भीतरी और बाहरी सन्यास



गीता ने बार-बार त्याग और संन्यास अर्थात् आंतर संन्यास और बाह्म संन्यास के ऊपर जोर दिया है। त्याग के बिना संन्यास का कोई मूल्य नहीं है; त्याग के बिना संन्यास हो भी नहीं सकता और जहाँ आंतरिक मुक्ति है वहाँ बाह्य संन्यास की कोई आवश्यकता भी नही होती। यथार्थ में त्याग ही सच्चा और पूर्ण संन्यास है। ‘‘उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिये जो न द्वेष करता है न आकांक्षा, इस प्रकार का द्वन्दमुक्त व्यक्ति अनायास ही समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। ”बाह्य संन्यास का कष्टकर मार्ग, अनावश्यक है यह सर्वथा सत्य है कि सब कर्मों और फलों को अर्पण करना होता है, उनका त्याग करना होता है, पर यह अर्पण, यह त्याग आंतरिक है, बाह्य नहीं; यह प्रकृति की जड़ता में नहीं किया जाता, बल्कि यज्ञ के उन अधीश्वर को किया जाता है, उस नैर्व्यक्तिक ब्रह्म की शांति और आनंद में किया जाता है जिसमें से बिना उसकी शांति को भंग किये सारा कर्म प्रवाहित होता है। कर्म का सच्चा संन्यास ब्रह्म कर्मों का आधान करना ही है। ‘‘जो संग त्याग करके, ब्रह्म में कर्मों का आधान करके (या ब्रह्म को कर्मों का आधार बना के ) कर्म करता है उसे पाप का लेप नहीं लगता जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता। ”इसलिये योगी पहले शरीर से, मन से, बुद्धि से अथवा केवल कमेन्द्रियों से ही आसक्ति को छोड़कर आत्मशुद्धि के लिये कर्म करते हैं। कर्मफलों की आसक्ति को छोड़ने से ब्रह्म के साथ होकर अंतरात्मा ब्राह्मी स्थिति की ऐकांतिक शांति लाभ करता है, किंतु जो ब्रह्म के साथ इस प्रकार युक्त नहीं है वह फल में आसक्त और काम-संभूत कर्म से बंधा रहता है। यह स्थिति, यह पवित्रता, यह शांति जहाँ एक बार प्राप्त हो जाती है वहाँ देही आत्मा अपनी प्रकृति को पूर्णतः वश में किये हुए, सब कर्मो का ‘मनसा’ (मन से, बाहर से नहीं) संन्यास करके ‘‘नवद्वारा पुरी में बैठा रहता है, वह न कुछ करता है न कुछ कराता है।” कारण यह आत्मा ही सबके अंदर रहने वाली नैर्व्यक्तिक आत्मा है, परब्रह्म है, प्रभु है, विभु है जो नैर्व्यक्तिक होने के नाते न तो जगत् के किसी कर्म की सृष्टि करता है न अपने को कर्ता समझने वाले मानसिक विचार की और न ही कर्मफल-संयोगरूप कार्यकारणसंबंध की। इस सबकी सृष्टि मनुष्य में प्रकृति के द्वारा या स्वभाव द्वारा होती है, स्वभाव का अर्थ है आत्म-संभूति का मूल तत्त्व। सर्वव्यापी नैर्व्यक्त्कि आत्मा न पाप ग्रहण करती है न पुण्य।


पाप-पुण्य की सृष्टि जीव के अज्ञान से, उसके कर्तृव्य के अहंकार से, श्रेष्ठ आत्मभाव की उसकी अनभिज्ञता से, प्रकृति के कर्मों के साथ अपना तादात्म्य कर लेने से होती है, और जब उसका अंतःस्थित आत्म-ज्ञान इस अंधकार में आवरण से मुक्त हो जाता है तब उसका वह ज्ञान उसकी अंतःस्थ सदात्मा को सूर्य के सदृश प्रकाशित कर देता है; तब वह अपने-आपको प्रकति के करण-समूह के ऊपर रहने वाली आत्मा जानने लगता है। उस विशुद्ध, अनंत, अविकार्य अव्यय स्थिति में आकर वह फिर विचलित नहीं होता, क्योंकि वह इस भ्रम में नहीं रहता कि प्रकृति की क्रिया उसमें कुछ हेर-फेर कर सकती है, नैर्व्यक्तिक ब्रह्म के साथ पूर्ण तादात्म्य लाभ करके वह फिर से जन्म लेकर प्रकृति की क्रिया में वापस आने की आवश्यकता से अपने-आपको मुक्त कर सकता है। फिर भी यह मुक्ति उसे कर्म करने से जरा भी नहीं रोकती। हां, अब कर्म करते हुए भी वह यह जानता है कि कर्म मैं नहीं कर रहा, कर्म करने वाले हैं प्रकृति के त्रिगुण। ‘‘तत्त्ववित् व्यक्ति ( निष्क्रिय नैर्व्यक्तिक ब्रह्म के साथ ) युक्त होकर यही सोचता है कि कर्म मैं नहीं करता; देखते, सुनते, चखते, सूंघते, खाते, चलते, सोते, सांस लेते, बोलते, देते, लेते, आंख खोलते- बंद करते वह यही धारणा करता है कि इन्द्रियां विषयों पर क्रिया कर रही है।


”वह स्वयं अक्षर अविकार्य आत्मा में सुप्रतिष्ठित होने के कारण त्रिगुणातीत हो जाता है; वह न सात्त्विक है न राजसिक न तामसी; उसके कर्मों में प्राकृतिक गुणों और धर्मों के जो परिवर्तन होते रहते हैं, प्रकाश और सुख, कर्मण्यता और शक्ति, विश्राम और जड़ता-रूपी इनका जो छन्दोबद्ध खेल होता रहता है उन्हें वह निर्मल और शांत भाव से देखता है। अपने कर्म को इस प्रकार शांत आत्मा के उच्चासन से देखना और उसमें लिप्त न होना, यह त्रैगुणातीत्य भी दिव्य कर्मी का एक महान् लक्षण है। यदि इसी विचार को सब कुछ मान लिया जाये तो इसका यह परिणाम निकलेगा कि सब कुछ प्रकृति की ही यांत्रिक नियति है और आत्मा इस सबसे सर्वथा अलग है, उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं, पर गीता पुरुषोत्तम-तत्त्व की प्रकाशमान और परमेश्वरवादी भावना के द्वारा इस अपूर्ण विचार की भूल का निवारण करती है। गीता इस बात को स्पष्ट रूप से कहती है कि सब कुछ के मूल में प्रकृति ही नहीं है जो अपने कर्मों का यंत्रवत् निर्णय करती हो, बल्कि प्रकृति को प्रेरित करता है उन पुरुषोत्तम का संकल्प, जिन्होंने धार्तराष्ट्रों को पहले से ही मार रखा है, अर्जुन जिनका मानव-यंत्र मात्र है।




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