कर्म तत्व

 


भगवान कर्मों के तत्त्व को जानने की प्रेरणा करते हैं।


कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मण गतिः ।। 4.17 ।।


अर्थ- कर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये और अकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये तथा विकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है।


व्याख्या- ‘कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यम्’- करते हुए निर्लिप्त रहना ही कर्म के तत्त्व को जानना है, जिसका वर्णन आगे अठाहरवें श्लोक में ‘कर्मण्यकर्म यः पश्येत्’ पदों से किया गया है।


कर्म स्वरूप से एक दीखने पर भी अंतःकरण के भाव के अनुसार उसके तीन भेद हो जाते हैं- कर्म, अकर्म और विकर्म। सकामभाव से की गई शास्त्रविहित क्रिया ‘कर्म’ बन जाती है। फलेचछा, ममता और आसक्ति से रहित होकर केवल दूसरों के हित के लिये किया गया कर्म ‘अकर्म’ बन जाता है। विहित कर्म भी यदि दूसरे का हित करने अथवा उसे दुःख पहुँचाने के भाव से किया गया हो तो वह भी ‘विकर्म’ बन जाता है। निषिद्ध कर्म तो ‘विकर्म’ है ही।


‘अकर्मणश्च बोद्धव्यम्’- निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना ही अकर्म के तत्त्व को जानना है, जिसका वर्णन आगे अठारहवें श्लोक में ‘अकर्मणि च कर्म यः’ पदों से किया गया है।


‘'बोद्धव्यम् च विकर्मणः’- कामना से कर्म होते हैं। जब कामना अधिक बढ़ जाती है, तब विकर्म होते हैं।


दूसरे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक में भगवान ने बताया है कि अगर युद्ध जैसा हिंसायुक्त घोर कर्म भी शास्त्र की आज्ञा और समतापूर्वक किया जाय, तो उससे पाप नहीं लगता। तात्पर्य यह है कि समतापूर्वक कर्म करने से दीखने में विकर्म होता हुआ भी वह ‘अकर्म’ हो जाता है।


शास्त्र निषिद्ध कर्म का नाम ‘विकर्म’ है। विकर्म के होने में कामना ही हेतु है। अतः विकर्म का तत्त्व है- कामना; और विकर्म के तत्त्व को जानना है- विकर्म का स्वरूप से त्याग करना तथा उसके कारण कामना का त्याग करना।


‘गहना कर्मणो गतिः’- कौन सा कर्म मुक्त करने वाला और कौन सा कर्म बांधने वाला है- इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। कर्म क्या है, अकर्म क्या है और विकर्म क्या है- इसका यथार्थ तत्त्व जानने में बड़े-बड़े शास्त्रज्ञ विद्वान भी अपने आपको असमर्थ पाते हैं। अर्जुन भी इस तत्त्व को न जानने के कारण अपने युद्ध रूप कर्तव्य कर्म को घोर कर्म मान रहे हैं। अतः कर्म की गति[5] बहुत गहन है।


शंका- इस[6] श्लोक में भगवान ने ‘बोद्धव्यं च विकर्मणः’ पदों से यह कहा कि विकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये। परंतु उन्नीसवें तेईसवें श्लोक तक के प्रकरण में भगवान ने ‘विकर्म’ के विषय में कुछ कहा ही नहीं! फिर केवल इस श्लोक में ही विकर्म की बात क्यों कही?


समाधान- उन्नीसवें श्लोक से लेकर तेईसवें श्लोक तक के प्रकरण में भगवान ने मुख्य रूप से ‘कर्म में अकर्म’ की बात कही है, जिससे सब कर्म अकर्म हो जायँ अर्थात कर्म करते हुए भी बंधन न हो। विकर्म कर्म के बहुत पास पड़ता है; क्योंकि कर्मों में कामना ही विकर्म का मुख्य हेतु है। अतः कामना का त्याग करने के लिये तथा विकर्म को निकृष्ट बताने के लिये भगवान ने विकर्म का नाम लिया है।


जिस कामना से ‘कर्म’ होते हैं, उसी कामना के अधिक बढ़ने पर ‘विकर्म’ होने लगते हैं। परंतु कामना नष्ट होने पर सब कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं। इस प्रकरण का खास तात्पर्य ‘अकर्म’ को जानने में ही है, और ‘अकर्म’ होता है कामना का नाश होने पर। कामना का नाश होने पर विकर्म होता ही नहीं; अतः विकर्म के विवेचन की जरूरत ही नहीं। इसलिये इस प्रकरण में विकर्म की बात नहीं आयी है। दूसरी बात पापजनक और नरकों की प्राप्ति कराने वाला होने के कारण विकर्म सर्वथा त्याज्य है। इसलिये भी इसका विस्तार नहीं किया गया है। हां, विकर्म के मूल कारण ‘कामना’ का त्याग करने का भाव इस प्रकरण में मुख्य रूप से आया है; जैसे- ‘कामसंकल्पवर्जिताः’, ‘त्यक्त्त्वा कर्मफलासंगम्’[8], ‘निराशीः’, ‘समः सिद्धावसिद्धौ च’, ‘गतसंगस्य’, ‘यज्ञायाचरतः’।


इस प्रकरण विकर्म के मूल ‘कामना’ के त्याग का वर्णन करने के लिये ही इस श्लोक में विकर्म को जानने की बात कही गयी है।


कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । 

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ।। 18 ।।

 

