संभूतिरूप

 


 

अब हम एक बड़े महत्त्व के स्थान पर आ गये जों मुक्त स्थिति और दिव्य कर्म के विषय में गीता का जो सिद्धांत है उसके प्रतिपादनक्रम में हमें उसके पारभौतिक और मानसिक समन्वय का एक सुस्पष्ट निर्देश प्राप्त हो गया है। अर्जुन की बुद्धि में भगवान् आ गये; बुद्धि की जिज्ञासा और हृदय की आंख के सामने वे उस परमात्मा और जगदात्मा के रूप में, उस परम पुरुष और विश्व-पुरुष के रूप में, उस स्वांतःस्थ अंतर्यामी भगवान् के रूप में प्रत्यक्ष हो गये जिसे मनुष्य की बुद्धि, मन और हृदय अज्ञान के धंधले प्रकाश में ढूंढ़ रहे थे। अब केवल उन नानात्व से परिपूर्ण विराट् पुरुष का दर्शन ही बाकी है जिससे उसके अनेक पहलुओं में से एक और पहलू के दर्शन की पूर्णता हो। पारभौतिक समन्वय पूर्ण हो चुका। निम्न प्रकृति से जीव को पृथक् करने के लिये इसमें सांख्य को ग्रहण किया गया है-यह वह पृथक्करण है जो विवेक के द्वारा आत्मज्ञान लाभ कर तथा प्रकृति के त्रिगुण के बंधन से अतीत होकर ही करना होता है। सांख्य की इस प्रकार पूर्णता साधित कर उसकी सीमा को पर-पुरुष और परा-प्रकृति के एकत्व का विशाल दर्शन कराकर पार किया गया है।


अहंकार के चारों ओर बने हुए प्राकृत पृथक् व्यष्टित्व को मिटाने के लिये दार्शनिकों का वेदांत स्वीकृत किया गया है। क्षुद्र व्यष्टिभाव की जगह विशाल निर्व्यष्टिक भाव को बिठाने के लिये, पृथक्ता के भ्रम को ब्रह्म के एकत्व की अनुभूति से नष्ट करने और अहंकार की अंध दृष्टि के स्थान में सब पदार्थों को एकमेव आत्मा के अंदर और एकमेव आत्मा को सब पदार्थों के अंदर देखने की विमल दृष्टि ले आने के लिये वेदांत की प्रक्रिया का प्रयोग किया गया है। इसकी पूर्णता उन परब्रह्म का समग्र दर्शन कराकर साधित की गयी है जिन परब्रह्म से ही समस्त चर-अचर, क्षर-अक्षर, प्रवृत्ति-निवृत्ति, की उत्पत्ति होती है। इसकी जो संभावित सीमाएं हैं उन्हें, उन परम पुरुष परमेश्वर का, जो समस्त प्रकृति में सब कुछ स्वयं होते हैं, स्वयं सब व्यष्टि जीवों के रूप में अपने-आपको प्रकट करते और समत्स कर्मों में अपनी भगवती शक्ति लगाते हैं, अपने अत्यंत समीप होना प्रकट करके पार किया गया है। मन, बुद्धि हृदय, और समस्त अंतःकरण को प्रकृति के प्रभु परमेश्वर की सेवा में समर्पित करने के लिये योगशास्त्र का ग्रहण किया गया है। इसकी पूर्णता जगत् और जीवन के उन परम प्रभु को, जिनका यह प्रकृतिस्थ जीव सनातन अंश है, आदि सत्ता बनाकर साधित की गयी हैं और पूर्ण, आत्मैक्य के प्रकाश में जीव का यह देख पाना कि सब पदार्थ भवद्रूप हैं, इससे योगशास्त्र की संभावित परच्छिन्नताओं और सीमाओं को पार किया गया है।


उन परम सत्स्वरूप भगवान् के, एक साथ ही, परम सद्रूप में, विश्व के विश्वातीत मूल के रूप में, सब पदार्थों के निर्व्यष्टिक आत्मा के रूप में, विश्व के अचल धारक के रूप में, और सब प्राणियों, सब व्यष्टियों, सब पदार्थों, शक्तियों और गुणों के अंतःस्थित ईश्वर के रूप में, उस अंतर्यामी के रूप में जो आत्मा तथा कार्यकत्री प्रकृति हैं और सब भूतों के अंतर्भव और बहिर्भव हैं,-एक साथ ही इन सब रूपों में-पूर्ण दर्शन होते हैं। उस एक के इस संपूर्ण दर्शन और ज्ञान में ज्ञानयोग की पूर्णतया सिद्धि हो गयी। सब कर्मों का उनके भोक्ता स्वामी के प्रति समर्पण होने से कर्मयोग की पराकाष्ठा हो गयी-क्योंकि अब स्वभावनियुक्त मनुष्य भगवदिच्छा का केवल एक यंत्र रह जाता है। प्रेम और भक्ति का योग पूर्ण विस्तृत रूप में बता दिया गया। ज्ञान, कर्म और प्रेम की आत्यंतिक पूर्णता व्यक्ति को उस पद पर पहुँचाती है जहाँ जीव और जीवेश्वर अपनी उच्चात्युच्च अतिशयता में परम अभेद को प्राप्त होते हैं। उस अभेद में स्वरूप ज्ञान का प्रकाश हृदय को तथा बुद्धि को भी यथावत् प्रत्यक्ष या अपरोक्ष होता है। उस अभेद में निमित्त मात्र होकर किया जानेवाला कर्मरूप अभिव्यक्ति होता है। इस प्रकार आत्मिक मोक्ष का संपूर्ण साधन बता दिया गया; दिव्य कर्म की पूरी नींव डाल दी गयी।


