त्रिगुण और कर्म

 


प्रत्येक मनुष्य की श्रद्धा वहीं रूपरंग और गुंण धारण कर लेती है, जो उसे उसकी सत्ता के उपादान, उसके मूल स्वभाव, उसकी सत्ता की नैसर्गिक शक्ति के द्वारा प्रदान किया जाता है। और इसके बाद एक अदभुत पंक्ति आती है जिसमें गीता हमें बताती है कि यह पुरुष, मनुष्य के अंदर विद्यमान यह जीव मानों जगत की सत्ता पर विश्वास। उसके अंदर का वह संकल्प, वह श्रद्धा या मज्जगत विश्वास कोई भी क्यों न हो, वह वही है और वही वह है। यदि हम इस अर्थगर्भित सूक्ति पर कुछ सूक्ष्मता से विचार करें तो हमें पता चलेगा कि इस एक ही पंक्ति के अंदर गिने-चुने बलपूर्ण शब्दों आधुनिक प्रयोगवाद के सिद्धांत प्रायः सारी ही परिकल्पना अंतर्निहित है। क्योंकि यदि मनुष्य या उसकी अंतरात्मा अपनी अंतरस्थ श्रद्धा से बनी हुई है (श्रद्धा यहाँ अपने उपर्युक्त गंभीरतम अर्थ में अभिप्रेत है), तो इसका यह मतलब हुआ कि वह जिस सत्य के दर्शन करता है और जिसे वह जीवन में उतारना चाहता है, उसके लिये वही अपनी सत्ता का, अपने निज स्वरूप का सत्य है; उस सत्य की सृष्टि उसीने की है या कर रहा है और उसके लिये उसके सिवा और कोई सत्य वास्तविक नहीं हो सकता।


यह सत्य उसके आंतर और बाह्य कर्म का तथ्य है, उसकी संभूति का, अंतरात्मा की क्रियाशक्ति का तथ्य है, उसके अंदर जो वस्तु नित्य-अपरिवर्तनीय है उसका तथ्य नहीं। वह आज जो कुछ भी है उसकी अपनी प्रकृति के किसी अतीत संकल्प के द्वारा गठित हुआ है। इस समय उसके अंदर कुछ जानने, विश्वास करने तथा अपनी बुद्धि और प्राणशक्ति में वही कुछ बन उठने का जो संकल्प है वह उसके अतीत संकल्प को संपुष्ट करता तथा चालू रखता है। उसकी मूल सत्ता तक में भविष्य में उसी नये रूप में परिणत होता जायेगा। हम मन और प्राण के अपने निज कर्म में सत्ता के एक अपने ही सत्य की सृष्टि करते हैं, यह इस बात को कहने का एक दूसरा ढंग है कि हम आप ही अपने स्वरूप की सृष्टि करते हैं, हम आप ही अपने निर्माता हैं। परंतु यह अत्यंत स्पष्ट है कि यह सत्य का केवल एक पक्ष है, और सभी एकपक्षीय स्थापनाएं विचारक के लिये संदेह का विषय होती हैं। हमारा अपना व्यक्तित्व जो कुछ है या जिस भी चीज की यह सृष्टि करता है, सत्य केवल वही नहीं है।


वह सब तो केवल हमारी संभूति का सत्य है, एक अत्यंत विस्तृत आयतन वाली गति में एक विशिष्ट बिंदु या रेखा है। हमारे व्यक्तित्व के परे, सर्वप्रथम एक विश्वाव्यापी सत्ता तथा एक विश्वव्यापी संभूति है, जिसकी एक क्षुद्र गति मात्र हमारी सत्ता और संभूति; और उसके भी परे है सनातन सत जिसमें से यह समस्त संभूति या भूतभाव उत्पन्न होता है और जो उसकी संभाव्य शक्तियों, इसके उपादानों, मूल प्रेरक भावों और चरम उद्देश्यों का स्त्रोत है। निःसंदेह, हम यह कह सकते हैं कि समस्त संभूति विश्व-चेतना की एक क्रिया मात्र है, माया है, संभूत होने के संकल्प के द्वारा सृष्ट हुई है और इसके अतिरिक्त यदि कोई और सद्वस्तु है तो वह है केवल एक शुद्ध सनातन सत्ता जो चेतना से परे है, निराकार, अनिरूक्त एवं अनिर्वचनीय। मायावादी का अद्वैत जिस दृष्टिकोण का अपनाता है वह सद्वस्तुतः यही है; व्यावहारिक सत्य, तथा सृष्टिकारी माया के दूसरी ओर विद्यमान निर्विशेष, केवल, निरपेक्ष सत्ता के बीच वह जो भेद करता है उसका आशय भी यही है।


उसके मन के निकट व्यावहारिक सत्य भ्रमात्मक है, या कम-से-कम यह केवल अस्थायी तथा आंशिक रूप में सत्य है जबकि आधुनिक प्रयोगवाद इसे वास्तविक सत्य मानता है या कम-से-कम वह इसे एकमात्र स्वीकार्य सत्य मानता है क्योंकि केवल यही एक ऐसा सत्य है जिसे हम व्यवहार में ला सकते तथा जान सकते हैं। परंतु गीता के लिये निरपेक्ष ब्रह्म भी परम पुरुष है, और पुरुष सदैव चिन्मय आत्मा है, यद्यपि उसकी सर्वोच्च चेतना, या यूं कहें कि उसकी अतिचेतना-और इसी प्रकार हम कर सकते हैं कि उसकी निश्चेतना नामक निम्नतम चेतना-हमारी उस मानसिक चेतना से अत्यंत भिन्न वस्तु है जिसे हम एकांतिक रूप से चेतना का नाम देने के अभ्यस्त हैं।


