कर्म अकर्म

 


किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः । 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्त्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। 4.16 ।। 


अर्थ- कर्म क्या है और अकर्म क्या है- इस प्रकार इस विषय में विद्वान भी मोहित हो जाते हैं। अतः वह कर्म तत्त्व मैं तुम्हें भलीभाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जायगा। 

व्याख्या- ‘किं कर्म’- साधारणतः मनुष्य शरीर और इंद्रियों की क्रियाओं को ही कर्म मान लेते हैं तथा शरीर और इंद्रियों की क्रियाएँ बंद होने को अकर्म मान लेते हैं। परंतु भगवान ने शरीर, वाणी और मन के द्वारा होने वाली मात्र क्रियाओं को कर्म माना है- ‘शरीरवांगमनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’। भाव के अनुसार ही कर्म की संज्ञा होती है। भाव बदलने पर कर्म की संज्ञा भी बदल जाती है। जैसे, कर्म स्वरूप से सात्त्विक दीखता हुआ भी यदि कर्ता का भाव राजस या तामस होता है, तो वह कर्म भी राजस या तामस हो जाता है। जैसे, कोई देवी की उपासना रूप कर्म कर रहा है, जो स्वरूप से सात्त्विक है। परंतु यदि कर्ता उसे किसी कामना की सिद्धि के लिये करता है, तो वह कर्म राजस हो जाता है और किसी का नाश करने के लिये करता है, तो वही कर्म तामस हो जाता है। इसी प्रकार यदि कर्ता में फलेच्छा, ममता और आसक्ति नहीं है, तो उसके द्वारा किये गये कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं अर्थात फल में बाँधने वाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि केवल बाहरी क्रिया करने अथवा न करने से कर्म के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। इस विषय में शास्त्रों को जानने वाले बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं अर्थात कर्म के तत्त्व का यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते। जिस क्रिया को वे कर्म मानते हैं वह कर्म भी हो सकता है, अकर्म भी हो सकता है और विकर्म भी हो सकता है। कारण कि कर्ता के भाव के अनुसार कर्म का स्वरूप बदल जाता है। इसलिये भगवान मानो यह कहते हैं कि वास्तविक कर्म क्या है? वह क्यों बाँधता है? कैसे बाँधता है? इससे किस तरह मुक्त हो सकते हैं? इन सब का मैं विवेचन करूँगा, जिसको जानकर उस रीति से कर्म करने पर वे बाँधने वाले न हो सकेंगे। यदि मनुष्य में ममता, आसक्ति और फलेच्छा है, तो कर्म न करते हुए भी वास्तव में कर्म ही हो रहा है अर्थात कर्मों से लिप्तता है। परंतु यदि ममता, आसक्ति और फलेच्छा नहीं है, तो कर्म करते हुए भी कर्म नहीं हो रहा है अर्थात कर्मों से निर्लिप्तता है। तात्पर्य यह है कि यदि कर्ता निर्लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना- दोनों ही अकर्म हैं और यदि कर्ता लिप्त है तो कर्म करना अथवा न करना- दोनों ही कर्म हैं और बाँधने वाले हैं। ‘किमकर्मेति’- भगवान ने कर्म के दो भेद बताये हैं- कर्म और अकर्म। कर्म से जीव बँधता है और अकर्म से मुक्त हो जाता है। कर्मों का त्याग करना अकर्म नहीं है। भगवान ने मोहपूर्वक किये गये कर्मों के त्याग को ‘तामस’ बताया है शारीरिक कष्ट के भय से किये गये कर्मों के त्याग को ‘राजस’ बताया गया है।[5] तामस और राजस त्याग में कर्मों का स्वरूप से त्याग होने पर भी कर्मों से संबंध-विच्छेद नहीं होता। कर्मों में फलेच्छा और आसक्ति का त्याग ‘सात्त्विक’ है।[6] सात्त्विक त्याग में स्वरूप से कर्म करना भी वास्तव में अकर्म है; क्योंकि सात्त्विक त्याग में कर्मों से संबंध विच्छेद हो जाता है। अतः कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्त रहना वास्तव में अकर्म है। 


शास्त्रों के तत्त्व को जानने वाले विद्वान भी अकर्म क्या है- इस विषय में मोहित हो जाते हैं। अतः कर्म करने अथवा न करने- दोनों ही अवस्थाओं में जिससे जीव बँधे नहीं, उस तत्त्व को समझने से ही कर्म क्या है और अकर्म क्या है- यह बात समझ में आयेगी। अर्जुन युद्धरूप कर्म न करने को कल्याण कारक समझते हैं। इसलिये भगवान मानो यह कहते हैं कि युद्ध रूप कर्म का त्याग करने मात्र से तेरी अकर्म-अवस्था नहीं होगी, प्रत्युत युद्ध करते हुए भी तू अकर्म-अवस्था को प्राप्त कर सकता है; अतः अकर्म क्या है- इस तत्त्व को तू समझ।


निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना- यही वास्तव में अकर्म अवस्था है।


‘कवयोऽप्यत्र मोहिताः’- साधारण मनुष्यों में इतनी सामर्थ्य नहीं कि वे कर्म और अकर्म का तात्त्विक निर्णय कर सकें। शास्त्रों के ज्ञाता बड़े-बड़े विद्वान भी इस विषय में भूल कर जाते हैं। कर्म और अकर्म का तत्त्व जानने में उनकी बुद्धि भी चकरा जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि इनका तत्त्व या तो कर्मयोग से सिद्ध हुए अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष जानते हैं अथवा भगवान जानते हैं।


‘तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि’- जीव कर्मों से बँधा है तो कर्मों से ही मुक्त होगा। यहाँ भगवान प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं वह कर्म-तत्त्व भलीभाँति कहूँगा, जिससे कर्म करते हुए भी वे बंधन कारक न हों। तात्पर्य यह है कि कर्म करने की वह विद्या बताऊँगा, जिससे तू कर्म करते हुए भी जन्म मरण रूप बंधन से मुक्त हो जायगा। कर्म करने के दो मार्ग हैं- प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग। प्रवृत्ति मार्ग को ‘कर्म करना’ कहते हैं और निवृत्ति मार्ग को ‘कर्म न करना’ कहते हैं। ये दोनों ही मार्ग बाँधने वाले नहीं हैं। बाँधने वाली तो कामना, ममता, आसक्ति है, चाहे यह प्रवृत्ति मार्ग में हो चाहे निवृत्ति मार्ग में हो। यदि कामना, ममता, आसक्ति न हो तो मनुष्य प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग- दोनों में स्वतः मुक्त है। इस बात को समझना ही कर्म तत्त्व को समझना है।


दूसरे अध्याय के पचासवें श्लोक में भगवान ने ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ ‘कर्मों में योग ही कुशलता है’- ऐसा कहकर कर्म-तत्त्व बताया है। तात्पर्य है कि कर्म बंधन से छूटने का वास्तविक उपाय ‘योग’ अर्थात समता ही है। परंतु अर्जुन इस तत्त्व को पकड़ नहीं सके, इसलिये भगवान इस तत्त्व को पुनः समझाने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं।


कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत सेवा है। सेवा में त्याग की मुख्यता होती है। सेवा और त्याग- ये दोनों ही कर्म नहीं है। इन दोनों में विवेक की ही प्रधानता है।


हमारे पास शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब मिली हुई हैं और बिछुड़ने वाली हैं। मिली हुई वस्तु को अपनी मानने का हमें अधिकार नहीं है। संसार से मिली वस्तु को संसार की ही सेवा में लगाने का हमें अधिकार है। जो वस्तु वास्तव में अपनी है, उस[1] का त्याग कभी हो ही नहीं सकता और जो वस्तु अपनी नहीं है, उस का त्याग स्वतः सिद्ध है। अतः त्याग उसी का होता है जो अपना नहीं है, पर जिसे भूल से अपना मान लिया है अर्थात अपनेपन की मान्यता का ही त्याग होता है। इस प्रकार जो वस्तु अपनी है ही नहीं, उसे अपना न मानना त्याग कैसे? यह तो विवेक है।


कर्म-सामग्री अपनी और अपने लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरों की और दूसरों के लिये ही हैं। इसका संबंध संसार के साथ है। स्वयं के साथ इसका कोई संबंध नहीं है; क्योंकि स्वयं नित्य-निरंतर निर्विकार रूप से एकरस रहता है, पर कर्म सामग्री पहले अपने पास नहीं थी, बाद में भी अपने पास नहीं रहेगी और अब भी निरंतर बिछुड़ रही है। इसलिये इसके द्वारा जो भी कर्म किया जाय, वह दूसरों के लिये ही होता है, अपने लिये नहीं। इसमें एक मार्मिक बात है कि कर्म-सामग्री के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता; जैसे- कितना ही बड़ा लेखक क्यों न हो, स्याही, कलम और कागज के बिना वह कुछ भी नहीं लिख सकता। अतः जब कर्म सामग्री के बिना कुछ किया नहीं जा सकता, तब यह विधान मानना ही पड़ेगा कि अपने लिये कुछ करना नहीं है। कारण कि कर्म-सामग्री का संबंध संसार के साथ है, अपने साथ नहीं। इसलिये कर्म सामग्री और कर्म सदा दूसरों के हित के लिये ही होते हैं, जिसे सेवा कहते हैं। दूसरों की वस्तु दूसरों को मिल गयी तो यह सेवा कैसे? यह तो विवेक है।


इस प्रकार त्याग और सेवा- ये दोनों ही कर्मसाध्य नहीं है, प्रत्युत विवेकसाध्य हैं, मिली हुई वस्तु अपनी नहीं है, दूसरों की और दूसरों की सेवा में लगाने के लिये ही है- यह विवेक है। इसलिये मूलतः कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत विवेक है।


