गीता बोध

 

भगवान ने अर्जुन से कहा कि मैंने जो निष्काम कर्मयोग तुझे बतलाया है वह बहुत प्राचीन काल से चला आता है, यह नया नहीं है। तू प्रिय भक्त है इसलिए, और इस समय धर्म-संकट में है इसलिए, उसमें से मुक्त करने के लिए, मैंने तेरे सामने इसे रखा है। जब-जब धर्म की निंदा होती है और अधर्म फैलता है तब-तब मैं अवतार लेता हूँ और भक्तों की रक्षा करता हूं, पापी का संहार करता हूँ। मेरी इस माया को जो जानने वाला है वह विश्वास रखता है कि अधर्म का लोप अवश्य होगा, साधु पुरुष का रक्षक ईश्वर है। ऐसे मनुष्य धर्म का त्याग नहीं करते और अंत में मुझे पाते हैं, क्योंकि वे मेरा ध्यान धरने वाले, मेरा आश्रय लेने वाले होने के कारण काम-क्रोधादि से मुक्त रहते हैं और तप तथा ज्ञान से शुद्ध हुए रहते हैं। मनुष्य जैसा करता है, वैसा फल पाता है। मेरे नियमों से बाहर कोई रह नहीं सकता। गुण-कर्म-भेद से मैंने चार वर्ण पैदा किये हैं, फिर भी मुझे उनका कर्ता मत समझ, क्योंकि मुझे इस कर्म में से किसी फल की आकांक्षा नहीं है, न इसका पाप-पुण्य मुझे होता है। यह ईश्वरी माया समझने योग्य है। जगत में जितनी प्रवृत्तियां हैं, सब ईश्वरी नियमों के अधीन होती हैं, फिर भी ईश्वर उनसे अलिप्त रहता है, इसलिए वह उनका कर्ता है और अकर्ता भी। यों अलिप्त रहकर, अछूते रहकर, फलेच्छा से रहित होकर चलें तो अवश्य मोक्ष पा जाये। ऐसा मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और ऐसे मनुष्य को न करने योग्य कर्म का भी तुरंत पता चल जाता है। कामना से संबंधित कर्म, जो कामना के बिना हो ही नहीं सकते, वे सब न करने योग्य कर्म कहलाते हैं- उदाहरण के लिए, चोरी, व्यभिचार इत्यादि। ऐसे कर्म कोई अलिप्त रहकर नहीं कर सकता। इसलिए जो कामना और संकल्प छोड़कर कर्त्तव्य-कर्म करता है, उसके बारे में कहा जाता है कि उसने अपने ज्ञान रूपी अग्नि द्वारा अपने कर्मों को जला डाला है। यों कर्मफल का संग छोड़ने वाला मनुष्य सदा संतुष्ट रहता है, सदा स्वतन्त्र होता है। उसका मन ठिकाने होता है, वह किसी संग्रह में नहीं पड़ता और जैसे आरोग्य‍वान पुरुष की शारीरिक क्रियाएं अपने-आप चलती रहती हैं, उसी प्रकार ऐसे मनुष्य की प्रवृत्तियां अपने-आप चला करती हैं। उनके अपने चलाने का उसे अभिमान नहीं होता, भान तक नहीं होता। वह स्वयं निमित्त मात्र रहता है - सफलता मिली तो भी ʻवाह-वाहʼ, न मिली तो भी। सफलता से वह फूल नहीं उठता, विफलता से घबराता नहीं। उसके सब कर्म यज्ञ रूप, सेवा के लिए होते हैं। वह सारी क्रियाओं में ईश्वर को ही देखता है और अंत में उसी को पाता है।

