अवतार

   



जिस योग में कर्म और ज्ञान एक हो जाते हैं, कर्मयज्ञ योग और ज्ञानयोग एक हो जाते हैं, जिस योग में कर्म की परिपूणर्ता ज्ञान में होती है और ज्ञान कर्म का पोषण करता है, उसका रूप बदल देता और उसे आलोकित कर देता है और फिर ज्ञान और कर्म दोनों ही उन परम भगवान् पुरुषोत्तम को समर्पित किये जाते हैं जो हमारे अंदर नारायण-रूप से सदा हमारे हृदयों में गुप्त भाव से विराजमान हैं, जो मानव-आकार में भी अतारूप से प्रकट होते हैं और दिव्य जन्म ग्रहण करके हमारी मानवता को अपने अधिकार में लेते हैं, उस योग का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण बातों-बातों में यह कह गये कि यही वह सनातन आदियोग है जो मैंने सूर्यदेव विवस्वान् को प्रदान किया और विवस्वान् ने जिसे मनुष्यों के जनक मनु को और मनु ने सूर्यवंश के आदिपुरुष इक्ष्वाकु को दिया और इस प्रकार यह योग एक राजर्षि से दूसरे राजर्षि को मिलता रहा और इसकी परंपरा चलती रही, फिर काल की गति में यह खो गया। भगवान अर्जुन से कहते हैं आज वही योग मैं तुझे दे रहा हूं, क्योंकि तू मेरा प्रेमी, भक्त, सखा और साथी है भगवान् ने इस योग को परम रहस्य कहकर इसे नये सब योगों से श्रेष्ठ बताया, क्योंकि अन्य योग या तो निर्गुण ब्रह्म को या सगुण साकार इष्टदेव ही प्राप्त कराने वाले, या निष्कर्मस्वरूप मोक्ष अथवा आनंदनिमग्न मुक्ति के ही दिलाने वाले हैं, किंतु यह योग परम रहस्य और संपूर्ण रहस्य को खोलकर दिखाने-वाला, दिव्य शक्ति और दिव्य कर्म को प्राप्त कराने वाला तथा पूर्ण स्वतंत्रता से युक्त दिव्य ज्ञान, कर्म और परमानंद को देने वाला है।


जैसे भगवान की परम सत्ता अपनी व्यक्त् सत्ता की सब परस्पर-विभिन्न और विरोधी शक्तियों और तत्त्वों का समन्वय कर उन्हें अपने अंदर एक कर लेती है वैसे ही इस योग में भी सब योगमार्ग मिलकर एक हो जाते हैं। इसलिये गीता का यह योग केवल कर्मयोग नहीं है जैसा कि कुछ लोगों का आग्रह है और जो इसे तीन मार्गों में से सबसे कनिष्ठ मार्ग बतलाते हैं, बल्कि यह परम योग है, पूर्ण समन्वयात्मक और अखंड है, जिसमें जीव के अंग-प्रत्यंगों की सारी शक्तियों भगवन्मुखी की जाती है। इस योग को विवस्वान आदि को दिये जाने की बात को अर्जुन ने अत्यंत स्थूल अर्थ में ग्रहण किया (इस बात को दूसरे अर्थ में भी लिया जा सकता है) और पूछा कि सूर्यदेव जो जीव-सृष्टि में अग्रजन्माओं में से एक हैं, जो सूर्यवंश के आदिपुरुष हैं उन्होंने मनुष्य रूप श्रीकृष्ण से, जो अभी-अभी जगत् में उत्पन्न हुए यह योग कैसे ग्रहण किया। इस प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण यह दे सकते थे कि संपूर्ण ज्ञान के मूलस्वरूप जो भगवान् हैं उस भगवद्रूप से मैंने यह उपदेश उन सविता को दिया था जो भगवान् के ही ज्ञान के व्यक्ति रूप और जो समस्त अंतब्राह्म दोनों ही प्रकाशों के देने वाले हैं-परंतु यह उत्तर उन्होंने नहीं दिया।


उन्होंने इस प्रश्न के प्रसंग से अपने छिपे हुए ईश्वर-रूप की वह बात कही जिसकी भूमिका वे तभी बांध चुके थे जब उन्होंने कर्म करते हुए भी कर्मों से न बधने के प्रसंग में अपना दिव्य दृष्टांत सामने रखा था। पर वहाँ उन्होंने इस बात को अच्छी तरह स्पष्ट नहीं किया था। अब वे अपने-आपको स्पष्ट शब्दों में अवतार घोषित करते हैं। भगवान् गुरु को चर्चा के प्रसंग में वेदांत की दृष्टि से अवतार-तत्त्व का प्रतिपादन संक्षेप में किया जा चुका है। गीता भी इस तत्त्व को वेदांत की ही दृष्टि से हमारे सामने रखती है। अब हम इस तत्त्व को जरा और अंदर बैठकर देखें और उस दिव्यजन्म के वास्तविक अभिप्राय को समझें जिसके बाह्म रूप को ही अवतार कहते हैं, क्योंकि गीता की शिक्षा में यह चीज एक ऐसी लड़ी है जिसके बिना इस शिक्षा की श्रृंखला पूरी नहीं होती। सबसे पहले हम श्रीगुरु के उन शब्दों का अनुवाद करके देखें जिनमें अवतार के स्वरूप और हेतु का संक्षेप में वर्णन किया गया है और उन श्लोकों को या वचनों को भी ध्यान में ले आवें जो उससे संबंध रखते हैं। “ हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके; मैं उन सबको जानता हूं, पर तू नहीं जानता। हे परंतप, मैं अपनी सत्ता यद्यपि अज और अविनाशी हूं, सब भूतों का स्वामी हूं, तो भी अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर आत्म-माया से जन्म लिया करता हूँ। जब-जब धर्म की ग्लीनि होती है और अधर्म का उत्थान, तब-तब मैं अपना सृजन करता हूँ साधु पुरुषों को उबारने और पापात्माओं को नष्ट करने और धर्म की संस्थापना करने के लिये मैं युग-युग में जन्म लिया करता हूँ। मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को जो कोई तत्त्वतः जानता है, वह इस शरीर को छोड़कर पुनर्जन्म को नहीं, बल्कि, हे अर्जुन, मुझको प्राप्त होता है। राग, भय और क्रोध से मुक्त, मेरे ही भाव में लीन, मेरा ही आश्रय लेने वाले, ज्ञानतप से पुनीत अनेकों पुरुष मेरे भाव को ( पुरुषोत्तम-भाव को) प्राप्त हुए हैं। जो जिस प्रकार मेरी ओर आते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार प्रेमपूर्वक ग्रहण करता हूँ। हे पार्थ, सब मनुष्य सब तरह से मेरे ही पथ का अनुसरण करते हैं।” गीता अपने कथन जारी रखते हुए बतलाती है कि बहुत से मनुष्य अपने कर्मों की सिद्धि चाहते हुए, देवताओं के अर्थात् एक परमेश्वर के विविध रूपों और व्यक्तित्वों के प्रीतयर्थ यज्ञ करते हैं, क्योंकि कर्मों से-ज्ञानरहित कर्मों से-होने वाली सिद्धि मानव-जगत् में सुगमता से प्राप्त होती है; वह केवल उसी जगत् की होती हैं। परंतु दूसरी सिद्धि, अर्थात् पुरुषोत्तम के प्रीत्यर्थ किये जाने वाले ज्ञानयुक्त यज्ञ के द्वारा मनुष्य की दिव्य आत्मपरिपूर्णता, उसकी अपेक्षा अधिक कठिनता से प्राप्त होती है; इस यज्ञ के फल सत्ता की उच्चतर भूमिका के होते हैं और जल्दी पकड़ में नहीं आते।


