दिव्य कर्म

 


शांत ब्रह्म को अपना लक्ष्य बनाओ तो संसार और उसके समस्त कर्मों का त्याग करना ही होगा; और उन ईश्वर, भगवान्, पुरुषोत्तम को अपना लक्ष्य बनाओ, जो कर्म के परे होने पर भी कर्म के आंतरिक अध्यात्मिक कारण और ध्येय तथा मूल संकल्प है, तो संसार अपने सारे कर्मों के साथ जीत लिया जाता और पुरुष अपने जगत् से परे दिव्य स्वरूप में स्थित होकर उस पर अधिकार रखता है। संसार तब कारगार नहीं रहता, बल्कि ‘समृद्ध राज्य‘ बन जाता है जिसे हमने दैत्यराट् अहंकार की सीमा का नाश कर, कामनारूपी जेलर के बंधन को काटकर और अपनी वैयक्तिक संपति और भोग के कैदखाने को तोड़कर, आध्यात्मिक जीवन के लिये जीता है। तब बंधनों से मुक्त विश्वात्मभूत अंतरात्मा ही स्वराट्-सम्राट हो जाती है।


इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि यज्ञ-कर्म मुक्ति और अपूर्ण संसिद्धि के साधन हैं “उस महान् प्राचीन योग के करने वाले जनक और अन्य बड़े-बड़े कर्मयोगी बिना किसी अहंता-ममता के सम और निष्काम कर्म को यज्ञ रूप से करके संसिद्धि को प्राप्त हुए”, उसी प्रकार और उसी निष्कामता के साथ, मुक्ति और संसिद्धि प्राप्त होने के पश्चात् भी हम विशाल भागवत भाव से तथा आध्यात्मिक प्रभुत्व से युक्त शांत प्रकृति से कर्म कर सकते हैं। जनता को एक साथ रोकने के लिये भी मुझे कर्म करना चाहिये, श्रेष्ठ पुरुष जो कुछ करते हैं उसी का इतर लोग अनुसरण् करते हैं; उन्हीं के निर्माण किये हुए प्रमाण को मानकर सर्वसाधारण लोग चलते हैं।


हे पार्थ, इस त्रिलोक में मेरे लिये कुछ भी ऐसा काम नहीं है जिसे करना मेरे लिये जरूरी हो, कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो और जिसे प्राप्त करना बाकी हो, फिर भी मैं कर्म करता ही हूँ ‘एव’ पद का फलितार्थ यह है कि मैं कर्म करता ही रहता हूँ और उन संन्यासियों की तरह कर्म को छोड़ नहीं देता जो यह समझते हैं कि कर्मों का त्याग तो हमें करना ही पड़ेगा। “यदि मैं कर्म-मार्ग में तंद्रारहित होकर लगा न रहूँ तो लोग-वे हर तरह से मेरे ही पीछे चलते हैं-मेरे कर्म न करने पर ध्वंस को प्राप्त हो जायेंगे और मैं संकर का कारण और इन प्राणियों का हंता बनूगां। जो जानते नहीं, वे कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं पर जो जानता है उसे लोक संग्रह का हेतु रखकर अनासक्त होकर कर्म करना चाहिये। कर्म में आसक्त रहने वाले अज्ञानियों का वह बुद्धिभेद न करे, बल्कि स्वयं ज्ञानयुक्त और योगस्थ होकर कर्म करके उन्हें सब कर्मों में लगावे।“


इन सांत श्लाकों से अधिक महत्त्वपूर्ण श्लोक गीता में कम ही हैं। परंतु हम इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि इन श्लोकों का आधुनिक व्यवहारवादी वृत्तिवालों की तरह अर्थ लगाने का प्रयास न करना चाहिये, क्योंकि वे किसी उच्च और दूरस्थ आध्यात्मिक संभावना की अपेक्षा जगत् की वर्तमान अवस्था से ही मतलब रखते हैं-और इन श्लोकों का उपयोग समाज-सेवा, देश-सेवा, जगत्-सेवा, मानव-सेवा, तथा आधुनिक बुद्धि को आकर्षित करने वाली सैकड़ो प्रकार की समाज-सुधार की योजनाओं और स्वप्नों का दार्शनिक और धार्मिक समर्थन करने में करते हैं। यहाँ इन श्लोकों में जिस विधान की घोषणा की गयी है वह किसी व्यापक नैतिक और बौद्धिक परोपकार-निष्ठा का नियम नहीं, बल्कि ईश्वर के साथ और जो ईश्वर में रहते तथा जिनमें ईश्वर रहता है उन प्राणियों के इस जगत् के साथ आध्यात्मिक एकता का विधान है। यह विधान व्यक्ति को समाज और मानव-जाति के अधीन बना देने या मानव-समष्टि की वेदी पर व्यक्ति के अहंकार की बलि देने का आदेश नहीं है, बल्कि ईश्वर में व्यक्ति को परिपूर्ण करने और अहंकार को सर्वग्राही भागवत सत्ता की एकमात्र सच्ची वेदी पर बलि चढ़ाने की आज्ञा है।


