विषाद योग

 


गीता की योजना महाभारत में की गयी है। गीता महाभारत के मध्य भाग में एक ऊँचे दीपक की तरह स्थित है, जिसका प्रकाश पूरे महाभारत पर पड़ रहा है। एक ओर छह पर्व और दूसरी ओर बारह पर्व, इनके मध्यभाग में; उसी तरह एक ओर सात अक्षौहिणी सेना और दूसरी ओर ग्यारह अक्षौहिणी, इनके भी मध्य भाग में गीता का उपदेश दिया जा रहा है। महाभारत और रामायण हमारे राष्ट्रीय ग्रन्थ हैं। उनमें वर्णित व्यक्ति हमारे जीवन में एकरूप हो गये हैं। राम, सीता, धर्मराज, द्रौपदी, भीष्म, हनुमान आदि रामायण-महाभारत के चरित्रों ने सारे भारतीय जीवन को हज़ारों वर्षों से मंत्रमुग्ध सा कर रखा है। संसार के अन्य महाकाव्यों के पात्र इस तरह लोक जीवन में घुले-मिले नहीं दिखायी देते। इस दृष्टि से महाभारत और रामायण निस्संदेह अद्भुत गन्थ हैं। रामायण यदि एक मधुर नीतिकाव्य है, तो महाभारत एक व्यापक समाजशास्त्र। व्यास देव ने एक लाख संहिता लिखकर असंख्य चित्रों, चरित्रों और चारित्र्यों का यथावत चित्रण बड़ी कुशलतासे किया है। बिल्कुल निर्दोष तो सिवा एक परमेश्वर के कोई नहीं है, यह बात महाभारत बहुत स्पष्टता से बता रहा है। एक और जहाँ भीष्म, युधिष्ठिर जैसों के दोष दिखाये हैं, तो दूसरी और कर्ण-दुर्योधनादि के भी गुणों पर प्रकाश डाला गया है। महाभारत बतलाता है कि मानव-जीवन सफेद और काले तंतुओं का एक पट है। अलिप्त रहकर भगवान व्यास जगत के-विराट संसार के-छाया-प्रकाशमय चित्र दिखलाते हैं। व्यासदेव के इस अत्यंत अलिप्त और उदात्त ग्रंथन-कौशल के कारण महाभारत ग्रंथ मानो एक सोने की बड़ी भारी खान बन गया है। उसका शोधन करके भरपूर सोना लूट लिया जाये।

 

व्यासदेव ने इतना बड़ा महाभारत लिखा, परंतु उन्हें अपनी ओर से कुछ कहना था या नहीं? क्या किसी जगह उन्होंने अपना कोई ख़ास संदेश भी दिया है? किस स्थान पर व्यासदेव की समाधि लगी है? स्थान-स्थान पर अनेक तत्त्वज्ञान और उपदेशों के जंगल-के-जंगल महाभारत में आये हैं, परंतु इन सारे तत्त्वज्ञानों का, उपदेशों का और समूचे ग्रंथ का सारभूत रहस्य भी उन्होंने कहीं लिखा है? हां, लिखा है। समग्र महाभारत का नवनीत व्यास जी ने भगवद् गीता में रख दिया है। गीता व्यासदेव की प्रमुख सिखावन और उनके मनन का सम्पूर्ण संग्रह है। इसी के आधार पर 'मैं मुनियों में व्यास हूं' यह विभूति सार्थक सिद्ध होने वाली है। गीता को प्रचीन काल से 'उपनिषद' की पदवी मिली हुई है। गीता रूपी दूध भगवान ने अर्जुन के निमित्त से संसार को दिया है। जीवन के विकास के लिये आवश्यक प्राय: प्रत्येक विचार गीता में गया है। इसीलिये अनुभवी पुरुषों यथार्थ ही कहा है कि गीता धर्मज्ञान का एक कोष है। गीता हिंदू-धर्म का एक छोटा-सा ही, परंतु मुख्य ग्रंथ है। यह तो सभी जानते हैं कि गीता श्रीकृष्ण ने कही है। इस महान सिखावन को सुनने वाला भक्त अर्जुन इस सिखावन से इतना समरस हो गया कि उसे भी 'कृष्ण' संज्ञा मिल गयी है। भगवान और भक्त का यह हृद्गत प्रकट करते हुए व्यासदेव इतने एकरस हो गये कि लोग उन्हें भी 'कृष्ण' नाम से जानने लगे। कहने वाला कृष्ण, सुनने वाला कृष्ण, रचने वाला कृष्ण -इस तरह इन तीनों में मानो अद्वैत उत्पन्न हो गया, मानो तीनों की समाधि लग गयी। गीता के अध्येता में ऐसी ही एकाग्रता चाहिये।

