चंदन सुकुमार सेनगुप्ता
काफ़ी दिनों के सघन और व्यस्त कार्यकाल बिताने के बाद कभी कभी ऐसा लगने लगता है कि पलटकर पीछे भी देख लेना चाहिए ताकि उन दिनों के अनुभवों और संवादों से हमें भी कुछ सीखने का मौका मिले | वैसे पुराणों और आगमों से हम यही पाते हैं कि व्यक्ति जीवन भर कुछ न कुछ सीखते ही रहता है | कभी कभी सीखने से ज़्यादा हम सिखाने में समाधान पाते हैं और हमारा ऐसा स्वाभाव बन जाता है की हम धीरज से दूसरों की बात सुन भी नहीं पाते | अब तो यह भी लगने लगा है कि काम बहुत है और समय कम है | पूज्य बाबा के कृपा से जितना भी कर सकूँ वो मुझे धन्य करने वाला ही होगा | गीता तो हमारे धमनियों के प्रवाह में है; प्रत्येक बिंदु में ही उसका शंखनाद हो ही जाता है |
काम तो अपने आप ही होता रहेगा ; हम करें या न करें | यह तो हमारा ही सौभाग्य है कि हमें कुछ भूमिकाएँ मिल रही है | जहाँ विचार और मान्यता का सम्मेलन होता है वहाँ तो कारनामों में गति आना अनिवार्य ही है | मैं उस पानी का ही हिस्सा बन चुका हूँ जिसका प्रवाह एक अनिवार्य नियती है और उसके ज़रिए हमें सर्व शक्तिमान के सान्निध्य का भी दर्शन होता ही रहेगा | हर एक सबेरा उस ईष्ट के चिंतन से शुरू हो और उस ईष्ट पर ही जाकर विराम लगे तो सब मंगलमय होनेवाला है | हम तो उस मैत्री के मंगल विचार के पथिक हैं जहाँ सर्वोदय विचार का पौधा पनपता है | मार्ग तो कई हो सकते हैं पर अंतिम पड़ाव तो एक ही है |
पातन्जल योग प्रदीप में स्वाध्याय का बहुत ही सटीक और संतुलित चित्रण किया गया है | इसे सिर्फ़ खुद के कुछ पढ़ने लिखने के साथ न जोड़कर समग्र रूप से खुद के अध्ययन से जोड़ा गया और इसमें लगने वाले सभी व्यक्तित्व विकास पर्याय को एक एक पड़ाव माना गया | हम कभी कभी इस भ्रम में रहते हैं कि जो कुछ हमारी ओर से किया जा रहा है वह ही सही है और अन्य सभी के द्वारा सदैव ग़लत ही किए जा रहे हैं | यहाँ तक कि हम यह भी चाहते हैं कि लोग सिर्फ़ हमारी बात सुनें और अन्य किसी की बात न सुनें | इसी भ्र्म से खुद को बाहर निकालने के लिए और स्व को एक सही परिप्रेक्ष्य में सन्दर्भ के साथ संतुलन बनाकर रखते हुए कार्यरत रहने के लिए स्वाध्याय को एक मुख्य पड़ाव माना गया | हम यह भी देखते हैं स्वाध्याय को महर्षि पतंजलि ने शौच, संतोष, तपस्या और ईश्वर प्रणिधान के साथ एक नियम के रूप में रखा है | स्वाध्याय को नित्य चलनेवाली क्रिया माना गया और इस क्रिया को नित्य चलाने के लिए व्यक्ति को सतत क्रियाशील रहने की ज़रूरत है | सरल भाषा में स्वाध्याय को मन का पोषण भी कह सकेंगे | स्वाध्याय का एक व्यापक अर्थ है : स्व का अध्ययन; अर्थात खुद के मानसिक, बौद्धिक, अध्यात्मिक और नैतिक मापदंडों का निरंतर अध्ययन करते रहना और ज़रूरत के मुताबिक उसमें कांक्षित सुधार आदि करते रहना | इसका अर्थ यह भी नहीं लगाया जा सकता कि हमें सिर्फ़ धार्मिक ग्रंथों का ही अध्ययन करते रहण है, यह भी नहीं कि हम सिर्फ़ मंगल विचारों पर ही मनन चिंतन करते रह जाएँ |
