अवतार के हेतु


केवल आध्यात्मिक मनुष्य ही यह देख पाते हैं कि अवतार एक चिह्न है, मानसिक और शारिरिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होकर उसे अपने साथ एकता में विकसित करने और उस पर अधिकार करने के लिये अपने-आपको अभिव्यक्त करने वाले सनातन आंतरिक भगवान् का प्रतीक है। बाह्म मानवरूप में ईसा, बुद्ध या कृष्ण का जो दिव्य प्राकट्य होता है और मनुष्य के अदंर भगवान् के चिरंतन अवतार का जो प्राकट्य होता है, दोनों के मूल में एक ही गूढ़ सत्य है। जो कुछ अवतारों के द्वारा इस पृथ्वी के बाह्म मानव- जीवन में किया गया है वह समस्त मानव-प्राणियों के अंदर दोहराया जा सकता है। अवतार लेने का यही उद्देश्य होता है, पर इसकी प्रणाली क्या है? अवतार के संबंध में एक यौक्तिक या संकीर्ण विचार है जिसे केवल इतना ही दिखायी देता है कि अवतार किन्हीं नैतिक, बौद्धिक और क्रियात्मक दिव्यतर गुणों की असाधारण अभिव्यक्तिमात्र होते हैं, जो साधारण मानवजाति का अतिक्रमण कर जाते हैं। इस विचार में अवश्य ही कुछ सत्य हैं अवतार विभूति भी हैं। ये श्रीकृष्ण जो अपनी अंतः सत्ता में मानव-शरीरधारी ईश्वर है, वे ही अपनी बाह्म मानवसत्ता में अपने युग के नेता, वृष्णिकुल के महापुरुष हैं। यह प्रकृति के दृष्टिकोण से हैं, आत्मा की दृष्टि से नहीं। भगवान अपने-आपको प्रकृति के अनंत गुणों में प्रकट करते हैं और इस प्राकट्य की तीव्रता उन गुणों की शक्ति और सिद्धि से जानी जाती है।


इसलिये भगवान् की विभूति, नैर्व्यक्तिक भाव से उनके गुणों की अभिव्यक्ति शक्ति है, वह उनका बहिः प्रवाह है चाहे ज्ञान के रूप में हो अथवा शक्ति प्रेम, बल या अन्य किसी रूप में; और वैयक्तिक भाव से यह वह मनोमय रूप् और सजीव सत्ता है जिसमें वह शक्ति सिद्ध होती और अपने महत् कर्म करती है।” इस आंतरिक और बाह्म सिद्धि को प्राप्त करने में कोई प्रधानता, भागवत गुण की कोई महत्तर शक्ति, कोई कारगर ताकत ही विभुति का लक्षण है। मानव विभूति भावत सिद्धि प्राप्त करने के लिये मानवजाति के संघर्ष का अग्रणी नेता होती है। कारलाइल के अनुसार मनुष्यों के अंदर एक भागवत शक्ति। “ वृष्णियों में वासुदेव (श्री कृष्ण ) हूं, पाण्डवों में धन्नजय (अर्जुन ) हूं, मुनियों में व्यास और कवियो में उशना कवि हूं” अर्थात प्रत्येक कोटि या कक्षा में सर्वोत्तम, प्रत्येक समूह में सबसे महान् जिन-जिन गुणों और कर्मों के द्वारा उस समूह की विश्ष्टि आत्मशक्ति प्रकट होती है उन गुणों और कर्मों का प्रकाश जिसके द्वारा सर्वोत्तम रूप से प्रकट होता है वह ईश्वर की विभूति है। जीव की शक्तियों का यह उत्कर्ष भागवत प्राकट्य के क्रम में अत्यंत आवश्यक है। कोई भी महान पुरुष जो हमारी औसत कक्षा के ऊपर उठ जाता है वह अपने कर्म से साधारण मानवजाति को ऊपर उठा देता है; वह हमारी भागवत संम्भावनाओं का एक सजीव आश्वासन, परमेश्वर की एक प्रतिश्रुटि और भागवत प्रकाश की एक प्रभा तथा भागवत शक्ति का एक उच्छ्वास होता है। मनुष्यों में महामनुस्वी और वीर पुरुषों को देवता की तरह पूजने की जो स्वभाविक प्रवृत्ति होती है।


