बुद्धि योग

हम इस बात को समझ लें कि गीता ने जिस विशिष्ट प्रतिपादन शैली को अपनाया है उसका वह अंत तक क्यों अनुसरण करती है। वह शैली यह है कि पहले तो गीता किसी आंशिक सत्य का मृदुमंद संकेत भर कर देती है। और फिर आगे चलकर अपने इन संकेतों की ओर लौटती है और उनके मर्म को दिखलाती है और यह उस समय तक होता रहता है जब तक कि वह इन सबके ऊपर उठकर अपनी उस अंतिम महान् सूचना में, अपने उस परम रहस्य में नहीं पहुँच जाती जिसका वह स्वयं कोई खुलास नहीं करती, बल्कि उसको मनुष्य जीवन में प्रस्फुटित होने के लिये छोड़ देती है, जिस सूचना या परम रहस्य का भारतीय आध्यत्मिकता के उत्तर युगों में प्रेम की, आत्मसमर्पण की और आनंद की महान् लहरों में उपलब्ध करने का प्रयास किया गया। गीता की दृष्टि सदा अपने समन्वय पर है और उसमें जो विभिन्न विरारधाराओं का वर्णन है वह इसलिये है कि मानव-मन को क्रमशः अंतिम महान् वचन के लिये तैयार किया जाये।


भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि सांख्यों में मोक्षदायिनी बुद्धि की जो संतुलित अवस्था है वह, मैंने तुझे बता दी, और अब योग में जो दूसरी संतुलित अवस्था है उसका वर्णन करूंगा। तू अपने कर्मों के फलों से डर रहा है, तू कोई दूसरा ही फल चाहता है और अपने जीवन के सच्चे कर्म-पथ से हट रहा है; क्योंकि यह पथ तुझे तेरे वांछित फलों की ओर नहीं ले जाता। परंतु कर्म और कर्मफल को इस दृष्टि से देखना, फल की इच्छा से कर्म में प्रवृत्त होना, कर्म को अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाना बंधन है जो उन अज्ञानियों को बांधता है जो यह नहीं जानते कि कर्म क्या चीज है, कहाँ से इसका प्रवाह चला है, यह कैसे होता है और इसका श्रेष्ठ उपयोग क्या है। मेरा योग तुझे इन कर्म-बंधनों से मुक्त कर देगा। तुझे बहुत-सी चीजों का डर लग रहा है- पाप का डर, दुख का डर, नरक और दंड पाने का डर, ईश्वर का डर और इस जगत् का डर, परलोक का डर और अपना डर। भला बता तो, इस समय ऐसी कौन-सी चीज है जिसका, हे आर्य वीर, जगत्त के वीरशिरोमणि, तुझे डर न लगता हो? परंतु यह महाभय ही तो मानव जाति को घेरे रहता है- लोक और परलोक में पाप और दु:ख का भय, जिस संसार के सम्य स्वभाव को वह नहीं जानती उस संसार में भय, उस ईश्वर का भय जिसकी सत्य सत्ता को उसने नहीं देखा है और न जिसकी विश्वलीला के अभिप्राय को ही समझा है। मेरा योग तुझे इस महाभय से तार देगा और इस योग का स्वल्प- सा साधन भी तुझे मुक्ति दिला देगा।


एक बार जहाँ तूने इस मार्ग पर चलना शुरू किया कि तू देखेगा कि कोई कदम व्यर्थ नहीं रखा गया, प्रत्येक साधारण-सी गति भी एक कमाई होगी; तुझे ऐसी बाधा नहीं मिलेगी जो तेरी प्रगति को अटका सके। कितनी निर्भीक और निरपेक्ष प्रतिज्ञा है। परंतु सर्वत्र विघ्नों से घिरकर लुढ़कते-पुढ़कते चलने वाले चंचल मन को, भयभीत और शंकित मन को सहसा इस पर पूर्ण भरोसा नहीं होता। इस प्रतिज्ञा का व्यापक और पूर्ण सत्य भी तब तक साफ समझ में नहीं आता जब तक गीता के प्रारम्भिक वचनों के साथ उसका यह अंतिम वचन मिलाकर न पढ़ा जाये- “सब धर्मों को छोड़ दे और केवल एक मेरी शरण में चला आ; मैं मुझे सब पापों और अशुभों से मुक्त कर दूंगा, शोक मत कर”। परंतु भगवान् द्वारा मनुष्य को कहे हुए इस गंभीर और हृदयस्पर्शी शब्द के साथ गीता का वर्णन आरंभ नहीं किया गया है, आरंभ मे तो इस मार्ग पर चलने के लिये आवश्यक ज्योति की कुछ किरणें भर छिटका दी गयी हैं और वे भी अंतिम वचन की नाई अंतरात्मा का स्पश्र करने के लिये नहीं, बल्कि उसकी बुद्धि को प्रकाश देने के लिये। पहले-पहल मनुष्य के सुहृद् और प्रेमी भगवान् नहीं बोले, बल्कि वे भगवान् बोले हैं जो उसके पथ-प्रदर्शक और गुरु है, शिष्य वास्तविक आत्मा को, जगत् के स्वभाव को और अपने कर्म के उद्गम स्थान को नहीं जानता; उसके इस अज्ञान को उन्हें दूर करना था।


