आत्मिक प्रगति

 


यदि हम यह मान लें कि शरीर सदा ही वंशनुक्रमिक विकास से निर्मित होता है, अचेतन प्रकृति और तदनुस्यूत प्राणशक्ति शरीर-निर्माण का यह कार्य किया करती है, इसमें व्यष्टिगत अंतरात्मा के करने की कोई बात नही, तो मामला सीधा हो जाता है। तब यही मान लेना पड़ेगा किसी शुचि और महत् वश के विकास-क्रम से ही यह अन्नमय और मनोमय शरीर भागवत-अवतार के उपयुक्त तैयार होता है और तब अवतरित होने वाले भगवान् उस शरीर को धारण कर लेते हैं। परंतु गीता के इसी अवतार वाले श्लोक में पुनर्जन्म का सिद्धांत स्वयं अवतार पर भी हिम्मत तक के साथ घटाया गया है, और पुनर्जन्म के संबंध में सामान्य मान्यता यही है कि पुनर्जन्म ग्रहण करने वाला जीव अपने पिछले आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक विकास के अनुसार अपने मनोमय और भौतिक शरीर को निर्धारित करता या यूं कहें कि तैयार करता है। जीव स्वयं अपना शरीर निर्माण करता है, उनका शरीर उससे पूछे बिना यूंही तैयार नहीं कर दिया जाता। तो क्या इससे यह समझ लें कि सनातन या सत्ता अवतार अपने अनुकूल अपना मनोमय और अन्नमय शरीर मानव- विकास की आवश्यकता और गति के अनुसार आप ही निर्माण करते और इस तरह युग-युग में प्रकट हुआ करते हैं? इसी तरह के किसी एक भाव से कुछ लोग विष्णु के दस अवतारों की व्याख्या करते हैं। पहले कई पशुरूप, बाद में नरसिंह-मूर्ति, तब वामन-मूर्ति, उसके बाद प्रचंड आसुरिक परशुराम, फिर देव-प्रकृति-मानव महत्तर राम, इसके बाद सजग आध्यात्मिक बुद्ध, और काल के हिसाब से पहले पर स्थान के हिसाब से अंतिम, पूर्ण दिव्य भावापन्न मुनष्य श्रीकृष्ण क्योंकि आखिरी अवतार कल्कि केवल श्रीकृष्ण के द्वारा आरंभ किये हुए कर्म को ही संपन्न करते हैं, पहले के अवतार समस्त संभावनाओं से युक्त जिस महत् प्रयास को प्रस्तुत कर गये हैं, बल्कि उसीको शक्ति देकर सिद्ध करते हैं। हमारी आुधनिक मनोवृत्ति के लिये इसे स्वीकार करना कठिन है, किंतु ऐसा मालूम होता है कि गीता की भाषा का रूख इसी ओर है। अथवा जब गीता इस समस्या का साफ तौर पर हल नहीं करती तब हम अपने किसी दूसरे तरीके से इस प्रश्न को हल कर सकते हैं और कह सकते हैं कि अवतार का शरीर तो जीव के द्वारा निर्मित होता है पर जन्म से ही भगवान उसे धारण करते हैं, अथवा यह भी कह सकते हैं कि इस शरीर को अर्थात् प्रत्येक मानव मन और शरीर के आध्यात्मिक पितर प्रस्तुत करते हैं। इस तरह से कहना अवश्य ही गूढ़ रहस्यमय क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करना है कि जिसकी बातें आधुनिक बुद्धिवादी लोग अभी तो सुनना ही नहीं चाहते; परंतु जब हमने अवतार का होना मान लिया जब रहस्यमय क्षेत्र में तो प्रविष्ट हो ही गये और जब प्रतिष्ट हो गये तो एक-एक कदम मजबूती से रखते हुए बढ़ते चलना ही उत्तम है।


ऐसा है गीता अवतार-विषयक सिद्धांत भगवान् की अवतरण-प्रणाली की यहाँ जो विस्तार किया गया और इसी तरह पहले के अध्याय में अवतार की संभावना के विषय में जो आलोचना की गयी, इसका कारण यह है कि इस प्रश्न को इसके सभी पहलुओं से देखना और मनुष्य की तर्कबुद्धि में इस बारें में जो कठिनाइया खड़ी हो सकती है उनका सामना करना आवश्यक था। यह सम्भव है कि भौतिक रूप में ईश्वर के अवतार का गीता में विशेष विस्तार नहीं है, पर गीता की शिक्षा का जो चक्र है उसकी श्रृखंला में इसका आना विशिष्ट स्थान है जो गीता की संपूर्ण योजना में अनुस्यूत है। गीता का ढ़ांचा यही है कि अवतार एक विभूति को, उस मनुष्य को जो मानता की ऊंची अवस्था में पहुँच चुका है, दिव्य जन्म और दिव्य कर्म की ओर ले जा रहे हैं इनमें कोई संदेह नहीं कि मानव जीव को अपने तक उठाने के लिये भगवान् का अवतार लेना ही मुख्य बात है इन्हीं आंतरिक कृष्ण, बुद्ध या ईया से ही असली मतलब है। पर जिस प्रकार आंतरिक विकास के लिये बाह्म जीवन भी अंतन्त महत्त्वपूर्ण साधन है, वेसे वैसे ही बाह्म अवतार भी इस महान आध्ययात्कि अभिव्यक्ति के लिये किसी प्रकार कम महत्त्व की वस्तु नहीं है। मानसिक और शारीरिक प्रकृति की परिपूर्णता आंतर सद्वस्तु के विकास में सहायक होती है, फिर यही आंतरिक सद्वस्तु और अधिक शक्ति के साथ जीवन के द्वारा अधिक उत्कृष्ट रूप में अपने-आपको प्रकट करती है। मानवजाति में भागवत अभिव्यक्ति ने आध्यात्मिक सद्वस्तु और मानसिक तथा भौतिक अभिव्यक्ति के बीच, परस्पर सतत आदान-प्रदान के द्वारा संगोपन और प्रकटन के चक्रों में गति करना स्वीकार किया है।


भगवान् के जन्म की तरह उस कर्म का भी, जिसके लिये अवतार हुआ करता है द्विविध भाव और द्विविध रूप होता है। क्रिया और प्रतिक्रिया के जिस विधान के द्वारा, उत्थान और पतनरूपी जिस सहज व्यवस्था के द्वारा प्रकृति अग्रसर होती है, उस विधान और व्यवस्था के होते हुए भागवत धर्म की रक्षा और पुनर्गठन के लिये इस बाह्य जगत् पर भागवत शक्ति की जो क्रिया होती है, वही दिव्य कर्म का बाह्म पहलू है, और यह भागवत धर्म की मानवजाति के भगवन्मुख प्रयास को समस्त विघ्न-बाधाओं से उबारकर निश्चित रूप से आगे बढ़ाता है इसका आंतर पहलू यह है कि भवन्मुख चैतन्य की दिव्य शक्ति व्यक्ति और जाति की आत्मा पर क्रिया करती है ताकि वह मानवरूप में अवतरिक भगवान् के नये-नये प्रकाश को ग्रहण कर सके और अपने ऊर्ध्वमुखी आत्म-विकास की शक्ति को बनाये रख सके, उसमें एक नवजीवन ला सके और उसे समृद्ध कर सके। अवतार का अतरण केवल किसी महान् बाह्य कर्म के लिये नहीं होता जैसा कि मनुष्य की कर्म-प्रवण बुद्धि समझा करती है। कर्म और बाह्म घटना का अपने-आपको कोई मूल्य नहीं होता, उनका मूल्य उस शक्ति पर आश्रित है जिनकी ओर से वे होते हैं और उस भाव पर आश्रित हैं जिसके वे प्रतीक होते हैं और जिसे सिद्ध करना ही उस शक्ति का काम होता है।


जिस संकट की अवस्था में अवतार का आभिभार्व होता है वह बाहरी नजर को महज घटनाओं और जड़ जगत् के महत् परिवर्तनों का नाजुक काल प्रतीत होता है। परंतु उसे स्त्रोत और वास्तविक अर्थ को देखें तो यह संकट मानव-चेतना में तब आता है जब उसका कोई महान परिवर्तन, कोई नवीन विकास होने वाला हो। इस परिवर्तन के लिये किसी दिव्य शक्ति की आवश्यकता होती है, किंतु शक्ति जिस चेतना में काम करती है उसके बल के अनुसार बदलती है; इसलिये मानव-मन और अंतरात्मा में भागवत चैतन्य का अविर्भाव आवश्यक होता है। जहाँ मुख्यतः बौद्धिक और लौकिक परिवर्तन करना हो वहीं अवतार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती; मानव-चेतना का उत्थान होता है, शक्ति की महान अभिव्यक्ति होती है जिसके फलस्वरूप सामयिक तौर पर मनुष्य अपनी साधारण अवस्था से ऊपर उठ जाते हैं और चेतना और शक्ति की यह लहर कुछ असाधारण व्यक्त्यिों में तरंग-श्रंग बन जाती है और इन्हीं असाधारण व्यक्तियों को विभूति कहते हैं; इन विभूतियों का काम सर्वसाधारण मानवजाति के कर्म का नैतृत्व करना है और यह उद्दिष्ट परिवर्तन के लिये पर्याप्त होता है। यूरोपीय पुनर्निर्माण और फ्रांस की राज्य-क्रांति इसी प्रकार के संकट थे; महान् आध्यात्मिक घटनाएं, बल्कि बौद्धिक और लौकिक परिवर्तन थे। एक में धार्मिक तथा दूसरे में सामाजिक और राजनीतिक भावनाओं, रूपों और प्रेरकभावों का परिवर्तन हुआ और इसके फलस्वरूप जनसाधारण की चेतना में जो फेरफार हुआ वह बौद्धिक और लौकिक था, आध्यात्मिक नहीं।


पर जब किसी संकट के मूल में कोई आध्यात्मिक बीज या हेतु होता है तब मानव-मन और आत्मा में प्रवर्तक और नेता के रूप से भागवत चैतन्य का पूर्ण या आंशिक प्रादुर्भाव होता है। यही अवतार है। अवतार के बाह्य कर्म का वर्णन गीता में धर्मसंस्थापनार्थाय कहकर किया गया है; जब-जब धर्म की ग्लानि या हृास होता है, उसका बल क्षीण हो जाता है और अधर्म सिर उठाता, प्रबल होता और अत्याचार करता है तब-तब अवतर आते और धर्म को फिर से शक्तिशाली बनाते हैं। जो बातें विचार के अंतर्गत होती हैं वे कर्म के द्वारा तथा विचारों की प्रेरणा का अनुगमन करने वाले मानव-प्राणी के द्वारा प्रकट होती है, इसलिये अत्यंत मानवी और लौकिका भाषा में अवतार का काम है प्रतिगामी अंधकार के राज्य द्वारा सताये गये धर्म के अन्वेशषकों की रक्षा करना, और अधर्म को बनाये रखने की इच्छा करने वाले दुष्टों का नाश करना। परंतु इस बात को कहने में गीता ने जिन शब्दों का प्रयोग किया है उनकी ऐसी संकीर्ण और अधूरी व्याख्या की जा सकती है।जिससे अवतार का आध्यात्मिक गंभीर अर्थ जाता रहे। धर्म एक एक ऐसा शब्द है जिसका नैतिक और व्यावहारिक, प्राकृतिक और दार्शनिक, धार्मिक और आध्यात्कि, सभी प्रकार का अर्थ होता है और इनमें से किसी भी अर्थ में इस शब्द का इस तरह से प्रयोग किया जा सकता है कि उसमें अन्य अर्थों की गुजांयश न रहे, उदाहरणार्थ, इसका केवल नैतिक अथवा केवल दार्शनिक या केवल धार्मिक अर्थ किया जा सकता है।


नैकित रूप से सदाचार के नियम को, जीवनचर्या-संबंधी नैतिक विधान को अथवा और भी बाह्म और व्यावहारिक अर्थ मगर सामाजिक और राजनीतिक न्याय को या केवल सामाजिक नियमों के पालन को धर्म कहा जाता है। यदि हम इस शब्द को इसी अर्थ में ग्रहण करें, तो इसका यही अभिप्राय हुआ कि जब अनाचार, अन्याय और दुराचार का प्राबल्य होता है तब भगवान् अवतार लेकर सदाचारियों को बचाते और दुराचारियों को नष्ट करते हैं, अन्याय और अत्याचार को रौंद डालते और न्याय और सद्व्यवहार को स्थापित करते हैं ।कृष्णवतार का प्रसिद्ध पौराणिक वर्णन इसी प्रकार का है। कौरवों का अत्याचार, दुर्योधनादि जिसके मूर्त रूप हैं, इतना बढ़ा कि पृथ्वी के लिये उसका भार असह्य हो उठा और पृथ्वी को भगवान् से अवतार लेने और भार हल्का करने की प्रार्थना करनी पड़ी, तदानुसार विष्णु श्री कृष्णरूप में अवतीर्ण हुए, उन्होंने अत्याचार-पीड़ित पांडवों का उद्धार और अन्यायी कौरवों का संहार किया। उसके पूर्व अन्यायी अत्याचारी रावण का वध करने के लिये जो विष्णु का रामावतार अथवा क्षत्रियों की उद्दंडता को नष्ट करने के लिये परशुरामवतार या दैत्याज बलि के राज्य को मिटाने के लिये वामनावतार हुआ उसका भी ऐसा ही वर्णन है। परंतु यह प्रत्यक्ष है कि पुराणों के इस प्रसिद्ध वर्णन से कि अवतार इस प्रकार के सर्वथा व्यावहारिक, नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक कर्म को करने के लिये आते हैं, अवतार के कार्य का सच्चा विवरण नहीं मिलता।


इस वर्णन में अवतार के आने का आध्यात्मिक हेतु छूट जाता है; और यदि इस बाह्य प्रयोजन को ही हम सब कुछ मान लें तो बुद्ध और ईसा को हमें अवतारों की कक्षा से अलग कर देना होगा, क्योंकि इनका काम तो दुष्टों को नष्ट करने और शिष्टों को बचाने का नहीं, बल्कि अखिल मानव-समाज को एक नया आध्यात्मिक संदेश सुनाना तथा दिव्य विकास और आध्यात्मिक सिद्धि का एक नया विधान देना था। धर्म शब्द को यदि हम केवल धार्मिक अर्थ में ही ग्रहण करें अर्थात् इसे धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन का एक विधान मानें तो हम इस विषय के मूल में तो जरूर पहूंचेगे, किंतु इसमें भय है कि हम अवतार के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य को कहीं दृष्टि की औट न कर दे। भगवद्वतारों के इतिहास में सर्वत्र ही यह स्पष्ट दिखायी देता है कि उनका कार्य द्विविध होता है और यह अपरिहार्य है, द्विविध होने का कारण यह है कि अवतीर्ण भगवान् मानव-जीवन में होने वाले भगवत-कार्य को ही अपने हाथ में उठा लेते हैं, जगत् में जो भगवत-इच्छा और भगवत-ज्ञान काम कर रहे हैं, उन्हीं का अनुसरण कर अपना कार्य करते हैं और यह कार्य सदा आंतर और बाह्म दोनों प्रकार से सिद्ध होता है-आत्मा में आंतरिक उन्नति के द्वारा और जागतिक जीवन में बाह्म परिवर्तन द्वारा हो सकता है कि भगवान् का अवतार, किसी महान् आध्यात्मिक गुरु या त्राता के रूप में हो,


जैसे बुद्ध और ईसा, किंतु सदा ही उनकी पार्थिव अभिव्यक्ति की समाप्ति के बाद भी उनके कर्म के फलस्वरूप जाति के केवल नैतिक जीवन में ही नहीं बल्कि उसके सामाजिक और बाह्म जीवन और आदर्शों में भी एक गंभीर और शक्तिशाली परिवर्तन हो जाता है। दूसरी ओर, हो सकता है कि वे दिव्य जीवन, दिव्य व्यक्तित्व और दिव्य शक्ति के अवतार होकर आवें, अपने दिव्य कर्म को करने के लिये, जिसका उद्देश्य बाहर से सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक ही दिखयी देता हो; जैसा कि राम और कृष्ण की कथाओं में बताया गया है, फिर भी सदा ही यह अवतरण जाति की आत्मा में उसके आंतरिक जीवन के लिये और उसके आध्यात्मिक नव जन्म के लिये एक ऐसी स्थायी शक्ति का काम करता है। यह एक अनोखी बात है कि बौद्ध और इसाई धर्मों का स्थायी, जीवंत तथा विश्वव्यापक फल यह हुआ कि जिन मनुष्यों तथा कालों ने इनके धार्मिक और आध्यात्मिक मतों, रूपों और साधनाओं का परित्याग कर दिया, उन पर भी इन धर्मों के नैतिक, सामाजिक और वयावहारिक आदर्शो का शक्तिशाली प्रभाव पड़ा। पीछे के हिन्दुओं ने बुद्ध, उनके संघ और धर्म को अमान्य कर दिया, पर बुद्धधर्म के सामाजिक और नैतिक प्रभाव की अमिट छाप उन पर पड़ी हुई है और हिंदूजाति का जीवन और आचार-विचार उससे प्रभावित है।