उस उच्चतम अतिचेतना में अमरत्व का एक सर्वोच्च सत्य और धर्म है, सत्ता की एक महत्तम दिव्य सरणि है जो कि सनातन और अंनत सत्ता की एक धारा है। जीवन की वह सनातन सरणि और सत्ता का वह दिव्य भाव पुरुषोत्तम की नित्य सत्ता में पहले से ही विद्यमान है। परंतु अब हम उसे योग के द्वारा यहाँ अपनी संभूति में भी सृष्ट करने का यत्न कर रहे हैं; हम भगवान बनने का यत्न कर रहे हैं जैसे वे हैं वैसे ही बनने के लिये, मदभाव के लिये यत्न कर रहे हैं।


यह भी श्रद्धा पर निर्भर है। अपनी सचेतन मूल-सत्ता की एक क्रिया तथा उसके सत्य में विश्वास के द्वारा, उसे जीवन में चरितार्थ करने या वही बन जाने के अंतरतम संकल्प के द्वारा ही हम उसे प्राप्त करते हैं; पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह हमसे परे पहले से ही विद्यमान नहीं है। जब तक हम उसे देख नहीं लेते तथा अपने-आपको नये सिरे से उसके रूप में गढ़ नहीं लेते तब तक वह हमारे बाह्य मन के लिये भले ही अस्तित्व न रखे, तो भी सनातन के अंदर विद्यमान है ही और हम यहाँ तक कह सकते हैं कि हमारी अपनी निगूढ़ आत्मा में भी वह पहले से ही विद्यमान है, क्योंकि हममें भी, हमारी गहराइयों में भी पुरुषोत्तम सदा-सर्वदा विद्यमान है। हमारा उसमें विकसित होना, हमारा उसे सृष्ट सनातन के चिन्मय सत्तत्त्व से प्रादुर्भूत होती है; अतएव वास्तव में यह उनकी एक अभिव्यक्ति है तथा मूल सर्जनकारी चैतन्य, चित-शक्ति में विद्यमान एक श्रद्धा, स्वीकृति एवं संभूत होने के एक संकल्प के द्वारा ही उद्‌भूत होती है।


परंतु इस समय हमारा मतलब इस दार्शनिक प्रश्न से नहीं बल्कि इस बात से है कि हमारी सत्ता के इस संकल्प या श्रद्धा का दिव्य प्रकृति की पूर्णता में विकसित होने की हमारी संभावना के साथ क्या सम्बंध है। कुछ भी क्यो न हों, यह शक्ति, यह श्रद्धा ही हमारा आधार है। जब हम अपनी कामनाओं के अनुसार जीवन यापन करते हैं, श्रद्धा की ही आग्रहपूर्ण क्रिया होती है और वह श्रद्धा अधिकांश में हमारी प्राणिक और भौतिक, तामसिक और राजसिक प्रकृति से सम्बंध रखती है। और जब हम शास्त्र के अनुसार अस्तित्व रखने, जीवन-यापन करने और कर्म करने की चेष्टा करते हैं तो हम जिस श्रद्धा की आग्रहपूर्ण क्रिया के द्वारा अग्रसर होते हैं वह (यदि वह गतानुगतिक विश्वासमात्र न हो) उस सात्त्विक प्रवृत्ति से सम्बंध रखती है जो हमारे राजिसक और तामसिक करणों पर अपने को लादने के लिये निरंतर प्रयास कर रही है। जब हम इन दोनों चीजों को छोड़ देते हैं और किसी आदर्श के अनुसार या सत्य की किसी अनूठी परिकल्पना के अनुसार रहने, जीवन-यापन करने और कर्म करने का यत्न करते हैं जिसे स्वयं हमने ही अविष्कृत किया है या जिसे हमने व्यक्तिगत रूप से स्वीकार किया है, तो यह भी श्रद्धा की एक आग्रहपूर्ण क्रिया है।


इस प्रकार की श्रद्धा हमारे प्रत्येक विचार संकल्प भाव और कर्म पर निरंतर नियंत्रण रखने वाले इन तीन गुणों में से किसी एक के अधीन हो सकती है। और फिर जब हम दिव्य प्रकृति के अनुसार रहने-सहने, जीने और कर्म करने का यत्न करते हैं, गीता के अनुसार यह श्रद्धा उस सात्त्विक प्रकृति की श्रद्धा होनी चाहिये जो अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच चुकी हो तथा अपनी कटी-छंटी सीमाओं को पार करने की तैयारी कर रही हो। परंतु इन सब चीजों मे तथा इनमें से प्रत्येक में प्रकृति की कोई गति या अवस्थान्तर अंतनिहित है, ये सब किसी आंतर या बाह्य दोनों क्रियाओं को मानकर चलती है। तो फिर इस क्रिया का स्वरूप क्या होगा? गीता कहती है कि हमारे कर्तव्य कर्म के तीन मुख्य अंग है, यज्ञ, दान, तप। क्योंकि जब अर्जुन पूछता है कि बाह्य और आंतर त्याग में, संन्यास और त्याग में क्या भेद है तब श्रीकृष्ण आग्रह करते है कि वे तीन कर्म कभी नहीं छोड़ने चाहियें ये तो बराबर करने ही चाहियें क्योंकि ये हमारे कर्तव्य कर्म हैं और ये ज्ञानी लोंगो को पवित्र करते हैं।