चूंकि मनुष्य अज्ञानपूर्वक और अशुद्ध बुद्धि के साथ कर्म करता है, और ऐसी हालत में इन कार्मों के संबंध में उसका संकल्प भी अशुद्ध ही होता है,, इसलिये वह कर्मबंधन में पड़ता है या बद्ध- सा जान पड़ता है ; नहीं तो मुक्त आत्मा के लिये तो कर्म बंधन का कारण है ही नहीं। इस अशुद्ध बुद्धि के कारण ही मनुष्य को आशा, भय, क्रोध और शोक तथा क्षणिक सुखी होता है ; अन्यथा पूर्ण शांति और स्वतंता के साथ कर्म किये जा सकते हैं। इसलिये सबसे पहले अर्जुन को बुद्धियोग ही बताया गया है। शुद्ध बुद्धि और फलतः शुद्ध संकल्प के साथ उस एक परमात्मा में स्थिर होकर, सबमें उस एक आत्मा को जानते हुए तथा उसकी सम शांति में से कार्य करते हुए और उपरितल के मनोमय पुरुष की हजारों प्रेरणाओं के वश इधर-उधर भटके बिना कर्म करना ही बुद्धियोग है। गीता कहती है कि मनुष्य की बुद्धि दो प्रकार की है। एक बुद्धि एकाग्र, संतुलित, एक, समरस और केवल परम सत्य में ही संलग्न है: एकत्व उसकी विशिष्टता है और एकाग्र स्थिरता उसका प्राण। दूसरी बुद्धि में कोई स्थिर संकल्प नहीं, कोई एक निश्चय नहीं, उसमें अनेक शाखा-पल्लवों से युक्त असंख्य विचार हैं, वह जीवन और परिस्थिति से उठने वाली इच्छाओं के पीछे इधर-उधर भटका करती है।


गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द 10.बुद्धियोग जिस बुद्धि शब्द का यहाँ प्रयोग हुआ है उसका विशिष्ट अर्थ तो समझने-बूझने की मानसिक शक्ति है, किंतु गीता में बुद्धि शब्द का प्रयोग इसके व्यापक दार्शनिक अर्थ में हुआ है, गीता में बुद्धि से अभिप्रेत है मन की विवेक और निश्चय करने वाली समस्त क्रिया, मन अर्थात वह तत्त्व जो हमारे विचारों का कार्य और उनकी गति की दिशा तथा हमारे कर्मों का उपयोग और उनकी गति की दिशा-इन दोनों बातों का निश्चय करता है। विचार, बोध, निर्णय, मानसिक पसंद और लक्ष्य ये सब बुद्धि के धर्म के अंतर्गत है। क्योंकि एक निष्ठ बुद्धि का लक्षण केवल बोध करने वाले मन की एकाग्रता ही नहीं है, बल्कि उस मन की एकाग्रता भी है जो निश्चय करने वाला अर्थात् व्यवसायी है और फिर यह मन अपने निश्चय पर जमा रहता है, दूसरी ओर अव्यवसायात्मिका बुद्धि का लक्षण भी उसकी भावनाओं और इन्द्रियानुभवों का भटकते रहना उतना नहीं है जितना उसके लक्ष्यों और उसकी इच्छाओं का फलतः उसके संकल्प का इधर-उधर भटकते रहना है। संकल्प और ज्ञान, ये दोनां कर्म बुद्धि के हैं। एक निष्ठ बुद्धि ज्ञानदीप्त आत्मा में स्थिर होती है, आंतर आत्मज्ञान में एकाग्र होती है; और इसके विपरीत जो बुद्धि बहुशाखा वाली और बुहुधंधी है, जो बहुत से व्यापारों में लगी है लेकिन अपने एकमात्र परमावश्यक कर्म की उपेक्षा करती है, वह मन की चचंल तथा इधर-उधर भटकने वाली क्रियाओं के अधीन रहती और बाह्म जीवन और कर्मों तथा उनके फलों में विखरी रहती है। “कर्म”, भगवान् कहते हैं कि, “बुद्धियोग की अपेक्षा बहुत नीचे दर्जे की चीज है, इसलिये बुद्धि की शरण लेने की इच्छा करो; वे लोग दरिद्र और पामर हैं जो कर्मफल को अपने विचार और अपनी कर्मण्यताओं का विषय बनाते हैं ।” हमें सांख्यों की उस मनोवैज्ञानिक क्रमव्यवस्था को याद रखना चाहिये जिसे गीता ने स्वीकार किया है। इस क्रमव्यवस्था में एक ओर पुरुष है जो स्थिर, अकर्ता, अक्षय, एक और अविकार्य है; दूसरी ओर प्रकृति है जो सचेतन पुरुष के बिना स्वयं जड़ है, जो कन्नी है, पर इसका यह गुण पुरुष की चेतना के सात्रिध्य से, उसके संपर्क में आने से ही है। कहा जा सकता है कि आरंभ में वह पुरुष के साथ एक नहीं हो जाती, बल्कि अनिश्चित रूप से उसके संपर्क में आती है, जिस रूप में वह त्रिगुणत्मिका है, विवर्तन और निवर्तन की योग्यता रखती है। पुरुष और प्रकृति के परस्पर-संपर्क से ही आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ और क्रीड़ा होती है, जो हमारी सत्ता का अनुभव है। हमारा जो अंतरंग पहले वह विकसित होता है, क्योंकि प्रथम कारण पुरुष-चैतन्य है, और जड़ प्रकृति केवल द्वितीय कारण है और पहले पर आश्रित है। तथापि हमारी अंतरंगता के जो कारण हैं उनकी उत्पत्ति प्रकृति से है; पुरुष से नहीं।


