मोक्ष पाने की पात्रता

 


यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्त्वाय कल्पते ।। 15 ।।


क्योंकि हे पुरुष! दु:ख सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।। 15 ।।


प्रश्न- यहाँ ‘हि’ का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- ‘हि’ यहाँ हेतु के अर्थ में है। अभिप्राय यह है कि इन्द्रियों के साथ विषयों के संयोगों को किसलिये सहन करना चाहिये; यह बात इस श्लोक में बतलायी जाती है।


प्रश्न- ‘पुरुषर्षभ’ सम्बोधन का क्या भाव है?


उत्तर- ‘ऋषभ’ श्रेष्ठ का वाचक है। अतः पुरुषों में जो अधिक शूरवीर एवं बलवान् हो, उसे ‘पुरुषर्षभ’ कहते हैं। यहाँ अर्जुन को ‘पुरुषर्षभ’ नाम से सम्बोधित करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम बड़े शूरवीर हो, सहनशीलता तुम्हारा स्वाभाविक गुण है, अतः तुम सहज ही में इन सबको सहन कर सकते हो।


प्रश्न- ‘धीरम्’ पद किसका वाचक है?


उत्तर- ‘धीरम्’ पद अधिकांश में परमात्मा को प्राप्त पुरुष का ही वाचक होता है, पर कहीं-कहीं परमात्मा की प्राप्ति के पात्र को भी ‘धीर’ कह दिया जाता है। अतः यहाँ ‘धीरम्’ पद सांख्ययोग के साधन में परिपक्व स्थिति पर पहुँचे हुए साधक का वाचक है।


प्रश्न- ‘समदुःखसुखम्’ विशेषण का क्या भाव है?


उत्तर- इससे भगवान् ने धीर पुरुष का लक्षण बतलाया है कि जिस पुरुष के लिये सुख और दुःख सम हो गये हैं, उन्हें अनित्य समझकर जिसकी उन द्वन्द्वों में भेदबुद्धि नहीं रही है, वही ‘धीर’ है और वही इनको सहन करने में समर्थ है।


प्रश्न- ‘एते’ पद किनका वाचक है और ‘न व्यथयन्ति’ का क्या भाव है?


उत्तर- विषयों के साथ इन्द्रियों के जो संयोग हैं, जिनके लिये पूर्वश्लोक में ‘मात्रास्पर्शाः’ पद का प्रयोग किया गया है, उन्हीं का वाचक यहाँ ‘एते’ पद है और ‘न व्यथयन्ति’ से यह भाव दिखलाया है कि विषयों के संयोग-वियोग में राग-द्वेष और हर्ष-शोक न करने का अभ्यास करते-करते जब साधक की ऐसी स्थिति हो जाती है कि किसी भी इन्द्रिय का किसी भी भोग के साथ संयोग किसी प्रकार उसे व्याकुल नहीं कर सकता, उसमें किसी तरह का विकार उत्पन्न नहीं कर सकता, तब यह समझना चाहिये कि यह ‘धीर’ और सुख-दुःख में ‘समभाव वाला’ हो गया है।


प्रश्न- ‘वह मोक्ष के योग्य होता है’ इसका क्या भाव है?


उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि उपर्युक्त समभाव वाला पुरुष मोक्ष का- परमात्मा की प्राप्ति का पात्र बन जाता है और उसे शीघ्र ही अपरोक्षभाव से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।


नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:।। 16।।


असत् वस्तु की तो सत्ता ही नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।। 16 ।।


प्रश्न- ‘असतः’ पद यहाँ किसका वाचक है और ‘उसकी सत्ता नहीं है’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- ‘असतः’ पद यहाँ परिवर्तनशील शरीर, इन्द्रिय और इन्द्रियों के विषयों सहित समस्त जडवर्ग का वाचक है और ‘उसकी सत्ता यानी भाव नहीं है’ इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वह जिस काल में प्रतीत होता है, उसके पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा; अतएव जिस समय प्रतीत होता है, उस समय भी वास्तव में नहीं है। इसलिये यदि तुम भीष्मादि स्वजनों के शरीरों के या अन्य किसी जड वस्तु के नाश की आशंका से शोक करते हो तो तुम्हारा यह शोक करना अनुचित है।


