कामनामय पुरुष

 



जिसे हम सामान्यतः जीव या आत्मा कहते हैं वह हमारे अंदर रहने वाला कामनामय पुरुष है जो प्रकृति के कार्यों पर पुरुषचैतन्य का प्रतिबिम्ब है। यथार्थ में यह स्वयं त्रिगुण का एक कर्म है और और इसलिये प्रकृति का ही अंग है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारे दो पुरुष हैं, एक प्रतीयमान पुरुष या कामनामय पुरुष जो गुणों के परिवर्तन के साथ बदलता है और सर्वथा उन गुणों से ही बना हुआ और उन्हीं के द्वारा नियंत्रित है, और दूसरा नित्यमुक्त सनातन पुरुष जो प्रकृति और उसके गुणों से कभी बद्ध नहीं होता। हमारी दो आत्माएं हैं, एक प्रतिभासिक आत्मा है जो केवल अहंकार है अर्थात् हमारे अदंर वह मनोगत केन्द्र जो प्रकृति की इस परिवर्तनशील क्रिया को, इस परिवर्तनशील व्यक्तित्व को अपने ऊपर ओढ़ लेता है और कहता है कि, ‘‘मैं यह व्यक्ति हूँ मैं इन सब कर्मों का कर्ता प्राकृत पुरुष हूं”,- परंतु प्राकृत सदात्मा है जो वास्तव में प्रकृति का भर्ता, भोक्ता, ईश्वर है; वह प्रकृति में रूपान्वित है पर स्वयं परिवर्तनशील प्राकृत व्यक्ति नहीं है। अतः मुक्त होने का मार्ग इस कामनामय पुरुष की कामनाओं तथा अहंकार के मिथ्या-आत्मबोध से मुक्त होना ही है, इसलिये भगवान् गुरु पुकार कर कहते हैं कि, ‘‘कामना और अहंता से मुक्त हो, विगतज्वर हो, युद्ध कर– निराशीर्निर्ममोभूत्वा हमारी सत्ता के विषय में यह मत सांख्य के उस विश्लेषण से शुरू होता है, जिसमें हमारे स्वभाव के द्विविध तत्त्व पुरुष और प्रकृति बताये गये हैं। पुरुष अकर्ता है, प्रकृति कर्त्री है। पुरुष वह सत्ता जो चैतन्य के प्रकाश से भरपूर है, प्रकृति जड़ है और अपने सब कर्म चिन्मय साक्षी पुरुष में प्रतिभासित करती है। प्रकृति के ये कर्म उसके गुणों की विषमता के द्वारा होते हैं और सदा एक-दूसरे से टकराते, एक-दूसरे में मिलते और एक-दूसरे में परिवर्तित होते रहते हैं। और प्रकृति की अहं-बुद्धि का कर्म पुरुष को इन कर्मों के साथ एकात्म करके आत्मा की प्रशांत सनातन सत्ता में कर्ता, विकारी, क्षणस्थायी व्यष्टि-पुरुष के होने की प्रतीति उत्पन्न करता है। अशुद्ध प्राकृत चेतना विशुद्ध आत्मचैतन्य को मेघाच्छादित कर देती है, मन अहंकार और व्यक्तित्व में ‘पुरुष’ को भूल जाता है। हम अपनी विवेक-बुद्धि को इन्द्रियश्रित मन और उसकी बहिर्मुखी क्रियाओं तथा प्राण शरीर की कामनाओं के साथ बह जाने देते हैं। जब तक पुरुष इस प्रकार की क्रिया को अनुमति देता है तब तक अहंकार और कामना तथा अज्ञान ही हमारी प्राकृत सत्ता का नियंत्रण करते हैं। परंतु यदि इतनी ही बात होती तो इसकी यही दवा है कि हम अनुमति देना बंद कर दें और इस तरह अपनी सारी प्रकृति को त्रिगुण की निश्चल साम्यावस्था में जा गिरने दें या गिरने के लिये बाधित करें और इस प्रकार सब कर्म समाप्त हो जायें। परंतु ठीक यही वह दवा है जिसका प्रयोग करने के लिये गीता हमें निरूत्साहित करती है, क्योंकि यद्यपि यह दवा तो है, पर है ऐसी जो रोग के साथ रोगी का भी खातमा कर देती है।


