दिव्य चेतना

 


यहाँ ईश्वर और मानव-जीव या पिता या पुत्र भी दिव्य मनुष्य की कोई बात नहीं है, बल्कि केवल भगवान् और उनकी प्रकृति के द्वारा मानव-आकार और प्रकार में उतरकर जन्म लेते हैं, और यद्यपि वे स्वेच्छा से मनुष्य के आकार, प्रकार और सांचे के अंदर रहकर कर्म करना स्वीकार करते हैं, तो भी उसके अंदर भागवत चेतना और भागवत शक्ति को ले आते हैं और शरीर के अंदर प्रकृति के कर्मों का नियमन वे उसकी अंतः स्थित और ऊर्ध्वस्थित आत्मा-रूप से करते हैं, ऊपर से वे सदा ही शासन करते हैं, क्योंकि इसी तरह वे समस्त प्रकृति का शासन चलाते हैं, और मनुष्य-प्रकृति भी इसके अंनर्गत है; अदंर से भी वे स्वयं छिपे रहकर सारी प्रकृति का शासन करते हैं, अंत यह है कि अवतार में वे अभिव्यक्त रहते हैं, प्रकृति के ईश्वर-रूप में भगवान की सत्ता का, अंतर्यामी का सचेतन ज्ञान रहता है; यहाँ प्रकृति का संचालन ऊपर से उनकी गुप्त इच्छा के द्वारा ‘स्वर्गस्थ पिता की प्रेरणा के द्वारा’ नहीं होता, बल्कि भगवान अपने प्रत्यक्ष प्रकट संकल्प से ही प्रकृति का संचालन करते हैं। यहाँ किसी मानव मध्यस्थ के लिये कोई स्थान नहीं है, क्योंकि यहाँ भूतानां ईश्वर अपनी प्रकृति, का आश्रय लेकर, किसी जीव की विशिष्ट प्रकृति को नहीं, मानव-जन्म के जामे को ओढ़ लेते हैं। बात बड़ी विलक्षण है, जल्दी समझ में आने वाली नहीं, मनुष्य की बुद्धि के लिये इसे ग्रहण कर लेना आसान नहीं; इसका कारण भी स्पष्ट है-अवतार स्पष्टता से मनुष्य जैसे ही होते हैं। अवतार के सदा दो रूप होते हैं- भागवत और मानवरूप; भगवान् मानव-प्रकृति को अपना लेते हैं, उसे सारी बाह्म सीमाओं के साथ भागवत चैतन्य और भागवत शक्ति की परिस्थिति, साधन और कारण तथा दिव्य जन्म और दिव्य कर्म का एक पात्र बना लेते हैं और यही होना चाहिये; वरना अवतार के अवतरण का उद्देश्य ही पूर्ण नहीं हो सकता। अवतरण का उद्देश्य यही दिखलाना है कि मानव-जन्म मनुष्य की सब सीमाओं के रहते हुए भी दिव्य जन्म और दिव्य कर्म का साधन और करण बनाया जा सकता है, और अभिव्यक्त दिव्य चैतन्य के साथ मानव-चैतन्य का मेल बैठाया जा सकता है, उसका धर्मान्तर करके उसे दिव्य चैतन्य का पात्र बनाया जा सकता है, और उसके सांचे को रूपांतरित करके उसके प्रकाश, प्रेम, सामर्थ्य और पवित्रता की शक्तियों को ऊपर उठाकर उसे दिव्य चैतन्य के अधिक समीप लाया जा सकता है। अवतार यह भी दिखाते हैं कि यह कैसे किया जा सकता है। यदि अवतार अद्भुत चमत्कारों के द्वारा ही काम करें, तो इससे अवतरण का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है। असाधारण अथवा अद्भुत चमत्काररूप अवतार के होने का कुछ मतलब ही नहीं रहता।


यह भी जरूरी नहीं है कि अवतार असाधारण शक्तियों का प्रयोग करे ही नहीं जैसे कि ईसा के रोगियों को ठीक कर देने वाले तथकथित चमत्कार क्योंकि असाधारण शक्तियों का प्रयोग मानव-प्रकृति की संभावना के बाहर नहीं है। परंतु इस प्रकार की कोई शक्ति न हो तो भी अवतार में कोई कमी नहीं आती, न यह कोई मौलिक बात है। यदि अवतार का जीवन असाधारण आतिशबाजी का खेल हो तो इससे भी काम न चलेगा। अवतार ऐंद्रजालिक जादूगर बनकर नहीं आते, प्रत्युत मनुष्य-जाति के भागवत नेता और भागवत मनुष्य के एक दृष्टांत बनकर आते हैं। मनुष्योचित शोक और भौतिक दुःख भी उन्हें झेलने पड़ते हैं और उनसे काम लेना पड़ता है, ताकि वे यह दिखला सकें कि किस प्रकार इस शोक और दुःख को आत्मोक्षरा का साधन बनाया जा सकता है। ईसा ने दुःख उठाकर यही दिखाया। दूसरी बात उन्हें यह दिखलानी होती है कि मानव-प्रकृति में अवतरित भागवत आत्मा इस शोक और दुःख को स्वीकार करके उसी प्रकृति में उसे किस प्रकार जीत सकता हैं।” बुद्ध ने यही करके दिखाया था। यदि कोई बुद्धिवादी ईसा के आगे चिल्लाया होता ‘‘तुम यदि ईश्वर के बेटे हो तो उतर आओ इस सूली पर से।” अथवा अपना पाण्डित्य दिखाकर कहता कि अवतार ईश्वर नहीं थे, क्योंकि वे मरे और वह भी बीमारी से-कुत्ते की मौत मरे-तो वह बेचारा जानता ही नहीं कि वह क्या बक रहा है, क्योंकि वह तो शिष्य की वास्तविकता से ही वंचित है।


भागवत आनंद के अवतार से पहले शोक और दुःख को झेलने वाले अवतार की भी आवश्यकता होती है; मनुष्य की सीमा को अपनाने की आवश्यकता हेती है, ताकि यह दिखाया जा सके कि इसे किस प्रकार पार किया जा सकता है। और, यह सीमा किस प्रकार या कितनी दूर तक पार की जायेगी केवल आंतरिक रूप से पार की जायेगी या बाह्म रूप से भी, यह बात मानवजाति के उत्कर्ष की अवस्था पर निर्भर है, यह सीमा किसी अमानव चमत्कार के द्वारा नहीं लांघी जायेगी। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है और यही असल में मुनष्य की बुद्धि के लिये एक मात्र बड़ी समस्या है-क्योंकि यहाँ आकर मानव-बुद्धि अपनी ही सीमा के अदंर लुढ़कने-पुढ़कने लगती है-कि अवतार मानव-मन बुद्धि और शरीर का ग्रहण कैसे करता है? कारण इनकी सृष्टि अक्समात् एक साथ इसी रूप में नहीं हुई होगी, बल्कि भौतिक या आध्यात्कि या दोनो ही प्रकार के किसी विकासक्रम से ही हुई होगी। इसमें संदेह नहीं कि अवतार का अवतरण, दिव्य जन्म की ओर मुनष्य के आरोहण के समान ही तत्त्वतः एक आध्यात्मिक व्यापार है; जैसा कि गीता के वाक्य से जान पड़ता है, -यह आत्मा का जन्म है। परंतु फिर भी इसके एक भौतिक जन्म तो लगा ही रहता है। तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवतार के मानव-मन और शरीर का कैसे निर्माण होता है।



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