इसलिये मनुष्यों को अपने गुण-कर्म के अनुसार चतुर्विध धर्म का पालन करना पड़ता है और सांसारिक कर्म के इस क्षेत्र में वे भगवान् को उनके विविध गुणों में ही ढूंढते हैं। परंतु भगवान् कहते हैं कि यद्यपि मैं चतुर्विध कर्मों का कर्ता और चातुर्वण्य का स्पष्टता हूँ तो भी मुझे अकर्ता, अव्यय, अक्षर आत्मा भी जानना चाहिये। “ कर्म मुझे लिप्त नहीं करते, न कर्मफल की मुझे कोई स्पृहा है।” कारण भगवान् नैर्व्यक्तिक हैं और इस अहंभावापन्न व्यक्तित्व के तथा प्रकृति के गुणें के इस द्वंद्व के परे हैं, और अपने पुरुषोत्तम-स्वरूप में भी, जो उनका नैर्व्यक्तिक पुरुषभाव है, वे कर्म के अंदर रहते हुए भी अपनी इस परम स्वतंत्रता पर अधिकार रखते हैं। इसलिये दिव्य कर्मों के कर्ता को चातुर्वण्य का पालन करते हुए भी उसी को जानना और उसी में रहना होता है जो परे है, जो नैर्व्यक्तिक है और फलतः परमेश्वर है। भगवान कहते हैं “ इस प्रकार जो मुझे जानता है, वह अपने कर्मों से नहीं बंधता। यही जानकर मुमुक्ष लोगों ने पुराकाल में कर्म किया; इसलिये तू भी उसी पूर्वतर प्रकार के कर्म कर जेसे पूर्वपुरुषों ने किये थे।”


जिन श्लोंको का अनुवाद ऊपर दिया गया है, उनमें से पीछे के श्लोक, जिनका सारांश-मात्र दिया गया है, ‘दिव्य कर्म’ का स्वरूप बतलाने वाले हैं, और उसका निरूपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; और उनमें से पहले के श्लोक, जिनका संपूर्ण अनुवाद दिया गया है, वे ‘दिव्य जन’ अर्थात् अवतारतत्त्व का प्रतिपादन करने वाले हैं पर यहाँ हमें एक बात बड़ी सावधनी के साथ कह देनी है कि अवतार का अपना-जो मानव जाति के अंदर भगवान् का परम रहस्य है-केवल धर्म का संस्थापन करने के लिये ही नहीं होता। क्योंकि धर्मसंस्थापन स्वयं कोई इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान लक्ष्य नहीं है जिसके लिये ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े, धर्मसंस्थापन तो किसी और भी महान्, परतर और भागवत संकल्पसिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। कारण दिव्य जन्म के दो पहलू हैं; एक अवतरण, मानव भाँति में भगवान् का जन्मग्रहण, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान का प्राकट्य, यही सनातन अवतार है; दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्मग्रहण, भागवत प्रकृति और भागवत चैतन्य में उसका उत्थान-मद्भाव-मागताः, यह जीव का नवजन्म, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म का संस्थापन करना इसी नव-जनम के लिये होता है। अवतारविषयक गीता सिद्धांत के इस द्विविध पहलू की और उन लोगो का ध्यान नहीं जाता जो गीता को सरसरी तौर पर पढ़ जाते हैं और अधिकांश पाठक ऐसे ही होते हैं जो इस ग्रंथ की गंभीर शिक्षा की और न जाकर इसके ऊपरी अर्थ से ही संतुष्ट हो जाते हैं। और वे भाष्यकार भी, जो अपनी सांप्रदायिक चहारदीवारी के अंदर बंद रहते हैं, इसको नहीं देख पाते।