आधुनिक यूरोप नाममात्र का ईसाई है, पर इसमें जो मानवदया का भाव है वह ईसाई-धर्म के आध्यात्मिक सत्य का सामाजिक और राजनीतिक रूपांतर है; और स्वाधीनता, समता और विश्वबंधुता की यह अभीप्सा मुख्यतः उन लोगों ने की जिन्होंने ईसाई-धर्म और आध्यात्मिक साधना को व्यर्थ तथा हानिकर बतलाकर त्याग दिया था और यह काम उस युग में हुआ जिसने स्वतंत्रता के बौद्धिक प्रयास में ईसाई-धर्म को धर्म मानना छोड़ देने की पूरी कोशिश की। राम और कृष्ण की जीवनलीला ऐतिहासिक काल के पूर्व की है, काव्य और आख्यायिका के रूप में हमें प्राप्त हुई है और इसे हम चाहें तो केवल काल्पनिक कहानी भी कह सकते हैं; पर चाहे काल्पनिक कहानी कहिये या ऐतिहासिक तथ्य, इसका कुछ महत्त्व नहीं; क्योंकि उनके चरित्रों का जो शाश्वत सत्य और महत्त्व है वह तो इस बात में है कि ये चरित्र जाति की आंतरिक चेतना और मानव-जीव के जीवन में सदा के लिये एक आध्यात्मिक रूप, सत्ता और प्रभाव के रूप में अमर हो गये हैं। अवतार दिव्य जीवन और चैतन्य के तथ्य हैं; वे किसी बाह्य कर्म में भी उतर सकते हैं, पर उस कर्म के हो चुकने और उनका कार्य पूर्ण होने के बाद भी उस कर्म का आध्यात्मिक प्रभाव बना रहता है; अथवा वे किसी आध्यात्मिक प्रभाव को प्रकटाने और किसी धार्मिक शिक्षा को देने के लिये भी प्रकट हो सकते हैं, किंतु उस हालत में भी, उस नये धर्म या साधना के क्षीण हो चुकने पर भी, मानवजाति के विचार, उसकी मनोवृत्ति और उसके बाह्य जीवन पर उनका स्थायी प्रभाव बना रहता है। इसलिये अवतार-कार्य के गीतोक्त वर्णन को ठीक तरह से समझाने के लिये आवश्यक है कि हम धर्म शब्द के अत्यंत पूर्ण, अत्यंत गंभीर और अत्यंत व्यापक अर्थ को ग्रहण करें, धर्म को वह आंतर और बाह्य विधान समझें जिसके द्वारा भागवत संकल्प और भागवत ज्ञान मानवजाति का आध्यात्मिक विकास साधन करते हैं और जाति के जीवन में उसके विशिष्ट परिस्थितियां और उनके परिणाम निर्मित करते हैं। भारतीय धारणा के हिसाब से धर्म केवल शुभ, उचित, सदाचार, न्याय और आचारनीति ही नहीं बल्कि अन्य प्राणियों के साथ, प्रकृति और ईश्वर के साथ मनुष्यों के जितने भी संबंध हैं उन सबका संपूर्ण नियमन है और यह नियामक तत्त्व ही वह दिव्य धर्मतत्त्व है जो जगत् के सब रूपों और कर्मों के द्वारा, आंतर और बाह्य जीवन के विविध आकारों के द्वारा तथा जगत् में जितने प्रकार के परस्पर-संबंध हैं उनकी व्यवस्था के द्वारा अपने-आपको सिद्ध करता रहता है। धर्म  वह है जिसे हम धारण करते हैं और वह भी जो हमारी सब आंतर और बाह्य क्रियाओं को एक साथ धारण किये रहता है। धर्म शब्द का प्राथमिक अर्थ हमारी प्रकृति का वह मूल विधान है जो गुप्त रूप से हमारे कर्मों को नियत करता है और इसलिये इस दृष्टि से प्रत्येक जीव, प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक जाति, प्रत्येक व्यक्ति और समूह का अपना-अपना विशिष्ट धर्म होता है। 


दूसरी बात यह है कि हमारे अंदर जो भागवत प्रकृति है उसे भी तो हमारे अंदर विकसित और व्यक्त होना है, और इस दृष्टि से धर्म अंतः-क्रियाओं का वह विधान है जिसके द्वारा भागवत प्रकृति हमारी सत्ता में विकसित होती है। फिर एक तीसरी दृष्टि से धर्म वह विधान है जिससे हम अपने बहिर्मुखी विचार, कर्म और पारस्परिक संबंधो का नियंत्रण करते हैं ताकि भागवत आदर्श की ओर उन्नत होने में हमारी और मानवजति की अधिक-से-अधिक सहायता हो। धर्म को साधारणतया सनातन और अपरिवर्तनीय कहा जाता है, और इसका मूल तत्त्व और आदर्श हो भी ऐसा ही; पर इसके रूप निरंतर बदला करते हैं, उनका विकास होता रहता है; कारण मनुष्य अभी उस आदर्श को प्राप्त नहीं किया है या यह कहिये कि उसमें अभी उसकी स्थिति नहीं है; अभी तो इतना ही है कि मनुष्य उसे प्राप्त करने की अधूरी या पूरी इच्छा कर रहा है, उसके ज्ञान और अभ्यास की ओर आगे बढ़ रहा है। और इस विकास में धर्म वही है जिससे भागवत पवित्रता, विशालता, ज्योति, स्वतंत्रता, शक्ति, बल, आनंद, प्रेम, शुभ, एकता, सौन्दर्य हमें अधिकाधिक प्राप्त हों। इसके विरुद्ध इसकी परछाई और इनकार खड़ा है, अर्थात् वह सब जो इसकी बुद्धि का विरोध करता है, जो इसके विधान के अनुगत नहीं है, वह जो भागवत संपदा के रहस्य को न तो समर्पण कारण है न समर्पण करने की इच्छा रखता है, बल्कि जिन बातों को मनुष्य को अपनी प्रगति के मार्ग में पीछे छोड़ देना चाहिये, जैसे अशुचिता, संकीर्णता, बंधन, अंधकार, दुर्बलता, नीचता, असामंजस्य, दुःख, पार्थक्य, वीभत्सत्ता और असंस्कृति आदि एक शब्द में, जो कुछ धर्मों का विकार और प्रत्याख्यान है उस सबका मोरचा बनाकर सामने डट जाता है यही अधर्म है जो धर्म से लड़ता और उसे जीतना चाहता है, जो उसे पीछे और नीचे की ओर खींचना चाहता है, यह वह प्रतिगामी शक्ति है जो अशुभ, अज्ञान और अंधकार का रास्ता साफ करती है। इन दोनों में सतत संग्राम और संर्घष चल रहा है, कभी इस पक्ष की विजय होती है कभी उस पक्ष की, कभी ऊपर की ओर ले जाने वाली शक्तियों की जीत होती है तो कभी नीचे की ओर खींचने वाली शक्तियों की। मानव-जीवन और मानव-आत्मा पर अधिकार जमाने के लिये जो संग्राम होता है उसे वेदों ने देवासुर-संग्राम कहा है (देवता अर्थात् प्रकाश और अखंड अनंतता के पुत्र, असुर अर्थात् अंधकार और भेद की संतान); जरथुस्त्र के मत में यही अहुर्मज्द-अहिर्मन-संग्राम है और पीछे के धर्मसंप्रदायों में इसीको मानव जीवन और आत्मा पर अधिकार करने के लिये ईश्वर और उनके फरिश्तों के साथ शैतान या इबलीस और उनके दानवों का संग्राम कहा गया है। 

यही बात अवतार के कर्म का स्वरूप निश्चित और निर्धारित करती है। बौद्धमताव-लंबी साधक अपनी मुक्ति के विरोधी तत्त्वों से बचने के लिये धर्म, संघ और बद्ध, इन तीन शक्तियों की शरण लेते हैं। ईसाई मत में भी ईसाई जीवनचर्या, गिरिजाघर और स्वयं ईसा है। अवतार के कार्य में ये तीन बातें अवश्य होती हैं। अवतार एक धर्म बतलाते हैं, आत्मा-अनुशासन का एक विधान बतलाते हैं, जिससे मनुष्य निम्नतर जीवन से निकलकर उच्चतर जीवन में संवर्द्धित हों। धर्म में, सदा ही, कर्म के विषय में तथा दूसरे मनुष्य और प्राणियों के साथ साधक का क्या संबंध होना चाहिये इस विषय में एक विधान भी रहता है, जैसे कि अष्टांग-मार्ग अथवा श्रद्धा, प्रेम और पवित्रता का धर्म अथवा इसी प्रकार का और कोई धर्म जो अवतार के भागवत स्वभाव में प्रकट हुआ हो। इसके बाद, चूंकि मनुष्य की प्रवृत्ति के सामूहिक और वैयक्तिक पहलू होते हैं, जो लोग एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं उनमें स्वभावतः एक आध्यात्मिक साहचर्य एकता स्थापित हो जाती है, इसलिये अवतार एक संघ की स्थापना करते हैं, संघ अर्थात् उन लोगों का सख्य और एकत्व जो अवतार के व्यक्तित्व और शिक्षा के कारण एक सूत्र में बध जाते हैं। यही त्रिक ‘‘भागवत, भक्त और भगवान्” के रूप से वैष्णव धर्म में भी है।


वैष्णव-धर्मसम्मत उपासना और प्रेम का धर्म ही भागवत है, उस धर्म का जिन लोगों में प्रादुर्भाव होता है उन्हीं का संघ-समुदाय भक्त कहता है, और जिन प्रेमी और प्रेमास्पद की सत्ता और स्वभाव में यह प्रेममय भागवत धर्म प्रतिष्ठित है और जिनमें इसकी पूर्णता होती है वही भगवान् हैं। अवतार त्रिक के इस तृतीय तत्त्व के प्रतीक हैं, वह भागवत व्यक्त्त्वि, स्वभाव और सत्ता हैं जो इस धर्म और संघ की आत्मा हैं, और वे इस धर्म और संघ को अपने द्वारा अनुप्राणित करते हैं, उसे सजीव बनाये रखते हैं तथा मनुष्यों को आनंद और मुक्ति की ओर आकर्षित करते हैं। गीता की शिक्षा में, जो अन्य विशिष्ट शिक्षाओं और साधनाओं की अपेक्षा अधिक उदार और बहुमुखी है, ये तीन बातें भी बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुई है। यहाँ की एकता सबको अपने साथ मिला लेने वाली वह वैदांतिक एकता है जिसके द्वारा जीव सबको अपने अंदर और अपने-आपको सबके अंदर देखता और सब प्राणियों के साथ अपने-आपको एक कर लेता है। इसलिये सब मानव संबंधों को उच्चतर दिव्य अभिप्राय में ऊपर उठाना ही धर्म है। यह धर्म भगवान् की खोज करने वाला साधक जिस समाज में रहता है, उस समग्र मानव-समाज को एक सूत्र में बांधने वाले नैतिक, सामाजिक और धार्मिक विधान से आरम्भ होता है और उसे ब्राह्यी चेतना द्वारा अनुप्राणित करके ऊपर उठा देता है; वह एकता, समता और मुक्त निष्काम भगवत्परि-चालित कर्म का विधान देता है, ईश्वर-ज्ञान और आत्म-ज्ञान का वह विधान देता है जो समस्त प्रकृति और समस्त कर्म को अपनी ओर खींचता और आलोकित करता है।


मानव-समाज को भागवत सत्ता और भागवत चेतना की ओर आकर्षित करता है, तथा भागवत प्रेम का वह विधान देता है जो ज्ञान और कर्म की शक्ति है, चरम सिद्धि है। गीता में जहाँ प्रेम और भक्ति के द्वारा भगवन् को पाने की साधना बतलायी गयी है वहीं संघ और भागवत भक्तों के द्वारा भगवत्प्रेम और भगवदनुसंधान में सख्य और परस्पर-साहाय्य का मौलिक भाव आ गया है, पर गीता की शिक्षा का असली संघ तो समग्र मानवजाति है सारा जगत् और अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार प्रत्येक मुनष्य इसी धर्म की ओर जा रहा है। ‘‘यह मेरा ही तो मार्ग है जिसपर सब मनुष्य चले आ रहे हैं, ” और वह भवदन्वेषक जो सबके साथ एक हो जाता, सबके सुख-दुःख तथा समस्त जीवन को अपना सुख दुःख और जीवन बना लेता है, वह मुक्त पुरुष जो सब भूतों के साथ एकात्मभाव को प्राप्त हो चुका है, वह समर्ग मानवजाति के जीवन में ही वास करता है, मावजाति के अखिलांतरात्मा के लिये, सर्वभूतांतरात्मा भगवान् के लिये ही जीता है, वह लोक-संग्रह के लिये अर्थात् सबमें अपने-आपको विशिष्ट धर्म में और सार्वभौम धर्म में स्थित रखने के लिये, उन्हें सब अवस्थाओं और सब मार्गों से भगवान् की ओर ले जाने के लिये कर्म करता है।


क्योंकि यद्यपि स्थल पर अवतार श्रीकृष्ण ने नाम और स्पष्ट में प्रकट हैं पर वे अपने मानवजन्म के इस एक रूप पर ही जोर नहीं दे रहे; बल्कि उन भगवान पुरुषोत्तम की बात कह रहे हैं जिनका यह एक रूप है, समस्त अवतार जिनके मानवजन्म हैं और मनुष्य जिन-जिन देवताओं के नाम और उनकी पूजा करते हैं, वे सब भी उन्हीं के रूप हैं। श्रीकृष्ण ने जिस मार्ग का वर्णन किया है उसके बारे में यद्यपि यह घोषित किया गया है कि यह वह मार्ग है जिसपर चलकर मुनष्य सच्चे ज्ञान और सच्ची मुक्ति को प्राप्त कर सकता है, किंतु यह वह मार्ग है जिसमें अन्य सब मार्ग समाये हुए हैं, उनका इसमें बहिष्कार नहीं है। भगवान् अपनी विश्वव्यापकता में समस्त अवतारों, समस्त शिक्षाओं और समस्त धर्मों को लिये हुए है। यह जगत् जिस युद्ध की रंगभूमि है गीता उसके दो पहलूओं पर जोर देती है, एक आंतरिक संघर्ष, दूसरा बाह्म युद्ध। आंतरिक संघर्ष में शत्रुओं का दल अंदर, व्यक्ति के अपने अंदर है, और इसमें कामना, अज्ञान और अंकार को मारना ही विजय है। पर मानव-समूह के अंदर धर्म और अधर्म की शक्त्यिों के बीच एक बाह्म युद्ध भी चल रहा है। भगवान्, मनुष्य की देवोपम प्रकृति और उसे मानवजीवन में सिद्ध करने का प्रयास करने वाली शक्तियां धर्म की सहायता करती हैं। उद्दंड अहंकार ही जिनका अग्रभाग है ऐसी आसुरी या राक्षसी प्रकृति, अहंकार के प्रतिनिधि और उसे संतुष्ट करने का प्रसास करने वालों को साथ लेकर अधर्म की सहायता करती है।


यही देवासुरसंग्राम है जो प्रतीक-रूप से प्राचीन भारतीय साहित्य में भरा है। महाभारत के महायुद्ध को, जिसमें मुख्य सूत्रधार श्रीकृष्ण हैं, प्रायः इसी देवासुर-संग्राम का एक रूपक कहा जाता है; पाण्डव, जो धर्मराज्य की स्थापना के लिये लड़ रहे हैं, देवपुत्र हैं, मानव रूप में देवताओं की शक्तियां हैं और उनके शत्रु आसुरी शक्ति के अवतार हैं, असुर हैं, इस बाह्य संग्राम भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करने, असुरों अर्थात् दुष्टों का राज्य नष्ट करने, उन्हें चलाने वाली आसुरी शक्ति का दमन करने और धर्म के पीड़ित आदर्शों को पुनः स्थापित करने के लिये भगवान् अवतार लिया करते हैं। व्यष्टिगत मानव-पुरुष में स्वर्गराज्य का निर्माण करना जैसे भगवदवतार का उद्देश्य होता है वैसे ही मानव-समष्टि के लिये भी स्वर्गराज्य को पृथ्वी के निकटतर ले आना उनका उद्देश्य होता है। भगवदावतार के आने का आंतरिक फल उन लोंगों को प्राप्त होता है जो भगवान् की इस क्रिया से दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के वास्तविक मर्म को जान लेते और अपनी चेतना में भगवन्मय होकर, सर्वथा भगवदाश्रित होकर रहते, और अपने ज्ञान की तपः शक्ति से पूत होकर, अपा प्रकृति से मुक्त होकर भगवान् के स्पस्ट और स्वभाव को प्राप्त होते हैं मनुष्य के अंदर इस अपरा प्रकृति के ऊपर जो दिव्य प्रकृति है उसे प्रकटाने के लिये तथा बंधरहित, निरंहकार, निष्काम, नैवर्यक्तिक, विश्वव्यापक, भागवत ज्योति, शक्ति और प्रेम से परिपूर्ण दिव्य कर्म दिखने के लिये भगवान् का अवतार हुआ करता है। भगवन् आते हैं दिव्य व्यक्तित्व के रूप में, वह व्यक्तित्व जो मनुष्य की चेतना में बस जायेगा और उसके अहंभावापन्न परिसीमित व्यक्तित्व की जगह ले लेगा जिससे कि मनुष्य अहंकार से मुक्त होकर अनंता और विश्वव्यापकता में फैल जाये, जन्म के पचड़े से निकलकर अमर हो जाये। भगवान् भागवत शक्ति और प्रेम के रूप में आते हैं जो मनुष्यों को अपनी ओर बुलातें हैं ताकि मुनष्य उन्हीं का आश्रय लें और अपने मानव संकल्पों को त्याग दें, अपने काम-क्रोध और भयजनित द्वंद्वों से छूट जायें और इस महान् दुःख और अशांति से मुक्त होकर भागवत शांति और आनंद में निवास करे।


जन्म कर्म च मे दिव्यं एवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥4.9॥

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्‌भावमागता: ॥4.10॥


अवतार किसी रूप में, किस नाम से आवेंगे और भगवान् के पहलू को सामने रखेंगे, इसका विशेष महत्त्व नही है; क्योंकि मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकृति के अनुसार जितने भी विभिन्न मार्ग हैं उन सभी में मनुष्य भगवान् के द्वारा अपने लिये नियत मार्ग पर चल रहे हैं जो अंत में उन्हें भगवान् के समीप ले जायेगा। भगवान् का वही पहलू मनुष्यों की प्रकृति के अनुकूल होता है जिसका वे उस समय अच्छी तरह से अनुसरण करें जब भगवान् नेतृत्व करने आये, मनुष्य चाहे जिस तरह भगवान् को अपनायें उनसे प्रेम करें और आनंदित हों, भगवान् उन्हें उसी तरह से अपनाते, उनसे प्रेम करते और आनंदित होते हैं, ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌। 




