सात्विक अहम

 


                             चंदन सुकुमार सेनगुप्ता

 

सात्विक विचार का धनी कभी खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मान लेने की हरकत नहीं कर सकता | वैसी हरकत करने वालों के सात्विक होने को लेकर फिर प्रश्न निर्माण किए जा सकेंगे | यही वह पड़ाव है जहाँ मानव से मानव का भी विचार विनिमय हो सकेगा | मंगल विचार का धनी ही व्यवस्था और तंत्र से एकरूप हो जाता है | स्वराज और स्वावलंबन से मेरी एकरूपता कुछ हद तक नैसर्गिक होने के साथ साथ कुछ माने में विरासत में मिली चीज़ है | मैं एक क्रांतिकारी के परिवार से भी आने के कारण भी बचपन से ही ऐसे माहौल में ही पाला बढ़ा | मेरी एकरूपता उस विचार और व्यवस्था से है जिसका आप भी कभी न कभी किसी न किसी रूप में अभ्यास कर लेते हैं | इसी बहाने हम करीब भी गये | अब सूचना प्रौद्योगिकी के युग में हम एक दूसरे के और करीब चुके हैं और अधिक सघन होकर काम करने लग गये हैं | मैं एक मानसिक प्रस्तुति लेकर चल रहा हूँ हमारा सभी कार्यक्रम सर्वधर्म समभाव और सर्वोदय के विचार से पुष्ट हो | कभी कभी ऐसा लगता है कि आने वाला तूफान शायद सब कुछ तबाह कर देगा और हम कहीं के नहीं रहेंगे | पर हक़ीकत तो यह है कि तूफान भी वनस्पति में निहित चेतना को नष्ट नहीं कर पाता | समझदार जीव थोड़े समय के लिए खुद को छिपा लेते हैं | एक कीट तक को इस विधा का ज्ञान है; फिर मनुष्य की बात तो है ही निराली |

हमें जो ठीक लगता है उसी पर हमारा ध्यान टिक जाता है और वहीं से हमारे अहम का विस्तार शुरू हो जाता है | कोई संत बिल्कुल अहंकार से शून्य हो चुका है ऐसा कहना हमारी मूर्खता होगी | असल में अहम तो उन गिने चुने तत्वों का हिस्सा है जिसके कारण हम इस शरीर को धारण कर पा रहे हैं | अगर किसी संत के योगक्षेम की व्यवस्था हम नहीं कर पा रहे हों तो इसका कलंक उस समाज और उस व्यवस्था को लगेगा जहाँ संत अपनी सेवा और अपपना विचार संप्रेषित किया करते हैं |

संत का स्वाभाव ही होता है कि उन्हें खुद की वकालत करना और खुद के लिए पक्ष लेना आता ही नहीं | उनके साथ विचार का सम्मेलन करने वाले उनका पक्ष लेते हुए पाए जा सकेंगे | अहम अगर सात्विक है तो भी क्रमशः बढ़ेगा और तामसिक है तो भी | सात्विक अहम ही सामूहिक प्रार्थना और सर्वधर्म समभाव की बात करने का प्रयास करेगा और मानव मात्र को रचानधर्मिता से जोड़ने का प्रयास करेगा | ऐसे सात्विक अहम के धारक और  उपासक  विरले ही हैं | उन्हें जोड़ पाने का काम सबसे ज़्यादा कठिन काम है |

कठिन बोलकर छोड़ दें और खुद को दर किनार कर लें यह भी नहीं हो सकता | हम जहाँ हैं और जितना कर सकते हैं उतना भी करें तो उस लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी जिसका कि बाबा कभी सपना देखा करते थे |

बाबा के सूक्ष्म दर्शी होने का प्रमाण हम उनके जीवन से जुड़ी एक छोटी घटना से दे सकेंगे; एकबार किसी कार्यक्रम का पत्र बाँटने के लिए किसी बालक को नज़दीक के गाँव में भेजना था | वह समय भी कड़ी धूप का था | बाबा ने उसे छतरी लेकर जाने के लिए कहा | बालक ने भी छतरी सीधे सिर के ऊपर पकड़ा | बाबा को त्वरित इस बात की कल्पना हो गई कि आते समय और जाते समय भी बालक की पीठ पर धूप लगेगी | अतः उन्होंने छतरी को थोड़ा नीचे हिलाकर उस बालक को पकड़ा दिया और उसे ऐसे ही पकड़कर आने और जाने का निर्देश दे दिए | असल में उस बालक को सुबह के समय पश्चिम की दिशा में जाना था और आते समय पूरब की दिशा में आना था | जाहिर सी बात है कि धूप उसके पीठ पर दोनों समय लगने वाली थी |