कुछ लोगों का यह मानना है कि विद्यालय शिक्षा को सजाने संवारने से ही समुदाय को समुचित मात्रा में शिक्षित किया जा सकेगा ; अन्यथा हमें संसार में और विश्व व्यापार में पिछड़ते हुए देखा जाएगा | वास्तविकता तो यह भी है कि भारत ने आज तक किसी भी देश पर आक्रमण नहीं किया और न ही विस्तार वाद के समीकरण से ग्रस्त रहा | कई प्रांतों से अन्य समुदाय के लोग ही भारत भूमि की ओर कदम बढ़ाते रहे और यहाँ के वातावरण से एकरूप होने का प्रयास करते रहे |
स्वाध्याय के स्वरूप का उद्घाटन करते हुए संत कहते हैं:
ज्ञानभावनालस्यत्याग: स्वाध्याय:। स्वस्मै हितोऽध्याय: स्वाध्याय:।
स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च।
अर्थात, आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है। अपने आत्मा का हित करने वाला अध्ययन करना स्वाध्याय है। तत्त्वज्ञान को पढ़ना, पढ़ाना, स्मरण करना आदि स्वाध्याय है।
अनेकांत परंपरा में भी स्वाध्याय की महिमा
को भली भाँति रेखांकित किया गया है |
“परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहया य धम्मकहा।
थु तिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्झाओ।393। (मूलाचार)”
पढ़े हुए ग्रंथ का पाठ करना, वाचन-व्याख्यान
करना, पृच्छना-शास्त्रों के अर्थ को किसी दूसरे से पूछना, अनुप्रेक्षा-बारंबार शास्त्र
का मनन करना, धर्मकथा-त्रेसठ शलाका पुरुषों का चारित्र पढ़ना ये पाँच प्रकार का स्वाध्याय
मुनि देव वंदना मंगल सहित करना चाहिए।
वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा,
आम्नाय और धर्मोपदेश यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय है | किसी भी तत्व को भावरहित होकर
सिर्फ़ सुन लेने का नाम स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता | मनन, चिंतन, विचार और तत्व चिंतन
को विवेक का समुचित आधार चाहिए | इस कड़ी में बचपन की एक घटना याद आ रही है जिसे यहाँ
उपस्तापित करना शायद समीचीन हो: घर में पूजा पाठ के लिए एक पुजारी जी आए थे | पूजा
करते समय कुछ मंत्रों के बोलते समय ग़लतियाँ पकड़ी जा रही थी | उसी समय परिवार के कुछ
सदस्यों ने उन्हें रोकना चाहा और परिवार के वरिष्ठ जनों के पास शिकायत करने लग गये
| वरिष्ठ जनों का एक ही तर्क था ; उच्चारण या ग़लतियों से हमें कोई मतलब नहीं है और
ऐसा होना भो नहीं चाहिए | पुजारी जी जिस काम के लिए आए हैं वो तो पूरा करना ही होगा
| बेहतर हो मंत्रों को दोहराते समय हम ही उसे सही करके पढ़ें न कि ग़लतियाँ निकालते
रहें | ग़लतियों को निकालने में कोई अपनी शान
न समझे ; बल्कि ग़लतियों को सही करके पढ़ने में ही सही समाधान होना चाहिए | हम यह भी
न समझें कि हमारे हर कारनामों में ग़लतियों का प्रमाण न के बराबर है | हमारी अज्ञानता
के दायरे में ग़लतियों का होना एक स्वाभाविक बात है | एस परिस्थिति से उभरने के लिए