इस क्रम में पहले बुद्धि अर्थात् विवेक और निश्चय करने वाली शक्ति का और अहंकार अर्थात् इतरों से अपना पार्थक्य करने वाली बुद्धि की अनुगत शक्ति का विकास होता है। तब इस क्रमव्यस्था के द्वितीय विकास में बुद्धि और अहंकार में से मन उत्पन्न होता है जो विषयों की पृथक-पृथक पहचान करता है। यहाँ हमें भारतीय नामों का प्रयोग करना चाहिये, क्योंकि उनके समानवाची अंग्रेजी शब्द सचमुच उनके पर्याय नहीं है; इस क्रमव्यवस्था के तीसरे विकास में मन से पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कमेन्द्रियां उत्पन्न होती हैं; तदनंतर ज्ञानेन्द्रियों की शक्तियां अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध उत्पन्न होते हैं, जो हमारे मन के लिये स्थूल विषयों का मूल्य निर्धारित करते हैं और हमारी आत्मनिष्ठता में पदार्थों की जो प्रतीति होती है वह उन्हीं के द्वारा होती है। इन्ही पांच विषयों के उपादान-स्वरूप पंचहमाभूत उत्पन्न होते हैं, जिनके विभिन्न सम्मिश्रणों से बाह्म जगत् के पदार्थ उत्पन्न होते हैं। प्रकृति के गुणों की ये अवस्थांए और शक्तियां पुरुष के विशुद्ध चैतन्य में प्रतिभासित होकर हमारे अशुद्ध अंतःकरण के उत्पादन बनाती है। अशुद्ध इसलिये कि इसका कार्य बाह्य जगत् के अनुभवों और अंतःकरण पर होने वाली उनकी प्रतिक्रियाओं पर निर्भर है। इसी बुद्धि की जो मात्र विधायक शक्ति है और जो अपनी अनिश्चत अचेतन शक्ति में से सब जड़वत्त किया करती है-हमारे अंदर दो रूप हो जाते हैं, एक मेधा और दूसरा संकल्प।


मन, जो एक अचेतन शक्ति है, प्रकृति के भेदों को बहिरंग क्रिया और प्रतिक्रिया के द्वारा ग्रहण करता और आकर्षण के द्वारा उनसे संलग्न होता है, इन्द्रियानुभव और कामना बनता है जो बुद्धि और संकल्प के ही दो असंस्कृत अवयव या विकार हैं,-यही मन संवेदन-शक्ति, भावावेग-शक्ति और इच्छा-शक्ति बनता है, इच्छा शक्ति से यहाँ अभिपेत है निम्न कोटि की इच्छा, आशा, कामनामय आवेग, प्राण का आवेग, और ये सबके संकल्प- शक्ति के ही विकार हैं। इन्द्रियां इस मन का उपकरण बनती है, जिनमें पांच ज्ञानेर्न्दिया और पांच कार्मेन्द्रियां, जो अंतरंग जगत् और बहिरंग जगत् के बीच मध्यस्थति का काम करती हैं; बाकी सब हमारी चेतना के विषय, इन्द्रियों के विषय है। स्थूल जगत् के विकास का जो क्रम हम लेाग देखते हैं उससे यह क्रम विपरीत प्रतीत होता है। परंतु यदि हम यह स्मरण रखें कि स्वयं बुद्धि भी अपने-आपमें जड़ प्रकृति की एक जड़ क्रिया है और परमाणु में भी कोई जड़ संकल्प और बोध, पार्थक्य और निश्चय करने वाली गुणक्रिया होती है, यदि हम यह देखें कि पौधों में भी, जीवन के इन अवचेतन रूपों में भी, संवेदन, भावावेग, स्मृति और आवेगों के असंस्कृत अचेतन उपादान मौजूद हैं और फिर यह देखें कि प्रकृति की ये शक्तियां ही किस प्रकार आगे चलकर पशु और मनुष्य की विकासोन्मुख चेतना में अंतःकरण के रूप धारण करती हैं, तो हमें यह पता लगेगा कि आधुनिक विज्ञान ने जड़ प्रकृति के निरीक्षण द्वारा जो कुछ तथ्य प्राप्त किया है, उसके साथ सांख्य प्रणाली का मेल मिल जाता है।


