मनुष्य और जीवन-संग्राम

 


जब हम गीता की शिक्षा को उसके व्यापक, उदार रूप में समझते हैं तब हमें जगत् के व्यक्त रूप और कर्म के संबंध में बौद्धिक स्तर पर गीता के आधार बिंदु और साहस पूर्ण दृष्टि को स्वीकार करना होगा। कुरुक्षेत्र के सारथी भगवान् एक ओर तो सर्वलोकमहेश्वर, सब प्राणियों के मित्र और सर्वज्ञ गुरु हैं, दूसरी ओर संहारक काल हैं जो यहाँ इन सब लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हुए हैं - लोकान् समाहर्त्तुमिह प्रवृत्तः। [1]गीता ने उदार हिंदू धर्म के सार भाव का ही अनुसरण करके इस काल-रूप को भी भगवान् कहा हैं; गीता जगत् की पहेली को टालने के लिये जगत् में से किसी बगल के दरवाजे से निकल भागने की चेष्टा नहीं करती। और यदि सचमुच ही संसार को हम किसी असंस्कृत विवेकशून्य जड़ प्राकृतिक शक्ति की ही कोई यांत्रिका क्रिया मात्र नहीं समझते अथवा दूसरी ओर किसी अनादि शून्य से उत्पन्न हुई भावनाओं और शक्तियों की वैसी ही यांत्रिक क्रीड़ा मात्र नहीं मानते या यह भी नहीं मानते कि यह अक्रिय आत्मा में होने वाला केवल एक अभ्यास है या अलिप्त, अचर, अक्षर परब्रह्म के ऊपरी तल के चैतन्य में होने वाला मिथ्या दुःस्वप्न मात्र या स्वप्न का ही क्रम-विकास है और स्वयं परब्रह्म उससे विचलित नहीं होता।उसमें वस्तुतः उसका कोई हाथ ही है, अर्थात् इस बात को हम जरा भी मानते हैं, जैसा की गीता मानती है कि, भगवान् हैं और वे सर्वव्यापी[2], सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् हैं और भी सबके परे रहने वाले परम पुरुष हैं जो जगत् को प्रकट करके स्वयं भी उसमें प्रकट होते हैं।[3]

जो अपनी माया, प्रकृति या शक्ति के दास नहीं, प्रभु हैं, जिनकी जगत् परिकल्पना या योजना का बनाया हुआ कोई भी जीवजंतु, मानव-दानव इधर-उधर या उलट-पलट नहीं कर सकता जो अपनी सृष्टि या अभिव्यक्ति के किसी भाग के उत्तरदायित्व को अपने सृष्ट या अभिव्यक्त प्राणियों के ऊपर लादकर स्वयं उससे बरी होने की कोई जरूरत या अभिलाषा नहीं रखते- यदि हम ऐसा मानते हैं- तब आरंभ से ही मानव-प्राणी को एक महान् और दृढ़तम श्रद्धा धारण करके ही आगे बढ़ना होगा। मानव अपने-आपको एक ऐसे जगत् में पाता जहाँ ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि लड़ाकू शक्तियों ने एक भीषण विश्रृंखला कर रखी है, बड़ी-बड़ी अंधकार की शक्तियों का संग्राम छिड़ा हुआ है, जहाँ का जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा, यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभिषिका द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। ऐसे जगत् के अंदर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना और इस बात से सचेतन होना होगा कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों को मिटाता है। तब, मनुष्य जीवन की उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खड़ा होना होगा कि, “तू मुझे मार भी डाले, तो भी मैं भरोसा छोड़ूँगा।“

सभी प्रकार की कार्यरत निष्ठा में चाहे वह आस्तिक की हो[4], नास्तिक की हो या सर्वेश्वरवादी की न्यूनाधिक स्पष्टता और पूर्णता के साथ इस प्रकार का भाव पाया जाता है; इसमें स्वीकृति और विश्वास भी। स्वीकृति इस बात की कि संसार में सर्वत्र अनबन है और विश्वास इस बात का कि कोई भागवत तत्त्व भी है[5]- विश्वपुरुष अथवा प्रकृति को भी कहिये- जिसके बल से हम इन परस्पर-विरोधों को पार कर सकते हैं, जीत सकते हैं या समन्वित कर सकते हैं, कदाचित् एक साथ तीनों की बात कर सकते हैं, इनको जीतकर और इनको पार करके हम समन्वित कर सकते हैं।

 

तब, मनुष्य जीवन की वास्तविकता का जहाँ तक संबंध है, हमें उसे संघर्ष और युद्ध के पहलू को मानना होगा जिसकी भीषणता बढ़ते-बढ़ते कुरुक्षेत्र के जैसे महासंकट तक जा पहुँचती है। गीता जैसा कि हम देख आये हैं, परिवर्तन और संकट के एक ऐसे काल को अपना आधार बनाती है जो मानव जाति के इतिहास में पुनः-पुनः आया करता है और इस काल में बड़ी शक्तियां किसी भीषण बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक ध्वंस और पुनर्निमाण के लिये एक-दूसरे से टकराती हैं और मनुष्य की वास्तविक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अवस्था में साधारणतया ये शक्तियां संघर्ष, युद्ध और क्रांति के भीषण भौतिक आंदोलन में अपनी पराकाष्ठा को पहुँचाती हैं। गीता का प्रारंभ की इस मान्यता से नया होता है कि ऐसे भीषण क्रांतिकारी प्रसंग प्रकृति को आवश्यक होते हैं, केवल उनक नैतिक पहलू ही नहीं अर्थात् धर्म और अधर्म में, शुभ के स्थापित होते हुए विधान और उसक प्रगति को रोकने वाली शक्तियों में युद्ध होता है वहीं बल्कि उनका भौतिक अंग भी अर्थात् शुभाशुभ शक्तियों के प्रतिनिधि स्वरूप जो मनुष्य हैं उनके बीच सशस्त्र संग्राम अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रचंड शारीरिक युद्ध भी आवश्यक होता है।