दिव्य चेतना

 


यहाँ ईश्वर और मानव-जीव या पिता या पुत्र भी दिव्य मनुष्य की कोई बात नहीं है, बल्कि केवल भगवान् और उनकी प्रकृति के द्वारा मानव-आकार और प्रकार में उतरकर जन्म लेते हैं, और यद्यपि वे स्वेच्छा से मनुष्य के आकार, प्रकार और सांचे के अंदर रहकर कर्म करना स्वीकार करते हैं, तो भी उसके अंदर भागवत चेतना और भागवत शक्ति को ले आते हैं और शरीर के अंदर प्रकृति के कर्मों का नियमन वे उसकी अंतः स्थित और ऊर्ध्वस्थित आत्मा-रूप से करते हैं, ऊपर से वे सदा ही शासन करते हैं, क्योंकि इसी तरह वे समस्त प्रकृति का शासन चलाते हैं, और मनुष्य-प्रकृति भी इसके अंनर्गत है; अदंर से भी वे स्वयं छिपे रहकर सारी प्रकृति का शासन करते हैं, अंत यह है कि अवतार में वे अभिव्यक्त रहते हैं, प्रकृति के ईश्वर-रूप में भगवान की सत्ता का, अंतर्यामी का सचेतन ज्ञान रहता है; यहाँ प्रकृति का संचालन ऊपर से उनकी गुप्त इच्छा के द्वारा ‘स्वर्गस्थ पिता की प्रेरणा के द्वारा’ नहीं होता, बल्कि भगवान अपने प्रत्यक्ष प्रकट संकल्प से ही प्रकृति का संचालन करते हैं। यहाँ किसी मानव मध्यस्थ के लिये कोई स्थान नहीं है, क्योंकि यहाँ भूतानां ईश्वर अपनी प्रकृति, का आश्रय लेकर, किसी जीव की विशिष्ट प्रकृति को नहीं, मानव-जन्म के जामे को ओढ़ लेते हैं। बात बड़ी विलक्षण है, जल्दी समझ में आने वाली नहीं, मनुष्य की बुद्धि के लिये इसे ग्रहण कर लेना आसान नहीं; इसका कारण भी स्पष्ट है-अवतार स्पष्टता से मनुष्य जैसे ही होते हैं। अवतार के सदा दो रूप होते हैं- भागवत और मानवरूप; भगवान् मानव-प्रकृति को अपना लेते हैं, उसे सारी बाह्म सीमाओं के साथ भागवत चैतन्य और भागवत शक्ति की परिस्थिति, साधन और कारण तथा दिव्य जन्म और दिव्य कर्म का एक पात्र बना लेते हैं और यही होना चाहिये; वरना अवतार के अवतरण का उद्देश्य ही पूर्ण नहीं हो सकता। अवतरण का उद्देश्य यही दिखलाना है कि मानव-जन्म मनुष्य की सब सीमाओं के रहते हुए भी दिव्य जन्म और दिव्य कर्म का साधन और करण बनाया जा सकता है, और अभिव्यक्त दिव्य चैतन्य के साथ मानव-चैतन्य का मेल बैठाया जा सकता है, उसका धर्मान्तर करके उसे दिव्य चैतन्य का पात्र बनाया जा सकता है, और उसके सांचे को रूपांतरित करके उसके प्रकाश, प्रेम, सामर्थ्य और पवित्रता की शक्तियों को ऊपर उठाकर उसे दिव्य चैतन्य के अधिक समीप लाया जा सकता है। अवतार यह भी दिखाते हैं कि यह कैसे किया जा सकता है। यदि अवतार अद्भुत चमत्कारों के द्वारा ही काम करें, तो इससे अवतरण का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है। असाधारण अथवा अद्भुत चमत्काररूप अवतार के होने का कुछ मतलब ही नहीं रहता।


यह भी जरूरी नहीं है कि अवतार असाधारण शक्तियों का प्रयोग करे ही नहीं जैसे कि ईसा के रोगियों को ठीक कर देने वाले तथकथित चमत्कार क्योंकि असाधारण शक्तियों का प्रयोग मानव-प्रकृति की संभावना के बाहर नहीं है। परंतु इस प्रकार की कोई शक्ति न हो तो भी अवतार में कोई कमी नहीं आती, न यह कोई मौलिक बात है। यदि अवतार का जीवन असाधारण आतिशबाजी का खेल हो तो इससे भी काम न चलेगा। अवतार ऐंद्रजालिक जादूगर बनकर नहीं आते, प्रत्युत मनुष्य-जाति के भागवत नेता और भागवत मनुष्य के एक दृष्टांत बनकर आते हैं। मनुष्योचित शोक और भौतिक दुःख भी उन्हें झेलने पड़ते हैं और उनसे काम लेना पड़ता है, ताकि वे यह दिखला सकें कि किस प्रकार इस शोक और दुःख को आत्मोक्षरा का साधन बनाया जा सकता है। ईसा ने दुःख उठाकर यही दिखाया। दूसरी बात उन्हें यह दिखलानी होती है कि मानव-प्रकृति में अवतरित भागवत आत्मा इस शोक और दुःख को स्वीकार करके उसी प्रकृति में उसे किस प्रकार जीत सकता हैं।” बुद्ध ने यही करके दिखाया था। यदि कोई बुद्धिवादी ईसा के आगे चिल्लाया होता ‘‘तुम यदि ईश्वर के बेटे हो तो उतर आओ इस सूली पर से।” अथवा अपना पाण्डित्य दिखाकर कहता कि अवतार ईश्वर नहीं थे, क्योंकि वे मरे और वह भी बीमारी से-कुत्ते की मौत मरे-तो वह बेचारा जानता ही नहीं कि वह क्या बक रहा है, क्योंकि वह तो शिष्य की वास्तविकता से ही वंचित है।


भागवत आनंद के अवतार से पहले शोक और दुःख को झेलने वाले अवतार की भी आवश्यकता होती है; मनुष्य की सीमा को अपनाने की आवश्यकता हेती है, ताकि यह दिखाया जा सके कि इसे किस प्रकार पार किया जा सकता है। और, यह सीमा किस प्रकार या कितनी दूर तक पार की जायेगी केवल आंतरिक रूप से पार की जायेगी या बाह्म रूप से भी, यह बात मानवजाति के उत्कर्ष की अवस्था पर निर्भर है, यह सीमा किसी अमानव चमत्कार के द्वारा नहीं लांघी जायेगी। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है और यही असल में मुनष्य की बुद्धि के लिये एक मात्र बड़ी समस्या है-क्योंकि यहाँ आकर मानव-बुद्धि अपनी ही सीमा के अदंर लुढ़कने-पुढ़कने लगती है-कि अवतार मानव-मन बुद्धि और शरीर का ग्रहण कैसे करता है? कारण इनकी सृष्टि अक्समात् एक साथ इसी रूप में नहीं हुई होगी, बल्कि भौतिक या आध्यात्कि या दोनो ही प्रकार के किसी विकासक्रम से ही हुई होगी। इसमें संदेह नहीं कि अवतार का अवतरण, दिव्य जन्म की ओर मुनष्य के आरोहण के समान ही तत्त्वतः एक आध्यात्मिक व्यापार है; जैसा कि गीता के वाक्य से जान पड़ता है, -यह आत्मा का जन्म है। परंतु फिर भी इसके एक भौतिक जन्म तो लगा ही रहता है। तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवतार के मानव-मन और शरीर का कैसे निर्माण होता है।



अवतार के हेतु


केवल आध्यात्मिक मनुष्य ही यह देख पाते हैं कि अवतार एक चिह्न है, मानसिक और शारिरिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होकर उसे अपने साथ एकता में विकसित करने और उस पर अधिकार करने के लिये अपने-आपको अभिव्यक्त करने वाले सनातन आंतरिक भगवान् का प्रतीक है। बाह्म मानवरूप में ईसा, बुद्ध या कृष्ण का जो दिव्य प्राकट्य होता है और मनुष्य के अदंर भगवान् के चिरंतन अवतार का जो प्राकट्य होता है, दोनों के मूल में एक ही गूढ़ सत्य है। जो कुछ अवतारों के द्वारा इस पृथ्वी के बाह्म मानव- जीवन में किया गया है वह समस्त मानव-प्राणियों के अंदर दोहराया जा सकता है। अवतार लेने का यही उद्देश्य होता है, पर इसकी प्रणाली क्या है? अवतार के संबंध में एक यौक्तिक या संकीर्ण विचार है जिसे केवल इतना ही दिखायी देता है कि अवतार किन्हीं नैतिक, बौद्धिक और क्रियात्मक दिव्यतर गुणों की असाधारण अभिव्यक्तिमात्र होते हैं, जो साधारण मानवजाति का अतिक्रमण कर जाते हैं। इस विचार में अवश्य ही कुछ सत्य हैं अवतार विभूति भी हैं। ये श्रीकृष्ण जो अपनी अंतः सत्ता में मानव-शरीरधारी ईश्वर है, वे ही अपनी बाह्म मानवसत्ता में अपने युग के नेता, वृष्णिकुल के महापुरुष हैं। यह प्रकृति के दृष्टिकोण से हैं, आत्मा की दृष्टि से नहीं। भगवान अपने-आपको प्रकृति के अनंत गुणों में प्रकट करते हैं और इस प्राकट्य की तीव्रता उन गुणों की शक्ति और सिद्धि से जानी जाती है।


इसलिये भगवान् की विभूति, नैर्व्यक्तिक भाव से उनके गुणों की अभिव्यक्ति शक्ति है, वह उनका बहिः प्रवाह है चाहे ज्ञान के रूप में हो अथवा शक्ति प्रेम, बल या अन्य किसी रूप में; और वैयक्तिक भाव से यह वह मनोमय रूप् और सजीव सत्ता है जिसमें वह शक्ति सिद्ध होती और अपने महत् कर्म करती है।” इस आंतरिक और बाह्म सिद्धि को प्राप्त करने में कोई प्रधानता, भागवत गुण की कोई महत्तर शक्ति, कोई कारगर ताकत ही विभुति का लक्षण है। मानव विभूति भावत सिद्धि प्राप्त करने के लिये मानवजाति के संघर्ष का अग्रणी नेता होती है। कारलाइल के अनुसार मनुष्यों के अंदर एक भागवत शक्ति। “ वृष्णियों में वासुदेव (श्री कृष्ण ) हूं, पाण्डवों में धन्नजय (अर्जुन ) हूं, मुनियों में व्यास और कवियो में उशना कवि हूं” अर्थात प्रत्येक कोटि या कक्षा में सर्वोत्तम, प्रत्येक समूह में सबसे महान् जिन-जिन गुणों और कर्मों के द्वारा उस समूह की विश्ष्टि आत्मशक्ति प्रकट होती है उन गुणों और कर्मों का प्रकाश जिसके द्वारा सर्वोत्तम रूप से प्रकट होता है वह ईश्वर की विभूति है। जीव की शक्तियों का यह उत्कर्ष भागवत प्राकट्य के क्रम में अत्यंत आवश्यक है। कोई भी महान पुरुष जो हमारी औसत कक्षा के ऊपर उठ जाता है वह अपने कर्म से साधारण मानवजाति को ऊपर उठा देता है; वह हमारी भागवत संम्भावनाओं का एक सजीव आश्वासन, परमेश्वर की एक प्रतिश्रुटि और भागवत प्रकाश की एक प्रभा तथा भागवत शक्ति का एक उच्छ्वास होता है। मनुष्यों में महामनुस्वी और वीर पुरुषों को देवता की तरह पूजने की जो स्वभाविक प्रवृत्ति होती है।


उसके मूल में यही सत्य है। भारतवासियों का मन तो सभी बढ़े-बढे़ संत-महात्माओं, आचार्यों और पंथ-प्रर्वतकों को अनायास ही आंशिक अवतार मान लेने में अभ्यस्त है और दक्षिण के वैष्णव तो अपने कुछ संतों को भगवान् विष्णु के प्रतीकात्मक सचेतन शास्त्रों के अवतार मानते हैं, क्योंकि सचमुच महान् आत्माएं भगवान् की सचेतन शक्तियों और शस्त्र ही तो हैं, जिनसे ऊपर की ओर बढ़ने और विघ्न बाधाओं से संग्राम करने का काम लिया जाता है। यह विचार जीवन के बारे में हर रहस्यवादी या आध्यिात्मिक दृष्टि के लिये-जो भागवत सत्ता और प्रकृति तथा मानवसत्ता ओर प्रकृति के बीच अमिट रेखा नहीं खींचती-सहज और अपरिहार्य है-यह मानवता में भगवान का बोध है। परंतु फिर भी विभूति अवतार नहीं है; यदि विभूति और अवतार एक ही होते तो अर्जुन, व्यास, उशना सब वैसे ही अवतार होते जैसे श्रीकृष्ण थे, चाहे उनमें अवतारपन की शक्ति इनसे कुछ कम ही होती। परंतु दिव्य गुण का होना ही पर्याप्त नहीं है; अवतार होना तो तब कहा जा सकता है जबकि अपने परमेश्वर और परमात्मा होने का आंतरिक ज्ञान हो और यह ज्ञान हो कि हम अपनी भागवत सत्ता से मानव-प्रकृति का शासन कर रहे हैं। गुणों को शक्ति का उत्कर्ष संभूति (भूतग्राम ) का अंश है, सामान्य अभिव्यक्ति में यह ऊर्ध्व की ओर अरोहण है।


पर अवतार में एक विशेष अभिव्यक्ति होती है, यह दिव्य जन्म उस पद से होता है, सनातन विश्वव्यापक विश्वेश्वर व्यष्टिगत मानवता के एक आकार में उतर आते हैं, अत्मानं सृजामि, और वे केवल परदे के अंदर ही अपने स्वरूप से सचेतन नहीं रहते, बल्कि बाह्य प्रकृति में भी उन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान रहता है। एक मध्यस्थ विचार भी है, अवतार के बारे में एक अधिक रहस्यमय दृष्टि है जिसके अनुसार मानव-आत्मा अपने अंदर भगवान का आवाहन करके यह अवतरण कराती है और तब वह भागवत चैतन्य के अधिकर में हो जाती है अथवा उसका प्रभावशाली प्रतिबिंब या माध्यम बन जाती है। यह विचार किन्हीं आध्यात्मिक अनुभवों के सत्य पर अवलंबित है। यह मनुष्य में भागवत जन्म, अर्थात् मनुष्य का आरोहण, मानव-चैतन्य का भागवत चैतन्य में संवर्धन है और पृथक् आत्मा का भागवत चैतन्य में लय हो जाना ही इसकी परिणति है। आत्मा अपने व्यष्टिभाव को अनंत और विश्वव्यापक सत्ता में मिला देती है या परात्पर सत्ता की परा स्थिति में खो देती है; वह विराट आत्मा के साथ, ब्रह्म के साथ, भगवन् के साथ एक हो जाती है अथवा जैसा कि प्रायः और भी अधिक निश्चित रूप से कहा जाता है-वह स्वयं ही एकमेवाद्वितीय आत्मा, ब्रह्म, भगवान बन जाती है।


जीव के ब्रह्मभूत होने और उसी कारण भगवान् में, श्रीकृष्ण में निवास करने की बात स्वयं गीता भी कहती है, पर यह ध्यान में रहे कि गीता ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि जीव भगवन् या पुरुषोत्तम हो जाता है। हां, जीव के संबंध में गीता ने इतना अवश्य कहा है कि जीव सदा ही ईश्वर है, भगवान की अंशसत्ता है, कारण यह जो महामिलन है, यह जो उच्चतम भाव है यह आरोहण का ही एक अंग है; और यद्यपि यह वह दिव्य जन्म है जिसे प्रत्येक जीव प्राप्त करता है, पर यह परमेश्वर का नीचे उतरना नहीं है, यह अवतार नहीं है, अधिक-से-अधिक, बौद्ध सिद्धांत के अनुसार इसे हम बुद्धत्व की प्राप्ति कह सकते हैं, यह जीव का अपने अभी के जागतिक व्यष्टिभाव से जागकर अनंत परचैतन्य को प्राप्त होना है। इसमें अवतार की आंतरिक चेतना अथवा अवतार के लाक्षणिक कर्म का होना जरूरी नहीं है। दूसरी ओर, भागवत चैतन्य में प्रवेश करने के फलस्वरूप यह हो सकता है कि भगवान् हमारी सत्ता के मानव-अंगों में प्रवेश करें या उनमें आगे आकर प्रकट हों और अपने-आपको मनुष्य की प्रकृति, उसकी कर्मण्यता, उसके मन और शरीर तक ढाल दें; और तब इसे कम-से-कम अंशावतार तो कहा ही जायेगा। गीता कहती है कि ईश्वर हृदेश में निवास करते हैं,-अवश्य ही गीता का अभिप्राय सूक्ष्म शरीर के हृदय से है जो भाववेगों, संवेदनों और मनोमय चेतना का ग्रंथिस्थान है, जहाँ व्यष्टि-पुरुष भी अवस्थित है, पर यहाँ वे परदे की आड़ में ही रहते हैं, अपनी माया से अपने-आपको ढके रहते हैं। परंतु, ऊपर उस लोक में, जो हमारे अंदर है पर अभी हमारी चेतना के परे है, जिसे प्रचीन तव्दर्शियों ने स्वर्ग कहा है, वहाँ ये ईश्वर और यह जीव दोनों एक साथ एक ही स्वरूप में प्रत्यक्ष होते हैं। इन्ही को कुछ संप्रदायों की सांकेतिक भाषा में पिता और पुत्र कहा गया है-पिता है भागवत पुरुष और पुत्र है भागवत मनुष्य जो नहीं से उन्हीं की परा प्रकृति से, परा माया से निम्न, मानव-प्रकृति में जन्म लेता है। इन्हीं परा प्रकृति, परा माया को जिनके द्वारा यह जीव अपरा मानव प्रकृति में उत्पन्न हेाता है, कुमारी माता कहा गया है। ईसाइयों के अवतारवाद का यही भीतरी रहस्य प्रतीत होता है। त्रिमूर्ति में पिता ऊपर इसी अंत: स्वर्ग में है ; पुत्र तथा गीता की जीवभूता परा प्रकृति इस लोक में, इस मानव-शरीर में दिव्य या देव-मनुष्य के रूप में है; और पवित्र आत्मा (होली स्पिरिट ) दोनों को एक बना देती है और दूसरी में इन दोनों को परस्पर-व्यवहार होती है; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि यह पवित्र आत्मा ईसा में उतर आयी थी और इसी अवतरण के फलस्वरूप ईसा के शिष्यों में भी, जो सामान्य मानव-कोटि के थे, उस महत् चैतन्य की क्षमता आ गयी थी। 