गीता भावनाओं और अनुभूतियों की एक ऐसी भूमिका पर विचरण करती है जो आधुनिक मन मन की भावनाओं और अनुभूतियों की भूमिका से ऊंची है। आधुनिक मन वस्तुतः अभी अहंकार के फंदों को काटने के लिये संघर्ष करने की अवस्था में है; परंतु अब भी उसकी दृष्टि लौकिक है और उसका भाव आध्यात्मिक नहीं, बौद्धिक और नैतिक है। देश-प्रेम, विश्वबंधुत्व, समाज-सेवा, समष्टि-सेवा, मानव-सेवा, मानव-जाति का आदर्श या धर्म, ये सब व्यष्टिगत, पारिवारिक सामाजिक और राष्ट्रीय अहंकारूपी पहली अवस्था से निकलकर दूसरी अवस्था में जाने के लिये सराहनीय साधन हैं, इस अवस्था में पहुँचकर व्यष्टि, जहाँ तक कि बौद्धिक, नैतिक और भावावेगमयी भूमिकाओं पर संभव है, यह अनुभव करता है कि मेरी अस्तित्व दूसरे सब प्राणियों के अस्तित्व के साथ एक है। यहाँ यह जान लेना चाहिये कि इन भूमिकाओं पर वह इस अनुभव को पूरे तौर पर और ठीक-ठीक तथा अपनी सत्ता के पूर्ण सत्य के अनुसार नहीं प्राप्त कर सकता। परंतु गीता के विचार इस दूसरी अवस्था के भी परे जाकर हमारी विकसनशील आत्म-चेतना की एक तीसरी अवस्था का दिग्दर्शन कराते हैं जिसमें पहुँचने के लिये दूसरी अवस्था केवल आंशिक प्रगति है। भारत का सामाजिक झुकाव व्यक्ति को समाज के दावों के अधीन रखने की और रहा है, किंतु भारत के धार्मिक चिंतन और आध्यात्मिक अनुसंधान का लक्ष्य सदा ही उदात्तरूप से वैयक्तिक रहा है।

गीता जैसा भरतीय दर्शनशास्त्र व्यक्ति के विकास को, उसकी उच्चतम आवश्यकता को, अपनी विशालतम आध्यात्मिक स्वतंत्रता, माहनता, गौरव और प्रभुत्व का विकास कर उन्हें उपयोग में लाने के दावे को और आध्यात्मिक अर्थ में जिसको दृष्टा और स्वराट् कहा जाता है वैसे प्रकाशमान दृष्टा और स्वराट्-पद में विकसित होने के लक्ष्य को सबसे पहला स्थान दिये बिना नहीं रह सकता और यही प्राचीन वैदिक ऋषियों की आदर्श मानवजाति के संबध में पहला महान् अधिकारपत्र था। व्यक्ति के लिये वैदिक ऋषियों का यही लक्ष्य था कि वह जो कुछ है उसके आगे बढ़े, अपने वैयक्तिक उद्देश्यों को किसी सुसंगठित मनुष्य-समाज के उद्देश्य में खोकर नहीं, बल्कि ईश्वर की चेतना में अपने-आपको फेला के, ऊचां करके और बढ़ाके। गीता यहाँ जिस नियम का विधान कर रही है वह नियम मानव-श्रेष्ट के लिये, अतिमानव के लिये, दिव्यकृत मानव सत्ता के लिये है। गीता का अतिमानव या मानवश्रेष्ठ एकांगी नहीं है, बेढंगा नहीं है, यह अतिमानवता नीत्शे की अतिमानवता नहीं है, यह अतिमानवता यूनानी ओलिमपस्[1] अपोलों[2] या डायोनीसियस[3] जैसी अथवा देवदूत और दैत्य के जैसी अतिमानवता नहीं है। गीता का अतिमानव वह मनुष्य है जिसका सारा व्यक्त्तिव एक मेवाद्धितीय परात्पर विश्वव्यापी भगवान् को सत्ता, प्रकृति और चेतना पर उत्सर्ग हो गया है और जिसने अपने क्षुद्र भाव को खोकर अपनी महत्तर आत्मा को, अपने दिव्य स्वरूप को पा लिया है। निम्नतर अपूर्ण प्रकृति से, त्रैगुण्यमयी माया से अपने-आपको ऊपर उठाना और भागवत् सत्ता, चेतना और प्रकृति के साथ[4] एक हो जाना, यही योग का लक्ष्य है।