उसके मूल में यही सत्य है। भारतवासियों का मन तो सभी बढ़े-बढे़ संत-महात्माओं, आचार्यों और पंथ-प्रर्वतकों को अनायास ही आंशिक अवतार मान लेने में अभ्यस्त है और दक्षिण के वैष्णव तो अपने कुछ संतों को भगवान् विष्णु के प्रतीकात्मक सचेतन शास्त्रों के अवतार मानते हैं, क्योंकि सचमुच महान् आत्माएं भगवान् की सचेतन शक्तियों और शस्त्र ही तो हैं, जिनसे ऊपर की ओर बढ़ने और विघ्न बाधाओं से संग्राम करने का काम लिया जाता है। यह विचार जीवन के बारे में हर रहस्यवादी या आध्यिात्मिक दृष्टि के लिये-जो भागवत सत्ता और प्रकृति तथा मानवसत्ता ओर प्रकृति के बीच अमिट रेखा नहीं खींचती-सहज और अपरिहार्य है-यह मानवता में भगवान का बोध है। परंतु फिर भी विभूति अवतार नहीं है; यदि विभूति और अवतार एक ही होते तो अर्जुन, व्यास, उशना सब वैसे ही अवतार होते जैसे श्रीकृष्ण थे, चाहे उनमें अवतारपन की शक्ति इनसे कुछ कम ही होती। परंतु दिव्य गुण का होना ही पर्याप्त नहीं है; अवतार होना तो तब कहा जा सकता है जबकि अपने परमेश्वर और परमात्मा होने का आंतरिक ज्ञान हो और यह ज्ञान हो कि हम अपनी भागवत सत्ता से मानव-प्रकृति का शासन कर रहे हैं। गुणों को शक्ति का उत्कर्ष संभूति (भूतग्राम ) का अंश है, सामान्य अभिव्यक्ति में यह ऊर्ध्व की ओर अरोहण है।


पर अवतार में एक विशेष अभिव्यक्ति होती है, यह दिव्य जन्म उस पद से होता है, सनातन विश्वव्यापक विश्वेश्वर व्यष्टिगत मानवता के एक आकार में उतर आते हैं, अत्मानं सृजामि, और वे केवल परदे के अंदर ही अपने स्वरूप से सचेतन नहीं रहते, बल्कि बाह्य प्रकृति में भी उन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान रहता है। एक मध्यस्थ विचार भी है, अवतार के बारे में एक अधिक रहस्यमय दृष्टि है जिसके अनुसार मानव-आत्मा अपने अंदर भगवान का आवाहन करके यह अवतरण कराती है और तब वह भागवत चैतन्य के अधिकर में हो जाती है अथवा उसका प्रभावशाली प्रतिबिंब या माध्यम बन जाती है। यह विचार किन्हीं आध्यात्मिक अनुभवों के सत्य पर अवलंबित है। यह मनुष्य में भागवत जन्म, अर्थात् मनुष्य का आरोहण, मानव-चैतन्य का भागवत चैतन्य में संवर्धन है और पृथक् आत्मा का भागवत चैतन्य में लय हो जाना ही इसकी परिणति है। आत्मा अपने व्यष्टिभाव को अनंत और विश्वव्यापक सत्ता में मिला देती है या परात्पर सत्ता की परा स्थिति में खो देती है; वह विराट आत्मा के साथ, ब्रह्म के साथ, भगवन् के साथ एक हो जाती है अथवा जैसा कि प्रायः और भी अधिक निश्चित रूप से कहा जाता है-वह स्वयं ही एकमेवाद्वितीय आत्मा, ब्रह्म, भगवान बन जाती है।


जीव के ब्रह्मभूत होने और उसी कारण भगवान् में, श्रीकृष्ण में निवास करने की बात स्वयं गीता भी कहती है, पर यह ध्यान में रहे कि गीता ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि जीव भगवन् या पुरुषोत्तम हो जाता है। हां, जीव के संबंध में गीता ने इतना अवश्य कहा है कि जीव सदा ही ईश्वर है, भगवान की अंशसत्ता है, कारण यह जो महामिलन है, यह जो उच्चतम भाव है यह आरोहण का ही एक अंग है; और यद्यपि यह वह दिव्य जन्म है जिसे प्रत्येक जीव प्राप्त करता है, पर यह परमेश्वर का नीचे उतरना नहीं है, यह अवतार नहीं है, अधिक-से-अधिक, बौद्ध सिद्धांत के अनुसार इसे हम बुद्धत्व की प्राप्ति कह सकते हैं, यह जीव का अपने अभी के जागतिक व्यष्टिभाव से जागकर अनंत परचैतन्य को प्राप्त होना है। इसमें अवतार की आंतरिक चेतना अथवा अवतार के लाक्षणिक कर्म का होना जरूरी नहीं है। दूसरी ओर, भागवत चैतन्य में प्रवेश करने के फलस्वरूप यह हो सकता है कि भगवान् हमारी सत्ता के मानव-अंगों में प्रवेश करें या उनमें आगे आकर प्रकट हों और अपने-आपको मनुष्य की प्रकृति, उसकी कर्मण्यता, उसके मन और शरीर तक ढाल दें; और तब इसे कम-से-कम अंशावतार तो कहा ही जायेगा। गीता कहती है कि ईश्वर हृदेश में निवास करते हैं,-अवश्य ही गीता का अभिप्राय सूक्ष्म शरीर के हृदय से है जो भाववेगों, संवेदनों और मनोमय चेतना का ग्रंथिस्थान है, जहाँ व्यष्टि-पुरुष भी अवस्थित है, पर यहाँ वे परदे की आड़ में ही रहते हैं, अपनी माया से अपने-आपको ढके रहते हैं। परंतु, ऊपर उस लोक में, जो हमारे अंदर है पर अभी हमारी चेतना के परे है, जिसे प्रचीन तव्दर्शियों ने स्वर्ग कहा है, वहाँ ये ईश्वर और यह जीव दोनों एक साथ एक ही स्वरूप में प्रत्यक्ष होते हैं। इन्ही को कुछ संप्रदायों की सांकेतिक भाषा में पिता और पुत्र कहा गया है-पिता है भागवत पुरुष और पुत्र है भागवत मनुष्य जो नहीं से उन्हीं की परा प्रकृति से, परा माया से निम्न, मानव-प्रकृति में जन्म लेता है। इन्हीं परा प्रकृति, परा माया को जिनके द्वारा यह जीव अपरा मानव प्रकृति में उत्पन्न हेाता है, कुमारी माता कहा गया है। ईसाइयों के अवतारवाद का यही भीतरी रहस्य प्रतीत होता है। त्रिमूर्ति में पिता ऊपर इसी अंत: स्वर्ग में है ; पुत्र तथा गीता की जीवभूता परा प्रकृति इस लोक में, इस मानव-शरीर में दिव्य या देव-मनुष्य के रूप में है; और पवित्र आत्मा (होली स्पिरिट ) दोनों को एक बना देती है और दूसरी में इन दोनों को परस्पर-व्यवहार होती है; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि यह पवित्र आत्मा ईसा में उतर आयी थी और इसी अवतरण के फलस्वरूप ईसा के शिष्यों में भी, जो सामान्य मानव-कोटि के थे, उस महत् चैतन्य की क्षमता आ गयी थी। 

