आत्म तत्व

 


जीवात्मा परमात्मा का अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’। इसलिये जब उसमें अपने अंशी परमात्मा को प्राप्त करने की भूख जाग्रत होती है और उसकी पूर्ति न होने का दुःख होता है, तब उस दुःख को भगवान सह नहीं सकते। अतः उसकी पूर्ति भगवान स्वतः करते हैं। ऐसे ही जब साधक को अपने भीतर स्थित संशय से व्याकुलता या दुःख होता है, तब वह दुःख भगवान को असह्य होता है। संशय दूर करने के लिये भगवान से प्रार्थना नहीं करनी पड़ती, प्रत्युत जिस संशय को लेकर साधक को दुःख हो रहा है, उस संशय को दूर करके भगवान स्वतः उसका वह दुःख मिटा देते हैं। संशयात्मा पुरुष की एक पुकार होती है, जो स्वतः भगवान तक पहुँच जाती है।




संशय के कारण साधक की वास्तविक उन्नति रुक जाती है, इसलिये संशय दूर करने में ही उसका हित है। भगवान प्राणिमात्र के सुहृद हैं- ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’, इसलिये जिस संशय को लेकर मनुष्य व्याकुल होता है और वह व्याकुलता उसे असह्य हो जाती है, तो भगवान उस संशय को किसी भी रीति- उपाय से दूर कर देते हैं। गलती यही होती है कि मनुष्य जितना जान लेता है, उसी को पूरा समझकर अभिमान कर लेता है कि मैं ठीक जानता हूँ। यह अभिमान महान पतन करने वाला हो जाता है।


‘नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः’- इस श्लोक में ऐसे संशयात्मा मनुष्य का वर्णन है, जो ‘अज्ञ’ और ‘अश्रद्धालु’ है। तात्पर्य यह है कि भीतर संशय रहने पर भी उस मनुष्य की न तो अपनी विवेकवती बुद्धि है और न वह दूसरे की बात ही मानता है। इसलिये उस संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। उसके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है। संशयात्मा मनुष्य का इस लोक में व्यवहार बिगड़ जाता है। कारण कि वह प्रत्येक विषय में संशय करता है, जैसे- यह आदमी ठीक है या बेठीक है? यह भोजन ठीक है या गलत है? इसमें मेरा हित है या अहित है? आदि। उस संशयात्मा मनुष्य को परलोक में भी कल्याण की प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि कल्याण में निश्यात्मिका बुद्धि की आवश्यकता होती है और संशयात्मा मनुष्य दुविधा में रहने के कारण कोई एक निश्चय नहीं कर सकता; जैसे- जप करूँ या स्वाध्याय करूँ? संसार का काम करूँ या परमात्मप्राप्ति करूँ? आदि। भीतर संशय भरे रहने के कारण उसके मन में भी सुख शांति नहीं रहती। इसलिये विवेकवती बुद्धि और श्रद्धा के द्वारा संशय को अवश्य ही मिटा देना चाहिये।


दो अलग-अलग बातों को पढ़ने सुनने से संशय पैदा होता है। वह संशय या तो विवेक विचार के द्वारा दूर हो सकता है या शास्त्र तथा संत महापुरुषों की बातों को श्रद्धापूर्वक मानने से। इसलिये संशययुक्त पुरुष में यदि अज्ञता है तो वह विवेक विचार को बढ़ाये और यदि अश्रद्धा है तो श्रद्धा को बढ़ाये; क्योंकि इन दोनों में से किसी एक को विशेषता से अपनाये बिना संशय दूर नहीं होता।


योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।। 4.41 ।।


योग के द्वारा जिसका संपूर्ण कर्मों से संबंध विच्छेद हो गया है और ज्ञान के द्वारा जिसके संपूर्ण संशयों का नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप परायण मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते।