विशेषकर यदि यह सत्य अज्ञानियों पर लाद दिया जाये तो वे तामसिक अकर्मण्यता की ही शरण लेंगे, उनका ‘बुद्धिभेद’ होगा-उनकी बुद्धि में एक मिथ्या भेद, एक झूंठा विरोध उत्पन्न होगा; उनके सक्रिय स्वभाव और बुद्धि एक-दूसरे के विरोधी हो जायेंगे और फलस्वरूप व्यर्थ का विक्षोभ और संकर पैदा हो जायेगा, मिथ्या और आत्म-प्रतारक कर्म होने लगेंगे या फिर तामसिक जड़ता छा जायेगी, कर्मों का अंत हो जायेगा, जीवन और कर्म के पीछे जो संकल्प है वह क्षण हो जायेगा और इसलिये इस सत्य के द्वारा उन्हें मुक्ति तो नहीं मिलेगी, मिलेगी केवल गुणों में सबसे निकृष्ट तमोगुण की अधीनता। अथवा ये लोग कुछ न समझेंगे और इस उच्च शिक्षा में ही दोष निकालेंगे, इसके विरुद्ध अपने वर्तमान मानसिक अनुभव के पक्ष को तथा स्वतंत्र इच्छा संबंधी अपने अज्ञानमय विचार को ला खड़ा करेंगे।


फलतः अहंकार और काम के मोह तथा कष्टजाल में पड़े हुए ये अज्ञान का और भी जोरदार और हठी समर्थन करने लगेंगे और अपनी मुक्ति का अवसर खो देगें। वास्तव में ये उच्चतर सत्य चेतना और सत्ता के उच्चतर और विशालतर स्तर पर ही सहायक हो सकते हैं, क्योंकि ये वहीं अनुभवगम्य और जीवनसाध्य हो सकते हैं। ऊपर के इन सत्यों को नीचे से देखना इन्हें गलत देखना, गलत समझाना और शायद इनका दुरुपयोग करना है। मानव-जीवन, पशुभाव और दिव्य भाव के बीच की संक्रमण अवस्था है और यह एक उच्चतर सत्य है कि शुभ और अशुभ का भेद अहंभावापन्न मानव-जीवन के लिये एक व्यावहारिक तथ्य और प्रामाणिक धर्म है, पर इससे ऊपर की भूमिका में हम शुभ-अशुभ के ऊपर उठ जाते हैं और इन द्वन्द्वों की पहुँच के परे हो जाते हैं जैसे ईश्वर सदा इसके ऊपर रहता है।


परंतु यह सत्य निम्न चेतना में व्यावहारिक रूप से मान्य नहीं है, उस भूमिका से ऊपर उठे बिना ही जो अपरिपक्व मन इस सत्य को पकड़ने जायेगा वह इस सत्य को अपनी आसुरी प्रवृत्तियों को प्रश्रय देने के लिये, शुभ और अशुभ के भेद को सर्वथा अस्वीकार करने के लिये और भोगविलास के द्वारा विनाश के गहरे दलदल में जा गिरने के लिये सुविधाजनक एक बहाना बना लेगा-सर्वज्ञानविमूढ़ांस्तांविद्धि नष्टानचेतस:। यह बात प्रकृति के नियतिवाद के सत्य पर लागू होती है। लोग इसे भी गलत देखेंगे और इसका दुरुपयोग करेंगे जैसे वे लोग करते हैं जो कहते हैं कि मनुष्य वैसा ही है जैसा उसकी प्रकृति ने उसे बना रखा है, प्रकृति उसे जो कुछ करने के लिये विवश करती है उसके सिवाय वह और कुछ कर ही नहीं सकता।