स्वराज, सर्वोदय और अहिंसा के विचार से चलनेवाले हर संस्था का काम तो मेरा ही काम है | इस सात्विक अहम का विस्तार दिन प्रतिदिन होता है जा रहा है | इस अहम की परिधि में आए दिन नये लोगों का प्रवेश होता ही जा रहा है | मेरे सरलता और सादगी के कारण कुछ और लोग जुड़े रहने का प्रयास भी करते हैं | यह मेरी ही विफलता है मैं हर जगह समय पर उपस्थित नहीं हो पता हूँ | लेख और संवाद के ज़रिए उन सभी आग्रही जनों तक पहुँचा जा सकेगा ऐसी मेरी मान्यता है |  कुछ वरिष्ठ जनों के कहने पर आजकल कभी कभी विचार को लिखकर प्रकाशन संस्थानों को भेज देने का प्रयास कर रहा हूँ ताकि विचार गंगा की पावन धारा अन्य अभ्यासियों को भी पुष्ट करे |

आजकल तो मुझे जीवन के गिने चुने दिन भी कम लगने लगा है | ज़िम्मेदारियाँ बढ़ती जा रही है और समय घटता जा रहा है | जो भी कर गुजरने की तमन्ना लिए हम आगे निकलकर आते हैं उतना ही हमें और आगे जाने की प्रेरणा मिलती है |

 

सामूहिक विकास का महत्व

एकबार ठाकुर रामकृष्ण को निर्विकल्प समाधि लेते हुए नरेन छिपकर देख रहे थे | बाद में नरेन काफ़ी आग्रह करने लगे कि उन्हें भी ठाकुर से निर्विकल्प समाधि सीखना है | यह सुनकर नरेन को लगा कि गुरु होने के नाते ठाकुर ऐसा सुनकर प्रसन्न होंगे और उसे निर्विकल्प समाधि लेने की शिक्षा ज़रूर देंगे | पर ऐसा हुआ नहीं; ठाकुर मायूस हो गये और वहाँ से उठकर चले गये | मायूसी का कारण पूछे जाने पर उन्होंने कहा, "मेरी तमन्ना थी कि नरेन बरगद का पेड़ बनेगा और काईओं को आसरा भी देगा , पर उसे तो ताड़ का ही पेड़ बनना है | "

ठाकुर नरेन को जनता जनार्दन के लिए सेवव्रती होकर काम करने की प्रेरणा दे रहे थे और नरेन को व्यक्तिगत प्रगति की धुन लगी थी | निर्विकल्प समाधि का मंत्र तो है ही उत्तम कोटि का; पर ठाकुर रामकृष्ण को लग रहा था कि सभी भक्त वत्सल अगर समाधि लेने लग जाएँ तो फिर समाज का क्या होगा !

अतः कुछ भक्तों को वैयक्तिक प्रगती की लालसा से ऊपर उठकर शिव सेवा ज्ञान से जीव सेवा में लगना है | तभी समाज को प्रगती की राह पर लाया जा सकेगा | आचार्य विनोबा का मंत्र ही सर्वोदय का था ; प्रार्थना भी सामूहिक ही हो; उसमें भी सबके भावनाओं को भली भाँति पिरोए जाएँ |

" देहे प्राणे मने सवित्याचे , तेज देवाचे घ्याउन या...... हे प्रभो नेई मज असतान तून सत्याकड़े  " यह बाबा विरचित सर्वधर्म प्रार्थना का धुन मन को पूर्ण कर देता है | उस मंगल प्रभात को हृदय में बाँधकर ही हम आज भी लोक हितार्थ सेवा भाव से बाहर निकलते हैं |

मैंने व्यक्ति जीवन में जो भी जानकारी और हुनर का संग्रह और कौशल्य का अभ्यास किया उसका मकसद कभी भी नौकरी करने का नहीं था | पढ़ाई चलते चलते ही मुझे भाया, मामी, मादालसा बुआ, मीरा बेन, सरला बेन आदि के कहने पर लोक हितार्थ सेवा कार्य में उतरना पड़ा | ज़िम्मेदारियाँ भी डाली गई और कई पड़ाव से गुज़रना भी पड़ा | हर पड़ाव पर मैंने सत्य, सर्वधर्म समभाव और अहिंसा के तत्व से समझौता नहीं किया | जिन संस्थाओं में मूल्यों का दोहन हो रहा था उनसे मैंने खुद को अलग कर लिया | संस्था से भले ही मैं अलग हो गया पर वहाँ के विद्यार्थी, शिक्षक और कार्यकर्ता मुझसे जुड़े रहे |   

