स्वधर्म-विरोधी मोह का निरसन

 

अर्जुन अहिंसा की ही नहीं, संन्यास की भी भाषा बोलने लगा। वह कहता है- "इस रक्त-लांछित क्षात्र-धर्म से संन्यास ही अच्छा है।" परन्तु क्या वह अर्जुन का स्वधर्म था? उसकी वह वृत्ति थी क्या? अर्जुन संन्यासी का वेश तो बडे मजे से बना सकता था पर वैसी वृत्ति कैसे ला सकता था। संन्यास के नाम पर यदि वह जंगल में जाकर रहता, तो वहां, हिरन मारना शुरू कर देता। अतः भगवान ने साफ ही कहा- ʺअर्जुन, तू जो यह कह रहा है कि मैं लडूंगा नहीं, वह तेरा भ्रम है। आज तक जो तेरा स्वभाव बना हुआ है, वह तुझे लड़ाये बिना रहेगा नहीं।" अर्जुन को स्वधर्म विगुण मालूम होने लगा। परन्तु स्वधर्म कितना ही विगुण हो, तो भी उसी में रहकर मुष्य को अपना विकास कर लेना चाहिए, क्योंकि उसमें रहने से ही विकास हो सकता है। इसमें अभिमान को काई प्रश्न नहीं है। यह तो विकास का सूत्र है। स्वधर्म ऐसी वस्तु नहीं है कि जिसे बड़ा समझकर ग्रहण करें और छोटा समझकर छोड़ दें। वस्तुतः वह बड़ा होता है, छोटा। वह हमारे नाप का होता है। श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः इस गीता- वचन मेंधर्मशब्द का अर्थ हिन्दू-धर्म, इस्लाम-धर्म, ईसाई-धर्म आदि जैसा नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना भिन्न भिन्न धर्म है। मेरे सामने यहा। जो दो सौ व्यक्ति मौजूद है, उनके दो सौ धर्म हैं। मेरा भी धर्म जो दस वर्ष पहले था, वह आज नहीं है। आज का धर्म दस वर्ष बाद टिकेगा नहीं। चिंतन और अनुभव से जैसे-जैसे वृत्तियां बदलती जाती है, वैसे-वैसे पहले का धर्म छूटता जाता है और नवीन धर्म प्राप्त होता जाता है। हठ पकड़कर कुछ भी नहीं करना है। 12. दूसरे का धर्म भले ही श्रेष्ठ मालूम हो, उसे ग्रहण करने में मेरा कल्याण नहीं है। सूर्य का प्रकाश मुझे प्रिय है। उस प्रकाश से मैं बढ़ता हूँ। सूर्य मेरे लिए वंदनीय भी है। परन्तु इसलिए यदि मैं पृथ्वी पर रहना छोड़कर उसके पास जाना चाहूंगा, तो जलकर खाक हो जाऊंगा। इसके विपरीत भले ही पृथ्वी पर रहना विगुण हो, सूर्य के सामने पृथ्वी बिलकुल तुच्छ हो, स्वयं प्रकाशी हो, तो भी जब तक सूर्य का तेज सहन करने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है, तब तक सूर्य से दूर पृथ्वी पर रहकर ही मुझे अपना विकास कर लेना होगा। मछली से यदि कोई कहे किपानी से दूध कीमती है, तुम दूध में रहोतो क्या मछली उसे मंजूर करेगी? मछली तो पानी में ही जी सकती है, दूध में मर जायेगी।

13. दूसरे का धर्म सरल मालूम हो, तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। बहुत बार सरलता आभास मात्र ही होती है। घर-गृहस्थी में बाल-बच्चों की ठीक संभाल नहीं कर पाता, इसलिए ऊबकर यदि कोई गृहस्थ संन्यास ले ले, तो वह ढोंग होगा और भारी भी पड़ेगा। मौका पाते ही उसकी वासनाएं जोर पकड़ेंगी। संसार का बोझ उठाया नहीं जाता, इसलिए जंगल में जाने वाला पहले वहाँ छोटी सी कुटिया बनायेगा। फिर उसकी रक्षा के लिए बाड़ लगायेगा। ऐसा करते-करते उस पर वहाँ सवाया संसार खड़ा करने की नौबत जायेगी। यदि सचमुच मन में वैराग्यवृत्ति हो, तो फिर संन्यास भी कौन कठिन बात है ? संन्यास को आसान बताने वाले स्मृति वचन तो हैं ही। परन्तु मुख्य बात वृत्ति की है। जिसकी जो सच्ची वृत्ति होगी, उसी के अनुसार उसका धर्म होगा। श्रेष्ठ-कनिष्ठ, सरल-कठिन का यह प्रश्न नहीं है। विकास सच्चा होना चाहिए। परिणति सच्ची होनी चाहिए।