इसलिये अवतारतत्त्वसंबंधी गीता का जो सिद्धांत है उसके संपूर्ण अर्थ को समझाने के लिये अवतार के इस द्विविध पहलू को जान लेना आवश्यक है। इसके बिना अवतार की भावना केवल एक मतविशेष एक प्रचलित मूढ़ विश्वास रह जायेगी अथवा यह हो जायेगा कि ऐतिहासिक या पौराणिक अतिमानवों को कल्पना के जोर से या रहस्यमय तरीके से भगवान बना दिया जायेगा और यह भावना वह नहीं रह जायेगी जो गीता की शिक्षा है, जो गंभीर दार्शनिक और धार्मिक सत्य है और जो उत्तमं रहस्यमय को प्राप्त कराने का एक आवश्यक अंग या पदक्षेप है। यदि परमेश्वर-सत्ता में मनुष्य के आरोहण की सहायता करना मनुष्य-रूप में परमेश्वर के अवतीर्ण होने का प्रकृत हेतु न हो तो धर्म के लिये भगवान का अवतार लेना एक निरर्थक-सा व्यापार प्रतीत होगा; कारण धर्म, न्याय और सदाचार की रक्षा का कार्य तो भगवान की सर्वशक्तिमत्ता अपने सामान्य साधनों के द्वारा अर्थात् महापुरुषों और महान आंदोलनों के द्वारा तथा ऋषियों, राजाओं और धर्माचार्यों के द्वारा सदा कर ही सकती है, उसके लिये अवतार की कोई प्रकृत आवश्यकता नहीं। अवतार का आगमन मानव-प्रकृति में भागवत प्रकृति को प्रकटाने के लिये होता है, ईसा, कृष्ण और बुद्ध की भगवत्ता को प्रकटाने के लिये, जिससे मान-प्रकृति अपने सिद्धांत, विचार, अनुभव, कर्म और सत्ता को ईसा, कृष्ण और बुद्ध के सांचे में ढालकर स्वयं भागवत प्रकृति में रूपांतरित हो जाये। अवतार जो धर्म संस्थापित करते हैं उसका मुख्य हेतु भी यही होता है; ईसा, बुद्ध, कृष्ण इस धर्म के तोरणद्वार बनकर स्थित होते हैं और अपने अंदर से होकर ही वह मार्ग निर्माण करते हैं जिसका अनुवर्त्तन करना मनुष्यों का धर्म होता है। यही कारण है कि प्रत्येक अवतार मनुष्यों के सामने अपना ही दृष्टांत रखते और अपने-आपको ही एकमात्र मार्ग और तोरणद्वार घोषित करते हैं; अपनी मानवता को ईश्वर की सत्ता के साथ एक बतलाते और यह भी प्रकट करते हैं कि मैं जो मानव पुत्र हूँ वह और जिस उर्ध्वस्थित पिता से मैं अवतरित हुआ हूँ वह, दोनों एक ही हैं,-मनुष्य-शरीर में जो श्रीकृष्ण हैं। वे और परमेश्वर तथा सर्वभूतों के सृहृत जो श्रीकृण हैं वे, ये दोनों उन्हीं भगवान् पुरुषोत्तम के ही प्रकाश हैं, वहाँ वे अपनी ही सत्ता में प्रकट हैं, यहाँ मानव-आकार में प्रकट हैं। अवतार का दूसरा और वास्तविक उद्देश्य ही गीता के समग्र प्रतिपादन का मुख्य विषय है। यह बात उस श्लोक से ही, यदि उसका यथार्थ रूप से विचार किया जाये तो, प्रकट हैं। पर केवल उस एक श्लोक से ही नहीं-क्योंकि ऐसा करना गीता के श्लोकों का ठीक अर्थ लगाने का गलत रास्ता है-बल्कि अन्य श्लोकों के साथ उसका जो संबंध है उसका पूरा ध्यान रखते हुए और समग्र प्रतिपादन के साथ उसका मेल मिलाते हए विचार किया जाये तो यह बात और भी अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाती है। 


गीता का यह सिद्धांत कि सबमें एक ही आत्मा है, और प्रत्येक प्राणी के हृदेश मे भगवान् विराजमान हैं और साथ ही सृष्टिकर्ता प्रजापति और उनकी प्रजा, इन दोनों का जैसा परस्पर-संबध गीता बतलाती तथा विभूति-तत्त्व का प्रतिपादन जिस जोरदार आग्रह के साथ करती है, इन सभी बातों को ध्यान में रखना होगा और एक साथ विचारना होगा। भगवान् अपने निष्काम कर्म का उदाहरण देते हैं, जो मानव श्रीकृष्ण पर उतना ही घटता है जितना सर्वलोकमहेश्वर पर, उसकी भाषा को भी ध्यान में रखना होगा और नवें अध्याय के इस वचन को भी उसका प्राप्य स्थान देना होगा कि “मूढ़ लोग मानुषी तनु में आश्रित मुझे तिरस्कृत करते हैं क्योंकि वे मेरे सर्वलोकमहेश्वर परम भाव को नहीं जानते;” और इन विचारों को सामने रखकर तब इस वचन का अभिप्राय निकलना होगा जो इस समय हमारे सामने है कि उनके दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के ज्ञान द्वारा मनुष्य भगवान् के पास आता है और भगवन्मय होकर तथा उनका आश्रित होकर उनके भाव को प्राप्त होता है, तब हम दिव्य जन्म और उसके हेतु का यह तत्त्व समझ सकेंगे कि यह कोई सबसे न्यारी अचरजभरी विलक्षण-सी चीज नहीं है, बल्कि जगत्-प्राकट्य का जो संपूर्ण क्रम है उसमें इसका भी एक विशिष्ट स्थान है; इसके बिना हम अवतार के इस दिव्य रहस्य को समझ ही नही सकेंगे, बल्कि इसकी खिल्ली उड़ायेंगे या बिना समझे इसे मान लेंगे अथवा इसके बारे में आधुनिक मन के उन क्षुद्र और बाहरी विचारों में जा फंसेंगे जिनसे इसका जो आंतरिक और उपयोगी अर्थ है, वह नष्ट हो जायेगा। क्योंकि आधुनिक मन के लिये अवतार-तत्त्व तर्क बद्ध मानव-चेतना पर पूर्व की और से धरा-प्रभाह आने वाली विचारधराओं में किए विचार हैं और इसे स्वीकार करना या समझना सबसे कठिन है। यदि वह अवतारतत्त्व को उदार भाव से ले तो वह कहेगा कि वह मानव शक्ति का, स्वभाव का, प्रतिभा का, जगत् के लिये जगत् में किये गये किसी महान कर्म का एक प्रतीक मात्र है और यदि वह इसको अनुदार भाव से ग्रहण करे तो वह कहेगा कि यह एक कुसंस्कार या मूढ़-विश्वासमात्र है नास्तिक के लिये यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है और यूनानी के लिये मार्ग का रोड़ा। जड़वादी तो इस विचार को अपने ध्यान में भी नहीं ला सके, क्योंकि वे ईश्वर की सत्ता को ही नहीं मानते; युक्तिवादी या भागवत प्राकट्य को न मानने वाले ईश्वरवादी इसे मूर्खता और उपहास का विषय समझ सकते हैं; कट्टर द्वैतवादियों की दृष्टि में मानव-स्वभाव और देवस्वभाव के बीच का अंतर कभी मिट ही नहीं सकता, इसलिये उनकी दृष्टि में तो ऐसी बात कहना ईश्वर की निंदा ही है। 