एक अर्थ में यह बात सही है, पर उस अर्थ में नहीं जिसमें कही जाती है; इस अर्थ में नहीं कि अहमात्मक जीव जो कुछ करता है उसकी जिम्मेदारी उसपर न हो और वह उसके फल से बच जाये; क्योंकि अहमात्मक जीव का अपना संकल्प है, उसकी अपनी कामना है, और जब तक वह अपने संकल्प और कामना के अनुसार कर्म करता है, चाहे उसकी प्रकृति वैसे ही क्यों न हो, उसे अपने कर्म की प्रतिक्रियाओं को भोगना ही पड़ेगा। वह उस जाल में, यूं कहिये उस फंदे में जा फंसा है जो भले ही उसकी वर्तमान अनुभूति को, उसके मर्यादित आत्मज्ञान को दुर्बोध, युक्तिविरुद्ध, अनुचित और भयंकर मालूम हो, पर है यह फंदा उसकी अपनी ही पसंद का, यह जाल उसका अपना ही बुना हुआ है। गीता यह कहती अवश्य है कि ‘‘सब भूतप्राणी अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं, निग्रह करने से क्या होगा’’ और यदि हम अकेले इसी वचन को ले लें तो ऐसा दिखायी देगा मानों प्रकृति की सर्वशक्तिमत्ता का पुरुष पर असंभव रूप से संपूर्ण आधिपत्य है। ‘‘ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करता है।’’ और इसीकी बुनियाद पर गीता का यह आदेश है कि सचाई के साथ अपने कर्मों के अंदर अपने स्वधर्म का पालन करो, ‘‘अपना धर्म चाहे दोषयुक्त हो पर वह दूसरे के सुसंपादित धर्म से अच्छा है; स्वधर्म में मर जाना भला है, दूसरे के धर्म का पालन भयाभव है।’’


इस स्वधर्म का वास्तविक अर्थ जानने के लिये हमें तब तक ठहरना होगा जब तक गीता के पिछले अध्यायों में किये गये पुरुष, प्रकृति और गुणों के विस्तृत विवेचन तक न पहुँच जायें, किंतु निश्चय ही इसका यह अर्थ तो नहीं है कि जिसे हम प्रकृति कहते हैं उसकी जो कोई भी प्रेरणा हो, चाहे वह अशुभ ही क्यों न हो, उसका पालन करना होगा। कारण इन दो श्लोकों के बीच में गीता ने यह आदेश भी तो दिया है कि, ‘‘प्रत्येक इन्द्रिय के विषय के अदंर रागद्वेष छिपे हुए हैं, उनके वश में न आना, क्योंकि ये आत्मा के रास्ते में लुटेरे हैं।[4]और इसके बाद ही जब अर्जुन यह प्रश्न करता है कि प्रकृति का अनुसरण करने में जब कोई दोष नहीं है तो अपने अंदर की उस चीज को क्या कहें जो मनुष्य से, उसकी इच्छा और प्रयत्न के विरुद्ध, मानो बरबस पाप कराती है, तब भगवान् गुरु उत्तर देते हैं कि कामना और उसका साथी क्रोध-द्वितीय गुण, रजोगुण की संतान-ऐसा कराते हैं; और यह कामना आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है, इसे मार ही डालना होगा। गीता कहती है, पापकर्म का त्याग मुक्ति की पहली शर्त है और सर्वत्र गीता का यह आदेश है कि आत्मवशी और आत्मसंयमी बनो तथा मन, इन्द्रिय और संपूर्ण निम्न सत्ता को अपने वश में रखो।


