कर्म की गति

 कर्म कैसे होते हैं? 

और कर्म किस प्रकार करने चाहिए? 

भगवान ने समाधान करते हुए कहाः


मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥[1]


इसमें कर्मानुष्ठान का सारा सार आ जाता है। प्रकृति से कर्म होते हैं, प्रकृति के गुणों से कर्म होते हैं, पंचायत की प्रेरणा से कर्म होते हैं, अहंकार से कर्म होते हैं, ईश्वर की प्रेरणा से कर्म होते हैं- इन अनेक मतों का संग्रह गीता में है। कर्मशास्त्र का तो समग्र  कोष ही मानो गीता है।

भगवान ने कर्मानुष्ठान का जो सबसे महत्त्वपूर्ण मार्ग बताया, वह यह है कि मुझमें सब कर्मों का अर्पण या सन्यास  कर दो। यहाँ संन्यास शब्द सम्प्रदाय विशेष का वाचक नहीं, सं = सम्यक्, न्यास = स्थापना, सम्यक् अरथात भली-भाँति और स्थापना माने पूर्णरूप से निक्षेप। अर्थात कर्मों का सम्पूर्ण रूप से पूरा-का-पूरा भार भगवान के ऊपर डाल दो; क्योंकि वे प्रेरक हैं, निर्वाहक हैं और फलदाता भी। यह समर्पण कैसे होगा? संसार में जैसे गोदान, भूदान होता है, वैसे नहीं होगा। संन्यस्याध्यात्म-चेतसा-अपने शरीर के भीतर जो क्रिया-प्रक्रिया हो रही है, जो अनुक्रम का संचालन हो रहा है, उसका नाम है अध्यात्म। अतः भीतर दृष्टि ले जाओ और देखो कि इस यन्त्र का संचालन कैसे हो रहा है।


अगर व्यक्ति कुछ करने के लिये स्वतंत्र हो सके तो अगले ही पल क्या करे ?  मनुष्य अगले क्षण कैसी इच्छा करेगा, क्या करेगा इसका ज्ञान नारायण के सिवाय और किसी को नहीं हो सकता। यदि हम इच्छा नहीं करेंगे तो कर्म में स्वातन्त्र्य का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारे जीवन में जो प्रवृत्तियाँ हैं वे केवल ज्ञान की किरणों से हो रही हैं, रस की किरणों से हो रही हैं अथवा केवल सत्ता में आकृतियाँ बन रही हैं। सत्ता में आकार बनते हैं, ज्ञान में प्रवृत्तियाँ होती हैं और रस में तरंग उठती है।

इस प्रकार पृथ्वी का काम हो रहा है। इसमें ज्यादा कौन करता है, अपना कर्तापन और रागद्वेष- अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ 


विवेक का मार्ग क्या है? 

हम अपने यन्त्र-संचालन की प्रक्रिया को ठीक-ठीक समझकर राग-द्वेष के अधीन न होने दें। सबका भार समष्टि के अन्तर्यामी परमेश्वर पर छोड़ दें। सैनिक कार्य कर रहे हैं, फल की आशा नहीं, कर्म में ममत्व नहीं और होने-न-होने का ज्वर भी नहीं। निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥ अर्जुन की दशा विपरीत थी। उन्हें ज्वर चढ़ आया था- सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।।

उनका शरीर तप रहा था, मुख सूख रहा था, चमड़ा जल रहा था, भगवान ने कहा- विगत ज्वरः -अब इस बुखार को उतार कर फेंक दो, ज्वर से रहित हो जाओ, हृदय में जलन मत होने दो, आशा-ममता छोड़ दो, और समस्त कर्मों का भार मुझ पर डाल दो- यही विवेक का मार्ग है। यही बात जब भक्तिमार्ग की रीति से कही जाती है तब इसकी प्रक्रिया दूसरी हो जाती है-

 ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा: । 

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासने ॥ 

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । 

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥


सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य - ज्ञानमार्ग में भी है और भक्तिमार्ग में भी। 

भक्तिमार्ग की विशेषता क्या है? 

भगवान के प्रति परायणता, अनन्यता, उनका ध्यान और उनकी उपासना-मत्पराः अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते इसका परिणाम क्या होता है- भगवान भवसागर से पार कर देते हैं- तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् कोई जीव भवसागर में डूब रहा है, भगवान स्वयं आये, उसे भवसागर में से निकाला, अपनी नाव पर बैठाया और पतवार चलाने लगे। जीव ने कहा मैं भी पतवार चलाकर देखूँ? भगवान बोले- नहीं तुम चुपचाप बैठो, मेरी रूप-माधुरी का आस्वादन करो, इसे निहारो, नाव खेलने वाला तो मैं हूँ। यह कहकर वह साँवरा किशोर नाव चलाने लगा और जीव निश्चिन्त हो गया। यही भक्ति है। 