प्रकृति से लौटकर अपने पुरुष-स्वरूप को प्राप्त करने के लिये जीव की जो विकास-क्रिया होती है उसमें प्रकृति-विकास के मूल क्रम का उल्टा क्रम ग्रहण करना पड़ता है। उपनिषदों ने और उपनिषदों का ही अनुसरण करके, प्रायः उपनिषदों के वचनों को ही उद्धृत करके गीता ने हमारे अंतःकरण की शक्तियों का आरोहण क्रम इस प्रकार बतलाया है– “विषयों” से इन्द्रिया परे है, इन्द्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है और बुद्धि से परे जो है वह, ‘वह’ है” -चिदात्मा, चैतन्य पुरुष। इसलिये गीता कहती है, इस पुरुष को, हमारे आत्मनिष्ठ जीवन के इस परम कारण को हमें बुद्धि से समझना और जान लेना होगा; उसी में अपने संकल्प को स्थिर करना होगा। इस प्रकार हम प्रकृतिस्थ निम्नतर अंतरंग पुरुष को उस महत्तर चिम्नय पुरुष की सहायता से सर्वथा संतुलित और निस्तब्ध करके अपनी शांति और प्रभुत्व के शत्रु, मन की “कामना” को, जो सदा अशांत और चंचल रहती है, मार सकेगें”। कारण, यह तो स्पष्ट ही है कि बुद्धि की क्रिया की दो संभवनाएं है। या तो वह निन्मगामी और बहिर्मुख होकर प्रकृति के तीनों गुणो की लीला में इन्द्रियानुभवों और संकल्पों की छितरी हुई क्रियाओं में संलग्न रहे, या ऊर्ध्वगामी और अंतर्मुख होकर, प्रकृति के जंजाल से छूटकर, प्रशांत चिदात्मा की स्थिरता और सनातन विशुद्धता में चिरशांति और समता लाभ करे। पहले विकल्प में अंतरंग सत्ता इन्द्रियों के विषयों के अधीन रहती है, वह वस्तुओं के बाह्म संपर्क में ही निवास करती है।


यह कामना का जीवन है। इसमें इन्द्रियां विषयों से उत्तेजित कोर अशांत, बहुधा भीषण विक्षोभ उत्पन्न करती हैं, उन विषयों को हथियाने और उन्हें भोंकने के लिये बड़ी तेजी से अंधाधुंध बाहर की ओर दौड़ पड़ती हैं और मन को अपने साथ खींच ले जाती हैं, जैसे समुद्र में वायु नौका को खींच ले जाती है; फिर इन्द्रियों की इस बहिर्मुख गति द्वारा जगाये हुए भावावेगों, आवेशों, लालासाओं और प्रेणाओं से पराभूत हुआ मन, उसी प्रकार, बुद्धि को खींच ले जाती है। इससे बुद्धि अपना स्थिर विवेक और प्रभुता खो बैठती है। निम्नगा बुद्धि का परिणाम यह होता है कि प्रकृति के तीनों गुणों की जों सदा गुत्थंगुत्था और भिड़ंत होती रहती है, जीव उसकी उलझी क्रीड़ा के अधीन हो जता है, वह ज्ञानमय हो जाता है, उसका जीवन मिथ्या, इन्द्रियपरायण और बहिरंग हो जाता है, वह शोक, क्रोध, आसक्त् और आवेश का दास हो जाता है,-यही है साधारण, अज्ञानी, असंयमी मनुष्य का जीवन। जो लोग वेदवादियों के समान इन्द्रियभोग को ही कर्म का लक्ष्य और उसी की पूणर्ता को जीव का परम ध्येय बनाते हैं उनके उपदेश हमारे काम के नहीं। अंतःस्थ निर्विषय आत्मानंद हमारा सच्चा लच्य है और यही हमारी शांति और मुक्ति की उच्च और व्यापक समस्थिति है।