युक्तिवादियों का पक्ष यह है कि ईश्वर यदि है तो विश्वातीत, विश्व के परे है, संसार के मामलों में वह दख़ल नहीं देता, बल्कि संसार का अनुशासन एक सुनिश्चित विधान के बने-बनाये यंत्र के द्वारा होने देता है-यथार्थ में वह विश्व से दूर रहने वाला कोई वैधानिक राजा-सा या कोई जढ़भरत-सा आध्यात्मिक राजा है, उसकी अधिक से-अधिक प्रशंसा यही हो सकती है कि वह प्रकृति के पीछे रहने वाला, सांख्यवर्णित साधारण और वस्तुनिरपेक्ष साक्षी पुरुष-सा अकर्ता आत्मतत्त्व है; वह विशुद्ध आत्मा है, वह शरीर धारण नहीं कर सकता; वह अपरिच्छिन्न अनंत है, मनुष्य की तरह सांत परिच्छिन्न नहीं हो सकता; वह अजन्मा सृष्टि करता है, संसार में जन्मा हुआ सृष्ट प्राणी नहीं हो सकता ये बातें उसकी निरपेक्ष शक्तिमत्ता के लिये भी असंभव हैं। कट्टर द्वैतवादी इन बातों में अपनी तरफ से इतनी बात और जोड़ देगा कि ईश्वर हैं पर उनका स्वरूप, उनका कर्म और स्वभाव मनुष्य से भिन्न और पृथक हैं; वे पूर्ण हैं और मनुष्य की अपूर्णता को अपने ऊपर नही ओढ़ सकते; अज अविनाशी साकार परमेश्वर मनुष्य नहीं बन सकते; सर्वलोकमहेश्वर प्रकृति से बंधे हुए मानवकर्म में और नाशवान मानव-शरीर में सीमाबद्ध नहीं हो सकते। 

ये आक्षेप जो पहली नजर में बड़े प्रबल मालूम होते हैं, गीता के वक्ता भगवान् गुरु की दृष्टि के सामने मौजूद रहे होगें जब वे कहते हैं कि, यद्यपि मैं अपनी आत्म-सत्ता में अज हूं, अव्ययय हूं, प्राणि-मात्र का ईश्वर हूं, फिर भी मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठान करके अपनी माया के द्वारा जन्म लिया करता हूं; और जब वे यह कहते हैं कि मूढ़ लोग मनुष्य-शरीर में होने के कारण मुझे तुच्छ गिनते हैं पर यथार्थ में अपनी परम सत्ता के अंदर मैं प्राणिमात्र का ईश्वर हूं, और यह कि मैं अपनी भागवत चेतना की क्रिया में चातुर्वण्य का स्रष्टा हूँ तथ जगत् के कर्मों का कर्ता हूँ और यह होते हुए भी अपनी भागवत चेतना की नीरवता में मैं अपनी प्रकृति के कर्मों का उदासीन साक्षी हूँ, क्योंकि मैं सदा कर्म और अकर्म दोनों के परे हूं, परम प्रभु हूं, पुरुषोत्तम हूँ। और इस तरह गीता अवतार-तत्त्व के विरुद्ध किये जाने वाले आक्षेपों का पूरा जवाब दे देती है और इन सब निरोधों का समन्वय करने में समर्थ होती है, क्योंकि ईश्वर और जगत् के संबंध में वेदांत-शास्त्र के सिद्धांत से गीता का आरंभ होता है। वेदांत की दृष्टि में ये आपातप्रबल आक्षेप प्रारंभ से ही निरस्सार और निरर्थक हैं। यद्यपि वेदांत की योजना के लिये अवतार की भावना अनिवार्य नहीं है, पर फिर भी यह भावना उसमें सर्वथा युक्तियुक्त और न्यायसंगत धारणा के रूप में सहज भाव से आ जाती है।


यहाँ जो कुछ है सब ईश्वर, आत्मा, एकमेवाद्वितीय ब्रह्म ही तो है और ऐेसी कोई चीज नहीं जो उससे भिन्न हो, कोई चीज हो ही नहीं सकती जो उससे इतर और भिन्न हो; प्रकृति भागवत चेतना की ही एक शक्ति हाने के अतिरिक्त न कुछ है न हो सकती है; सब प्राणी एक ही भागवत सत्ता के आंतर और बाह्य, अहं और इदं, जीवरूप और देहरूप के अतिरिक्त न कुछ हैं न हो सकते हैं, ये उसी भागवत चेतना की शक्ति से उत्पन्न होते और उसी में स्थित रहते हैं, अनंत ईश्वर के सांत भाव को धारण करने के बारे में सवाल ही नहीं उठता जबकि सारा जगत्त उस अनंत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस समग्र विशाल जगत् में, जहाँ हम रहते हैं, हम जिधर दृष्टि उठाकर देखें, चाहे जैसे देखें, उसीको देखेंगे, और किसी को नहीं। आत्मा का साकार न हो सकना अथवा अन्नमय या मनोमय रूप के साथ संबंध जोड़ने और परिच्छिन्न स्वभाव या शरीर धारण करने से घृणा करने से घृणा करना तो दूर रहा, यहाँ तो जो कुछ है वही, उसकी संबध से, उसी परिच्छिन्न स्वभाव और शरीर को धारण करने से ही इस जगत् का अस्तित्तव है।


जगत् का स्वतंत्र चलने वाला विधान-मात्र होना तो दूर रहा, जिसकी शक्तियों की गति में या जिसके मन-प्राण शरीर से हेने वाले कर्मों में हस्तक्षेप करने वाला कोई आत्मा या पुरुष नहीं है, है केवल कोई आदि तटस्थ आत्मत्व की सत्ता जो इस जगत् में नहीं, इसके बाहर या ऊपर कहीं निष्क्रिय रूप से रहती है, यह सारा जगत् और इसका प्रत्येक अणु ही कर्मरत भागवत शक्ति है और इसकी प्रत्येक गति का निर्धारण और नियमन उसी भागवत शक्ति के द्वारा होता है, इसके प्रत्येक रूप में उसीका निवास है, प्रत्येक जीव और उसका अंत: करण उसी का है; सब कुछ ईश्वर में है और उसीमें सब कुछ होता रहता है, सबमें वही है, वही कर्म करता और अपनी सत्ता दर्शाता है; प्रत्येक प्राणी छद्वेश में नारायण ही है। अजन्मा जन्म नहीं ले सकता यह बात तो दूर रही, यहाँ तो प्रत्येक जीव अपने व्यक्तित्व के अंदर रहते हुए भी वही अजन्मा आत्मा है, वही सनातन है जिसका न कोई आदि है न अंत। और अपने मूल अस्तित्व और अपनी विश्व-व्यापकता में सभी जीव वही है अजन्मा आत्मा है, जिसके आकार-ग्रहण और आकर-परिवर्तन का नाम ही जन्म और मृत्यु है। इस जगत् का सारा रहस्यमय व्यापार यही तो है कि अपूर्णता को पूर्ण कैसे धारण किये हुए हैं? पर यह अपूर्णता धारण किये गये मन और शरीर के रूप और कर्म में ही प्रकट होती है, यहाँ के बाह्म जगत् में ही रहती है; जो इसे धारण करता है, उसमें कोई अपूर्णता नहीं होती; जैसे सूर्य, जो सबको आलोकित करता है, उसमें प्रकाश या दर्शन-शक्ति की कोई कमी नहीं हेाती, कमी होती है व्यक्ति-विशेष की दर्शनेंद्रिय की क्षमता में।