 

यहाँ हमें स्मरण रखना होगा कि गीता कि रचना ऐसे समय में हुई थी कि जब युद्ध मानव गतिविधि का आज से भी अधिक आवश्यक अंग था और उसके बहिष्कार का विचार तक आकाश-कुसुम जैसा होता है। मनुष्यों में विश्वव्यापी शांति और पूर्ण सद्भाव को स्थापित करने का उपदेश- क्योंकि विश्वव्यापी शांति और पूर्ण सद्भाव के बिना सच्ची और स्थायी शांति नहीं हो सकती- हमारी उन्नति के लिए ऐतिहासिक काल में एक क्षण के लिये भी मानव जीवन को अधिकृत नहीं कर सका है, क्योंकि जाति की नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक और आध्यात्मिक अवस्था, इसके लिए तैयार नहीं थी और विकासात्मक प्रकृति की अभी तक जो हालत थी उसके कारण वह इस बात की इजाजत नहीं दे सकती थी कि मानव‌‌‌‌-जाति ऐसी उच्चतर स्थिति के लिये एकाएक तैयार कर ली जाये।

आज भी हम लोग, सिवाय इसके कि परस्पर-विरोधी स्वार्थों के बीच यथासंभव कोई ऐसा समझौता कर लिया करें जिससे अतिभीषण और बीभत्स संघर्ष-संग्राम कुछ कम हो जाये, जरा भी आगे नहीं बढ पाये हैं। और इसके लिये मनुष्य जाति को अपनी ही प्रकृति के वश [6]जिस उपाय और जिस ढंग का अवलंबन करना पड़ता है वह एक ऐसा महाभयंकर रक्तपात जिसका इतिहास में जोड़ नहीं! अर्थात् आधुनिक मनुष्य को जगदव्यापी शांति की स्थापना का जो सीधा और सफल मार्ग मिला है वह है कटुता और दुर्दमनीय द्वेष से परिपूर्ण विश्वव्यापी महायुद्ध इस शांति की स्थपना के मूल में भी कोई ऐसा भाव नहीं है जो मनुष्य स्वभाव के आमूल परिवर्तन से उत्पन्न हुआ हो, बल्कि मनुष्यों की जैसी बौद्धिक धारणाएं है, आर्थिक सुविधा का जो ख्याल है प्राणहानि के भय से उनके प्राण और उनकी भावुकता जो कांप उठती है, युद्ध से उनको जो असुविधा और घबराहट होती है उसीसे ऐसी शांति की रक्षा का प्रयत्न किया जाता है इस पकार से जो शांति स्थापित की जाती है उसकी नींव दृढ़ हो और वह बहुत काल तक स्थिर रहे ऐसा भरोसा नहीं होता एक दिन सकता है, बल्कि हम कहें कि निश्चय ही आयेगा, जब मनुष्य-जाति आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक रूप से इस बात के लिये तैयार होगी कि सर्वत्र शांति का राज हो लेकिन तब तक किसी व्यावहारिक तत्त्वज्ञान और धर्मशास्त्र को यह मानकर चलना होगा कि युद्ध जीवन का अंग है, और लड़ना मनुष्य का स्वभाव और कर्म है और मनुष्य के योद्धा-रूप के स्वभाव और कर्तव्य को मानकर उसका लेखा जोखा करना होगा।

किसी सुदूर भविष्य में मानव जीवन किस प्रकार का हेगा केवल इसी का विचार करके, उसके वर्तमान रूप को देखती हुई गीता यह प्रश्न उपस्थित करती है कि मनुष्य जीवन के इस पहलू और कर्तव्य का, जो वास्तव में मनुष्य की सर्वसाधारण गतिविधि का ही एक अंग है, स्वभाव है उसकी आत्मिक स्थिति के साथ कैसे मेल बैठाया जाये। इसीलिये गीता एक योद्धा से कही गयी है जो कर्मठ है, उसके जीवन का कर्तव्य है युद्ध और संरक्षण युद्ध उसके प्रजापालन धर्म का एक अंग है, उन लोगों की रक्षा के लिये जो युद्ध-कर्म से बरी हैं, जो अपनी रक्षा आप करने से वंचित कर दिये गये हैं और इसीलिये बलवान् और आततायी मनुष्यों से अपने को नहीं बचा सकते। और फिर युद्ध का एक और नैतिक और वीरोचित भाव है, अर्थात दीन-दुर्बलों और पीड़ितों की रक्षा और जगत् में धर्म और न्याय की स्थापना। ये सभी सामाजिक और व्यावहारिक, नैतिक और वीरोचित भावनाऐं क्षत्रिय शब्द के भारतीय भाव के अंतर्गत जाती है, क्षत्रिय कर्म से योद्धा और शासक होता है और स्वभाव से शूर-वीर और राजा।