अतः, बुद्धि को ऊर्ध्वमुख और अंतर्मुख करना ही हमारा व्यवसाय होना चाहिये, अर्थात् निश्चयपूर्वक बुद्धि को स्थिर रूप से एकाग्र करके अध्यवसाय के साथ पुरुष के प्रशांत आत्मज्ञान में स्थिर करना चाहिये। इसमें सबसे पहली बात कामना से छुटकारा पाना है; क्योंकि कामना ही सब दु:खों और कष्टों का मूल कारण है। कामना से छुटकारा पाने के लिये कामना के कारण का अर्थात् विषयों को पाने और भोगने के लिये इन्द्रियों की दौड़ का, अंत करना होगा। जब इस तरह से इन्द्रियां दौड़ पड़ें तब उन्हैं पीछे खींचना होगा, विषयों से सर्वथा हटा लेना होगा- जैसे कछुआ अपने अंगों को अपनी ढाल के अंदर कर लेता है, वैसे ही इन्द्रियों को उनके मूल उपादान मन में लाकर शांत करना होगा, और मन को बुद्धि में और बुद्धि को आत्मा एवं उसके आत्मज्ञान में लाकर शांत करना होगा। यह आत्मा वह पुरुष है जो प्रकृति के कर्म को देखता है, उसमें फंसता नहीं; क्योंकि विषयों से मिलने वाली कोई भी चीज वह नहीं चाहता। यहाँ वह शंका उठ सकती है कि श्रीकृष्ण संन्यास का उपदेश दे रहे हैं, इसे दूर करने के लिये वे कहते हैं कि मैं किसी बाह्म वैराग्य या विषयों के भौतिक संन्यास की बात नहीं कर रहा। सांख्यों का संन्यास या प्रखर विरागी तपस्वियों के उपवासादि तप, कायक्लेश या त्याग आदि से मेरा अभिप्रया नहीं है, मैं तो आंतरिक वैरागय एवं कामना के परित्याग की बात कहता हूँ।


देही के जब तक देह है तब तक इस देह को नित्य दैहिक कर्म करने के योग्य बना रखने के लिये आहार देना ही होगा; निराहार होने से देही विषयों के साथ अपने दैहिक संबंध का ही विच्छेद कर सकता है, पर इससे वह आंतरिक संबंध नहीं छूटता जो उस संबंध को दु:खद बनाने का कारण है। उसमें विषयों का रस-राग और द्वेष जिसके दो पहलू है- तो बना ही रहता है। इसके विपरीत देही को तो, ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे वह राग-द्वेष से अलिप्त रहकर बाह्य स्पर्श को सह सके। अन्यथा विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु आंतरिक निवृत्ति नहीं होती, मन निवृत्त नहीं हेाता; और इन्द्रियां मन की हैं, अंतरंग हैं, इसलिये रस की आंतरिक निवृत्ति ही प्रभुता का एकमात्र वास्तविक लक्षण है। परंतु विषयो से इस प्रकार का निष्काम संपर्क, इन्द्रियो का इस प्रकार निर्लेप उपयोग कैसे संभव है। यह संभव है परम को देखने से, परम पुरुष के दर्शन से और बुद्धियोग के द्वारा उसे साथ सार्वान्त: करण से युक्त होन से, एकत्व को प्राप्त होने से क्योंकि; वह ‘एक’ आत्मा शांत है, अपने ही आंनद से संतुष्ट है, और एक बार यदि हमने अपने अंदर रहने वाले इस परम पुरुष का दर्शन कर लिया, अपने मन और संकल्प को उसके अंदर स्थापित कर दिया तो यह द्वद्वंशून्य आनंद,-इन्द्रियों के विषयों से पैदा होने वाले मानसिक सुख और दु:ख का स्थान अधिकृत कर सकता है। यही मुक्ति का सच्चा रास्ता है।