इसलिये जब हमें यह भेद जान लेना होगा कि प्रकृति में वह कौंन-सी चीज है जो उसका असली स्वरूप, उसका अपना और अनिवार्य कार्य है जिसका दमन या निग्रह करना बिलकुल हितकारी नहीं और फिर वह कौंन-सी चीज है जो असली नहीं गौण है, जो प्रकृति का विक्षेप, विभ्रम और विकार है जिसे हम अपने वश में करना होगा; निग्रह और संयम में भी भेद है। निग्रह प्रकृति पर अपनी इच्छा तीक्ष्ण बल-प्रयोग है जिससे आगे चलकर जीव की स्वभाविक शक्तियां अवसाद को प्राप्त होती हैं, आत्मानमवसादयेत; और संयत उच्चतर आत्मा का निम्नतर आत्मा को संयमित करना है जिससे जीव की स्वभाविक शक्तियों को अपना स्वभावनियत कर्म और उसे करने का परम कौशल प्राप्त होता है, छठे अध्याय के उपोद्घात में संयम का यह स्वरूप बहुत ही स्पष्ट रूप में बताया गया है। ‘‘आत्मा से आत्मा का उद्धार करे, आत्मा को (भोगविलास या निग्रह के द्वारा) अवसत्र होकर नीचे न गिरने दे; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु। उस मनुष्य की आत्मा उसका मित्र है जिसकी (उच्चतर ) आत्मा के द्वारा (निम्नतर) आत्मा को जीत लिया गया है; परंतु जिस मनुष्य ने अपनी (उच्चतर ) आत्मा पर अधिकार नहीं किया है।


उसकी (निम्नतर ) आत्मा उसके लिये शत्रु जैसी है और वह शत्रुवत् आचरण करती है।’’ जब कोई अपनी आत्मा को जीत लेता है और पूर्ण आत्मजय और आत्मवत्ता की अविचल स्थिति को प्राप्त होता है तब उसकी परम आत्मा उसकी नीम आत्मा उसकी बाह्य सचेतन मानव-सत्ता में भी स्थिर-प्रतिष्ठित अर्थात् ‘समाहित‘ हो जाती है। दूसरे शब्दों में निम्नतर आत्मा को उच्चतर आत्मा से, प्राकृत आत्मा को आध्यात्मिक आत्मा के वश में करना ही मनुष्य ही सिद्धि और मुक्ति का मार्ग है। यहाँ प्रकृति के नियतिवाद की मर्यादा बांध दी गयी है, उसके क्षेत्र और अर्थ का सीमांकन किया गया है। यदि हम प्रकृति के सोपान में नीचे से ऊपर तक गुणों की क्रिया का निरीक्षण करें तो अधीनता से प्रभुत्व तक के संक्रमण को अच्छी तरह समझ सकेंगे। सबसे नीचे वे जीव हैं जिनमें तमोगुण का तत्त्व मुख्य है, ये वे प्राणी हैं जो अभी आत्मचैतन्य के प्रकाश तक नहीं पहुँचे और जो पूरी तरह प्रकृति के प्रवाह के द्वारा ही चालित होते हैं।


परमाणु के अंदर भी एक इच्छाशक्ति है, पर यह स्पष्ट हो दीख पड़ता है कि यह स्वाधीन इच्छाशक्ति नहीं है, क्योंकि यह इच्छाशक्ति यंत्रवत् है और परमाणु इस पर स्वत्व नहीं रखता, बल्कि खुद ही इसके अधिकार में होता है। बुद्धि, जो प्रकृति के अंदर बोध और संकल्प का तत्त्व है वह यहाँ वास्तव में स्पष्ट रूप से, जैसा कि सांख्य ने बताया है, जड़ है, यह अभी यांत्रिक, बल्कि अचेतन तत्त्व है, और इसमें सचेतन आत्मा के प्रकाश ने अभी तक ऊपरितल पर आने के लिये कोई प्रयास नहीं किया है। परमाणु अपने बुद्धितत्त्व से सचेतन नहीं है, वह उस तमोगुण के कब्जे में है जिसने रजोगुण का पकड़ रखा है, सत्त्वगुण को अपने अंदर छिपा रखा है और स्वयं अपने प्रभुत्व का महान् उत्सव मनाता है।




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