परंतु यह भी संभव है कि परम पुरुष पुरुषोत्म का उच्चतर भागवत चैतन्य मनुष्य के अंदर उतर आये और जीव-चैतन्य का उसमें लय हो जाये। श्री चैतन्य के समकालीन लोग बतला गये है कि वे अपनी साधारण चेतनाओं में भगवान के केवल एक प्रेमी और भक्त थे और देवत्वारोपण को अस्वीकार करते थे। किंतु कभी-कभी वे एक ऐसे विलक्षण भाव में आ जाते थे कि उस अवस्था में वे स्वयं भगवान् हो जाते तथा भगवद्भाव से ही भाषण और कर्माचरण करते थे; और ऐसे समय उनसे भगवतसत्ता के प्रकाश, प्रेम और शक्ति का अबोध प्रवाह उमड़ पड़ता था। इसी को यदि जीवन की सामान्य अवस्था मान लें, अर्थात् मनुष्य सदा इस भागवत सत्ता और भागवत चैतन्य का केवल एक पात्र ही बना रहे तो एकसा पुरुष अवतार-संबंधी मध्यवर्ती भावना के अनुसार अवतार होगा? मानव-धारणा के अनुसार अवतार-संबंधी मध्यवर्ती भावना ठीक ही जंचती है; क्योंकि यदि मानवप्राणी अपनी प्रकृति को इतना उन्नत कर ले कि उसे भागवत सत्ता के साथ एकत्व अनुभव हो और वह भगवान के चैतन्य, प्रकाश, शक्ति और प्रेम का एक वाहक सा बन जाये,


उसका अपना संकल्प और व्यक्तित्व भगवान के संकल्प और उनकी सत्ता में घुल-मिलकर अपना पृथकत्व खो दे-क्योंकि यह भी एक मानी हुई आध्यात्मिक अवस्था है-तो मनव-जीव के अंदर, उसके संपूर्ण व्यक्त्त्वि को अधिकृत करके, भगवान् का ही संकल्प, भगवान की ही सत्ता और शक्ति, उन्हीं के प्रेम प्रकाश और चैतन्य प्रतिबिंबित हो सकते हैं, और यह जरा भी असंभव नहीं है। और, इस प्रकार की अवस्था मनुष्य का केवल आरोहण द्वारा दिव्य जन्म और दिव्य स्वभाव को प्राप्त होना ही नहीं है, बल्कि उसमें दिव्य पुरुष का मानव में अवतरण भी है, यह एक अवतार है। परंतु गीता इसके भी आगे चलती है। वह साफ-साफ कहती है कि भगवान् स्वयं जन्म लेते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे बहुत-से जन्म बीत चुके और अपने शब्दों से यह स्पष्ट करे दते हैं कि वे ग्रहणशील मानव-प्राणी में उतर आने की बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि भगवान् के ही बहुत-जन्म ग्रहण करने की बात कह रहे हैं क्योंकि यहाँ वे ठीक सृष्टिकर्ता की भाषा में बोल रहे हैं, और इसी भाषा का प्रयोग वे वहाँ करेंगे जहाँ अपनी जगत्-सृष्टि की बात कहेंगे। ‘‘ यद्यपि मैं प्राणियों का अज अविनाशी ईश्वर हूँ तो भी मैं अपनी माया से अपने-आपको सृष्ट करता हूँ ”-अपनी प्रकृति के कार्यों का अधिष्ठान होकर।




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