यद्यपि हमारे लिये गीता के सर्वसामान्य और व्यापक सिद्धांत ही सबसे अधिक महत्त्व रखते हैं तथापि ये सिद्धांत जिस विशिष्ट भारतीय संस्कृति और समाज-व्यवस्था के समय में प्रादुर्भूत हुए और इस कारण इन सिद्धांतों पर उस संस्कृति और व्यवस्था का जो रंग चढ़ा है और जिस और इनका रूख है उनका कोई विचार करके यूं ही छोड़ देना ठीक होगा। उस समाज व्यव्स्था की धारणा आधुनिक समाज व्यवस्था धारणा से भिन्न थी। आधुनिकों की बुद्धि में एक ही मनुष्य विचारक, योद्धा, कृषक, व्यवसायी और सेवक सब कुछ है और आजकल की सामाजिक व्यवस्था का रूख इस ओर है कि इन सब कर्मो को मिला-जुला दिया जाये और प्रत्येक व्यक्ति से समाज के बौद्धिक, सामजिक और आर्थिक जीवन और समस्त के लिये उसका अपना हिस्सा मांगा जाये और इस बात में उसकी अपनी प्रकृति और उसके स्वभाव की मांग पर कोई ध्यान दिया जाये। प्राचीन भारतीय संस्कृति में व्यक्तिगत सहज गुण, कर्म, स्वभाव का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता था और इसी गुण-कर्म-स्वभाव से व्यक्तिमात्र का विशेष धर्म, कर्म और समाज में उसका स्थान नियत करने का प्रयत्न किया जाता था।

उस काल में मनुष्य को मूलतः एक सामाजिक प्राणी नहीं समझा जाता था, उसकी सामाजिक स्थिति की पूर्ण संपन्नता ही सर्वोच्च आदर्श मानी जाती थी, बल्कि यह मान्यता थी कि मनुष्य एक आध्यात्मिक जीव है जो क्रमशः संगठित और विकसित हो रहा है और उसका सामाजिक जीवन, उसका विशेष धर्म, उसके स्वभाव की क्रिया और उसके कर्म का उपयोग, ये सब उसके आध्यात्मिक गठन के साधन और अवस्था मात्र हैं। चितंन और ज्ञान, युद्ध और राज्य-प्रबंध, शिल्प, कृषि और वाणिज्य, मजदूरी और सेवा, ये सब समाज के विधिपूर्वक बंटे हुए कर्म थे, जो सहज जीव से जिस कर्म के योग्य हेाते उन्हीं को वह काम सौंपा जाता था और वही कर्म उनका वह उचित साधन होता था जिसके द्वारा वे व्यक्तिशः अपनी आध्यात्मिक उन्नति [7]और आत्मसिद्धि की ओर आगे बढ़ सकते थे। आधुनिक की जो यह भावना है कि अखिल मानव-कर्म के सभी मुख्य-मुख्य विभागों में सब मुनष्यों को ही समान रूप से योगदान करना चाहिये, इस भावना के अपने कुछ लाभ है, और जहाँ भारतीय वर्णव्यवस्था का अंत में यह परिणाम हुआ कि व्यक्ति के अनगिनत विभाजन हो गये, उसमें अतिविशेषीकरण की भरमार हो गयी तथा उसका जीवन संकुचित और कृत्रिम बंधनों से बंध गया, वहाँ आधुनिक व्यवस्था समाज के जीवन को अधिक संघटित, एकत्रित और पूर्ण बनाने में तथा संपूर्ण मानव -सत्ता का सर्वागीण विकास करने में सहायता देती है। परंतु आधिुनिक व्यवस्था के भी अपने दोष हैं और इसके कतिपय व्यावहारिक प्रयोगों में इस व्यवस्था का बहुत अधिक कठोरता पूर्वक उपयोग किये जाने के कारण इसका परिणाम बेढ़ेगा और अनर्थकारी हुआ। आधुनिक युद्ध का स्वरूप देखने से ही यह बात स्पष्ट हो जायेगी।

आज जिस समाज में मनुष्य रहता और पलता है उसकी रक्षा करना और उसके लिये लड़ना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है और इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपना क्षात्र कर्म करने के लिये बंधा है। इस आधुनिक व्यवस्था का परिणाम यह हुआ है कि राष्ट्र का सारा का सारा पुरुषत्व रक्तरंजित खाइयों में मरने ओर मारने के लिये ढकेल दिया जाता है, विचारक, कलाकार, दार्शनिक, पुजारी, व्यवसायी और करीगर, सब के सब अपने व्यावहारिक कर्म से अलग कर दिये जाते है, समाज का सारा जीवन अव्यवस्थित हो जाता है, विचार और धर्माधर्म विवेक का भाव क्षात्र धर्म के नीचे दब जाता है, यहाँ तक होता है कि जिस पुरोहित को राज्य की ओर से शांति और प्रेम के भाव का प्रचार करने के लिये वृत्ति मिलती है या यह काम उसका सहज कर्म होता है उसे भी अपना धर्म त्याग देना पड़ता है और अपने भाइयों का कत्ल करने के लिये कसाई बन जाना पड़ता हैं इस प्रकार के लड़ाकू राज्य के आदेश द्वारा धर्माधर्म विवेक और मनुष्य के विशिष्ट स्वभाव का ही उल्लंघन होता हो सो नहीं, बल्कि राष्ट्र संरक्षण का भाव बढ़ते-बढ़ते उन्माद की हद तक पहुँच जाता है और उसका वह राष्टृ संरक्षण राष्ट्रीय आत्महत्या में बदल जाने का उत्कट प्रयास होता है।

 