फिर, यह भी नहीं है कि भगवान् बहुत दूर किसी स्वर्ग में विराजे इस जगत् पर राज करते हों, बल्कि उनका राज तो उनकी अपनी निगूढ़ सर्वव्यापकता से हुआ करता है; प्रत्येक परिच्छिन्न सांत गुणकर्म अपरिच्छिन्न अनंत शक्ति का ही एक कार्य है, किसी पृथक् परिच्छिन्न स्वयंभू क्रिया-शक्ति का नहीं जो अपने ही बल से कोई परिश्रम कर रही हो; मन-बुद्धि के संकल्प और ज्ञानी की प्रत्येक परिच्छिन्न क्रिया में हम अपरिच्छिन्न अखिल संकल्प और अखिल ज्ञान के किसी कर्म का आश्रय रूप से होना ढूंढकर देख सकते हैं, भगवान् का राज ऐसा राज नहीं है जहाँ का शासक अनुपस्थित रहता हो, विदेशी हो या बाहरी हो; वे इसलिये सबका शासन करते हैं कि वे सबका अतिक्रमण करते हैं, साथ ही इसलिये भी कि वे सब क्रियाओं मे स्वयं रहते हैं। और वे ही उन क्रियाओं के एकमात्र प्राण और आत्मा हैं। इसलिये अवतार की संभावना के विरुद्ध जो-जो आक्षेप हमारी तर्क-बुद्धि में आया करते हैं वे सिद्धांतः टिक नहीं सकते क्योंकि यह सब हमारे बौद्धिक तर्क द्वारा उपस्थित किया हुआ एक ऐसा व्यर्थ का विभेद है जिसे जगत् का सारा व्यापार और उसकी सारी वास्तविकता दोनों ही प्रतिक्षण खंडित और अप्रमाणित कर रहे हैं। परंतु अवतार की संभावना के प्रश्न को छोड़कर एक और प्रश्न है और वह यह है कि क्या भगवान् सचमुच इस प्रकार कर्म करते हैं, क्या सचमुच भागवत चेतना परदे से बाहर निकलकर इस सांत, मनोमय, अन्नमय, परिच्छिन्न, अपूर्ण बाह्य जगत् में सीधे कर्म करती है?


यह सांत बाह्य परिच्छिन्न रूप आखिर क्या है-यह अनंत के ही विभिन्न चिद्भावों के सामने अनंत की अपनी अभिव्यक्तियों का एक सुनिश्चित बाह्य रूप, उनका एक बाहरी मूल्य है; प्रत्येक सांत बाह्य रूप का वास्तवितक मूल्य तो यह है कि वह बाह्य प्रकृति के कर्मों और सांसारिक आत्म-अभिव्यक्त् में चाहे जैसा हो पर अपनी बाह्य आत्म-सत्ता में अनंत ही है। यदि हम अधिक गौर से देखें तो मनुष्य सर्वथा अकेला नहीं है, वह सर्वथा पृथक रहने वाला स्वतः स्थित व्यक्ति नहीं है, बल्कि किसी मतिविशेष और शरीर विशेष में स्वयं मानवजाति है; और स्वयं मानवजाति भी स्वतःस्थित सबसे पृथक जाति नहीं है, बल्कि भूमा विश्वपति ही मानवजाति के रूप में मूर्तिमान हैं; इस रूप में वे कतिपय संभावनाओं को क्रियान्वित करते हैं, आधुनिक भाषा में कहें तो अपनी अभिव्यक्ति की शक्तियों को प्रस्फुटित और विकसित करते हैं, पर जो कुछ विकसित होकर आता है वह स्वयं अनंत होता है, स्वयं आत्मा होता है।आत्मा से हमारा अभिप्राय है उस स्वयंभू सत्ता से जिसमें चेतना की अनंत शक्ति और अपार आनंद निहित हैं; आत्मा यही है और यदि यह न हो तो कुछ भी नहीं है अथवा कम-से-कम मनुष्य और जगत् के साथ उसका कुछ भी संबंध नहीं है और इसलिये मुनष्य और जगत् का उससे कोई संबंध नहीं है।


स्थूल द्रव्य, शरीर तो सचेतन सत्ता की शक्ति का ही पुंजीभूत कर्म है, चेतना की इन्द्रिय-शक्ति द्वारा क्रियान्वित होने वाले चेतना के परिर्तनशील संबंधों को काम में लाने के लिये साधन के तौर पर यह उपयोग में लाया जाता है। यथार्थ में स्थूल द्रव्य कहीं भी चेतना से ख़ाली नहीं है; क्योंकि एक-एक अणु और छिद्र-रंध्र में कोई संकल्पशक्ति, कोई बुद्धि कार्य कर रही है, यह बात अब आधुनिक सायंस को भी मजबूरन स्वीकार करनी पडी़ है। परंतु यह संकल्पशक्ति या बुद्धि उस आत्मा या ईश्वर की है जो इसके अंदर विद्यमान है, यह किसी जड़ छिद्र या अणु का अपना, अपने से ही उपजा हुआ पृथक संकल्प या विचार नही है। स्थूल में अंतर्लीन विराट् संकल्प और बुद्धि एक से एक रूपों में से होकर अपनी शक्तियों का विकास करते रहते हैं और अंत मे पृथ्वी पर मनुष्य के अंदर पहुँचकर पूर्ण भागवत शक्ति के ज्यादा से ज्यादा पास पहुँच जाते हैं और यहीं इनको, इनकी बहिर्गत और रूपगत बुद्धि में भी, पहले-पहले अपनी दिव्यता का कुछ-कुछ धुंधला-सा आभास मिलता है। परंतु यहाँ भी एक सीमा होती है, यह प्राकट्य भी अभी अपूर्ण है और इसलिये निम्नतर रूपों को भगवान् के साथ अपने तादात्म्य का ज्ञान नहीं हो पाता।


