शंका निरसन

 



प्रश्न- मैं आपका शिष्य हूँ, मुझ शरणागत को आप शिक्षा दीजिये- इस कथन का क्या भाव है?


उत्तर- अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के प्रिय सखा थे। आध्यात्मिक तत्त्व की बात दूसरी हो सकती है, परंतु व्यवहार में अर्जुन के साथ भगवान् का प्रायः सभी स्थलों में बराबरी का ही सम्बन्ध था। खाने, पीने, सोने और जाने-आने में सभी जगह भगवान् उनके साथ समान बर्ताव करते थे और भगवान् के श्रेष्ठत्व के प्रति मन में श्रद्धा और सम्मान होने पर भी अर्जुन उनके साथ बराबरी का ही व्यवहार करते थे। आज अर्जुन को अपनी ऐसी शोचनीय दशा देखकर यह अनुभव हुआ कि मैं वस्तुतः इनसे बराबरी करने योग्य नहीं हूँ। बराबरी में सलाह मिलती है, उपदेश नहीं मिलता; प्रेरणा होती है, बलपूर्वक अनुशासन नहीं होता। मेरा काम आज सलाह और प्रेरणा से नहीं चलता। मुझे तो गुरु की आवश्यकता है जो उपदेश करे और बलपूर्वक अनुशासन करके श्रेय के मार्ग पर लगा दे तथा मेरे शोक-मोह को सर्वथा नष्ट करके मुझे परमकल्याण की प्राप्ति करवा दे और श्रीकृष्ण से बढ़कर गुरु मुझे कौन मिल सकता है। परंतु गुरु की उपदेशामृतधारा तभी बरसती है, जब शिष्यरूपी क्षेत्र उसे ग्रहण करने के लिये प्रस्तुत होता है।


इसीलिये अर्जुन कहते हैं- ‘भगवन्! मैं आपका शिष्य हूँ।’ शिष्यों के कई प्रकार होते हैं। जो शिष्य उपदेश तो गुरु से ग्रहण करते हैं परंतु अपने पुरुषार्थ का अहंकार रखते हैं; या अपने सद्गुरु को छोड़कर दूसरों पर भरोसा रखते हैं, वे गुरुकृपा का यथार्थ लाभ नहीं उठा सकते। अर्जुन इसीलिये शिष्यत्व के साथ ही अपने में अनन्यशरणत्व की भावना करके कहते हैं कि भगवन्! मैं केवल शिष्य ही नहीं हूँ, आपके शरण भी हूँ। ‘प्रपन्न’ शब्द का भावार्थ है- भगवान् को अत्यन्त समर्थ और परमश्रेष्ठ समझकर उनके प्रति अपने को समर्पण कर देना। इसी का नाम ‘शरणागति’, ‘आत्मनिक्षेप’ या ‘आत्मसमर्पण’ है। भगवान् सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, अनन्तगुणों के अपार समुद्र, सर्वाधिपति, ऐश्वर्य, माधुर्य, धर्म, शौर्य, ज्ञान, वैराग्य आदि के अनन्त आकर, क्लेश, कर्म, संशय और भ्रमादि का सर्वथा नाश करने वाले, परम प्रेमी, परम सुहृद्, परम आत्मीय, परम गुरु और परम महेश्वर हैं - ऐसा विश्वास करके अपने को सर्वथा निराश्रय, निरवलम्ब, निर्बुद्धि, निर्बल और निःसत्त्व मानकर उन्हीं के आश्रय, अवलम्ब, ज्ञान, शक्ति, सत्त्व और अतुलनीय शरणागत-वत्सलता का दृढ़ और अनन्य भरोसा करके अपने को सब प्रकार से सदा के लिये उन्हीं के चरणों पर न्योछावर कर देना और निर्निमेष नेत्रों से उनके मनोनयनाभिराम मुखचन्द्र की ओर निहारते रहने की तथा जड़ कठपुतली की भाँति नित्य-निरन्तर उनके संकेत पर नाचते रहने की एकमात्र लालसा से उनका अनन्यचिन्तन करना ही भगवान् के प्रपन्न होना है।


अर्जुन चाहते हैं कि मैं इसी प्रकार भगवान् के शरण हो जाऊँ और इसी भावना से भावित होकर वे कहते हैं- ‘भगवन्! मैं आपका शिष्य हूँ और आपके शरण हूँ, आप मुझे शिक्षा दीजिये।’ ‘ते’ और ‘त्वाम्’ पदों का प्रयोग करके अर्जुन यही कह रहे हैं। अर्जुन की यह शरणागति की सर्वोत्तम और सच्ची भावना जब अठारहवें अध्याय के पैंसठवें और छाछठवें श्लोकों में भगवान् के सर्वगुह्यतम उपदेश के प्रभाव से सच्ची शरणागति के रूप् में परिणत हो जायगी और अर्जुन जब अपने को उनके कथानानुसार चलने के लिये तैयार कर सकेंगे, तभी गीता का उपदेश समाप्त हो जायगा। वस्तुतः इसी श्लोक से गीता की साधना का आरम्भ होता है, यही उपदेश के उपक्रम का बीज है और ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ श्लोक में ही इस साधना की सिद्धि है, वही उपसंहार है। इस प्रकार शिक्षा देने के लिये भगवान् से प्रार्थना करके अब अर्जुन उस प्रार्थना का हेतु बतलाते हुए अपने विचारों को प्रकट करते हैं-


 

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।

अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ।। 8 ।।


क्योंकि भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सकें ।। 8 ।।

प्रश्न- इस श्लोक में अर्जुन के कथन का क्या भाव है?


उत्तर- पूर्व श्लोक में अर्जुन ने भगवान् से शिक्षा देने के लिये प्रार्थना की है, इसलिये यहाँ यह भाव प्रकट करते हैं कि आपने पहले मुझे युद्ध करने के लिये कहा है; किंतु उस युद्ध का अधिक-से-अधिक फल विजय प्राप्त होने पर इस लोक में पृथ्वी का निष्कण्टक राज्य पा लेना है और विचार करने पर यह बात मालूम होती है कि इस पृथ्वी के राज्य की तो बात ही क्या, यदि मुझे देवताओं का आधिपत्य भी मिल जाय तो वह भी मेरे इस इन्द्रियों को सुखा देने वाले शोक को दूर करने में समर्थ नहीं है। अतएव मुझे कोई ऐसा निश्चित उपाय बतलाइये जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर करके मुझे सदा के लिये सुखी बना दे।


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