परंतु जब यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, जब मनुष्य ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाता है और अपने-आपको तथा जगत् को मिथ्या अहंकर की दृष्टि से नहीं देखता, बल्कि प्राणिमात्र को आत्मा में, ईश्वर में देखता है और आत्मा को, ईश्वर को प्राणिमात्र में देखता है तब उसका कर्म कैसा होगा क्योंकि कर्म तो फिर भी रहेगा ही जो उसके ब्राह्मी स्थिति के ज्ञान से उद्भूत होता है, और फिर उसके कर्मों से विश्वगत या व्यक्तिगत हेतु क्या होगा? यही अर्जुन का प्रश्न[5] है, किंतु अर्जुन ने जिस दृष्टिबिन्दु से प्रश्न किया था उससे अलग ही दृष्टिबिंदु से उत्तर दिया गया। अब बौद्धिक, नैतिक, भावावेगमय स्तर की कोई वैयक्त्कि कामना उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो छोड़ी जा चुकी,-नैतिक हेतु भी छोड़ा जा चुका, क्योंकि मुक्त पुरुष पाप-पुण्य के भेद से ऊपर उठकर, उस महिमान्वित पवित्रता में रहता है जो शुभ और अशुभ के परे है। निष्काम कर्म के द्वारा पूर्ण आत्म-विकास करने के लिये आध्यात्मिक आवाहन भी अब उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि इस आवाहन का तो उत्तर मिल चुका, उसका आत्म-विकास सिद्ध और पूर्ण हो चुका।


तब उसके कर्मों का एकमात्र हेतु लोकसंग्रह ही हो सकता है, ये सब लोग जो किसी अतिदूरस्थति भागवत आदर्श की ओर जा रहे हैं, उन्हें एक साथ रखना होगा, उन्हें मोह में गिरने से, बुद्धि-भेद और बुद्धिभ्रंश में जा गिरने से बचाना हो; नहीं तो ये कर्तव्यविमूढ़ और नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगें-दुनिया जो अपने अज्ञान की अंधेरी रात या अंधेरे अर्धप्रकाश में आगे बढ़ती जा रही है उसे यदि श्रेष्ठ पुरुषों के ज्ञानलोक, बल, आचरण, उदाहरण और दृश्य मानक तथा अद्श्य प्रभाव के द्वारा एक साथ न रखा जायेगा, इसे वह रास्ता न दिखाया जायेगा जिसपर चलने में ही इसका कल्याण है तो वह विघटन और विनाश की और सहजरूप से प्रवत्ता होगी। श्रेष्ठ पुरुष अर्थात् वे व्यक्ति जो जनसमूह की सर्वसाधरण पंक्ति और सर्वसाधारण भूमिका से आगे बढे़ हुए हैं, वे ही मनुष्यजात के स्वभावसिद्ध नेता हैं, क्योंकि वे ही जाति को उसके चलने का रास्ता दिखा सकते हैं और वह पैमाना या आदर्श उसके सामने रख सकते हैं जिसके अनुसार वह अपना जीवन बनावे। परंतु देवमनुष्य की यह श्रेष्ठता ऐसी-वैसी नहीं है; इसका प्रभा, इसका उदाहरण इतना सामर्थ्यवान् होता है कि सामानयतः हम जिसे श्रेष्ठ कहते हैं उसमें वह प्रभाव या बल नहीं हो सकता। तब वह जिस उदाहरण को लोगों के सामने रखेगा, वह क्या होगा? वह किसी विधान या प्रमाण को मानकर चलेगा? अपने आशय को और भी अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिये भगवान् गुरु, अवतार, अपना ही उदाहरण? अपना ही मानक अर्जुन के सामने रखते हैं। वे कहते हैं, मैं कर्म मार्ग पर चलता हूं, उस मार्ग पर जिसका सब मनुष्य अनुसरण करते हैं; तुझे भी कर्म-मार्ग पर चलना होगा। जिस प्रकार मैं कर्म करता हूँ उसी प्रकार तुझे भी कर्म करना होगा। मैं कर्मों की आवश्यकता से परे हूँ क्योंकि मुझे उनसे कुछ नहीं पाना है; मैं भगवान हूँ किसी भी अर्थ की प्राप्ति के लिये मैं इस त्रिलोक में किसी भी पदार्थ या प्राणी का आश्रित नहीं हूं; तथापि मैं कर्म करता हॅूं। कर्म करने का यही तरीका और यही भाव मुझे भी ग्रहण करना होगा। मैं पवरमेश्वर ही नियम और मानक हूं; मैं ही वह मार्ग बनाता हूँ जिस पर लोग चलते हैं। मैं ही मार्ग हूँ और में ही गंतव्य स्थान। पर मैं यह सब उदार और व्यापक रूप से करता हूँ जिसका केवल अशं दिखायी देता है और उससे कहीं अधिक अद्ष्ठ रहता है; मनुष्य यथार्थ रूप से मेरे कर्म की रीति को नहीं जानते। जब तू जान और देख सकेगा, जब तू देवमनुष्य बनेगा तब तू ईश्वर की ही एक व्यष्टि-शक्त् हो जायेगा, मनुष्य के लिये मनुष्य-रूप में एक दिव्य दृष्टांत बन जायेगा, वैसी ही जैसे मैं अवतार-रूप में हूँ।