निश्चय ही आत्म-संयम, आत्म-नियंत्रण कभी आसान नहीं होता। सभी बुद्धिमान् मुनष्य इस बात को जानते हैं कि उन्हें थोड़ा बहुत संयम करना चाहिये, अपने-आपको वश में रखना ही चाहिये और इन्द्रियों को वश में रखने के लिये जितने उपदेश मिलते हैं उतने शायद ही किसी दूसरी चीज के लिये मिलते हों। परंतु सामान्यतः यह उपदेश अपूर्ण रूप से ही दिया जाता है और इसका पालन भी अपूर्ण रूप से और वह भी बहुत ही मर्यादित और अपर्याप्त मात्रा में किया जाता है। पूर्ण आत्म-प्रभुत्व की प्राप्ति के लिये परिश्रम करने वाला ज्ञानी, स्पष्ट द्रष्टा, बुद्धिमान् और विवेकी पुरुष भी यह देखता है कि इन्द्रियां उसे बेकाबू करके सहसा खींच ले जाती हैं। ऐसा क्यों होता है? इसलिये कि मन स्भावतः इन्द्रियो के विषयों में आंतरिक रस लेता है, वह विषयों पर जम जाता है और उनको बुद्धि के लिये विचारों की व्यस्तता का और संकल्प के लिये तीव्र रुचि का विषय बना देता है। इससे आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्ति से कामना, कामना से अर्थात् कामना की पूर्ति न होने पर या उसके विफल या विपरीत होने पर संताप, आवेश और क्रोध उत्पन्न होता है, इससे मोह होता है, बुद्धि के बोधि और संकल्प दोनों ही स्थिर साक्षी पुरुष को देखना और उसी में स्थित रहना भूल जाते हैं, अपनी सदात्मा की स्मृति से पतन हो जाता है और इस पतन से बुद्धिगत संकल्प आच्छादित हो जाता है, नष्ट तक हो जाता है।


उस समय के लिये तो हमारी स्मृति से उसका लोप ही हो जाता है, वह मोह के बादल में छिप जाता है और हम स्वयं मोह, क्रोध और शोक बन जाते हैं; आत्मा, बुद्धि और संकल्प नहीं रहते। इसलिये ऐसा न होने देना चाहिये और सब इंन्द्रियों को अच्छी तरह वश में ले आना चाहिये; क्योंकि इन्द्रियों के पूर्ण संयम से ही विश्व और स्थिर बुद्धि अपने स्थान में दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित हो सकती है। बुद्धि के अपने प्रयत्न से ही, केवल मानसिक संयम से ही यह कार्य पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं हो सकता; यह केवल ऐसी वस्तु के साथ युक्त होने से हो सकता है जो बुद्धि से ऊंची हो और स्थिरता तथा आत्म-प्रभुता जिसमें स्वभावसिद्ध हो। इस योग की सिद्धि भगवान् की ओर लगने से, भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘मेरी ओर’ लगने से, ‘मद्भावापन्न’ होने से, ‘सर्वात्मना मेरे समर्पित’ होने से, होती है; कारण मुक्त्दिाता श्री भगवान् हमारे अंदर हैं, पर हमारा मन या हमारी बुद्धि या हमारी अपनी इच्छा, यह भागवत सत्ता नहीं है, ये तो केवल उपकरण हैं। हमें, जैसा कि गीता के अंत में बताया गया है, सर्वभाव से ईश्वर की ही शरण जाना और इसके लिये पहले उन्हें अपनी संपूर्ण सत्ता का ध्येय बनाना होगा और उनसे आत्म-संबंध बनाये रखना होगा। “सर्वथा मत्पर होकर, मुझमें योग मुक्त होकर स्थित रह” इसका यही अभिप्राय है। पर अभी यह संकेममात्र है, जो गीता की प्रतिपादन शैली के अनुसार ही है।


युक्त आसीत मत्पर:” इन तीन शब्दों में वह परम रहस्य बीज-रूप से भर दिया गया है जिसका विस्तार आगे होना है। ऐसा जब हो जाये तब विषयों में विचरते हुए, उनके संपर्क में रहते हुए, उन पर क्रिया करते हुए भी इन्द्रियों को अंतरात्मा के सर्वथा आधीन रखना-विषय और उनके संस्पर्श तथा उनकी प्रतिक्रियाओं के वशीभूत होकर नहीं-और फिर इस अंतरात्मा को परम-आत्मा, परम पुरुष के अधीन रखना संभव होता है। तब विषयों की प्रतिक्रियाओं से छूटकर इन्द्रियां राग-द्वेष से वियुक्त, काम-क्रोध से मुक्त होती हैं और तब आत्मप्रसाद अर्थात् आत्मा की स्थिरता, शांति, विशुद्धता और संतुष्टि प्राप्त होती है। वह आत्मप्रसाद अर्थात् जीव के परम सुख का कारण है; उसके रहते कोई दु:ख उस शांत पुरुष को स्पर्श नहीं कर सकता; उसकी बुद्धि तुरंत आत्मा की शांति में स्थित हो जाती है; दुःख रह ही नहीं जाता। इसी आत्मावस्था और आत्मज्ञान में स्थिर, निष्काम, दु:ख रहित बुद्धि की धृति को गीता ने समाधि कहा है। समाधिस्थ मनुष्य का लक्षण यह नहीं है कि उसको विषयों और परिस्थितियों का तथा अपने मनोमय और अन्नमय पुरुष का होश ही न रहे और शरीर को जलाने या पीड़ित करने पर भी उसे इस चेतना में लौटाया न जा सके, जैसा कि साधरणतया लोग समझते हैं; इस प्रकार की समाधि तो चेतना की एक विशिष्ट प्रकार की प्रगाढ़ता है, यह समाधि का मूल लक्षण नहीं है।