यज्ञ तो अनेक प्रकार के कहे गये हैं। उन सबके मूल में शुद्धि और सेवा होती है। इंद्रिय दमन एक प्रकार का यज्ञ है, किसी को दान देना दूसरी प्रकार का। प्राणायामादि भी शुद्धि के लिए आरंभ किये जाने वाले यज्ञ हैं। इनका ज्ञान किसी ज्ञाता गुरु से प्राप्त किया जा सकता है। वह मिलाप, विनय, लगन और सेवा से ही संभव है। यदि सब लोग बिना समझे-बूझे यज्ञ के नाम पर अनेक प्रवृत्तियां करने लग जायें तो अज्ञान के निमित्त होने के कारण, भले के बदले बुरा नतीजा भी हो सकता है। इसलिए हरेक काम के ज्ञानपूर्वक होने की पूरी आवश्यककता है। यहाँ ज्ञान से मतलब अक्षर-ज्ञान नहीं है। इस ज्ञान में शंका की कोई गुंजायश ही नहीं रहती। उसका श्रद्धा से आरंभ होता है और अंत में उसका अनुभव आता है। ऐसे ज्ञान से मनुष्य सब जीवों को अपने में देखता है और अपने को ईश्वर में देखता है, यहाँ तक कि यह सब प्रत्यक्ष की भाँति उसे ईश्वरमय लगता है। ऐसा ज्ञान पापी-से-पापी को भी तार देता है। यह ज्ञान कर्मबंधन में से मनुष्य को मुक्त करता है, अर्थात कर्म का फल उसे स्पर्श नहीं करता। इसके समान पवित्र इस जगत में दूसरा कुछ नहीं है। इसलिए तू श्रद्धा रखकर, ईश्वरपरायण होकर, इंद्रियों को वश में रखकर ऐसा ज्ञान पाने का प्रयत्न कर, उससे तुझे परम शांति मिलेगी। तीसरा, चौथा और पांचवां अध्याय, तीनों एक साथ मनन करने योग्य हैं। उनमें से अनासक्ति योग क्या है, इसका अनुमान हो जाता है। इस अनासक्ति - निष्कामता से मिलने का उपाय भी उनमें थोड़े-बहुत अंश में बतलाया गया है। इन तीनों अध्यायों को यथार्थ रूप से समझ लेने पर आगे के अध्यायों में कम कठिनाई पड़ेगी। आगे के अध्याय में हमें अनासक्ति-प्राप्ति के साधन की अनेक रीतियां बतलाते हैं। हमें इस दृष्टि से गीता का अध्ययन करना चाहिए, इससे अपनी नित्य पैदा होने वाली समस्याओं को हम गीता द्वारा बिना परिश्रम के हल कर सकेंगे। यह नित्य‍ के अभ्यास से संभव होने वाली वस्तु है। सबको आजमा देखनी चाहिए। क्रोध आया कि तुरंत उससे संबंधित श्लोक का स्मरण करके उसे शांत करना चाहिए। किसी का द्वेष हो, अधीरता आवे, आहारैषणा यज्ञ तो अनेक प्रकार के कहे गये हैं। उन सबके मूल में शुद्धि और सेवा होती है। इंद्रिय दमन एक प्रकार का यज्ञ है, किसी को दान देना दूसरी प्रकार का। प्राणायामादि भी शुद्धि के लिए आरंभ किये जाने वाले यज्ञ हैं। इनका ज्ञान किसी ज्ञाता गुरु से प्राप्त किया जा सकता है। वह मिलाप, विनय, लगन और सेवा से ही संभव है। यदि सब लोग बिना समझे-बूझे यज्ञ के नाम पर अनेक प्रवृत्तियां करने लग जायें तो अज्ञान के निमित्त होने के कारण, भले के बदले बुरा नतीजा भी हो सकता है। इसलिए हरेक काम के ज्ञानपूर्वक होने की पूरी आवश्यककता है। यहाँ ज्ञान से मतलब अक्षर-ज्ञान नहीं है। इस ज्ञान में शंका की कोई गुंजायश ही नहीं रहती। उसका श्रद्धा से आरंभ होता है और अंत में उसका अनुभव आता है। ऐसे ज्ञान से मनुष्य सब जीवों को अपने में देखता है और अपने को ईश्वर में देखता है, यहाँ तक कि यह सब प्रत्यक्ष की भाँति उसे ईश्वरमय लगता है। ऐसा ज्ञान पापी-से-पापी को भी तार देता है। यह ज्ञान कर्मबंधन में से मनुष्य को मुक्त करता है, अर्थात कर्म का फल उसे स्पर्श नहीं करता। इसके समान पवित्र इस जगत में दूसरा कुछ नहीं है। इसलिए तू श्रद्धा रखकर, ईश्वरपरायण होकर, इंद्रियों को वश में रखकर ऐसा ज्ञान पाने का प्रयत्न कर, उससे तुझे परम शांति मिलेगी। तीसरा, चौथा और पांचवां अध्याय, तीनों एक साथ मनन करने योग्य हैं। उनमें से अनासक्ति योग क्या है, इसका अनुमान हो जाता है। इस अनासक्ति - निष्कामता से मिलने का उपाय भी उनमें थोड़े-बहुत अंश में बतलाया गया है। इन तीनों अध्यायों को यथार्थ रूप से समझ लेने पर आगे के अध्यायों में कम कठिनाई पड़ेगी। आगे के अध्याय में हमें अनासक्ति-प्राप्ति के साधन की अनेक रीतियां बतलाते हैं। हमें इस दृष्टि से गीता का अध्ययन करना चाहिए, इससे अपनी नित्य पैदा होने वाली समस्याओं को हम गीता द्वारा बिना परिश्रम के हल कर सकेंगे। यह नित्य‍ के अभ्यास से संभव होने वाली वस्तु है। सबको आजमा देखनी चाहिए। क्रोध आया कि तुरंत उससे संबंधित श्लोक का स्मरण करके उसे शांत करना चाहिए। किसी का द्वेष हो, अधीरता आवे, आहारैषणा आवे, किसी काम को करने या न करने का संकट आवे तो ऐसे सब प्रश्नों का निपटारा, श्रद्धा हो और नित्य मनन हो तो, गीता-माता से कराया जा सकता है। इसके लिए नित्य का यह पारायण है और तदर्थ यह प्रयत्न है।


