बाह्य कर्म पाप नहीं



बाह्य कर्म पाप नहीं है, बल्कि वैयक्त्कि संकल्प, मन और हृदय की जो अशुद्ध प्रतिक्रिया कर्म के साथ लगी रहती और कर्म कराती है उसीका नाम पाप है; नैर्व्यक्तिक आध्यात्मिक मनुष्य तो सदा ही शुद्ध, अपापविद्व होता है और उसके द्वारा होने वाले कार्य में उसकी सहज शुद्धता आ जाती है। यह आध्यात्मिक नैर्व्यक्तिक दिव्य कर्मी का तीसरा लक्षण है। किसी प्रकार की महत्ता या विशालता को प्राप्त सभी मनुष्य यह अनुभव करते हैं कि कोई नैर्व्यक्तिक शक्ति या प्रेम या संकल्प ज्ञान उनके अंदर काम कर रहा है, पर वे अपने मानव- व्यक्तित्व की अहंभावापन्न प्रतिक्रियाओं से मुक्त नहीं हो पाते, और कभी-कभी तो ये प्रतिक्रियाएं अत्यंत प्रचंड होती हैं। परुंतु मुक्त पुरुष इन प्रतिक्रियाओं से सर्वथा मुक्त होता है; क्योंकि वह अपने व्यक्तित्व को नैर्व्यक्त्कि पुरुष में निक्षेप कर देता है और अब उसका व्यक्त्त्वि उसका अपना नहीं रह जाता, उन भगवान् पुरुषोत्तम के हाथों में चला जाता है जो सब सांत गुणों को अनंत और मुक्त भाव से व्यवहार करते हैं पर किसी द्वारा बद्व नहीं होते। मुक्त पुरुष आत्मा हो जाता है और प्रकृति के गुणों का पुंज-सा नहीं बना रहता; और प्रकृति के कर्म के लिये उसे व्यक्तित्व का जो कुछ आभास बाकी रह जाता है वह एक ऐसी चीज होती है जो बंधनमुक्त, उदार, नमनीय और विश्वव्यापक है; वह भगवान् की अनंत सत्ता का एक विशु पात्र बन जाता है, पुरुषोत्तम का एक जीवंत छदरूप हो जाता है। इस ज्ञान, निष्कामता और नैर्व्यक्तिकता का फल है पुरुष और प्रकृति में पूर्ण समत्व। समत्व दिव्य कर्मी का चैथा लक्षण है। गीता कहती है कि वह ‘द्वन्द्वातीत’ हो जाता है, वह सफलता और विफलता, जय और पराजय को अविचल भाव से और समदृष्टि से देखता है, इतना ही नहीं वह सभी द्वन्दों के परे उस स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ द्वन्दों का सामंजस्य होता है। जिन बाह्य लक्षणों से मनुष्य जगत् की घटनाओं के प्रति अपनी मनोवृत्ति का रूख निश्चित करते हैं वे उसकी दृष्टि में गौण और यांत्रिक होते हैं। वह उनकी उपेक्षा नहीं करता, पर उनसे परे रहता है। शुभ और अशुभ का भेद कामना के अधीन मनुष्य के लिये सबसे बड़ी चीज है, पर निष्काम आत्मवान पुरुष के लिये शुभ और अशुभ दोनों ही एक से ग्रह्म हैं, क्योंकि इन दोनों के संमिश्रण से ही शाश्वत श्रेय के विकासशील रूप निर्मित होते हैं। उसकी हार तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसकी दृष्टि के अनुसार प्रकृति के कुरुक्षेत्र अर्थात् धर्मक्षेत्र में सब कुछ भगवान् की विजय की ओर जा रहा है, इस कर्मक्षेत्र में जो विकसनशील धर्म का क्षेत्र है, कुरुक्षेत्र युद्ध के प्रत्येक मोड़ का नक्शा युद्ध के अधिनायक, कर्मों के स्वामी, धर्म के नेता की पूर्वदृष्टि से पहले ही खींचकर तैयार किया जा चुका है।


