मन और कर्म



त्रिगुण के संबंध में, तथा उच्चतम सात्त्विक साधना अपनी परिणति के समय अपने को अतिक्रम करके जिस त्रिगुणातीत स्थिति की ओर ले जाती है उसके संबध में यह जो मुलभूत विचार है उसके प्रकाश में गीता ने कर्म का जो विश्लेषण किया है वह अभी पूर्ण नहीं हुआ है। किसी स्वयं-विकसनशील कर्म के पीछे, विशेषकर कर्मों के द्वारा जीव को अपना पूर्ण अध्यात्म-विकास साधित करने के पीछे जो प्रधान तत्त्व,जो अपरिहार्य शक्ति विद्यमान रहती है वह है श्रद्धा-जिस सत्य के हमें दर्शन हुए हैं उसपर विश्वास करने, स्वयं वही बन जाने, उसे जानने, जीवन में उतारने तथा कार्य-रूप में परिणत करने का संकल्प। परंतु इसके साथ ही कुछ ऐसी मानसिक शक्तियां, कुछ करणोपकरण एवं अवस्थाऐं भी हैं जो कर्म के वेग, दिशा तथा स्वरूप का निर्धारण करने में सहायक होती हैं और अतएव वे इस आभ्यंतरिक साधना के पूर्ण रूप से समझने में महत्त्व रखती हैं। गीता पहले इन चीजों का संक्षिप्त मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती है और फिर वह अपने उस महान् चरम सिद्धांत की ओर अग्रसर होती है जो उसकी संपूर्ण शिक्षा की परिणति है, एक उच्चतम रहस्य है, आध्यात्मिक रूप से सब धर्मों के ऊपर उठ जाने तथा दिव्य परात्परता लाभ करने का रहस्य है।


हमें उसके संक्षिप्त वर्णनों का अनुसरण करते हुए इन चीजों का निरूपण संक्षेप से ही करना होगा और विस्तार केवल उतना ही करना होगा जितना प्रधान विचार को पूर्ण रूप से हृदयंगम करने के लिये आवश्यक हो; क्योंकि ये गौण वस्तुएं हैं परंतु फिर भी प्रत्येक अपने स्थान में तथा अपने प्रयोजन के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। त्रिगुण के विशिष्ट सांचे में ढली हुई इनकी जो क्रिया होती है उसी को हमें मूल के संक्षिप्त वर्णनों में से बाहर निकालकर प्रकट करना है; गुणों से परे इनमें से कियी की या प्रत्येक की परिणति का क्या स्वरूप होगा यह सामान्य त्रिगुणातीत अवस्था के स्वरूप से स्वयमेव स्पष्ट हो जायेगा। विषय के इस अंश की चर्चा अर्जुन के एक अंतिम प्रश्र के द्वारा आरंभ की गयी है जिसमें वह पूछता है कि संन्यास और त्याग का क्या तत्त्व है तथा इनमें भेद क्या है। गीता ने जो इस महत्त्वपूर्ण भेद का राग पुनः-पुनः अलापा है, इसपर जो बारंबार बल दिया गया है उसका औचित्य परवर्ती भारतीय मन के उत्तरकालीन इतिहास के द्वारा यथेष्ट रूप से प्रमाणित होता है, क्योंकि वहाँ हम देखते हैं कि भारतीय मन इन दो अत्यंत विभिन्न चीजों में लगातार गड़बड़ घोटाला करता आया है और गीता ने जिस भी प्रकार के कर्म की शिक्षा दी है।