हम यज्ञ शब्द का व्यवहार बारंबार करते हैं। हमने नित्य का महायज्ञ भी रचा है। इसलिए यज्ञ शब्द का विचार कर लेना जरूरी है। इस लोक में या परलोक में कुछ भी बदला लिये या चाहे बिना, परार्थ के लिए किये हुए किसी भी कर्म को यज्ञ कहेंगे। कर्म कायिक हो या मानसिक, चाहे वाचिक, कर्म का विशाल-से-विशाल अर्थ लेना चाहिए। ʻपरार्थ के लिएʼ का मतलब केवल मनुष्य वर्ग नहीं, बल्कि जीव मात्र लेना चाहिए और अहिंसा की दृष्टि से भी मनुष्य जाति की सेवा के लिए भी, दूसरे जीवों का होमना या उनका नाश करना यज्ञ की गिनती में नहीं आ सकता। वेदादि में अश्व, गाय इत्यादि को होमने की जो बात आती है, उसे हमने गलत माना है। वहाँ पशु हिंसा का अर्थ लें तो सत्य और अहिंसा की तराजू पर ऐसे होम नहीं चढ़ सकते, इतने से हमने संतोष मान लिया है। जो वचन धर्म के नाम से प्रसिद्ध हैं, उनका ऐतिहासिक अर्थ करने में हम नहीं फंसते और वैसे अर्थों के अन्वेषण की अपनी अयोग्यता हम स्वीकार करते हैं। उस योग्यता की प्राप्ति का प्रयत्न भी हम नहीं करते, क्योंकि ऐतिहासिक अर्थ से जीव हिंसा संगत भी ठहरे तो भी अहिंसा को सर्वोपरि धर्म मानने के कारण हमारे लिए उस अर्थ को रुचने-वाला आचार त्याज्य है। उक्त व्याख्या के अनुसार विचारने पर हम देख सकते हैं कि जिस कर्म में अधिक-से-अधिक जीवों का, अधिक-से-अधिक क्षेत्र में, कल्याण हो और जो कर्म अधिक-से-अधिक मनुष्य अधिक-से-अधिक सरलता से कर सकें, और जिसमें अधिक-से-अधिक सेवा होती हो, वह महायज्ञ है या अच्छा यज्ञ है। अत: किसी की भी सेवा के निमित्त अन्य किसी का कल्याण चाहना या करना यज्ञ-कार्य नहीं है और यज्ञ के अलावा किया हुआ कार्य बन्धन रूप है, यह हमें भगवद्गीता और अनुभव भी सिखाता है। ऐसे यज्ञ के बिना यह जग क्षण भर भी नहीं टिक सकता, इसीलिए गीताकार ने ज्ञान की कुछ झलक दूसरे अध्याय में दिखाकर तीसरे अध्याय में उसकी प्राप्ति के साधनों में प्रवेश कराया है और साफ शब्दों में कहा है कि हम यज्ञ को जन्म से ही साथ लाये हैं, यहाँ तक कि हमें यह शरीर केवल परमार्थ के लिए मिला है और इसलिए यज्ञ किये बिना जो खाता है, वह चोरी का खाता है, ऐसी सख्त बात गीताकार ने कह डाली। जो शुद्ध जीवन बिताना चाहता है, उसके सब काम यज्ञ रूप होते हैं। हमारे यज्ञ सहित जन्मने का मतलब है कि हम हरदम के ऋणी या देनदार हैं।