दूसरे शब्दों में ये कर्म हमारी पूर्णता के साधन हैं। पर साथ ही यह बात भी ठीक है कि अज्ञानी जन उन्हें अज्ञानपूर्वक या अपूर्ण ज्ञान के साथ भी कर सकते हैं। समस्त गतिमय क्रिया को मूलतः इन तीन अंगो में विश्लेषित किया जा सकता हैं। क्योकि प्रकृति की समस्त गतिमय क्रिया समस्त प्रवृति के अंदर एक ऐच्छिक या अनैच्छिक तपस्या अंतर्भूत रहती है, हमारी शक्तियों या अक्षमताओं की या किसी एक क्षमता की तेजस्विता और एकाग्रता रहती है जो हमें कुछ उपलब्ध या अर्जित करने या कुछ बनने में सहायता देती है, वही तप या तपस है। समस्त क्रिया में, जो कुछ हम हैं या जो कुछ हमारे पास है उसका दान अर्थात एक प्रकार का व्यय अंतर्निहित रहता है जो उस उपलब्धि का, उस अर्जन या संभूति का मूल्य होता है, वही दान है।


समस्त क्रिया में आधिभौतिक शक्तियों या विश्वशक्तियों के प्रति या हमारे कर्मों के परम प्रभु के प्रति एक यज्ञ भी अंतर्गत होता है प्रश्न यह है कि क्या हम ये कार्य अचेतन एवं निष्क्रिय रूप से करते हैं, अथवा अधिक-से-अधिक एक बुद्धिहीन, अज्ञ, अर्धचेतन संकल्प के साथ, या एक ऐसी शक्ति के साथ जो अज्ञानयुक्त या विकृतरूप से चेतन होती है या एक ऐसे संकल्प के साथ जो विज्ञ रूप से चेतन तथा ज्ञान पर सुप्रतिष्ठित होता है।


दूसरे शब्दो में, प्रश्न यह है कि क्या हमारा यज्ञ, दान और तप तामसिक प्रकति के हैं या राजसिक या सात्त्विक प्रकृति के कारण, यहाँ की सभी वस्तुए, भौतिक वस्तुओं समेत, इन्हीं तीन प्रकार की हैं। उदाहरणार्थ, गीता हमें बताती है कि हमारा भोजन अपने गुण के अनुसार तथा शरीर पर होने वाले अपने प्रभाव के अनुसार सात्त्विक, राजसिक या तामसिक होता है। हमारी मानसिक और स्थूल देह में जो सात्त्विक प्रकृति होती है वह स्वभावत: उन चीजों की ओर मुड़ती है जो आयु, सत्त्व और बल की वृद्धि करती हैं, मानसिक, प्राणिक और शारीरिक बल को एक साथ बढ़ाती हैं तथा मन, प्राण और शरीर के सुख संतोष और प्रसन्नता की वृद्धि करती हैं, जो रसपूर्ण स्निग्ध, स्थिर और हृद्य होती हैं। राजसिक प्रकृति स्वभावतः ही ऐसा आहार पसंद करती है जो अतीव खट्टा, कडुआ, गर्म, तीखा, चरपरा, रूखा, तेज और जलाने वाला होता है; ऐसे खाद्य पदार्थ पसंद करती है, जो मन और देह के अस्वास्थ्य तथा दुःख और शोक को बढ़ाते हैं।


तामसिक प्रकृति ठंडे, अपवित्र, बासी गले-सडे़ या निःस्वाद भोजन में विकृत रस लेती है, अथवा यहाँ तक कि पशुओं के समान दूसरों के उच्छिष्ट किये हुऐ पदार्थों को भी ग्रहण करती है। इन तीन गुणों की क्रिया सर्वव्यापी है। दूसरे छोर पर ये गुण मन और आत्मा की चीजों पर भी, यज्ञ दान और तपस्या पर भी इसी प्रकार लागू होते हैः प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीकवाद ने इन तीन चीजों के जिन रूपों की परिकल्पना की थी उन्हीं प्रचलित रूपों कें अनुसार गीता इनमें से प्रत्येक के तीन प्रकार के विभाग करती है। परंतु, स्वयं गीता यज्ञ के विचार को जो अत्यंत व्यापक अर्थ प्रदान करती है उसे स्मरण रखते हुए, हम सहज ही इन संकेतों के स्थूल अर्थ को विस्तृत करके इनका एक उदारतर मर्म प्रकाशित कर सकते हैं। इस प्रयोजन के लिये इन्हें उल्टे क्रम में अर्थात तम, रस, सत्त्व के क्रम में लेना सुविधाजनक होगा, क्योंकि हम इस विषय पर विचार कर रहे हैं कि किस प्रकार हम अपनी निम्न प्रकृति से बाहर निकलकर एक विशेष प्रकार की सात्त्विक परिणति तथा आत्म-अतिक्रमण में से होते हुए त्रिगुण के परे दिव्य प्रकृति और कर्म में आरोहण करते हैं। जो कर्म बिना श्रद्धा के किया जाता है, अर्थात इस प्रकार किया जाता है कि उसमें हमारा कोई पूर्ण सचेतन विचार, स्वीकृति एवं संकल्प नहीं होता और फिर भी प्रकृति जिसे हमसे बरबस करवाती है वह तामसिक यज्ञ है।