‘योगसंन्यस्तकर्माणम्’- शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जो वस्तुएँ हमें मिली हैं और हमारी दीखती हैं, वे सब दूसरों की सेवा के लिये ही हैं, अपना अधिकार जमाने के लिये नहीं। इस दृष्टि से जब उन वस्तुओं को दूसरों की सेवा में लगा दिया जाता है, तब कर्मों और वस्तुओं का प्रवाह संसार की ओर ही हो जाता है और अपने में स्वतः सिद्ध समता का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार योग के द्वारा जिससे कर्मों से संबंध-विच्छेद कर लिया है, वह पुरुष ‘योगसंन्यस्तकर्मा’ है।


जब कर्मयोगी कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म देखता है अर्थात कर्म करते हुए अथवा न करते हुए- दोनों अवस्थाओं में नित्य-निरंतर असंग रहता है, तब वही वास्तव में ‘योगसंन्यस्तकर्मा’ होता है।


‘ज्ञानसंछिन्नसंशयम्’- मनुष्य के भीतर प्रायः ये संशय रहते हैं कि कर्म करते हुए ही कर्मों से अपना संबंध विच्छेद कैसे होगा? अपने लिये कुछ न करें तो अपना कल्याण कैसे होगा? आदि। परंतु जब वह कर्मों के तत्त्व को अच्छी तरह जान लेता है, तब उसके समस्त संशय मिट जाते हैं। उसे इस बात का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि कर्मों और उनके फलों का आदि और अंत होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये कर्ममात्र का संबंध ‘पर’ के साथ, ‘स्व’ के साथ बिलकुल नहीं। इस दृष्टि से अपने लिये कर्म करने से कर्मों के सात संबंध जुड़ जाता है और निष्काम भावपूर्वक केवल दूसरों के लिये कर्म करने से कर्मों से संबंध विच्छेद हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि अपना कल्याण दूसरों के लिये कर्म करने से ही होता है, अपने लिये कर्म करने से नहीं।


‘आत्मवन्तम्’- कर्मयोगी का उद्देश्य स्वरूप बोध को प्राप्त करने का होता है, इसलिये वह सदा स्वरूप के परायण रहता है। उसके संपूर्ण कर्म संसार के लिये ही होते हैं। सेवा तो स्वरूप से ही दूसरों के लिये होती है, खाना-पीना, सोना-बैठना आदि जीवन निर्वाह की संपूर्ण क्रियाएँ भी दूसरों के लिये ही होती हैं; क्योंकि क्रियामात्र का संबंध संसार के साथ है, स्वरूप के साथ नहीं।


‘न कर्माणि निबध्रन्ति’- अपने लिये कोई भी कर्म न करने से कर्मयोग का संपूर्ण कर्मों से संबंध विच्छेद हो जाता है अर्थात वह सदा के लिये संसार बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाता है। कर्म स्वरूप से बंधनकारक हैं ही नहीं। कर्मों में फलेच्छा, ममता, आसक्ति और कर्तृत्वाभिमान ही बाँधने वाला है।


तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।

छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।। 4.42 ।।


अर्थ- इसलिये हे भरवंशी अर्जुन! हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय का ज्ञानरूप तलवार से छेदन करके योग में स्थित हो जा, (और युद्ध के लिये) खड़ा हो जा।


व्याख्या- ‘तस्मादज्ञानसंभूत.......छित्तवैनं संशयम्’- पूर्व श्लोक में भगवान ने यह सिद्धांत बताया कि जिसने समता के द्वारा समस्त कर्मों से संबंध विच्छेद कर लिया है और ज्ञान के द्वारा समस्त संशयों को कष्ट कर दिया है, उस आत्मपरायण कर्मयोगी को कर्म नहीं बाँधते अर्थात वह जन्म मरण से मुक्त हो जाता है। अब भगवान ‘तस्मात्’ पद से अर्जुन को भी वैसा ही जानकर कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा करते हैं।