मनुष्यों से मिलने वाले मान-अपमान या निंदा-स्तुति का उस पर कुछ भी असर नहीं पड़ सकता, क्योंकि उसके कार्य का निर्णायक अधिक विमल दृष्टि वाला कोई और ही है और उसके कार्य का पैमाना भी अलग है और उसकी प्रेरक-भाव सांसारिक पुरस्कार पर जरा भी निर्भर नहीं है। क्षत्रिय अर्जुन की दृष्टि में मान और कीर्ति का बहुत बड़ा मूल्य होना स्वाभाविक ही है, उसका अपयश तथा कापुरुषता के अपवाद से बचना; उन्हें मृत्यु से भी बुरा मानना ठीक ही है, क्योंकि संसार में मान की रक्षा करना और साहस की मर्यादा को बनाये रखना उसके धर्म का अंग है, किंतु मुक्त अर्जुन को इनमें से किसी बात की परवाह करने की आवश्यकता नहीं, उसे तो केवल अपना कर्तव्य कर्म जानना है, उस कर्म को जानना है जिसकी मांग उसकी परम आत्मा उससे कर रही है, उसे वही करना है और फल को अपने कर्मों के ईश्वर के हाथों में छो़ड़ देना है। पाप-पुण्य के भेद से भी वह उपर उठ चुका है। मानव-जीव जब अपने अहंकार की पकड़ को ढीला करने के लिये और अपने प्राणावेगों के भारी और पचंड जूए के बोझ को हलका करने के लिये संघर्ष करता है तब पाप और पुण्य में विवेक का बहुत अधिक महत्त्व होता है।


पर मुक्त पुरुष तो इसके भी परे चला जाता है, वह इन 

संघषों के ऊपर उठ जाता है तथा साक्षिस्वरूप ज्ञानरूप आत्मा की पवित्रता में सुप्रतिष्ठित हो जाता है। अब पाप झड़कर गिर गया है और उसे अच्छे कर्मों से न पुण्य मिलता है न उसके पुण्य की वृद्धि होती है, और इसी तरह किसी बुरे कर्म से पुण्य की हानि या नाश भी नहीं होता, वह दिव्य और निरहं प्रकृति की अविच्छेद्य और अपरिवर्तनीय पवित्रता के शिखर पर चढ़ गया है और वहीं आसन जमाकर बैठा है। उसके कर्मों का आरम्भ पाप-पुण्य के बोध से नहीं होता, न ये उस पर लागू होते हैं।अर्जुन अभी अज्ञान में है। वह अपने हृदय में सत्य और न्याय की कोई पुकार अनुभव कर सकता है और मन-ही-मन सोच सकता है कि युद्ध से हटना पाप होगा, क्योंकि अधर्म की विजय होना से अन्याय, अत्याचार और अशुभ कर्म छा जाते हैं और इससे मनुष्य और राष्ट्र पीड़ित होते हैं। और इस अवसर पर यह जिम्मेवारी उसी के सिर पर आ पड़ेगी। अथवा उसके दया में हिंसा और मारकाट के प्रति घृणा पैदा हो सकती है और वह मन-ही-मन यह सोच सकता है कि खून बहाना तो हर हालत में पाप है और रक्तपात का समर्थन किसी अवस्था में नहीं किया जा सकता। धर्म और युक्ति की दृष्टि से ये दोनों मनोभाव ही एक-से मालूम होंगे; इनमें से कौंन-सा मनोभाव किसके मन पर हावी होगा या दुनिया की दृष्टि में जंचेगा यह बात तो देश, काल, पात्र और परस्थिति पर निर्भर है।