यह यंत्रवत किया जाता है, क्योंकि जीवनधारण के लिये उसे करना आवश्यक होता है, क्योंकि वह हमारे सामने आ उपस्थित होता है, और क्योंकि दूसरे लोग उसे करते हैं, अथवा वह इनसे भी बड़ी किसी और ऐसी कठिनाई से बचने के लिये किया जाता है जो उसे न करने से पैदा हो सकती है, या फिर वह किसी अन्य ही तामसिक हेतु से किया जाता है और यदि हमारे अंदर इस प्रकार का स्वभाव परिपूर्ण रूप से हो तो यह भी संभव है कि हम वह कार्य असावधानतापूर्वक, उदासीन भाव से तथा गलत ढ़ग से करें। वह विधि के अनुसार अर्थात शास्त्र के यथार्थ विधान के अनुसार नहीं किया जायेगा, उसकी क्रिया-प्रक्रिया उस यथायथ विधि के अनुसार परिचालित नहीं होगी जो जीवन की कला और विधान के द्वारा तथा करणीय कर्म के सच्चे विज्ञान के द्वारा निर्धारित है। उस यज्ञ में हव्य-दान नहीं किया जायेगा-और भारतीय कर्मकांड में यह क्रिया एक साहाय्यप्रद दान का प्रतीक है, यह दान-तत्त्व वास्तविक यज्ञ कहलाने वाले प्रत्येक कर्म के अंदर निहित है, दूसरों को दिया जाने वाला यह दान एक अनिवार्य वस्तु है, यह दूसरों की एवं जगत की फलप्रद सहायता है जिसके बिना हमारा कर्म एक सर्वथा स्वार्थपूर्ण वस्तु बन जाता है और वह एकसूत्रता तथा आदान-प्रदान के सच्चे विश्व-विधान का उल्लघंन करने वाला होता है।


वह कर्म उस दक्षिणा के बिना संपन्न किया जायेगा जो कि यज्ञीय कर्म के पुरोहितों को देने योग्य एक अत्यावश्यक दान या आत्मदान है, भले ही वह अपने कर्म के किसी बाह्य मार्गदर्शक एवं सहायक को दिया जाये या अपने अंदर विद्यमान प्रच्छन्न या व्यक्त भगवान को। वह बिना मंत्र के अर्थात बिना समर्पणात्मक विचार के किया जायेगा। मंत्र हमारे उस संकल्प तथा ज्ञान की पावन देह है जो हमारे यज्ञ के उपास्य देवों की ओर ऊपर उठे होते हैं। तामसिक मनुष्य अपना यज्ञ देवताओं को नहीं, बल्कि निम्न आधिभौतिक शक्तियों को या पर्दे के पीछे अवस्थित उन स्थूलतर प्रेतात्माओं को अर्पित करता है जो उसके कार्यों के द्वारा अपना भोग-साधन करते हैं तथा उसके जीवन को अपने अंधकार के द्वारा आच्छन्न कर देते हैं। राजसिक मनुष्य अपना यज्ञ निम्न कोटि के देवताओं या विकृत शक्तियों यक्षों, ऐश्वर्य के रक्षकों, या आसुरी एवं राक्षसी शक्तियों के उद्देश्य से करता है। उसका यज्ञ बाहर से शास्त्र के अनुसार अनुष्ठित हो सकता है, पर उस यज्ञ का प्रेरक भाव होता है।


दंभ, मद या अपने कर्म के फल की प्रबल तृष्णा, अपने कर्मों के पुरस्कार के लिये प्रचंड मांग। अतएव, जो भी कर्म उग्र या अंहमय व्यक्तिगत कामना से या वैयक्तिक उद्देश्यों के हित अपने को जगत जर थोपने में लगे हुए दंभपूर्ण संकल्प से उदभूत हो वह राजसिक प्रकृति का है, भले ही वह प्रकाश की चिह्मों से अपने को आवृत क्यों न किये हो, भले ही बाहरी तौर से वह यज्ञ के रूप में क्यों न किया जाये। यद्यपि देखने में वह परमेश्वर या देवताओं को अर्पित किया जाता है, तथापि मूलतः वह आसुरी कर्म ही होता है। हमारे कर्मों का मूल्य केवल उनकी प्रतीयमान बाह्य दिशा से ही निर्धारित नहीं होता, न वह देवताओं के द्वारा निर्धारित होता है जिनके नाम की दुहाई देकर हम अपने कर्मों का अनुमोदन कर सकते हैं और न ही उस सच्चे बौद्धिक विश्वास के द्वारा जो उनके अनुष्ठान में हमारा समर्थन करता प्रतीत होता है, बल्कि वह निर्धारित होता है आंतरिक वृत्ति के द्वारा, आंतरिक प्रेरणा और दिशा के द्वारा। जहाँ कहीं हमारे कर्मों में अहंभाव की प्रधानता होती है, वहाँ हमारा कर्म राजसिक यज्ञ बन जाता है। इसके विपरीत, सच्चे सात्त्विक यज्ञ के तीन विशेष लक्षण हैं जो उसके विशिष्ट स्वरूप की मौन मुद्रा होते हैं।