इसके विपरीत भारतीय संस्कृति का यह मुख्य लक्ष्य था कि युद्ध और उससे होने वाला अनर्थ और विनाश, जहाँ तक हो सके, कम-से-कम हो। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये भारतीय समाज व्यवस्था में क्षात्र-धर्म समाज [8]के एक ऐसे छोटे से वर्ग के लोगों में ही परिसीमित कर दिया गया था जो अपने जन्म, स्वभाव और परंपरा से इस कर्म के लिये विशेष उपयुक्त थे और इस कर्म में उनके साहस, की अनुशासित शक्ति, उनकी परोपकारपरायणता, उनकी वीरतापूर्ण महानता आदि गुणों की वृद्धि होकर उनका आत्म-प्रस्फुटन होता था और फलतः वह जीवन उनके आत्म-विकास का एक साधन होता था, क्योंकि किसी उच्च आदर्श को सामने रखकर जो लोग योद्धा-जीवन बिताते हैं उनके आत्म-विकास के लिये यह जीवन एक क्षेत्र और अवसर बन जाता है। इस प्रकार के कर्म के जो अधिकारी थे उन्हीं के जिम्मे यह युद्ध-कर्म कर दिया गया था अन्य लोग इससे बरी थे, मारकाट और लूटमार से उनकी हर तरह से रक्षा की जाती थी, उनका जीवन और जीविका यथा संभव इससे अलग ही रखे जाते थे। मानव-स्वभाव में युद्ध और संहार करने की जो प्रवृत्तियां होती हैं उनका क्षेत्र मर्यादित कर दिया गया था, उनकी एक जातिविशेष के अंदर ही हद बांध दी गयी थी। इसके साथ ही युद्ध का जैसा उच्च नैतिक आदर्श था और धर्म युद्ध के जो मनुष्योचित वीर और उदात्त नियम थे उनसे युद्ध योद्धाओं को क्रूर नरपशु बनाने का निमित्त नहीं बल्कि उन्नत और उदार बनाने का कारण होता था।

यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि गीता जो युद्ध करने को कहती है वह ऐसा ही युद्ध था और इन्हीं अवस्थाओं के अंतर्गत लड़ा जाता था, वह युद्ध जो मानव- जीवन का एक अपरिहार्य अंग माना जाता था, पर वह इतना मर्यादित ओर संयमित था कि अन्य कर्मों के समान यह कर्म भी मनुष्य के नैतिक और आध्यात्मिक विकास में सहायक होता था। और यह नैतिक और आत्मिक विकास ही उस काल में जीवन का एकमात्र और वास्तविक लक्ष्य था, वह युद्ध कतिपय छोटे से दायरों के अंदर ही व्यक्तियों के जीवन का संहार-कार्य करता था किंतु इस प्रकार के युद्ध द्वारा योद्धा के आंतरिक जीवन का गठन होता था और जाति की नैतिक उन्नति भी। [9]पूर्वकाल में उस उच्च आदर्श को सामने रखकर जो युद्ध किये जाते थे उनसे उत्कर्ष ही साधित होता था। यह बात चाहे चरमपंथी दुराग्रही शांतिवादी स्वीकार करें, पर शौर्य और वीरता को युद्ध ने ही विकसित किया है, भारत का क्षात्र-धर्म और जापान का सामुराई-धर्म युद्ध के ही फल है। हां, अपना काम कर चुकने के बाद भले ही युद्ध संसार से विदा हो जाये; कारण इसकी उपयोगिता समाप्त हो जाने पर भी यदि यह बने रहना चाहे तो यह हिंसा की एक अप्रशमित क्रूरता के रूप में ही प्रकट होगा और क्योंकि इसमें युद्ध का आदर्श और संगठनात्मक पहलू होगा ही नहीं, इसलिये मनुष्य का प्रगतिशील मन इसको त्याग देगा। परंतु विकास के इतिहास को यदि विवेकपूर्वक देखें तो पूर्वकाल में युद्ध ने मनुष्यजाति की जो सेवा की है उसे स्वीकार करना ही होगा।

युद्ध का भौतिक तत्त्व जीवन के एक सर्वसामान्य तत्त्व की विशेष और बाह्म अभिव्यक्तिमात्र है और मानव-जीवन की पूर्णता के लिये जिस वैशिष्टय की आवश्यकता है क्षत्रिय उसकी एक बाह्म अभिव्यक्ति और नमूना है। हम लोगों के क्या आंतरिक और क्या बाह्म दोनों ही प्रकार के जीवन में, संघर्ष का जो पहलू है वही एक विशिष्ट भौतिक आकार धारण करके युद्ध के रूप में प्रकट होता है। यह संसार संघर्ष का क्षेत्र है, यहाँ का तरीका है कि विभिन्न शक्तियां एक-दूसरे से टकराती और भिडती हैं और इस तरह परस्पर संहार के द्वारा एक ऐसे सतत परिवर्तनशील सामंजस्य की ओर आगे बढती है जो स्वयं किसी प्रगतिशील सुसंगति- साधन का द्योतक है तथा पूर्ण समन्वय की आशा[10] दिलाता है, और इसका आधार है एकता की एक एसी निहित संभावना जो अभी तक पकड़ में नहीं आयी हैं। क्षत्रिय, मनुष्य में विद्यमान योद्धा का प्रतीक और मूर्त रूप है। वह इसे अपने जीवन का सिद्धांत बना लेता है ओर योद्धा के नाते युद्ध का सामना करता हुआ विजय के लिये यत्न करता है, मानव शरीरों और रूपों का संहार करने में तो वह नहीं हिचकता, पर इस संहार-कर्म में उसका लक्ष्य होता है किसी ऐसे सत्य, न्याय और धर्म के सिद्धांत की उपलब्धि जो उस सामंजस्य की बुनियाद हो सके जिसकी ओर यह सारा संघर्ष प्रवाहित हो रहा है।

 

 

गीता विश्व-ऊर्जा के इस पहलू को तथा युद्ध के भौतिक तथ्य-को जो इस पहलू का मूर्त रूप है-स्वीकार करती है और एक क्षत्रिय को संबोधित करती है अर्थात् उस मनुष्य को जो कर्मशील, उद्योगी और योद्धा है-यह युद्ध अंदर शांति और बाहर अहिंसा रखने की अंतरात्मा की उच्च अभीप्सा से एक दम विपरीत है और जिस योद्धा को गीता उपदेश देती है उसके कार्य और संघर्ष की आवश्यक हलचल अंतरात्मा के शांत प्रभुत्व और आत्म-अधिकृति जैसे आदशों के सर्वथा विपरीत मालूम होती है। ऐसी परस्पर-विरोधी अवस्थाओं में से गीता एक रास्ता निकालने और एक ऐसे स्थल पर पंहुचाने का प्रयास करती है जहाँ दोनों बातें बराबर होकर मिल जायें और वह संतुलित अवस्था हो जाये जो सामंजस्य और परा-स्थिति का मूल और पहला आधार हो। मनुष्य जीवन-संग्राम का सामना अपनी प्रकृति के सर्वोपरि मूलभूत गुण के अनुरूप ही किया करता है; सांख्य सिद्धांत के अनुसार-जो इस प्रसंग में गीता को भी मान्य है- विश्व-ऊर्जा के, और इसलिये मानव-स्वभाव के भी, तीन मूलभूत तत्त्व या गुण है।