अर्जुन के हृदय में संशय था- युद्ध रूप घोर कर्म से मेरा कल्याण कैसे होगा? और कल्याण के लिये मैं कर्मयोग का अनुष्ठान करूँ अथवा ज्ञानयोग का? इस श्लोक में भगवान इस संशय को दूर करने की प्रेरणा करते हैं; क्योंकि संशय के रहते हुए कर्तव्य का पालन ठीक तरह से नहीं हो सकता।


‘अज्ञानसंभूतम्’ पद का भाव है कि सब संशय अज्ञान से अर्थात कर्मों के और योग के तत्त्व को ठीक-ठीक न समझने से ही उत्पन्न होते हैं। क्रियाओं और पदार्थों को अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है। यह अज्ञान जब तक रहता है, तब तक अंतःकरण में संशय रहते हैं; क्योंकि और पदार्थ विनाश है और स्वरूप अविनाशी है।


तीसरे अध्याय में कर्मयोग का आचरण करने की और इस चौथे अध्याय में कर्मयोग को तत्त्व से जानने की बात विशेषरूप से आयी है। कारण कि कर्म करने के साथ-साथ कर्म को जानने की भी बहुत आवश्यकता है। ठीक-ठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीति से नहीं होता। इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करने से जो कर्म बाँधने वाले होते हैं, वे ही कर्म मुक्त करने वाले हो जाते हैं। इसलिये इस अध्याय में भगवान ने कर्मों को तत्त्व से जानने पर विशेष जोर दिया है।


पूर्वश्लोक में भी ‘ज्ञानसंछिन्नसंशयम्’ पद इसी अर्थ में आया है। जो मनुष्य कर्म करने की विद्या को जान लेता है, उसके समस्त संशयों का नाश हो जाता है। कर्म करने की विद्या है- अपने लिये कुछ करना ही नहीं है।


'योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत’- अर्जुन अपने धनुष बाण का त्याग करके रथ के मध्य भाग में बैठ गये थे। उन्होंने भगवान से साफ कह दिया था कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’- ‘न योत्स्ये’। यहाँ भगवान अर्जुन को योग में स्थित होकर युद्ध के लिये खड़े हो जाने की आज्ञा देते हैं। यही बात भगवान ने दूसरे अध्याय के अड़तालीसवें श्लोक में ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ पदों से भी कही थी। योग का अर्थ ‘समता’ है- ‘समत्वं योग उच्यते’।


अर्जुन युद्ध को पाप समझते थे।[5] इसलिये भगवान अर्जुन को समता में स्थित होकर युद्ध करने की आज्ञा देते हैं; क्योंकि समता में स्थित होकर युद्ध करने से पाप नहीं लगता। इसलिये समता में स्थित होकर कर्तव्य कर्म करना ही कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।


संसार में रात-दिन अनेक कर्म होते रहते हैं, पर उन कर्मों में राग द्वेष न होने से हम संसार के उन कर्मों बँधते नहीं, प्रत्युत निर्लिप्त रहते हैं। जिन कर्मों में हमारा राग या द्वेष हो जाता है, उन्हीं कर्मों से हम बँधते हैं। कारण कि राग या द्वेष से कर्मों के साथ अपना संबंध जुड़ जाता है। जब राग द्वेष नहीं रहते अर्थात समता आ जाती है, तब कर्मों के साथ अपना संबंध नहीं जुड़ता; अतः मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।


अपने स्वरूप को देखे तो उसमें समता स्वतः सिद्ध है। विचार करें कि प्रत्येक कर्म का आरंभ होता है और समाप्ति होती है। उन कर्मों का फल भी आदि और अंत वाला होता है। परंतु स्वरूप निरंतर ज्यों-का-त्यों रहता है। कर्म और फल अनेक होते हैं, पर स्वरूप एक ही रहता है। अतः कोई भी कर्म अपने लिये न करने से और किसी भी पदार्थ को अपना और अपने लिये न मानने से जब क्रिया पदार्थ रूप संसार से सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाता है, तब स्वतः सिद्ध समता का अपने आप अनुभव हो जाता है। 