सर्वप्रथम, वह एक कार्य-साधक सत्य के द्वारा प्रेरित होता है, वह विधि के अनुसार अर्थात हमारे कर्मों की समुचित नीति और यथायथ नियम-पद्धति के अनुसार, उनके यथार्थ लयताल एवं विधान तथा उनकी सच्ची प्रणाली एवं उनके धर्मों के अनुसार संपत्र किया जाता हैं। इसका मतलब यह होता है कि हमारी बुद्धि और प्रदीप्त संकल्प उनकी क्रिया-प्रक्रिया तथा उनके उद्देश्य का निर्देशन और निर्धारण करते हैं। दूसरे, वह एक ऐसे मन के द्वारा किया जाता है जो सच्चे यज्ञ हमारे जीवन के परिचालक दिव्य विधान के द्वारा हम पर लादा जाता है और इसीलिये उसका अनुष्ठान एक उच्च आंतरिक बाध्यता या अपरिहार्य सत्य के अनुसार तथा वैयक्तिक फल की कामना के बिना किया जाता है,-उस कर्म का प्रेरक भाव तथा उसके अंदर उंडेली गयी शक्ति का स्वभाव जितना ही अधिक निर्वैयक्तिक होता है, वह कर्म उतना ही अधिक सात्त्विक प्रकृति का होता है। और उसका अंतिम लक्षण यह है कि वह निःशेष रूप से देवताओं को अर्पित किया जाता है; वह उन दिव्य शक्तियों के द्वारा स्वीकार्य होता है जो सत्ता के स्वामी के छद्मरूप तथा व्यक्तित्व हैं और अतएव, उन्हीं के द्वारा जगत-प्रभु इस जगत का परिचालन करते हैं।


सुतरां, गीता जिस आदर्श की तथा जिस प्रकार के कर्म की मांग करती है, यह सात्त्विक यज्ञ उसके अत्यंत निकट है और यह उसकी ओर सीधे ही ले जाता है; पर यह चरम और परम आदर्श नहीं है, यह अभी उन सिद्ध पुरुष का कर्म नहीं है जो दिव्य प्रकृति में निवास करते हैं। कारण, यह एक सुनियत धर्म के रूप में संपन्न किया जाता है, साथ ही यह देवताओं के प्रति, हमारे अंदर या विश्व के अंदर अभिव्यक्त भगवान की किसी आंशिक शक्ति या रूप के प्रति यज्ञ या सेवा के रूप में अर्पित किया जाता है। निःस्वार्थ धार्मिक विश्वास के साथ अनुष्ठित कर्म या स्वार्थरहित भाव से मानव जाति के लिये अनुष्ठित कर्म अथवा न्याय या सत्य के प्रति निष्ठा से प्रेरित होकर निर्वैयक्तिक भाव से अनुष्ठित कर्म सात्त्विक प्राकृति का होता है, विचार, संकल्प तथा प्राकृत उपादान को शुद्ध करता है। परंतु सात्त्विक कर्म की जिस सर्वोच्च परिणति तक हमें पहुँचना है वह और भी बृहत्तर तथा मुक्ततर कोटि की है; वह एक उच्च कोटि का चरम यज्ञ है जिसे हम पुरुषोत्तम को उपलब्ध करने की अभीप्सा के साथ या सत मात्र में वासुदेव के दर्शन करते हुए परम और समग्र भगवान के प्रति निवेदित करते हैं; वह एक ऐसा कर्म है जो निवैंयक्तिक एवं विश्वगत भाव से, जगत के मंगल के लिये तथा विश्व में भगवत्संकल्प की परिपूर्ति के निमित्त किया जाता है।


वह परिणत फिर अपने से भी परे, अमृत धर्म की ओर ले जाती है। क्योंकि तभी वह मुक्ति प्राप्त होती है जिसमें न तो कोई वैयक्तिक कर्म है, न धर्म का सात्त्विक नियम और न शास्त्र की मर्यादा। वहाँ स्वयं निम्न बुद्धि और संकल्प भी अतिक्रांत हो जाते हैं और उनकी जगह एक उच्चतर प्रज्ञा हमारे कर्म को प्रेरित और परिचालित करती है तथा हमें अधिकारपूर्ण उसके लक्ष्य की ओर ले चलती है। तब वैयक्तिक फल का कोई प्रश्न ही नहीं रहताः क्योंकि जो संकल्प कर्म करता है वह हमारा अपना नहीं बल्कि एक परमोच्च संकल्प होता है, हमारी अंतरात्मा तो उसका एक यंत्र मात्र होती है। वहाँ न कोई स्वार्थपरता होती है न निःस्वार्थता; क्योंकि जीव, भगवान का शाश्वत अंश, अपनी सत्ता में वह तथा सभी एक हैं। तब वैयक्तिक कर्म का अस्तिव नहीं रहता, क्योंकि सभी कर्म अपने कर्मों के प्रभु के प्रति उत्सर्ग कर दिये जाते हैं और तब वही हमारी दिव्यीकृत प्रकृति के द्वारा कर्म करते हैं।