अथवा यह भी हो सकता है कि अपने शत्रुओं के मुकाबले में अपने मित्रो की सहायता करने के लिये, अशुभ और अत्याचार के मुकाबले धर्म और न्याय पक्ष समर्थन करने के लिये उसका हृदय और उसकी कुलमर्यादा उसे विवश करें। परंतु मुक्त पुरुष की दृष्टि इन परस्पर-विरोधी मानदंडों के परे जाकर केवल यह देखती है कि विकासशील धर्म की रक्षा या अभ्युदय के लिये आवश्यक वह कौन-सा कर्म है जो परमात्मा मुझसे कराना चाहते हैं। उसका अपना निजी मतलब तो कुछ है ही नहीं, उसको किसी से कोई व्यक्तिगत रागद्वेष तो है ही नहीं, उसके पास कर्म-विषयक कसकर बंधा हुआ मानदंड तो है ही नहीं जो मनुष्यजाति की उन्नति की ओर बढ़ती हुई सुनम्य गति में रोड़ा अटका दे या अनंत की पुकार के विरुद्ध खड़ा हो जाये। उसके कोई व्यक्तिगत शत्रु नहीं जिन्हें वह जीतना या मारना चाहे, वह सिर्फ ऐसे लोगों को देखता है जिन्हें परिस्थिति ने और पदार्थमात्र मे निहित संकल्प ने उसके विरुद्ध लाकर इसलिये खड़ा कर दिया है कि वे प्रतिरोध के द्वारा भवितव्यता की गति की सहायता करें।


इन लोगों के प्रति उसके मन में क्रोध या घृणा नहीं हो सकती क्योंकि दिव्य प्रकृति के लिये क्रोध और घृणा विजातीय चीजें हैं। असुर की अपने विरोधी को चूर-चूर करने और उसका सिर उतार लेने की इच्छा, राक्षस की संहार करने की निर्दयतापूर्ण लिप्सा का मुक्त पुरुष की स्थिरता, शांति, विश्वव्यापी सहानुभूति और समझ में होना असंभव है। उसमें किसी को चोट पहुँचाने की इच्छा नहीं होती अपितु सारे संसार के लिये मैत्री और करुणा का भाव होता है, पर यह करूणा उस दिव्य आत्मा की करुणा है जो मनुष्यों को अपने उच्च स्थान से करुणाभरी दृष्टि से देखता है, सब जीवों को अपने अंदर प्रेम से ग्रहण करता है, यह सामान्य मनुष्य की वह दीनताभरी कृपा नहीं हो जो हृदय, स्नायु और मांस का दुर्बल कंपनमात्र होती है। वह शरीर से जीवित रहने को भी उतनी बडी़ चीज नही मानता, बल्कि शरीर के परे जो आत्म-जीवन है उसे जीवन मानता और शरीर को केवल एक उपकरण समझता है। वह सहसा संग्राम और संहार में प्रवृत्त न होगा, पर यदि धर्म के प्रवाह में युद्ध करना ही पड़े तो वह उसे स्वीकार करेगा और जिनके बल और प्रभुत्व को चूर्ण करना है और जिनके विजयी जीवन के उल्लास को नष्ट करना है उनके साथ भी उसकी सहानुभूति होगी और वह उदार समबुद्धि और विशुद्धि बोध के साथ ही युद्ध में प्रवृत्त होगा। कारण मुक्त पुरुष सबमें दो बातों को देखता है, एक यह कि भगवान् घट-घट में समरूप में वास करते हैं और दूसरी यह कि यह जो नानाविध प्राकट्य है वह अपनी क्षणस्थायी परिस्थिति में ही विषम है।