भगवत्स्वरूप श्रीगुरु से प्राप्त इससे पूर्ण ज्ञान को अर्जुन ग्रहण करता है। उसका मन सब संशयों से ऊपर उठ चुका है; उसका हृदय जगत् के बाह्य रूप और उसके मोहक-भ्रामक दृश्य से हटकर अपने परम अर्थ और मूल स्वरूप तथा उसकी अंतःस्थ वास्तविकताओं को प्राप्त हो चुका है, शोक-संताप से छूटकर भगवदीय दर्शन के अनिर्वचनीय आनंद के संपर्क में आ चुका है। इस ज्ञान को ग्रहण करते हुए वह जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनसे फिर एक बार विशेष बल और आग्रह के साथ यह बात सामने आती है कि यह ज्ञान वह ज्ञान है जो संपूर्ण है, सब कुछ इसमें आ गया है, कोई बात बची नहीं रही। अर्जुन सर्वप्रथम उन्हें, जो उसे यह ज्ञान दान कर रहे हैं, अवतार मानता है अर्थात् उन्हें मुनष्य-तन में परब्रह्म परमेश्वर-रूप से ग्रहण करता है, उन्हें वह परं ब्रह्म, परं धाम मनाता है जिसके अंदर जीव, इस बाह्य जगत् और इस अंशरूप भूतभाव से निकलकर अपने उस मूल स्वरूप को प्राप्त होने पर, रह सकता है। अर्जुन उन्हें वह परमं पवित्रम् जानता है जो मुक्त स्थिति की परमा पवित्रता है-वह परम पावन स्थिति जीव को तब प्राप्त होती है जब वह अपने अहंकार को मिटाकर अपने आत्मस्वरूप की स्थिर अचल आर निर्व्यष्टिक ब्राह्यी स्थिति में पहुँचता है।


अर्जुन फिर उन्हें पुरुषं शाश्वतं दिव्यम् एकमेव सत् सनातन दिव्य पुरुष जानकर ग्रहण करता है। वह उन्हें आदि देव कहकर उनकी विभुम् रूप से उनकी पूजा करता है। अतएव, व उन्हें केवल वह अद्भुत ही नहीं मानता जो किसी भी प्रकार के वर्णन से परे है, क्योंकि कोई भी वस्तु उन्हें व्यक्त करने के लिये पर्याप्त नहीं है,-‘‘है भगवन्, आपकी अभिव्यक्ति को न तो देवता जानते हैं न ही दानव’’, न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा:- बल्कि वह उन्हें सर्वभूतों का स्वामी, उनकी समस्त संभूति का एकमात्र दिव्य निमित्त कारण, देवों का देव जिससे सब देवता उद्भूत हुए हैं, तथा जगत का पति भी मानता है जो ऊपर से अपनी परमोच्च तथा विश्वव्यापी प्रकृति की शक्ति के द्वारा उसे अभिव्यक्त तथा परिचालित करता है, अंत में वह उन्हें हमारे अंदर तथा चारों ओर अविस्थित उन वासुदेव के रूप में ग्रहण करता है जो यहाँ सभी कुछ हैं अपनी संभूति की विश्वव्यापी,घट-घटवासी, सर्व-निर्मायक विभु-शक्तियों के बल पर,विभूतय: ‘‘संभूति की सर्वोच्च शक्तियां जिनके द्वारा आप इन लोकों को व्याप्त किये हुए हैं।’’ याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।[1] उसने अपने हृदय की भक्ति, इच्छा-शक्ति-संकल्प के समर्पण तथा बुद्धि की समझ के साथ इस सत्य को ग्रहण कर लिया है। वह इस ज्ञान में रहते हुए तथा इस आत्म-समर्पण के साथ दिव्य यंत्र के रूप में कार्य करने के लिये तैयार हो चुका है। पर अब एक गभीरतर अविच्छिन्न आध्यात्मिक उपलब्धि की इच्छा उसके हृदय तथा उसकी संकल्पशक्ति में जाग उठी है। यह एक ऐसा सत्य है जो केवल परम आत्मा को ही अपने आत्म-ज्ञान में प्रत्यक्ष होता है,-क्योंकि अर्जुन कहता है, ‘‘हे पुरुषोत्तम, केवल आप ही अपने-आपको अपने-आपसे जानते हैं। यह एक ऐसा ज्ञान है जो आध्यात्मिक तादात्म्य द्वारा प्राप्त होता है और प्राकृत मनुष्य का हृदय, संकल्प-शक्ति तथा बुद्धि बिना सहायता के, अपनी ही चेष्टा के द्वारा इसतक नहीं पहुँच सकते। ये तो केवल उन अपूर्ण मानसिक प्रतिबिम्बों को ही प्राप्त कर सकते हैं जो इसे प्रकाशित करने से कहीं अधिक छिपाते तथा विकृत करते हैं। यह एक गुप्त ज्ञान है जो मनुष्य को उन ऋषियों से सुनना होगा जिन्होंने इस सत्य का साक्षात्कार किया है, इसकी वाणी को श्रवण किया है और अंतरात्मा तथा आत्मा में इसके साथ एकात्माता प्राप्त की है। ‘‘सभी ऋषि नारद,असति, देवता, व्यास आदि देवर्षि आपके विषय में यही कहते हैं।’’[2] 