अर्थ- जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, योगी है और संपूर्ण कर्म को करने वाला है। व्याख्या- ‘कर्मण्यकर्म यः पश्येत्’- कर्म में अकर्म देखने का तात्पर्य है- कर्म करते हुए अथवा न करते हुए उससे निर्लिप्त रहना अर्थात अपने लिये कोई भी प्रवृत्ति या निवृत्ति न करना। अमुक कर्म मैं करता हूँ, इस कर्म का अमुक फल मुझे मिले- ऐसा भाव रखकर कर्म करने से मनुष्य कर्मों से बँधता है। प्रत्येक कर्म का आरंभ और अंत होता है, इसलिये उसका फल भी आरंभ और अंत होने वाला होता है। परंतु जीव स्वयं नित्य-निरंतर रहता है। इस प्रकार यद्यपि जीव स्वयं परिवर्तनशील कर्म और उसके फल से सर्वथा संबंधत रहित है, फिर भी वह फल की इच्छा के कारण उनसे बँध जाता है। इसलिये चौदहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि मेरे को कर्म नहीं बाँधते; क्योंकि कर्मफल में मेरी स्पृहा नहीं है। फल की स्पृहा या इच्छा ही बाँधने वाली है- ‘फले सक्तो निबध्यते’। फल की इच्छा न रखने से नया राग उत्पन्न नहीं होता और दूसरों के हित के लिये कर्म करने से पुराना राग नष्ट हो जाता है। इस प्रकार राग रूप बंधन न रहने से साधक सर्वथा वीतराग हो जाता है। वीतराग होने से सब कर्म अकर्म हो जाते हैं। जीव का जन्म कर्मों के अनुबंध से होता है। जैसे, जिस परिवार में जन्म लिया है, उस परिवार के लोगों से ऋणानुबंध है अर्थात किसी का ऋण चुकाना है और किसी से ऋण वसूल करना है। कारण कि अनेक जन्म में अनेक लोगों से लिया है और अनेक लोगों को दिया है। यह लेन-देन का व्यवहार अनेक जन्मों से चला आ रहा है। इसको बंद किये बिना जन्म मरण से छुटकारा नहीं मिल सकता। इसको बंद करने का उपाय है- आगे से लेना बंद कर दें अर्थात अपने अधिकार का त्याग कर दें और हमारे पर जिनका अधिकार है, उनकी सेवा करनी आरंभ कर दें। इस प्रकार नया ऋण से नहीं और पुराना ऋण चुका दें, तो ऋणानुबंध समाप्त हो जायगा अर्थात जन्म-मरण बंद हो जायगा। जैसे, कोई दुकानदार अपनी दुकान उठाना चाहता है, तो वह दो काम करेगा- पहला, जिसको देना है, उसको दे देगा और दूसरा, जिससे लेना है वह ले लेगा अथवा छोड़ देगा। ऐसा करने से उसकी दुकान उठ जायगी। अगर वह यह विचार रखेगा कि जो लेना है, वह सब-का-सब ले लूँ, तो दुकान उठेगी नहीं। कारण कि जब तक वह लेने की इच्छा से वस्तुएँ देता रहेगा, तब तक दुकान चलती ही रहेगी, उठेगी नहीं। अपने लिये कुछ भी न करने और न चाहने से असंगता स्वतः प्राप्त हो जाती है। कारण कि करण[5] और उपकरण[6] संसार के हैं और संसार की सेवा में लगाने के लिये ही मिले हैं, अपने लिये नहीं। इसलिये संपूर्ण कर्तव्य-कर्म[7] केवल संसार के हित के लिये ही करने से कर्मों का प्रवाह संसार की ओर चला जाता है और साधक स्वयं असंग, निर्लिप्त रह जाता है। यही कर्म में अकर्म देखना है।

जब तक प्रकृति के साथ संबंध है, तब तक कर्म करना अथवा न करना- दोनों ही ‘कर्म’ हैं। इसलिये कर्म करने अथवा न करने- दोनों ही अवस्थाओं में कर्मयोगी को निर्लिप्त रहना चाहिये। कर्म करने में निर्लिप्त रहने का तात्पर्य है- कर्म करने से हमें अच्छा फल मिलेगा, हमें लाभ होगा, हमारी सिद्धि होगी, लोग हमें अच्छा मानेंगे, इस लोक में और परलोक में भोग मिलेंगे- इस प्रकार की किसी भी इच्छा का न होना। ऐसे ही कर्म न करने में निर्लिप्त रहने का तात्पर्य है- कर्मों का त्याग करने से हमें मान, आदर, भोग, शरीर को आराम आदि मिलेंगे- इस प्रकार की किञ्चिंमात्र भी इच्छा का न होना।


दुःख समझकर एवं शारीरिक क्लेश के भय से कर्म न करना राजस त्याग है और मोह, आलस्य, प्रमाद के कारण कर्म न करना तामस त्याग सर्वथा त्याज्य है। इसके सिवाय कर्म न करना यदि अपनी विलक्षण स्थिति के लिये है, समाधि का सुख भोगने के लिये है, जीवन्मुक्ति का आनंद लेने के लिये है तो त्याग से भी प्रकृति का संबंध विच्छेद नहीं होता। कारण कि जब तक कर्म न करने से संबंध है, तब तक प्रकृति से संबंध बना रहता है। प्रकृति से सर्वथा संबंध विच्छेद होने पर कर्मयोगी कर्म करने और न करने- इन दोनों अवस्थाओं में ज्यों-का त्यों निर्लिप्त रहता है।


‘अकर्मणि च कर्म यः’- अकर्म में कर्म देखने का तात्पर्य है- निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा न करना। भाव है कि कर्म करते समय अथवा न करते समय भी नित्य निरंतर निर्लिप्त रहे।


संसार में कोई कार्य करने के लिये प्रवृत्त होता है तो उसके सामने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों आती हैं। किसी कार्य में प्रवृत्ति होती है और किसी कार्य से निवृत्ति होती है। परंतु कर्मयोगी की प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों निर्लिप्ततापूर्वक और केवल संसार के हित के लिये होती है। प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों से ही उसका कोई प्रयोजन नहीं होता- ‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’। यदि प्रयोजन होता है तो वह कर्मयोगी नहीं है, प्रत्युत कर्मी है।


साधक जब तक प्रकृति से अपना संबंध मानता है, तब तक वह कर्म करने से अपनी सांसारिक उन्नति मानता है। परंतु वास्तव में प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों ही प्रवृत्ति हैं; क्योंकि दोनों में ही प्रकृति के साथ संबंध रहता है। जैसे चलना-फिरना, खाना-पीना आदि स्थूल-शरीर की क्रियाएँ हैं, ऐसे ही एकान्त में बैठे रहना, चिंतन करना, ध्यान लगाना सूक्ष्म-शरीर की क्रियाएँ और समाधि लगाना कारण-शरीर की क्रियाएँ हैं। इसलिये निर्लिप्त रहते हुए ही लोकसंग्रहार्थ कर्तव्य-कर्म करना है। यही अकर्म में कर्म है। इसी को दूसरे अध्याय के अड़तालीसवें श्लोक में ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ पदों से कहा गया है।


सांसारिक प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों ‘कर्म’ हैं। प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति करना- इस प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों में सर्वथा निर्लिप्त रहना ‘योग’ है। इसी को कर्मयोग कहते हैं।


शंका- कर्म करते हुए अथवा न करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना अथवा न करना- इन दोनों में ‘अकर्म’ अर्थात एक निर्लिप्तता ही मुख्य हुई; फिर भगवान ने कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म- ये दो बातें क्यों कहीं है?


कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म- इन दोनों में एक निर्लिप्तता सार होते हुए भी पहले में कर्म करते हुए अथवा न करते हुए- दोनों अवस्थाओं में रहने वाली निर्लिप्तता की मुख्यता है और दूसरे में निर्लिप्त रहते हुए कर्म करने अथवा न करने की मुख्यता है। तात्पर्य है कि निर्लिप्तता अपने लिये और कर्म संसार के लिये है; क्योंकि निर्लिप्तता का संबंध ‘स्व’ के साथ और कर्म करने अथवा न करने का संबंध ‘पर’ के साथ है। इसलिये निर्लिप्तता स्वधर्म और कर्म करना अथवा न करना परधर्म है। इन दोनों का विभाग सर्वथा अलग-अलग बताने के लिये ही भगवान ने उपर्युक्त दो बातें कही हैं।


कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म- ये दोनों बातें कर्मयोग की हैं, जिनका तात्पर्य यह है कि प्रकृति से तो सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाय अर्थात करने अथवा न करने से अपना कोई प्रयोजन न रहे और लोकसंग्रह के लिये कर्मों को करना अथवा न करना हो। कारण कि कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना रहते हुए भी दूसरों के हित के लिये कर्म करना- ये दोनों ही गीता के सिद्धांत हैं।


प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों प्रकृति के राज्य में ही हैं। प्रकृति निरंतर परिवर्तनशील है, इसलिये प्रवृत्ति का भी आरंभ और अंत होता है तथा निवृत्ति का भी आरंभ और अंत होता है। परंतु इनसे सर्वथा अतीत परमनिवृत्ततत्त्व- अपने स्वरूप का आदि और अंत नहीं होता। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति के आरंभ में भी रहता है और उसके अंत में भी रहता है तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति काल में भी ज्यों-का-त्यों रहता है। वह प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों का प्रकाशक और आधार है। इसलिये उसमें न प्रवृत्ति है और न निवृत्ति है- इस तत्त्व को समझने के लिये और उसमें स्थित होकर लोक-संग्रहार्थ कर्म करने के लिये यहाँ कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म- ये दो बातें कही गयी हैं।


‘स बुद्धिमान्मनुष्येषु’- जो पुरुष कर्म में कर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है अर्थात नित्य-निरंतर निर्लिप्त रहता है, वही वास्तव में कर्म-तत्त्व को जानने वाला है। जब तक वह निर्लिप्त नहीं हुआ है अर्थात कर्म और पदार्थ को अपना और अपने लिये मानता है, तब तक उसने कर्म तत्त्व को समझा ही नहीं है।


परमात्मा को जानने के लिये स्वयं को परमात्मा से अभिन्नता का अनुभव करना होता है और संसार को जानने के लिये स्वयं को संसार से सर्वथा भिन्नता का अनुभव करना होता है। कारण कि वास्तव में हम[9] परमात्मा से अभिन्न और संसार से भिन्न है। इसलिये कर्मों से अलग होकर अर्थात निर्लिप्त होकर ही कर्म तत्त्व को जान सकते हैं। कर्म आदि अंत वाले हैं और मैं नित्य रहने वाला हूँ; अतः मैं स्वरूप से कर्मों से अलग हूँ- इस वास्तविकता का अनुभव करना ही ‘जानना’ है। वास्तविकता की तहत में बैठे बिना जानना ही हो कैसे सकता है?


जैसे काजल की कोठरी में प्रवेश करके भी काजल से सर्वथा निर्लिप्त रहना साधारण बुद्धिमान का काम नहीं है, ऐसे ही संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को करते हुए भी कर्मों से सर्वथा निर्लिप्त रहना साधारण बुद्धिमान के वश का काम नहीं है। इसलिये भगवान ऐसे कर्मयोगी को मनुष्यों में बुद्धिमान कहते हैं। अठारहवें अध्याय के दसवें श्लोक में भी भगवान ने उसे ‘मेधावी’ कहा है।


अभी सत्रहवें श्लोक में भगवान ने कर्म, अकर्म और विकर्म- तीनों का तत्त्व समझने के लिये कहा था। यहाँ ‘मनुष्येषु बुद्धिमान्’ पद देकर भगवान मानो यह बताते हैं कि जिसने कर्म में अकर्म और अकर्म के तत्त्व को जान लिया है, उसने सब कुछ जान लिया है अर्थात वह ज्ञात-ज्ञातव्य हो गया है।


‘स युक्तः’- कर्मयोगी सिद्धि-असिद्धि में सम रहता है। कर्म का फल मिले या न मिले, उसमें कभी विषमता नहीं आती; क्योंकि उसने फलेच्छा का सर्वथा त्याग कर दिया है। समता का नाम योग है। वह नित्य-निरंतर समता में स्थित है, इसलिये वह योगी है।


प्राणिमात्र का परमात्मा से स्वतः सिद्ध नित्ययोग है। परंतु मनुष्य ने संसार से अपना संबंध मान लिया, इसी से वह उस नित्ययोग को भूल गया। तात्पर्य यह कि जड़ के साथ अपना संबंध मानना ही परमात्मा के साथ अपने नित्य संबंध को भूलना है। कर्मयोगी फलेच्छा, ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल दूसरों के लिये ही कर्तव्य कर्म करता है, जिससे उसका जड़ से माना हुआ संबंध टूट जाता है और उसे परमात्मा से स्वतः सिद्ध नित्य योग की अनुभूति हो जाती है। इसलिये उसे योगी कहा गया है।


‘युक्तः’ पद में यह भाव है कि उसने प्राप्त करने योग्य तत्त्व को प्राप्त कर लिया है अर्थात वह प्राप्त-प्राप्तव्य हो गया है।


‘कृत्स्नकर्मकृत्’- जब तक कुछ ‘पाना’ शेष रहता है, तब तक ‘करना’ शेष रहता ही है अर्थात जब तक कुछ-न-कुछ पाने की इच्छा रहती है, तब तक करने का राग नहीं मिटता।


नाशवान कर्मों से मिलने वाला फल भी नाशवान ही होता है। जब तक नाशवान् फल की इच्छा है, तब तक[1] करना समाप्त नहीं होता। परंतु जब नाशवान से सर्वथा संबंध छूटकर परमात्मप्राप्ति रूप अविनाशी फल की प्राप्ति हो जाती है, तब करना सदा के लिये समाप्त हो जाता है और कर्मयोगी का कर्म करने तथा न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता। ऐसा कर्मयोगी संपूर्ण कर्मों को करने वाला है अर्थात उसके लिये अब कुछ करना शेष नहीं है, वह कृतकृत्य हो गया है। करना, जानना और पाना शेष नहीं रहने से वह कर्मयोगी अशुभ संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।


यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।

ज्ञानिग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ।। 19 ।।


अर्थ- जिसके संपूर्ण कर्मों के आरंभ संकल्प और कामना से रहित हैं तथा जिसके संपूर्ण कर्म ज्ञानरूपी अग्नि से जल गये हैं, उसके ज्ञानिजन भी पंडित कहते हैं।


