प्रारंभिक जीवन


विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था और इनका जन्म महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में हुआ था। इनके पिताजी का नाम विनायक नरहरि शंभू राव और माता जी का नाम रुक्मिणी देवी था। चार भाई बहन में विनायक सबसे बड़े थे। इनकी माताजी धार्मिक भावनाओं से ओतपरोत रहते हुए बालक विनायक को धार्मिक कथा कहानी सुनाया करती थी । इसलिए इनको श्रीमद् भागवत गीता बचपन में ही पढ़ने और समझने का मौका मिला।

विनोबा के यूं तो दो छोटे भाई और भी थे, मगर मां का सर्वाधिक वात्सल्य विनायक को ही मिला। भावनात्मक स्तर पर विनोबा भी खुद को अपने पिता की अपेक्षा मां के अधिक करीब पाते थे। यही हाल रुक्मिणी बाई का था, तीनों बेटों में ‘विन्या’ उनके दिल के सर्वाधिक करीब था। वे भजन-पूजन को समर्पित रहतीं; मां के संस्कारों का प्रभाव,  भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति उदासीनता और त्याग की भावना किशोरावस्था में ही विनोबा के चरित्र का हिस्सा बन चुकी थी। घर का निर्जन कोना उन्हें ज्यादा सुकून देता; मौन उनके अंतर्मन को मुखर बना देता; वे घर में रहते, परिवार में सबके बीच, मगर ऐसे कि सबके साथ रहते हुए भी जैसे उनसे अलग, निस्पृह और निरपेक्ष हों । नहीं तो मां के पास, उनके सान्न्ध्यि में. ‘विन्या’ उनके दिल, उनकी आध्यात्मिक विचार  और भावना के अधिक करीब था। मन को कोई उलझन हो तो वही सुलझाने में मदद करता। कोई आध्यात्मिक समस्या हो तो भी विन्या ही काम आता। यहां तक कि यदि पति नरहरि भावे भी कुछ कहें तो उसमें विन्या का निर्णय ही महत्त्वपूर्ण होता था। ऐसा नहीं है कि विन्या एकदम मुक्त या नियंत्रण से परे था। परिवार की आचार संहिता विनोबा पर भी पूरी तरह लागू होती थी। बल्कि विनोबा के बचपन की एक घटना है। रुक्मिणी बाई ने बच्चों के लिए एक नियम बनाया हुआ था कि भोजन तुलसी के पौघे को पानी देने के बाद ही मिलेगा। विन्या बाहर से खेलकर घर पहुंचते, भूख से आकुल-व्याकुल; मां के पास पहुंचते ही कहते:


‘मां, भूख लगी है, रोटी दो.’

‘रोटी तैयार है, लेकिन मिलेगी तब पहले तुलसी को पानी पिलाओ.’ मां आदेश देती।

‘नहीं मां, बहुत जोर की भूख लगी है।’ अनुनय करते हुए बेटा मां की गोद में समा जाता। मां का उसपर बालक पर प्यार दिखाना एक स्वाभाविक घटना ही है;  परंतु नियम-अनुशासन के आगे परेम और वेतसलय की एक न चलती —

‘तो पहले तुलसी के पौधे की प्यास बुझा।' बालक विन्या तुलसी के पौधे को पानी पिलाता, फिर भोजन पाता।

रुक्मिणी सोने से पहले समर्थ गुरु रामदास की पुस्तक ‘दास बोध’ का प्रतिदिन अध्ययन करतीं; उसके बाद ही वे चारपाई पर जातीं। बालक विन्या पर इस नित्यकर्म  का असर पडना स्वाभाविक ही था। वे उसे संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव और शंकराचार्य की कथाएं सुनातीं; रामायण, महाभारत की कहानियां, उपनिषदों के तत्व ज्ञान के बारे में समझातीं; यह सिलसिला जेसे जैसे चलता जाता संन्यास लेने की अभिलाषा बालक की भावनाओं पर सवार होता रहता। लेकिन दुनिया से भागने के बजाय लोगों से जुड़ने पर वे जोर देतीं. संसार से भागने के बजाय उसको बदलने का आग्रह करतीं। अक्सर कहतीं—‘विन्या, गृहस्थाश्रम का भली-भांति पालन करने से पितरों को मुक्ति मिलती है।’ लेकिन विन्या पर तो गुरु रामदास, संत ज्ञानेश्वर और शंकराचार्य का विचार कुछ और ही दिशा निरदेश के साथ सवार रहता।  इन सभी महात्माओं ने अपनी आध्यात्मिक तृप्ति के लिए बहुत कम आयु में अपने माता-पिता और घर-परिवार का त्याग  किया था। वे सभी श्रेया रथी कहते—