समाधि की कसौटी है सब कामनाओं का बहिष्कार, किसी भी कामना का मन तक न पहुँच सकना, और यह वह आंतरिक अवस्था है, जिससे वह स्वतंत्रता उत्पन्न होती है, आत्मा का आंनद अपने ही अंदर जमा रहता है और मन सम, स्थिर तथा ऊपर की भूमिका में ही अवस्थित रहता हुआ आकर्षणों और विकर्षणों से तथा बाह्म जीवन के घड़ी-घड़ी बदलने वाले आलोक अंधकार और तूफानों तथा झंझटों से निर्लिप्त रहता है। वह बाह्य कर्म करते हुए भी अंतर्मुख रहता है; बाह्यपदार्थों को देखते हुए भी आत्मा में ही एकाग्र होता है; दूसरों की दृष्टि में सांसारिक कर्मों में लगा हुआ प्रतीत होने पर भी सर्वथा भगवान् की ओर लगा रहता है। अर्जुन औसत मनुष्य के मन में उठने वाला यह प्रश्न करता है कि इस महान् समाधि का वह कौन-सा लक्षण है जो बाह्म, शारीरिक और व्यावहारिक रूप में जाना जा सके; समाधिस्थ मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है? इस तरह के कोई लक्षण नहीं बताये जा सकते और न भगवान् गुरु की बतलाने का प्रयास करते है; क्योंकि समाधि की जो कोई कसौटी हो सकती है, वह आंतरिक है और कसकर देखने की बहुत-सी विरोधी शक्तियां हैं, और ये भी मनोगत हैं। मुक्त पुरुश का महान लक्षण समता है और समता की पहचान के लिये जो अति स्पष्ट चिह्म है वे भी आंतरिक हैं। “दु:ख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख की इच्छा जिसकी जाती रही है, राग, भय और क्रोध जिसका निकल गया है, वही मुनि स्थितप्रज्ञ है”।


वह “निस्त्रेगुण्य, निर्द्वन्द्व, सदा अपनी सत्य सत्ता में प्रतिष्ठित, निर्योगक्षेम, आत्मवान्” होता है। कारण मुक्त पुरुष का योगक्षेम क्या है? जहाँ एक बार हम आत्मवान हुए वहाँ सब-कुछ तो प्राप्त हो गया, सब कुछ तो हमारा ही है। पर फिर भी आत्मवान् पुरुष कर्म से विरत नहीं होता। यही गीता की मौलिकता और शक्ति है कि पुरुष की इस स्थितिशील अवस्था का प्रतिपादन करके भी, प्रकृति पर पुरुष का श्रेष्ठतव बताकर भी, मुक्त पुरुष के लिये प्रकृति की साधरण क्रिया की निःसारता को दिखाकर भी वह उसे कर्म जारी रखने को कहती है, कर्म का उपदेश करती है और ऐसा करने के कारण गीता उस बड़े भारी दोष से बच जाती है, जो मात्र शान्तिकामी और वैरागी मतों में पाया जाता है,-यद्यपि आज वे इस दोष से बचने का प्रयत्न कर रहे हैं। “कर्म पर तेरा अधिकार है, पर केवल कर्म पर, कर्म के फल पर कदापि नहीं; अपने कर्मों के फलों की इच्छा करने वाला मुक्त बन और अकर्म में भी तेरी आसक्त् नहीं हो”[2]। इस बात से यह स्पष्ट है, कि यह कर्म वेदवादियों का वह कर्म नहीं है, जो फलविशेष की कामना से किया जता है, और न यह उस प्रकार का कर्म है, जिसका दावा सांसारिक या राजसी वृत्ति के कर्मी किया करते हैं और जो अशांत उद्योगी मन की संतुष्टि के लिये सदा किया जता है।


