कर्मयोग ही श्रेष्ठ



संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।

तयोस्तु कर्मसंन्यासकात्कर्मयोगी विशिष्यते ।। 5.2 ।।


श्रीभगवान बोले- संन्यास और कर्मयोग- दोनों ही कल्याण करने वाले हैं। परंतु उन दोनों में भी कर्मसंन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।


[भगवान के सिद्धांत के अनुसार सांख्ययोग और कर्मयोग का पालन प्रत्येक वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि के मनुष्य कर सकते हैं। कारण कि उनका सिद्धांत किसी वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि को लेकर नहीं है। इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन कर्मों का त्याग करके विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने की प्रचलित प्रणाली को ‘कर्मसंन्यास’ नाम से कहा है। पंरतु भगवान के सिद्धांत के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के लिये सांख्ययोग का पालन प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्रता से कर सकता है और उसका पालन करने में कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की आवश्यकता भी नहीं है। इसलिये भगवान प्रचलित मत का भी आदर करते हुए अपने सिद्धांत के अनुसार अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं।]


‘संन्यासः’- यहाँ ‘संन्यासः’ पद का अर्थ ‘सांख्ययोग’ है, कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं। अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कर्मों के त्यागपूर्वक संन्यास का विवेचन न करके कर्म करते हुए ज्ञान को प्राप्त करने का जो सांख्ययोग का मार्ग है, उसका विवेचन करते हैं। उस सांख्ययोग के द्वारा मनुष्य प्रत्येक वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि में रहते हुए प्रत्येक परिस्थिति में स्वतंत्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त कर सकता है अर्थात अपना कल्याण कर सकता है।


सांख्ययोग की साधना में विवेक विचार की मुख्यता रहती है। विवेक पूर्वक तीव्र वैराग्य के बिना यह साधना सफल नहीं होती। इस साधना में संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव होकर एकमात्र परमात्मतत्त्व पर दृष्टि रहती है। राग मिटे बिना संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव होना बहुत कठिन है। इसलिये भगवान ने देहाभिमानियों के लिये यह साधन क्लेशयुक्त बताया है। इसी अध्याय के छठे श्लोक में भी भगवान ने कहा है कि कर्मयोग का साधन किये बिना संन्यास का साधन होना कठिन है; क्योंकि संसार से राग हटाने के लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है।


‘कर्मयोगश्च’- मानव मात्र में कर्म करने का राग अनादिकाल से चला आ रहा है, जिसे मिटाने के लिये कर्म करना आवश्यक है। परंतु वे कर्म किस भाव और उद्देश्य से कैसे किये जाएँ कि करने का राग सर्वथा मिट जाय, उस कर्तव्य कर्म को करने की कला को ‘कर्मयोग’ कहते हैं। कर्मयोग में कार्य छोटा है या बड़ा, इस पर दृष्टि नहीं रहती। जो भी कर्तव्य कर्म सामने आ जाय, उसी को निष्काम भाव से दूसरों के हित के लिये करना है। कर्मों से संबंध विच्छेद करने के लिये यह आवश्यक है कि कर्म अपने लिये न किये जायँ। अपने लिये कर्म न करने का अर्थ है- कर्मों के बदले में अपने लिये कुछ भी पाने की इच्छा न होना। जब तक अपने लिये कुछ भी पाने की इच्छा रहती है, तब तक कर्मों के साथ संबंध बना रहता है।


‘निःश्रेयसकरावुभौ’- अर्जुन का प्रश्न था कि सांख्ययोग और कर्मयोग- इन दोनों साधनों में कौन सा साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करने वाला है? उत्तर में भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! ये दोनों ही साधन निश्चयपूर्वक कल्याण करने वाले हैं। कारण कि दोनों के द्वारा ही समता की प्राप्ति होती है। इसी अध्याय के चौथे-पाँचवें श्लोकों में भी भगवान ने इसी बात की पुष्टि की है। तेरहवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में भी भगवान ने सांख्ययोग और कर्मयोग- दोनों से परमात्मतत्त्व का अनुभव होने की बात कही है। इसलिये ये दोनों ही परमात्म प्राप्ति के स्वतंत्र साधन हैं।