परंतु यह भी संभव है कि परम पुरुष पुरुषोत्म का उच्चतर भागवत चैतन्य मनुष्य के अंदर उतर आये और जीव-चैतन्य का उसमें लय हो जाये। श्री चैतन्य के समकालीन लोग बतला गये है कि वे अपनी साधारण चेतनाओं में भगवान के केवल एक प्रेमी और भक्त थे और देवत्वारोपण को अस्वीकार करते थे। किंतु कभी-कभी वे एक ऐसे विलक्षण भाव में आ जाते थे कि उस अवस्था में वे स्वयं भगवान् हो जाते तथा भगवद्भाव से ही भाषण और कर्माचरण करते थे; और ऐसे समय उनसे भगवतसत्ता के प्रकाश, प्रेम और शक्ति का अबोध प्रवाह उमड़ पड़ता था। इसी को यदि जीवन की सामान्य अवस्था मान लें, अर्थात् मनुष्य सदा इस भागवत सत्ता और भागवत चैतन्य का केवल एक पात्र ही बना रहे तो एकसा पुरुष अवतार-संबंधी मध्यवर्ती भावना के अनुसार अवतार होगा? मानव-धारणा के अनुसार अवतार-संबंधी मध्यवर्ती भावना ठीक ही जंचती है; क्योंकि यदि मानवप्राणी अपनी प्रकृति को इतना उन्नत कर ले कि उसे भागवत सत्ता के साथ एकत्व अनुभव हो और वह भगवान के चैतन्य, प्रकाश, शक्ति और प्रेम का एक वाहक सा बन जाये,


उसका अपना संकल्प और व्यक्तित्व भगवान के संकल्प और उनकी सत्ता में घुल-मिलकर अपना पृथकत्व खो दे-क्योंकि यह भी एक मानी हुई आध्यात्मिक अवस्था है-तो मनव-जीव के अंदर, उसके संपूर्ण व्यक्त्त्वि को अधिकृत करके, भगवान् का ही संकल्प, भगवान की ही सत्ता और शक्ति, उन्हीं के प्रेम प्रकाश और चैतन्य प्रतिबिंबित हो सकते हैं, और यह जरा भी असंभव नहीं है। और, इस प्रकार की अवस्था मनुष्य का केवल आरोहण द्वारा दिव्य जन्म और दिव्य स्वभाव को प्राप्त होना ही नहीं है, बल्कि उसमें दिव्य पुरुष का मानव में अवतरण भी है, यह एक अवतार है। परंतु गीता इसके भी आगे चलती है। वह साफ-साफ कहती है कि भगवान् स्वयं जन्म लेते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे बहुत-से जन्म बीत चुके और अपने शब्दों से यह स्पष्ट करे दते हैं कि वे ग्रहणशील मानव-प्राणी में उतर आने की बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि भगवान् के ही बहुत-जन्म ग्रहण करने की बात कह रहे हैं क्योंकि यहाँ वे ठीक सृष्टिकर्ता की भाषा में बोल रहे हैं, और इसी भाषा का प्रयोग वे वहाँ करेंगे जहाँ अपनी जगत्-सृष्टि की बात कहेंगे। ‘‘ यद्यपि मैं प्राणियों का अज अविनाशी ईश्वर हूँ तो भी मैं अपनी माया से अपने-आपको सृष्ट करता हूँ ”-अपनी प्रकृति के कार्यों का अधिष्ठान होकर।




अवतार

   



जिस योग में कर्म और ज्ञान एक हो जाते हैं, कर्मयज्ञ योग और ज्ञानयोग एक हो जाते हैं, जिस योग में कर्म की परिपूणर्ता ज्ञान में होती है और ज्ञान कर्म का पोषण करता है, उसका रूप बदल देता और उसे आलोकित कर देता है और फिर ज्ञान और कर्म दोनों ही उन परम भगवान् पुरुषोत्तम को समर्पित किये जाते हैं जो हमारे अंदर नारायण-रूप से सदा हमारे हृदयों में गुप्त भाव से विराजमान हैं, जो मानव-आकार में भी अतारूप से प्रकट होते हैं और दिव्य जन्म ग्रहण करके हमारी मानवता को अपने अधिकार में लेते हैं, उस योग का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण बातों-बातों में यह कह गये कि यही वह सनातन आदियोग है जो मैंने सूर्यदेव विवस्वान् को प्रदान किया और विवस्वान् ने जिसे मनुष्यों के जनक मनु को और मनु ने सूर्यवंश के आदिपुरुष इक्ष्वाकु को दिया और इस प्रकार यह योग एक राजर्षि से दूसरे राजर्षि को मिलता रहा और इसकी परंपरा चलती रही, फिर काल की गति में यह खो गया। भगवान अर्जुन से कहते हैं आज वही योग मैं तुझे दे रहा हूं, क्योंकि तू मेरा प्रेमी, भक्त, सखा और साथी है भगवान् ने इस योग को परम रहस्य कहकर इसे नये सब योगों से श्रेष्ठ बताया, क्योंकि अन्य योग या तो निर्गुण ब्रह्म को या सगुण साकार इष्टदेव ही प्राप्त कराने वाले, या निष्कर्मस्वरूप मोक्ष अथवा आनंदनिमग्न मुक्ति के ही दिलाने वाले हैं, किंतु यह योग परम रहस्य और संपूर्ण रहस्य को खोलकर दिखाने-वाला, दिव्य शक्ति और दिव्य कर्म को प्राप्त कराने वाला तथा पूर्ण स्वतंत्रता से युक्त दिव्य ज्ञान, कर्म और परमानंद को देने वाला है।


जैसे भगवान की परम सत्ता अपनी व्यक्त् सत्ता की सब परस्पर-विभिन्न और विरोधी शक्तियों और तत्त्वों का समन्वय कर उन्हें अपने अंदर एक कर लेती है वैसे ही इस योग में भी सब योगमार्ग मिलकर एक हो जाते हैं। इसलिये गीता का यह योग केवल कर्मयोग नहीं है जैसा कि कुछ लोगों का आग्रह है और जो इसे तीन मार्गों में से सबसे कनिष्ठ मार्ग बतलाते हैं, बल्कि यह परम योग है, पूर्ण समन्वयात्मक और अखंड है, जिसमें जीव के अंग-प्रत्यंगों की सारी शक्तियों भगवन्मुखी की जाती है। इस योग को विवस्वान आदि को दिये जाने की बात को अर्जुन ने अत्यंत स्थूल अर्थ में ग्रहण किया (इस बात को दूसरे अर्थ में भी लिया जा सकता है) और पूछा कि सूर्यदेव जो जीव-सृष्टि में अग्रजन्माओं में से एक हैं, जो सूर्यवंश के आदिपुरुष हैं उन्होंने मनुष्य रूप श्रीकृष्ण से, जो अभी-अभी जगत् में उत्पन्न हुए यह योग कैसे ग्रहण किया। इस प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण यह दे सकते थे कि संपूर्ण ज्ञान के मूलस्वरूप जो भगवान् हैं उस भगवद्रूप से मैंने यह उपदेश उन सविता को दिया था जो भगवान् के ही ज्ञान के व्यक्ति रूप और जो समस्त अंतब्राह्म दोनों ही प्रकाशों के देने वाले हैं-परंतु यह उत्तर उन्होंने नहीं दिया।


उन्होंने इस प्रश्न के प्रसंग से अपने छिपे हुए ईश्वर-रूप की वह बात कही जिसकी भूमिका वे तभी बांध चुके थे जब उन्होंने कर्म करते हुए भी कर्मों से न बधने के प्रसंग में अपना दिव्य दृष्टांत सामने रखा था। पर वहाँ उन्होंने इस बात को अच्छी तरह स्पष्ट नहीं किया था। अब वे अपने-आपको स्पष्ट शब्दों में अवतार घोषित करते हैं। भगवान् गुरु को चर्चा के प्रसंग में वेदांत की दृष्टि से अवतार-तत्त्व का प्रतिपादन संक्षेप में किया जा चुका है। गीता भी इस तत्त्व को वेदांत की ही दृष्टि से हमारे सामने रखती है। अब हम इस तत्त्व को जरा और अंदर बैठकर देखें और उस दिव्यजन्म के वास्तविक अभिप्राय को समझें जिसके बाह्म रूप को ही अवतार कहते हैं, क्योंकि गीता की शिक्षा में यह चीज एक ऐसी लड़ी है जिसके बिना इस शिक्षा की श्रृंखला पूरी नहीं होती। सबसे पहले हम श्रीगुरु के उन शब्दों का अनुवाद करके देखें जिनमें अवतार के स्वरूप और हेतु का संक्षेप में वर्णन किया गया है और उन श्लोकों को या वचनों को भी ध्यान में ले आवें जो उससे संबंध रखते हैं। “ हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके; मैं उन सबको जानता हूं, पर तू नहीं जानता। हे परंतप, मैं अपनी सत्ता यद्यपि अज और अविनाशी हूं, सब भूतों का स्वामी हूं, तो भी अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर आत्म-माया से जन्म लिया करता हूँ। जब-जब धर्म की ग्लीनि होती है और अधर्म का उत्थान, तब-तब मैं अपना सृजन करता हूँ साधु पुरुषों को उबारने और पापात्माओं को नष्ट करने और धर्म की संस्थापना करने के लिये मैं युग-युग में जन्म लिया करता हूँ। मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को जो कोई तत्त्वतः जानता है, वह इस शरीर को छोड़कर पुनर्जन्म को नहीं, बल्कि, हे अर्जुन, मुझको प्राप्त होता है। राग, भय और क्रोध से मुक्त, मेरे ही भाव में लीन, मेरा ही आश्रय लेने वाले, ज्ञानतप से पुनीत अनेकों पुरुष मेरे भाव को ( पुरुषोत्तम-भाव को) प्राप्त हुए हैं। जो जिस प्रकार मेरी ओर आते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार प्रेमपूर्वक ग्रहण करता हूँ। हे पार्थ, सब मनुष्य सब तरह से मेरे ही पथ का अनुसरण करते हैं।” गीता अपने कथन जारी रखते हुए बतलाती है कि बहुत से मनुष्य अपने कर्मों की सिद्धि चाहते हुए, देवताओं के अर्थात् एक परमेश्वर के विविध रूपों और व्यक्तित्वों के प्रीतयर्थ यज्ञ करते हैं, क्योंकि कर्मों से-ज्ञानरहित कर्मों से-होने वाली सिद्धि मानव-जगत् में सुगमता से प्राप्त होती है; वह केवल उसी जगत् की होती हैं। परंतु दूसरी सिद्धि, अर्थात् पुरुषोत्तम के प्रीत्यर्थ किये जाने वाले ज्ञानयुक्त यज्ञ के द्वारा मनुष्य की दिव्य आत्मपरिपूर्णता, उसकी अपेक्षा अधिक कठिनता से प्राप्त होती है; इस यज्ञ के फल सत्ता की उच्चतर भूमिका के होते हैं और जल्दी पकड़ में नहीं आते।


इसलिये मनुष्यों को अपने गुण-कर्म के अनुसार चतुर्विध धर्म का पालन करना पड़ता है और सांसारिक कर्म के इस क्षेत्र में वे भगवान् को उनके विविध गुणों में ही ढूंढते हैं। परंतु भगवान् कहते हैं कि यद्यपि मैं चतुर्विध कर्मों का कर्ता और चातुर्वण्य का स्पष्टता हूँ तो भी मुझे अकर्ता, अव्यय, अक्षर आत्मा भी जानना चाहिये। “ कर्म मुझे लिप्त नहीं करते, न कर्मफल की मुझे कोई स्पृहा है।” कारण भगवान् नैर्व्यक्तिक हैं और इस अहंभावापन्न व्यक्तित्व के तथा प्रकृति के गुणें के इस द्वंद्व के परे हैं, और अपने पुरुषोत्तम-स्वरूप में भी, जो उनका नैर्व्यक्तिक पुरुषभाव है, वे कर्म के अंदर रहते हुए भी अपनी इस परम स्वतंत्रता पर अधिकार रखते हैं। इसलिये दिव्य कर्मों के कर्ता को चातुर्वण्य का पालन करते हुए भी उसी को जानना और उसी में रहना होता है जो परे है, जो नैर्व्यक्तिक है और फलतः परमेश्वर है। भगवान कहते हैं “ इस प्रकार जो मुझे जानता है, वह अपने कर्मों से नहीं बंधता। यही जानकर मुमुक्ष लोगों ने पुराकाल में कर्म किया; इसलिये तू भी उसी पूर्वतर प्रकार के कर्म कर जेसे पूर्वपुरुषों ने किये थे।”


जिन श्लोंको का अनुवाद ऊपर दिया गया है, उनमें से पीछे के श्लोक, जिनका सारांश-मात्र दिया गया है, ‘दिव्य कर्म’ का स्वरूप बतलाने वाले हैं, और उसका निरूपण हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं; और उनमें से पहले के श्लोक, जिनका संपूर्ण अनुवाद दिया गया है, वे ‘दिव्य जन’ अर्थात् अवतारतत्त्व का प्रतिपादन करने वाले हैं पर यहाँ हमें एक बात बड़ी सावधनी के साथ कह देनी है कि अवतार का अपना-जो मानव जाति के अंदर भगवान् का परम रहस्य है-केवल धर्म का संस्थापन करने के लिये ही नहीं होता। क्योंकि धर्मसंस्थापन स्वयं कोई इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान लक्ष्य नहीं है जिसके लिये ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े, धर्मसंस्थापन तो किसी और भी महान्, परतर और भागवत संकल्पसिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। कारण दिव्य जन्म के दो पहलू हैं; एक अवतरण, मानव भाँति में भगवान् का जन्मग्रहण, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान का प्राकट्य, यही सनातन अवतार है; दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्मग्रहण, भागवत प्रकृति और भागवत चैतन्य में उसका उत्थान-मद्भाव-मागताः, यह जीव का नवजन्म, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म का संस्थापन करना इसी नव-जनम के लिये होता है। अवतारविषयक गीता सिद्धांत के इस द्विविध पहलू की और उन लोगो का ध्यान नहीं जाता जो गीता को सरसरी तौर पर पढ़ जाते हैं और अधिकांश पाठक ऐसे ही होते हैं जो इस ग्रंथ की गंभीर शिक्षा की और न जाकर इसके ऊपरी अर्थ से ही संतुष्ट हो जाते हैं। और वे भाष्यकार भी, जो अपनी सांप्रदायिक चहारदीवारी के अंदर बंद रहते हैं, इसको नहीं देख पाते।


इसलिये अवतारतत्त्वसंबंधी गीता का जो सिद्धांत है उसके संपूर्ण अर्थ को समझाने के लिये अवतार के इस द्विविध पहलू को जान लेना आवश्यक है। इसके बिना अवतार की भावना केवल एक मतविशेष एक प्रचलित मूढ़ विश्वास रह जायेगी अथवा यह हो जायेगा कि ऐतिहासिक या पौराणिक अतिमानवों को कल्पना के जोर से या रहस्यमय तरीके से भगवान बना दिया जायेगा और यह भावना वह नहीं रह जायेगी जो गीता की शिक्षा है, जो गंभीर दार्शनिक और धार्मिक सत्य है और जो उत्तमं रहस्यमय को प्राप्त कराने का एक आवश्यक अंग या पदक्षेप है। यदि परमेश्वर-सत्ता में मनुष्य के आरोहण की सहायता करना मनुष्य-रूप में परमेश्वर के अवतीर्ण होने का प्रकृत हेतु न हो तो धर्म के लिये भगवान का अवतार लेना एक निरर्थक-सा व्यापार प्रतीत होगा; कारण धर्म, न्याय और सदाचार की रक्षा का कार्य तो भगवान की सर्वशक्तिमत्ता अपने सामान्य साधनों के द्वारा अर्थात् महापुरुषों और महान आंदोलनों के द्वारा तथा ऋषियों, राजाओं और धर्माचार्यों के द्वारा सदा कर ही सकती है, उसके लिये अवतार की कोई प्रकृत आवश्यकता नहीं। अवतार का आगमन मानव-प्रकृति में भागवत प्रकृति को प्रकटाने के लिये होता है, ईसा, कृष्ण और बुद्ध की भगवत्ता को प्रकटाने के लिये, जिससे मान-प्रकृति अपने सिद्धांत, विचार, अनुभव, कर्म और सत्ता को ईसा, कृष्ण और बुद्ध के सांचे में ढालकर स्वयं भागवत प्रकृति में रूपांतरित हो जाये। अवतार जो धर्म संस्थापित करते हैं उसका मुख्य हेतु भी यही होता है; ईसा, बुद्ध, कृष्ण इस धर्म के तोरणद्वार बनकर स्थित होते हैं और अपने अंदर से होकर ही वह मार्ग निर्माण करते हैं जिसका अनुवर्त्तन करना मनुष्यों का धर्म होता है। यही कारण है कि प्रत्येक अवतार मनुष्यों के सामने अपना ही दृष्टांत रखते और अपने-आपको ही एकमात्र मार्ग और तोरणद्वार घोषित करते हैं; अपनी मानवता को ईश्वर की सत्ता के साथ एक बतलाते और यह भी प्रकट करते हैं कि मैं जो मानव पुत्र हूँ वह और जिस उर्ध्वस्थित पिता से मैं अवतरित हुआ हूँ वह, दोनों एक ही हैं,-मनुष्य-शरीर में जो श्रीकृष्ण हैं। वे और परमेश्वर तथा सर्वभूतों के सृहृत जो श्रीकृण हैं वे, ये दोनों उन्हीं भगवान् पुरुषोत्तम के ही प्रकाश हैं, वहाँ वे अपनी ही सत्ता में प्रकट हैं, यहाँ मानव-आकार में प्रकट हैं। अवतार का दूसरा और वास्तविक उद्देश्य ही गीता के समग्र प्रतिपादन का मुख्य विषय है। यह बात उस श्लोक से ही, यदि उसका यथार्थ रूप से विचार किया जाये तो, प्रकट हैं। पर केवल उस एक श्लोक से ही नहीं-क्योंकि ऐसा करना गीता के श्लोकों का ठीक अर्थ लगाने का गलत रास्ता है-बल्कि अन्य श्लोकों के साथ उसका जो संबंध है उसका पूरा ध्यान रखते हुए और समग्र प्रतिपादन के साथ उसका मेल मिलाते हए विचार किया जाये तो यह बात और भी अच्छी तरह से स्पष्ट हो जाती है। 