व्याख्या- ‘यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्प वर्जिताः’[2] विषयों का बार-बार चिंतन होने से, उनकी बार-बार याद आने से उन विषयों में ‘ये विषय अच्छे हैं, काम में आने वाले हैं, जीवन में उपयोगी हैं और सुख देने वाले हैं’- ऐसी सम्यग्बुद्धि का होना ‘संकल्प’ है और ‘ये विषय-पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं, हानिकारक हैं’- ऐसी बुद्धि का होना ‘विकल्प’ है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धि में होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है, तब ‘ये विषय-पदार्थ हमें मिलने चाहिये, ये हमारे होने चाहिये’- इस तरह अंतःकरण में उनको प्राप्त करने की जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम ‘काम’ है। कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष में संकल्प और कामना- दोनों ही नहीं रहते अर्थात उसमें न तो कामनाओं का कारण संकल्प रहता है और न संकल्पों का कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामना से रहित होते हैं।


संकल्प और कामना- ये दोनों कर्म के बीज हैं। संकल्प और कामना न रहने पर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात कर्म बाँधने वाले नहीं होते। सिद्ध महापुरुष में भी संकल्प और कामना न रहने से उसके द्वारा होने वाले कर्म बंधन कारक नहीं होते। उसके द्वारा लोकसंग्रहार्थ, कर्तव्यपरंपरासुरक्षार्थ संपूर्ण होते हुए भी वह उन कर्मों से स्वतः सर्वथा निर्लिप्त रहता है।


भगवान ने कहीं पर संकल्पों का कहीं पर कामनाओं का[5] और कहीं पर संकल्प तथा कामना दोनों का[6] त्याग बताया है। अतः जहाँ केवल संकल्पों का त्याग बताया गया है, वहाँ कामनाओं का और जहाँ केवल कामनाओं का त्याग बताया गया है, वहाँ संकल्पों का त्याग भी समझ लेना चाहिये; क्योंकि संकल्प कामनाओं का कारण है और कामना संकल्पों का कार्य है। तात्पर्य है कि साधक को संपूर्ण संकल्पों और कामनाओं का त्याग कर देना चाहिये। मोटर की चार अवस्थाएं होती हैं-

1. मोटर गैरेज में खड़ी रहने पर न इंजन चलता है और न पहिये चलते हैं।

2. मोटर चालू करने पर इंजन तो चलने लगता है, पर पहिये नहीं चलते।

3. मोटर को वहाँ से रवाना करने पर इंजन भी चलता है और पहिये भी चलते हैं।


4.निरापद ढलवाँ मार्ग आने पर इंजन को बंद कर देते हैं और पहिये चलते रहते हैं।

इसी प्रकार की मनुष्य की भी चार अवस्थाएँ होती हैं-

1. न कामना होती है और न कर्म होता है।

2. कामना होती है, पर कर्म नहीं होता।

3. कामना भी होती है और कर्म भी होता है।

4. कामना नहीं होती और कर्म होता है।


मोटर की सबसे उत्तम अवस्था यह है कि इंजन न चले और पहिये चलते रहें अर्थात तेल भी खर्च न हो और रास्ता भी तय हो जाय। इसी तरह मनुष्य की सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें। ऐसी अवस्था वाले मनुष्य को ज्ञानिजन भी पंडित कहते हैं।


‘समारम्भाः’ पद का यह भाव है कि कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष के द्वारा हरेक कर्म सुचारू रूप से, सांगोपांग और तत्परता पूर्वक होता है। दूसरा एक भाव यह भी है कि उसके कर्म शास्त्र सम्मत होते हैं। उसके द्वारा करने योग्य कर्म ही होते हैं। जिससे किसी का अहित होता हो, वह कर्म उससे कभी नहीं होता।


‘सर्वे’ पद का यह भाव है कि उसके द्वारा होने वाले सब-के-सब कर्म संकल्प सहित नहीं होता। प्रातः उठने से लेकर रात में सोने तक शौच-स्नान, खाना-पीना, पाठ-पूजा, जप-चिंतन, ध्यान-समाधि आदि शरीर निर्वाह संबंध संपूर्ण कर्म संकल्प और कामना से रहित ही होते हैं।


'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्’- कर्मों का संबंध ‘पर’ के साथ हैं, ‘स्व’ के साथ नहीं; क्योंकि कर्मों का आरंभ और अंत होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है- इस तत्त्व को ठीक-ठीक जानना ही ‘ज्ञान’ है। इस ज्ञानरूप अग्नि से संपूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात कर्मों में फल देने की[3] शक्ति नहीं रहती। वास्तव में शरीर और क्रिया- दोनों संसार से अभिन्न हैं; पर स्वयं सर्वथा भिन्न होता हुआ भी भूल से इनके साथ अपना संबंध मान लेता है। जब महापुरुष का अपने कहलाने वाले शरीर के साथ भी कोई संबंध नहीं रहता, तब जैसे संसार मात्र से सब कर्म होते हैं, ऐसे ही उसके कहलाने वाले शरीर से सब कर्म होते हैं। इस प्रकार कर्मों से निर्लिप्तता का अनुभव होने पर उस महापुरुष के वर्तमान कर्म ही नष्ट नहीं होते, प्रत्युत संचित कर्म भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध कर्म भी केवल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में उसके सामने आकर नष्ट हो जाते हैं; परंतु फल से असंग होने के कारण वह उनका भोक्ता नहीं बनता अर्थात किञ्चिन्मात्र भी सुखी या दुःखी नहीं होता। इसलिये प्रारब्ध कर्म भी अस्थायी परिस्थितिमात्र उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं। ‘तमाहुः पंडितं बुधाः’- जो कर्मों का स्वरूप से त्याग करके परमात्मा में लगा हुआ है, उस मनुष्य को समझना तो सुगम है, पर जो कर्मों से किञ्चिन्मात्र भी लिप्त हुए बिना तत्परतापूर्वक कर्म कर रहा है, उसे समझना कठिन है। संतों की वाणी में आया है- त्यागी शोभा जगत में करता है सब कोय । हरिया गृहस्थी संत का भेदी बिरला होय ।। तात्पर्य यह है कि संसार में त्यागी पुरुष की महिमा तो सब गाते हैं, पर गृहस्थ में रहकर सब कर्तव्य-कर्म करते हए भी जो निर्लिप्त रहता है, उस पुरुष को समझने वाला कोई बिरला ही होता है। जैसे कमल का पत्ता जल में ही उत्पन्न होकर और जल में रहते हे भी जल से लिप्त नहीं होता, ऐसे ही कर्मयोगी कर्मयोनि में ही उत्पन्न होकर और कर्ममय जगत में रहकर कर्म करते हुए भी कर्मों से लिप्त नहीं होता।[8]कर्मों से लिप्त न होना कोई साधारण बुद्धिमानी का काम नहीं है। पीछे के अठाहरहवें श्लोक में भगवान ने ऐसे कर्मयोगी को ‘मनुष्यों में बुद्धिमान’ कहा है और यहाँ कहा है कि उसे ज्ञानीजन भी पंडित अर्थात बुद्धिमन कहते हैं। भाव यह है कि ऐसा कर्मयोगी पंडितों का भी पंडित, ज्ञानियों का भी ज्ञानी है। 