 

सत्त्व संतुलित अवस्था, ज्ञान और संतोष का गुण है; रज प्राणावेग, कर्म एव द्वंद्वमय भावावेग का और तम अज्ञान तथा जड़ता का। मनुष्य में जब तमोगुण की प्रधानता होती है तब वह अपने चारों ओर चक्कर काटने वाली और अपने ऊपर धमकने-वाली जगत्-शक्तियों के वेगों और धक्कों का उतना सामना नहीं करता, क्योंकि उनके सामने वह हिम्मत हार जाता, उनके प्रभाव में जाता, शोकाकुल हो जाता और उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता है; अथवा अधिक-से-अधिक अपने अन्य गुणों से मदद पाकर किसी तरह बचे रहना चाहता है, जब तक टिक सके तब तक टिका रहना चाहता है, किसी ऐसे आचार-विचार से बंधे जीवन क्रम के गढ़ में छिपकर अपनी जान बचाना चाहता है जिसमें पहुँचकर वह अपने आपको किसी अंश में इस संग्राम से बचा हुआ समझे और यह समझे कि उसकी उच्चतर प्रकृति उससे जो कुछ मांग रही है उसे वह अस्वीकार कर सकेगा तथा इस संघर्ष को और आगे बढ़ाने और एक वर्धमान प्रयास एवं प्रभुत्व के आदर्श को चरितार्थ करने की मेहनत से मुक्त हो सकेगा। रजोगुण की जब प्रधानता होती है तो मनुष्य अपने आपको युद्ध में झोंक देता है और शक्तियों का सघर्ष का उपयोग अपने ही अहंकार के लाभ के लिये अर्थात् विरोधी को मारने- काटने, जीतने, उस पर प्रभुत्व पाने और जीवन का भोग करने के लिये करता है; अथवा अपने सत्त्वगुण से कुछ मदद पाकर इस संघर्ष को अपनी आंतरिक प्रभुता, अंत सुख शक्ति-संपति बढ़ाने का साधन बना लेता है।

जीवन-संग्राम [11]उसके आनंद और नशे की चीज बन जाता है, इसका कारण कुछ तो यह होता है कि संघर्ष करना उसका स्वभाव होता है, इस तरह कर्मण्यता में उसे सुख मिलता है और उसको अपनी शक्ति का अनुभव होता है और कुछ अंश में यह उसकी बृद्वि और स्वाभाविक आत्मविकास का साधन होता है। जब सत्त्वगुण की प्रधानता होती है तब मनुष्य संघर्ष के बीच धर्म, सत्य, संतुलित अवस्था, समन्वय, शांति, संतोष का कोई तत्त्व ढूंडा करता है। विशुद्ध सात्त्विक मनुष्य इसी का अनुसंधान अपने अंदर करता रहता है, चाहे केवल अपने लिये ही करे अथवा यह भाव चित्त में रखे कि जब चीज हासिल होगी तब वह दूसरों को भी दी जायेगी, किंतु यह काम साधारणतया सक्रिय जगत्-शक्ति के झगड़े और कोलाहल से निर्लिप्त होकर अथवा बाह्मतः उनका त्याग करके किया जाता है; पर सात्त्विक मनुष्य जब अंशतः राजसी वृत्ति स्वीकार करता है तो वह इसको संघर्ष और बाहरी गड़बड़झाले के ऊपर संतुलित अवस्था और सामंजस्य को लादने के लिये, युद्ध, अनबन और संघर्ष पर शांति, प्रेम और सामंजस्य को विजय दिलाने के लिये करता है।

 

जीवन-समस्या को हल करने के लिये मनुष्य का मन जोजो ढंग अख्तियार करता है चाहे सब ढंग इन्ही गुणों में से किसी एक गुण की प्रधानता से या इन गुणों के बीच संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने के प्रयत्न से ही उत्पन्न होते हैं। परंतु एक ऐसी अवस्था आती है जब मन इस सारी समस्या से ही फिर जाता है और प्रकृति की तीन अवस्थाओं या त्रैगुण्य से प्राप्त होने वाले उपायों से असंतुष्ट होकर किसी ऐसे हल को ढूढ़ने लगता है जो त्रैगुण्य से परे या ऊपर हो। मन किसी ऐसी चीज में भाग जाना चाहता है जो गुणों के बाहर हो या जो समस्त गुणों से सर्वथा रहित और इसलिये कर्मरहित हो, अथवा किसी ऐसी चीज में जाना चाहता है जो इन तीनों गुणों से श्रेष्ठ हो ये गुण जिसके वश में हों, इसलिये वहाँ पहुँचकर वह कर्म भी कर सके और उसे अलिप्त और अप्रभावित भी रह सके, यानी निर्गुण या त्रिगुणातीत अवस्था में पहुँचाना चाहता है, निरपेद्वा शांति और निरूपाधि स्थिति के लिये अथवा प्रबल स्थिरता और श्रेष्ठतर स्थिति के लिये अभीप्सा करता है। इनमें से पहले भाव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है संन्यास की ओर और दूसरे भाव की प्रवृत्ति होती है प्रकृति की मांगों तथा उसकी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के चक्कर पर प्रभुत्व प्राप्त करने की ओर, और इसका सिद्धांत होता है समता की स्थापना तथा आवेशों और कामना का आंतरिक त्याग।