गीता का यह सिद्धांत कि सबमें एक ही आत्मा है, और प्रत्येक प्राणी के हृदेश मे भगवान् विराजमान हैं और साथ ही सृष्टिकर्ता प्रजापति और उनकी प्रजा, इन दोनों का जैसा परस्पर-संबध गीता बतलाती तथा विभूति-तत्त्व का प्रतिपादन जिस जोरदार आग्रह के साथ करती है, इन सभी बातों को ध्यान में रखना होगा और एक साथ विचारना होगा। भगवान् अपने निष्काम कर्म का उदाहरण देते हैं, जो मानव श्रीकृष्ण पर उतना ही घटता है जितना सर्वलोकमहेश्वर पर, उसकी भाषा को भी ध्यान में रखना होगा और नवें अध्याय के इस वचन को भी उसका प्राप्य स्थान देना होगा कि “मूढ़ लोग मानुषी तनु में आश्रित मुझे तिरस्कृत करते हैं क्योंकि वे मेरे सर्वलोकमहेश्वर परम भाव को नहीं जानते;” और इन विचारों को सामने रखकर तब इस वचन का अभिप्राय निकलना होगा जो इस समय हमारे सामने है कि उनके दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के ज्ञान द्वारा मनुष्य भगवान् के पास आता है और भगवन्मय होकर तथा उनका आश्रित होकर उनके भाव को प्राप्त होता है, तब हम दिव्य जन्म और उसके हेतु का यह तत्त्व समझ सकेंगे कि यह कोई सबसे न्यारी अचरजभरी विलक्षण-सी चीज नहीं है, बल्कि जगत्-प्राकट्य का जो संपूर्ण क्रम है उसमें इसका भी एक विशिष्ट स्थान है; इसके बिना हम अवतार के इस दिव्य रहस्य को समझ ही नही सकेंगे, बल्कि इसकी खिल्ली उड़ायेंगे या बिना समझे इसे मान लेंगे अथवा इसके बारे में आधुनिक मन के उन क्षुद्र और बाहरी विचारों में जा फंसेंगे जिनसे इसका जो आंतरिक और उपयोगी अर्थ है, वह नष्ट हो जायेगा। क्योंकि आधुनिक मन के लिये अवतार-तत्त्व तर्क बद्ध मानव-चेतना पर पूर्व की और से धरा-प्रभाह आने वाली विचारधराओं में किए विचार हैं और इसे स्वीकार करना या समझना सबसे कठिन है। यदि वह अवतारतत्त्व को उदार भाव से ले तो वह कहेगा कि वह मानव शक्ति का, स्वभाव का, प्रतिभा का, जगत् के लिये जगत् में किये गये किसी महान कर्म का एक प्रतीक मात्र है और यदि वह इसको अनुदार भाव से ग्रहण करे तो वह कहेगा कि यह एक कुसंस्कार या मूढ़-विश्वासमात्र है नास्तिक के लिये यह एक मूर्खतापूर्ण विचार है और यूनानी के लिये मार्ग का रोड़ा। जड़वादी तो इस विचार को अपने ध्यान में भी नहीं ला सके, क्योंकि वे ईश्वर की सत्ता को ही नहीं मानते; युक्तिवादी या भागवत प्राकट्य को न मानने वाले ईश्वरवादी इसे मूर्खता और उपहास का विषय समझ सकते हैं; कट्टर द्वैतवादियों की दृष्टि में मानव-स्वभाव और देवस्वभाव के बीच का अंतर कभी मिट ही नहीं सकता, इसलिये उनकी दृष्टि में तो ऐसी बात कहना ईश्वर की निंदा ही है। 


युक्तिवादियों का पक्ष यह है कि ईश्वर यदि है तो विश्वातीत, विश्व के परे है, संसार के मामलों में वह दख़ल नहीं देता, बल्कि संसार का अनुशासन एक सुनिश्चित विधान के बने-बनाये यंत्र के द्वारा होने देता है-यथार्थ में वह विश्व से दूर रहने वाला कोई वैधानिक राजा-सा या कोई जढ़भरत-सा आध्यात्मिक राजा है, उसकी अधिक से-अधिक प्रशंसा यही हो सकती है कि वह प्रकृति के पीछे रहने वाला, सांख्यवर्णित साधारण और वस्तुनिरपेक्ष साक्षी पुरुष-सा अकर्ता आत्मतत्त्व है; वह विशुद्ध आत्मा है, वह शरीर धारण नहीं कर सकता; वह अपरिच्छिन्न अनंत है, मनुष्य की तरह सांत परिच्छिन्न नहीं हो सकता; वह अजन्मा सृष्टि करता है, संसार में जन्मा हुआ सृष्ट प्राणी नहीं हो सकता ये बातें उसकी निरपेक्ष शक्तिमत्ता के लिये भी असंभव हैं। कट्टर द्वैतवादी इन बातों में अपनी तरफ से इतनी बात और जोड़ देगा कि ईश्वर हैं पर उनका स्वरूप, उनका कर्म और स्वभाव मनुष्य से भिन्न और पृथक हैं; वे पूर्ण हैं और मनुष्य की अपूर्णता को अपने ऊपर नही ओढ़ सकते; अज अविनाशी साकार परमेश्वर मनुष्य नहीं बन सकते; सर्वलोकमहेश्वर प्रकृति से बंधे हुए मानवकर्म में और नाशवान मानव-शरीर में सीमाबद्ध नहीं हो सकते। 

ये आक्षेप जो पहली नजर में बड़े प्रबल मालूम होते हैं, गीता के वक्ता भगवान् गुरु की दृष्टि के सामने मौजूद रहे होगें जब वे कहते हैं कि, यद्यपि मैं अपनी आत्म-सत्ता में अज हूं, अव्ययय हूं, प्राणि-मात्र का ईश्वर हूं, फिर भी मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठान करके अपनी माया के द्वारा जन्म लिया करता हूं; और जब वे यह कहते हैं कि मूढ़ लोग मनुष्य-शरीर में होने के कारण मुझे तुच्छ गिनते हैं पर यथार्थ में अपनी परम सत्ता के अंदर मैं प्राणिमात्र का ईश्वर हूं, और यह कि मैं अपनी भागवत चेतना की क्रिया में चातुर्वण्य का स्रष्टा हूँ तथ जगत् के कर्मों का कर्ता हूँ और यह होते हुए भी अपनी भागवत चेतना की नीरवता में मैं अपनी प्रकृति के कर्मों का उदासीन साक्षी हूँ, क्योंकि मैं सदा कर्म और अकर्म दोनों के परे हूं, परम प्रभु हूं, पुरुषोत्तम हूँ। और इस तरह गीता अवतार-तत्त्व के विरुद्ध किये जाने वाले आक्षेपों का पूरा जवाब दे देती है और इन सब निरोधों का समन्वय करने में समर्थ होती है, क्योंकि ईश्वर और जगत् के संबंध में वेदांत-शास्त्र के सिद्धांत से गीता का आरंभ होता है। वेदांत की दृष्टि में ये आपातप्रबल आक्षेप प्रारंभ से ही निरस्सार और निरर्थक हैं। यद्यपि वेदांत की योजना के लिये अवतार की भावना अनिवार्य नहीं है, पर फिर भी यह भावना उसमें सर्वथा युक्तियुक्त और न्यायसंगत धारणा के रूप में सहज भाव से आ जाती है।


यहाँ जो कुछ है सब ईश्वर, आत्मा, एकमेवाद्वितीय ब्रह्म ही तो है और ऐेसी कोई चीज नहीं जो उससे भिन्न हो, कोई चीज हो ही नहीं सकती जो उससे इतर और भिन्न हो; प्रकृति भागवत चेतना की ही एक शक्ति हाने के अतिरिक्त न कुछ है न हो सकती है; सब प्राणी एक ही भागवत सत्ता के आंतर और बाह्य, अहं और इदं, जीवरूप और देहरूप के अतिरिक्त न कुछ हैं न हो सकते हैं, ये उसी भागवत चेतना की शक्ति से उत्पन्न होते और उसी में स्थित रहते हैं, अनंत ईश्वर के सांत भाव को धारण करने के बारे में सवाल ही नहीं उठता जबकि सारा जगत्त उस अनंत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस समग्र विशाल जगत् में, जहाँ हम रहते हैं, हम जिधर दृष्टि उठाकर देखें, चाहे जैसे देखें, उसीको देखेंगे, और किसी को नहीं। आत्मा का साकार न हो सकना अथवा अन्नमय या मनोमय रूप के साथ संबंध जोड़ने और परिच्छिन्न स्वभाव या शरीर धारण करने से घृणा करने से घृणा करना तो दूर रहा, यहाँ तो जो कुछ है वही, उसकी संबध से, उसी परिच्छिन्न स्वभाव और शरीर को धारण करने से ही इस जगत् का अस्तित्तव है।


जगत् का स्वतंत्र चलने वाला विधान-मात्र होना तो दूर रहा, जिसकी शक्तियों की गति में या जिसके मन-प्राण शरीर से हेने वाले कर्मों में हस्तक्षेप करने वाला कोई आत्मा या पुरुष नहीं है, है केवल कोई आदि तटस्थ आत्मत्व की सत्ता जो इस जगत् में नहीं, इसके बाहर या ऊपर कहीं निष्क्रिय रूप से रहती है, यह सारा जगत् और इसका प्रत्येक अणु ही कर्मरत भागवत शक्ति है और इसकी प्रत्येक गति का निर्धारण और नियमन उसी भागवत शक्ति के द्वारा होता है, इसके प्रत्येक रूप में उसीका निवास है, प्रत्येक जीव और उसका अंत: करण उसी का है; सब कुछ ईश्वर में है और उसीमें सब कुछ होता रहता है, सबमें वही है, वही कर्म करता और अपनी सत्ता दर्शाता है; प्रत्येक प्राणी छद्वेश में नारायण ही है। अजन्मा जन्म नहीं ले सकता यह बात तो दूर रही, यहाँ तो प्रत्येक जीव अपने व्यक्तित्व के अंदर रहते हुए भी वही अजन्मा आत्मा है, वही सनातन है जिसका न कोई आदि है न अंत। और अपने मूल अस्तित्व और अपनी विश्व-व्यापकता में सभी जीव वही है अजन्मा आत्मा है, जिसके आकार-ग्रहण और आकर-परिवर्तन का नाम ही जन्म और मृत्यु है। इस जगत् का सारा रहस्यमय व्यापार यही तो है कि अपूर्णता को पूर्ण कैसे धारण किये हुए हैं? पर यह अपूर्णता धारण किये गये मन और शरीर के रूप और कर्म में ही प्रकट होती है, यहाँ के बाह्म जगत् में ही रहती है; जो इसे धारण करता है, उसमें कोई अपूर्णता नहीं होती; जैसे सूर्य, जो सबको आलोकित करता है, उसमें प्रकाश या दर्शन-शक्ति की कोई कमी नहीं हेाती, कमी होती है व्यक्ति-विशेष की दर्शनेंद्रिय की क्षमता में।


फिर, यह भी नहीं है कि भगवान् बहुत दूर किसी स्वर्ग में विराजे इस जगत् पर राज करते हों, बल्कि उनका राज तो उनकी अपनी निगूढ़ सर्वव्यापकता से हुआ करता है; प्रत्येक परिच्छिन्न सांत गुणकर्म अपरिच्छिन्न अनंत शक्ति का ही एक कार्य है, किसी पृथक् परिच्छिन्न स्वयंभू क्रिया-शक्ति का नहीं जो अपने ही बल से कोई परिश्रम कर रही हो; मन-बुद्धि के संकल्प और ज्ञानी की प्रत्येक परिच्छिन्न क्रिया में हम अपरिच्छिन्न अखिल संकल्प और अखिल ज्ञान के किसी कर्म का आश्रय रूप से होना ढूंढकर देख सकते हैं, भगवान् का राज ऐसा राज नहीं है जहाँ का शासक अनुपस्थित रहता हो, विदेशी हो या बाहरी हो; वे इसलिये सबका शासन करते हैं कि वे सबका अतिक्रमण करते हैं, साथ ही इसलिये भी कि वे सब क्रियाओं मे स्वयं रहते हैं। और वे ही उन क्रियाओं के एकमात्र प्राण और आत्मा हैं। इसलिये अवतार की संभावना के विरुद्ध जो-जो आक्षेप हमारी तर्क-बुद्धि में आया करते हैं वे सिद्धांतः टिक नहीं सकते क्योंकि यह सब हमारे बौद्धिक तर्क द्वारा उपस्थित किया हुआ एक ऐसा व्यर्थ का विभेद है जिसे जगत् का सारा व्यापार और उसकी सारी वास्तविकता दोनों ही प्रतिक्षण खंडित और अप्रमाणित कर रहे हैं। परंतु अवतार की संभावना के प्रश्न को छोड़कर एक और प्रश्न है और वह यह है कि क्या भगवान् सचमुच इस प्रकार कर्म करते हैं, क्या सचमुच भागवत चेतना परदे से बाहर निकलकर इस सांत, मनोमय, अन्नमय, परिच्छिन्न, अपूर्ण बाह्य जगत् में सीधे कर्म करती है?


यह सांत बाह्य परिच्छिन्न रूप आखिर क्या है-यह अनंत के ही विभिन्न चिद्भावों के सामने अनंत की अपनी अभिव्यक्तियों का एक सुनिश्चित बाह्य रूप, उनका एक बाहरी मूल्य है; प्रत्येक सांत बाह्य रूप का वास्तवितक मूल्य तो यह है कि वह बाह्य प्रकृति के कर्मों और सांसारिक आत्म-अभिव्यक्त् में चाहे जैसा हो पर अपनी बाह्य आत्म-सत्ता में अनंत ही है। यदि हम अधिक गौर से देखें तो मनुष्य सर्वथा अकेला नहीं है, वह सर्वथा पृथक रहने वाला स्वतः स्थित व्यक्ति नहीं है, बल्कि किसी मतिविशेष और शरीर विशेष में स्वयं मानवजाति है; और स्वयं मानवजाति भी स्वतःस्थित सबसे पृथक जाति नहीं है, बल्कि भूमा विश्वपति ही मानवजाति के रूप में मूर्तिमान हैं; इस रूप में वे कतिपय संभावनाओं को क्रियान्वित करते हैं, आधुनिक भाषा में कहें तो अपनी अभिव्यक्ति की शक्तियों को प्रस्फुटित और विकसित करते हैं, पर जो कुछ विकसित होकर आता है वह स्वयं अनंत होता है, स्वयं आत्मा होता है।आत्मा से हमारा अभिप्राय है उस स्वयंभू सत्ता से जिसमें चेतना की अनंत शक्ति और अपार आनंद निहित हैं; आत्मा यही है और यदि यह न हो तो कुछ भी नहीं है अथवा कम-से-कम मनुष्य और जगत् के साथ उसका कुछ भी संबंध नहीं है और इसलिये मुनष्य और जगत् का उससे कोई संबंध नहीं है।


स्थूल द्रव्य, शरीर तो सचेतन सत्ता की शक्ति का ही पुंजीभूत कर्म है, चेतना की इन्द्रिय-शक्ति द्वारा क्रियान्वित होने वाले चेतना के परिर्तनशील संबंधों को काम में लाने के लिये साधन के तौर पर यह उपयोग में लाया जाता है। यथार्थ में स्थूल द्रव्य कहीं भी चेतना से ख़ाली नहीं है; क्योंकि एक-एक अणु और छिद्र-रंध्र में कोई संकल्पशक्ति, कोई बुद्धि कार्य कर रही है, यह बात अब आधुनिक सायंस को भी मजबूरन स्वीकार करनी पडी़ है। परंतु यह संकल्पशक्ति या बुद्धि उस आत्मा या ईश्वर की है जो इसके अंदर विद्यमान है, यह किसी जड़ छिद्र या अणु का अपना, अपने से ही उपजा हुआ पृथक संकल्प या विचार नही है। स्थूल में अंतर्लीन विराट् संकल्प और बुद्धि एक से एक रूपों में से होकर अपनी शक्तियों का विकास करते रहते हैं और अंत मे पृथ्वी पर मनुष्य के अंदर पहुँचकर पूर्ण भागवत शक्ति के ज्यादा से ज्यादा पास पहुँच जाते हैं और यहीं इनको, इनकी बहिर्गत और रूपगत बुद्धि में भी, पहले-पहले अपनी दिव्यता का कुछ-कुछ धुंधला-सा आभास मिलता है। परंतु यहाँ भी एक सीमा होती है, यह प्राकट्य भी अभी अपूर्ण है और इसलिये निम्नतर रूपों को भगवान् के साथ अपने तादात्म्य का ज्ञान नहीं हो पाता।