‘मां जिस तरह समर्थ गुरु रामदास घर छोड़कर चले गए थे, एक दिन मुझे भी उसी तरह महाप्रस्थान कर देना है।’

ऐसे में कोई और मां होती तो संयम खोकर दिग्भ्रमित हो जाती। विचारमात्र से रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लेती आचार्य शंकर की मां को भी मजबूरन अपने पुत्र को सन्यास लेने का आदेश देना पड़ा था।  क्योंकि लोगों की सामान्य-सी प्रवृत्ति बन चुकी है कि त्यागी, वैरागी होना अच्छी बात, महानता की बात, मगर तभी तक जब त्यागी और वैरागी दूसरे के घर में हों; अपने घर में सब साधारण सांसारिक जीवन जीना चाहते हैं। मगर रुक्मिणी बाई तो जैसे किसी और ही भावना रखनेवाली माता थीं। वे बड़े प्यार से बेटे को समझातीं—


‘विन्या, गृहस्थाश्रम का विधिवत पालन करने से माता-पिता तर जाते हैं। मगर बृह्मचर्य का पालन करने से तो 41 पीढ़ियों का उद्धार होता है।’

बेटा मां के कहे को आत्मसात करने का प्रयास कर ही रहा होता कि वे आगे जोड़ देतीं-

‘विन्या, अगर मैं पुरुष होती तो सिखाती कि वैराग्य क्या होता है।’

बचपन में बहुत कुशाग्र बुद्धि थे विनोबा. गणित उनका प्रिय विषय था। कविता और अध्यात्म चेतना के संस्कार मां से मिले। उन्हीं से जड़ और चेतन दोनों को समान दृष्टि से देखने का बोध भी पाया । मां बहुत कम पढ़ी-लिखी जरूर थीं; पर उन्होने बालक विन्या को अपरिग्रह, अस्तेय के बारे में अपने आचरण से बताया। संसार में रहते हुए भी उससे निस्पृह-निर्लिप्त रहना सिखाया; मां का ही असर था कि विन्या कविता रचते और और उन्हें आग के हवाले कर देते; इसके पीछे भावना यह रहती कि दुनिया में जब सब कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर है, कुछ भी भौतिक वसतु साथ नहीं जाना तो अपनी रचना से ही मोह क्यों ! उनकी मां यह सब देखतीं, सोचतीं, मगर कुछ न कहतीं. मानो विन्या को बड़े से बड़े त्याग के लिए तैयार कर रही हों । विनोबा की गणित की प्रवीणता और उसके तर्क उनके आध्यात्मिक विश्वास के आड़े नहीं आते थे। यदि कभी दोनों के बीच स्पर्धा होती भी तो जीत आध्यात्मिक विश्वास की ही होती। आज वे घटनाएं मां-बेटे के आपसी स्नेह-अनुराग और विश्वास का ऐतिहासिक प्रतीक के रूप में हमारे बीच संदर्भित होता हुआ देखा जा सकेगा।


रुक्मिणी बाई हर महीने चावल के एक लाख दाने दान करती थीं। एक लाख की गिनती करना भी आसान न था, सो वे पूरे महीने एक-एक चावल गिनती रहतीं। नरहरि भावे पत्नी को चावल गिनते रहने में श्रम करते देख मुस्कराते। कम उम्र में ही आंख कमजोर पड़ जाने से डर सताने लगता।  उनकी गणित से समृद्ध बुद्धि कुछ और ही कहती; सो एक दिन उन्होंने रुक्मिणी बाई को टोक ही दिया—‘इस तरह एक-एक चावल गिनने में समय जाया करने की जरूरत ही क्या है। एक पाव चावल लो; उनकी गिनती कर लो, फिर उसी से एक लाख चावलों का वजन निकालकर तौल लो । कमी न रहे, इसलिए एकाध मुट्ठी ऊपर से डाल लो.’ बात तर्क की थी। लौकिक समझदारी भी इसी में थी कि जब भी संभव हो, दूसरे जरूरी कार्यों के लिए समय की बचत की जाए; रुक्मिणी बाई को पति का तर्क समझ तो आता;  पर अध्यात्म के विचार से पुषट मन न मानता; एक दिन उन्होंने अपनी दुविधा विन्या के सामने प्रकट करने के बाद पूछा—


‘इस बारे में तेरा क्या कहना है, विन्या?’