अध्याय ‘तयोस्तु कर्मसंन्यासात्’- एक ही सांख्ययोग के दो भेद हैं- एक तो चौथे अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मों का स्वरूप से त्याग है; और दूसरा, दूसरे अध्याय के ग्यारहवें से तीसवें श्लोक तक कहा हुआ सांख्ययोग, जिसमें कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं है। यहाँ ‘कर्मसंन्यासात्’ पद दोनों ही प्रकार के सांख्ययोग का वाचक है। ‘कर्मयोगो विशिष्यते’- आगे के तीसरे श्लोक में भगवान ने इन पदों की व्याख्या करते हुए कहा है कि कर्मयोगी नित्य संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि वह सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। फिर छठे श्लोक में भगवान ने कहा कि कर्मयोग के बिना सांख्य योग का साधन होना कठिन है तथा कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य है कि सांख्ययोग में तो कर्मयोग की आवश्यकता है, पर कर्मयोग में सांख्ययोग की आवश्यकता नहीं है। इसलिये दोनों साधनों के कल्याण कारक होने पर भी भगवान कर्मयोग को ही श्रेष्ठ बताते हैं। कर्मयोगी लोकसंग्रह के लिये कर्म करता है- ‘लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमहर्सि’।[1] लोकसंग्रह का तात्पर्य है- निःस्वार्थभाव से लोक मर्यादा सुरक्षित रखने के लिये, लोगों को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाने के लिये कर्म करना अर्थात केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना। इसी को गीता में ‘यज्ञार्थ कर्म’ के नाम से भी कहा गया है। जो केवल अपने लिये कर्म करता है, वह बँध जाता है।[2] परंतु कर्मयोगी निःस्वार्थ भाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करता है; अतः वह कर्मबंधन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है।[3] इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है। कर्मयोग का साधन प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा किया जा सकता है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि का क्यों न हो। परंतु अर्जुन जिस कर्मसंन्यास की बात करते हैं, वह एक विशेष परिस्थिति में किया जा सकता है[4]; क्योंकि तत्त्वज्ञ महापुरुष का मिलना, उनमें अपनी श्रद्धा होना और उनके पास जाकर निवास करना- ऐसी परिस्थिति हरेक मनुष्य को प्राप्त होनी संभव नहीं है। अतः प्रचलित प्रणाली के सांख्ययोग का साधन एक विशेष परिस्थिति में ही साध्य है, जबकि कर्मयोग का साधन प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक व्यक्ति के लिये साध्य है। इसलिये कर्मयोग श्रेष्ठ है। प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करना कर्मयोग है। युद्ध जैसी घोर परिस्थिति में भी कर्मयोग का पालन किया जा सकता है। कर्मयोग का पालन करने में कोई भी मनुष्य किसी भी परिस्थिति में असमर्थ और पराधीन नहीं है; क्योंकि कर्मयोग में कुछ भी पाने की इच्छा का त्याग होता है। कुछ-न-कुछ पाने की इच्छा रहने से ही कर्तव्य कर्म करने में असमर्थता और पराधीनता का अनुभव होता है। कर्तृत्व भोक्तृत्व ही संसार है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी- इन दोनों को ही संसार से संबंध विच्छेद करना है, इसलिये दोनों ही साधकों को कर्तृत्व और भोक्तृत्व- इन दोनों को मिटाने की आवश्यकता है। तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि होने से सांख्ययोगी कर्तृत्व को मिटाता है। उतना तीव्र वैराग्य और तीक्ष्ण बुद्धि न होने से कर्मयोगी दूसरों के हित के लिये ही सब कर्म करके भोक्तृत्व को मिटाता है। इस प्रकार सांख्ययोगी कर्तृत्व का त्याग करके संसार से मुक्त होता है और कर्मयोगी भोक्तृत्व का अर्थात कुछ पाने की इच्छा का त्याग करके मुक्त होता है। यह नियम है कि कर्तृत्व का त्याग करने से भोक्तृत्व का त्याग और भोक्तृत्व का त्याग करने से कर्तृत्व का त्याग स्वतः हो जाता है। 


कुछ-न-कुछ पाने की इच्छा से ही कर्तृत्व होता है। जिस कर्म से अपने लिये किसी प्रकार के भी सुखभोग की इच्छा नहीं है, वह क्रियामात्र है, कर्म नहीं। जैसे यंत्र में कर्तृत्व नहीं रहता, ऐसे ही कर्मयोगी में कर्तृत्व नहीं रहता।


