त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म

 



जिस धर्म, दर्शन, नैतिक नियम, सामाजिक विचार, सांस्कृतिक विचार में मैं श्रद्धा रखता हूँ वह मुझे मेरी अपनी प्रकृति तथा इसके कर्मों के लिये एक विधान प्रदान करता है, सापेक्ष सदाचार का अथवा आपेक्षित या ऐकांतिक पूर्णता का एक विचार प्रदान करता है और मुझमें जितनी सच्चाई होती है, उस विधान में मेरी श्रद्धा जितनी पूर्ण होती है और उस श्रद्धा के अनुसार जीवन-यापन करने का मेरा संकल्प जितना तीव्र होता है, उतना ही मैं वही कुछ बन सकता हूँ जो कुछ बनने के लिये वह मुझसे कहता है, उतना ही मैं अपने-आपको उस सत्य विधान की प्रतिमूर्ति में या उस पूर्णता के आदर्श दृष्टांत के रूप में परिणत कर सकता हूँ। परंतु हम देखते हैं कि मनुष्य के अंदर एक अधिक स्वतंत्र प्रवृत्ति भी है जो उसकी कामनाओं के निर्देश से तथा धर्म, बद्धमूल कारण, शास्त्र के सुरक्षित नियामक विधि-विधान को स्वीकार करने से संकल्प से भिन्न है।


यह भी देखा जाता है कि व्यक्ति तो कितनी ही बार और समाज अपने जीवन में किसी भी क्षण शास्त्र से मुंह मोड़ लेता है उससे ऊब जाता है, अपने संकल्प और श्रद्धा-विश्वास के उस रूप को त्याग कर देता है और किसी अन्य विधान की खोज में निकल पड़ता है जिसे वह अब जीवन-यापन का यथार्थ विधान स्वीकार करने तथा सत्ता के एक अतिशय प्राणवन्त या उच्चतर सत्य के रूप में मानने की ओर अधिक झुका हुआ होता है। यह उस समय हो सकता है जब प्रचलित शास्त्र जीवंत वस्तु नहीं रहता और ह्रसति या रूढ़ होकर रीति-रिवाजों और लोकाचारों का ढेर बन जाता है। अथवा यह इसलिये हो सकता है कि शास्त्र अपेक्षित प्रगति के लिये अपर्याप्त प्रतीत होता है या वह उसके लिये पर्वूवत उपयोगी नहीं प्रतीत होता; एक नया सत्य, जीवन-यापन का एक अधिक पूर्ण विधान अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है।


यदि वह सत्य विधान विद्यमान न हो तो जाति को अपने प्रयत्न से या किसी महान एवं ज्ञानदीप्त व्यक्ति को, जो जाति की आशा-आकांक्षा का मूर्त प्रतिनिधि होता है, अपनी मनीषा से उसका अविष्कार करना होता है। तब, वैदिक धर्म लोकाचार का रूप धारण कर लेता है और कोई बुद्ध अपने अष्टांग पथ के नये विधान और निर्वाण के लक्ष्य को लेकर आविर्भूत होते हैं; और यहाँ इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि उसे वे एक व्यक्तिगत अविष्कार के रूप में नहीं बल्कि आर्य जीवन के एक ऐसे सत्य विधान के रूप में प्रस्थापित करते हैं।