क्योंकि प्रत्येक सीमा में बाह्य जगत् की क्रिया की एक सीमा बधी होती है और उसके साथ-साथ उसकी बाह्य चेतना की भी एक सीमा लगी रहती है जो जीव के स्वभाव का निरूपण करती और एक-एक जीव के अंदर आंतरिक भेद उत्पन्न कर देती है। अवश्य ही भगवान् इस सबके पीछे रहकर कर्म करते हैं और इस बाह्य अपूर्ण चेतना और संकल्प के द्वारा अपनी विशेष अभिव्यक्तियों का नियमन करते हैं, किन्तु, जैसा कि वेद में कहा गया है, वे अपने-आपको गुहा में छिपाये रहते हैं। गीता इस बात को यूं कहती है कि “ईश्वर सब प्राणियों के हिद्देश में वास करते हैं और सबको माया से यंत्रारूढ़वत् चलाते रहते हैं।” हृदेश में छिपे हुए भगवान्, अहमात्मक प्राकृत चेतना के द्वारा जिस प्रकार कर्म करते हैं, वही जगत् के प्राणियों के साथ ईश्वर की कार्य-प्रणाली है। जब ऐसा ही है, तब हमें यह मानने की क्या अवश्यकता है कि, वे किसी रूप में, यानी प्राकृत चेतना में भी सामने आकार प्रकट होते और प्रत्यक्ष में अपने विरुद्ध चैतन्य के साथ कार्य करते हैं? इसका उत्तर यही है कि यदि भगवान् इस तरह आते हैं तो मनुष्य और अपने बीच के परदे को फाड़ने के लिये आते हैं जिस परदे को अपनी प्रकृति में सीमित मनुष्य उठा तक नहीं सकता। गीता कहती है कि जीव साधारणतया जो अपूर्ण रूप से कर्म करता है उसका कारण यह है कि वह प्रकृति की यांत्रिक क्रिया के वश में होता है और माया के रूपों से बंधा रहता है।


प्रकृति और माया भागवत चैतन्य की कार्यशक्ति के ही दो परस्पर-पूरक पहलू हैं। माया यथार्थ में भ्रम नहीं है-भ्रम का भाव या आभास केवल अपरा प्रकृति के अज्ञान से अर्थात् त्रिगुणात्मिका माया से उत्पन्न होता है-भागवत चैतन्य मे सत्ता की विविध आत्माभिव्यक्तियों को करने की शक्ति को माया कहते हैं, और प्रकृति उसी चैतन्य की वह कार्यशक्ति है जो भगवान् के प्रत्येक अभिव्यक्त रूप का उसके स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार, उसके गुणकर्म के अनुसार जगत्-अभिनय में परिचालन करती है। भगवान् कहते हैं कि, “मैं अपनी प्रकृति के ऊपर स्थित होकर, उस पर दबाव डालकर इन विविध प्राणियों को, जो प्रकृति के वश में अवश हैं, सिरजता हूँ।” जो लोग मानव शरीर में निवास करने वाले भगवान् को नहीं जानते, वे इस बात से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि वे सर्वथा प्रकृति की यांत्रिकता के वश में, उसके मनोमय बंधनों में अवश्य रूप से बंधे हुए और उन्हीं को मानकर चलने वाले हैं और उस आसुरी प्रकृति में वास करते हैं जो कामना से मन को मोहती और अहंकार से बुद्धि को भरमाती है, क्योंकि अंतःस्थित भगवान् पुरुषोत्तम हर एक के सामने सहसा प्रकट नहीं होते; वे अपने-आपको किसी घने काले मेघ के अंदर या किसी चमकदार रोशनी के बादल में छिपाये, अपनी योगमाया का आवरण ओढे़ रहते हैं, गीता बतलाती है कि “यह सारा जगत् प्रकृति के त्रिगुणमय भावों से विमोहित है और मुझे नहीं पहचानता; क्योंकि मेरी दैवी गुणमयी माया बड़ी दुस्तर है; वे ही इससे तरते हैं जो मेरी शरण में आते हैं; पर जो आसुरी प्रकृति का आश्रय लिये रहते हैं उनका ज्ञान माया हर लेती है।” ‘दूसरे शब्दों में, सबके अंदर भागवत चैतन्य निहित है, क्योंकि सबमें ही भगवान् निवास करते हैं; परंतु भगवान् का यह निवास उनकी माया से आवृत्त है और इस कारण इन प्राणियों का मूल आत्म-ज्ञान इनसे अपहृत हो जाता है और माया की क्रिया से, प्रकृति की यत्रंवत् क्रिया से, अहंकाररूप भ्रम में बदल जाता है। तथापि प्रकृति की इस यांत्रिकता से पीछे हटकर उसके आंतर और गुप्त स्वामी की और जाने से मनुष्य को अंतार्यामी भगवान् का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है। अब यह बात ध्यान में रखने की है कि गीता भगवान् के सामान्य प्राणिजन्म के कर्म और स्वयं अवताररूप से जन्म लेने के कर्म इन दोनों ही कर्मों का, शब्दों के सामान्य-से पर महत्त्वपूर्ण फेरफार के साथ, एक-सा वर्णन करती है। “अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इन प्रणियों को जो प्रकृति के वश में हैं उत्पन्न करता हूं, विसृजामि।”


प्रकृति और माया भागवत चैतन्य की कार्यशक्ति के ही दो परस्पर-पूरक पहलू हैं। माया यथार्थ में भ्रम नहीं है-भ्रम का भाव या आभास केवल अपरा प्रकृति के अज्ञान से अर्थात् त्रिगुणात्मिका माया से उत्पन्न होता है-भागवत चैतन्य मे सत्ता की विविध आत्माभिव्यक्तियों को करने की शक्ति को माया कहते हैं, और प्रकृति उसी चैतन्य की वह कार्यशक्ति है जो भगवान् के प्रत्येक अभिव्यक्त रूप का उसके स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार, उसके गुणकर्म के अनुसार जगत्-अभिनय में परिचालन करती है। भगवान् कहते हैं कि, “मैं अपनी प्रकृति के ऊपर स्थित होकर, उस पर दबाव डालकर इन विविध प्राणियों को, जो प्रकृति के वश में अवश हैं, सिरजता हूँ।”  जो लोग मानव शरीर में निवास करने वाले भगवान् को नहीं जानते, वे इस बात से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि वे सर्वथा प्रकृति की यांत्रिकता के वश में, उसके मनोमय बंधनों में अवश्य रूप से बंधे हुए और उन्हीं को मानकर चलने वाले हैं और उस आसुरी प्रकृति में वास करते हैं जो कामना से मन को मोहती और अहंकार से बुद्धि को भरमाती है, क्योंकि अंतःस्थित भगवान् पुरुषोत्तम हर एक के सामने सहसा प्रकट नहीं होते; वे अपने-आपको किसी घने काले मेघ के अंदर या किसी चमकदार रोशनी के बादल में छिपाये, अपनी योगमाया का आवरण ओढे़ रहते हैं, गीता बतलाती है कि “यह सारा जगत् प्रकृति के त्रिगुणमय भावों से विमोहित है और मुझे नहीं पहचानता; क्योंकि मेरी दैवी गुणमयी माया बड़ी दुस्तर है; वे ही इससे तरते हैं जो मेरी शरण में आते हैं; पर जो आसुरी प्रकृति का आश्रय लिये रहते हैं उनका ज्ञान माया हर लेती है।” ‘दूसरे शब्दों में, सबके अंदर भागवत चैतन्य निहित है, क्योंकि सबमें ही भगवान् निवास करते हैं; परंतु भगवान् का यह निवास उनकी माया से आवृत्त है और इस कारण इन प्राणियों का मूल आत्म-ज्ञान इनसे अपहृत हो जाता है और माया की क्रिया से, प्रकृति की यत्रंवत् क्रिया से, अहंकाररूप भ्रम में बदल जाता है। तथापि प्रकृति की इस यांत्रिकता से पीछे हटकर उसके आंतर और गुप्त स्वामी की और जाने से मनुष्य को अंतार्यामी भगवान् का प्रत्यक्ष बोध हो सकता है। अब यह बात ध्यान में रखने की है कि गीता भगवान् के सामान्य प्राणिजन्म के कर्म और स्वयं अवताररूप से जन्म लेने के कर्म इन दोनों ही कर्मों का, शब्दों के सामान्य-से पर महत्त्वपूर्ण फेरफार के साथ, एक-सा वर्णन करती है। “अपनी प्रकृति को वश में करके, मैं इन प्रणियों को जो प्रकृति के वश में हैं उत्पन्न करता हूं, विसृजामि।”


यह आत्मा का स्वतः स्थित पुरुष रूप से जन्म के अंदर आना है, अपने भूतभाव को सचेतन रूप से नियंत्रित करना है, अज्ञान के बादल में अपने-आपको खो देना नहीं; यह पुरुष का प्रकृति के प्रभु-रूप से शरीर में जन्म लेना है यहाँ प्रभु अपनी प्रकृति के ऊपर खड़े स्वेच्छा से स्वच्छंदतापूर्वक उसके अंदर कार्य करते हैं, उसके आधीन होकर, बेबस, भवचक्ररूपी यंत्र में फंसे-भटकते नहीं रहते, क्योंकि उनका कर्म ज्ञानकृत होता है, सामान्य प्राणियों का सा अज्ञानकृत नहीं। यह सब प्राणियो के अंदर छिपे हुए अंतर्यामी अंतरात्मा का ही परदे की आड़ से बाहर निकल आना और मानव रूप में पर भगवान् की भाँति, उस जन्म को अधिकृत करना है, और जिसे वह सामान्यतः परदे की आड़ में ईश्वर रूप से अधिकृत किये रहता है, जबकि परदे के बाहर की जो बहिर्गत चेतना है वह अधिकारी होने की अपेक्षा स्वयं ही अधिकृत रहती है, क्योंकि वहाँ वह आंशिक सचेतन सत्ता-रूप से आत्मविस्मृत जीव है और प्रकृति के अधीन जो यह जगव्यापार है उसके द्वारा अपने कर्म में बंधा है। इसलिये अवतार का अर्थ है? भागवत पुरुष श्रीकृष्ण का पुरुष के दिव्य भाव को मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप से प्रकट करना। 


भगवान् गुरु अर्जुन को जो मानव-आत्मा है, मानव-प्राणी का श्रेष्ठतम नमूना है, विभूति है, उसी दिव्य भाव में ऊपर उठने के लिये निमंत्रित करते हैं जिसमें वह तभी पहुँच सकता है जब अपनी सामान्य मानवता के अज्ञान और सीमा को पार कर ले। यह ऊपर से उसी तत्त्व का नीचे आकर अविर्भूत होना है जिसे हमें नीचे से ऊपर चढ़ा ले जाना है; यह मानव-सत्ता के उस दिव्य जन्म में भगवान् का अवतरण है जिसमें हम मर्त्य प्राणियों को आरोहण करना है; यह मानव-प्राणी के सम्मुख, मनुष्य के ही आकार और प्रकार के अंदर तथा मानव जीवन के सिद्ध आदर्श नमूने के अंदर, भगवान् का एक आकर्षक दिव्य उदाहरण है।


हम देखते हैं कि मनुष्य में परमेश्वर का अवतरण अर्थात् परमेश्वर का मानव-रूप और मानव-स्वभाव-धारण एक ऐसा रहस्य है जो गीता की दृष्टि में स्वयं मानव-जन्म के चिरंतन रहस्य का एक दूसरा पहलू है; क्योंकि मानव-जन्म मूलतः, बाह्यतः न सही, ऐसा ही आश्चर्यमय व्यापार है प्रत्येक मनुष्य का सनातन और विराट् आत्मा स्वयं परमेश्वर है; उसका व्यष्टिभूत आत्मा भी परमेश्वर का ही अंश है, जो निश्चय ही परमेश्वर से कटकर अलग हुआ कोई टुकडा़ नहीं- कारण परमेश्वर के संबंध में कोई ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती कि वे छोटे-छोटे टुकडों में बंटे हुए हों,-बल्कि वह एक ही चैतन्य का आंशिक चैतन्य है, एक ही शक्ति का शकत्यंश है, सत्ता के आनंद के द्वारा जगत्-सत्ता का आंशिक आनंद-उपभोग है, और इसलिये व्यक्त रूप में या यह कहिये कि प्रकृति में यह जीव उसी एक अनंत अपरिच्छिन्न पुरुष का एक सांत परिच्छिन्न भाव है, इस परिच्छिन्नता की जो छाप उस पर पड़ी है वह एक ऐसा अज्ञान है जिससे वह न केवल उन परमेश्वर को जिनसे वह आया, बल्कि उन परमेश्वर को भी भूल जाता है जो सदा उसके अंतर में विराजमान है, उसकी अपनी प्रकृति के गुह्य हृदेश मैं अवस्थित हैं उसके अपने मानव चैतन्य के देवालय के अन्तर्वेदी में समान प्रज्वलित है। मनुष्य उन्हें नहीं जानता, क्योंकि उसकी आत्मा की आंखों पर और उसकी समस्त इन्द्रियों पर उस प्रकृति की, उस माया की छाप लगी हुई है जिसके द्वारा वह परमेश्वर की सनातन सत्ता से बाहर निकालकर अभिव्यक्त किया गया है।


प्रकति ने उसे भागवत सत्त्व की अत्यंत मूल्यवान् धातु से सिक्के के रूप में ढाला है, पर उस पर अपने प्राकृत गुणों के मिश्रण का इतना गहरा लेप चढा़ दिया है, अपनी मुद्रा की और पाशविक मानवता के चिह्न की इतनी गहरी छाप लगा दी है कि यद्यपि भागवत भाग का गुप्त चिह्न वहाँ मौजूद है लेकिन वह आरंभ में दिखायी नहीं देता, उसका बोध होना सदा ही दुस्तर होता है, उसका पता चलता है तो केवल आत्म-स्वरूप के रहस्य की उस दीक्षा से जो बहिमुंख मानवता से ईश्वरभिमुख मानवता का पार्थक्य स्पष्ट दिखा देती है। अवतार में अर्थात् दिव्य-जन्मप्राप्त मनुष्य में वह भागवत सत्य लेप के रहते हुए भी भीतर से जगमगा उठता है; प्रकृति की मुहरछाप वहाँ केवल रूप के लिये होती है, अवतार की दृष्टि अंतःस्थित ईश्वर की दृष्टि होती है, उनकी जीवन-शक्ति अंतःस्थित ईश्वर की जीवन-शक्ति होती है, और वह धारण की हुई मानव-प्रकृति की मुहर छाप को भेद कर बाहर निकल पड़ती है ईश्वर का यह चिह्न, अंतरस्थ अंतरात्मा का यह चिह्न कोई बाह्म या भौतिक चिह्न न होने पर भी उनके लिये स्पष्ट बोधगम्य होता है जो उसे देखना चाहें या देख सकें; आसुरी प्रकृति अवश्य ही यह सब नहीं देख सकती, क्योंकि यह केवल शरीर को देखती है आत्मा को नहीं, वह बाह्य सत्ता को देखती है अंतःसत्ता को नहीं, वह परदे को देखती है उसके भीतर के पुरुष को नहीं।


सामान्य मानवजन्म में मानवरूप धारण करने वाले जगदात्मा जगदीश्वर का प्रकृति भाव ही मुख्य होता है; अवतार के मनुष्य-जन्म में उनका ईश्वर भाव प्रकट होता है। एक में ईश्वर मानव-प्रकृति को अपनी आंशिक सत्ता पर अधिकार और शासन करने देते हैं और दूसरे में वे अपनी अंशसत्ता और उसकी प्रकृति को अपने अधिकार में लेकर उस पर शासन करते हैं। गीता हमें बतलाती है कि साधारण मनुष्य जिस प्रकार विकास को प्राप्त होता हुआ या ऊपर उठता हुआ भागवत जन्म को प्राप्त होता है उसका नाम अवतार नहीं है, बल्कि भगवान् जब मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप में उतर आते हैं और मनुष्य के ढांचे को पहन लेते हैं, तब वह अवतार कहलाते हैं। परंतु अवतार लेने के लिये यह स्वीकृति या यह अवतरण मनुष्य के आरोहण या विकास को सहायता पहुँचाने के लिये ही होता है, इस बात को गीता ने बहुत स्पष्ट करके कहा है। कहा जा सकता है कि मानव-प्राणी के रूप में भगवान् के प्राकट्य की संभावना को दृष्टंतरूप से सामने रखने के लिये अवतार होता है कि ताकि मनुष्य देखे कि यह क्या चीज है और उसमें इस बात का साहस हो कि वह अपने जीवन को उसके जैसा बना सके। और यह इसलिये भी होता है पार्थिव प्रकृति की नसों में इस प्राकट्य का प्रभाव बहता रहे और उस प्राकट्य की आत्मा पार्थिव प्रकृति के ऊर्ध्वगामी प्रयास का नेतृत्व करती रहे।


यह जन्म मनुष्य को दिव्य मानवता का एक ऐसा आध्यात्मिक सांचा देने के लिये होता है जिसमें मनुष्य की जिज्ञासुं अंतरात्मा अपने-आपकों ढाल सके। यह जन्म एक धर्म देने के लिये-कोई संप्रदाय या मतविशेषमात्र नहीं, बल्कि आंतर और बाह्म जीवनयापन की प्रणाली-आत्म-संस्कारक मार्ग, नियम और विधान देने के लिये होता है जिसके द्वारा मनुष्य दिव्यता की और बढ़ सके। चूंकि मनुष्य का इस प्रकार आगे बढ़ना, इस प्रकार आरोहण करना मात्र पृथक और वैयक्तिक व्यापार नहीं है, बल्कि भगवान् के समस्त जगत्-कर्म की तरह एक सामूहिक व्यापार है, मानवमात्र के लिये किया गया कर्म है इसलिये अवतार का आना मानव-यात्रा की सहायता के लिये, महान् संकट-काल के समय मानवजाति को एक साथ रखने के लिये, अधोगामी शक्तियां जब बहुत अधिक बढ़ जाए तो उन्हें चूर्ण-विचूर्ण करने के लिये, मनुष्य के अंदर जो भगवन्मुखी महान् धर्म है उसकी स्थापना या रक्षा के लिये भगवान् के साम्राज्य की (फिर चाहे वह कितना ही दूर क्यों न हो) प्रतिष्ठा के लिये, प्रकाश और पूर्णता के साधकों, साधूनां, को विजय दिलाने के लिये और जो अशुभ और अंधकार को बनाये रखने के लिये युद्ध करते हैं उनके विनाश के लिये होता है।