भी हम स्वाध्याय का सहारा लें यही कांक्षित हो | हम जिस समुदाय में अपनी सहभागिता सुनिश्चित
करते रहेंगे उस समुदाय में भी हमें अपनी भूमिका के आधार पर स्वाध्याय प्रक्रिया को
अनजाम देते रहना होगा | इस दृष्टि से भी हमें स्वाध्याय को एक निरंतर चलते रहनेवाली
सतत अनुक्रिया के रूप में ही समझना होगा; और उसे एक अवश्य पालनीय व्रत के रूप में अपनाना
होगा, मान्य करना होगा |
स्वाध्याय को छोड़कर अन्य नियमों का कोई अलग अहमियत निकालना संभव ही नहीं हो पाएगा | इसका यही कारण है कि हमने फिर स्वाध्याय का सहारा लेकर ही आगे बढ़ने का सोच लिया | स्वाध्याय के बिना कभी भी हम उन विश्लेषणों को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकेंगे | स्वाध्याय के ज़रिए हम दूसरों से भी काफ़ी कुछ सीख सकते हैं, यहाँ तक कि सीखे हुए अनुभवों से दूसरों को भी समृद्ध कर सकते हैं | स्वाध्याय का यह पर्याय एक निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया का ही हिस्सा है | कैसे भी करें और किसी भी पर्याय तक उसे जारी रखने का प्रयास करें स्वाध्याय सर्वदा जीवन का मार्ग प्रशस्त ही करता रहता है न कि बाधाएँ उत्पन्न करता है | वेद, उपनिषद्, पुराण और अन्य सभी धर्म ग्रंथ सिर्फ़ इसी क्रम में बनाए गये साहित्य और सहायक सामग्री का हिस्सा है जिसमें अन्य गुणी जनों के अनुभवों और सीख को दर्ज किया गया है | धर्मप्राण व्यक्ति अपने उसी स्वाध्याय से जीवन के राहों को और शंका निरसनों को अंजाम देते रहते हैं |
सिर्फ़ पढ़ने मात्र से या मनन करने मात्र से कोई स्वाध्याय हो गया ऐसा भी नहीं कह सकते | हमारे मन को निर्मल करे और आत्म शुद्धि का प्रयास करे तभी उसे स्वाध्याय माना जाएगा न कि ज़रूरत से ज़्यादा पढ़ने को | स्वाध्याय से यह अर्थ कर लेना कदापि उचित नहीं होगा कि इसके ज़रिए हम ज्ञान के चरम उत्कर्ष तक पहुँच सकेंगे | ज्ञान के चरम उत्कर्ष तक पहुँचने के मार्ग और उस मार्ग पर चल पड़ने की पात्रता रखनेवाले अभ्यासुओं के बारे में वेद- उपनिषदों में जगह जगह पर कई उपाख्यान, कथा, कहानी आदि के ज़रिए दर्शाया गया और आधुनिक अभ्यासक भी उस ओर हमारा ध्यान केंद्रित कराने का प्रयास करते रहे हैं |
कठोपनिषद में नचिकेता और यमराज के बीच हुए संवाद की कथा काफ़ी प्रसिद्ध है | नचिकेता के पिता विश्वजीत यज्ञ करते समय बूढ़ी और लाचार गायों को दान में दे रहे थे | पुत्र को यह लगने लगा कि इस प्रकार के दान से पिता को उतना पुण्य नहीं मिल सकता जितना कि एक प्रिय वस्तु दान करने से व्यक्ति हासिल कर सकता है | अतः नचिकेता यह ज़िद करने लगा कि पिता अपने प्रियतम वस्तु दान में दें | पिता भी क्रोध वश कह बैठे : "जा तुझे मैं यमराज को दान में दे दिया |"