गीता की विचारधारा का विकास एक ऐसे बिंदु पर पहुँच गया है जहाँ केवल एक हरी प्रश्न समाधान के लिये बाकी रह जाता है,-प्रश्न यह है कि हमारी यह प्रकृति, जो बद्ध और दोषपूर्ण है, केवल सिद्धांत-रूप में ही नहीं बल्कि अपनी सभी चेष्टाओं में, निम्नतर से उच्चतर सत्ता की ओर तथा अपने वर्तमान कर्म-विधान से शाश्वत धर्म की ओर अपना विकास किस प्रकार साधित कर सकती है। यह एक ऐसी समस्या है जो गीता-प्रतिपादन कुछ एक सिद्धांत में अंतर्निहित है, किंतु इसे उसकी अपेक्षा अधिक प्रधानता के साथ निरूपित करने तथा अधिक स्पष्ट रूप में अपनी बुद्धि के समक्ष रखने की जरूरत है। गीता मानसशास्त्र के उस ज्ञान को आधार बनाकर चली थी जो उस समय के विचारकों के लिये सुपरिचित था, और अपनी विचार- श्रृंखला में युक्ति के उन क्रमों को संक्षिप्त करना, बहुत-सी बातों को बिना सिद्ध किये मान लेना तथा उन अनेक बातों को बिना व्यक्त किये छोड़ देना उसके लिये भली-भाँति संभव था जिन्हें आज पूरे बल के साथ स्पष्ट करना तथा सुनिश्चित रूप में अपने सामने रखना हमारे लिये आवश्यक है। गीता की शिक्षा आरंभ से ही हमारे जागितिक कर्म के लिये एक नया स्त्रोत एवं नया स्वतर प्रस्तुत करने की ओर अर्गसर होती है; उसका आरंभ-बिंदु यही था और उसके उपसंहार का मूल प्रेरक भी यही है। वास्तव में उसका प्राथमिक उद्देश्य मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित करना नहीं बल्कि यह दिखलाना था कि आत्मा के मोक्ष-प्रयत्न के साथ कर्मों की संगति कैसे बैठती है तथा जब एक बार आध्यात्मिक स्वातंत्र्य प्राप्त हो जाता है तो स्वयं उसके साथ अविछिन्न जागतिक कर्म, मुक्तस्थ कर्म का मेल कैसे सधता है। प्रसंगवश, आध्यात्मिक मुक्ति और सिद्धि प्राप्त करने के लिये एक समन्वयात्मक योग या मनोवैज्ञानकि पद्धति का विकास किया जा चुका है और कुछ एक दार्शनिक सिद्धांत तथा हमारी सत्ता एवं प्रकृति के कई एक सत्य-विशेष, जिन पर इस योग की प्रामाणिकता अवलंबित है, प्रतिपादित किये जा चुके हैं। परंतु मूल लक्ष्य, मूल कठिनाई एवं समस्या शुरू से अब तक बराबर बनी हुई है। वह यह है कि अर्जुन, जो वचारों और भावों की प्रबल क्रांति के कारण कर्म के प्रचलित, स्वाभाविक एवं बौद्धिक आधारों तथा प्रतिमानों से व्युत हो चुका है, कर्मो का नया एवं संतोषजनक आध्यात्मिक मानदंड कैसे प्राप्त करे। 

वह मनुष्य की रूढ़िग्रस्त बुद्धि तथा प्रकृति के आंशिक सत्यों के अनुसार अब और कार्य नहीं कर सकता, अतः समस्या यह है कि कैसे वह आत्मा के सत्य में जीवन यापन करे और साथ ही कुरुक्षेत्र की रणभूति में अपना नियत कर्म भी संपन्न करे। निर्व्यक्तिक तथा विश्वमयी आत्मा की नीरवता में आंतरिक तौर पर स्थिर, अनासक्त और प्रशांत रहना और फिर भी क्रियाशील प्रकृति के कार्यों को शक्तिशाली रूप से संपन्न करना, और अधिक व्यापक रूप में, अपने अंतःस्थ सनातन के साथ एकमय होना तथा जगद्व्यापी सनातन की उस समस्त इच्छा को कार्यन्वित करना जो हमरी उन्नीत, मुक्त, विश्वात्मभाव से युक्त, भगवत्प्रकृति से एकीभूत वैयक्तिक प्रकृति की उदात्तीकृत शक्ति तथा दिव्य उच्चता के द्वारा प्रकट हो-यही है गीता का समाधान।


अब हम जरा यह देखें कि अर्जुन की कठिनाई और इंकार के मूल में जो समस्या है उसके दृष्टिकोण से तथा अत्यंत स्पष्ट और निश्चयात्मक शब्दों में इस समाधान का क्या अभिप्राय हैं एक मनुष्य तथा सामाजिक प्राणी के रूप में उसका कर्तव्य क्षत्रिय के उच्च धर्म का पालन करना है जिसके बिना पाप, अत्याचार और अन्याय के अराजकतापूर्ण बलात्कार के विरुद्ध समाज के ढ़ांचे की रक्षा नहीं की जा सकती, जाति के आदर्शों का औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता, सत्य और न्याय की सुसमंजस व्यवस्थ को धारण नहीं किया जा सकता। और फिर भी कर्तव्य का आहृान अपने-आप में युद्ध के नायक को अब पहले की तरह संतुष्ट नहीं कर सकता क्योंकि कुरुक्षेत्र की भीषण यथार्थता के बीच वह आह्वान अति कठोर, विमूढ़कारी और द्विविधापूर्ण रूप में उपस्थित होता है।


अपने सामाजिक कर्तव्य का पालन उसके लिये सहसा ही इस अर्थ का द्योतक हो गया है कि वह अपरिमित पाप तथा दुःख-कष्टरूपी परिणाम के लिये अपनी सहमति दे; सामाजिक व्यवस्था और न्याय की रक्षा का परंपरागत साधन उल्टे बड़ी भारी अव्यवस्था और संकट की ओर ले जाता प्रतीत होता है। न्यायसंगत दावे तथा स्वार्थ का नियम भी, जिसे हम न्याय अधिकार कहते हैं, वहाँ उसकी कोई सहायता नहीं करेगा; कारण, यद्यपि यह सही है कि जो राज्य उसे अपने लिये, अपने बधु-बांधवों तथा युद्ध में अपने पक्ष के लोगों के लिये जीतना है उस पर वास्तव में न्यायपूर्वक उन्हीं का अधिकार है तथा उस अधिकार की बलपूर्वक स्थापना करने का अर्थ आसुरी अत्याचार का उन्मूलन और न्याय का प्रतिष्ठापन करना है।