अर्जुन के चित्त में पहले वही पहला आवेग [12]हुआ था जिसके कारण कुरुक्षेत्र में, अर्थात युद्ध और हत्याकांड के घोर संहार-क्षेत्र में अपने वीर कर्म की दु:खद पराकाष्ठा से उसका मन फिर गया, अब तक उसका जो कर्म-संबधी सिद्धांत था यह लुप्त हो गया और उसको ऐसा बोध होने लगा कि अकर्म अर्थात् जीवन और जीवन की मांगों का त्याग ही एकमात्र उपाय है। परंतु भगवान् गुरु की वाणी उसे जो कुछ करने को कहती है वह जीवन और कर्म का बाह्म संन्यास नहीं है, बल्कि उन पर आंतरिक प्रभुता की स्थापना है। अर्जुन क्षत्रिय है, एक ऐसा रजोगेणी पुरुष है जो अपना राजसिक कर्म एक उच्च सात्त्विक आदर्श से नियत करता है। इस भीषण सग्राम में, कुरुक्षेत्र के इस महासमर में वह युद्ध का हौंसला लेकर, रणरंग में मस्त होकर आया है, उसे अपने पक्ष के न्यापूर्ण होने का साभिमान विश्वास भी है, वह अपने तेज रथ पर बैठकर शत्रुऔं के बीच हृदयों को अपने युद्ध शंख के विजय निनाद से दहलाता हुआ आगे बढ़ता है; क्योंकि वह देखना चाहता है कि उसके विरुद्ध खड़े होकर अधर्म का बल बढ़ाने और धर्म, न्याय और सत्य को कुचलकर उनके स्थान में स्वार्थी और उद्दंढ अहंकार की प्रभुता स्थापित करने कौन-कौन राजा आये हैं।

 

पर उसका यह विश्वास चूर-चूर हो गया और वह अपने सहज-स्वभाव से तथा जीवन-संबंधी अपने मानसिक आधर से एक भीषण आघात खाकर गिर पडा; इसका कारण यह हुआ कि राजसिक अर्जुन में तमोगुंण की एक बाढ़ गयी और इसने उसको आश्चर्य, शोक, भय, निरूत्साह, विषद, मन की व्याकुलता और अपने ही तर्को के परस्पर- संग्राम द्वारा व्यथित कर इस कार्य से मुहं मोड़ने के लिये उकसाया और वह अज्ञान और जड़ता में ढूब गया। परिणाम यह हुआ कि वह संन्यास की और मुड़ा। वह सोचने लगा कि इस क्षात्र-धर्म से जिसका फल अविवेक पूर्ण संहार है, प्रभुता, यश और अधिकार के सिद्धांत से होने वाले नाश और रक्तपात से, रक्तरंजित सुखभोग से, न्याय और धर्मविरोधी उपायों से सत्य और न्याय की स्थापना करने से, और एक ऐसे युद्ध के द्वारा सामाजिक विधान की रक्षा करने से जो समाज की प्रक्रिया और परिणाम का विरोधी हो-इन सबकी अपेक्षा तो भीख मांगकर जीने वाले भिक्षुक का जीवन भी अच्छा है। संन्यास का अर्थ है जीवन और कर्म तथा प्रकृति के त्रिगुण का त्याग, किंतु इस त्रिगुण में से किसी एक गुण के द्वारा ही संन्यास की ओर जाना होता है।

संन्यास की ओर जाने का आवेग तामसिक हो सकता है, अर्थात् क्लीवता, भय, विद्वेष, जुगुप्सा, जगत् और जीवन से त्रास अनुभव होता हो; अथवा हो सकता है कि यह तम की ओर झुका हुआ राजसिक गुण हो, अर्थात् संघर्ष से थकावट मालूम पडने लगी हो, शोक छा गया हो, निराशा उत्पन्न हो गयी हो और कष्ट तथा अनंत असंतोष से भरे हुए कर्म के इस व्यर्थ के हुल्लड़ को स्वीकार करने से जी ऊब गया हो; अथवा हो सकता है कि यह सत्य की ओर झुका राजसिक आवेग हो, अर्थात् यह जीवन जो कुछ दे सकता है उससे किसी श्रेष्ठ वस्तु तक पहुँचने, किसी उच्चतर अवस्था पर विजय प्राप्त करने, समस्त बंधनों को तोड़ने वाली और समस्त सीमाओं को पार करने वाली किसी आंतरिक शक्ति के पैरों तले स्वयं जीवन को ही कुचल डालने का आवेग उठा हो; अथवा हो सकता है कि यह सात्त्विक हो [13]अर्थात् जीवन की निस्सारता का और इस जगत्-जीवन के, किसी सच्चे लक्ष्य या औचित्य के बिना ही, निरंतर चक्कर काटते रहने का एक बौद्धिक आभास हुआ हो या फिर उस सनातन, अनंत, निश्चलनीरव, नाम-रूप-रहित परात्पर शांति का कोई आध्यात्मिक अनुभव हुआ हो और इसलिये जगत्जीवन और कर्म से संन्यास ले लेने का आवेग उठा हो।