दिव्य कर्म

 


शांत ब्रह्म को अपना लक्ष्य बनाओ तो संसार और उसके समस्त कर्मों का त्याग करना ही होगा; और उन ईश्वर, भगवान्, पुरुषोत्तम को अपना लक्ष्य बनाओ, जो कर्म के परे होने पर भी कर्म के आंतरिक अध्यात्मिक कारण और ध्येय तथा मूल संकल्प है, तो संसार अपने सारे कर्मों के साथ जीत लिया जाता और पुरुष अपने जगत् से परे दिव्य स्वरूप में स्थित होकर उस पर अधिकार रखता है। संसार तब कारगार नहीं रहता, बल्कि ‘समृद्ध राज्य‘ बन जाता है जिसे हमने दैत्यराट् अहंकार की सीमा का नाश कर, कामनारूपी जेलर के बंधन को काटकर और अपनी वैयक्तिक संपति और भोग के कैदखाने को तोड़कर, आध्यात्मिक जीवन के लिये जीता है। तब बंधनों से मुक्त विश्वात्मभूत अंतरात्मा ही स्वराट्-सम्राट हो जाती है।


इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि यज्ञ-कर्म मुक्ति और अपूर्ण संसिद्धि के साधन हैं “उस महान् प्राचीन योग के करने वाले जनक और अन्य बड़े-बड़े कर्मयोगी बिना किसी अहंता-ममता के सम और निष्काम कर्म को यज्ञ रूप से करके संसिद्धि को प्राप्त हुए”, उसी प्रकार और उसी निष्कामता के साथ, मुक्ति और संसिद्धि प्राप्त होने के पश्चात् भी हम विशाल भागवत भाव से तथा आध्यात्मिक प्रभुत्व से युक्त शांत प्रकृति से कर्म कर सकते हैं। जनता को एक साथ रोकने के लिये भी मुझे कर्म करना चाहिये, श्रेष्ठ पुरुष जो कुछ करते हैं उसी का इतर लोग अनुसरण् करते हैं; उन्हीं के निर्माण किये हुए प्रमाण को मानकर सर्वसाधारण लोग चलते हैं।


हे पार्थ, इस त्रिलोक में मेरे लिये कुछ भी ऐसा काम नहीं है जिसे करना मेरे लिये जरूरी हो, कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो और जिसे प्राप्त करना बाकी हो, फिर भी मैं कर्म करता ही हूँ ‘एव’ पद का फलितार्थ यह है कि मैं कर्म करता ही रहता हूँ और उन संन्यासियों की तरह कर्म को छोड़ नहीं देता जो यह समझते हैं कि कर्मों का त्याग तो हमें करना ही पड़ेगा। “यदि मैं कर्म-मार्ग में तंद्रारहित होकर लगा न रहूँ तो लोग-वे हर तरह से मेरे ही पीछे चलते हैं-मेरे कर्म न करने पर ध्वंस को प्राप्त हो जायेंगे और मैं संकर का कारण और इन प्राणियों का हंता बनूगां। जो जानते नहीं, वे कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं पर जो जानता है उसे लोक संग्रह का हेतु रखकर अनासक्त होकर कर्म करना चाहिये। कर्म में आसक्त रहने वाले अज्ञानियों का वह बुद्धिभेद न करे, बल्कि स्वयं ज्ञानयुक्त और योगस्थ होकर कर्म करके उन्हें सब कर्मों में लगावे।“


इन सांत श्लाकों से अधिक महत्त्वपूर्ण श्लोक गीता में कम ही हैं। परंतु हम इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि इन श्लोकों का आधुनिक व्यवहारवादी वृत्तिवालों की तरह अर्थ लगाने का प्रयास न करना चाहिये, क्योंकि वे किसी उच्च और दूरस्थ आध्यात्मिक संभावना की अपेक्षा जगत् की वर्तमान अवस्था से ही मतलब रखते हैं-और इन श्लोकों का उपयोग समाज-सेवा, देश-सेवा, जगत्-सेवा, मानव-सेवा, तथा आधुनिक बुद्धि को आकर्षित करने वाली सैकड़ो प्रकार की समाज-सुधार की योजनाओं और स्वप्नों का दार्शनिक और धार्मिक समर्थन करने में करते हैं। यहाँ इन श्लोकों में जिस विधान की घोषणा की गयी है वह किसी व्यापक नैतिक और बौद्धिक परोपकार-निष्ठा का नियम नहीं, बल्कि ईश्वर के साथ और जो ईश्वर में रहते तथा जिनमें ईश्वर रहता है उन प्राणियों के इस जगत् के साथ आध्यात्मिक एकता का विधान है। यह विधान व्यक्ति को समाज और मानव-जाति के अधीन बना देने या मानव-समष्टि की वेदी पर व्यक्ति के अहंकार की बलि देने का आदेश नहीं है, बल्कि ईश्वर में व्यक्ति को परिपूर्ण करने और अहंकार को सर्वग्राही भागवत सत्ता की एकमात्र सच्ची वेदी पर बलि चढ़ाने की आज्ञा है।


गीता भावनाओं और अनुभूतियों की एक ऐसी भूमिका पर विचरण करती है जो आधुनिक मन मन की भावनाओं और अनुभूतियों की भूमिका से ऊंची है। आधुनिक मन वस्तुतः अभी अहंकार के फंदों को काटने के लिये संघर्ष करने की अवस्था में है; परंतु अब भी उसकी दृष्टि लौकिक है और उसका भाव आध्यात्मिक नहीं, बौद्धिक और नैतिक है। देश-प्रेम, विश्वबंधुत्व, समाज-सेवा, समष्टि-सेवा, मानव-सेवा, मानव-जाति का आदर्श या धर्म, ये सब व्यष्टिगत, पारिवारिक सामाजिक और राष्ट्रीय अहंकारूपी पहली अवस्था से निकलकर दूसरी अवस्था में जाने के लिये सराहनीय साधन हैं, इस अवस्था में पहुँचकर व्यष्टि, जहाँ तक कि बौद्धिक, नैतिक और भावावेगमयी भूमिकाओं पर संभव है, यह अनुभव करता है कि मेरी अस्तित्व दूसरे सब प्राणियों के अस्तित्व के साथ एक है। यहाँ यह जान लेना चाहिये कि इन भूमिकाओं पर वह इस अनुभव को पूरे तौर पर और ठीक-ठीक तथा अपनी सत्ता के पूर्ण सत्य के अनुसार नहीं प्राप्त कर सकता। परंतु गीता के विचार इस दूसरी अवस्था के भी परे जाकर हमारी विकसनशील आत्म-चेतना की एक तीसरी अवस्था का दिग्दर्शन कराते हैं जिसमें पहुँचने के लिये दूसरी अवस्था केवल आंशिक प्रगति है। भारत का सामाजिक झुकाव व्यक्ति को समाज के दावों के अधीन रखने की और रहा है, किंतु भारत के धार्मिक चिंतन और आध्यात्मिक अनुसंधान का लक्ष्य सदा ही उदात्तरूप से वैयक्तिक रहा है।

गीता जैसा भरतीय दर्शनशास्त्र व्यक्ति के विकास को, उसकी उच्चतम आवश्यकता को, अपनी विशालतम आध्यात्मिक स्वतंत्रता, माहनता, गौरव और प्रभुत्व का विकास कर उन्हें उपयोग में लाने के दावे को और आध्यात्मिक अर्थ में जिसको दृष्टा और स्वराट् कहा जाता है वैसे प्रकाशमान दृष्टा और स्वराट्-पद में विकसित होने के लक्ष्य को सबसे पहला स्थान दिये बिना नहीं रह सकता और यही प्राचीन वैदिक ऋषियों की आदर्श मानवजाति के संबध में पहला महान् अधिकारपत्र था। व्यक्ति के लिये वैदिक ऋषियों का यही लक्ष्य था कि वह जो कुछ है उसके आगे बढ़े, अपने वैयक्तिक उद्देश्यों को किसी सुसंगठित मनुष्य-समाज के उद्देश्य में खोकर नहीं, बल्कि ईश्वर की चेतना में अपने-आपको फेला के, ऊचां करके और बढ़ाके। गीता यहाँ जिस नियम का विधान कर रही है वह नियम मानव-श्रेष्ट के लिये, अतिमानव के लिये, दिव्यकृत मानव सत्ता के लिये है। गीता का अतिमानव या मानवश्रेष्ठ एकांगी नहीं है, बेढंगा नहीं है, यह अतिमानवता नीत्शे की अतिमानवता नहीं है, यह अतिमानवता यूनानी ओलिमपस्[1] अपोलों[2] या डायोनीसियस[3] जैसी अथवा देवदूत और दैत्य के जैसी अतिमानवता नहीं है। गीता का अतिमानव वह मनुष्य है जिसका सारा व्यक्त्तिव एक मेवाद्धितीय परात्पर विश्वव्यापी भगवान् को सत्ता, प्रकृति और चेतना पर उत्सर्ग हो गया है और जिसने अपने क्षुद्र भाव को खोकर अपनी महत्तर आत्मा को, अपने दिव्य स्वरूप को पा लिया है। निम्नतर अपूर्ण प्रकृति से, त्रैगुण्यमयी माया से अपने-आपको ऊपर उठाना और भागवत् सत्ता, चेतना और प्रकृति के साथ[4] एक हो जाना, यही योग का लक्ष्य है।


परंतु जब यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, जब मनुष्य ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाता है और अपने-आपको तथा जगत् को मिथ्या अहंकर की दृष्टि से नहीं देखता, बल्कि प्राणिमात्र को आत्मा में, ईश्वर में देखता है और आत्मा को, ईश्वर को प्राणिमात्र में देखता है तब उसका कर्म कैसा होगा क्योंकि कर्म तो फिर भी रहेगा ही जो उसके ब्राह्मी स्थिति के ज्ञान से उद्भूत होता है, और फिर उसके कर्मों से विश्वगत या व्यक्तिगत हेतु क्या होगा? यही अर्जुन का प्रश्न[5] है, किंतु अर्जुन ने जिस दृष्टिबिन्दु से प्रश्न किया था उससे अलग ही दृष्टिबिंदु से उत्तर दिया गया। अब बौद्धिक, नैतिक, भावावेगमय स्तर की कोई वैयक्त्कि कामना उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो छोड़ी जा चुकी,-नैतिक हेतु भी छोड़ा जा चुका, क्योंकि मुक्त पुरुष पाप-पुण्य के भेद से ऊपर उठकर, उस महिमान्वित पवित्रता में रहता है जो शुभ और अशुभ के परे है। निष्काम कर्म के द्वारा पूर्ण आत्म-विकास करने के लिये आध्यात्मिक आवाहन भी अब उसके कर्म का हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि इस आवाहन का तो उत्तर मिल चुका, उसका आत्म-विकास सिद्ध और पूर्ण हो चुका।


तब उसके कर्मों का एकमात्र हेतु लोकसंग्रह ही हो सकता है, ये सब लोग जो किसी अतिदूरस्थति भागवत आदर्श की ओर जा रहे हैं, उन्हें एक साथ रखना होगा, उन्हें मोह में गिरने से, बुद्धि-भेद और बुद्धिभ्रंश में जा गिरने से बचाना हो; नहीं तो ये कर्तव्यविमूढ़ और नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगें-दुनिया जो अपने अज्ञान की अंधेरी रात या अंधेरे अर्धप्रकाश में आगे बढ़ती जा रही है उसे यदि श्रेष्ठ पुरुषों के ज्ञानलोक, बल, आचरण, उदाहरण और दृश्य मानक तथा अद्श्य प्रभाव के द्वारा एक साथ न रखा जायेगा, इसे वह रास्ता न दिखाया जायेगा जिसपर चलने में ही इसका कल्याण है तो वह विघटन और विनाश की और सहजरूप से प्रवत्ता होगी। श्रेष्ठ पुरुष अर्थात् वे व्यक्ति जो जनसमूह की सर्वसाधरण पंक्ति और सर्वसाधारण भूमिका से आगे बढे़ हुए हैं, वे ही मनुष्यजात के स्वभावसिद्ध नेता हैं, क्योंकि वे ही जाति को उसके चलने का रास्ता दिखा सकते हैं और वह पैमाना या आदर्श उसके सामने रख सकते हैं जिसके अनुसार वह अपना जीवन बनावे। परंतु देवमनुष्य की यह श्रेष्ठता ऐसी-वैसी नहीं है; इसका प्रभा, इसका उदाहरण इतना सामर्थ्यवान् होता है कि सामानयतः हम जिसे श्रेष्ठ कहते हैं उसमें वह प्रभाव या बल नहीं हो सकता। तब वह जिस उदाहरण को लोगों के सामने रखेगा, वह क्या होगा? वह किसी विधान या प्रमाण को मानकर चलेगा? अपने आशय को और भी अच्छी तरह स्पष्ट करने के लिये भगवान् गुरु, अवतार, अपना ही उदाहरण? अपना ही मानक अर्जुन के सामने रखते हैं। वे कहते हैं, मैं कर्म मार्ग पर चलता हूं, उस मार्ग पर जिसका सब मनुष्य अनुसरण करते हैं; तुझे भी कर्म-मार्ग पर चलना होगा। जिस प्रकार मैं कर्म करता हूँ उसी प्रकार तुझे भी कर्म करना होगा। मैं कर्मों की आवश्यकता से परे हूँ क्योंकि मुझे उनसे कुछ नहीं पाना है; मैं भगवान हूँ किसी भी अर्थ की प्राप्ति के लिये मैं इस त्रिलोक में किसी भी पदार्थ या प्राणी का आश्रित नहीं हूं; तथापि मैं कर्म करता हॅूं। कर्म करने का यही तरीका और यही भाव मुझे भी ग्रहण करना होगा। मैं पवरमेश्वर ही नियम और मानक हूं; मैं ही वह मार्ग बनाता हूँ जिस पर लोग चलते हैं। मैं ही मार्ग हूँ और में ही गंतव्य स्थान। पर मैं यह सब उदार और व्यापक रूप से करता हूँ जिसका केवल अशं दिखायी देता है और उससे कहीं अधिक अद्ष्ठ रहता है; मनुष्य यथार्थ रूप से मेरे कर्म की रीति को नहीं जानते। जब तू जान और देख सकेगा, जब तू देवमनुष्य बनेगा तब तू ईश्वर की ही एक व्यष्टि-शक्त् हो जायेगा, मनुष्य के लिये मनुष्य-रूप में एक दिव्य दृष्टांत बन जायेगा, वैसी ही जैसे मैं अवतार-रूप में हूँ।


अधिकांश मनुष्य अज्ञान में रहते हैं, ईश्वर-दृष्टा ज्ञान में रहता है; पर उसे अपनी श्रेष्ठता के वश संसार के कर्मों का त्याग करके मनुष्यों के सामने ऐसा खतरनाक उदाहरण न रखना चाहिये जिससे उनमें बुद्धिभेद हो; कर्म के सूत को पूरा कात लेने से पहले उसे बीच में ही न काटना चाहिये। जिन मार्गों को मैंने बनाया है उनकी चढ़ती-उतरती अवस्थाओं और श्रेणियों में उलझने उन्हें यथार्थ न बनाना चाहिये। इस सारे मानव कर्म-क्षेत्र की व्यवस्था मेंने इसलिये की है कि मनुष्य अपरा प्रकृति से परा प्रकृति में पहुँच जाये और अपने बाह्म भागवत रूप से सचेतन भागवत स्वरूप को प्राप्त हो। ईश्वेता मानव-कर्मों के सारे क्षेत्र में विचरण करता रहेगा। उसकी सारी व्यकितगत और सामाजिक क्रिया, उसकी बुद्धि, हृदय और शरीर के सारे कर्म अब भी उसके होंगें, पर अपने पृथक व्यक्तित्व के लिये नहीं बल्कि संसार में स्थित उन ईश्वर के लिये जो सब प्राणियों में विराज रहे हैं, और इसलिये कि वे सब प्राणी, स्वयं उसकी तरह ही, कर्ममार्ग पर चलकर उन्नत हों और अपने अंदर भगवान् को खोज लें।


हो सकता है कि बाह्मतः उसके और अन्य मनुष्यों के कर्मों में कोई मौलिक अंतर न हो; युद्ध शासन, शिक्षादान, और ज्ञानचर्चा, मनुष्य के साथ मनुष्य के जितने विभिन्न प्रकार के आदान-प्रदान हो सकते हैं। वे सभी उसके हिस्से पड़ सकते हैं। पर जिस भाव से वह इन कर्मों को करेगा वह अंश भिन्न होगा और उसीका यह प्रभाव होगा कि लोग उसकी ऊंची स्थिति की और खिंचे चले आयेंगे, यह मानव समूह के आरोहण में एक बड़े उत्तोलक यंत्र का काम देगा। मुक्त मनुष्य के लिये भगवान् ने जो अपना दृष्टांत रखा वह गंभीर अर्थपूर्ण है; क्योंकि इस दृष्टांत से दिव्य कर्मों के बंधन में गीता का आधार संपूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। मुक्त पुरुष वही है जिसने अपने-आपको भगवत प्रकृति में उठा लिया है और उसी भागवत प्रकृति के अनुसार सब कर्म करता है। पर यह भागवत प्रकृति है क्या? वह पूरी तरह अपने-आपमें केवल अचल, अक्रता, नैर्व्यक्तिक, अक्षर, ब्रह्म की ही प्रकृति नहीं है; क्योंकि यह भाव मुक्त पुरुष को निष्क्रिय निश्चलता की और ले जायेगा। यह केवल विविध, व्यष्टिगत, प्रकृतिबद्ध क्षर पुरुष की प्रकृति भी नहीं है, क्योंकि ऐसा ही जो तो मुक्त पुरुष फिर से अपने व्यष्टितव के तथा अपरा प्रकृति और उसके गुणों के अधीन हो जायेगा। यह भागवत प्रकृति उन पुरुषोत्तम की प्रकृति है जो अक्षर भाव और क्षर भव दोनों को एक साथ धारण करते और अपनी परम दिव्यता के द्वारा एक भागवत सांमजस्य में इनका समन्वय करते हैं।


