नित्य अनित्य



अर्जुन के चुप हो जाने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने क्या किया, इस जिज्ञासा पर संजय कहते हैं-   

तमुवाच हृषीकेश: प्रहसन्निव भारत । 

सेनयोरूभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वच: ।। 10 ।। 

हे भारतवंशी धृतराष्ट्र! अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को हँसते हुए से वचन बोले ।

प्रश्न- ‘उभयोः सेनयोः मध्ये विषीदन्तम्’ विशेषण के सहित ‘तम्’ पद के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- इससे संजय ने यह भाव दिखलाया है कि जिन अर्जुन ने पहले बड़े साहस के साथ अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने के लिये भगवान् से कहा था, वे ही अब दोनों सेनाओं में स्थित स्वजनसमुदाय को देखते ही मोह के कारण व्याकुल हो रहे हैं; उन्हीं अर्जुन से भगवान् कहने लगे। प्रश्न- ‘हँसते हुए-से यह वचन बोले’ इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इस वाक्य से संजय इस बात का दिग्दर्शन कराते हैं कि भगवान् ने क्या कहा और किस भाव से कहा। अभिप्राय यह है कि अर्जुन उपर्युक्त प्रकार से शूरवीरता प्रकट करने की जगह उलटा विषाद कर रहे हैं तथा मेरे शरण होकर शिक्षा देने के लिये प्रार्थना करके मेरा निर्णय सुनने के पहले ही युद्ध न करने की घोषणा भी कर देते हैं- यह इनकी कैसी गलती है!’ इस भाव से मन-ही-मन हँसते हुए भगवान् (जिनका वर्णन आगे किया जाता है, वे वचन) बोल।

प्रश्न- ‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’ किनका वाचक है तथा ‘उनके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- जिनके प्राण चले गये हों, उनको ‘गतासु’ और जिनके प्राण न गये हों, उनको ‘अगतासु’ कहते हैं। ‘उनके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते’ इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस प्रकार तुम, अपने पिता और पितामह आदि मरकर परलोक में गये हुए पितरों के लिये चिन्ता कर रहे हो कि युद्ध के परिणाम में हमारे कुल का नाश हो जाने पर वर्ण संकरता फैल जाने से हमारे पितरलोग नरक में गिर जायँगे इत्यादि। तथा सामने खड़े हुए बन्धु-बान्धवों के लिये भी चिन्ता कर रहे हो कि इन सबके बिना हम राज्य और भोगों को लेकर ही क्या करेंगे। कुल का संहार हो जाने से स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जायँगी इत्यादि।


इस प्रकार की चिन्ता पण्डित लोग नहीं करते। क्योंकि पण्डितों की दृष्टि में एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्म ही नित्य और सत् वस्तु है, उससे भिन्न कोई वस्तु ही नहीं है, वही सबका आत्मा है, उसका कभी किसी प्रकार भी नाश नहीं हो सकता और शरीर अनित्य है, वह रह नहीं सकता तथा आत्मा और शरीर का संयोग-वियोग व्यावहारिक दृष्टि से अनिवार्य होते हुए भी वास्तव में स्वप्न की भाँति कल्पित है; फिर वे किसके लिए शोक करें और क्यों करें। किंतु तुम शोक कर रहे हो, इसलिये जान पड़ता है तुम पण्डित नहीं हो, केवल पण्डितों की-सी बातें ही कर रहे हो।


यह जानने की इच्छा होती है कि उनके लिये शोक करना किस कारण से उचित नहीं है। अतः पहले भगवान् आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करके आत्मदृष्टि से उनके लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं-

 

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।

न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ।। 12 ।।


न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ।


प्रश्न- इस श्लोक में भगवान् के कथन का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- इसमें भगवान् ने आत्मरूप से सबकी नित्यता सिद्ध करके यह भाव दिखलाया है कि तुम जिनके नाश की आशंका कर रहे हो, उन सबका या तुम्हारा-हमारा कभी किसी भी काल में अभाव नहीं है। वर्तमान शरीरों की उत्पत्ति के पहले भी हम सब थे और पीछे भी रहेंगे। शरीरों के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता; अतएव नाश की आशंका से इन सबके लिये शोक करना उचित नहीं है।


