जाता है। और राग का सर्वथा अभाव होने पर स्वतः सिद्ध परमात्मतत्त्व की अनुभूति हो जाती है। इसी आशय को भगवान ने चौथे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक में ‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विंदति’ पदों से बताया है कि योगसंसिद्ध होते ही अपने आप तत्त्वज्ञान की प्राप्ति अवश्यमेव हो जाती है। इस साधन में अन्य साधन की अपेक्षा नहीं है। इसकी सिद्धि में कठिनाई और विलंब भी नहीं है।


दूसरा कारण यह है कि देहधारी- देहाभिमानी मनुष्य संपूर्ण कर्मों का त्याग नहीं कर सकता, पर जो कर्मफल का त्यागी है, वह त्यागी कहलाता है। इससे यह ध्वनि निकलती है कि देहधारी कर्मों का त्याग तो नहीं कर सकता, पर कर्मफल का- फलेच्छा का त्याग तो कर ही सकता है। इसलिये कर्मयोग में सुगमता है।


कर्मयोग की महिमा में भगवान कहते हैं कि कर्मयोगी को तत्काल ही शांति प्राप्त हो जाती है- ‘त्यागाच्छान्ति रनन्तरम्’। वह संसार बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है- ‘सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’। अतः कर्मयोग का साधन सुगम, शीघ्र सिद्धिदायक और किसी अन्य साधन के बिना परमात्मप्राप्ति कराने वाला स्वतंत्र साधन है।




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