जिसे बुद्ध, ज्ञानदीप्त मन, प्रबुद्ध आत्म सदैव पुनः-पुनः आविष्कृत करती है। परंतु व्यवहारतः इसका अर्थ यह हुआ कि एक ऐसा आदर्श है, एक ऐसा सनातन धर्म है जिसे धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र तथा मनुष्य की अन्य सब शक्तियां, जो सत्य और पूर्णता की प्राप्ति के लिये यत्नशील हैं, आंतर और बाह्य जीवन की विद्या और कला के नये सिद्धांतों का, एक नये शास्त्र का रूप देने के लिये सदैव प्रयास कर रही हैं। धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक सदाचार के संबंध में मूसा के द्वारा प्रवर्तित धर्म को संकीर्णता एवं अपूर्णता का दोषी ठहराया जाता है, और इसके अतिरिक्त अब वह केवल एक लोकचर बन जाता है; उसके स्थान पर ईसा का धर्म प्रकट होता है और वह एक ही साथ उसका उच्छेद करने तथा जीवन का जो दिव्य विधान उसका लक्ष्य था उसकी मूल भावना को एक गंभीरतर तथा विशालतर ज्योति एवं शक्ति में परिपूर्ण बनाने का दावा करता है। और फिर मानव की खोज यहीं नहीं रूक जाती, बल्कि इन रचनाओं को भी त्याग देती है और किसी ऐसे अतीत सत्य की ओर लौट जाती है जिसे वह छोड़ चुकी थी अथवा वह इन सब विधानों को तोड़-फोड़कर किसी नये सत्य एवं शक्ति की ओर अग्रसर होती है, किंतु सदैव उसी वस्तु की, अपनी पूर्णता के विधान, यथायथ जीवन-यापन के नियम, अपनी पूर्ण, सर्वोच्च और मूलभूत सत्ता एवं प्रकृति की खोज में लगी रहती है। इस खोज किंवा प्रयास का आरंभ करता है व्यक्ति जो प्रचलित विधान से अब और संतुष्ट नहीं होता, क्योंकि वह देखता है कि वह विधान उसकी अपनी सत्ता और जगत-सत्ता के सम्बंध में उसकी अपनी धारणा एवं विशालतम या तीव्रतम अनुभूति से अब और मेल नहीं खाता और अतएव वह उस पर विश्वास तथा आचरण करने के लिये उसमें अपने संकल्प को पहले की तरह नियोजित नहीं कर सकता। वह उसकी जीवन-सत्ता की आंतरिक प्रणाली के अुनरूप नहीं होता, वह उसके लिये ‘सत’ अर्थात कोई ऐसी वस्तु नहीं होता जिसका वस्तुतः अस्तित्व है, न ही वह उसके लिये यथार्थ विधान, उच्चतम या श्रेष्ठ या वास्तवकि कल्याण होता है; वह उसकी सत्ता या समस्त सत्ता का सत्य एवं विधान नहीं होता। शास्त्र व्यक्ति के लिये एक निवैंयक्तिक वस्तु होता है, और वह उसे उसके करणों के संकुचित एवं वैयक्तिक विधान के ऊपर अपना प्रामाणिक विधान प्रदान करता है; पर इसके साथ ही वह समष्टि के लिये वैयक्तिक होता है और उसकी अनुभूति की, संस्कृति या प्रकृति की उपज-स्वरूप होता है। 


वह अपने समस्त रूप और भावना में आत्मा की परिपूर्णता का आदर्श विधान या हमारी प्रकृति के स्वामी का सनातन विधान नहीं होता, भले ही उसके अंदर उस अति महत्तर वस्तु के संकेत, उपक्रम, प्रकाशप्रद आभास कम या अधिक मात्रा में क्यों न विद्यमान हों। व्यक्ति समष्टि को अतिक्रम कर उससे आगे बढ़ा हुआ हो सकता है और एक महत्तर सत्य, एक प्रशस्ततर मार्ग, प्राण-पुरुष के एक गंभीरतर उद्देश्य के लिये प्रस्तुत हो सकता है। उसके अंदर की जो प्रेरणा शास्त्र को छोड़कर चलती है वह सदा उच्चतर गति ही हो यह आव्यश्यक नहीं; वह उस अहंभावमय या राजसिक प्रकृति के विद्रोह का रूप भी ग्रहण कर सकती है जो स्व-परिपूर्णता एवं स्व-उपलब्धि की स्वतंत्रता की अवरोधक प्रतीक होने वाली वस्तु के जुए से मुक्त होना चाहती है। परंतु तब भी वह शास्त्र की किसी संकीर्णता या अपूर्णता के कारण अथवा जीवन के प्रचलित विधान के अवनत होकर केवल एक प्रतिबंधक या निर्जीव आचार बन जाने के कारण प्रायः उचित ही ठहरती है। और इस हद तक वह न्याय संगत है, वह एक सत्य पर आश्रित है, उसके अस्तित्व का एक पर्याप्त और उचित कारण हैः क्योंकि यद्यपि यह सच्चे पथ को नहीं पकड़ पाती तो भी राजसिक अहं की स्वतंत्र चेष्टा लोकाचार के निर्जीव और आग्रहपूर्ण तामसिक अनुसरण से अच्छी होती है, क्योंकि उसके अंदर स्वातंत्र्य और जीवन अधिक मात्रा में होता है।