विवेक किसी कर्म का फल नहीं है, प्रत्युत प्राणिमात्र को अनादिकाल से स्वतः प्राप्त हैं। यदि विवेक किसी शुभ कर्म का फल होता तो विवेक के बिना उस शुभ कर्म को कौन करता? क्योंकि विवेक के द्वारा ही मनुष्य शुभ और अशुभ कर्म के भेद को जानता है तथा अशुभ कर्म का त्याग करके शुभ कर्म का आचरण करता है। अतः विवेक शुभ कर्मों का कारण है, कार्य नहीं। यह विवेक स्वतः सिद्ध है, इसलिये कर्मयोग भी स्वतः सिद्ध है अर्थात कर्मयोग में परिश्रम नहीं है। इसी प्रकार ज्ञानयोग में अपना असंग स्वरूप स्वतः सिद्ध है और भक्ति- योग में भगवान के साथ अपना संबंध स्वतः सिद्ध है।


‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’- जीव स्वयं शुभ है और परिवर्तनशील संसार अशुभ है। जीव स्वयं परमात्मा का नित्य अंश होते हुए भी परमात्मा से विमुख होकर अनित्य संसार में फँस गया है। भगवान कहते हैं कि मैं उस कर्म तत्त्व का वर्णन करूँगा, जिसे जानकर कर्म करने से तू अशुभ से अर्थात जन्म-मरण रूप संसार बंधन से मुक्त हो जायगा।


[इस श्लोक में कर्मों को जानने का जो प्रकरण आरंभ हुआ है, उसका उपसंहार बत्तीसवें श्लोक में ‘एवं ज्ञात्वा विनमोक्ष्यसे’ पदों से किया गया है।]


कर्मयोग का तात्पर्य है- ‘कर्म’ संसार के लिये और ‘योग’ अपने लिये। कर्म के दो अर्थ होते हैं- करना और न करना। कर्म करना और न करना- ये दोनों प्राकृत अवस्थाएँ हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में अहंता रहती है। कर्म करने में ‘कार्य’- रूप से अहंता रहती है, और कर्म न करने में ‘कारण’ रूप से। जब तक अहंता है तब तक संसार से संबंध है और जब तक संसार से संबंध है, तब तक अहंता है। परंतु ‘योग’ दोनों अवस्थाओं से अतीत है। इस योग का अनुभव करने के लिये अहंता से रहित होना आवश्यक है। अहंता से रहित होने का उपाय है- कर्म करते हुए अथवा न करते हुए योग में स्थित रहना और योग में स्थित रहते हुए कर्म करना अथवा न करना। तात्पर्य है कि कर्म करने अथवा न करने- दोनों अवस्थाओं में निर्लिप्त रहे- ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’।


कर्म करने से संसार में और कर्म न करने से परमात्मा में प्रवृत्ति होती है- ऐसा मानते हुए संसार से निवृत्त होकर एकांत में ध्यान और समाधि लगाना भी कर्म करना ही है। एकांत में ध्यान और समाधि लगाने से तत्त्व का साक्षात्कार होगा- इस प्रकार भविष्य में परमात्मतत्त्व की प्राप्ति करने का भाव भी कर्म का सूक्ष्म रूप है। कारण कि करने के आधार पर ही भविष्य में तत्त्व प्राप्ति की आशा होती है। परंतु परमात्मतत्त्व करने और न करने- दोनों से अतीत है।


भगवान कहते हैं कि मैं वह कर्म तत्त्व कहूँगा जिसे जानने से तत्काल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जायगी। इसके लिये भविष्य की अपेक्षा नहीं है; क्योंकि परमात्मतत्त्व संपूर्ण देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि में समानरूप से परिपूर्ण है। मनुष्य अपने को जहाँ मानता है, परमात्मा वहीं है। कर्म करते समय अथवा न करते समय- दोनों अवस्थाओं में परमात्मतत्त्व का हमारे साथ संबंध ज्यों-का-त्यों रहता है।


केवल प्रकृतिजन्य क्रिया और पदार्थ से संबंध मानने के कारण ही उसकी अनुभूति नहीं हो रही है।


अहंतापूर्वक किया हुआ साधन और साधन का अभिमान जब तक रहता है, तब तक अहंता मिटती नहीं, प्रत्युत दृढ़ होती है, चाहे वह अहंता मिटती नहीं, प्रत्युत दृढ़ होती है, चाहे वह अहंता स्थूल रूप से रहे अथवा सूक्ष्म रूप से रहे।


‘मैं करता हूँ’- इसमें जैसी अहंता है, ऐसी ही अहंता ‘मैं नहीं करता हूँ’- इसमें भी है। अपने लिये कुछ-न-कुछ करने से अर्थात कर्ममात्र संसार के हित के लिये करने से अहंता संसार में विलीन हो जाती है।




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