 

14. परन्तु कुछ भावुक व्यक्ति पूछते हैं- "यदि युद्ध-धर्म से संन्यास सदा ही श्रेष्ठ है, तो फिर भगवान ने अर्जुन को सच्चा संन्यासी ही क्यों नहीं बनाया? उनके लिए क्या यह असंभव था?" उनके लिए असंभव तो कुछ भी नहीं था परन्तु फिर उसमें अर्जुन का पुरुषार्थ ही क्या रह जाता? परमेश्वर ने स्वतंत्रता दे रखी है। अतः हर आदमी अपने लिए प्रयत्न करता रहे, इसी में मजा है। छोटे बच्चों को स्वयं चित्र बनाने में आनन्द आता है। उन्हें यह पंसद नहीं आता कि कोई उनसे हाथ पकड़कर चित्र बनवाये। शिक्षक यदि बच्चों के सवाल झट् हलकर दिया करें, तो फिर बच्चों की बृद्धि बढ़ेगी कैसे? मां-बाप और गुरु का काम सिर्फ सुझाव देना है। परमेश्वर अंदर से हमें सुझाता रहता है। इससे अधिक वह कुछ नहीं करता। कुम्हार की तरह भगवान ठोंक-पीटकर अथवा थपथपाकर हर एक का मटका तैयार करे, तो उसमें मजा ही क्या? हम हंड़िया नहीं हैं, हम तो चिन्मय हैं।

 

15. इस सारे विवेचन से एक बात आपकी समझ में गयी होगी कि गीता का जन्म, स्वधर्म में बाधक जो मोह है, उसके निवारणार्थ हुआ है। अर्जुन धर्म-संमूढ़ हो गया था। स्वधर्म के विषय में उसके मन में मोह पैदा हो गया था। श्रीकृष्ण के पहले उलाहने के बाद यह बात अर्जुन खुद ही स्वीकार करता है। वह मोह, वह ममत्व, वह आसक्ति दूर करना गीता का मुख्य काम है। इसीलिए सारी गीता सुना चुकने के बाद भगवान ने पूछा है- "अर्जुन, तेरा मोह गया ?" और अर्जुन जवाब देता है, "हाँ भगवन, मोह नष्ट हो गया, मुझे स्वधर्म का भान हो गया।" इस तरह यदि गीता के उपक्रम और उपसंहार को मिलाकर देखें, तो मोह-निरसन ही उसका तात्पर्य निकलता है। गीता ही नहीं, सारे महाभारत का यही उद्देश्य है। व्यास जी ने महाभारत के प्रारंभ में ही कहा है कि लोक हृदय के मोहावरण को दूर करने के लिए मैं यह इतिहास-प्रदीप जला रहा हूँ।

 

आगे की सारी गीता समझने के लिए अर्जुन की यह भूमिका हमारे बहुत काम आती है, इसलिए तो हम इसका आभार मानेंगे ही; परन्तु इसका और भी एक उपकार है। अर्जुन की इस भूमिका में उसके मन की अत्यन्त ऋजुता का पता चलता है। खुदअर्जुनशब्द का अर्थ हीऋजुअथवासरल स्वभाव वालाहै। उसके मन में जो कुछ भी विकार या विचार आये, वे सब उसने खुले मन से भगवान के सामने रख दिये। मन में कुछ भी छिपा नहीं रखा और वह अंत में श्रीकृष्ण की शरण गया। सच पूछिए तो वह पहले से ही कृष्ण-शरण था। कृष्ण को सारथि बनाकर जबसे उसने अपने घोड़ों की लगाम उनके हाथों में पकड़ायी, तभी से उसने अपनी मनोवृत्तियों की लगाम भी उनके हाथों में सौंप देने की तैयारी कर ली थी आइए, हम भी ऐसा ही करें। "अर्जुन के पास तो कृष्ण थे, हमें कृष्ण कहाँ से मिलेंगे ?"- ऐसा हम कहें।कृष्णनामक कोई व्यक्ति है, ऐसी ऐतिहासिक उर्फ भ्रामक धारणा में हम पड़े। अंतर्यामी के रूप में कृष्ण प्रत्येक के हृदय में विराजमान हैं। हमारे निकट से निकट वे ही हैं। तो हम अपने हृदय के सब छल-मल उनके सामने रख दें और उनसे कहें- "भगवान! मैं तेरी शरण में हूँ, तू मेरा अनन्य गुरु है। मुझे उचित मार्ग दिखा। जो मार्ग तू दिखायेगा, मैं उसी पर चलूंगा।" यदि हम ऐसा करेंगे, तो वह पार्थ-सारथि हमारा भी सारथ्य करेगा, अपने श्रीमुख से वह हमें गीता सुनायेगा और हमें विजय-लाभ करा देगा।





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