तामसिक प्रकृति की अपेक्षा राजसिक प्रकृति सदैव अधिक बलशाली तथा अधिक प्रबलतया अनुप्राणित होती है और उसके अंदर संभावनाएं भी अपेक्षाकृत अधिक होती हैं। परंतु शास्त्र का परित्याग करने की यह प्रेरणा मूलतः सात्त्विक भी हो सकती है; उस विशालतर एवं महत्तर आदर्श की ओर झुकी हुई हो सकती है, जो हमें अपनी सत्ता तथा विश्व-सत्ता के अद्यावधि उपलब्ध सत्य की अपेक्षा पूर्णतर एवं बृहत्तर सत्य के अधिक निकट ले जायेगा और अतएव उस उच्चतम विधान के भी अधिक निकट ले जायेगा जो दिव्य स्वातंत्र्य के साथ एकीभूत है। और क्रियात्मक दृष्टि से इस प्रकार की गति या प्रेरणा साधारणतः हमारी अपनी सत्ता के किसी विस्मृत सत्य को अधिकृत करने या अब तक अनुपलब्ध या अचरितार्थ सत्य की ओर अग्रसर होने का प्रयास होती है। यह अनियंत्रित प्रकृति की उच्छृंखल चेष्टा नहीं होती; यह आध्यात्मिक दृष्टि से समीचीन होती है और हमारी आध्यात्मिक प्रगति के लिये आवश्यक और चाहे शास्त्र अभी तक एक प्राणवंत वस्तु हो तथा औसत मनुष्य के लिये सर्वश्रेष्ठ विधान हो।


उसे शास्त्र की रूड़ सीमा-रेखा को पार करने का आह्वान प्राप्त होता है। क्योंकि यह तो सामान्य अपूर्ण मनुष्य के मार्ग-निर्देश, नियंत्रण एवं आपेक्षिक पूर्णत्व के लिये एक विधान होता है और उसे बढ़ना होता है एक अधिक पूर्ण पूर्णतत्त्व की ओरः यह सुनिश्चित धर्मों का शास्त्र होता है और उसे आत्मा के स्वातंत्र्य में निवास करना सीखना होता है। तब भला जो कर्म कामना के निर्देश तथा प्रचलित विधान दोनों से हटकर चलता है उसका सुरक्षित आधार क्या होगा? कारण, कामना के नियम की एक अपनी प्रामाणिकता होती है जो हमारे लिये अब और वैसी सुरक्षित या संतोषजनक नहीं रहती जैसी वह पशु के लिये या जैसी वह आदिम मानवता के लिये रही होगी, परंतु फिर भी अपनी सीमा के भीतर यह हमारी प्रकृति के एक अति जीवंत भाग पर आधारित और उसके प्रबल संकेतों के द्वारा संपुष्ट होती है; इस धर्म किंवा शास्त्र के पीछे रहती है चिर-प्रचलित विधान की समग्र प्रामाणिकता, प्राचीन विधि-विधानों की सफलता और अतीत की सुरक्षित अनुभूति।


परंतु इस नये प्रयास का स्वरूप होता है अज्ञात या ईषत-ज्ञात की ओर शक्तिशाली अभियान, एक साहसिक विकास और एक नूतन विजय। तो फिर वह कौन-सा सूत्र है जिसका अनुसरण करना होगा, वह कौन-सा मार्गदर्शक प्रकाश है जिस पर यह प्रयास भरोसा रख सकता है या हमारी सत्ता के अंदर इसका दृढ़ आधार क्या हो सकता है? इसका उत्तर यह है कि वह सूत्र और आधार हमें मनुष्य की श्रद्धा में मिलेगा; श्रद्धा का मतलब है-जिसे मनुष्य अपनी तथा जगत सत्ता के सत्य के रूप में देखता है या समझता है उस पर विश्वास करने तथा उसके अनुसार जीवन-यापन करने का संकल्प। दूसरे शब्दों में इस प्रयास का अर्थ है-मनुष्य का अपने सत्य स्वरूप, अपने जीवन-विधान, अपनी पूर्णता और सिद्धि के पथ की उपलब्धि के लिये अपनी निज सत्ता के प्रति या फिर अपनी सत्ता या विश्व-सत्ता के अंदर विद्यमान किसी शक्तिशाली एवं अवश्यमान्य वस्तु के प्रति पुकार करना। और सब कुछ निर्भर करता है उसकी श्रद्धा के स्वरूप के ऊपर, अपने अंदर या जिस विश्वात्मा का वह एक अंश या प्राकट्‌य है, उसके अंदर विद्यमान जिस वस्तु के प्रति वह अपनी श्रद्धा अर्पित करता है उसके ऊपर और इसके द्वारा वह अपनी वास्तविक आत्मा तथा विश्व की आत्मा या उसकी वास्तविक सत्ता के कितना निकट पहुँचता है।