इसलिए हम जग के सदा के गुलाम हैं और जैसे स्वामी गुलाम को सेवा के बदले में खाना-कपड़ा आदि देता है, वैसे हम जगत का स्वामी हमसे गुलामी लेने के लिए जो अन्न-वस्त्रादि देता है वह कृतज्ञतापूर्वक लेना चाहिए। यह न समझना चाहिए कि जो मिलता है, उतने का भी हमें हक है, न मिलने पर मालिक को दोष न दें। यह देह उसकी है, जी चाहे इसे रखे, या न रखे। यह स्थिति दु:खद नहीं है, न दयनीय है। यदि हम अपना स्थान समझ लें तो यह स्वामभाविक है और इसलिए सुखद और चाहने योग्य है। ऐसे परम सुख के अनुभव के लिए अचल श्रद्धा तो अवश्य‍ चाहिए। अपने लिए कोई चिंता न करना, सब परमेश्वर को सौंप देना, ऐसा आदेश मैंने तो सब धर्मों में पाया है। पर इस वचन से किसी को डरना नहीं चाहिए। मन को स्वच्छ रखकर सेवा का आरंभ करने वाले को उसकी आवश्यकता दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होती जाती है और वैसे ही उसकी श्रद्धा बढ़ती जाती है। जो स्वार्थ छोड़ने को तैयार ही नहीं है, अपनी जन्म की स्थिति को पहचानने को तैयार ही नहीं, उसके लिए तो सेवा के सब मार्ग मुश्किल हैं। उसकी सेवा में तो स्वार्थ की गंध आती ही रहेगी, पर ऐसे स्वार्थी जगत में कम ही मिलेंगे। कुछ-न-कुछ नि:स्वार्थ सेवा हम सब जाने-अनजाने करते ही रहते हैं। यही चीज विचारपूर्वक करने लगने से हमारी पारमार्थिक सेवा की वृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती रहेगी। उसमें हमारा सच्चा सुख है और जगत का कल्याण है।

जिस चीज को जन्म के साथ लेकर हमने इस संसार में प्रवेश किया है, उसके बारे में कुछ अधिक विचार करना व्यर्थ न होगा। यज्ञ नित्य-कर्त्तव्य है, चौबीसों घंटे आचरण में लाने की वस्तु है, इस विचार से और यज्ञ का अर्थ सेवा समझकर ʻपरोपकाराय सतां विभूतय:ʼ वचन कहा गया है। निष्काम सेवा परोपकार नहीं है, बल्कि अपने निज के ऊपर उपकार है। जैसे कर्ज चुकाना परोपकार नहीं, बल्कि अपनी सेवा है, अपने ऊपर उपकार है, अपने ऊपर से भार उतारना है, अपने धर्म को बचाना है। फिर कोई संत की ही पूंजी ʻपरोपकारार्थʼ - अधिक सुंदर भाषा में कहिये तो - ʻसेवार्थʼ हो, सो नहीं है, बल्कि मनुष्य मात्र की पूंजी सेवार्थ है और यह होने पर सारे जीवन में भोग का खातमा हो जाता है, जीवन त्यागमय हो जाता है, या यों कहें कि मनुष्य का त्याग ही उसका भोग है। पशु और मनुष्यों के जीवन में यह भेद है। जीवन का यह अर्थ जीवन को शुष्क बना देता हे, इससे कला का नाश हो जाता है, अनेक लोग यह आरोप करके उक्त विचार को सदोष समझते हैं, पर मेरे ख्याल में ऐसा कहना त्याग का अनर्थ करना है। त्याग के मानी संसार से भागकर जंगल में जा बसना नहीं है, बल्कि जीवन की प्रवृत्ति मात्र में त्याग का होना है। गृहस्थ-जीवन त्यागी और भोगी दोनों हो सकता है। मोची का जूते सीना, किसान का खेती करना, व्यापारी का व्यापार करना और नाई का हजामत बनाना त्याग-भावना से हो सकता है या उसमें भोग की लालसा हो सकती है। जो यज्ञार्थ व्यापार करता है, वह करोड़ों के व्यापार में भी लोकसेवा का ही खयाल रखेगा, किसी को धोखा नहीं देगा, अकरणीय साहस नहीं करेगा, करोड़ों की सम्पत्ति रखते हुए भी सादगी से रहेगा, करोड़ों कमाते हुए भी किसी की हानि नहीं करेगा। किसी की हानि होती होगी तो करोड़ों से हाथ धो देगा। कोई इस खयाल से न हँसे कि ऐसा व्यापारी मेरी कल्पना में बसता है। संसार के सौभाग्य से ऐसे व्यापारी पश्चिम और पूर्व दोनों में हैं। हों चाहे अंगुलियों पर ही गिनने-भर को, पर एक भी जीवित उदाहरण रखने पर उसे फिर कल्पना की वस्तु नहीं कह सकते। ऐसे दरजी को हमने बढ़वाण में ही देखा है। ऐसे एक नाई को मैं जानता हूँ और ऐसे बुनकर को हम लोगों में से[1] कौन नहीं जानता। देखने-ढूंढ़ने पर हम सब धंधों में केवल यज्ञार्थ अपना धंधा करने और तदर्थ जीवन बिताने वाले आदमी पा सकते हैं।