अधिकांश मनुष्य अज्ञान में रहते हैं, ईश्वर-दृष्टा ज्ञान में रहता है; पर उसे अपनी श्रेष्ठता के वश संसार के कर्मों का त्याग करके मनुष्यों के सामने ऐसा खतरनाक उदाहरण न रखना चाहिये जिससे उनमें बुद्धिभेद हो; कर्म के सूत को पूरा कात लेने से पहले उसे बीच में ही न काटना चाहिये। जिन मार्गों को मैंने बनाया है उनकी चढ़ती-उतरती अवस्थाओं और श्रेणियों में उलझने उन्हें यथार्थ न बनाना चाहिये। इस सारे मानव कर्म-क्षेत्र की व्यवस्था मेंने इसलिये की है कि मनुष्य अपरा प्रकृति से परा प्रकृति में पहुँच जाये और अपने बाह्म भागवत रूप से सचेतन भागवत स्वरूप को प्राप्त हो। ईश्वेता मानव-कर्मों के सारे क्षेत्र में विचरण करता रहेगा। उसकी सारी व्यकितगत और सामाजिक क्रिया, उसकी बुद्धि, हृदय और शरीर के सारे कर्म अब भी उसके होंगें, पर अपने पृथक व्यक्तित्व के लिये नहीं बल्कि संसार में स्थित उन ईश्वर के लिये जो सब प्राणियों में विराज रहे हैं, और इसलिये कि वे सब प्राणी, स्वयं उसकी तरह ही, कर्ममार्ग पर चलकर उन्नत हों और अपने अंदर भगवान् को खोज लें।


हो सकता है कि बाह्मतः उसके और अन्य मनुष्यों के कर्मों में कोई मौलिक अंतर न हो; युद्ध शासन, शिक्षादान, और ज्ञानचर्चा, मनुष्य के साथ मनुष्य के जितने विभिन्न प्रकार के आदान-प्रदान हो सकते हैं। वे सभी उसके हिस्से पड़ सकते हैं। पर जिस भाव से वह इन कर्मों को करेगा वह अंश भिन्न होगा और उसीका यह प्रभाव होगा कि लोग उसकी ऊंची स्थिति की और खिंचे चले आयेंगे, यह मानव समूह के आरोहण में एक बड़े उत्तोलक यंत्र का काम देगा। मुक्त मनुष्य के लिये भगवान् ने जो अपना दृष्टांत रखा वह गंभीर अर्थपूर्ण है; क्योंकि इस दृष्टांत से दिव्य कर्मों के बंधन में गीता का आधार संपूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। मुक्त पुरुष वही है जिसने अपने-आपको भगवत प्रकृति में उठा लिया है और उसी भागवत प्रकृति के अनुसार सब कर्म करता है। पर यह भागवत प्रकृति है क्या? वह पूरी तरह अपने-आपमें केवल अचल, अक्रता, नैर्व्यक्तिक, अक्षर, ब्रह्म की ही प्रकृति नहीं है; क्योंकि यह भाव मुक्त पुरुष को निष्क्रिय निश्चलता की और ले जायेगा। यह केवल विविध, व्यष्टिगत, प्रकृतिबद्ध क्षर पुरुष की प्रकृति भी नहीं है, क्योंकि ऐसा ही जो तो मुक्त पुरुष फिर से अपने व्यष्टितव के तथा अपरा प्रकृति और उसके गुणों के अधीन हो जायेगा। यह भागवत प्रकृति उन पुरुषोत्तम की प्रकृति है जो अक्षर भाव और क्षर भव दोनों को एक साथ धारण करते और अपनी परम दिव्यता के द्वारा एक भागवत सांमजस्य में इनका समन्वय करते हैं।