कहते हैं किसी बरगद के पेड़ की एक जड़ काटने का प्रयास अगर हो तो वहाँ कई और जड़ों का संचार विविध दिशाओं में होने लग जाता है | नाशवान विचारक के लिए यह बहुत बड़ी सीख है |  विचार का प्राबल्य इतना हो कि वो तूफान में भी अडिग बना रहे | उसे हिला पाने की मंद बुद्धि किसी के मन में भी सके |

बाबा कहते थे प्रशाशित होने से कहीं बेहतर विचार है अगर कोई स्वशाशित और अनुशाशित होने का प्रयास करे | प्रकृति के पास सबके लिए व्यवस्था है ; हम उसे प्राप्त करने का कौशल हासिल करें कि अपनी माँग रख दें | 

एक बार एक भिक्षु राज पथ पर यह सोचकर खड़ा रहा कि इस पथ से गुजरनेवाला राजाधिराज झोली भर  देता है; और फिर जीवन भर कुछ माँगने की नौबत ही नहीं आती | दिव्य पथ को धूल धुसरित करते हुए राजाधिराज तो गये; पर भिक्षु के सामने हाथ पसारकर खड़े हो गये |

अब भिक्षु मायूस हो गया और उसी मायूसी में कुछ दाने उस सर्व शक्तिमान की हथेली पर रख दिया ; मायूस होकर घर वापस आया | दिन ढल जाने के बाद उन दानों को छाँटने लगा | उसमें कुछ चमकने वाले कीमती मोतियों का संग्रह भी मिला |

अब उसे अपने किए पर रोना आया | वो तो सबकुछ देने का मन बनाकर फिर उसी राज पथ पर जाकर खड़ा हो गया | राजाधिराज आए और उसी स्थान को धूल धुसरित करते हुए आगे बढ़ गये | उनके मन में इस बात की कल्पना बनी कि यह भिक्षु जो दे सकता था वह तो दे चुका | अब भला इससे मिलकर कौनसा समाधान आनेवाला ! अतः उस सर्व शक्तिमान का रथ उसी दिव्य पथ से होते हुए आगे निकल गया |

कभी कभी हम भी भ्रमित हो जाते हैं कि अगर सर्व शक्तिमान हमसे कुछ माँग रहा है तो वो कौनसी वस्तु हो सकती ! उसे भला किस चीज़ की कमी हो गई ! असल में सर्व शक्तिमान को हमारा हार्दिक समर्पण चाहिए, ता कि उसे हमें निखारने का मौका मिले | हम वस्तुवादी विचार से ग्रसित होने के कारण उसके इस माँग को ठीक से समझ नहीं पाते |

 

प्रबंधन कौशल्य

 प्रबंधन को लेकर संसार में काफ़ी चर्चा होती है | ऐसी ही एक चर्चा जापान में भी हुई जहाँ उस विधा के माने हुए लोग जमा हुए | उस सभा में भारत के किसी  मिशन से एक सन्यासी को भी बुलाया गया और उनके सामने आए ऐसे प्रबंधन कौशल का  विवरण दिया गया जिसमें ग़लती की संभावना ही नहीं रहेगी | सभी अनुभवी जन उस विधा का भरपूर समर्थन करने लगे; एक ही व्यक्ति था जिसे उस विधा को अमल में ला पाने को लेकर शंका बनी हुई थी | वो स्पष्ट वक्ता ही भारतीय मूल के संत थे |

उन्होंने कहा कि भले ही शून्य ग़लती होनेवाले किसी प्रबंधन कौशलय की कल्पना हमारे मन में रहे पर इसे गुणवत्ता के मानक के साथ लागू कर पाना संभव ही नहीं हो सकेगा | हम जिसे पूर्णतः शुद्ध मान लें हो सकता है कि उसमें किसी और व्यक्ति के जानकारी के क्षेत्र के मुताबिक कोई और अशुद्धि निकले ! जापान के लोग भी इस विषय को अमल में लाते हुए उस संत श्री से ही प्रबंधन कौशल्य के बारे में सुझाव माँग बैठे | जाहिर सी बात है कि उस साधु मत से निकला हुआ प्रबंधन कौशल को ही आज हम जापान में लागू होता हुआ देख सकेंगे | उसके पीछे ही जापान की त्वरित प्रगती का राज भी निहित है | परिवर्तनशीलता और लचीलापन को प्रबंधन के स्वरूप में अग्र्गन्य मानते हुए उस देश के लोगों ने उस साधु मत से ही काम करते रहे ; विनाश का प्रत्युत्तर उन्होंने निर्माण से दे दिया |