साधक को संसार के प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदि में स्पष्ट ही अपना राग दीखता है। उस राग को वह अपने बंधन का खास कारण मानता है तथा उसे मिटाने की चेष्टा भी करता है। उस राग को मिटाने के लिये कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ आदि को अपना नहीं मानता[1], अपने लिये कुछ नहीं करता तथा अपने लिये कुछ नहीं चाहता। क्रियाओं से सुख लेने का भाव न रहने से कर्मयोगी की क्रियाएँ परिणाम में सबका हित तता वर्तमान में सबकी प्रसन्नता और सुख के लिये ही हो जाती हैं। क्रियाओं से सुख लेने का भाव होने से क्रियाओं में अभिमान[2] और ममता हो जाती है। परंतु उनसे सुख लेने का भाव सर्वथा न रहने से कर्तृत्व समाप्त हो जाता है। कारण कि क्रियाएँ दोषी नहीं है, क्रियाजन्य आसक्ति और क्रियाओं के फल को चाहना ही दोषी है। जब साधक क्रियाजन्य सुख नहीं लेता तथा क्रियाओं का फल नहीं चाहता तब कर्तृत्व रह ही कैसे सकता है? क्योंकि कर्तृत्व टिकता है भोक्तृत्व पर। भोक्तृत्व न रहने से कर्तृत्व अपने उद्देश्य में[3] लीन हो जाता है और एक परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है।


कर्मयोगी का ‘अहम्’[4] शीघ्र तथा सुगमता पूर्वक नष्ट हो जाता है, जबकि ज्ञानयोगी का ‘अहम्’ दूर तक साथ रहता है। कारण यह है कि ‘मैं सेवक हूँ’[5] ऐसा मानने से कर्मयोगी का ‘अहम्’ भी सेव्य की सेवा में लग जाता है; परंतु ‘मैं मुमुक्षु हूँ’ ऐसा मानने से ज्ञानयोगी का ‘अहम्’ साथ रहता है। कर्मयोगी अपने लिये कुछ न करके केवल दूसरों के हित के लिये सब कर्म करता है, पर ज्ञानयोगी अपने हित के लिये साधन करता है। अपने हित के लिये साधन करने से ‘अहम्’ ज्यों-का-त्यों बना रहता है।


ज्ञानयोग की मुख्य बात है- संसार की स्वतंत्र सत्ता का अभाव करना और कर्मयोग की मुख्य बात है- राग का अभाव करना। ज्ञानयोगी विचार के द्वारा संसार की सत्ता का अभाव तो करना चाहता है, पर पदार्थों में राग रहते हुए उसकी स्वतंत्रता सत्ता का अभाव होना बहुत कठिन है। यद्यपि विचारकाल में ज्ञानयोग के साधक को पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता का अभाव दीखता है, तथापि व्यवहारकाल में उन पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। परंतु कर्मयोग के साधक का लक्ष्य दूसरों को सुख पहुँचाने का रहने से उसका राग स्वतः मिट जाता है। इसके अतिरिक्त मिली हुई सामग्री का त्याग करना कर्मयोगी के लिये जितना सुगम पड़ता है, उतना ज्ञानयोगी के लिये नहीं। ज्ञानयोग की दृष्टि से किसी वस्तु को मायामात्र समझकर ऐसे ही उसका त्याग कर देना कठिन पड़ता है; परंतु वही वस्तु किसी के काम आती हुई दिखाई दे तो उसका त्याग करन सुगम पड़ता है।