यही भगवतसत्ता का परम रहस्य है, प्रकृति से बंधे हुए लोग जिस व्यष्टिगत भाव से कर्म किया करते हैं उस अर्थ में भगवान् कर्मों के कर्ता नहीं हैं; क्योंकि भगवान् अपनी शक्ति, माया, प्रकृति के द्वारा कर्म करते हैं, फिर भी उससे ऊपर रहते हैं, उसमें फंसते नहीं, उसे अधीन नहीं होते, ऐसे नहीं है कि उसके बनाये हुए नियमों, कार्य प्रणालियों और कर्म-संस्कारों से ऊपर न उठ सकें और उन्हीं में आसक्त या बंधे रहें तथा हम लोगों की तरह मन-प्राण- शरीर की क्रियाओं से अपने-आपको अलग न कर सकें। वे कर्मों के ऐसे कर्ता हैं जिन्हें अकर्ता समझना चाहिये, भगवान् कहते हैं कि “चातुर्वण्य का कर्ता में हूँ पर मुझे अविनाशी अकर्ता जान। कर्म मुझे लिप्त नहीं करते, न कर्मफलों की मुझे कोई स्पृहा है।“ फिर भी भगवान् निष्क्रिीय, उदासीन और निर्बल साक्षिमात्र नहीं हैं; क्योंकि वे ही अपनी शक्ति के पदक्षेपों और मानदंडो में कर्म करते हैं; प्रकृति की प्रत्येक गति में, प्राणिजगत् के प्रत्येक अणु में उन्हीं की उपस्थिति व्याप्त है, उन्हीं की चेतना भरी हुई है, उन्हीं का संकल्प काम कर रहा है, उन्हीं का ज्ञान रूपान्वित कर रहा है। फिर वे ऐसे निर्गुण हैं जिनमें सब गुण हैं। उपनिषदें उन्हें निर्गुणो गुणी कहती हैं। वे प्रकृति के किसी गुण या कर्म से बधे नहीं हैं, न वे हमारे व्यक्तित्व की तरह प्रकृति के गुणधर्मों के समूहों से तथा मानसिक, नैतिक, भावावेगमय, प्राणमय और भौतिक सत्त्ता की लाचणिक क्रियाओं से बने हैं। वे तो समस्त धर्मों और गुणों के मूलों और किसी भी गुण या धर्म को अनिच्छा के अनुसार जब चाहें, जितना चाहें जिस प्रकार चाहें विकसित करने की क्षमता रखते हैं, वे वह अनंत सत्ता हैं जिसके वे सब भूतभाव हैं। वह सत्ता अपरिमेय राशि और असीम अनिर्वचनीय तत्त्व है जिसके ये सब परिमाण, संख्या और प्रतीक हैं और जिसको ये विश्व के मानदंड के अनुसार छंदोबद्ध और संख्याबद्ध करते हैं। फिर भी वे कोई नैर्व्यक्त्कि अनिदिंष्ट सत्ता ही नहीं हैं, न केवल ऐसी सचेतन सत्ता है जहाँ से समस्त निर्देश और व्यष्टिभाव अपना उपादान प्राप्त करते रहें, बल्कि वे परम सत्त्ता हैं, अद्वितीय मूल चिन्मय सत्य हैं, पूर्ण पुरुष हैं जिनके साथ अत्यंत स्थूल और घनिष्ठ सभी प्रकार के मानव-संबंध स्थपित किये जा सकते हैं; क्योंकि वे सुहृद सखा, प्रेमी, खेल के संगी, पथ के दिखाने वाले, गुरु, प्रभु, ज्ञानदाता, आनंददाता हैं और इन सब संबधों में रहते हुए भी इनसे अलिप्त, मुक्त और निरपेक्ष हैं देवनर भी, अपनी यथाप्राप्त सिद्धि के अनुसार व्यक्तिभाव में रहते हुए नैर्व्यक्तिक ही, सांसारिक जनों के साथ सब प्रकार के अत्यंत वैयक्त्कि और घनिष्ठ संबंध रखते हुए भी गुण या कर्म से सर्वथा अलिप्त, धर्म का बाह्मतः आचरण करते हुए उससे अनासक्त ही, रहता है।