कुछ लोगों का ख़्याल है कि गीता का आरंभ दूसरे अध्याय से समझना चाहिये। दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से प्रत्यक्ष उपदेश का आरंभ क्यों समझा जाये? एक व्यक्ति ने मुझसे कहा- "भगवान ने अक्षरों में 'अकार' को ईश्वरीय विभूति बताया है। इधर अशोच्यानन्व्शोचस्त्वम् के आरंभ में अनायास 'अकार' गया है। अत: वहीं से आरंभ मान लेना चाहिये।" इस दलील को हम छोड़ दें तो भी इसमें शंका नहीं है कि वहाँ से आरंभ मानना अनेक दृष्टियों से उचित ही है। फिर भी उससे पहले के प्रास्ताविक भाग का भी महत्त्व है ही। अर्जुन किस भूमिका पर स्थित है, किस बात का प्रतिवादन करने के लिए गीता की प्रवृत्ति हुई है, यह इस प्रस्तावित कथा भाग के बिना अच्छी तरह समझ में नहीं सकता। कुछ लोग कहते हैं कि अर्जुन का क्लैब्य (भय) दूर करके उसे युद्ध में प्रवृत करने के लिये गीता कही गयी है। उनके मत में गीता केवल कर्मयोग ही नहीं बताती, बल्कि युद्ध-योग का भी प्रतिपादन करती है। पर ज़रा विचार करने से इस कथन की भूल हमें दीख पड़ेगी। अठारह अक्षौहिणी सेना लड़ने के लिये तैयार थी। तो क्या हम यह कहेंगे कि सारी गीता सुनाकर भगवान ने अर्जुन को उस सेना की योग्यता का बनाया? अर्जुन धबड़ाया, कि वह सेना? तो क्या सेना की योग्यता अर्जुन से अधिक थी? यह बात कल्पना में भी नहीं सकती। अर्जुन, जो लड़ाई से परावृत हो रहा था, सो भय के कारण नहीं। सैकड़ों लड़ाइयों में अपना जौहर दिखाने वाला वह 'महावीर' था। उत्तर-गो-ग्रहण के समय उसने अकले ही भीष्म, द्रोण और कर्ण के दांत खट्टे कर दिये थे। सदा विजय प्राप्त करने वाला और सब नरों में एक ही सच्चा नर, ऐसी उसकी ख्याति थी। वीरवृत्ति उसके रोम-रोम में भरी थी। अर्जुन को उकसाने के लिये, उत्तेजित करने के लिये 'क्लैब्य' का आरोप तो कृष्ण ने भी करके देख लिया, परंतु उनका वह तीर बेकार गया और फिर उन्हें दूसरे ही मुद्दों को लेकर ज्ञान-विज्ञान-संबंधी व्याख्यान देने पड़े। तो यह निश्चित है कि महज क्लैब्य- निरसन जैसा सरल तात्पर्य गीता का नही है।

 कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि अर्जुन की अहिंसा-वृत्ति को दूर करके उसे युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए गीता कही गयी है। मेरी दृष्टि से यह कथन भी ठीक नहीं है। यह देखने के लिए पहले हमें अर्जुन की भूमिका बारीकी से समझनी चाहिए। इसके लिए पहले अध्याय से और दूसरे अध्याय में पहुँची हुई उसकी खाड़ी से हमें बहुत सहायता मिलेगी। अर्जुन, जो समर-भूमि में खड़ा हुआ, सो कृत-निश्चय होकर और कर्त्तव्य भाव से। क्षात्रवृत्ति उसके स्वभाव में थी। यृद्ध को टालने का भरसक प्रयत्न किया जा चुका था, फिर भी वह टला नहीं था। कम-से-कम मांग का प्रस्ताव और श्रीकृष्ण जैसे की मध्यस्थता, दोनों बातें बेकार हो चुकी थीं। ऐसी स्थिति में अनेक देशों के राजाओं को एकत्र करके और श्रीकृष्ण से अपना सारथ्य स्वीकृत कराकर वह रणांगण में खड़ा है और वीरवृत्ति के उत्साह के साथ श्रीकृष्ण से कहता है- "दोनों सेनाओं के बीच मेरा रथ खड़ा कीजिए, जिससे मैं एक बार उन लोगों के चेहरे तो देख लूं, जो मुझसे लड़ने के लिए तैयार होकर आये हैं।" कृष्ण ऐसा ही करते हैं। अर्जुन चारों ओर एक निगाह डालता है, तो उसे क्या दिखायी देता है? दोनों ओर अपने ही नाते-रिश्तेदारों, सगे-सम्बन्धियों का जबरदस्त जमघट। वह देखता है कि दादा, बाप, बेटे, पोते, आप्त-स्वजन-सम्बन्धियों की चार पीढ़ियाँ मरने-मारने के अंतिम निश्चय से वहाँ एकत्र हुई हैं। यह बात नहीं कि इससे पहले उसे इन बातों की कल्पना हो, परन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का कुछ अलग ही प्रभाव पड़ता है। उस सारे स्वजन समूह को देखकर उसके हृदय में एक उथल-पुथल मचती है। उसे बहुत बुरा लगता है। आज तक उसने अनेक युद्धों में असंख्य वीरों का संहार किया था। उस सयम उसे बुरा नहीं लगा था, उसका गांडीव हाथ से गिर नहीं पड़ा था, शरीर में कंप नहीं हुआ था, उसकी आंखे गीली नहीं हुई थीं। तो फिर इसी समय ऐसा क्यों हुआ? क्या अशोक की तरह उसके मन में अहिंसा-वृत्ति का उदय हुआ था? नहीं, यह तो केवल स्वजनासक्ति थी। इस समय भी यदि गुरु, बंधु और आप्त सामने होते, तो उसने शत्रुओं के मुंड गेंद की तरह उड़ा दिये होते। परंतु इस आसक्तिजनित मोह ने उसकी कर्त्तव्य निष्ठा को ग्रस लिया और तब उसे तत्त्वज्ञान याद आया। कर्त्तव्यनिष्ठ मनुष्य को मोहग्रस्त होने पर भी नग्न- खुल्लमखुल्ला- कर्त्तव्यच्युति सहन नहीं होती। वह कोई सद् विचार उसे पहनाता है। यही हाल अर्जुन का हुआ। अब वह झूठ-मूठ प्रतिपादन करने लगा कि युद्ध ही वास्वत में एक पाप है। युद्ध से कुल क्षय होगा, धर्म का लोप होगा, स्वैराचार मचेगा, व्यभिचारवाद फैलेगा, अकाल पड़ेगा, समाज पर तरह-तरह के संकट आयेंगे, आदि अनेक दलीलें देकर वह कृष्ण को ही समझाने लगा।