साधारणतः मनुष्य अपना यज्ञ खुलमखुल्ला या छुपे रूप में अपने अहंभाव को ही अर्पित करता है; उसकी आहुति अपने अहं-संकल्प तथा अज्ञान की एक मिथ्या क्रिया ही होती है। अथवा वह अपना ज्ञान, कर्म, अभीप्सा, तथा बल-पौरूष के कार्य आंशिक, पार्थिव एवं वैयक्तिक उद्देश्यों के लिये नाना देवताओं के प्रति अर्पित करता है। इसके विपरीत, ज्ञानी मनुष्य एवं मुक्त जीव अपने सब कर्मों को फल के प्रति या अपनी निम्नतर वैयक्तिक कामनाओं की पूर्ति के प्रति लेश मात्र भी आसक्ति रखे बिना एकमेव सनातन भगवान को अर्पित करना है। वह ईश्वर के लिये कर्म करता है, अपने लिये नहीं, विश्व-मंगल के लिये एवं विश्वात्मा के लिये कर्म करता है, अपने ही द्वारा गढ़े हुए किसी वैयक्तिक एवं विशिष्ट उद्देश्य के लिये या अपने मानसिक संकल्प द्वारा परिकल्पित किसी धारण के लिये या अपनी प्राणिक लालसाओं के किसी लक्ष्य के लिये नहीं, भगवान के एक माध्यम के रूप में कार्य करता है, जगद-व्यवसाय में एक प्रधान तथा स्वतंत्र व्यवसायी के रूप में नहीं। और यह ध्यान में रहे कि यह एक ऐसा कार्य है जो केवल उसी हदतक किया जा सकता है जिस हदतक हमारा मन समता, विश्वमयता, विशाल निर्व्यक्तिकता एवं आग्रहशील अहं के प्रत्येक छद्मवेश से सुस्पष्ट मुक्ति लाभ कर लेता है, इन चीजों के बिना यह वास्तव में किया ही नहीं जा सकताः क्योंकि इनके बिना इस प्रकार कार्य करने का दम भरना केवल एक भ्रम या धोखा ही है। इस जगत का समस्त कर्म विश्व के अधीश्वर का कर्म है, स्वयंभू परमेश्वर का कार्य-व्यापार है, स्वयं यह जगत प्रकृति के अंदर उन्हीं की अविच्छिन्न सृष्टि तथा विकासशील संभूति है, अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति एवं जीवंत प्रतिमूर्ति है। फल उन्हीं के हैं, परिणाम भी वही होते हैं जिन्हें वे निर्धारित करते हैं और जहाँ तक हमारा वैयक्तिक कर्म अहंपूर्ण दावे से प्रेरित होता है वहाँ तक यह केवल एक तुच्छ योगदान ही होता है। हमारे अंदर के परम पुरुष और परमात्मा सबके अंदर अवस्थित पुरुष एवं आत्मा हैं, और वे हमारे अहंभाव के लिये नहीं बल्कि जागतिक उद्देश्य एवं जगतकल्याण के लिये वस्तुओं का परिचालन करते हैं, वे ही हमारे कर्म को नियंत्रित या निराकृत करते हैं। निर्वैंयक्तिक तथा निष्काम भाव से और कर्मफल की आसक्ति के बिना, ईश्वर और जगत तथा महत्तर आत्मा के लिये एवं विश्व-संकल्प की परिपूर्ति के लिये कर्म करना ही मुक्ति और सिद्धि का पहला सोपान है। 