जैसे, हमारे पास कंबल पड़े हैं तो उन कंबलों को दूसरों के काम में आते जानकर उनका त्याग करना अर्थात उनसे अपना राग हटाना साधारण बात है; परंतु[1] उन्हीं कम्बलों को विचार द्वारा अनित्य, क्षणभंगुर, स्वप्न के मायामय पदार्थ समझकर त्याग करने में[2] जिन वस्तुओं में हमारी सुख बुद्धि नहीं है, उन खराब वस्तुओं का त्याग तो सुगमता से हो जाता है, पर जिनमें हमारी सुख बुद्धि है, उन अच्छी वस्तुओं का त्याग कठिनता से होता है। परंतु दूसरे के काम आती देखकर जिन वस्तुओं में हमारी सुख बुद्धि है, उन वस्तुओं का त्याग सुगमता से हो जाता है; उन वस्तुओं का त्याग सुगमता से हो जाता है; जैसे- भोजन के समय थाली में से रोटी निकालनी पड़े तो ठंडी, बासी और रूखी रोटी ही निकालेंगे। परंतु यदि वही रोटी किसी दूसरे को देनी हो तो अच्छी रोटी ही निकालेंगे, खराब नहीँ। इसलिये कर्मयोग की प्रणाली से राग को मिटाये बिना सांख्ययोग का साधन होना बहुत कठिन है। विचार द्वारा पदार्थों की सत्ता न मानते हुए भी पदार्थों में स्वाभाविक राग रहने के कारण भोगों में फँसकर पतन तक होने की संभावना रहती है। केवल असत् के ज्ञान से अर्थात असत् को असत् जान लेने से राग की निवृत्ति नहीं होती।[3] जैसे, सिनेमा में दीखने वाले पदार्थों आदि की सत्ता नहीं है- ऐसा जानते हुए भी उसमें राग हो जाता है। सिनेमा देखने से चरित्र, समय, नेत्र शक्ति और धन- इन चारों का नाश होता है- ऐसा जानते हुए भी राग के कारण सिनेमा देखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वस्तु की सत्ता न होने पर भी उसमें राग अथवा संबंध रह सकता है। यदि राग न हो तो वस्तु की सत्ता मानने पर भी उसमें राग उत्पन्न नहीं होता। इसलिये साधक का मुख्य काम होना चाहिये- राग का अभाव करना, सत्ता का अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधने वाली वस्तु राग या संबंध ही है, सत्ता मात्र नहीं। पदार्थ चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत् से विलक्षण हो, यदि उसमें राग है तो वह बाँधने वाला हो ही जायगा। वास्तव में हमें कोई भी पदार्थ नहीं बाँधता। बाँधता है हमारा संबंध, जो राग से होता है। अतः हमारे पर राग मिटाने की ही जिम्मेवारी है। 

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।। 5.3 ।।


हे महाबाहो! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी का आकांक्षा करता है; वह[1] सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि द्वंद्वों से रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।


‘महाबाहो’- ‘महाबाहो’ संबोधन के दो अर्थ होते हैं- एक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान हों अर्थात जो शूरवीर हो; और दूसरा, जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों। अर्जुन के मित्र थे प्राणिमात्र के सुहृद भगवान श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर। इसलिये यह संबोधन देकर भगवान अर्जुन से मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोग के अनुसार सबकी सेवा करने का बल तुम्हारे में है। अतः तुम सुगमता से कर्मयोग की पालन कर सकते हो।


‘यो न द्वेष्टि’- कर्मयोगी वह होता है, जो किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, सिद्धांत आदि से द्वेष नहीं करता। कर्मयोगी का काम है सबकी सेवा करना, सबको सुख पहुँचाना। यदि उसका किसी के भी साथ किञ्चिन्मात्र भी द्वेष होगा तो उसके द्वारा कर्मयोग का आचरण सांगोपांग नहीं हो सकेगा। अतः जिससे कुछ भी द्वेष हो, उसकी सेवा कर्मयोगी को सर्वप्रथम करनी चाहिये। सबसे पहले ‘न द्वेष्टि’ पद देने का तात्पर्य यह है कि जो किसी को भी बुरा समझता है और किसी का भी बुरा चाहता है, वह कर्मयोग के तत्त्व को समझ ही नहीं सकता।


प्राणिमात्र के हित के उद्देश्य से कर्मयोगी के लिये बुराई का त्याग करना जितना आवश्यक है, उतना भलाई करना आवश्यक नहीं है। भलाई करने से केवल समाज का हित होता है; परंतु बुराई रहित होने से किञ्चिन्मात्र का हित होता है। कारण यह है कि भलाई करने में सीमित क्रियाओं और पदार्थों की प्रधानता रहती है; परंतु बुराईरहित होने में भीतर का असीम भाव प्रधान रहता है। यदि भीतर से बुरा भाव दूर न हुआ हो और बाहर से भलाई करें तो इससे अभिमान पैदा होगा, जो आसुरी संपत्ति का मूल है। भलाई करने का अभिमान तभी पैदा होता है, जब भीतर कुछ न कुछ बुराई हो। जहाँ अपूर्णता होती है, वहीं अभिमान पैदा होता है। परंतु जहाँ पूर्णता है, वहाँ अभिमन का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।