क्योंकि प्रत्येक सीमा में बाह्य जगत् की क्रिया की एक सीमा बधी होती है और उसके साथ-साथ उसकी बाह्य चेतना की भी एक सीमा लगी रहती है जो जीव के स्वभाव का निरूपण करती और एक-एक जीव के अंदर आंतरिक भेद उत्पन्न कर देती है। अवश्य ही भगवान् इस सबके पीछे रहकर कर्म करते हैं और इस बाह्य अपूर्ण चेतना और संकल्प के द्वारा अपनी विशेष अभिव्यक्तियों का नियमन करते हैं, किन्तु, जैसा कि वेद में कहा गया है, वे अपने-आपको गुहा में छिपाये रहते हैं। गीता इस बात को यूं कहती है कि “ईश्वर सब प्राणियों के हिद्देश में वास करते हैं और सबको माया से यंत्रारूढ़वत् चलाते रहते हैं।” हृदेश में छिपे हुए भगवान्, अहमात्मक प्राकृत चेतना के द्वारा जिस प्रकार कर्म करते हैं, वही जगत् के प्राणियों के साथ ईश्वर की कार्य-प्रणाली है। जब ऐसा ही है, तब हमें यह मानने की क्या अवश्यकता है कि, वे किसी रूप में, यानी प्राकृत चेतना में भी सामने आकार प्रकट होते और प्रत्यक्ष में अपने विरुद्ध चैतन्य के साथ कार्य करते हैं? इसका उत्तर यही है कि यदि भगवान् इस तरह आते हैं तो मनुष्य और अपने बीच के परदे को फाड़ने के लिये आते हैं जिस परदे को अपनी प्रकृति में सीमित मनुष्य उठा तक नहीं सकता। गीता कहती है कि जीव साधारणतया जो अपूर्ण रूप से कर्म करता है उसका कारण यह है कि वह प्रकृति की यांत्रिक क्रिया के वश में होता है और माया के रूपों से बंधा रहता है।


प्रकृति और माया भागवत चैतन्य की कार्यशक्ति के ही दो परस्पर-पूरक पहलू हैं। माया यथार्थ में भ्रम नहीं है-भ्रम का भाव या आभास केवल अपरा प्रकृति के अज्ञान से अर्थात् त्रिगुणात्मिका माया से उत्पन्न होता है-भागवत चैतन्य मे सत्ता की विविध आत्माभिव्यक्तियों को करने की शक्ति को माया कहते हैं, और प्रकृति उसी चैतन्य की वह कार्यशक्ति है जो भगवान् के प्रत्येक अभिव्यक्त रूप का उसके स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार, उसके गुणकर्म के अनुसार जगत्-अभिनय में परिचालन करती है। भगवान् कहते हैं कि, “मैं अपनी प्रकृति के ऊपर स्थित होकर, उस पर दबाव डालकर इन विविध प्राणियों को, जो प्रकृति के वश में अवश हैं, सिरजता हूँ।” जो लोग मानव शरीर में निवास करने वाले भगवान् को नहीं जानते, वे इस बात से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि वे सर्वथा प्रकृति की यांत्रिकता के वश में, उसके मनोमय बंधनों में अवश्य रूप से बंधे हुए और उन्हीं को मानकर चलने वाले हैं और उस आसुरी प्रकृति में वास करते हैं जो कामना से मन को मोहती और अहंकार से बुद्धि को भरमाती है, क्योंकि अंतःस्थित भगवान् पुरुषोत्तम हर एक के सामने सहसा प्रकट नहीं होते; वे अपने-आपको किसी घने काले मेघ के अंदर या किसी चमकदार रोशनी के बादल में छिपाये, अपनी योगमाया का आवरण ओढे़ रहते हैं, गीता बतलाती है कि “यह सारा जगत् प्रकृति के त्रिगुणमय भावों से विमोहित है और मुझे नहीं पहचानता; क्योंकि मेरी दैवी गुणमयी माया बड़ी दुस्तर है; वे ही इससे तरते हैं जो मेरी शरण में आते हैं; पर जो आसुरी प्रकृति का आश्रय लिये रहते हैं उनका ज्ञान माया हर लेती है।” ‘दूसरे शब्दों में, सबके अंदर भागवत चैतन्य निहित है, क्योंकि सबमें ही भगवान् निवास करते हैं; परंतु भगवान् का यह निवास उनकी माया से आवृत्त है और इस कारण इन प्राणियों का मूल आत्म-ज्ञान इनसे अपहृत हो जाता है और माया की क्रिया से, प्रकृति की यत्रंवत् क्रिया से, अहंकाररूप भ्रम में बदल जाता है। तथापि प्रकृति की इस यांत्रिकता से पीछे हटकर उसके आंतर और गुप्त स्वामी की और जाने से मनुष्य को अंतार्यामी भगवान् का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है। अब यह बात ध्यान में रखने की है कि गीता भगवान् के सामान्य प्राणिजन्म के कर्म और स्वयं अवताररूप से जन्म लेने के कर्म इन दोनों ही कर्मों का, शब्दों के सामान्य-से पर महत्त्वपूर्ण फेरफार के साथ, एक-सा वर्णन करती है। “अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इन प्रणियों को जो प्रकृति के वश में हैं उत्पन्न करता हूं, विसृजामि।”