परंतु इस सोपान के परे एक और महत्तर गति है, अपने अंतः स्थित भगवान के प्रति अपने सब कार्मों का आंतरिक समर्पण। क्योंकि, अनंत प्रकृति ही हमारे कर्मों को प्रेरित करती है और इसके अंदर तथा ऊपर अवस्थित ईश्वरीय संकल्प ही हमसे कर्म की मांग करता है, हमारा अहंभाव कर्म के सम्बंध में जो चुनाव करता है या यह उसे जो रूप प्रदान करता है वह हमारे सत्त्व, रज, तम-रूपी गुण का अंशदान है, निम्नतरी प्रकृति से जनित विकृति है। इस विकृति के पैदा होने के कारण यह है कि अहं अपने-आपको कर्ता समझता है; कर्म की धारा सीमित वैयक्तिक प्रकृति का रूप धारण कर लेती है और जीव उससे तथा उसके संकीर्ण रूपों से बंध जाता है और कर्म को अपने अंतर की असीम शक्ति से शुद्ध और स्वच्छंद रूप में प्रवाहित नहीं होने देता। अहं कर्म और उसके परिणाम से आबद्ध हो जाता है; जैसे वह कर्म आरंभ करने का दायित्व लेने तथा उसके लिये वैयक्तिक संकल्प करने का दावा करता है वैसे ही उसे वैयक्तिक परिणाम और प्रतिफल को भी भोगना पड़ता है।


मुक्ति और पूर्ण कर्म तो तभी किया जा सकता है यदि पहले हम अपना कर्म तथा उसका आरंभ अपनी सत्ता के दिव्य स्वामी के प्रति निवेदित करें और फिर अंत में उसे पूर्ण रूप से उन्हें समर्पित कर दें; क्योंकि हम अनुभव करते हैं कि हमारे अंदर अवस्थित परम उपस्थिति उसे उत्तरोत्तर अपने हाथ में ले रही है, हमरी अंतरात्मा एक आंतरिक शक्ति तथा देतत्त्व के साथ प्रगाढ़ सान्निध्य तथा घनिष्ट एकत्व में लीन होती जा रही है और कर्म सीधे महत्तर आत्मा से, सनातन सत्ता की सर्वज्ञ, अनंत, विश्वगत शक्ति से निःसृत हो रहा है, क्षुद्र व्यक्तिगत अहं के अज्ञान से नहीं तब भी कर्म का चुनाव तथा गठन तो प्रकृति के अनुसार ही होता है पर वह होता है पूर्ण रूप से हमारी प्रकृति के अंदर विद्यमान भगवत्संकल्प के द्वारा, और अतएव उसका बाह्य रूप चाहे जो हो पर वह अंदर से मुक्त और पूर्ण ही होता है। वह अनंत की इस आभ्यतंर आध्यात्मिक छाप को लेकर आता है कि यही करणीय कार्य है, कर्तव्यं कर्म, कर्म और उसका एक-एक पग कर्म के सर्वज्ञ स्वामी की गतिविधयों में नियत हुआ रहता है। मुक्त व्यक्ति जब अपनी करणात्मक व्यक्तिगत सत्ता को तथा अपनी प्रकृति के विशेष संकल्प एवं बल को कर्म का साधन तथा निमित्त बनाकर उसमें योगदान करता है तब भी उसकी आत्मा अपनी निर्व्यक्तिकता में मुक्त रहते है।


वह संकल्प एवं बल तब उसका पृथक तथा अहंमय रूप से अपना निजी नहीं होता, बल्कि वह उन अतिव्यक्तिक(Supra Personal) भगवान का होता है जो अपनी आत्मा की इस अभिव्यक्ति में, अपने असंख्य व्यक्तित्वों में से अन्यतम इस व्यक्तित्व में इसके अपने स्वभाव के द्वारा[1] कर्म करते हैं। यह मुक्त पुरुष के कर्म का उत्तम ‘गुह्य’ और रहस्य है, उत्तमं रहस्यम्। यह भागवत ज्योति के अंदर मानव आत्मा के विकसित हो जाने का तथा परमोच्च विश्व-प्रकृति के साथ अपनी प्रकृति का ऐक्य साधित कर लेने का फल है। वह परिवर्तन ज्ञान के बिना साधित नहीं हो सकता। आत्मा, ईश्वर तथा जगत का यथार्थ ज्ञान आवश्यक है और साथ ही उस ज्ञान से उपलब्ध महत्तर चेतना में निवास करना तथा विकसित होना भी। यह तो अब हमें पता लग ही चुका है कि वह ज्ञान क्या है।