अर्जुन को जो विराग हुआ है वह सत्य की ओर प्रवृत रजोगुणी पुरुष का कर्म से तामस विराग है। गुरु चाहे तो उसे इसी रास्ते पर स्थिर कर सकते हैं, इसी अंधेरे दरवाजे से विरक्त जीवन की शुद्धता और शांति में उसे प्रविष्ट कर सकते हैं; अथवा इस वृत्ति को तुरंत शुद्ध करके वे उसे संन्यास की सात्त्विक प्रवृति के अतिउच्च शिखरों पर चढ़ा सकते हैं। पर वास्तव में वे इन दोनों में से एक भी नहीं करते। गुरु उसके तामस विराग और संन्यास ग्रहण करने की प्रवृति से उसका चित फेरते हैं और कर्म को ही जारी रखने के लिये कहते हैं और वह भी उसी भीषण और घोर कर्म को। परंतु इसके साथ ही इसे एक दूसरे और ऐसे आंतरिक वैराग्य का निर्देश करते हैं जो उसके संकट का सच्चा निराकरण है, और जो विश्व प्रकृति पर जीवन की श्रेष्ठता स्थापित करने का रास्ता है और यह होते हुए भी मुनष्यों को स्थिर और आत्म-अधिकृत कर्म में प्रवृत्त रखता है। शारीरिक नहीं, बल्कि आंतरिक तपस्या ही गीता में अभिप्रेत है।

 



[1] कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः

ऋतेऽपि त्वां भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥11.32

 

[2] हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥      

 देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

गोस्वामी तुलसीदास (श्री रामचरित मानस)

 

[3] आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षु: परात्मन:

विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन केशवम् श्री मदभागवत ११..४७

 

शब्दार्थ: :—जो; आशुशीघ्रता से; हृदय-ग्रन्थिम्हृदय की गाँठ को (भौतिक देह से झूठी पहचान); निर्जिहीर्षु:—काटने का इच्छुक; परात्मन:—दिव्य आत्मा का; विधिनाविधानों से; उपचरेत्उसे पूजा करनी चाहिए; देवम्भगवान्; तन्त्र- उक्तेनतंत्रों द्वारा वर्णित; तथा (वेदोक्तम के अतिरिक्त); केशवम्भगवान् केशव को .

[4] लब्ध्वानुग्रह आचार्यात् तेन सन्दर्शितागम:

महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयात्मन: श्री मदभागवत ११..४८

 

शब्दार्थ : लब्ध्वाप्राप्त करके; अनुग्रह:—कृपा; आचार्यात्गुरु से; तेनउसके द्वारा; सन्दर्शितदिखाया जाकर; आगम:—वैष्णव तंत्रों (द्वारा दी गई पूजा-विधि); महा-पुरुषम्परम पुरुष को; अभ्यर्चेत्शिष्य को चाहिए कि पूजे; मूर्त्याविशेष साकार रूप में; अभिमतयाजिसे अच्छा समझा जाय; आत्मन:—अपने से

 

[5] एवमग्न्यर्कतोयादावतिथौ हृदये :

यजतीश्वरमात्मानमचिरान्मुच्यते हि : ॥ श्री मदभागवत ११.. ५५

 

शब्दार्थ: एवम्इस तरह; अग्निअग्नि; अर्कसूर्य; तोयजल; आदौइत्यादि में; अतिथौमेहमान में; हृदयेहृदय में; भी; :—जो; यजतिपूजा करता है; ईश्वरम्ईश्वर को; आत्मानम्परमात्मा; अचिरात्बिना विलम्ब किये; मुच्यतेछूट जाता है; हिनिस्सन्देह; :—वह .

 

[6] क्षुत्तृट्त्रिकालगुणमारुतजैह्वशैष्णानस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित्

क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गोर्मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति श्री मदभागवत ११.. ११

 

शब्दार्थ: क्षुत्भूख; तृट्प्यास; त्रि-काल-गुणकाल की तीन अवस्थाओं की अभिव्यक्ति (यथा गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि); मारुतहवा; जैह्वजीभ का भोग; शैष्णान्तथा शिश्न के; अस्मान्हम; अपारअसंख्य; जल-धीन्समुद्र; अतितीर्यपार करके; केचित्कुछ मनुष्य; क्रोधस्यक्रोध का; यान्तिप्राप्त करते हैं; विफलस्यजो कि व्यर्थ है; वशम्वेग को; पदेपाँव या खुर (के चिह्न) में; गो:—गाय के; मज्जन्तिडूब जाते हैं; दुश्चरकर पाना कठिन; तप:— तपस्या; तथा; वृथाव्यर्थ; उत्सृजन्तिवे फेंक देते हैं .

[7] दूरे हरिकथा: केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तना:

स्त्रिय: शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥ श्री मदभागवत ११..  

 

शब्दार्थ : दूरेबहुत दूर; हन्-कथा:—भगवान् हरि की बातों से; केचित्कई लोग; दूरेकाफी दूर; तथा; अच्युतत्रुटिरहित; कीर्तना:—कीर्ति; स्त्रिय:—स्त्रियाँ; शूद्र-आदय:—शूद्र तथा अन्य पतित जातियाँ; तथा; एवनिस्सन्देह; तेवे; अनुकम्प्या:—अनुग्रह के पात्र हैं; भवादृशाम्आप जैसे व्यक्तियों के .

[8] विप्रो राजन्यवैश्यौ वा हरे: प्राप्ता: पदान्तिकम्

श्रौतेन जन्मनाथापि मुह्यन्त्याम्नायवादिन: श्री मदभागवत ११..

 

शब्दार्थ: विप्र:—ब्राह्मण; राजन्य-वैश्यौराजसी वर्ग तथा वैश्य लोग; वाअथवा; हरे:—हरि के; प्राप्ता:—निकट जाने की अनुमति दिये जाने पर; पद-अन्तिकम्चरणकमलों के पास; श्रौतेन जन्मनावैदिक दीक्षा का द्वितीय जन्म प्राप्त कर चुकने पर; अथतत्पश्चात्; अपिभी; मुह्यन्तिमुग्ध हो जाते हैं; आम्नाय-वादिन:—अनेक दर्शनों को स्वीकार करते हुए .