तथापि वह न्याय रक्त-रंजित होगा और वह राज्य एक ऐसा राज्य होगा जो शोकाकुल हृदय के साथ अधिकृत होगा तथा एक महापाप से, समाज की भयंकर हानि और जाति के प्रति ज्वलंत अपराध से कलंकित होगा। धर्म अर्थात नैतिक दावे का विधान भी उसकी द्विविधा का कोई अधिक अच्छा समाधान नहीं करेगा; क्योंकि यहाँ धर्मों का परस्पर-विरोध उसके सामने उपस्थित है। उसकी समस्या के समाधान के लिये आवश्यक है एक नये तथा महत्तर पर अद्यावधि कल्पनातीत विधान की, परंतु यह विधान क्या है?    क्योंकि एक संभव समाधान, जिसकी कल्पना करना सुगम है तथा जिसे क्रियान्वित करना भी सहज है, यह है कि वह अपने कर्म से मुंह मोड़ ले, साधुओं की-सी अकर्मण्यता की शरण ले ले तथा असंतोषकारक उपायों और उद्देश्यों से युक्त इस अपूर्ण जगत को आप ही अपनी सुध लेने के लिये अकेले छोड़ दे, पर यह तो जैसे-तैसे समस्या से पिंड छुड़ाना हुआ और भगवान गुरु ने ऐसा करने की आग्रहपूर्वक मनाही की है।


किंतु इस जगत के स्वामी, जो मनुष्य के सब कर्मों के स्वामी है, और जिनका यह जगत एक कर्मक्षेत्र है, मनुष्य से कर्म की मांग करते हैं, भले ही वह कर्म अहंभाव के द्वारा तथा सीमित मानव बुद्धि; के अज्ञान या आंशिक प्रकाश की स्थिति में किया जाये अथवा वह अंतर्दर्शन तथा प्रेरणा के एक अधिक उच्च तथा अधिक विशाल दृष्टि वाले स्तर से प्रेरित हो। और फिर, एक और प्रकाश का समाधान यह होगा कि युद्धरूपी इस विशेष कर्म को बुरा मानते हुए इसे त्याग दिया जाये जो कि अदूरदर्शी नैतिकता-प्रधान मन का बना-बनाया उपाय है, पर भगवान गुरु इस प्रकार की टाल-मटोल के लिये भी अपनी सहमति नहीं देते। यदि अर्जुन कर्म का परित्याग कर दे तो उससे पाप और बुराई में अत्यधिक वृद्धि ही होगी; यदि इसका कुछ परिणाम हुआ भी तो वह होगा अन्याय ओर अनाचार की विजय तथा भगवत्कर्म के यंत्र के रूप में उसके अपने महाव्रत का परित्याग। जाति की भवितव्यता में जो तीव्र संकट उत्पन्न गया है उसका कारण शक्तियों की कोई अंध गति या मानवीय विचारों, स्वार्थों, आवेगों तथा अहंकारों का अस्तव्यस्त संघर्ष मात्र नहीं बल्कि वह भगवदिच्छा है, जो इन बाह्म प्रतीतियों के पीछे कार्य कर रही हैं अर्जुन को इस सत्य का साक्षत्कार करा देना आवश्यक है।


उसे अपनी क्षुद्र व्यक्तिगत कामनाओं तथा दुर्बल मानवीय जुगुप्साओं के यंत्र के रूप में नहीं बल्कि एक अधिक विराट तथा अधिक ज्योतिर्मयी शक्ति एवं अधिक महत्तर सर्वज्ञ, दिव्य और विश्व संकल्प के यंत्र के रूप में, निर्व्यक्तिक तथा अचल-अटल भाव के साथ कर्म करना सीखना होगा। उसे अपनी आत्मा को अपने अंदर और बाहर विद्यमान ईश्वर के साथ परम-योगयुक्त करके, अपनी परम आत्मा तथा विश्व की अनुप्रेरक आत्मा के साथ एक अविचल योग के द्वारा युक्त होकर निर्वेयक्तिक और विश्वजनित भाव से कर्म करना होगा। परंतु जब तक मनुष्य अहंभाव के द्वारा, यहाँ तक कि बुद्धि और मानसिक प्रज्ञा के अर्द्ध-आलोकित अप्रबुद्ध सात्त्विक अहं के द्वारा नियंत्रित होता है तब तक इस सत्य को तब तक इस सत्य को ठीक रूप में नहीं देखा जा सकता और इस प्रकार का कर्म न तो सही रूप में आरंभ किया जा सकता है किया जा सकता है और न ही वह सच्चे अर्थों में ऐसा कर्म हो सकता है। क्योंकि यह आत्मा का सत्य है, यह आध्यात्मिक भित्ति पर से किया जाने वाला कर्म है।


बौद्धिक नहीं वरन् आध्यात्मिक ज्ञान ही इस प्रकार के कर्मों के लिये अनिवार्य रूप से अपेक्षित है, वही इसका एकमात्र संभवनीय प्रकाश, माध्यम तथा अभिप्रेरक है। इसलिये सर्वप्रथम भगवान गुरु यह दिखलाते हैं कि ये सब विचार और भाव जो अर्जुन को व्यथित, व्याकुल और वमिूढ़ कर रहे हैं, हर्ष और शोक, कामना और पाप, कर्म के बाह्म परिणामों के द्वारा कर्म को नियंत्रित करने की मन की प्रवृत्ति, इस जगत के साथ विश्वात्मा के व्यवहारों में जो चीजें भीषण और विकराल प्रतीत होती हैं उनसे मानुषी जुगुप्सा-ये सब प्राकृत अज्ञान के प्रति हमारी चेतना की अधीनता से उत्पन्न वस्तुऐं हैं, ये निम्नतर प्रकृति की कार्य-शैलियां हैं, जिनमें ग्रस्त होकर जीव अपने को एक पृथक अहं के रूप में देखता है, जो अपने ऊपर होने वाली वस्तुओं की क्रिया के प्रति सुख-दुःख, पाप-पुण्य,शुभ-अशुभ, इष्ट-अनिष्ट, सौभाग्य-दुर्भाग्य द्वंद्वात्मक प्रतिक्रियाएं करता हैं ये प्रतिक्रियाएं भ्रांति का एक विषम जाल बुनती हैं, जिसमें जीव अपने ही अज्ञान के कारण खो जाता तथा विभ्रांत हो जाता है; उसे उन आंशिक एवं अपूर्ण समाधानों के अनुसार अपना परिचालन करना होता है, जो सामान्य जीवन में साधरणतः लड़खड़ाते हुए, भूल-चूक और स्खलनों में से गुजरते हुए ही सहायता करते हैं, पर जब वे व्यापकतर दृष्टि तथा गंभीरतर अनुभूति की कसौटी पर कसे जाते हैं तो अनुपयोगी सिद्ध होते हैं।