इतना स्मरण रखना पर्याप्त है कि यह मानवीय मानसिक दृष्टि से भिन्न और विशालतर एक और ही दृष्टि पर, एक परिवर्तित दृष्टि एवं उपलब्धि पर आधारित है जिसके द्वारा मनुष्य सर्वप्रथम अहंबुद्धि और उसके समस्त सम्बंधों की संकीर्णताओं से मुक्त हो जाता है, सबके अंदर एक ही आत्मा को तथा ईश्वर के अंदर सबको अनुभव करता और देखता है, सब भूतों को वासुदेव, सबको भगवान के वाहन तथा अपनी आत्मा को भी उन एक परमेश्वर की अंशभूत अर्थपूर्ण सत्ता तथा आत्म-शक्ति के रूप में अनुभव करता और देखता है। एक आध्यात्मिक एकीकारक चेतना में यह ज्ञान दूसरों के जीवनों की सब घटनाओं को ऐसे समझता है मानों वे मनुष्य के अपने ही जीवन की घटनाएं हों।


यह भेद की दीवार को नहीं खड़ी होने देता और सब भूतों के प्रति सार्वभोम सहानुभूति का भाव रखता है, जबकि जगद्व्यापार के बीच वह सर्वभूतरहित के लिये कर्तव्य कर्म फिर भी करता रहता है, पर करता है भगवान के द्वारा नियत पद्धति के अनुसार तथा काल के अधीश्वर परमात्मा के आदेश द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर। इस प्रकार इस ज्ञान में रहते और कर्म करते हुए मनुष्य की आत्मा सनातन के साथ, उनके वैयक्तिक और निर्व्यक्तिक दोनों रूपों के साथ एकमय हो जाती है, जिस प्रकार स्वयं सनातन प्रभु कर्म करते हैं उसी प्रकार काल में कर्म करती हुई भी वी आत्मा सनातन में निवास करती है और मुक्त, सिद्ध तथा आनंदमय बनी रहती है, भले ही प्रकृति के अंदर किये गये कर्म का रूप और निर्धारण कैसा भी क्यों न हो।


मुक्त पुरुष पूर्ण ज्ञानी, कृत्स्नविद्, होता है और मन की बनायी हुई किसी प्रकार की भी नियम-मर्यादा के बिना, अपने अंतःस्थ दिव्य संकल्प की समर्थ्य, स्वतंत्रता तथा असीम शक्ति के अनुसार सभी कर्म करता है, कृत्स्नकृत्। और क्योंकि वह सनातन के साथ योग-युक्त होता है, उसे भी अपनी सनातन सत्ता का शुद्ध, आध्यात्मिक और निःसीम आनंद प्राप्त रहता है। वह उन परमात्मा की ओर, जिसका प्रेमी की ओर भक्तिभाव के साथ उन्मुक्त होता है, उनका भजन-पूजन करता है। वह केवल शांत और निर्विकार द्रष्टा ही नहीं होता; वह केवल अपने ज्ञान एवं संकल्प को ही नहीं बल्कि प्रेम, भक्ति और संवेग से पूर्ण अपने हृदय को भी शाश्वत की ओर ऊपर उठाता है। कारण, हृदय को इस प्रकार उठाये बिना उसकी संपूर्ण प्रकृति ईश्वर से परिपूरित और एकीभूत नहीं हो सकती; आत्मा की शांति की मस्ती को अंतरात्मा के आनंद की मस्ती के द्वारा रूपांतरित करना आवश्यक है।