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा: ।

गीता के तीसरे अध्याय में विवेक है, ज्ञान है, और बाहरवें अध्याय में भक्ति है। ये दोनों कर्म करने के दो मार्ग हैं, एक तो संन्यस्याध्यायत्मचेतसा और दूसरा निराशीर्निर्ममो भूत्वा। कर्म में ममत्व मत रखो। यह देखो कि तुम अपना काम अपने लिए करते हो या देश के लिए करते हो? तुम कपड़ा पैदा करते हो सिर्फ इसलिए कि तुम्हें पैसा मिले अथवा इसलिए कि जो नंगे हैं, जिनको ठण्ड लगती है उनको कपड़ा मिले? यह केवल मानने की बात है कि मनुष्य केवल अपने लिए ही पैदा करता है, क्योंकि वह उत्पन्न होकर सबके काम आता है। अपनी दृष्टि को संकीर्ण मत बनाओ। यह मत कहो कि मैं केवल अपने लिए वस्त्र उत्पादन करता हूँ बल्कि यह कहो कि मैं सबकी भलाई के लिए वस्त्र उत्पादन करता हूँ। इससे भी आगे बढ़कर यह मानो कि सर्व के रूप में जो परमेश्वर है उसकी सेवा करने के लिए, श्रृंगार करने के लिए वस्त्रोत्पादन करता हूँ।

निर्मम का अर्थ यही है कि तुम अपने लिए काम नहीं कर रहे हो बल्कि सबके लिए कर रहे हो। यह विचार कोई कठिन नहीं, सच पूछो तो इसका निर्वाह होता चलता है- प्रतिदिन रोटी मिलती है, कपड़ा मिलता है। जो आज दे रहा है, वह आगे भी देगा। उसके लिए आशावान होकर, फलकामी होकर हम अपने हृदय को मलिन क्यों बनायें? अतः आशा छोड़ो, फलाकांक्षा छोड़ो, ममता छोड़ो, दुःख छोड़ो और अपना काम करते चलो। अब विवेक और भक्ति के अतिरिक्त काम करने का एक तीसरा मार्ग भी है, राग-द्वेष से विनिर्मुक्त। राग-द्वेष हमारी सत्ता को, हमारे ज्ञान को, हमारे रस को, हमारे आनन्द को दूषित करता है। हमारे सारे कार्यक्रम ज्ञानांशु से होते हैं। ये जब पापविद्ध हो जाते हैं, तब रंगीन हो जाते हैं। जैसे सूर्य की किरणें आती रहती हैं। बीच में मिल जाता है पानी। फिर आकाश में इन्द्रधनुष दिखायी देने लगता है। सूर्य की किरणों को रँगनेवाला कौन है? जल की बूँदों में-से जब सूर्य की रश्मियाँ पार होती हैं तब वे लाल-पीली-हरी हो जाती हैं। अतः रश्मियाँ जल की बूँदों में आसक्त नहीं होतीं परन्तु उनके सम्पर्क में रंगीन दिखायी देने लगती हैं। आत्मसूर्य की जो किरणें हमारे अन्तःकरण में आती हैं वे बिल्कुल ठीक-ठीक आती हैं-परमेश्वर से आती हैं, परन्तु राग की रक्तिमा तथा द्वेष की कालिमा दोनो उसको काली और लाल बना देती है। निश्चय ही हमारे कर्म को रंगीन बनानेवाला हमारा राग-द्वेष है जिससे हम फँस जाते हैं। बच्चे लोग लाल रंग में बहुत फँसते हैं। बचपन में मुझे लाल रंग के सिवा और कोई रंग पसन्द ही नहीं आता था। राग में ऐसी रंगीनी है कि इसको देखकर ज्ञानांशु मानव अपना सच्चा मार्ग छोड़ देता है। इसी प्रकार जीवन में द्वेश का प्रवेश होने पर, निर्दयता, क्रूरता का समावेश हो जाता है। उससे किसी की हानि होगी इस बात पर ध्यान नहीं जाता। अतः कर्म में पहले यह बताया कि यन्त्र का विवेक करो और देखो कि वह ठीक-ठीक काम करता है या नहीं। दूसरी बात यह बतायी कि केवल भगवान से प्रेम करो और तीसरी बात यह बतायी कि राग-द्वेष छोड़ दो।