वहाँ कोई यज्ञ भी नहीं होता,-हां हम यह अवश्य कह सकते हैं कि यज्ञ के अधीश्वर जीव में विद्यमान अपनी शक्ति के कर्मों को अपनी ही विश्वरूपमयी सत्ता के प्रति अर्पित कर रहे होते हैं। यज्ञरूप कर्म के द्वारा आत्म-अतिक्रमण की जो परमोच्च स्थिति प्राप्त होती है वह यही है, जो जीव दैवी प्रकृति में अपना पूर्ण चैतन्य लाभ कर लेता है उसकी सिद्ध अवस्था यही है। तामसिक तपस्या वह है जो एक अज्ञानाच्छन्न और भ्रांत विचार के वश, एक दृढ़ और अटल भ्रांति से युक्त विचार के वश की जाती है, जो किसी पोषित असत्य के प्रति अज्ञ श्रद्धा के द्वारा समर्पित होती है, जो किसी सच्चे या महान लक्ष्य के कुछ भी सम्बंध न रखने वाले एक संकीर्ण, जघन्य और अहंकारमय उद्देश्य के हित बलात प्रयास करते हुए तथा अपने को कष्ट पहुँचाते हुए या फिर अपनी सारी शक्ति दूसरों का अनिष्ट करने के संकल्प में लगाते हुए की जाती है। जो चीज इस प्रकार के शक्ति-प्रयोग को तामसिक बनाती है वह कोई जड़ता का तत्त्व नहीं, क्योकि जड़ता तपस्या से विजातीय वस्तु है, बल्कि इसे तामसिक बनाने वाली चीजें है। मन और प्रकृति का अंधकार अनुष्ठान की एक जघन्य क्षुद्रता तथा कुरुपता अथवा लक्ष्य या प्रेरक भाव में एक पाशविक प्रवृत्ति या वासना।


राजसिक तपस्या उन अनुष्ठानों को कहते हैं जो मनुष्यों से मान और पूजा प्राप्त करने के निमित्त, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बाह्य यश और महत्ता के लिये या अहमात्मक संकल्प एवं अभिमान के अनेकानेक हेतुओं में से किसी अन्य हेतु से किये जाते हैं। इस प्रकार का तप विशेष-विशेष क्षणिक उद्देश्यों के लिये किया जाता है जो जीव के ऊर्ध्वमुख विकास और पूर्णता में कुछ भी योगदान नहीं करते; यह एक ऐसी वस्तु है जो किसी निर्दिष्ट एवं सहायक नीति से रहित है, एक ऐसी शक्ति है जो परिवर्तनशील एवं नश्वर निमित्त के साथ बंधी हुई है और स्वयं भी उसी प्रकार की है। अथवा, यद्यपि इसमें कोई अधिक आभ्यंतरिक तथा श्रेष्ठ उद्देश्य दिखायी दे भी, यद्यपि इसमें श्रद्धा और संकल्प उच्चतर कोटि के हों भी, तथापि यदि किसी प्रकार का दंभ या अहंकार या कोई अत्यंत तीव्र प्रबल काम या राग इसमें प्रविष्ट हो जाये, अथवा यदि यह किसी ऐसे उग्र विधिहीन या घोर कर्म में प्रवृत करे जो शास्त्र के विरुद्ध हो, जीवन और कर्म-कलाप के यथायथ नियम के विपरीत हो।


अपने को तथा दूसरों को कष्ट देने वाला हो, या यदि यह आत्म-पीड़न के ढंग का तथा मन, प्राण और शरीर को क्लेश पहुँचाने वाला हो या हमारे आंतरिक सूक्ष्म शरीर में अवस्थित भगवान को उत्पीड़ित करने वाला हो तब भी यह अज्ञानपूर्ण, आसुरी, राजसिक या राजस-तामसिक तपस्या है। सात्त्विक तपस्या वह है जो उच्चतम आलोकित श्रद्धा के साथ, गंभीरता के साथ अंगीकृत कर्तव्य के रूप में या किसी नैतिक या आध्यात्मिक या अन्य उच्चतर हेतु से तथा कर्म के किसी बाह्य या संकीर्ण एवं व्यक्तिगत फल की कामना के बिना की जाती है। वह आत्म-अनुशासन के ढंग की होती है और आत्म-संयम तथा प्रकृति के सामंजस्य-साधन की मांग करती है। गीता ने तीन प्रकार के सात्त्विक तप का निरूपण किया है। पहला है शारीरिक तप, बाह्य कर्म का तप; इस श्रेणी के अंतर्गत, विशेष रूप से, इन चीजों का उल्लेख किया गया है-पूजनीयों की पूजा और मान; शरीर, कर्म और जीवन की शुद्धि सरल व्यवहार, ब्रह्मचर्य, दूसरों की हिंसा और अपकार का परित्याग, अहिंसा। दूसरा है वाणी का तप, और उसके अंतर्गत हैं-स्वाध्याय, सत्य, प्रिय और हितकर वचन, दूसरों के अंदर भय, दुःख और उद्वेग उत्पन्न करले वाले वचनों का सतर्कतापूर्वक परित्याग। अंतिम है मानसिक तथा नैतिक पूर्णता का तप, और उसका अर्थ है संपूर्ण स्वभाव की शुद्धि सौम्यता, मनःप्रसाद, आत्म-विनिग्रह और मौन। इसमें वे सभी चीजें समाविष्ट हो जाती है जो राजसिक एवं अहमात्मक प्रकृति को शांत या अनुशासित करती हैं और वे सब भी जो इसके स्थान पर शुभ और पुण्य के प्रसन्न और शांत तत्त्व की प्रतिष्ठा करती हैं।