व्यक्तिरूप जीव तथा निर्व्यक्तिक ब्रह्म या आत्मा के परे वह उन विश्वातीत पुरुषोत्तम को प्राप्त करता है जो निर्व्यक्तिकता में अक्षर हैं और व्यक्तित्व में अपने-आपको चरितार्थ करते हैं और इन दो भिन्न प्रकार के आकर्षणों के द्वारा हमें अपनी ओर खींचते हैं। मुक्त साधक भगवान के प्रति अपनी अंतरात्मा के प्रेम और प्रीति के द्वारा तथा कर्मों के स्वामी के प्रति अपने अंतरस्थ संकल्प की आराधना के द्वारा व्यक्तिगत रूप में उस उच्चतम परम पद की ओर उठ जाता है, इन परात्पर और विश्वमय परमेश्वर की स्वयंस्थित, समग्र, घनिष्ट और अंतरंग सत्ता में उसे जो आनंद प्राप्त होता है उसके द्वारा उसके निर्व्यक्तिक विश्व-ज्ञान की शांति एवं विशालता पराकाष्ठा को पहुँच जाती है। यह आनंद उसके ज्ञान को महिमामय बना देता है तथा उसे परमात्मा के आत्मगत एवं अभिव्यक्तिगत शाश्वत आनंद से एकीभूत कर देता है; यह भागवत पुरुष की अतिव्यक्तिकता में उसके व्यक्तित्व को भी सर्वागसंपन्न बना देता है। और उसकी प्रकृतिगत सत्ता एवं कर्म को शाश्वत सौन्दर्य, नित्य सामंजस्य तथा सनातन प्रेम और आनंद के साथ एकमय कर देता है।


परंतु इस सब परिवर्तन का अर्थ है निम्न मानव-प्रकृति को छोड़कर, पूर्ण रूप से, उच्चतर दिव्य प्रकृति में चले जाना। यह अपनी संपूर्ण सत्ता को या, कम-से-कम, संकल्प, ज्ञान तथा वेदन करने वाली अपनी सारी मनोमय सत्ता को, हम जो कुछ हैं उससे ऊपर उठाकर किसी उच्चतम अध्यात्म-चेतना में, सत्ता की किसी तृप्तिकारी पूर्णतम शक्ति में, आत्मा के किसी गंभीरतम एवं विशालतम आनंद में ले जाना है।


यह परिवर्तन भली-भाँति संपन्न हो सकता है यदि हम अपने वर्तमान प्राकृत जीवन को अतिक्रम कर जायें अथवा पार्थिव जीवन से परे किसी स्वर्गिक अवस्था में या और भी परे किसी विश्वातीत अतिचेतना में पहुँच जायें; यह परिवर्तन तब भी घटित हो सकता है यदि हम परमात्मा की रम और अनंत शक्ति एंव परम और अनंत पद में संक्रमण कर जायें। परंतु जब हम यहाँ देह और प्राण में अवस्थित हैं, कर्म में रत हैं तब, इस परिवर्तन में, निम्नतर प्रकृति की क्या अवस्था होती है? क्योंकि इस समय हमारे सब कर्मों की दिशा एवं रूप का निर्धारण प्रकृति ही करती है, और यह प्रकृति यहाँ त्रिगुणत्मिका प्रकृति है, और समस्त प्राकृत सत्ता में तथा प्रकृतिगत सभी कार्यों में ये तीन गुण विद्यमान रहते हैं, अज्ञान और जड़ता से युक्त तम, गति और क्रिया से तथा आवेग, दुःख और विकार से युक्त रज, प्रकाश और सुख से युक्त सत्त्व; और फिर समस्त प्राकृत सत्ताओं और कर्मों में इन चीजों का बंधन भी रहता ही है। मान लिया कि जीव अपनी अंतःसत्ता में त्रिगुण से ऊपर उठ जाता है फिर भी यह प्रश्न उठता है कि अपनी यंत्र-स्वरूप प्रकृति में वह उनके व्यापार, परिणाम तथा बंधन से किस प्रकार मुक्ति होता है। कारण, गीता कहती है कि ज्ञानी मनुष्य को भी अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करना ही होगा।