आत्मा की नित्यता का प्रतिपादन करके अब उसकी निर्विकारता का प्रतिपादन करते हुए आत्मा के लिये शोक करना अनुचित सिद्ध करते हैं -

 

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।। 13 ।।


जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है; उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ।


प्रश्न- इस श्लोक में भगवान् के कथन का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- इसमें आत्मा को विकारी मानकर एक शरीर से दूसरे शरीर में जाते-आते समय उसे कष्ट होने की आशंका से जो अज्ञानीजन शोक किया करते हैं, उसको भगवान् ने अनुचित बतलाया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार बालकपन, जवानी और जरा अवस्थाएँ वास्तव में आत्मा की नहीं होतीं, स्थूल शरीर की होती हैं और आत्मा में उनका आरोप किया जाता है, उसी प्रकार एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना-आना भी वास्तव में आत्मा का नहीं होता, सूक्ष्म शरीर का ही होता है और उसका आरोप आत्मा में किया जाता है। अतएव इस तत्त्व को न जानने वाले अज्ञानीजन ही देहान्तर की प्राप्ति में शोक करते हैं, धीर पुरुष नहीं करते; क्योंकि उनकी दृष्टि में आत्मा का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है।


आत्मा नित्य और निर्विकार हो तो भी बन्धु-बान्धवादि के साथ होने वाले संयोग-वियोगादि से सुख-दुःखादि का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, अतएव शोक हुए बिना कैसे रह सकता है? इस पर भगवान् सब प्रकार से संयोग-वियोगादि को अनित्य बतलाकर उनको सहन करने की आज्ञा देते हैं-

 

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। 14 ।।


हे कुन्तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये हे भारत! उनको तू सहन कर ।


प्रश्न- ‘मात्रास्पर्शाः’ पद यहाँ किनका वाचक है?


उत्तर- जिनके द्वारा किसी वस्तु का माप किया जाय- उसके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया जाय, उसे ‘मात्रा’ कहते हैं; अतः ‘मात्रा’ से यहाँ अन्तःकरण सहित सभी इन्द्रियों का लक्ष्य है और स्पर्श कहते हैं सम्बन्ध या संयोग को। अन्तःकरण सहित इन्द्रियों का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि उनके विषयों के साथ जो सम्बन्ध है, उसी को यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से व्यक्त किया गया है।


प्रश्न- उन सबको ‘शीतोष्णसुखदुःखदाः’ कहने का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- शीत-उष्ण और सुख-दुःख शब्द यहाँ सभी द्वन्द्वों के उपलक्षण हैं। अतः विषय और इन्द्रियों के सम्बन्धों को ‘शीतोष्णसुखदुःखदाः’ कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वे समस्त विषय ही इन्द्रियों के साथ संयोग होने पर शीत-उष्ण, राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि समस्त द्वन्द्वों को उत्पन्न करने वाले हैं। उनमें नित्यत्व-बुद्धि होने से ही नाना प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है, अतएव उनको अनित्य समझकर उनके संग से तुम्हें किसी प्रकार भी विकारयुक्त नहीं होना चाहिये।


प्रश्न- इन्द्रियों के साथ विषयों के संयोगों को उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य कहकर अर्जुन को उन्हें सहन करने की आज्ञा देने का क्या अभिप्राय है?


उत्तर- ऐसी आज्ञा देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि सुख-दुःख देने वाले जो इन्द्रियों के विषयों के साथ संयोग हैं वे क्षणभंगुर और अनित्य हैं, इसलिये उनमें वास्तविक सुख का लेश भी नहीं है। अतः तुम उनको सहन करो अर्थात् उनको अनित्य समझकर उनके आने-जाने में राग-द्वेष और हर्ष-शोक मत करो। बन्धु-बान्धवों का संयोग भी इसी में आ जाता है; क्योंकि अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा ही अन्य विषयों की भाँति उनके साथ संयोग-वियोग होता है। अतः यहाँ सभी प्रकार के संयोग-वियोगों के परिणामस्वरूप सुख-दुःखों को सहन करने के लिये भगवान् का कहना है- यह बात समझ लेनी चाहिये।


आज का विषय

लोकप्रिय विषय