यह अवश्य है कि ऐसे याज्ञिक अपने धंधे से अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं। पर वे धन्धा आजीविका के निमित्त नहीं करते, आजीविका उनके लिए उसे धंधे का गौण फल है। मोतीलाल पहले भी दर्जी का धंधा करता था और ज्ञान होने के बाद दर्जी बना रहा। भावना बदल जाने से उसका धंधा यज्ञ रूप बन गया, उसमें पवित्रता आ गई और पेशे में दूसरे के सुख का विचार दाखिल हो गया। उसी समय उसके जीवन में कला का प्रवेश हो गया। यज्ञमय जीवन कला की पराकाष्ठा है, सच्चा रस उसी में है, क्योंकि उसमें से रस के नित्य नये झरने प्रकट होते हैं। मनुष्य उन्हें पीकर अघाता नहीं है, न वे झरने कभी सूखते हैं। यज्ञ यदि भार रूप जान पड़े तो यज्ञ नहीं है, जो अखरे वह त्याग नहीं है। भोग का अंत नाश है, त्याग का अन्त अमरता। रस स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, रस तो हमारी वृत्ति में मौजूद है। एक को नाटक के पर्दों में मजा आता है, अन्य को आकाश में नित्य नये-नये प्रकट होने वाले दृश्यों में। रस परिशीलन का विषय है। जो रस रूप से बचपन में सिखाया जाता है, जिसे रस के नाम से जनता में प्रवेश कराया जाता है, वह रस माना जाता है। हम ऐसे उदाहरण पा सकते हैं कि जिनमें एक प्रजा को रसमय लगने वाली चीज दूसरी प्रजा को रसहीन लगती है। यज्ञ करने वाले अनेक सेवक मानते हैं कि हम निष्काम भाव से सेवा करते हैं, अत: लोगों से आवश्यकता भर को और अनावश्यक भी, लेने का हमें परवाना मिल गया है। जहाँ किसी सेवक के मन में यह विचार आया कि उसकी सेवकाई गई, सरदारी आई। सेवा में अपनी सुविधा के विचार की गुंजाइश ही नहीं होती है। सेवक की सुविधा स्वामी-ईश्वर-देखे, देनी होगी तो वह देगा। यह खयाल रखते हुए सेवक को चाहिए कि जो कुछ आ जाय, सबको न अपना बैठे। आवश्यकता भर को ही ले, बाकी का त्याग करे। अपनी विधा की सुरक्षा न होने पर भी शांत रहे, रोष न करे, मन में भी खिन्नता न लावे। याज्ञिक का बदला, सेवक की मजदूरी, यज्ञ सेवा ही है। उसी में उसका संतोष है। सेवा-कार्य में बेगार भी नहीं काटी जाती। उसे अंत के लिए नहीं छोड़ा जाता। अपना काम तो संवारे, लेकिन पराया, बिना पैसे के करना, इस खयाल से जैसा-तैसा या जब चाहे तब करने में भी हर्ज न समझने वाला, यज्ञ का ककहरा भी नहीं जानता। सेवा में तो सोलहों सिंगार भरने पड़ते हैं, अपनी सारी कला उसमें खर्च कर देनी पड़ती है। पहले यह, फिर अपनी सेवा। मतलब यह कि शुद्ध यज्ञ करने वाले के लिए अपना कुछ नहीं है। उसने सब ʻकृष्णार्पणʼ कर दिया है।



आज का विषय

लोकप्रिय विषय