बेटे ने सबकुछ सुना, सोचा। बोला, ‘मां, पिता जी के तर्क में दम है। गणित यही कहता है। किंतु दान के लिए चावल गिनना सिर्फ गिनती करना नहीं है। गिनती करते समय हर चावल के साथ हम न केवल ईश्वर का नाम लेते जाते हैं, बल्कि हमारा मन भी उसी से जुड़ा रहता है।’ 

ईश्वर के नाम पर दान के लिए चावल गिनना भी एक साधना है, रुक्मिणी बाई ने ऐसा पहले कहां सोचा था! अध्यात्मरस में पूरी तरह डूबी रहने वाली रुक्मिणी बाई को ‘विन्या’ की बातें खूब भातीं। बेटे पर गर्व हो आता था उन्हें; उन्होंने आगे भी चावलों की गिनती करना न छोड़ा, और न ही इस काम से उनके मन में कभी निरर्थकता बोध जागा।


ऐेसी ही एक और घटना है। जो दर्शाती है कि विनोबा कोई गणितीय गणनाओं में आध्यात्मिक तत्व कैसे खोज लेते थे: घटना उस समय की है जब वे गांधीजी के आश्रम में प्रवेश कर चुके थे तथा उनके रचनात्मक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। आश्रम में सुबह-शाम प्रार्थना सभाएं होतीं, उनमें उपस्थित होने वाले आश्रमवासियों की नियमित गिनती की जाती। यह जिम्मेदारी एक कार्यकर्ता को दी गई थी। प्रसंग यह है कि एक दिन प्रार्थना सभा के बाद जब उस कार्यकर्ता ने प्रार्थना में उपस्थित हुए आगंतुकों की संख्या बताई तो विनोबा झट से प्रतिवाद करते हुए बोले—


‘नहीं इससे एक कम थी।’

कार्यकर्ता को अपनी गिनती पर विश्वास था, इसलिए वह भी अपनी बात पर अड़ गया। कर्म में  विश्वास रखने वाले विनोबा आमतौर पर बहस में पड़ने से बचते थे। मगर उस दिन वे भी अपनी बात पर अड़ गए। आश्रम में विवादों का निपटारा बापू की अदालत में होना तय था। गांधीजी को अपने कार्यकर्ता पर भी पूरा विश्वास था। मगर यह भी जानते थे कि विनोबा यूं ही बहस में नहीं पड़ने वाले। वास्तविकता जानने के लिए उन्होंने विनोबा की ओर देखा; तब विनोबा ने कहा—‘प्रार्थना में सम्मिलित श्रद्धालुओं की संख्या जितनी इन्होंने बताई उससे एक कम ही थी।’ ‘वह कैसे?’ ‘इसलिए कि एक आदमी का तो पूरा ध्यान वहां उपस्थित सज्जनों की गिनती करने में लगा था।’ गांधीजी विनोबा का तर्क समझ गए। प्रार्थना के काम में हिसाब-किताब और दिखावे की जरूरत ही क्या! आगे से प्रार्थना सभा में आए लोगों की गिनती का काम रोक दिया गया। युवावस्था के प्रारंभिक दौर में ही विनोबा आजन्म ब्रह्मचारी रहने की ठान चुके थे। वही महापुरुष उनके आदर्श थे जिन्होंने सत्य की खोज के लिए बचपन में ही वैराग्य के मार्ग पर चलना तय कर लिया था। और जब संन्यास धारण कर ब्रह्मचारी बनना है, गृहस्थ जीवन से नाता ही तोड़ना है तो क्यों न मन को उसी के अनुरूप तैयार किया जाए; क्यों उलझा जाए संबंधों की मीठी डोर और सांसारिक प्रलोभनों में ! ब्रह्मचर्य की तो पहली शर्त यही है कि मन को भटकने से रोका जाए। एकागर चित्त होकर मन ईश्वर आराधना में लीन हो और साथ ही वासनाओं पर नियंत्रण रहे। किशोर विनायक से किसी ने कह दिया था कि ब्रह्मचारी को किसी विवाह के भोज में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। वे ऐसे कार्यक्रमों में जाने से अक्सर बचते भी थे। पिता नरहरि भावे तो थे ही, यदि किसी और को ही जाना हुआ तो छोटे भाई चले जाते। विनोबा का तन दुर्बल था; बचपन से ही कोई न कोई व्याधि लगी रहती। मगर मन-मस्तिष्क पूरी तरह चैतन्य, मानो शरीर की सारी शक्तियां सिमटकर दिमाग में समा गई हों ।. स्मृति विलक्षण थी। किशोर विनायक ने वेद, उपनिषद के साथ-साथ संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव के सैकड़ों पद अच्छी तरह याद कर लिए थे। गीता उन्हें बचपन से ही कंठस्थ थी। आगे चलकर चालीस हजार श्लोक भी उनके मानस में अच्छी तरह रम गए।


