मैत्री और मित्र भाव

 


चंदन सुकुमार सेनगुप्ता

            उत्तर भारत के एक रेलवे स्टेशन पर एक महात्मा काफ़ी देर तक उच्च दर्जे के प्रतीक्षालय में बैठे रहे | सिपाही उनके बारे में स्टेशन मास्टर को जाकर बताना मुनासिब समझकर केबिन में दाखिल हुए और मास्टरजी को साथ में लाकर उस महात्मा का दर्शन कराया | मास्टरजी को लगा कि अब इस आगंतुक से कैसे निपटना चाहिए जबकि एक घंटे बाद उनका कार्य ख़तम होनेवाला है और दूसरा कोई स्टेशन मास्टर आ धमकेगा ! जाहिर सी बात है कि अब इस मेहमान को घर पर ही ले जाना चाहिए | ऐसा ही हुआ और घर पर रखे भोजन का डब्बा महात्मा जी को ही परोसा गया | "हम दोनों एक साथ इसी भोजन को बाँटकर खा लेंगे.." महात्मा के वाक्य को आदेश समझकर शरतबाबू खाने के लिए बैठ गये और दोनों में इधर उधर की बातें होने लगी | इस वार्तालाप के ज़रिए एक भक्त अपने गुरु को पहचान रहा था और एक गुरु अपने भक्त को पहचान रहा था | दोनों के संवाद में क्रमिक गहराई आती जा रही थी, और दोनों ही अपने अपने आत्मिक पूर्ति हो पाने की संभावना के बारे में सोचकर खुश थे |

"तो प्रभु दीक्षा दे दीजिए, और देर क्यों...?" भक्त का उतावलापन देखते ही बन रहा था और गुरु उन्हें परखने का सिलसिला जारी रखे थे |

"अगर तुम अपने सुंदर चेहरे पर कालिमा पोतकर आ सको तो मैं समझूंगा तुम्हारे मन में भक्ति की धारा बहने लगी है और तुम भगवत अनुकमा पाने के हकदार हो |

हक़ीकत में शरतबाबू ऐसा करके आ गये और फिर भक्त और भगवान के बीच की मैत्री तो पक्की थी | दोनों अपने ध्येय मार्ग पर चल पड़े और मठ , पीठस्थान  आदि की स्थापना होने लगी , शरतबाबू उस मंगल कार्य में एकरूप हो गये और परिव्राजक महात्मा अपने ध्येय मार्ग पर चल पड़े , जहाँ अगला पड़ाव उनका इंतजार कर रहा था | संघ से महासंघ बनने का पूरा कार्यक्रम मैत्री की धारा से ही स्नात रहती है और इसमें साधक जनों का क्रमिक समावेश निरंतर होते ही रहता है; अपितु आनेवाले समय में ऐसा ही कुछ होता रहेगा ऐसा हम उम्मीद भी रखना चाहेंगे ; होना भी यही चाहिए ताकि ज्ञान, निष्ठा, त्याग , वैराग्य और भक्ति की निरंतर धारा से हमारा समाज सँवरता रहे |

यह भी सुनिश्चित हो कि हर व्यक्ति को समाज और राष्ट्र के मूल धारा से जोड़ा जाना संभव हो सके; लोगों के मौलिक ज़रूरतें पूर्ण करने का मौका मिले; लोग अन्य समाज और समुदाय की ज़रूरतों को समझे; सिर्फ़ इतना ही नहीं तय किए गये ध्येय मार्ग पर चल पड़ने के लिए पर्याप्त आत्मबल का सम्मेलन करे |

मानवता का परिपोषक और उसके विपरीत , मार्ग पर चल पड़ने के आधार को नियामक मानकर विश्व को हम दो धूरी में बँट जाते हुए भी अब देख सकेंगे | संवेदनाओं को आधार मानकर संघों के सम्मेलन से ही मानवता का परिपोषक और परिचालक महासंघ भी बनेगा | उस ओर संघीय ढाँचों के मुखिया पहल कर भी चुके हैं | पिछले शताब्दी में हमने दो महासंघों को बनते और बिखरते भी देखा है | इस शताब्दी में भी उससे कहीं बलशाली एक महासंघ का निर्माण होगा और पुराने संघीय वतावस्था में कुछ फेर बदल करके उसे मिला लिया जाएगा या फिर पुराने संघ को पूरी तरह से नष्ट करके नये महासंघ की रूपरेखा को प्रस्तावित कर दिया जाएगा | कोई भी संघ जब जनता जनार्दन के अरमानों और आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाते हों तो उसका यही अंजाम होना एक भवितव्य मानना होगा |