यहाँ मुझे एक न्यायाधीश का किस्सा याद आता है। एक न्यायाधीश था। उसने सैकड़ों अपराधियों को फांसी की सजा दी थी। परन्तु एक दिन खुद उसी का लड़का खून के जुर्म में उसके सामने पेश किया गया। बेटे पर खून का जुर्म साबित हुआ और उसे फांसी की सजा देने की नौबत न्यायाधीश पर गयी। तब वह हिचकने लगा। वह बुद्धिवाद बधारने लगा- "फांसी की सजा बड़ी अमानुषी है। ऐसी सजा देना मुष्य को शोभा नहीं देता। इससे अपराधी के सुधरने की आशा नष्ट हो जाती है। खून करने वाले ने भावना के आवेश में, खून कर डाला। परन्तु उसकी आंखों पर से जनून उतर जाने पर उस व्यक्ति को गंभीरतापूर्वक फांसी के तख्ते पर चढ़ाकर मार डालना समाज की मनुष्यता के लिए बड़ी लज्जा की बात है, बड़ा कलंक है"- आदि दलीलें वह देने लगा। यदि अपना लड़का सामने आया होता, तो जज साहब बेखटके जिन्दगी भर फांसी की सजा देते रहते। किन्तु वे अपने लड़के के ममत्व के कारण ऐसी बातें करने लगे। उनकी वह बात आंतरिक नहीं थी। वह आसक्तिजनित थी।यह मेरा लड़का हैइस ममत्व में से वह वाङ्मय निकला था।

अर्जुन की गति भी इस न्यायाधीश की तरह हुई। उसने जो दलीलें दी थीं वे गलत नहीं थीं। पिछले महायुद्ध के ठीक यही परिणाम दुनिया ने प्रत्यक्ष देखे हैं। परन्तु सोचने की बात इतनी ही है कि वह अर्जुन का तत्त्वज्ञान (दर्शन) नहीं था, कोरा प्रज्ञावाद था। कृष्ण इसे जानते थे। इसलिए उन्होंने उस पर जरा भी ध्यान देकर सीधा उसके मोह-नाश का उपाय शुरू किया। अर्जुन यदि सचमुच अंहिसावादी हो गया होता, तो उसे किसी ने कितना ही अवांतर ज्ञान-विज्ञान बताया होता, तो भी असली बात का जवाब मिले बिना उसका समाधान हुआ होता। परन्तु सारी गीता में इस मुद्दे का कहीं भी जवाब नहीं दिया है, फिर भी अर्जुन का समाधान हुआ है। यह सब कहने का अर्थ इतना ही है कि अर्जुन की अहिंसा-वृत्ति नहीं थी, वह युद्धप्रवृत्त ही था। युद्ध उसकी दृष्टि से उसका स्वभाव प्राप्त और अपरिहार्य रूप से निश्चित कर्त्तव्य था। उसे वह मोह के वश होकर टालना चाहता था और गीता का मुख्यतः इस मोह पर ही गदा प्रहार है।

 

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