यही भगवतसत्ता का परम रहस्य है, प्रकृति से बंधे हुए लोग जिस व्यष्टिगत भाव से कर्म किया करते हैं उस अर्थ में भगवान् कर्मों के कर्ता नहीं हैं; क्योंकि भगवान् अपनी शक्ति, माया, प्रकृति के द्वारा कर्म करते हैं, फिर भी उससे ऊपर रहते हैं, उसमें फंसते नहीं, उसे अधीन नहीं होते, ऐसे नहीं है कि उसके बनाये हुए नियमों, कार्य प्रणालियों और कर्म-संस्कारों से ऊपर न उठ सकें और उन्हीं में आसक्त या बंधे रहें तथा हम लोगों की तरह मन-प्राण- शरीर की क्रियाओं से अपने-आपको अलग न कर सकें। वे कर्मों के ऐसे कर्ता हैं जिन्हें अकर्ता समझना चाहिये, भगवान् कहते हैं कि “चातुर्वण्य का कर्ता में हूँ पर मुझे अविनाशी अकर्ता जान। कर्म मुझे लिप्त नहीं करते, न कर्मफलों की मुझे कोई स्पृहा है।“ फिर भी भगवान् निष्क्रिीय, उदासीन और निर्बल साक्षिमात्र नहीं हैं; क्योंकि वे ही अपनी शक्ति के पदक्षेपों और मानदंडो में कर्म करते हैं; प्रकृति की प्रत्येक गति में, प्राणिजगत् के प्रत्येक अणु में उन्हीं की उपस्थिति व्याप्त है, उन्हीं की चेतना भरी हुई है, उन्हीं का संकल्प काम कर रहा है, उन्हीं का ज्ञान रूपान्वित कर रहा है। फिर वे ऐसे निर्गुण हैं जिनमें सब गुण हैं। उपनिषदें उन्हें निर्गुणो गुणी कहती हैं। वे प्रकृति के किसी गुण या कर्म से बधे नहीं हैं, न वे हमारे व्यक्तित्व की तरह प्रकृति के गुणधर्मों के समूहों से तथा मानसिक, नैतिक, भावावेगमय, प्राणमय और भौतिक सत्त्ता की लाचणिक क्रियाओं से बने हैं। वे तो समस्त धर्मों और गुणों के मूलों और किसी भी गुण या धर्म को अनिच्छा के अनुसार जब चाहें, जितना चाहें जिस प्रकार चाहें विकसित करने की क्षमता रखते हैं, वे वह अनंत सत्ता हैं जिसके वे सब भूतभाव हैं। वह सत्ता अपरिमेय राशि और असीम अनिर्वचनीय तत्त्व है जिसके ये सब परिमाण, संख्या और प्रतीक हैं और जिसको ये विश्व के मानदंड के अनुसार छंदोबद्ध और संख्याबद्ध करते हैं। फिर भी वे कोई नैर्व्यक्त्कि अनिदिंष्ट सत्ता ही नहीं हैं, न केवल ऐसी सचेतन सत्ता है जहाँ से समस्त निर्देश और व्यष्टिभाव अपना उपादान प्राप्त करते रहें, बल्कि वे परम सत्त्ता हैं, अद्वितीय मूल चिन्मय सत्य हैं, पूर्ण पुरुष हैं जिनके साथ अत्यंत स्थूल और घनिष्ठ सभी प्रकार के मानव-संबंध स्थपित किये जा सकते हैं; क्योंकि वे सुहृद सखा, प्रेमी, खेल के संगी, पथ के दिखाने वाले, गुरु, प्रभु, ज्ञानदाता, आनंददाता हैं और इन सब संबधों में रहते हुए भी इनसे अलिप्त, मुक्त और निरपेक्ष हैं देवनर भी, अपनी यथाप्राप्त सिद्धि के अनुसार व्यक्तिभाव में रहते हुए नैर्व्यक्तिक ही, सांसारिक जनों के साथ सब प्रकार के अत्यंत वैयक्त्कि और घनिष्ठ संबंध रखते हुए भी गुण या कर्म से सर्वथा अलिप्त, धर्म का बाह्मतः आचरण करते हुए उससे अनासक्त ही, रहता है।


न तो कर्मप्रधान मनुष्य की कर्मण्यता और न संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिामार्गी की कर्मविहीन ज्योती, न तो कर्मी मुनष्य का प्रचंड व्यक्तित्व और न तत्त्वज्ञानी ऋषि का उदासीन नैर्वक्तित्व, इनमें से कोई भी संपूर्ण भागवत आदर्श नहीं है। ये संसारीजनों के तथा संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिमार्गी के दो परस्पर-विरोधी सर्वथा भिन्न मानदंड हैं। इनमें से एक क्षर के कर्म में डूबे रहते हैं और दूसरे सर्वथा अक्षर की शंति में निवास करने का प्रयास करते हैं। परंतु समग्र भागवत आदर्श पुरुषोत्तम की प्रकृति की चीज है जो इस परस्पर-विरोधी के परे है और जिसमें सभी भागवत संभावनाओं का समन्वय होता है। कर्मी मनुष्य किसी ऐसे आदर्श से संतुष्ट नहीं होता जो इस विश्वप्रकृति की, इसकी इस त्रिगुणक्रीडा़ की, मन-बुद्धि-हृदय-शरीर के इस मानव-कर्म की परिपूर्णता पर अवलंबित न हो। वह कह सकता है कि इस कर्म की चरम परिपूर्णता ही मेरी समझ में मनुष्य की परम सिद्धि है, मनुष्य की भागवत संभावना से मैं जो कुछ समझता हूँ वह यही है; जिस आदर्श से मानव-प्राणी को संतोष हो सकता है वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो मनुष्य की बुद्धि को, उसके हृदय को, उसकी नैतिक सत्ता को संतुष्ट कर सके, वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो कर्मरत मानव-प्रकृति का है; .


वह कह सकता है कि मेरे सामने तो कोई ऐसी चीज होनी चाहिये जिसे मैं अपने मन, प्राण और शरीर की क्रिया में पा सकूंगा। क्योंकि यही उसकी प्रकृति और उसका धर्म है और जो बीज उसकी प्रकृति के बाहर की हो उसमें वह अपने-आपको कैसे परिपूर्ण कर सकता है? क्योंकि प्रत्येक जीवन अपनी प्रकृति से बंधा है और उसे अपनी सिद्धि को इस दायरे के अंदर ढूंढना होगा। हमारी मानव-प्रकृति के अनुसार ही हमारी मानव-सिद्धि हो सकती है और इसलिये प्रत्येक मनुष्य को उसके लिये अपने व्यष्टिधर्म अर्थात् स्वधर्म के अनुसार अपने जीवन और कर्म में यत्न करना चाहिये, जीवन और कर्म के बाहर नहीं इस बात को गीता यह उत्तर देती है कि हां, इसमें भी एक सत्य है; मनुष्य के अंदर ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति, जीवन में भगवान्, की लीला अवश्य ही आदर्श सिद्धि का एक अंग हैं परंतु यदि तुम उसे केवल बाहर ढूंढ़ो, जीवन में और कर्म के सिद्धांत में ही उसकी खोज करते रहो तो तुम उसे कभी नहीं पा सकते;-क्योंकि तब तुम केवल इतना ही नहीं करोगे कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करो, जो अपने-आपको सिद्धि का ही एक विधान है-बल्कि सदा उसके गुंणों के अधीन रहोगे (और यह असिद्धि का एक लक्षण है ) सदा राग-द्वेष और सुख-दुख के द्वंदों में धक्के खाते रहोगे, विशेषतः प्रकृति की उस राजसी प्रवृत्ति के वश हो जाओगे जो काम का चंचल सर्वग्रासी तत्त्व है और क्रोध, शोक और लालसा जिसके जाल हैं, जो कभी संतुष्ट न होने वाली आग है।


जिससे तुम्हारा सारा सांसारिक कर्म घिरा रहता है, जो ज्ञान का चिरशत्रु है जिससे हमारे स्वभाव के अंदर ज्ञान वैसे ही ढका रहता है, जैसे आग धुएं से या दर्पण धूल से। यदि तुम आत्मस्वरूप के शांत, स्वच्छ और प्रकाशमय सत्य में रहना चाहते हो तो इस काम को मार ही डालना होगा। इन्द्रियों, मन और बुद्धि अर्पूर्णता के इस अनादि कारण के अधिष्ठान हैं और इस पर भी तुम इनमें, निम्न प्रकृति की क्रीड़ा में ही सिद्धि की खोज करना चाहते हो यह प्रयास व्यर्थ है। तुम्हारी प्रकृति का जो कर्म-पार्श्व है उसे पहले निवृत्ति से ऊपर उठाकर उस प्रकृति में लाना होगा जो त्रिगुण के ऊपर है, जो परमत्तव में, आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित हैं जब तम्हें वह आत्मप्रसाद लाभ होगा तभी तुम मुक्त भागवत कर्म करने में समर्थ होंगे। इसके विपरीत शांतिप्रार्थी, वैरागी या संन्यासी किसी ऐसी सिद्धि की संभावना नहीं देखते जिसमें जीवन और कर्म का प्रवेश हो सके। वे कहते हैं क्या जीवन और कर्म ही अपूर्णता और बंधन के घर नहीं हैं? क्या अपूर्णता कर्म के साथ वैसे ही नहीं लगे रहती जैसे अग्नि के साथ धुंआ? क्या कर्म का धर्म कहीं रासिक नहीं है?


इस रजोगुण से ही तो कामना पैदा हाती है और इसका फल होता है ज्ञान को ढक देना, कामना तथा असफलता और विफलता के अंदर चक्कर काटते रहना, हर्ष और शोक में डोलते रहना, पुण्य और पाप के द्वंद्व में फंसे रहना। परमेश्वर संसार में हो सकते हैं, पर वे संसार के नहीं हैं, वे त्याग के ईश्वर हैं, हमारे कर्मों के प्रभु या कारण नहीं। हमारे कर्मों का स्वामी काम है और उनका कारण अज्ञान। यदि यह जगत्, यह क्षर सृष्टि किसी प्रकार भगवान की अभिव्यक्ति या लीला कही भी जाये तो यह यज्ञ मूढ़ प्रकति के साथ उनकी असिद्ध क्रीड़ा है, यह उनकी अभिव्यक्ति नहीं बल्कि उनका ढकाव ही है। संसार की प्रकृति के प्रथम दर्शन में ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और जगत् के पूर्ण अनुभव से भी क्या इसी सत्य की शिक्षा नहीं मिलती? क्या यह अज्ञान का वह चक्र नहीं है जो जीव को कामना और कर्म की प्रेरणा के द्वार बार-बार जन्म लेने के लिये विश्वास करता है और क्या यह जन्म लेना तभी बंद न होगा जब अंत में इस प्रेरणा का क्षय हो जाये या फिर इसे त्याग दिया जाये? केवल कामना ही नहीं, किंतु कर्म भी छोड़ देना आवश्यक है, तभी तो निश्चल आत्मा में प्रतिष्ठित होकर जीव गतिहीन, कर्महीन, क्षोभहीन, केवल ब्रह्म में जा सकेगा। गीता ने संसारी मनुष्य की, कर्मी व्यक्ति की आपत्तियों की अपेक्षा निर्गुण्रह्मवादी, शांतिप्रार्थी की आपत्तियों का उत्तर देने पर ज्यादा ध्यान दिया है।


इसका कारण यह है कि निवृत्तिमार्ग एक उच्चतर और बलवत्तर सत्य का आश्रय लिए हैं-अवश्य ही यह सत्य भी अभी समग्र या परम सत्य नहीं है-और यदि इस धर्म को मनुष्य जीवन का विश्वव्यापी, पूर्ण और उच्चतम आदर्श कहकर फेलाया जाये तो इसका परिणाम मानवजाति के लक्ष्य की और आगे बढ़ने में कर्मवाद की मूल की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिभेद और अनिष्ट करने वाला हो सकता है। जब कोई भी बलवान् ऐकांगी सत्य पूर्ण सत्य के रूप में सामने रखा जाता है तो उसका प्रकाश बहुत तीव्र होता है, पर साथ ही उससे बहुत तीव्र संकर भी होता है; क्योंकि उसमें जो सत्यांश है उसकी तीव्रता ही उसके प्रमोद वाले अंश को बढ़ाने वाली होती है। कर्मवादियों के आदर्श में जो भूल है उससे केवल अज्ञान में पड़े रहने की अवधि लंबी हो जाती है और मानव-उन्नति का क्रम रुक जाता है, क्योंकि यह कर्मवाद् मनुष्यों को पूर्णता या सिद्धि का अनुसंधान करने के लिये ऐसे मार्ग में प्रवृत्त करता है जहाँ सिद्धि या पूर्णता है ही नहीं; परंतु निवृत्तिमार्ग के आदर्श में जो भूल है उसमें तो संसार के नाश का बीज है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि इस आदर्श को सामने रखकर मैं कर्म करूं तो मैं इन सब प्राणियों का खात्मा कर दूंगा और संसार का कर्ता बनूंगा।


यद्यापि किसी व्यष्टि-पुरुष की भाल से, चाहे वह देवतुल्य पुरुष ही क्यों न हो, सारी मानव जाति नष्ट नहीं हो सकती तथापि उसे कोई ऐसी विस्तृत विश्रृंखला पैदा हो सकती है जो मानव-जीवन के मूल तत्त्व को ही काटने वाली और उसकी उन्नति के सुनिश्चित क्रम को बिगाड़ने वाली हो सकती है। जो मानव-जीवन के मूल तत्त्व को ही काटने वाली और उसकी उन्नति के सुनिश्चित क्रम को बिगाड़ने वाली हो। इसलिये मनुष्य के अंदर जो निवृत्ति का झुकाव है उसे अपनी अपूर्णता को जान लेना चाहिये और प्रवृत्ति के झुकाव के पीछे जो सत्य है, अर्थात् मनुष्य के अंदर भगवान की पूर्णता और मानव जाति के कर्मों में भगवान् की उपस्थिति, उसको भी अपनी बराबरी का स्थान देना होगा। भगवान् केवल नीरवता में ही नहीं है, कर्म में भी है। जिस पर प्रकृति का कोई असर नहीं पड़ता ऐसे निष्कर्म पुरुष की निवृत्ति, और जो अपने-आपको इसलिये प्रकृति के हवाले कर देता है कि यह मानव विश्व-यज्ञ संपन्न हो ऐसे कर्मी पुरुष की प्रवृत्ति, ये दोनों बातें-निवृत्ति और प्रवृत्ति-कोई ऐसी चीजें नहीं हैं जिनमें से एक सच्ची हो और दूसरी झूंठी और इन दोनों का सदा से संग्राम चला आया हो, अथवा यह भी नहीं है कि ये कि विरोधी हैं, एक श्रेष्ट और दूसरी कनिष्ट है और दोनों एक-दूसरे के लिये एक-दूसरे के लिये घातक हैं; बल्कि भागवत प्राकट्‌य का यह द्विविध भाव है। अक्षर अकेला ही इनकी परिपूर्णता की कुंजी या परम रहस्य नहीं है।


इन दोनों की परिपूर्णता को, इनके समन्वय को पुरुषोत्तम-भाव में खोजना होगा जो यहाँ श्रीकृष्ण रूप से उपस्थित हैं। देवनर उन्हींकी दिव्य प्रकृति में प्रवेश करके उसी तरह कर्म करेगा जैसे वे करते हैं; वह अकर्म की शरण नहीं लेगा। अज्ञानी और और ज्ञानी दोनों ही मनुष्यों में भगवान् कार्य कर रहे हैं। उन भगवान् का ज्ञान हो, यही जीव का परम कल्याण और उसकी सिद्धि की शर्त है, किंतु उन्हें विश्वतीत शांति और निश्चल-नीरवता के रूप में जानना और उपलब्ध करना ही सब कुछ नहीं है। जिस रहस्य को जानना है वह तो अज अव्यय परमात्मा और उनके दिव्य जन्म-कर्म का रहस्य है, इस ज्ञान से जो कर्म निःसृत होता है वह सब बंधनों से मुक्त होता है, “इस प्रकार जो मुझे जीतना है”, भगवान् कहते हैं कि, “वह कर्मों से नहीं बंधता।“ यदि कर्म और वासना के बंधन से और पुर्जन्म के चक्र से छूटना उद्देश्य और आदर्श हो तो ऐसे ज्ञान को ही सच्चा ज्ञान, मुक्ति का प्रशस्त पथ जानना होगा; कारण गीता का कथन है कि, है “हे अर्जुन, जो तत्त्वतः मेरे दिव्य जन्म-कर्म को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर, पुनर्जन्म को नहीं बल्कि, मुझे प्राप्त होता है।“ दिव्य जन्म को जानकर और अधिकृत करके वह अज अव्यय भगवान् को, जो सकलांतरात्मा हैं, प्राप्त होता है; और दिव्य कर्मों के ज्ञान और आरचरण से कर्मों के अधीश्वर को, सब प्राणियों के ईश्वर, को प्राप्त होता है। तब वह अज अविनाशी सत्ता में ही रहता है; उसके कर्म उस सर्व- लोकमहेश्वर के कर्म होते हैं।



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