गहराई से देखा जाय तो नाशवान वस्तुओं की सहायता के बिना भलाई नहीं की जा सकती। जिन वस्तुओं से हम भलाई करते हैं, वे वस्तुएँ हमारी हैं ही नहीं; प्रत्युत उन्हीं की हैं, जिनकी हम भलाई करते हैं। फिर भी यदि भलाई का अभिमान होता है, तो यह नाशवान का संग है। जब तक नाशवान का संग है, तब तक ‘योग’ की सिद्धि नहीं होती। मैंने भलाई की- यह अभिमान बुराई से भी अधिक भयंकर है; क्योंकि यह भाव मैं-पन में बैठ जाता है। कर्म औ फल तो मिट जाते हैं, पर जब तक मैं-पन रहता है, तब तक मैं-पन में बैठा हुआ भलाई का अभिमान नहीं मिटता। दूसरी बात, बुराई को तो हम बुराई रूप से जानते ही हैं, पर भलाई को ‘बुराई रूप से नहीं जानते। इसलिये भलाई के अभिमान का त्याग करना बहुत कठिन है; जैसे- लोहे की हथकड़ी का तो त्याग कर सकते हैं; पर सोने की हथकड़ी का त्याग नहीं कर सकते; क्योंकि वह गहनतारूप से दीखती है। इसलिये बुराई रहित ही भलाई करनी चाहिये। वास्तव में बुराई का त्याग होने पर विश्वामात्र की भलाई अपने आप होती है, करनी नहीं पड़ती। इसलिये बुराई रहित महापुरुष अगर हिमालय की एकान्त गुफा में भी बैठा हो, तो भी उसके द्वारा विश्व का बहुत हित होता है।


‘न कांक्षति’- कर्मयोग में कामना का त्याग मुख्य है। कर्मयोगी किसी भी प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति आदि की कामना नहीं करता। कामना त्याग और परहित में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। निष्काम होने के लिये दूसरे का हित करना आवश्यक है। दूसरे का हित करने से कामना के त्याग का बल आता है।


कर्मयोग में कर्ता निष्काम होता है, कर्म नहीं; क्योंकि जड़ होने के कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते। कर्म कर्ता के अधीन होते हैं, इसलिये कर्मों की अभिव्यक्ति कर्ता से ही होती है। निष्काम कर्ता के द्वारा ही निष्काम कर्म होते हैं, जिसे कर्मयोग कहते हैं। अतः चाहे ‘कर्मयोग’ कहें या ‘निष्काम कर्म’- दोनों का अर्थ एक ही होता है। सकाम कर्मयोग होता ही नहीं। निष्काम होने से कर्ता कर्मफल से असंग रहता है; परंतु जब कर्ता में सकामभाव आ जाता है, तब वह कर्मफल से बंध जाता है। सकामभाव तभी नष्ट होता है, जब कर्ता कोई भी कर्म अपने लिये नहीं करता, प्रत्युत संपूर्ण कर्म दूसरों के हित के लिये ही करता है। इसलिये कर्ता का भाव नित्य निरंतर निष्काम रहना चाहिये। कर्ता में जितना निष्कामभाव होगा, तना ही कर्मयोग का सही आचरण होगा। कर्ता के सर्वथा निष्काम होने पर कर्मयोग सिद्ध हो जाता है।


‘ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी’- अर्जुन ने युद्ध न करके भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने की इच्छा प्रकट की थी- ‘गुरुनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके’ अर्थात गुरुजनों को न मारकर संन्यास लेना ही श्रेष्ठ है। भगवान उसी बात का उत्तर देते हुए मानो कह रहे हैं कि हे अर्जुन! वह संन्यास तो गुरुजनों के मर जाने के भय से किया जाने वाला बाहरी संन्यास है, पर कर्मयोगी का संन्यास राग द्वेष के त्याग से होने वाला नित्य संन्यास अर्थात भीतरी एवं सच्चा संन्यास है।