[9] श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया

त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा

जातस्मयेनान्धधिय: सहेश्वरान्

सतोऽवमन्यन्ति हरिप्रियान् खला: श्री मदभागवत ११..

 

शब्दार्थ : श्रियाअपने ऐश्वर्य (सम्पत्ति आदि) द्वारा; विभूत्याविशिष्ट क्षमताओं द्वारा; अभिजनेनउच्च कुल से; विद्ययाशिक्षा से; त्यागेनत्याग से; रूपेणसौन्दर्य से; बलेनबल से; कर्मणाकर्म द्वारा; जातउत्पन्न; स्मयेनऐसे गर्व से; अन्धअन्धा हुआ; धिय:—बुद्धि वाला; सह-ईश्वरान्भगवान् सहित; सत:—सन्त स्वभाव वाले भक्तगण; अवमन्यन्तिअनादर करते हैं; हरि-प्रियान्भगवान् हरि के प्रियजनों को; खला:—दुष्ट व्यक्ति .

 

[10] सर्वेषु शश्वत्तनुभृत्स्ववस्थितं

यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम्

वेदोपगीतं ृण्वतेऽबुधा

मनोरथानां प्रवदन्ति वार्तया श्री मदभागवत ११.. १०

 

शब्दार्थ : सर्वेषुसमस्त; शश्वत्नित्य; तनु-भृत्सुदेहधारी जीवों में; अवस्थितम्स्थित; यथाजिस तरह; खम्आकाश; आत्मानम्परमात्मा को; अभीष्टम्अत्यन्त पूज्य; ईश्वरम्परम नियन्ता को; वेद-उपगीतम्वेदों द्वारा प्रशंसित; भी; शृण्वतेनहीं सुनते हैं; अबुधा:—अज्ञानीजन; मन:-रथानाम्मनमाने आनन्द के; प्रवदन्तिपरस्पर विवाद करते जाते हैं; वार्तयाकथाएँ .

 

[11] धनं धर्मैकफलं यतो वै ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति

गृहेषु युञ्जन्ति कलेवरस्य मृत्युं पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम् श्री मदभागवत ११.. १२

 

शब्दार्थ : धनम्धन; भी; धर्म-एक-फलम्धार्मिकता ही, जिसका एकमात्र उचित फल है; यत:—जिस (धार्मिक जीवन) से; वैनिस्सन्देह; ज्ञानम्ज्ञान; -विज्ञानम्प्रत्यक्ष अनुभूति सहित; अनुप्रशान्तितथा तदुपरान्त कष्ट से मोक्ष; गृहेषुअपने घरों में; युञ्जन्तिउपयोग करते हैं; कलेवरस्यअपने भौतिक शरीर का; मृत्युम्मृत्यु; पश्यन्तिनहीं देख सकते; दुरन्तदुर्लंघ्य; वीर्यम्जिसकी शक्ति

 

[12] द्विषन्त: परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम्

मृतके सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहा: पतन्त्यध: श्री मदभागवत ११.. १५

 हित्वात्ममायारचिता गृहापत्यसुहृत्स्त्रिय:

तमो विशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराङ्मुखा: श्री मदभागवत ११.. १८

 

शब्दार्थ: द्विषन्त:—द्वेष करते हुए; पर-कायेषुअन्यों के शरीरों के भीतर (आत्माएँ); स्व-आत्मानम्अपने आपको; हरिम् ईश्वरम्भगवान् हरि को; मृतकेलाश में; -अनुबन्धेअपने सम्बन्धियों समेत; अस्मिन्इस; बद्ध-स्नेहा:—स्थिर स्नेह वाले; पतन्तिगिरते हैं; अध:—नीचे की ओर ; हित्वात्याग कर; आत्म-मायापरमात्मा की माया द्वारा; रचिता:—तैयार किये गये; गृहघर; अपत्यबच्चे; सुहृत्मित्र; स्त्रिय:—पत्नियाँ; तम:—अंधकार में; विशन्तिप्रवेश करते हैं; अनिच्छन्त:— चाहते हुए; वसुदेव-पराक्-मुखा:— भगवान् वासुदेव से मुख फेरने वाले .

 

[13] स्वपादमूलं भजत: प्रियस्य त्यक्तान्यभावस्य हरि: परेश:

विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद् धुनोति सर्वं हृदि सन्निविष्ट: श्री मदभागवत ११.. ४२

 पुंसोऽयुक्तस्य नानार्थो भ्रम: गुणदोषभाक्

कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा श्री मदभागवत ११..

 

शब्दार्थ: स्व-पाद-मूलम्भक्तों के शरण, कृष्ण के चरणकमल; भजत:—पूजा में लगा हुआ; प्रियस्यकृष्ण को अत्यन्त प्रिय; त्यक्तत्यागा हुआ; अन्यदूसरों के लिए; भावस्यस्वभाव वाले का; हरि:—भगवान्; पर-ईश:—भगवान्; विकर्मपापकर्म; यत्जो भी; तथा; उत्पतितम्घटित; कथञ्चित्जैसे-तैसे; धुनोतिहटाता है; सर्वम्समस्त; हृदिहृदय में; सन्निविष्ट:—प्रविष्ट ; पुंस:—व्यक्ति का; अयुक्तस्यजिसका मन सत्य से पराङ्मुख है; नानाअनेक; अर्थ:—अर्थ; भ्रम:—सन्देह; :—वह; गुणअच्छाई; दोषबुराई; भाक्देहधारण किये; कर्मअनिवार्य कर्तव्य; अकर्मनियत कर्तव्यों का किया जाना; विकर्मनिषिद्ध कर्म; इतिइस प्रकार; गुणअच्छाइयाँ; दोषबुराइयाँ; धिय:—अनुभव करने वाले की; भिदायह अन्तर

 


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