यह सात्त्विक धर्म का तप है जिसे प्राचीन भारतीय संस्कृति की विधि-व्यवस्था में इतना अधिक समादृत किया गया है। इसकी महत्तर परिणति होगी-बुद्धि और संकल्प की उच्च पवित्रता, आत्मा की समता, गंभीर शांति और स्थिरता, व्यापक सहानुभूति तथा एकत्व-साधना, मन, प्राण और शरीर के अंदर अंतःपुरुष के दिव्य प्रसाद कि प्रतिच्छाया। उस उच्च शिखर पर नैतिक आदर्श एवं स्वभाव आध्यात्मिक आदर्श और स्वभाव में परिणत हो जाता है और यह परिणति भी अपने को अतिक्रम कर सकती है, यह भी एक उच्चतर और मुक्ततर ज्योति में उन्नीत की जा सकती है तथा परा प्रकृति की सुप्रतिष्ठित दैवी शक्ति में परिणत हो सकती है। और तब जो कुछ शेष रहेगा वह होगा आत्मा का परिपूत तप, सत्ता के सभी अंगो में एक उच्चतम संकल्प एवं ज्योतिर्मयी शक्ति, जो विशाल और ठोस शांति तथा गंभीर एवं विशुद्ध आध्यात्मिक आनंद में कार्य करेगी।


तब फिर तप की और आवश्यकता नहीं रहेगी, कोई तपस्या नहीं रहेगी, क्योंकि सब कुछ सहज-स्वाभाविक रूप से दिव्य होगा, सब कुछ वह तपस ही होगा। वहाँ नीचे की शक्ति की कोई पृथक प्रचेष्टा नहीं रहेगी, क्योंकि प्रकृति की शक्ति पुरुषोत्तम के परात्पर संकल्प में अपना सच्चा उद्गम और आधार प्राप्त कर चुकी होगी। तब, इस उच्च स्त्रोत से प्रवर्तित होने के कारण, इस शक्ति की क्रियाएं निम्नतर स्तरों पर भी एक सहजात पूर्ण संकल्प से तथा एक अंतर्निहित पूर्ण मार्गनिर्देशक के द्वारा स्वाभाविक एवं स्वतःस्फूर्त रूप में निःसृत होंगी। वर्तमान धर्मों में से किसी का भी बंधन नहीं रहेगा; क्योंकि वहाँ होगा एक मुक्त कर्म जो राजसिक और तामसिक प्रकृति से बहुत ऊपर तो होगा ही पर साथ ही कर्म के सात्त्विक नियम की अति-सतर्क और संकीर्ण सीमाओं से भी बहुत परे होगा। तपस्या की भाँति समस्त दान भी अज्ञ तामसिक, बाह्यडम्बरपूर्ण राजसिक या निःस्वार्थ और ज्ञानदीप्त सात्त्विक प्रकृति का होता है। तामसिक दान समुचित देश, काल और पात्र का विचार किये बिना अज्ञानपूर्वक दिया जाता है; वह एक मूर्खतापूर्ण, विवेकहीन और वस्तुतः स्वार्थपूर्ण-क्रिया होती है वह एक अनुदार तथा निकृष्ट त्याग होता है, एक ऐसा दान होता है जो बिना सहानुभूति या सच्ची उदारता के और लेने वाले की भावनाओं का ध्यान रखे बिना ही दिया जाता है तथा जो उसके द्वारा स्वीकार करते समय भी अवज्ञा की दृष्टि से देखा जाता है।


राजसिक कोटि का दान वह है जो अनुताप के साथ, अनिच्छापूर्वक या अपने ऊपर जोर-जबर्दस्ती करके या किसी व्यक्तिगत एवं अहंभावमय उद्देश्य से अथवा किसी भी दिशा से किसी प्रकार के प्रत्युपकार की आशा से या लेने वाले की ओर से अपने-आपको एक तुल्य या महत्तर प्रतिफल मिलने की आशा से किया जाता है। सात्त्विक प्रकार का दान वह है जो यथायथ बुद्धि सदिच्छा तथा सहानुभूति के साथ, समुचित देश-काल को देखकर एक ऐसे सत्पात्र को अर्पित किया जाता है जो दान के योग्य होता है या जिसके लिये दान वस्तुतः उपकारी हो सकता है। ऐसा दान-कार्य दान तथा उपकार के लिये ही किया जाता है, उपकृत के द्वारा पहले किये गये या आगे किये जाने वाले अपने उपकार को दृष्टि में रखकर नहीं, किसी व्यक्तिगत उद्देश्य से नहीं। सात्त्विक प्रकार के दान की पराकाष्ठा कर्म के अंदर दूसरों के प्रति, जगत तथा परमेश्वर के प्रति एक व्यापक आत्मदान एवं आत्म-समर्पण के तत्त्व को क्रमशः अधिकाधिक ले आयेगी; गीता में जिस कर्मयज्ञ का विधान किया गया है वह इस प्रकार का उच्च उत्सर्ग ही है।