विनायक की बड़ी बहन का विवाह तय हुआ तो मानो परीक्षा की घड़ी भी करीब आ गई। उन्होंने तय कर लिया कि विवाह के अवसर पर भोज से दूर रहेंगे। कोई टोका-टाकी न करे, इसलिए उन्होंने उस दिन उपवास रखने की घोषणा कर दी। बहन के विवाह में भाई उपवास रखे, यह भी उचित न था। पिता तो सुनते ही नाराज हो गए। मगर मां ने बात संभाल ली। उन्होंने बेटे को साधारण ‘दाल-भात’ खाने के लिए राजी करा लिया। यही नहीं अपने हाथों से अलग पकाकर भी दिया। धूम-धाम से विवाह का कार्यक्रम  सम्पन्न हुआ।। विनायक ने खुशी-खुशी उसमें हिस्सा लिया। लेकिन अपने लिए मां द्वारा खास तौर पर बनाए दाल-भात से ही गुजारा किया। मां-बेटे का यह प्रेम आगे भी बना रहा। 


आगे चलकर जब संन्यास के लिए विनोबा झर छोड़ा तो मां की एक लाल किनारी वाली धोती और उनके पूजाघर से एक मूर्ति साथ ले गए। मूर्ति तो उन्होंने दूसरे को भेंट कर दी थी। मगर मां की धोती जहां भी वे जाते, अपने साथ रखते। सोते तो सिरहाने रखकर; जैसे मां का आशीर्वाद साथ लिए फिरते हों। संन्यासी मन भी मां की स्मृतियों से पीछा नहीं छुटा पाया था। मां के संस्कार ही विनोबा की आध्यात्मिक चेतना की नींव बने। उन्हीं पर उनका जीवनदर्शन विकसित हुआ। आगे चलकर उन्होंने रचनात्मकता और अध्यात्म के क्षेत्र में जो ख्याति अर्जित की उसके मूल में भी मां की ही प्रेरणाएं थीं।


रुक्मिणी बाई कम पढ़ी-लिखीं थीं; संस्कृत भी उनहेअं ठीक से समझ नहीं आती थीं। लेकिन मन था कि गीता-ज्ञान के लिए तरसता रहता; एक दिन मां ने अपनी कठिनाई पुत्र के समक्ष रख ही दी—


‘विन्या, संस्कृत की गीता ठीक से  समझ में नहीं आती.’ विनोबा जब अगली बार बाजार गए, गीता के तीन-चार मराठी अनुवाद खरीद लाए। लेकिन उनमें भी अनुवादक ने अपना पांडित्य प्रदर्शन किया था। गीता का तत्व दूर दूर तक महसूस भी नहीं हो पाई रहा था। 


‘मां बाजार में यही अनुवाद मिले.’ विन्या ने समस्या बताई। ऐसे बोझिल और उबाऊ अनुवाद अपनी अल्पशिक्षित मां के हाथ में थमाते हुए वे स्वयं दुःखी थे।

‘तो तू क्यों नहीं नया अनुवाद करता!' मां ने जैसे चुनौती पेश की; पर विनोबा उसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे।