प्रकृति और माया भागवत चैतन्य की कार्यशक्ति के ही दो परस्पर-पूरक पहलू हैं। माया यथार्थ में भ्रम नहीं है-भ्रम का भाव या आभास केवल अपरा प्रकृति के अज्ञान से अर्थात् त्रिगुणात्मिका माया से उत्पन्न होता है-भागवत चैतन्य मे सत्ता की विविध आत्माभिव्यक्तियों को करने की शक्ति को माया कहते हैं, और प्रकृति उसी चैतन्य की वह कार्यशक्ति है जो भगवान् के प्रत्येक अभिव्यक्त रूप का उसके स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार, उसके गुणकर्म के अनुसार जगत्-अभिनय में परिचालन करती है। भगवान् कहते हैं कि, “मैं अपनी प्रकृति के ऊपर स्थित होकर, उस पर दबाव डालकर इन विविध प्राणियों को, जो प्रकृति के वश में अवश हैं, सिरजता हूँ।”  जो लोग मानव शरीर में निवास करने वाले भगवान् को नहीं जानते, वे इस बात से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि वे सर्वथा प्रकृति की यांत्रिकता के वश में, उसके मनोमय बंधनों में अवश्य रूप से बंधे हुए और उन्हीं को मानकर चलने वाले हैं और उस आसुरी प्रकृति में वास करते हैं जो कामना से मन को मोहती और अहंकार से बुद्धि को भरमाती है, क्योंकि अंतःस्थित भगवान् पुरुषोत्तम हर एक के सामने सहसा प्रकट नहीं होते; वे अपने-आपको किसी घने काले मेघ के अंदर या किसी चमकदार रोशनी के बादल में छिपाये, अपनी योगमाया का आवरण ओढे़ रहते हैं, गीता बतलाती है कि “यह सारा जगत् प्रकृति के त्रिगुणमय भावों से विमोहित है और मुझे नहीं पहचानता; क्योंकि मेरी दैवी गुणमयी माया बड़ी दुस्तर है; वे ही इससे तरते हैं जो मेरी शरण में आते हैं; पर जो आसुरी प्रकृति का आश्रय लिये रहते हैं उनका ज्ञान माया हर लेती है।” ‘दूसरे शब्दों में, सबके अंदर भागवत चैतन्य निहित है, क्योंकि सबमें ही भगवान् निवास करते हैं; परंतु भगवान् का यह निवास उनकी माया से आवृत्त है और इस कारण इन प्राणियों का मूल आत्म-ज्ञान इनसे अपहृत हो जाता है और माया की क्रिया से, प्रकृति की यत्रंवत् क्रिया से, अहंकाररूप भ्रम में बदल जाता है। तथापि प्रकृति की इस यांत्रिकता से पीछे हटकर उसके आंतर और गुप्त स्वामी की और जाने से मनुष्य को अंतार्यामी भगवान् का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है। अब यह बात ध्यान में रखने की है कि गीता भगवान् के सामान्य प्राणिजन्म के कर्म और स्वयं अवताररूप से जन्म लेने के कर्म इन दोनों ही कर्मों का, शब्दों के सामान्य-से पर महत्त्वपूर्ण फेरफार के साथ, एक-सा वर्णन करती है। “अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इन प्रणियों को जो प्रकृति के वश में हैं उत्पन्न करता हूं, विसृजामि।”


यह आत्मा का स्वतः स्थित पुरुष रूप से जन्म के अंदर आना है, अपने भूतभाव को सचेतन रूप से नियंत्रित करना है, अज्ञान के बादल में अपने-आपको खो देना नहीं; यह पुरुष का प्रकृति के प्रभु-रूप से शरीर में जन्म लेना है यहाँ प्रभु अपनी प्रकृति के ऊपर खड़े स्वेच्छा से स्वच्छंदतापूर्वक उसके अंदर कार्य करते हैं, उसके आधीन होकर, बेबस, भवचक्ररूपी यंत्र में फंसे-भटकते नहीं रहते, क्योंकि उनका कर्म ज्ञानकृत होता है, सामान्य प्राणियों का सा अज्ञानकृत नहीं। यह सब प्राणियो के अंदर छिपे हुए अंतर्यामी अंतरात्मा का ही परदे की आड़ से बाहर निकल आना और मानव रूप में पर भगवान् की भाँति, उस जन्म को अधिकृत करना है, और जिसे वह सामान्यतः परदे की आड़ में ईश्वर रूप से अधिकृत किये रहता है, जबकि परदे के बाहर की जो बहिर्गत चेतना है वह अधिकारी होने की अपेक्षा स्वयं ही अधिकृत रहती है, क्योंकि वहाँ वह आंशिक सचेतन सत्ता-रूप से आत्मविस्मृत जीव है और प्रकृति के अधीन जो यह जगव्यापार है उसके द्वारा अपने कर्म में बंधा है। इसलिये अवतार का अर्थ है? भागवत पुरुष श्रीकृष्ण का पुरुष के दिव्य भाव को मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करना। 


भगवान् गुरु अर्जुन को जो मानव-आत्मा है, मानव-प्राणी का श्रेष्ठतम नमूना है, विभूति है, उसी दिव्य भाव में ऊपर उठने के लिये निमंत्रित करते हैं जिसमें वह तभी पहुँच सकता है जब अपनी सामान्य मानवता के अज्ञान और सीमा को पार कर ले। यह ऊपर से उसी तत्त्व का नीचे आकर अविर्भूत होना है जिसे हमें नीचे से ऊपर चढ़ा ले जाना है; यह मानव-सत्ता के उस दिव्य जन्म में भगवान् का अवतरण है जिसमें हम मर्त्य प्राणियों को आरोहण करना है; यह मानव-प्राणी के सम्मुख, मनुष्य के ही आकार और प्रकार के अंदर तथा मानव जीवन के सिद्ध आदर्श नमूने के अंदर, भगवान् का एक आकर्षक दिव्य उदाहरण है।


हम देखते हैं कि मनुष्य में परमेश्वर का अवतरण अर्थात् परमेश्वर का मानव-रूप और मानव-स्वभाव-धारण एक ऐसा रहस्य है जो गीता की दृष्टि में स्वयं मानव-जन्म के चिरंतन रहस्य का एक दूसरा पहलू है; क्योंकि मानव-जन्म मूलतः, बाह्यतः न सही, ऐसा ही आश्चर्यमय व्यापार है प्रत्येक मनुष्य का सनातन और विराट् आत्मा स्वयं परमेश्वर है; उसका व्यष्टिभूत आत्मा भी परमेश्वर का ही अंश है, जो निश्चय ही परमेश्वर से कटकर अलग हुआ कोई टुकडा़ नहीं- कारण परमेश्वर के संबंध में कोई ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती कि वे छोटे-छोटे टुकडों में बंटे हुए हों,-बल्कि वह एक ही चैतन्य का आंशिक चैतन्य है, एक ही शक्ति का शकत्यंश है, सत्ता के आनंद के द्वारा जगत्-सत्ता का आंशिक आनंद-उपभोग है, और इसलिये व्यक्त रूप में या यह कहिये कि प्रकृति में यह जीव उसी एक अनंत अपरिच्छिन्न पुरुष का एक सांत परिच्छिन्न भाव है, इस परिच्छिन्नता की जो छाप उस पर पड़ी है वह एक ऐसा अज्ञान है जिससे वह न केवल उन परमेश्वर को जिनसे वह आया, बल्कि उन परमेश्वर को भी भूल जाता है जो सदा उसके अंतर में विराजमान है, उसकी अपनी प्रकृति के गुह्य हृदेश मैं अवस्थित हैं उसके अपने मानव चैतन्य के देवालय के अन्तर्वेदी में समान प्रज्वलित है। मनुष्य उन्हें नहीं जानता, क्योंकि उसकी आत्मा की आंखों पर और उसकी समस्त इन्द्रियों पर उस प्रकृति की, उस माया की छाप लगी हुई है जिसके द्वारा वह परमेश्वर की सनातन सत्ता से बाहर निकालकर अभिव्यक्त किया गया है।