निर्मम का अर्थ यही है कि तुम अपने लिए काम नहीं कर रहे हो बल्कि सबके लिए कर रहे हो। यह विचार कोई कठिन नहीं, सच पूछो तो इसका निर्वाह होता चलता है- प्रतिदिन रोटी मिलती है, कपड़ा मिलता है। जो आज दे रहा है, वह आगे भी देगा। उसके लिए आशावान होकर, फलकामी होकर हम अपने हृदय को मलिन क्यों बनायें? अतः आशा छोड़ो, फलाकांक्षा छोड़ो, ममता छोड़ो, दुःख छोड़ो और अपना काम करते चलो। अब विवेक और भक्ति के अतिरिक्त काम करने का एक तीसरा मार्ग भी है, राग-द्वेष से विनिर्मुक्त। राग-द्वेष हमारी सत्ता को, हमारे ज्ञान को, हमारे रस को, हमारे आनन्द को दूषित करता है। हमारे सारे कार्यक्रम ज्ञानांशु से होते हैं। ये जब पापविद्ध हो जाते हैं, तब रंगीन हो जाते हैं। जैसे सूर्य की किरणें आती रहती हैं। बीच में मिल जाता है पानी। फिर आकाश में इन्द्रधनुष दिखायी देने लगता है। सूर्य की किरणों को रँगनेवाला कौन है? जल की बूँदों में-से जब सूर्य की रश्मियाँ पार होती हैं तब वे लाल-पीली-हरी हो जाती हैं। अतः रश्मियाँ जल की बूँदों में आसक्त नहीं होतीं परन्तु उनके सम्पर्क में रंगीन दिखायी देने लगती हैं। आत्मसूर्य की जो किरणें हमारे अन्तःकरण में आती हैं वे बिल्कुल ठीक-ठीक आती हैं-परमेश्वर से आती हैं, परन्तु राग की रक्तिमा तथा द्वेष की कालिमा दोनो उसको काली और लाल बना देती है। निश्चय ही हमारे कर्म को रंगीन बनानेवाला हमारा राग-द्वेष है जिससे हम फँस जाते हैं। बच्चे लोग लाल रंग में बहुत फँसते हैं। बचपन में मुझे लाल रंग के सिवा और कोई रंग पसन्द ही नहीं आता था। राग में ऐसी रंगीनी है कि इसको देखकर ज्ञानांशु मानव अपना सच्चा मार्ग छोड़ देता है। इसी प्रकार जीवन में द्वेश का प्रवेश होने पर, निर्दयता, क्रूरता का समावेश हो जाता है। उससे किसी की हानि होगी इस बात पर ध्यान नहीं जाता। अतः कर्म में पहले यह बताया कि यन्त्र का विवेक करो और देखो कि वह ठीक-ठीक काम करता है या नहीं। दूसरी बात यह बतायी कि केवल भगवान से प्रेम करो और तीसरी बात यह बतायी कि राग-द्वेष छोड़ दो।


आदर्शहीन कहानियाँ तो समय काटती हैं। राग-द्वेष से विनिर्मुक्त होकर यदि हम कर्म करते हैं भले ही उसमें विवेक न हो, ईश्वरार्पण भी न हो, हमारे धर्म का पालन ठीक-ठीक हो जाता है- 

श्रेयान् स्वधर्मों विगुण: परधर्मात् स्वनुष्ठितात् । 

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:॥

हम लोग किसी वस्तु को बहुत अच्छी और किसी वस्तु को बहुत खराब कह देते हैं; किन्तु कभी-कभी खराब वस्तु यहाँ तक कि संखिया और अफीम भी औषध के काम आती है। जिसको हम ज़हर कहते हैं वह कभी-कभी हमारे शरीर के लिए अमृत हो जाता है। कोई वस्तु अपने-आपमें बुरी नहीं होती, उसका दुरुपयोग बुरा होता है। यह बात हम लोगों ने लघुकौमुदी पढ़ते समय गुरुजी से सीखी थी। उनका कहना था कि कोई शब्द अशुद्ध होता ही नहीं। अतः यह कहना चाहिए कि इसके स्थान पर अमुक शब्द का प्रयोग करना चाहिए- अस्य शब्दस्य स्थाने अयं शब्दः प्रयुक्तव्यः रामो गच्छति - ठीक है रामस्य गच्छति भी ठीक है रामस्य गृहं गच्छति। अमुक स्थान पर रामो ठीक है और अमुक स्थान पर रामस्य ठीक है। ‘रामो’ के स्थान पर ‘रामस्य’ कहोगे तो तुम्हारा प्रयोग गलत होगा, रामस्य नहीं। तुम्हारी क्रिया और रचना अशुद्ध है, शब्द का प्रयोग करो, हम उसको ठीक जगह पर बैठा देंगे और वहाँ वह शुद्ध हो जायेगा। इसी तरह किसी वस्तु का प्रयोग कहीं, तो किसी वस्तु का प्रयोग कहीं होता है। हमारे तन्त्र शास्त्र में एक श्लोक है- 