बाह्य अभिव्यक्ति में गुणों की प्रतिक्रिया को अनुभव तथा सहन करना, पर पीछे अवस्थित साक्षिस्वरूप चेतन आत्मा में उनसे मुक्त तथा अतीत रहना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता और अधीनता का द्वैत, जो कुछ हम भीतर हैं और जो कुछ हम बाहर हैं उनमें अर्थात हमारी आत्मा और शक्ति में विरोध, अपनी सत्ता का जैसा कुछ स्वरूप हम जानते हैं तथा हम जो संकल्प एवं कर्म करते हैं उनमें विरोध फिर भी बना रहता है। इसमें मुक्ति है ही कहां, उच्चतम आध्यात्मिक प्रकृति में पूर्ण आरोहण तथा रूपांतर है ही कहां, शाश्वत धर्म, भागवत सत्ता की अनंत पवित्रता एवं शक्ति का निज धर्म है ही कहां? यदि इस देह में रहते हुए यह परिवर्तन साधित नहीं किया जा सकता तब तो यह कहना होगा कि संपूर्ण प्रकृति का रूपांतर करना संभव नहीं और जब तक जीवन का यह मर्त्य ढांचा केचुली की न्याई आत्मा से उतरकर अलग नहीं हो जाता तब तक द्वंद्व ज्यों-का-त्यों बना रहेगा, कभी सुलझेगा नहीं।


पर यदि ऐसा हो तो कर्म का सिद्धांत यथार्थ नहीं हो सकता या कम-से-कम वह चरम सिद्धांत तो नहीं ही हो सकताः तब तो पूर्ण निस्तब्धता या, कम-से-कम, एक यथासंभव पूर्ण निस्तब्धता, उत्तरोत्तर वर्धमान संन्यास और कर्मत्याग ही पूर्णत्व-प्राप्ति के लिये एक सच्ची शिक्षा प्रतीत होगा,-वास्तव में मायावादी की भी यही स्थापना है, वह कहता है कि जब तक हम कर्मों के बीच रहते हैं तब तक गीता का मार्ग नि:संदेह समीचीन है, पर फिर भी कर्म मात्र भ्रम है और निस्तब्धता ही सर्वोच्च पथ। इस भावना से कर्म करना उत्तम अवश्य है पर कर्मत्याग, निवृत्ति एवं पूर्ण निस्पन्दता तक पहुँचने के एक सोपान के रूप में ही।


यही वह कठिनाई है जिसका समाधान गीता को अभी करना है ताकि वह ईश्वरान्वेषक के लिये कर्मो का औचित्य सिद्ध कर सके। अन्यथा उसे अर्जुन को कहना होगा कि ‘‘कुछ समय तक इस ढंग से कर्म कर, पर बाद में कर्मत्याग के उच्चतर पथ का अनुसरण कर।” परंतु, इसके विपरीत, उसने कहा है कि कर्मों का त्याग नहीं वरन् कामना का त्याग ही श्रेयस्कर मार्ग है; उसने मुक्त पुरुष के कर्म की भी चर्चा की है, मुक्तस्य कर्म। यहाँ तक कि उसने सभी कर्मों के अनुष्ठान का आग्रह किया है, सर्वाणि कर्माणि, कृत्स्नकृत्; उसने कहा है कि सिद्ध योगी चाहे जिस भी तरह से रहे, चाहे जिस भी तरीके से कर्म करे, वह सदा ईश्वर में ही रहता और कर्म करता है।


यह तभी हो सकता है यदि प्रकृति भी अपनी गतिशक्ति तथा कार्य-व्यापार में दिव्य बन जाये, एक ऐसी शक्ति बन जाये जो अविचल, निर्लिप्त, निर्विकार एवं विशुद्ध हो तथा अपरा प्रकृति की प्रतिक्रियाओं से विक्षुब्ध न होने पाये। यह अत्यंत कठिन रूपांतर किसी प्रकार तथा किन क्रमों के द्वारा साधित हो सकता है? जीव के सिद्धि-लाभ का यह अंतिम रहस्य क्या है? हमारी मानवीय एवं पार्थिव प्रकृति के इस रूपांतर का मूलसूत्र वा प्रक्रिया क्या है?



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