यह मेरे जीवन का पहला ऐसा लेख है जहाँ मुझे व्यक्तिगत जीवन से जुड़े कुछ अनुभवों को पिरोना पड़ा | यह भी अपने कुछ प्रियजनों के कहने पर ही करना पड़ा | कभी कभी हम कलम को रोकना चाहते हैं पर उसके अधीन हमारा मन विचार पोथि के पन्ने पलट देता है | यह सात्विक स्वभाव ही है जो जीवन सरिता के सभी बिंदुओं को उजागर करना नहीं चाहता; ही उस विधान से भ्रामक तत्वों को किसी लेख में सम्मिलित करना चाहता |

हम भी यही चाहते हैं कि लोग एक रचना धर्मिता के साथ आपस में मिलें और संवाद करते हुए समाधान सूत्र को ढूँढ निकालें | काफ़ी लोग इस काम में लगे हुए भी हैं ; पर प्रयास का छन्द मे होना उतना ही अहम है जितना कि उसका त्वरित होना |

अनुभव कथन का सिलसिला चल पड़ने के बाद उसमें से कुछ कुछ तो हासिल हो ही जाएगा | हमें अपने गुरुजनों के अनुभव से भी काफ़ी कुछ सीखना है | कभी कभी कहा जाता है , "श्रद्धावान लभ्यते ज्ञानम | " ज्ञान के साथ श्रद्धा का क्या मेल बंधन है यह भी कभी कभी हमारी समझ के परे रह जाता है | असल में जहाँ श्रद्धा हो वहाँ हमारा मन भी हमारा ही विरोध करने लग जाता है और हम उसमें से खोट निकालकर अपनी शान दिखाने के काम में जुट जाते हैं | विषय की गंभीरता इस बात से भी समझ सकते हैं कि खोट निकालते निकालते हमारा मन ही दूषित हो उठता है और हम उस विचार धन को ठीक से पा ही नहीं सकते | एक बार अपने परिवार में किसी ब्राह्मण देवता को पूजा के लिए बुलाया गया | हम सब यथावत निर्धारित स्थान पर खड़े हो गये | ब्राह्मण देवता कुछ ग़लत मंत्र बोलने लगे | नतीजा यह हुआ कि हमारा मन कुछ कहने के लिए उतावला हो उठा, पर सामने खड़ी दादी ने बड़ी बड़ी आँखें दिखाकर हमें मना कर दिया | दान आदि देकर उस ब्राह्मण देवता की विदाई होने के बाद दादी ने कहा, "ग़लती निकालने में तुम्हारी कोई शान नहीं मानी जाएगी | उस ग़लत मंत्र को सही करके बोल पाने का अभ्यास कर लो |"   

जाहिर सी बात है कि उनका आशय हमारे विवेकवान होने के साथ साथ श्रद्धावान् होने के लेकर भी था | अन्य विचार और तत्व पर भी हमारी उतनी ही श्रद्धा होनी चाहिए जितनी कि अपने ज्ञान पर | ज्ञान को दर्शन का नेत्र चाहिए और दर्शन को ज्ञान का आश्रय | दोनो को एक ही रथ के दो पहिए भी मानकर चल सकते हैं | अपने रामायण में भी ऐसे दिव्य रथ का प्रसंग आता है जिसपर सवार होकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम को जीत मिली | रण भूमि में श्री राम को देखकर श्री विभीषण काफ़ी चिंतित हो गये; रामजी के पास कोई रथ है ही नहीं फिर भला इतने भयानक राक्षासों का मुकाबला वो कैसे कर सकेंगे !

श्री रामजी अपने रथ का विवरण देते हुए बताते हैं, "मेरे पास भी दिव्य रथ है और उसके दो ही पहिए हैं: पहला शौर्य और दूसरा धैर्य | यह रथ अन्य रथ से एक और माने में भिन्न है | युद्ध भूमि में ज़रूरत पड़ने पड़ यह रथ भी सभी सैनिकों के समरूप युद्ध कर सकेगा |"

श्री रामजी का इशारा उस रुद्र अवतार की ओर था जिसने हर पल श्री रामजी के कार्य सिद्ध करने में सहायक होने के संकल्प का व्रती हो चुका था | हमारे सामने प्रसंगों की कमी नहीं होगी , जिसके बल पर हम आत्मा और परमात्मा के मिलन से कार्य सिद्धि के समीकरण को वास्तव दृष्टि से प्रत्यक्ष कर पाएँ | अंततः इतना कहना होगा कि यह सात्विक अहम ही है जो हमें अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहने की सीख देता है |

 

आज का विषय

लोकप्रिय विषय