प्रश्न- ‘सतः’ पद यहाँ किसका वाचक है और ‘उसका अभाव नहीं है’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- ‘सतः’ पद यहाँ परमात्मतत्त्व का वाचक है, जो सर्वव्यापी है और नित्य है। ‘उसका अभाव नहीं है’ इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि उसका कभी किसी भी निमित्त से परिवर्तन या अभाव नहीं होता। वह सदा एकरस, अखण्ड और निर्विकार रहता है। इसलिये यदि तुम आत्मरूप से भीष्मादि के नाश की आशंका करके शोक करते हो, तो भी तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है।


प्रश्न- ‘अनयोः’ विशेषण के सहित ‘उभयोः’ पद किनका वाचक है और तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों द्वारा उनका तत्त्व देखा जाना क्या है?


उत्तर- ‘अनयोः’ विशेषण के सहित ‘उभयोः’ पद उपर्युक्त ‘असत्’ और ‘सत्’ दोनों का वाचक है तथा तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों द्वारा उन दोनों का विवेचन करके जो यह निश्चय कर लेना है कि जिस वस्तु का परिवर्तन और नाश होता है, जो सदा नहीं रहती, वह असत् है- अर्थात् असत् वस्तु का विद्यमान रहना सम्भव नहीं और जिसका परिवर्तन और नाश किसी भी अवस्था में किसी भी निमित्त से नहीं होता, जो सदा विद्यमान रहती है, वह सत् है- अर्थात् सत् का कभी अभाव होता ही नहीं- यह तत्त्वदर्शी पुरुषों द्वारा उन दोनों का तत्त्व देखा जाना है।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। 17 ।।


नाशरहित तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ।। 17।।


प्रश्न- ‘सर्वम्’ के सहित ‘इदम्’ पद यहाँ किसका वाचक है और वह किसके द्वारा व्याप्त है तथा जिससे व्याप्त है उसे अविनाशी कहने का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- शरीर, इन्द्रिय, मन, भोगों की सामग्री और भोग-स्थान आदि समस्त जडवर्ग का वाचक यहाँ ‘सर्वम्’ के सहित ‘इदम्’ पद है। वह सम्पूर्ण जडवर्ग चेतन परमात्मतत्त्व से व्याप्त है। उस परमात्मतत्त्व को अविनाशी कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि पूर्वश्लोक में जिस ‘सत्’ तत्त्व का मैंने लक्षण किया है तथा तत्त्व-ज्ञानियों ने जिस तत्त्व को ‘सत्’ निश्चित किया है, वह परमात्मा ही अविनाशी नाम से कहा गया है।


प्रश्न- इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है, इस कथन का क्या भाव है?


उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि आकाश से बादल के सदृश इस परमात्मतत्त्व के द्वारा अन्य सब जडवर्ग व्याप्त होने के कारण उनमें से कोई भी इस परमात्मतत्त्व का नाश नहीं कर सकता; अतएव सदा-सर्वदा विद्यमान रहने वाला होने से यही एकमात्र ‘सत्’ तत्त्व है।


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।। 18 ।।


इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर ।। 18 ।।


प्रश्न- ‘इमे’ के सहित ‘देहाः’ पद यहाँ किनका वाचक है? और उन सबको ‘अन्तवन्तः’ कहने का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- ‘इमे’ के सहित ‘देहाः’ पद यहाँ समस्त शरीरों का वाचक है और असत् की व्याख्या करने के लिये उनको ‘अन्तवन्तः’ कहा है। अभिप्राय यह है कि अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित समस्त शरीर नाशवान् हैं। जैसे स्वप्न के शरीर और समस्त जगत् बिना हुए ही प्रतीत होते हैं, वैसे ही ये समस्त शरीर भी बिना हुए ही अज्ञान-से प्रतीत हो रहे हैं; वास्तव में इनकी सत्ता नहीं है। इसलिये इनका नाश होना अवश्यम्भावी है, अतएव इनके लिये शोक करना व्यर्थ है।


प्रश्न- यहाँ ‘देहाः’ पद में बहुवचन का और ‘शरीरिणः’ पद में एकवचन का प्रयोग किसलिये किया गया है?