अब वैसा समय नहीं रहा कि किसी एक गुट या संप्रदाय का वर्चस्व अन्य लोग आसानी से स्वीकार कर लें | सबके मतों को पुष्ट करते हुए प्रतिभागिता आधारित व्यवस्था के ज़रिए ही संघीय ढाँचों को ज़्यादा से ज़्यादा बल मिलेगा | इस ढाँचे से अलग होकर कोई भी व्यवस्था ज़्यादा कारगर सिद्ध नहीं हो सकती, ही उसे ऐसा होने देने की ज़रूरत है |

गुरु शिष्य परंपरा का विवरण रामायण में दर्ज किया गया, मित्र और मैत्री परंपरा का निदर्शण महाभारत में दर्ज हुआ, राजतंत्र के ऊपर से विश्वास हटने के क्रम में लोकतांत्रिक और समजतन्त्रिक व्यवस्था का मिश्रण आधुनिक विश्व का परिपंथी  रहा और अब सूचना तंत्र और प्रौद्योगिकी के बल पर क्रियान्वित रहने के मंत्र से अत्याधुनिक विश्व का क्रियान्वयन होना तय है | इस परिस्थिति में उसी संप्रदाय या समूह को अधिकाधिक समर्थन प्राप्त होगा जिसके पास तांत्रिकी का बल है | जो संसार को एक बलशाली निदान देते हुए प्रगति के मार्ग पर समुचित तरीके से मार्गदर्शन कर सकेंगे | जिनके पाससर्वजन हिताय सर्वजन सूखायकोई समाधान सूत्र रहेगा |

भक्त की पहचान

सिर्फ़ बाहरी क्रिया कलाप देख लेने से और तपस्या के नियमों के अधीन किसी भक्त को कार्यरत देख लेने से शायद ही किसी भक्त को सही तरीके से पहचाना जा सके | भक्त और भक्ति के सम्मेलन को शायद ही समुचित रूप से परखा जा सके और शायद ही उस आधार पर किसी लंबी अवधि के गुण उत्कर्ष के निर्णय पर टिका जा सके | एक भक्त के बारे में बताते हुए श्री हरि हमें उन सभी अवयवों से परिचित कराते रहे, जैसा कि गीता में भी कई जगहों पर दर्ज की गई, भक्त के गुण उत्कर्ष की संभावना का भी बखान करते रहे | सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित, सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु, ममतारहित, अहंकाररहित, सुख-दुःख की प्राप्ति में मानसिक संतुलन बनाए रखनेवाला , समत्व बुद्धि का धनी,  क्षमाशील, निरंतर ही स्थान काल और परिस्थिति व्यतिरेक  संतुष्ट रहनेवाला, योगी, शरीर , मन और इंद्रिय को वश में किए हुए, दृढ़ निश्चय का धारक, ईश्वर के विषय  में अर्पित मन-बुद्धि का धनी  भक्त ही ईश्वर का प्रियपात्र हो सकता | (गीता १२.१२ -१३)

ज्ञान, निष्कामता, नैर्व्यक्तिकता, समता, स्वतःस्थित आंतर शांति और आनंद, प्रकृति के त्रिगुण के मायाजाल से छुटकारा या कम-से-कम उससे ऊपर उठे रहने की स्थिति, ये सब मुक्त पुरुष के लक्षण हैं और ऐसे पुरुष किसी भी क्षण भंगूर पार्थिव बंधन में खुद को नहीं डालते; यहाँ तक कि एक आत्म प्रत्यय के साथ निर्लिप्त भाव से क्रियाशील रहते हैं | भगवान का स्वभाव भक्त में अवतरित होने के कारण, जैसा कि देवत्व के अवतरण के विज्ञान से हम समझ सकते हों,  भक्त भी विश्व चराचर जगत के संपूर्ण प्राणियों को सुहृद होता है - "‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्[ श्रीमद्भागवत 3-25-21]" इसलिए भक्त का भी सभी प्राणियों के प्रति बिना किसी स्वार्थ के स्वाभाविक ही मैत्री और दया का भाव रहता है-

हेतु रहित जग जुग उपकारी तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ।।मानस : ४७- ||

चित्त में निर्मलता का आना उतना ही ज़रूरी है जितना की तत्व चिंतन में पवित्रता और गहराई , जितना कि मन और बुद्धि की सुगमता, जितना कि अहम को नियंत्रित रखते हुए सात्विकता से पुष्ट रहने का विधान |