दिव्य प्रकृति में ऊर्ध्वतम स्थिति आत्म दान की महत्तम परिपूर्णता होगी जो जीवन के विशालतम अर्थ पर आधारित होगी। इस संपूर्ण नानारूप विश्व की उत्पत्ति और अनवरत स्थिति का मूल यह है कि परमेश्वर अपने-आप तथा अपनी शक्तियों का दान करते हैं तथा इन सब भूतभावों के अंदर अपनी सत्ता और आत्मा को मुक्त-हस्त हो प्रभाहित करते है; वेद में कहा है कि विश्व-सत्ता पुरुष का यज्ञ है। सिद्ध जीव का भी समस्त कर्म होगा-अपना तथा अपनी शक्तियों का इसी प्रकार अखंड रूप दिव्य दान करना, भगवान के अंदर तथा उनके प्रभाव और प्रेरणा के द्वारा उसने जो ज्ञान, ज्योति, बल, प्रेम, हर्ष साहाय्यप्रद शक्ति उपलब्ध की है उसे अपने चारों ओर सबके ऊपर, उनकी ग्रहण-सामर्थ्य के अनुसार उंडेल देना, अथवा इस समस्त जगत तथा इसके प्राणियों पर प्रवाहित कर देना। अपनी सत्ता के स्वामी के प्रति जीव के समग्र आत्मदान का संपूर्ण परिणाम यही होगा।


जिस चर्चा के साथ गीता इस अध्याय का उपसंहार करती है वह प्रथम दृष्टि में दुर्बोध प्रतीत होती है। वह कहती है ओम तत सत-यह सूत्र उन ब्रह्म की त्रिविध परिभाषा है जिन्होंने पुराकाल में ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों की सृष्टि की थी और इसी सूत्र में उनका समस्त हार्द निहित है। तत निरपेक्ष सत्ता का द्योतक है। सत परम और विश्वयम सत्ता के मूलतत्त्व का द्योतक है। ओम त्रिविध ब्रह्म का, बहिर्मुख,अंतर्मुख या सूक्ष्म तथा अतिचेतन कारण-पुरुष का प्रतीक हैं। अ,उ,म-प्रत्येक अक्षर इन तीन में से एक-एक को आरोहण-क्रम मे द्योतित करता है और अपने समूचे रूप में यह पद उस तुरीय अवस्था का बोधक है जो निरपेक्ष सत्ता की ओर उठ जाती है। ओम् श्रीगणेश करने का पद है जो समस्त यज्ञ, समस्त दान, समस्त तप के आरंभ में मंगलाचरण तथा अनुमति के रूप मे उच्चारित किया जाता है; यह इस बात को स्मरण कराता है कि हमें अपने कर्म को अपनी अंतःसत्ता मे त्रिविध भगवान् का प्रकाश करने वाला बनाना होगा और उसे अपनी भावना तथा लक्ष्य में भगवान् की ओर ही फेरना होगा। मुमुक्षुजन इन कर्मों को फल की कामना के बिना और केवल अपनी प्रकृति के पीछे अवस्थित निरपेक्ष भगवान् की परिकल्पना, अनुभुति और उनके आनंद के साथ ही संपन्न करते हैं। अपने कर्मों की इस पवित्रता एवं निर्वैयक्तिकता के द्वारा, उस उच्च निष्कामता, इस बृहत् अहंशून्यता तथा आध्यात्मिक समृद्धि के द्वारा वे इन भगवान् की ही खोज करते हैं।


सत् का अर्थ शुभ भी है और वस्तु-सत्ता भी। ये दोनों चीजें, शुभ का तत्त्व और वस्तु-सत्ता का तत्त्व इन तीनों प्रकार के कर्मों के पीछे अवश्य होने चाहिये। सभी शुभ कर्म सत् हैं क्योंकि वे जीव को हमारी सत्ता के उच्चतर सत्स्वरूप के लिये तैयार करते हैं; यज्ञ, दान और तप मे दृढ़ निष्ठा, और उस प्रधान लक्ष्य को दृष्टि में रखकर यज्ञ,दान और तप के रूप में किये गये समस्त कर्म सत् हैं, क्योंकि वे हमारी आत्मा के उच्चतम सत्य के लिये आधार निर्मित करते हैं। और क्योंकि श्रद्धा हमारी आत्मा सत्ता का केद्रीय तत्त्व है, इनमें से कोई चीज यदि बिना श्रद्धा के की जाये तो वह मिथ्या होती है इहलोक में या परतर लोकों में उसका कोई सत्य अर्थ या सत्य सार नहीं होता, इह-जीवन में या मर्त्य जीवन के पश्चात् हमारी चिन्मय आत्मा के महत्तर लोकों में टिके रहने या सृजन करने के लिये उसमें कोई सत्य या शक्ति नहीं होती। अंतरात्मा की श्रद्धा-कोरा बौद्धिक विश्वास नहीं बल्कि जानने, देखने, विश्वास करने तथा अपनी दृष्टि और ज्ञान के अनुसार कर्म करने तथा अपने को गढ़ने के लिये अंतरात्मा का एकाग्र संकल्प ही अपनी शक्ति के द्वारा हमारे विकास की संभावनाओं का मान निर्धारित करता है, और जब यह श्रद्धा एवं संकल्प-हमारी संपूर्ण बाह्मांतर सत्ता प्रकृति और कर्म सहित-उस सबकी ओर मुड़ जायेगा जो उच्चतम, दिव्यतम, सत्यतम और शाश्वत है, तो यही हमें परम सिद्धि की प्राप्ति में भी समर्थ बना देगा।




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