नामन्त्रमक्षरं किंचित् नानौषधिर्वनस्पतिः। 

अयोग्यः पुरुषो नास्ति प्रयोक्ता तत्र दुर्लभः।।


ऐसा कोई अक्षर नहीं जो मन्त्र न हो। ऐसी कोई घास नहीं जो दवा न हो। ऐसा कोई मनुष्य नहीं जिसमें कोई- न- कोई योग्यता न हो। तुम उसका उपयोग नहीं कर सकते, यह तुम्हारी कमी है। वह तो कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी उपयोग के लिए पैदा हुआ है। उसका अस्तित्व व्यर्थ नहीं- श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्। गीता कहती है कि तुम जिस काम में योग्य हो उसे अपनी योग्यता के अनुसार करो। किन्तु जिसमें तुम अयोग्य हो उसमें अपना बड़प्पन दिखाने के लिए हाथ मत डालो। प्रत्येक मनुष्य के साथ एक धर्म पैदा होता है। जिस प्रकार अग्नि का धर्म दाह है, जल का धर्म आप्यायन है, पृथ्वी का धर्म धारण है, सूर्य का धर्म प्रकाशन है, उसी प्रकार मनुष्य का धर्म मनुष्यत्व है। जिस विशेषता के कारण मनुष्य को मनुष्य कहा जाता है, वही मनुष्य का धर्म है। जो मनुष्यत्व छोड़ देगा वह मनुष्य नहीं रहे, पशु हो जायेगा, पक्षी हो जायेगा- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः इसके बाद यह प्रश्न उठा कि आख़िर मनुष्य पाप क्यों करता है? केनोपनिषद् में यह प्रश्न आया है- केनेषितं पतति प्रेषितं मनः हमारे मन का साधारण प्रेरक कौन है? यहाँ अर्जुन यह प्रश्न करते हैं कि पाप का प्रेरक कौन है- अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित: ॥[2] यदि कोई बलपूर्वक प्रेरित करता है तो राग-द्वेष के मिश्रण के बिना प्रवृत्ति में बलवत्ता नहीं आती। हम साधारणतः अपने समभाव से काम करते जा रहे हैं। दौड़ते इसलिए हैं कि कहीं जल्दी पहुँचना है। किसी काम में टालमटोल इसलिए करते हैं कि वह हमें पसन्द नहीं। जल्दबाज़ी इसलिए करते हैं कि हमें उसकी आवश्यकता है और यह आशंका है कि कोई दूसरा हाथ न मार ले जाये।


अब आप देखो कि हमारी पाप-प्रेरणा कहाँ से आती है? पाप शब्द का अर्थ यह है कि यदि आप अपनी रक्षा करना चाहिते हैं तो उससे बचिये- पान्ति अस्मात् आत्मानम्। पाप वह है जिसका परित्याग करके मनुष्य अपने आपको कृतकृत्य करता है- एतत् परित्यज्य आत्मानं पान्ति। यदि मनुष्य उसको अपने जीवन में कर ले, भक्षण कर ले उसका नाम पाप है। जिससे हम गिरें, दूसरे गिरें, हमारी हानि हो, दूसरे की हानि हो, उसका नाम पाप है। जिसके द्वारा हमारी तथा औरों की उन्नति में बाधा पड़े उसका नाम पाप है। मनुष्य ऐसा पाप क्यों करता है? इसके उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा नहीं कहा जैसा केनोपनिषद् में मन के सामान्य प्रेरक का नाम बताते हुए कहा गया है- 

केनेषिंत पतित प्रेशितं मन:। 

केन प्राण: प्रथम: पैति युक्त:॥ 

इसमें परमात्मा का नाम नहीं; काम-क्रोध का नाम है। उपनिषद की प्रेरणा में और गीता की प्रेरणा में क्या अन्तर है? देखो किसी घर में बिजली से आग लग जाये तो दोष पावर-हाउस का होता है या बिजली का? न पावर-हाउस का, न बिजली का। दो तार आपस में मिल गये और आग लग गयी। आपके घर में पंखा चल रहा है और खड़-खड़ बोल रहा हैं उसकी जो खड़खड़ाहट है वह बिजली का दोष है या पावर-हाउस? उत्तर है कि पंखे की मशीन का दोष है। परन्तु कोई पूछे कि यह खट्-खट् क्यों हो रहा है तो यह भी कह सकते हैं कि बिजली की वजह से हो रहा है। परन्तु वास्वत में बिजली की वजह से नहीं हो रहा, पंखे की खराबी से हो रहा है। जो पापाचरण हो रहा है वह विश्व सृष्टि में परिपूर्ण बुद्धि-तत्त्व के कारण नहीं हो रहा है, जो विद्युत-केन्द्र में सन्निहित है, उसके कारण भी नहीं हो रहा और जो विद्युत-धारा में प्रवाहित है उसके कारण भी नहीं हो रहा है। यह तो इसलिए हो रहा है कि इसके यन्त्र में अनियमितता आ गयी है।



आज का विषय

लोकप्रिय विषय