उसे इस रूप में नीचा दिखाने की इसकी प्रबल प्रवृत्ति रही है कि वह, अधिक-से-अधिक संन्यास के परम नैष्कर्म्य का प्रारंभिक पग मात्र है। सच पूछो तो, जब लोग त्याग की बात करते हैं तब वे इस शब्द का जो अर्थ समझते हैं या कम-से-कम इसके जिस अर्थ पर वे बल देते हैं, वह सदा जगत् का बाह्य त्याग ही होता है, जबकि गीता का विचार इसके नितांत विपरीत है और वह यह कि वास्तविक त्याग की भित्ति है जगत् में कर्म करना और जीवन-यापन करना न कि जगत् से भागकर मठ-मंदिर, गुहा-कंदरा या गिरि-श्रंग की शरण लेना। वास्तविक त्याग है कामना को त्यागकर कर्म करना और वास्तविक संन्यास भी यही है। निःसंदेह, सात्त्विक आत्म-साधना की मोक्षजनक क्रिया त्याग की भावना से ओतप्रोत होनी चाहिये-यह एक अपरिहार्य तत्त्व हैः परंतु वह त्याग क्या है और त्याग की आत्मिक भावना कैसी होनी चाहिये? जगत् में कर्म का त्याग नहीं, कोई बाह्य तपस्या या भोग के ऊपरी त्याग का कोई बाह्य आडंबर नहीं, बल्कि प्राणिक कामना और अहं का वर्जन वा त्याग, वासनात्मा, अहं-नियंत्रित मन तथा राजसिक प्राण-प्रकृति के पृथक् वैयक्तिक जीवन का पूर्ण विवर्जन, संन्यास। योग के शिखरों पर आरोहण करने के लिये यही सच्ची शर्त है, भले ही वह आरोहण निर्व्यक्तिक आत्मा एवं ब्राह्मी एकता के द्वारा हो या विश्वव्यापी वासुदेव के द्वारा हो अथवा, आभ्यंतरिक रूप से, परम पुरुषोत्तम के भीतर हो। अधिक रूढ़ एवं शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाये तो मनीषिगण की प्रचलित भाषा में संन्यास का अर्थ है कर्मों का भौतिक संन्यास या भौतिक परिवर्जनः मानसिक और आध्यातिमक त्याग को ज्ञानी जनों ने त्याग का नाम दिया है, अर्थात् त्याग का मतलब है अपने कर्मों के फल के प्रति, स्वयं कर्म के प्रति या उसके व्यक्तिगत आरंभ या उसकी राजसिक प्रेरणा के प्रति समस्त आसक्ति का पूर्ण परित्याग-गीता के अनुसार संन्यास और त्याग में यही भेद है। उस अर्थ में संन्यास नहीं त्याग ही श्रेयस्कर मार्ग है। जिस चीज का त्याग करने की आवश्यकता है वह काम्य कर्म नहीं बल्कि कामना है जो कर्म को वह काम्य या कामनात्मक रूप दे देती है। कर्मों के प्रभु के विधान में कार्य का फल प्राप्त हो सकता है। किंतु कर्म करने के पुरस्कार या उसकी शर्त के रूप में फल की कोई अहंपूर्ण मांग बिलकुल नहीं होनी चाहिये। 


अथवा यह भी हो सकता है कि फल बिलकुल मिले ही नहीं और फिर भी हमें एक कर्तव्य कर्म के रूप कर्म करना ही चाहिये, एक ऐसे कर्म के रूप में जिसकी मांग हमारे अंतःस्थ प्रभु हमसे करते हैं। सफलता और विफलता उन्हीं के हाथ में है और इन्हें वे अपने सर्वज्ञ संकल्प तथा प्रयोजन के अनुसार निर्धारित करेगें। इसमें संदेह नहीं कि अंत में कर्म का, कर्म मात्र का त्याग करना होगा, परंतु वह त्याग बाह्य रूप में निवृत्ति निश्चलता या निष्क्रियता के द्वारा नहीं करना होगा; बल्कि आध्यात्मिक रूप में अपनी सत्ता के उन प्रभु के प्रति करना होगा जिनकी शक्ति से कोई भी कर्म निष्पत्र किया जा सकता है। हम ही कर्ता हैं,इस मिथ्या विचार का त्याग करना होगा; क्योंकि वास्तव में विश्व ऊर्जा ही हमारे व्यक्तित्व और अहंभाव के द्वारा कर्म करती है। गीता की शिक्षा के अनुसार, अपने सब कर्मों को आध्यात्मिक रूप से प्रभु तथा उनकी शक्ति को सौंप देना ही सच्चा संन्यास है।


फिर भी यह प्रश्र उठता है कि हमें कौन-कौन से कर्म करने चाहिये? जो लोग संपूर्ण बाह्य त्याग का पक्ष लेते हैं वे भी इस गहन विषय में एकमत नहीं। कुछ लोग यह कहेंगे कि सभी कर्मों को हमें अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकना चाहिये, मानों ऐसा करना संभव नहीं; न ही मुक्ति इस बात में हो सकती है कि हम अपनी सक्रिय सत्ता को समाधि के द्वारा लोष्ट और पाषाण की-सी निर्जीव निश्चलता में परिणत कर दें। समाधि की निश्चल-नीरवता से भी इस समस्या का समाधान नहीं होता, क्योंकि ज्यों ही शरीर के अंदर फिर से सांस चलने लगता है, त्यों ही हम एक बार पुनःकर्म-क्षेत्र में आ पड़ते हैं और आध्यात्मिक सुषुप्ति के द्वारा हमने जो यह मुक्ति प्राप्त की थी उसके शिखरों से एक बार फिर नीचे लुढ़क आते हैं। परंतु सच्ची मुक्ति, अहं के आभ्यंतरिक त्याग तथा पुरुषोतम के साथ ऐक्य-लाभ के द्वारा उपलब्ध मुक्ति हर प्रकार की अवस्था में स्थिर बनी रहती है, वह इस लोक में या इसके बाहर किंवा समस्त लोकों में या समस्त लोकों के बाहर स्थिर बनी रहती है, वह स्वयं-स्थित है, सर्वथा वर्तमानोऽपि, वह नैष्कर्म्य या कर्म पर निर्भर नहीं करती। तो फिर वे कर्म कौन से हैं जो हमें करने ही होंगे?



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