"‘मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःकपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।’[-३३]"

 

सुखियों के प्रति मैत्री, दुःखियों के प्रति करुणा, पुण्यात्माओं के प्रति मुदिता (प्रसन्नता) और पापात्माओं के प्रति उपेक्षा के भाव से चित्त में निर्मलता आती है।

परंतु भगवान ने इन चारों हेतुओं को दो में विभक्त कर दिया है- “मैत्रः करुणः” तत्व ज्ञान से पुष्ट भगवत भक्ति के धनी साधक का  सुखियों और पुण्यात्माओं के प्रतिमैत्रीका भाव तथा दुःखियों और पापात्माओं के प्रतिकरुणाका भाव रहना ही स्वाभाविक है |  दुःख पाने वाले की अपेक्षा दुःख देने वाले पर (उपेक्षा का भाव होकर) दया होनी चाहिए; क्योंकि दुःख पाने वाला तो (पुराने पापों का फल भोगकर) पापों से छूट रहा है, पर दुःख देने वाला नये तरीके से खुद को पाप के जताजाल में खुद को डाल रहा है; यही कारण है कि किसी को पपीड़ा पहुँचानेवाला कोई भी जीवात्मा दया, करुणा और उपेक्षा का विशेष पात्र ; ताकि उस पापी से भक्त को एक सुरक्षित दूरी मी सके, भक्त के चित्त को पापी क्रिया कलुषित कर सके, भक्त के मन, बुद्धि और चित्त की निर्मलता बनी रहे |

सतपुरुष के अंतःकरण की प्रवृत्ति के बारे में भी हमारी यही धारणा बनती है कि अंतःकरण की शुद्धता से हम सतपुरुष के चित्त, मन और बुद्धि को सम्यक ज्ञान का आधार मिल ही जाएगा |  इस विषय में अन्य कोई प्रमाण की आवश्यकता है ही नहीं ; सत्पुरुष के अंतःकरण की प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है |

"सतां हि संदेहपदेहषुक वस्तुषु प्रमाणमन्तः करणप्रवृत्तयः ………”

।।[महाकवि कालिदास ||

जब न्यायशील सत्पुरुष की इंद्रियों की प्रवृत्ति भी स्वतः ग़लत और भ्रांत मार्ग की ओर गतिशील नहीं हो सकती, तब सिद्ध भक्त , जो न्याय, निष्ठा और कर्तव्य पथ  से कभी किसी भी अवस्था में स्खलित नहीं हुआ होगा , उसकी मन-बुद्धि-इंद्रियाँ कुमार्ग की ओर जा ही कैसे सकती ! ईश्वर अनुकंपा का धनी भक्त वत्सल के कुछ घुन प्रत्यक्ष रूप से सन्दर्भित होता हुआ देखा जा सकेगा : जिससे किसी प्राणी को उद्वेग नहीं होता और जिसको खुद भी किसी प्राणी से उद्वेग या विराग नहीं होता तथा जो हर्ष, अमहर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग से रहित होकर सदा भगवतकर्म में लिप्त रहता है, जो आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से पवित्र, दक्ष, उदासीन, व्यथा से रहित और सभी आरंभों का अर्थात नये-नये कर्मों के आरंभ का सर्वथा त्यागी है; जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कुछ ख़ास पाने की कामना रखता हो, न ही विचलित होता हो और जो शुभ-अशुभ कर्मों में राग-द्वेष के द्वंद से खुद को बचाकर रखने में कामयाब रहता हो, वह भक्तिमान भगवत अनुरागी;  वही ईष्ट को प्रिय भी है और ईश्वर अनुराग पाने का प्रयास भी करेगा | [ गीता १२.१५-१६, १७]

शुद्ध चित्त और पवित्र आत्मा का धनी भक्त भी समय समय पर और स्थान काल पर पवित्रता लाने में कारक स्वरूप बने रह सकेंगे, एक मान्यता यह भी रहेगी कि , जो पहले से ही काफ़ी पवित्र माने जाते रहे होंगे, वह तीर्थ भी उनके चरण-सर्श से पवित्र हो जाते हैं ; सारा परिमंडल ही उस पवित्रता को अनुभव कर पाता होगा; पर उन भक्तों के मन में ऐसा अहंकार या कृत कर्म का भान शायद ही उत्पन्न हो सके; और शायद ही भक्त वत्सल खुद को करता मान सके, कर्तापन का बखान कर सके, या फिर श्रेय पाने की आशा लिए अग्रज की भूमिका ले! ऐसे भक्त अपने हृदय में विराजितपवित्राणां पवित्रम्’ (पवित्र  को भी पवित्र करने वाले) ईश्वर अनुकंपा  से तीर्थों को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते रहेंगे -

तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वतान्तःस्थेन गदाभृता ।। (श्रीमद्भा. 111310)

वास्तविकता की पृष्ठभूमि पर भी इस आशय की पुष्टि हो रही है कि संत महात्मा और दिव्य पुरुष के सम्मेलन से ही तीर्थ को और पवित्र एवं अधिक फलप्रद बनाया जा सकेगा ; ऐसा इसलिए भी कि संत महात्मा अपने दिव्य वचन से उस धरती को स्नात करते रहेंगे; वह इसलिए भी कि दिव्य ज्ञान के धनी अन्य भक्त वत्सालों का भी निरंतर प्रबोधन करते रहेंगे; ऐसा करते रहने से भक्तों के तीर्थ दर्शन का प्रत्यक्ष फल भी परिलक्षित होता रहेगा |

जिसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया ईश्वर अनुकंपा का धनी बन गया और सभी प्रकार से खुद को पूर्ण बनाने का सफल प्रयास में लग गया, वही वास्तव में दक्ष अर्थात चतुर है, अपितु ज्ञानी भी | श्री मदभागवत में कहा गया है --

"एका बुद्धिमत्तां बुद्धिर्मनीषा मनीषिणाम्

यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ।।"

 -- ‘विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसी में मानी जाएगी कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा सर्वशक्तिमान अविनाशी एवं सत्य तत्त्व को प्राप्त कर लेने के प्रयास में लगे रहें जबतक कि ध्येय प्राप्ति में सफलता मिले | अर्थोपार्जन, संपदा आहरण आदि भौतिक सुख और समृद्धि के लिए किया जानेवाला  सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तव में दक्षता नहीं मानी जा सकती, और ही उसके बल पर भगवत्प्राप्ति  के किसी भी उपक्रम को अमल में लाया जा सकेगा |  एक दृष्टि से तो व्यवहार में अधिक दक्षता होना मंगलकारक नहीं हो सकता, ही सुखप्रद; क्योंकि इससे अंतःकरण में जड़ पदार्थों के प्रति आदर और उसे प्रात करने की अभिलाषा बढ़ती ही रहेगी, उसपर कभी अंकुश नहीं पाया जा सकेगा और ही उसके ज़रिए अनपनेवाले बंधन से मुक्ति का मार्ग खुल सकेगा; सिर्फ़ यह ही नहीं ध्रुव सत्य से लगाव कम होता रहेगा और सिर्फ़ भौतिक सुख समृद्धि पाने के लिए चित्त उद्ग्रीव हो उठेगा, जो मनुष्य के पतन का कारण भी हो सकता है। सिद्ध भक्त में व्यावहारिक (सांसारिक) दक्षता भी होती है, और कौशल युक्त  कर्म को भगवत प्राप्ति  के लिए अर्पित कर देने की तमन्ना भी |

अनुकूलता - प्रतिकूलता, सुख -दुःख, ताप - संताप आदि विपरीत परिस्थितियों में सदा समभावी रहनेवाला भागवत अनुरागी तनिक भी अपने ध्येय मार्ग से विचलित नहीं हो सकता; ही खुद को किसी भ्रम या मिथ्याचार में डाल सकता ; यह एक ऐसी परिस्थिति है जिसमें भगवत अनुरागी को मृण्मय और चिन्मय में एकरूपता का दर्शन हो जाता और अविनश्वर भगवत के प्रति गभीर अनुराग से पुष्ट होकर उसी ध्रुव की प्राप्ति, एक प्राप्त की प्राप्ति के लिए सचेष्ट हो उठता | [ सन्दर्भ : गीता अध्याय १२ श्लोक १८-१९ ] भक्त का आधार भक्ति, मित्र का आधार मैत्री और ध्याता का आधार ध्येय: इन सभी आधारभूत अवयवों का धारक  भूतात्मा जगदीश्वर के सान्निध्य और अनुकंपा को भली भाँति महसूस कर पाता है और उसी आधार के परिधि में अपने मानसिक , बौद्धिक और इंद्रिय-जन्य क्रियाओं पर नियंत्रण स्थापित कर पाता है | इसे पूर्णता प्राप्ति के मार्ग में प्रगतिशील तपस्या का एक पड़ाव मान सकेंगे |