न तो कर्मप्रधान मनुष्य की कर्मण्यता और न संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिामार्गी की कर्मविहीन ज्योती, न तो कर्मी मुनष्य का प्रचंड व्यक्तित्व और न तत्त्वज्ञानी ऋषि का उदासीन नैर्वक्तित्व, इनमें से कोई भी संपूर्ण भागवत आदर्श नहीं है। ये संसारीजनों के तथा संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिमार्गी के दो परस्पर-विरोधी सर्वथा भिन्न मानदंड हैं। इनमें से एक क्षर के कर्म में डूबे रहते हैं और दूसरे सर्वथा अक्षर की शंति में निवास करने का प्रयास करते हैं। परंतु समग्र भागवत आदर्श पुरुषोत्तम की प्रकृति की चीज है जो इस परस्पर-विरोधी के परे है और जिसमें सभी भागवत संभावनाओं का समन्वय होता है। कर्मी मनुष्य किसी ऐसे आदर्श से संतुष्ट नहीं होता जो इस विश्वप्रकृति की, इसकी इस त्रिगुणक्रीडा़ की, मन-बुद्धि-हृदय-शरीर के इस मानव-कर्म की परिपूर्णता पर अवलंबित न हो। वह कह सकता है कि इस कर्म की चरम परिपूर्णता ही मेरी समझ में मनुष्य की परम सिद्धि है, मनुष्य की भागवत संभावना से मैं जो कुछ समझता हूँ वह यही है; जिस आदर्श से मानव-प्राणी को संतोष हो सकता है वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो मनुष्य की बुद्धि को, उसके हृदय को, उसकी नैतिक सत्ता को संतुष्ट कर सके, वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो कर्मरत मानव-प्रकृति का है; .


वह कह सकता है कि मेरे सामने तो कोई ऐसी चीज होनी चाहिये जिसे मैं अपने मन, प्राण और शरीर की क्रिया में पा सकूंगा। क्योंकि यही उसकी प्रकृति और उसका धर्म है और जो बीज उसकी प्रकृति के बाहर की हो उसमें वह अपने-आपको कैसे परिपूर्ण कर सकता है? क्योंकि प्रत्येक जीवन अपनी प्रकृति से बंधा है और उसे अपनी सिद्धि को इस दायरे के अंदर ढूंढना होगा। हमारी मानव-प्रकृति के अनुसार ही हमारी मानव-सिद्धि हो सकती है और इसलिये प्रत्येक मनुष्य को उसके लिये अपने व्यष्टिधर्म अर्थात् स्वधर्म के अनुसार अपने जीवन और कर्म में यत्न करना चाहिये, जीवन और कर्म के बाहर नहीं इस बात को गीता यह उत्तर देती है कि हां, इसमें भी एक सत्य है; मनुष्य के अंदर ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति, जीवन में भगवान्, की लीला अवश्य ही आदर्श सिद्धि का एक अंग हैं परंतु यदि तुम उसे केवल बाहर ढूंढ़ो, जीवन में और कर्म के सिद्धांत में ही उसकी खोज करते रहो तो तुम उसे कभी नहीं पा सकते;-क्योंकि तब तुम केवल इतना ही नहीं करोगे कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करो, जो अपने-आपको सिद्धि का ही एक विधान है-बल्कि सदा उसके गुंणों के अधीन रहोगे (और यह असिद्धि का एक लक्षण है ) सदा राग-द्वेष और सुख-दुख के द्वंदों में धक्के खाते रहोगे, विशेषतः प्रकृति की उस राजसी प्रवृत्ति के वश हो जाओगे जो काम का चंचल सर्वग्रासी तत्त्व है और क्रोध, शोक और लालसा जिसके जाल हैं, जो कभी संतुष्ट न होने वाली आग है।