पशु में, मनुष्य में, अशुचि-अंतयज में, विद्वान् और पुण्यात्मा ब्राह्मण में, महात्मा और पापात्मा में, मित्र शत्रु और तटस्थ में, जो उसे प्यार करते और उसका उपकार करते हैं उनमें और जो उससे घृणा करते और उसे पीड़ा पहुँचाते हैं। उनमें, वह अपने-आपको देखता है, ईश्वर को देखता है और उसके हृदय में सबके लिये एक-सी दिव्य करुणा और दिव्यप्रीति होती है। परिस्थिति के अनुसार बाह्मतः वह किसी को अपनी छाती से लगा सकता है अथवा किसी से युद्ध कर सकता है पर किसी हालत में उसकी समदृष्टि में कोई अंतर नहीं पड़ता, उसका हृदय सबके लिये खुला रहता है, उसका अंतर सबको गले लगाये रहता है। और उसके सब कर्मों में एक ही अध्यात्मतत्त्व अर्थात् पूर्ण समत्व काम करता है और एक ही कर्मतत्त्व काम करता है अर्थात वह भगवत्-संकल्प जो भगवान् की ओर क्रमशः अग्रसर होती हुई मानवजाति की सहायता के लिये उसके अंदर से क्रियाशील है। फिर दिव्य कर्मी का लक्षण वह है जो स्वयं भागवत चेतना का कैन्द्रिक लक्षण है, अर्थात् पूर्ण आंतर आनंद और शांति। ये निर्विषय होते हैं, इनकी उत्पत्ति या स्थिति जगत् के स्थित पदार्थ पर निर्भर नहीं ये स्वाभाविक होते हैं, अंतरात्मा के उपादान और दिव्य सत्ता के स्वरूप होते हैं।


सामान्य मनुष्य अपने सुख के लिये बाह्य पदार्थों पर निर्भर है; इसीसे उसमें वासना-कामना होती है, इसीसे उसमें क्रोध-क्षोभ, सुख-दुःख, हर्ष-शोक होते हैं, इसलिये वह सब वस्तुओं को शुभा-शुभ के कांटे से तौलता है। परंतु दिव्य आत्मा पर इनमें से किसी का कोई असर नहीं पड़ सकता; वह किसी प्रकार की निर्भरता के बिना सदा तृप्त रहता है, क्योंकि उसका आनंद, उसकी दिव्य तृप्ति, उसका सुख, उसकी सुप्रसन्न ज्योति सदा उसके अंदर वर्तमान है, उसके रोम-रोम में व्याप्त है, आत्मरति:, अंत: सुखोऽन्तरारामस्तयांतर्ज्योतिरेव य:। वह बाह्य पदार्थों में जो सुख लेता है वह उनके कारण नहीं होता, उस रस के लिये नहीं जिसे वह उनमें ढूंढ़ता और खो भी सकता है, बल्कि उनमें स्थित आत्मा के लिये, उनके द्वारा भगवान् की अभिव्यक्ति के लिये, उनमें स्थित शाश्वत तत्त्व के लिये होता है, जिसे वह कभी नहीं खो सकता है। इन पदार्थों के बाह्य स्पर्शों में उसकी आसक्ति नहीं होती, बल्कि अपने अंदर मिलने वाला आनंद ही उसे सर्वत्र मिलता है; क्योंकि उसकी आत्मा ही उनकी आत्मा है, वह चराचर प्राणियों की आत्मा के साथ एक हो गया है ‘उनके विभिन्न नामरूपों के हाते हुए भी उनके अंदर जो समब्रह्म है उसके साथ वह एक हो गया है, ब्रह्मयोग्युक्तात्मा, सर्वभूतात्मभूतात्मा। प्रिय पदार्थ के स्पर्श से उसे हर्ष नहीं होता, अप्रिय से उसे शोक नहीं होता; पदार्थ के, मित्रों के या शत्रुओं के घाव उसकी दृष्टि की स्थिरता भंग नहीं कर सकते, न उसके हृदय को मोहित कर सकते हैं; उपनिषद् के शब्दों में यह आत्मा अपने स्वरूप से ‘अव्रणम्’ होता है, उस पर कोई घाव, कोई क्षति नहीं होता। वह सब पदार्थों में वही अक्षय आनंद भोग करता है, सुखमक्षयमश्नुते ।






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