‘मैं, क्या मैं कर सकूंगा?’ विनोबा ने शंका जताई. उस समय उनकी उम्र  मात्र 21 वर्ष थी। पर मां को बेटे की क्षमता पर पूरा विश्वास था।

‘तू करेगा...तू कर सकेगा विन्या!’ मां के मुंह से बरबस निकल पड़ा। मानो आशीर्वाद दे रही हो। गीता के प्रति विनोबा का गहन अनुराग पहले भी था। परंतु उसका वे अनुवाद  लिखेंगे और वह भी मराठी में यह उन्होंने कभी नहीं सोचा था। लेकिन मां की इच्छा भी उनके लिए सर्वोपरि थी। धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया; कारनामे चलते गये । गीता पहले भी उन्हें भाती थी। अब तो जैसे हर आती-जाती सांस गीता का पाठ करने लगी। समग्र चेतना ही गीतामय हो गया। यह सोचकर कि मां के निमित्त काम करना है। दायित्वभार उठा लेना साधना है। विनोबा का मन गीता से पूरी तरह ओतप्रोत हो गया। उसी साल 7 अक्टूबर को उन्होंने अनुवादकर्म के निमित्त कलम उठाई। उसके बाद तो प्रातःकाल स्नानादि के बाद रोज अनुवाद करना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। यह काम 1931 तक नित्यकर्म  के रूप में चलता रहा। परंतु जिसके लिए वह संकल्प साधा था, वह उस उपलब्धि को न देख सकीं; मां रुक्मिणी बाई का निधन 24 अक्टूबर 1918 को ही हो चुका था। विनोबा ने इसे भी ईश्वर की इच्छा के रूप नेअं सवीकार कर लिया और अनुवादकार्य में लगे रहे.

विनोबा धार्मिक संस्कारों में पाखंड के विरोधी थे। मां के निधन के समय भी विनोबा का अपने पिता और भाइयों से मतभेद हुआ। विनोबा ब्राह्मणों के हाथ से परंपरागत तरीके से दाह-संस्कार का विरोध कर रहे थे। लेकिन परिवार वालों की जिद के आगे उनकी एक न चली। विनोबा भी अपने सिद्धांतों पर अडिग थे। नतीजा यह कि जिस मां को वे सबसे अधिक चाहते थे, जो उनकी आध्यात्मिक गुरु थीं, उनके अंतिम संस्कार से वे दूर ही रहे। मां को उन्होंने भीगी आंखों से मौन विदाई दी। आगे चलकर 29 अक्टूबर 1947 को विनोबा के पिता का निधन हुआ तो उन्होंने वेदों के निर्देश कि ‘मिट्टी पर मिट्टी का ही अधिकार है’ का पालन करते हुए उनकी देह को अग्नि-समर्पित करने के बजाय, मिट्टी में दबाने पर जोर दिया। तब तक विनोबा संत विनोबा हो चुके थे। गांधी जी का उन्हें सान्निध्य और समर्थन मिल चुका था। इसलिए इस बार उन्हीं की चली।


मां की गीता में आस्था थी। वे विनोबा को गीता का मराठी में अनुवाद करने का दायित्व सौंपकर गई थीं। विनोबा उस कार्य में मनोयोग से लगे थे; आखिर अनुवाद कर्म पूरा हुआ। पुस्तक का नाम रखा गया- गीताई. गीता़+आई = गीताई. महाराष्ट्र में ‘आई’ का अभिप्राय ‘मां के प्रति’ से है; यानी मां की स्मृति उसके नेह से जुड़ी-रची गीता. पुत्र की कृति को देखने के लिए तो रुक्मिणी बाई जीवित नहीं थीं। मगर उनकी याद और अभिलाषा से जुड़ी गीताई, महाराष्ट्र के घर-घर में माताओं और बहनों के कंठ-स्वर में पनपने और पसरने लगी।  उनकी अध्यात्म चेतना का आभूषण बन गई। गांधीजी ने सुना तो अनुवाद कर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जो महिलाएं संस्कृत नहीं जानती थीं, जिन्हें अपनी भाषा का भी आधा-अधूरा ज्ञान था, उनके लिए सहज-सरल भाषा में रची गई ‘गीताई’, गीता की आध्यात्मिकता में डूबने के लिए वरदान सवरूप बन गई।

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