जिससे तुम्हारा सारा सांसारिक कर्म घिरा रहता है, जो ज्ञान का चिरशत्रु है जिससे हमारे स्वभाव के अंदर ज्ञान वैसे ही ढका रहता है, जैसे आग धुएं से या दर्पण धूल से। यदि तुम आत्मस्वरूप के शांत, स्वच्छ और प्रकाशमय सत्य में रहना चाहते हो तो इस काम को मार ही डालना होगा। इन्द्रियों, मन और बुद्धि अर्पूर्णता के इस अनादि कारण के अधिष्ठान हैं और इस पर भी तुम इनमें, निम्न प्रकृति की क्रीड़ा में ही सिद्धि की खोज करना चाहते हो यह प्रयास व्यर्थ है। तुम्हारी प्रकृति का जो कर्म-पार्श्व है उसे पहले निवृत्ति से ऊपर उठाकर उस प्रकृति में लाना होगा जो त्रिगुण के ऊपर है, जो परमत्तव में, आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित हैं जब तम्हें वह आत्मप्रसाद लाभ होगा तभी तुम मुक्त भागवत कर्म करने में समर्थ होंगे। इसके विपरीत शांतिप्रार्थी, वैरागी या संन्यासी किसी ऐसी सिद्धि की संभावना नहीं देखते जिसमें जीवन और कर्म का प्रवेश हो सके। वे कहते हैं क्या जीवन और कर्म ही अपूर्णता और बंधन के घर नहीं हैं? क्या अपूर्णता कर्म के साथ वैसे ही नहीं लगे रहती जैसे अग्नि के साथ धुंआ? क्या कर्म का धर्म कहीं रासिक नहीं है?


इस रजोगुण से ही तो कामना पैदा हाती है और इसका फल होता है ज्ञान को ढक देना, कामना तथा असफलता और विफलता के अंदर चक्कर काटते रहना, हर्ष और शोक में डोलते रहना, पुण्य और पाप के द्वंद्व में फंसे रहना। परमेश्वर संसार में हो सकते हैं, पर वे संसार के नहीं हैं, वे त्याग के ईश्वर हैं, हमारे कर्मों के प्रभु या कारण नहीं। हमारे कर्मों का स्वामी काम है और उनका कारण अज्ञान। यदि यह जगत्, यह क्षर सृष्टि किसी प्रकार भगवान की अभिव्यक्ति या लीला कही भी जाये तो यह यज्ञ मूढ़ प्रकति के साथ उनकी असिद्ध क्रीड़ा है, यह उनकी अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उनका ढकाव ही है। संसार की प्रकृति के प्रथम दर्शन में ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और जगत् के पूर्ण अनुभव से भी क्या इसी सत्य की शिक्षा नहीं मिलती? क्या यह अज्ञान का वह चक्र नहीं है जो जीव को कामना और कर्म की प्रेरणा के द्वार बार-बार जन्म लेने के लिये विश्वास करता है और क्या यह जन्म लेना तभी बंद न होगा जब अंत में इस प्रेरणा का क्षय हो जाये या फिर इसे त्याग दिया जाये? केवल कामना ही नहीं, किंतु कर्म भी छोड़ देना आवश्यक है, तभी तो निश्चल आत्मा में प्रतिष्ठित होकर जीव गतिहीन, कर्महीन, क्षोभहीन, केवल ब्रह्म में जा सकेगा। गीता ने संसारी मनुष्य की, कर्मी व्यक्ति की आपत्तियों की अपेक्षा निर्गुण्रह्मवादी, शांतिप्रार्थी की आपत्तियों का उत्तर देने पर ज्यादा ध्यान दिया है।


इसका कारण यह है कि निवृत्तिमार्ग एक उच्चतर और बलवत्तर सत्य का आश्रय लिए हैं-अवश्य ही यह सत्य भी अभी समग्र या परम सत्य नहीं है-और यदि इस धर्म को मनुष्य जीवन का विश्वव्यापी, पूर्ण और उच्चतम आदर्श कहकर फेलाया जाये तो इसका परिणाम मानवजाति के लक्ष्य की और आगे बढ़ने में कर्मवाद की मूल की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिभेद और अनिष्ट करने वाला हो सकता है। जब कोई भी बलवान् ऐकांगी सत्य पूर्ण सत्य के रूप में सामने रखा जाता है तो उसका प्रकाश बहुत तीव्र होता है, पर साथ ही उससे बहुत तीव्र संकर भी होता है; क्योंकि उसमें जो सत्यांश है उसकी तीव्रता ही उसके प्रमोद वाले अंश को बढ़ाने वाली होती है। कर्मवादियों के आदर्श में जो भूल है उससे केवल अज्ञान में पड़े रहने की अवधि लंबी हो जाती है और मानव-उन्नति का क्रम रुक जाता है, क्योंकि यह कर्मवाद् मनुष्यों को पूर्णता या सिद्धि का अनुसंधान करने के लिये ऐसे मार्ग में प्रवृत्त करता है जहाँ सिद्धि या पूर्णता है ही नहीं; परंतु निवृत्तिमार्ग के आदर्श में जो भूल है उसमें तो संसार के नाश का बीज है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि इस आदर्श को सामने रखकर मैं कर्म करूं तो मैं इन सब प्राणियों का खात्मा कर दूंगा और संसार का कर्ता बनूंगा।