योग सूत्र में कहा गया : -- प्रतिभाद्वा सर्वम [ योग प्रदीप - ३४ ]

---- प्रतिभा के आधार पर ज्ञान अर्जित करने से संपूर्ण ज्ञान का अधिष्ठान होता है ; इसी को सर्व समावेशक और सम्यक ज्ञान भी माना जा सकेगा |

योग शास्त्र  में सिद्धियों को भी बारीकी से गिनाया गया है और उसके आधार पर सिद्ध पुरुष के कर्म तत्परता को भी हम समझ सकेंगे |

अणिमा- - किसी के शरीर के आकार को कम करने और सबसे छोटे कण से भी छोटा होने की क्षमता। यह एक ऐसी परिस्थिति है जिसके आधार पर साधक देहाभिमान को छोड़ पाने की क्षमता भी पा सकेंगे |

महिमा  - किसी के शरीर के आकार को बढ़ाने की क्षमता, अंततः ब्रह्मांड को घेरने की क्षमता। इस सिद्धि का धनी साधक शरीर के सार्विक बल को इस्तेमाल करने लायक आत्मबल पा सकेगा और उसी आधार पर जटिल से जटिल कार्य को भी कर सकेगा |

लघिमा  - किसी के शरीर को हवा से भी हल्का बनाने और इच्छानुसार सरलता और सुगमता के साथ कार्य कर पाने की क्षमता का धनी किसी भी जटिल कार्य को सरल बना सकेगा |

प्राप्ति-  किसी भी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने की क्षमता।

प्राकाम्य - कोई भी इच्छानुसार कुछ भी प्राप्त करने की क्षमता जिसकी आकांक्षा पहले से ही अंतर मन में पनपती हो |

इशिता  - प्रकृति के नियमों की उप-शक्तियों को नियंत्रित करने की क्षमता।

वशिता  - दूसरों को अपने नियंत्रण में लाने की क्षमता और उसी आधार पर निर्मित लोकमत को ब्रह्मज्ञान करते हुए सर्वजन सुखाय और सर्वजन हिताय कुछ कर गुजरने की क्षमता |

कामवासयित  - कहीं भी कुछ भी प्राप्त करने की क्षमता। यह एक ऐसी अवस्था है जिसके आधार पर साधक सदा सर्वदा असंभव को संभव कर पाने का कौशल प्राप्त कर सकेगा और उसी को ईश्वर अनुकंपा मानते हुए सभी कर्म को दिव्य कर्म मानकर साधक ज्ञान और भक्ति के आधार पर दिव्य कर्म को जीवन का ध्येय बना लेते हैं |

सिद्धि के और भी कई प्रकार हो सकते हैं और कई आयाम भी | उन सभी सिद्धियों को सम्मिलित रूप से भी किसी सिद्ध जन में सभी अवयवों का सामेकित स्वरूप भी परिलक्षित हो सकता है; इस स्वरूप का एक और प्रत्यक्ष रूप हमारे सामने प्रतिफलित अगर होता भी होगा तो सिर्फ़  कृत कर्मों के ज़रिए भी | विविध प्रकार की परिस्थितियों और संकटों का मुकाबला करने के लिए भी सिद्ध जन को कुछ कठोरता और कुछ संहार वृत्ति का भी सहारा लेना पड़ सकता है | कुछ ऐसी ही परिस्थिति तब निर्माण हो गई जब श्री रघुनायक एक राक्षस वृत्ति के संहारक पुरुष के दमन के लिए जंग की भूमि में उतार गये | उनके पास तो प्रशिक्षित सेना थी और ही उनके पास कोई ख़ास संयंत्र थे; ही मायाजाल रचना करने की विद्या थी | उनसे जब पूछा गया कि उनके पास रथ भी नहीं है तो फिर एक महारथी का मुकाबला कैसे कर सकेंगे? श्री . रघुनायक जी का कहना था , "उनके पास एक ही रथ है जिसके दो ही पहिए हैं: शौर्य और धीरज का पहिया | सत्य और शील का ध्वजा पताका भी विद्यमान है |" 

"सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥

बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥

……..श्री रामचरित मानस "

"शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में कर लेने की शक्ति और ऐसा ही आत्मबल) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े जा चुके हैं |”