आगे छठे अध्याय के पहले श्लोक में भी भगवान ने केवल अग्नि का त्याग करने वाले अर्थात संन्यास आश्रम मात्र ग्रहण करने वाले पुरुष को संन्यासी न कहकर भीतर से संसार के आश्रय का त्याग करने वाले कर्मयोगी को ही संन्यासी कहा है। इस प्रकार भगवान के मत में कर्मयोगी ही वास्तविक संन्यासी है।


कर्म करते हुए भी कर्मों से किसी प्रकार का संबंध न रखना ही संन्यास है। कर्मों से किसी प्रकार का संबंध न रखने वाले को कर्मों का फल कभी किसी अवस्था में किञ्चिन्मत्र भी नहीं मिलता- ‘न तु संन्यासिनां क्वचित्’। इसलिये शास्त्र विहित समस्त कर्म करते हुए भी कर्मयोगी सदा संन्यासी ही है।


कर्मयोग का अनुष्ठान किये बिना सांख्ययोग का पालन करना कठिन है। इसलिये सांख्ययोग का साधक पहले कर्मयोगी होता है, फिर संन्यासी होता है। परंतु कर्मयोग के साधक के लिये सांख्ययोग का अनुष्ठान करना आवश्यक नहीं है। इसलिये कर्मयोगी आरंभ से ही संन्यासी है।


जिसके राग द्वेष का अभाव हो गया है, उसे संन्यास आश्रम में जाने की आवश्यकता नहीं है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु, शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि अपनी नहीं है और अपने लिये भी नहीं है- ऐसा निश्चय होने के बाद राग द्वेष मिटकर ऐसा ही यथार्थ अनुभव हो जाता है, फिर व्यवहार में संसार से संबंध दीखने पर भी भीतर से संबंध होता ही नहीं। यही ‘नित्यसंन्यास’ है। लौकिक अथवा पारलौकिक प्रत्येक कार्य करते समय कर्मयोगी का संसार से सर्वथा संन्यास रहता है, इसलिये वह नित्य संन्यासी ही समझने योग्य है।


संसार से संबंध विच्छेद अर्थात लिप्तता का अभाव ही संन्यास है और कर्मयोगी में राग द्वेष न रहने से संसार से लिप्तता रहती ही नहीं। अतः कर्मयोगी नित्य संन्यासी है।


‘निर्द्वंद्वो हि........ सुखं बंधात्प्रमुच्यते’ साधना के आरंभ में साधक के अंतःकरण में द्वंद्व रहता है। सत्संग, स्वाध्याय, विचार आदि करने वह परमात्मप्राप्ति को अपना ध्येय तो मान लेता है, पर उसके अपने कहलाने वाले मन, इंद्रियों आदि की रुचि स्वाभाविक ही भोग भोगने तथा संग्रह करने में रहती है। इसलिये साधक कभी परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना चाहता है और कभी भोग एवं संग्रह को। उसे जैसा संग मिलता है, उसी के अनुसार उसके भावों में परिवर्तन होता रहता है। ऐसा होने पर भी वह भोगों को शांति से नहीं भोग सकता; क्योंकि सत्संग आदि के संस्कार उसके अंतःकरण में वैराग्य[2] पैदा करते रहते हैं। इस प्रकार साधक के अंतःकरण में द्वंद्व चलता रहता है। इस द्वंद्व पर ही अहंभाव टिका हुआ है। हमें सांसारिक भोग और संग्रह में लगना ही नहीं है, प्रत्युत एकमात्र परमात्मतत्त्व को ही प्राप्त करना है- ऐसा दृढ़ निश्चय होने पर द्वंद्व नहीं रहता और अहंभाव परमात्मतत्त्व में लीन हो जाता है।


वास्तव में संसार का महत्त्व अंतःकरण में अंकित हो जाने से ही द्वंद्व रहता है। भोग भोगते रहने से, दूसरों से सुख चाहते रहने से संसार के प्राणी पदार्थों का महत्त्व अंतःकरण में अंकित हो जाता है। उनसे सुख लेने से वह महत्त्व बढ़ता जाता है, जिससे उनको प्राप्त करने की रुचि प्रबल हो जाती है। वह रुचि एक परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य को स्थायी और दृढ़ नहीं होने देती। इससे साधक में द्वंद्व बना रहता है। उद्देश्य की दृढ़ता के लिये साधक को यह पक्का विचार करना चाहिये कि कितना ही सुख, आराम, भोग क्यों न मिल जाये, मुझे उसे लेना ही नहीं है, प्रत्युत परहित के लिये उसका त्याग करना है। यह विचार जितना दृढ़ होगा, उतना ही साधक निर्द्वंद्व होगा।