यद्यापि किसी व्यष्टि-पुरुष की भाल से, चाहे वह देवतुल्य पुरुष ही क्यों न हो, सारी मानव जाति नष्ट नहीं हो सकती तथापि उसे कोई ऐसी विस्तृत विश्रृंखला पैदा हो सकती है जो मानव-जीवन के मूल तत्त्व को ही काटने वाली और उसकी उन्नति के सुनिश्चित क्रम को बिगाड़ने वाली हो सकती है। जो मानव-जीवन के मूल तत्त्व को ही काटने वाली और उसकी उन्नति के सुनिश्चित क्रम को बिगाड़ने वाली हो। इसलिये मनुष्य के अंदर जो निवृत्ति का झुकाव है उसे अपनी अपूर्णता को जान लेना चाहिये और प्रवृत्ति के झुकाव के पीछे जो सत्य है, अर्थात् मनुष्य के अंदर भगवान की पूर्णता और मानव जाति के कर्मों में भगवान् की उपस्थिति, उसको भी अपनी बराबरी का स्थान देना होगा। भगवान् केवल नीरवता में ही नहीं है, कर्म में भी है। जिस पर प्रकृति का कोई असर नहीं पड़ता ऐसे निष्कर्म पुरुष की निवृत्ति, और जो अपने-आपको इसलिये प्रकृति के हवाले कर देता है कि यह मानव विश्व-यज्ञ संपन्न हो ऐसे कर्मी पुरुष की प्रवृत्ति, ये दोनों बातें-निवृत्ति और प्रवृत्ति-कोई ऐसी चीजें नहीं हैं जिनमें से एक सच्ची हो और दूसरी झूंठी और इन दोनों का सदा से संग्राम चला आया हो, अथवा यह भी नहीं है कि ये कि विरोधी हैं, एक श्रेष्ट और दूसरी कनिष्ट है और दोनों एक-दूसरे के लिये एक-दूसरे के लिये घातक हैं; बल्कि भागवत प्राकट्‌य का यह द्विविध भाव है। अक्षर अकेला ही इनकी परिपूर्णता की कुंजी या परम रहस्य नहीं है।


इन दोनों की परिपूर्णता को, इनके समन्वय को पुरुषोत्तम-भाव में खोजना होगा जो यहाँ श्रीकृष्ण रूप से उपस्थित हैं। देवनर उन्हींकी दिव्य प्रकृति में प्रवेश करके उसी तरह कर्म करेगा जैसे वे करते हैं; वह अकर्म की शरण नहीं लेगा। अज्ञानी और और ज्ञानी दोनों ही मनुष्यों में भगवान् कार्य कर रहे हैं। उन भगवान् का ज्ञान हो, यही जीव का परम कल्याण और उसकी सिद्धि की शर्त है, किंतु उन्हें विश्वतीत शांति और निश्चल-नीरवता के रूप में जानना और उपलब्ध करना ही सब कुछ नहीं है। जिस रहस्य को जानना है वह तो अज अव्यय परमात्मा और उनके दिव्य जन्म-कर्म का रहस्य है, इस ज्ञान से जो कर्म निःसृत होता है वह सब बंधनों से मुक्त होता है, “इस प्रकार जो मुझे जीतना है”, भगवान् कहते हैं कि, “वह कर्मों से नहीं बंधता।“ यदि कर्म और वासना के बंधन से और पुर्जन्म के चक्र से छूटना उद्देश्य और आदर्श हो तो ऐसे ज्ञान को ही सच्चा ज्ञान, मुक्ति का प्रशस्त पथ जानना होगा; कारण गीता का कथन है कि, है “हे अर्जुन, जो तत्त्वतः मेरे दिव्य जन्म-कर्म को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर, पुनर्जन्म को नहीं बल्कि, मुझे प्राप्त होता है।“ दिव्य जन्म को जानकर और अधिकृत करके वह अज अव्यय भगवान् को, जो सकलांतरात्मा हैं, प्राप्त होता है; और दिव्य कर्मों के ज्ञान और आरचरण से कर्मों के अधीश्वर को, सब प्राणियों के ईश्वर, को प्राप्त होता है। तब वह अज अविनाशी सत्ता में ही रहता है; उसके कर्म उस सर्व- लोकमहेश्वर के कर्म होते हैं।



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