कर्म और जीवन का वास्तविक अभिप्राय समझने के लिये मनुष्य को इन सब बाह्य प्रतीतियों से पीछे हटकर आत्मा के सत्य में प्रवेश करना होगा; यर्थात विश्व-ज्ञान का आधार उपलब्ध कर सकने से पहले उसे आत्म-ज्ञान का आधार स्थापित कर लेना होगा। सर्वप्रथम आवश्यक साधन है-कामना और आवेश तथा विक्षोभकारी भावावेग के, मानव मन की इस सब विक्षुब्ध तथा विकृतिकारी परिस्थिति के बोझ को आत्मा के पंखें पर से झाड़ फेंकना और इस प्रकार उसे इन सबसे मुक्त कर निर्विकार समता के आकाश में उड़ान लेना, निर्व्यक्तिक शांति के स्वर्ग में और वस्तु-विषयक अहंशून्य दृष्टि एवं अनुभूति में प्रवेश करना। क्योंकि, उस विशुद्ध ऊर्ध्वतर वायुमंडल में ही, आंधी-तूफान और बादल-बिजली से सर्वथा रहित स्तरों में ही आत्म-ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है और इस जगत का विधान तथा प्रकृति का सत्य भी व्यापक दृष्टि के साथ, अविचल, सर्वग्राही तथा सर्व-वेधक प्रकाश में स्थिरता पूर्वक देखा जा सकता है।


यह जो क्षुद्र व्यक्तित्व है यह जो प्रकृति का असहाय यंत्र है, उसकी एक निष्क्रिय या फिर व्यर्थ-प्रतिरोधशील कठपुतली है तथा उसके सृष्टि-चक्र में एक गठित रूप है-इसके पीछे एक निर्व्यक्तिक आत्मा है जो सबमें एक ही है तथा सभी चीजों को देखती और जानती है; एक सम, तटस्थ, विश्वव्यापी उपस्थिति है जो सृष्टि का आश्रय है, एक साक्षी चेतना है जो प्रकृति को वस्तुओं की उनके अपने स्वभाव के अनुसार अभिव्यक्त साधित करने के लिये अनुमति देती है, पर इसके लिये वह जिस क्रिया का सूत्रपात करती है उसमें न तो लिप्त होता है और न अपने को खो ही देती है।


अहंभाव तथा विक्षुब्ध व्यक्तित्व से पीछे हटकर इस स्थिर, सम, नित्य, विराट तथा निर्व्यक्तिक आत्मा में प्रवेश करना ही दृष्टि संपन्न यौगिक कर्म करने का प्रथम पग है; ऐसा कर्म उस भागवत सत्ता एवं निर्भांत संकल्प के साथ सचेतन एकत्व की अवस्था में किया जाता है, जो इस समय हमारे लिये कितना भी प्रच्छन्न क्यों न हो पर इस विश्व में प्रकट अवश्य होता है। जब हम निर्व्यक्तिक विशालता के धाम इस आत्मा में शांत भाव से सुस्थित हो जाते हैं तब, क्योंकि यह बृहत, शांत एवं निर्वेक्तिक है, हमारा दूसरा क्षुद्र मिथ्याभूत स्व, हमारा कर्मशील अहं इसकी बृहत्ता में विलीन हो जाता है और हम देखते हैं कि प्रकृति ही कार्य करती है हम नहीं, समस्त कर्म प्रकृति का ही कर्म है और इसके सिवा वह कुछ हो भी नहीं सकता। और यह चीज जिसे हम प्रकृति कहते हैं।


क्रियारत शाश्वत सत की विश्वव्यापी कार्यवाहिका शक्ति है; वह सत्ता स्व-सृष्ट प्राणियों की इस या उस श्रेणी में तथा श्रेणी-विशेष के प्रत्येक व्यष्टि में उसकी अपनी प्राकृत सत्ता के निज आदर्श, स्वभाव के अनुसार तथा उस स्वभाव से फलित होने वाले उसके अपने जिन व्यापार एवं कर्म-विधान, स्वधर्म के अनुसार ही कार्य करता है, उसके सिवा और किसी चीज के द्वारा वह कार्य कर भी नहीं सकता। अहंभाव, वैयक्तिक संकल्प और कामना विश्व-ऊर्जा के स्पष्ट-सचेतन रूपों तथा सीमित प्राकृत व्यापारों से अधिक कुछ नहीं है, पर स्वयं वह शक्ति रूपातीत और अनंत है तथा उन रूपों से अतीव परे है; बुद्धि और प्रज्ञा, मन, इन्द्रिय, प्राण और शरीर, वे सब चीजें जिन पर हम गर्व करते हैं या जिन्हें हम अपनी मानते हैं, प्रकृति के करणोपकरण हैं तथा उसी की रचनाएं हैं। परंतु निर्व्यक्तिक आत्मा कर्म नहीं करती और वह प्रकृति का भाग नहीं हैः वह पीछे तथा ऊपर से कर्म का निरीक्षण करती है तथा अपना ईश बनी रहती है, मुक्त और निर्विकार ज्ञाता एवं साक्षी बनी रहती है। जो जीव इस निर्व्यक्तिकता में निवास करता है वह हमारी इस प्रकृति को यंत्र बनाकर किये जाने वाले कार्यों से स्पृष्ट नहीं होता; वह उनके प्रति या उनके परिणामों के प्रति हर्ष-शोक, कामना-जुगुप्सा, राग-द्वेष के द्वारा या हमें आकृष्ट, विचलित तथा उद्वेलित करने वाले सैकड़ों द्वंद्वों में से किसी के भी द्वारा प्रतिक्रिया नहीं करता। वह सभी मनुष्यों, सभी वस्तुओं तथा सभी घटनाओं को सम दृष्टि से देखता है, प्रकृति के गुणों को गुणों पर क्रिया करते हुए देखता है, यात्रिक क्रिया के संपूर्ण रहस्य का दर्शन करता है, पर स्वयं इन गुणों और अवस्थाओं से परे है, शुद्ध और निरपेक्ष मूल सत्ता है, निर्विकार, मुक्त और शांत है। प्रकृति अपना कर्म निष्पन्न करती है और निर्व्यक्तिक तथा विश्वगत आत्मा प्रकृति को धारण करती है पर ग्रस्त तथा आसक्त नहीं होती; लिप्त, विक्षुब्ध तथा विमूढ़ नहीं होती। यदि हम इस सम आत्मा में निवास कर सकें तो हम भी शांति और निर्वृति लाभ कर लेंगे; जब तक प्रकृति की प्रेरणा हमारे करणों में डेरा डाले रहती है तब तक हमारे कर्म जारी रहते हैं, और फिर भी आध्यात्मिक मुक्ति एवं निस्तब्धता हमें प्राप्त रहती है। तथापि आत्मा और प्रकृति का यह द्वैत, अर्थात निःस्पंद पुरुष और सक्रिय प्रकृति ही हमारी सत्ता का संपूर्ण सारसर्वस्व नहीं है; सब पूछो तो, ये बस विषय के दो अंतिम शब्द नहीं है। 