प्रकति ने उसे भागवत सत्त्व की अत्यंत मूल्यवान् धातु से सिक्के के रूप में ढाला है, पर उस पर अपने प्राकृत गुणों के मिश्रण का इतना गहरा लेप चढा़ दिया है, अपनी मुद्रा की और पाशविक मानवता के चिह्न की इतनी गहरी छाप लगा दी है कि यद्यपि भागवत भाग का गुप्त चिह्न वहाँ मौजूद है लेकिन वह आरंभ में दिखायी नहीं देता, उसका बोध होना सदा ही दुस्तर होता है, उसका पता चलता है तो केवल आत्म-स्वरूप के रहस्य की उस दीक्षा से जो बहिमुंख मानवता से ईश्वरभिमुख मानवता का पार्थक्य स्पष्ट दिखा देती है। अवतार में अर्थात् दिव्य-जन्मप्राप्त मनुष्य में वह भागवत सत्य लेप के रहते हुए भी भीतर से जगमगा उठता है; प्रकृति की मुहरछाप वहाँ केवल रूप के लिये होती है, अवतार की दृष्टि अंतःस्थित ईश्वर की दृष्टि होती है, उनकी जीवन-शक्ति अंतःस्थित ईश्वर की जीवन-शक्ति होती है, और वह धारण की हुई मानव-प्रकृति की मुहर छाप को भेद कर बाहर निकल पड़ती है ईश्वर का यह चिह्न, अंतरस्थ अंतरात्मा का यह चिह्न कोई बाह्म या भौतिक चिह्न न होने पर भी उनके लिये स्पष्ट बोधगम्य होता है जो उसे देखना चाहें या देख सकें; आसुरी प्रकृति अवश्य ही यह सब नहीं देख सकती, क्योंकि यह केवल शरीर को देखती है आत्मा को नहीं, वह बाह्य सत्ता को देखती है अंतःसत्ता को नहीं, वह परदे को देखती है उसके भीतर के पुरुष को नहीं।


सामान्य मानवजन्म में मानवरूप धारण करने वाले जगदात्मा जगदीश्वर का प्रकृति भाव ही मुख्य होता है; अवतार के मनुष्य-जन्म में उनका ईश्वर भाव प्रकट होता है। एक में ईश्वर मानव-प्रकृति को अपनी आंशिक सत्ता पर अधिकार और शासन करने देते हैं और दूसरे में वे अपनी अंशसत्ता और उसकी प्रकृति को अपने अधिकार में लेकर उस पर शासन करते हैं। गीता हमें बतलाती है कि साधारण मनुष्य जिस प्रकार विकास को प्राप्त होता हुआ या ऊपर उठता हुआ भागवत जन्म को प्राप्त होता है उसका नाम अवतार नहीं है, बल्कि भगवान् जब मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप में उतर आते हैं और मनुष्य के ढांचे को पहन लेते हैं, तब वह अवतार कहलाते हैं। परंतु अवतार लेने के लिये यह स्वीकृति या यह अवतरण मनुष्य के आरोहण या विकास को सहायता पहुँचाने के लिये ही होता है, इस बात को गीता ने बहुत स्पष्ट करके कहा है। कहा जा सकता है कि मानव-प्राणी के रूप में भगवान् के प्राकट्य की संभावना को दृष्टंतरूप से सामने रखने के लिये अवतार होता है कि ताकि मनुष्य देखे कि यह क्या चीज है और उसमें इस बात का साहस हो कि वह अपने जीवन को उसके जैसा बना सके। और यह इसलिये भी होता है पार्थिव प्रकृति की नसों में इस प्राकट्य का प्रभाव बहता रहे और उस प्राकट्य की आत्मा पार्थिव प्रकृति के ऊर्ध्वगामी प्रयास का नेतृत्व करती रहे।


यह जन्म मनुष्य को दिव्य मानवता का एक ऐसा आध्यात्मिक सांचा देने के लिये होता है जिसमें मनुष्य की जिज्ञासुं अंतरात्मा अपने-आपकों ढाल सके। यह जन्म एक धर्म देने के लिये-कोई संप्रदाय या मतविशेषमात्र नहीं, बल्कि आंतर और बाह्म जीवनयापन की प्रणाली-आत्म-संस्कारक मार्ग, नियम और विधान देने के लिये होता है जिसके द्वारा मनुष्य दिव्यता की और बढ़ सके। चूंकि मनुष्य का इस प्रकार आगे बढ़ना, इस प्रकार आरोहण करना मात्र पृथक और वैयक्तिक व्यापार नहीं है, बल्कि भगवान् के समस्त जगत्-कर्म की तरह एक सामूहिक व्यापार है, मानवमात्र के लिये किया गया कर्म है इसलिये अवतार का आना मानव-यात्रा की सहायता के लिये, महान् संकट-काल के समय मानवजाति को एक साथ रखने के लिये, अधोगामी शक्तियां जब बहुत अधिक बढ़ जाए तो उन्हें चूर्ण-विचूर्ण करने के लिये, मनुष्य के अंदर जो भगवन्मुखी महान् धर्म है उसकी स्थापना या रक्षा के लिये भगवान् के साम्राज्य की (फिर चाहे वह कितना ही दूर क्यों न हो) प्रतिष्ठा के लिये, प्रकाश और पूर्णता के साधकों, साधूनां, को विजय दिलाने के लिये और जो अशुभ और अंधकार को बनाये रखने के लिये युद्ध करते हैं उनके विनाश के लिये होता है।



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