अथवा मनुष्य को इसे अपने अंदर से दिव्य दर्शन एव अंतःस्फुरणा के द्वारा अंतर्यामी देव से प्राप्त करना होगा जो हमारे अंदर ज्ञान के उज्ज्वल दीप को ऊपर उठाते हैं।’’ आप स्वयं भी मुझे यही बताते हैं ‘‘जब एक बार यह सत्य प्रकट हो जाये तब इसे मन की स्वीकृति, संकल्प-शक्ति की सहमति तथा हृदय के आनंद और पूर्ण समर्पणयुक्त मानसिक श्रद्धा के इन तीनों तत्त्वों के द्वारा स्वीकार करना होता है। अर्जुन ने इसी प्रकार अंगीकार किया है, ‘‘इस सबको, जो आपने कहा है मन सत्य मानता है।’’[1] परंतु फिर भी हमारी सत्ता की वास्तविक आत्मा में तथा उसके अत्यंत अंतरंग चैतन्य केन्द्र से बाहर उस गभीरतर अधिकृत की आवश्यकता, उस नित्य अवर्णनीय आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये हमारी अंतरात्मा की मांग तो वही रहेगी मानसिक उपलब्धि जिसका एक प्रारंभ या छायामात्र है और जिसके बिना सनातन के साथ पूर्ण मिलन नहीं प्राप्त हो सकता।


सुतरां, उस उपलब्धि तक पहुँचने का मार्ग अर्जुन को अब बता दिया गया है। और,जहाँ तक महान् स्वतःप्रत्यक्ष दिव्य तत्त्वों का संबंध है, वे व्यक्ति के मन को चक्कर में नहीं डालते। वह परम देवाधिदेव-सबंधी विचार, अक्षर आत्मा के अनुभव, अंतर्यामी ईश्वर के प्रत्यक्ष बोध तथा चेतन विश्व-पुरुष के संस्पर्श की ओर खुल सकता है। देवाधिदेव-विषयक विचार से एक बार मन के आलोकित होते ही, मनुष्य शीघ्रता के साथ मार्ग का अनुसरण कर सकता है सामान्य मानसिक बोधों को अतिक्रांत करने के लिये चाहे कोई भी प्रारंभिक कठिन प्रयत्न क्यों न करना पड़े, फिर भी अंत में वह इन मूल सत्यों का, जो हमारी सत्ता तथा समस्त सत्ता के पीछे अवस्थित हैं, स्वानुभाव प्राप्त कर सकता है। वह इसे शीघ्रता के साथ प्राप्त कर सकता है, क्योंकि ये, एक बार विचार में आ जाने पर, प्रत्यक्ष ही दिव्य सत्य होते हैं; हमारे मानसिक संस्कारों में ऐसी कोइ चीज नहीं जो ईश्वर को इन उच्च रूपों में स्वीकार करने से हमें रोकती हो। पर कठिनाई तो जीवन के प्रतीयमतान सत्यों में उसे देखने, प्रकृति के इस तथ्य में तथा जगत्-अभिव्यक्ति के इस प्रच्छन्नकारी दृश्य प्रपंच में उसे ढूंढ़ निकालने में पैदा होती है; क्योंकि यहाँ सब कुछ इस एकीकारक विचार की उच्चता के विपरीत है। भगवान् को मनुष्य, जीव-जंतु तथा जड़ पदार्थ के रूप में, उच्च नीच,सौम्य रौद्र तथा शुभ अशुभ में देखने के लिये हम कैसे सहमत हो सकते हैं?




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