उत्तर- इस प्रयोग से भगवान् ने यह दिखलाया है कि समस्त शरीरों में एक ही आत्मा है। शरीरों के भेद से अज्ञान के कारण आत्मा में भेद प्रतीत होता है, वास्तव में भेद नहीं है।


प्रश्न- ‘शरीरिणः’ पद यहाँ किसका वाचक है और उसके साथ ‘नित्यस्य’, ‘अनाशिनः’ और ‘अप्रमेयस्य’ विशेषण देने का तथा शरीरों के साथ उसका सम्बन्ध दिखलाने का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- पूर्व श्लोक में जिस ‘सत्’ तत्त्व से समस्त जड-वर्ग को व्याप्त बतलाया है, उसी तत्त्व का वाचक यहाँ ‘शरीरिणः’ पद है तथा इन तीनों विशेषणों का प्रयोग उस ‘सत्’ तत्त्व के साथ इसकी एकता करने के लिये ही किया है एवं इसे ‘शरीरी’ कहकर तथा शरीरों के साथ इसका सम्बन्ध दिखलाकर आत्मा और परमात्मा की एकता का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि व्यावहारिक दृष्टि से जो भिन्न-भिन्न शरीरों को धारण करने वाले, उनसे सम्बन्ध रखने वाले भिन्न-भिन्न आत्मा प्रतीत होते हैं, वे वस्तुतः भिन्न-भिन्न नहीं हैं, सब एक ही चेतन तत्त्व है; जैसे निद्रा के समय स्वप्न की सृष्टि में एक पुरुष के सिवा कोई वस्तु नहीं होती, स्वप्न का समस्त नानात्व निद्राजनित होता है, जागने के बाद पुरुष एक ही रह जाता है, वैसे ही यहाँ भी समस्त नानात्व अज्ञानजनित है, ज्ञान के अनन्तर कोई नानात्व नहीं रहता।


प्रश्न- हेतु वाचक ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके युद्ध के लिये आज्ञा देने का यहाँ क्या अभिप्राय है?


उत्तर- हेतु वाचक ‘तस्मात्’ पद के सहित युद्ध के लिये आज्ञा देकर भगवान् ने यहाँ यह दिखलाया है कि जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि शरीर नाशवान् हैं, उनका नाश अनिवार्य है और आत्मा नित्य है, उसका कभी नाश होता नहीं, तब युद्ध में किंचिन्मात्र भी शोक का कोई कारण नहीं है। अतएव अब तुमको युद्ध में किसी तरह की आनाकानी नहीं करनी चाहिये।

अर्जुन ने जो यह बात कही थी कि ‘मैं इनको मारना नहीं चाहता और यदि वे मुझे मार डालें तो वह मेरे लिये क्षेमकर होगा’ उसका स्पष्ट समाधान नहीं किया। अतः अगले श्लोकों में ‘आत्मा को मरने या मारने वाला मानना अज्ञान है’, यह कहकर उसका समाधान करते हैं-   य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।। 19 ।।[1] जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है ।। 19 ।। प्रश्न- यदि आत्मा न मरता है और न किसी को मारता है तो मरने और मारने वाला फिर कौन है? उत्तर- स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर के वियोग को ‘मरना’ कहते हैं, अतएव मरने वाला स्थूल शरीर है; इसीलिये पहले ‘अन्तवन्तः इमे देहाः’ कहा गया। इसी तरह मन-बुद्धि के सहित जिस स्थूल शरीर की क्रिया से किसी दूसरे स्थूल शरीर के प्राणों का वियोग होता है, उसे ‘मारने वाला’ कहते हैं। अतः मारने वाला भी शरीर ही है, आत्मा नहीं; किंतु शरीर के धर्मों को अपने में अध्यारोपित करके अज्ञानी लोग आत्मा को मारने वाला (कर्ता) मान लेते हैं[2], इसीलिये उनको उन कर्मों का फल भोगना पड़ता है।



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