यदि ऐसा हो तो या तो आत्मा सब कर्मों के प्रति सर्वथा उदासीन होगी और इस या उस कर्म का अनुष्ठान अथवा कर्म से विरति सदा-परिवर्तनशील गुणों की किसी अवश प्रवृत्ति के द्वारा निर्धारित होगी, या तो अर्जुन अपने करणों के किसी राजसिक आवेग के द्वारा युद्ध में प्रवृत्त होगा या वह तामसिक जड़ता या सात्त्विक उदासीनता के द्वारा उससे निवृत्त होगा, या फिर, यदि ऐसी बात है कि काम तो उसे करना ही होगा तथा करना भी इसी ढंग से होगा तो वह प्रकृति की किसी यांत्रिक नियति के कारण ही होगा। अपिच, क्योंकि जीव कर्म से पीछे हटने पर निर्व्यक्तिक निश्चल आत्मा में निवास करने लगेगा तथा क्रियाशील प्रकृति में निवास करना बिलकुल छोड़ देगा, इसका अंतिम परिणाम होगा निश्चलता, नैष्कर्म्य, निवृत्ति, निष्क्रियता, न कि गीता के द्वारा आदिष्ट कर्म। और, अंत में, यह द्वैत इस प्रश्न का कोई वास्तविक समाधान नहीं प्रस्तुत करता कि भला जीव को प्रकृति तथा उसके कर्म में मज्जित होने के लिये पुकार आती ही क्यों; क्योंकि यह तो नहीं हो सकता कि नित्य-निर्लिप्त आत्म-सचेतन एकमेव आत्मा स्वयमेव मज्जित हो जाये तथा अपना आत्म-ज्ञान गंवा दे और फिर उसे वह ज्ञान पुनः प्राप्त करना पड़े।


इसके विपरीत, यह शुद्ध आत्मा सदा विद्यमान रहती है, सदा एकरस रहती है, सदैव कर्म का एकमेव आत्म-सचेतन, निर्व्यक्तिक, पृथक-स्थित साक्षी या तटस्थ भर्ता बनी रहती है। यह छिद्र ही, यह असंभव शून्यता ही हमें दो पुरुषों या एक पुरुष या एक पुरुष की दो अवस्थओं की कल्पना करने के लिये विवश करती है, एक तो वह जो आत्मा के अंदर गुप्त रूप से विद्यमान है तथा अपनी स्वयंस्थित सत्ता से सब वस्तुओं का निरीक्षण करता है, या शायद किसी भी चीज का निरीक्षण नहीं करता, दूसरा वह जो अपने को प्रकृति के अंदर निक्षिप्त करता है तथा उसके कार्य में सहायता पहुँचाता है और उसकी रचनाओं के साथ अपने को तदाकार कर देता है। परंतु दो पुरुषों के द्वैत के द्वारा संशोधित किया हुआ आत्मा तथा प्रकृति या माया का यह द्वैत भी गीता का संपूर्ण दार्शनिक सिद्धांत नहीं है। यह इनसे परे एक उच्चतम पुरुष, पुरुषोत्तम के सर्व-आलिंगी परम एकतव तक पहुँचती है। गीता कहती है कि एक परम रहस्य है, एक उच्चतम सत्य है जो इन दो विभिन्न अभिव्यक्तियों के सत्य को धारण करता तथा समन्वित करता है।


एक परात्पर आत्मा, ईश्वर एवं ब्रह्म है जो निर्व्यक्तिक और सव्यक्तिक दोनों है पर इनमें से प्रत्येक से इतर और महत्तर है। वे पुरुष एवं आत्मा हैं, हमारी सत्ता की अंतरतम सत्ता हैं, पर साथ ही वे प्रकृति भी है; क्योंकि प्रकृति की शक्ति के द्वारा इन सब प्राणियों का रूप धारण करते हैं। वे परमात्मा और परब्रह्म ही अपनी विद्या की माया तथा अविद्या की माया के द्वारा विश्व-पुरुष ही अपनी प्रकृति के द्वारा इन सब प्राणियों का रूप धारण करते हैं। वे परमात्मा और परब्रह्म ही अपनी विद्या की माया तथा अविद्या की माया के द्वारा विश्व-रहस्य के द्विविध सत्य को अभिव्यक्त करते हैं।


वे परम ईश ही, अपनी शक्ति के वे स्वामी ही इस संपूर्ण प्रकृति का तथा इन असंख्य सत्ताओं के समस्त व्यक्तित्व, बल-सामर्थ्य एवं कार्यकलाप का सृजन, प्रेरणा और नियंत्रण करते हैं। प्रत्येक जीव इन स्वयं एकमेव की अंशभूत सत्ता है, इन सर्वात्मा की अंशभूत शाश्वत आत्मा है, इन परम ईश तथा इनकी विश्व-प्रकृति की आंशिक अभिव्यक्ति है। यहाँ सभी कुछ यह भगवान ही है, यह परमेश्वर एवं वासुदेव ही है; क्योंकि प्रकृति के द्वारा तथा प्रकृतिगत पुरुष के द्वारा वे ही सर्वभूत बनते हैं और प्रत्येक वस्तु उन्हीं से उद्भूत होती तथा उनके अंदर या उनके द्वारा स्थित रहती है, यद्यपि वे स्वयं किसी भी विशाल से विशाल अभिव्यक्ति, गभीर-से-गभीर अध्यात्म-सत्ता से एवं किसी भी विश्वमय रूप से अधिक महान हैं। यही सत्ता का संपूर्ण सत्य है और यही विश्व-कर्म का समस्त रहस्य है। हम देख चुके हैं कि गीता के पिछले अध्यायों से यही रहस्य अधिकाधिक प्रकट होता आ रहा है।


परंतु यह महत्तर सत्य आध्यात्मिक कर्म के सिद्धांत में कैसा परिवर्तन लाता है या यह उस पर कैसा प्रभाव डालता है? सर्वप्रथम, यह उसे एक मूल बात में ही परिवर्तित कर देता है, जिससे कि आत्मा, जीव और प्रकृति के संबंध का संपूर्ण अर्थ ही बदल जाता है, यह एक नयी दृष्टि खोल देता है, सत्य ज्ञान में जहां-जहाँ छिद्र थे उन्हें भर देता है, एक महत्तर विशालता प्राप्त कर लेता है, एक ऐसा सच्चा अर्थ धारण कर लेता है जो आध्यात्मिक दृष्टि से सुनिश्चित तथा निर्भ्रांत रूप में सर्वांगीण होता है। जगत के संबंध में तब और हमारी यह धारणा नहीं रहती कि यह प्रकृति का एक निरा यंत्रवत चलने वाला गुणात्मक व्यापार एवं निर्धारण है, जबकि इसके दूसरी ओर है।




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