निर्द्वंद्व होने की मुख्य बात इसी श्लोक में ‘न द्वेष्टि न कांक्षति’ पदों से कही गयी है; जिसका तात्पर्य है- राग द्वेष रहित होना। राग द्वेष को मिटाने के लिये यह विचार करना चाहिये कि अपने न चाहने पर भी अनुकूलता और प्रतिकूलता आती ही है अर्थात अपने चाहने पर अनुकूलता आती हो- ऐसी बात नहीं है और न चाहने पर प्रतिकूलता न आती हो- ऐसी बात भी नहीं है। अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्ध के फलस्वरूप आती जाती रहती है, फिर इसके आने अथवा जाने की चाहना क्यों करें? अनुकूलता के प्रति राग और प्रतिकूलता के प्रति द्वेष अपनी भूल से होता है। इस प्रकार का विचार करने से भूल मिटकर राग द्वेष सर्वथा समाप्त हो जाते हैं।


दूसरी बात यह है कि अपनी सत्ता स्वतंत्र है, किसी पदार्थ, व्यक्ति, क्रिया के अधीन नहीं है; क्योंकि सुषुप्ति- अवस्था में जब हम संसार को भूल जाते हैं, तब भी अपनी सत्ता बनी रहती है; जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भी हम प्राणी, पदार्थ के बिना रह सकते हैं। फिर उनमें राग द्वेष करके हम उनके अधीन क्यों बनें? इस प्रकार विचार करने से भी राग द्वेष मिट जाते हैं।


संसार का राग उत्पन्न और नष्ट होने वाला है। यह राग कभी स्थायी नहीं रहता; किंतु हम नये-नये प्राणी, पदार्थों में राग करके इसे बनाये रखने की चेष्टा करते हैं। परंतु परमात्मा की अभिलाषा उत्पन्न और नष्ट होने वाली नहीं है; क्योंकि परमात्मा का ही अंश होने के नाते जीव का परमात्मा से अखंड संबंध है। परमात्मा की अभिलाषा कभी घटती-बढ़ती भी नहीं। केवल संसार में राग अधिक होने पर वह घटती हुई और राग कम होने पर वह बढ़ती हुई दीखती है। इसलिये ‘मैं सदा जीता रहूँ; मैं सब कुछ जान लूँ; मैं सदा सुखी रहूँ’- इस रूप में सत्-चित् आनंद स्वरूप परमात्मा की अभिलाषा जीव मात्र में निरंतर रहती है। जब संसार का राग मिट जाता है और एकमात्र परमात्मा की अभिलाषा रह जाती है, तब द्वंद्व नहीं रहता।


कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग- तीनों ही योग- मार्गों में निर्द्वंद्व होना बहुत आवश्यक है। जब तक द्वंद्व है, तब तक मुक्ति नहीं होती। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में राग और द्वेष- ये दो शत्रु हैं। निर्द्वंद्व होने से ये दोनों मिट जाते हैं और इनके मिटने से सुखपूर्वक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है।


संसार में उलझने के दो ही कारण हैं- राग और द्वेष। जितने भी साधन हैं, सब राग द्वेष को मिटाने के लिये ही है। राग द्वेष के मिटने पर नित्य प्राप्त परमात्मतत्त्व की अनुभूति स्वतः सिद्ध है। इसमें परिश्रम है ही नहीं। कारण कि परमात्मतत्त्व की अनुभूति असत् के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत सत् के त्याग से होती है। असत् की सत्ता राग द्वेष पर ही टिकी ही है। असत् संसार तो स्वतः ही मिट रहा है, पर अपने में राग द्वेष को पकड़ने से संसार स्थिर दीखता है। अतः जो संसार निरंतर मिट रहा है, उसमें राग द्वेष न रहने से मुक्ति नहीं होगी तो क्या सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।



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