इस बात के ऊपर यदि वह तामसिक, मूढ़ एवं मोहाच्छन्न है, यदि उसकी श्रद्धा अज्ञानयुक्त तथा संकल्प अक्षम है तो वह किसी भी वास्तविक वस्तु तक नहीं पहुँच पायेगा तथा अपनी निम्न प्रकृति में जा गिरेगा। यदि वह मिथ्या राजसिक प्रकाशों के प्रलोभन में पड़ गया तो वह अपने स्वेच्छाचारी संकल्प के द्वारा ऐसे उपमार्गों में भटक सकता है, जो उसे दलदल या कगार की ओर ले जा सकते हैं हर हालत में उसके उद्धार का एकमात्र सुयोग इस बात में है कि उसके अंदर सत्त्वगुण फिर से प्रबलता प्राप्त कर ले और वह उसके करणों पर नयी ज्ञानदीप्त नियम-व्यवस्था लागू करे जो उसे उसके स्वच्छंद संकल्प की प्रचंड भ्रांति या उसके तमसाच्छन्न अज्ञान की जड़ भ्रांति सें मुक्त कर देगी। इसके विपरीत यदि उसकी प्रकृति सात्त्विक है और यदि उसे आगे बढ़ने के लिये सात्त्विक श्रद्धा एवं निर्देश प्राप्त है तो एक अद्यावधि-अनुपलब्ध उच्चतर आदर्श-विधान उसे दृष्टिगोचर हो जायेगा, जो उसे किन्हीं विरल प्रसंगों में सात्त्विक प्रकाश से भी ऊपर सत्ता और जीवन की उच्चतम दिव्य ज्योति एवं दिव्य प्रणाली की ओर कुछ दूर तो ले ही जा सकता है। क्योंकि यदि उसके अंदर सात्त्विक प्रकाश इतना प्रबल हो कि वह उसे अपनी चरम सीमा तक ले जाये तो वह उस सीमा से आगे बढ़कर भागवत, विश्वातीत एवं निरपेक्ष सत्ता की किसी प्रथम रश्मि में प्रवेश के लिये मार्ग बनाने में समर्थ होगा।


आत्म-अनुसंधान के सभी प्रयत्नों में ये संभावनाएं विद्यमान हैं; ये इस आध्यात्मिक अभियान की शर्तें हैं। अब हमें यह देखना है कि गीता अध्यात्म-शिक्षा और आत्म-साधना की अपनी सरणि के अनुसार इस प्रश्न का कैसा समाधान करती है क्योंकि अर्जुन तुरंत ही एक ऐसा इंगितपूर्ण प्रश्न करता है जिससे यह समस्या या इसका एक पक्ष उपस्थित होता है वह पूछता है कि जब आदमी श्रद्धापूर्वक परमेश्वर या देवताओं का यजन करते हैं पर शास्त्रविधि का परित्याग कर देते हैं तो वह कौंन-सी निष्ठा है, उनके अंदर भक्ति का वह कौंन-सा एकनिष्ठ संकल्प है जो उनमें यह श्रद्धा उत्पन्न करता है और उन्हें इस प्रकार के कर्म में प्रवृत्त करता है? वह सात्त्विक है या राजसिक या तामसिक? वह हमारी प्रकृति के किस स्तर से सम्बंध रखता है? गीता का उत्तर पहले इस सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि प्रकृति की सभी चीजों की भाँति हमारी श्रद्धा भी त्रिविध होती है और वह हमारी प्रकृति के प्रधान गुण के अुनसार विभिन्न प्रकार की होती है।



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