यह मर्यादा पुरुषोत्तम के संकल्प शक्ति, दृढ़ता, आत्म प्रत्यय , देवत्व के अधिष्ठान और चरम उत्कर्ष का ही बखान करते हुए उस श्रेष्ठ चारित्र बल के रूप में प्रतिभासित होता हुआ समझ सकेंगे | यह भी सत्यापित हो ही रहा है कि सिद्ध पुरुष कर्तव्य पथ पर आनेवाले किसी भी बाधा को बाधा नहीं मानते | उन्हें तो किसी भी परिस्थिति को लेकर कोई भय का निर्माण होगा; ही उनमें किसी भी परिस्थिति से डरने की कोई बात उन्हें परेशान कर पाती | यह एक स्थितप्रज्ञा का भी स्वरूप है जिसके आधार पर उनके ईश्वर अनुराग और भगवत कर्म के प्रति लगाव को भी प्रत्यक्ष कर सकेंगे |  पुराणों और आगमों में वर्णित कथा कहानी और वीरगाथा तक मर्यादित रहते हुए हमें उन तत्वों को भी उजागर करना चाहिए जिसके आधार पर उन सभी पवित्र ग्रंथों को और अधिक शिक्षाप्रद और मनोग्राही बनाई जा सके; अपितु उन सभी शिक्षाप्रद प्रसंगों के अनुसार व्यक्तित्व को विकसित होते रहने में मदद भी किया जा सके | हर तरफ से उस तत्व चिंतन को भगवत प्रेम से जोड़कर ही देखा जाना चाहिए, कि उसे किसी तर्क का विषय बना देना समीचीन हो सकता |

जीवन संग्राम

व्यक्ति का जन्म, संसार जीवन में प्रवेश, जीने का प्रयास, कर्म के प्रति लगाव, ईश्वर अनुराग, वैयक्तिक और सामुदायिक प्रगती आदि विषय एक नैसर्गिक विधान का हिस्सा होते हुए व्यक्ति को समाज में और प्रकृति के अधीन अपनी एक भूमिका बना डालने के मार्ग में अग्रगामी सूचक है | उसी सूचक के नियमन से व्यक्ति जीवन में शत्रु - मित्र, लाभ - हानि, भला-बुरा .. आदि परस्पर विरुद्ध अवयवों का भी निर्माण होता रहेगा, और बदलता भी रहेगा | जन्म लेने के बाद से ही व्यक्ति का जीवन संग्राम शुरू हो जाता और उसमें कई और आतां जुड़ते चले जाते हैं | इस क्रम में एक ईश्वर अनुराग ही है जो भक्ति की धारा में व्यक्ति को आत्म अनुसंधान हेतु प्रेरित करता और अपनी बाहरी तथा भीतरी कमियों को दूर कर पाने लायक आत्मबल भी देता ; अपितु उस मार्ग पर टिके रहने के लिए प्रेरित भी करता रहता है | इसी ईश्वर अनुकंपा को जीवन संग्राम का अंतिम पड़ाव नहीं समझ लेना चाहिए | इस मार्ग पर चलते हुए साधक को पूर्णता प्राप्ति के क्रमिक अदाव पर निखरता हुआ और सँवारता हुआ भी देखा जा सकेगा |

पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।

शांति: शांति: शांतिः ||

यह अनंत ब्रह्मांड की पूर्णता का द्योतक है जिसमें से पूर्ण की उत्पत्ति होती रहेगी और पूर्ण ही शेष रह जाएगा | ईश्वर की पूर्णता का यह मंत्र हमें इस बात से भी अवगत कराती है कि साधक के भक्ति और मैत्री से आप्लुत कर्तव्य कर्म और विधायक कर्म सर्वदा साधक को पूर्णता दिलाकर ईश्वर अनुकम्पा का धनी बना  सकेगा और दिव्य पथ पर एक निरंतरता बनाकर रखते हुए चल भी सकेगा |चलने में सहायक भी बन सकेगा; ऐसा इसलिए भी कि आत्मिक पूर्णता से बौद्धिक और अध्यात्मिक उत्कर्ष पाया जा सकता; ऐसा इसलिए भी क्योंकि आत्मिक पूर्णता से साधक अपने कार्मेन्द्रीय और ज्ञानेन्द्रिय पर नियंत्रण रख सकेगा; नियंत्रित इंद्रिय से संयम का मार्ग प्रशस्त कर सकेगा; संयम से ज्ञान और भक्ति का समुचित समन्वय पाया जाना सहज होगा और इसी सहजता से व्यक्तित्व विकास को एक सही दिशा भी मिलेगी |

 


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