“योगस्थ होकर कर्म कर, संग का त्याग करके, सिद्धि-असिद्धि में सम होकर; समत्व ही योग से अभिप्रेत है”[3]। यह प्रश्न उठता है, कि शुभ और अशुभ के आपेक्षिक विचार के कारण, पाप से भय और पुण्य के कठिन प्रयास के कारण क्या कर्म केवल दु:खदायी ही नहीं होता? परंतु वह मुक्त् पुरुष जिसने अपनी बुद्धि और संकल्प को भगवान् के साथ एक कर लिया है, वह इस द्वन्द्वमय संसार में भी शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों का परित्याग किये रहता है; क्योंकि वह शुभाशुभ के परे जो धर्म है, जिसकी प्रतिष्ठा आत्मज्ञान की स्वाधीनता में है, उसमें ऊपर उठ जाता है। कहा जा सकता है कि ऐसे निष्काम कर्म में तो कोई निश्चिता, कोई अमोघता, कोई लाभदायक प्रेरक-भाव, कोई विशाल या ओज- सृष्टि- सामर्थ्य नहीं हो सकता? ऐसा नहीं है; योगस्थ होकर किया जाने वाला कर्म न केवल उच्चतम प्रत्युत अत्यंत ज्ञानपूर्ण, सांसारिक विषयों के लिये भी अत्यंत शक्तिशाली और अत्यंत अमोघ होता है; क्योंकि उसमें सब कर्मों के स्वामी भगवान् का ज्ञान और संकल्प भरा रहता है; “योग है, कर्म की कुशलता,” परंतु जीवन के लिये किया जाने वाला कर्म योगी को उसके महान ध्येय से दूर ले जाता है और यह बात तो सर्वसम्म्त ही है, कि योगी का ध्येय इस दुख- शोकमय मानव- जन्म के बंधन से छुटकारा पाना होता है?


नहीं, ऐसा भी नहीं है; जो योगी कर्मफल की इच्छा के बिना, भगवान के साथ योग में स्थित होकर कर्म करते हैं, वे जन्म-बंध से मुक्त होते हैं और उस परम परद को प्राप्त होत हैं, जहाँ दु:खी मानव-जाति के मन और प्राण को सताने वाली किसी भी व्याधि का नामोनिशान तक नहीं होता। योगी जिस पद को प्राप्त होता है वह ब्राह्मी स्थिति है, वह ब्रह्म में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाता है। संसार-बद्ध प्राणियों की जो कुछ दृष्टि, अनुभूति, ज्ञान, मूल्यांकन और देखना-सुनना है वहाँ यह सब कुछ पलट जाता है। यह द्वन्द्वमय जीवन जो इन बद्ध प्राणियों का दिन है, जो इनकी जागृति है, जो इनकी चेतना है, जो इनके लिये कर्म करने और ज्ञान प्राप्त करने की उज्ज्वल अवस्था है, उसके लिये यह रात है, दुःखभरी नीद और आत्माविषयक अंधकार है; और वह उच्चतर सत्ता जो इन बद्व प्राणियों के लिये रात है, वह नींद है जिसमें इनका सारा ज्ञान और कर्मसंकल्प लुप्त हो जाता है, उस संयमी पुरुष के लिये जागृत अवस्था है, सत्य सत्ता, ज्ञान और शक्ति का प्रकाशमय दिवस है।


ये बद्ध प्राणी उन चंचल पंकिल जलाशयों की तरह हैं जो कामना की जरा-सी लहर का धक्का लगते ही हिलने लग जाते हैं; योगी विशाल सत्ता और चेतना का वह समुद्र है जो सदा भरा जाने पर भी अपनी आत्मा की विशाल समस्थति में सदा अचल रहता है; संसार की सब कामनाएं उसमें प्रविष्ट होती हैं, जैसे समुद्र में नदियां, फिर भी उसमें कोई कामना नहीं हेाती, कोई चांचलय नहीं होता। इन प्राणियों में भरा रहता है, अंधकार और “मेरा–तेरा” का उद्वेगजनक भाव, और वह सबके एक अखिलांतरात्मा के साथ एक होता है, उसमें न “मैं” है न ‘मेरा’। वह कर्म तो दूसरों की तरह ही करता है, पर सब कामनाओं और उनकी लालसाओं को छोड़कर।


वह महान् शांति को प्राप्त होता है और बाहरी दिखावों से विचलित नहीं होता; उसने अपने व्यष्टिगत अहंभाव को उस एक अखिलांतराम्ता में निर्वापित कर दिया है, वह उसी एकत्व में रहता है और अंतकाल में उसी में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण को प्राप्त होता है- यह ब्रह्मनिर्वाण बौद्धों का अभावात्मक आत्म-विध्वंस नहीं है, प्रयुक्त पृथक वैयक्तिक आत्मा का उस एक अनंत निव्र्यक्तिक सत्ता के विराट् सत्य में महान् निमज्जन है। इस प्रकार सांख्य, योग और वेदांत का यह सूक्ष्म एकीकरा गीता की शिक्षा की पहली नीव हैं यही सब कुछ नहीं है बल्कि ज्ञान और कर्म की यह प्राथमिक अनिवार्य व्यावाहारिक एकता है जिसमें जीव की परिपूर्णता के लिये परमावश्यक सर्वोच्च और आत्यंतिक तीसरे अंग का अर्थात् भागवत प्रेम और भक्ति का संकेतमात्र किया गया है।





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