ऐसा सुनते ही नचिकेता, पिता का आदेश शिरोधार्य करते हुए , यमराज के द्वार पर आ गये और उनसे मिलने के लिए इंतजार करते रहे | उन्हें तीन दिन तक अनाहार ही इंतजार करना पड़ा | इस घटना से यमराज काफ़ी प्रभावित हुए और नचिकेता को तीन वरदान माँगकर वापस चले जाने के लिए कहा | नचिकेता सबसे पहले अपने पिता के लिए यश और कीर्ति का वरदान माँग लिया और साथ ही साथ यह माँगा कि जब वह घर वापस पहुंचे तो उसके पिता उसे स्वीकार करें एवं उसके पिता का क्रोध शांत हो। दूसरे वरदान में नचिकेता ने जानना चाहा कि क्या देवी-देवता स्वर्ग में अजर एवं अमर रहते हैं और निर्भय होकर विचरण करते हैं! अगर यह संभव भी है तो वो किस प्रकार से संभव हो रहा है ? नचिकेता के जिज्ञासा को शांत न कर पाने की स्थिति में यमराज ने उसे अग्नि ज्ञान दिया, जिसे व्याख्याता और ज्ञानी जन नचिकेताग्नि भी कहते हैं।
बालक यहीं शांत नहीं हुआ , उसने फिर पूछा : “सुना है कि आत्मा अजर-अमर है। मृत्यु एवं जीवन का चक्र चलता रहता है। लेकिन आत्मा न कभी जन्म लेती है और न ही कभी मरती है। इस मृत्यु एवं जन्म का रहस्य क्या है?”
यहाँ भी यमराज अपने तर्क से उस बालक के जिज्ञासा को प्रशमित करने का प्रयास करते रहे | जो लोग आत्मा को मारने वाला या मरने वाला मानते हैं, वे असल में आत्मा को नहीं जानते और भटके हुए हैं। शरीर के नाश होने के साथ जीवात्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। एक ही परमात्मा से जन्म लेने वाले देव, असुर और मनुष्य भी भगवान को अलग-अलग मानते हैं और अलग मानकर ही पूजा करते हैं। नचिकेता के साथ संवाद के ज़रिए यमराज ने नचिकेता को आत्मज्ञान दिया।
यह विषय सिर्फ़ नचिकेता के ज्ञानवान होने तक सीमित न रखते हुए हमारी अनुसन्धित्सा बढ़ाती चली जा रही है और बार बार हमें अपने संकुचित विचारधारा से निकलकर अग्रज की भूमिका निभाने हेतु प्रोत्साहित कर रही है |
प्राचीन समय में मद्रदेश (वर्तमान सियालकोट) में शाकलवंशी अश्वपति नामक एक राजा पुत्र की कामना से सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली सावित्री (गायत्री) की आराधना करने लगे। सावित्री (गायत्री देवी) की कृपा से सर्वांग सुंदरी कन्या की प्राप्ति हुई | उस बालिका का नाम भी “सावित्री” ही रखा गया | कालक्रम में “सावित्री” के जीवन में भी स्वयंवर का मुहूर्त आया और उसे योग्य पति चुने जाने के लिए कहा गया | उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण कर लिया। सावित्री की दृष्टि में उसका चुनाव सही था क्यूंकी सत्यवान धर्मात्मा थे , पर साथ ही साथ अल्पायु भी थे | ऐसा पता चला कि एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी | यह जान जाने के बाद भी सावित्री ने अपना निर्णय न बदलते हुए सत्यवान को ही जीवन साथी के रूप में स्वीकार कर लिया | उन दिनों अपना राज्य और नेत्रज्योति खो चुके राजा द्युमत्सेन अपनी रानी और राजकुमार सहित एक वृक्ष के नीचे कुटिया बनाकर रहते थे। राजा अश्वपति विवाह का सारा सामान और कन्या को लेकर वृद्ध सचिव सहित उस वन में गये और जहाँ विधि-विधानपूर्वक सावित्री और सत्यवान का विवाह कर दिया गया। वन में रहते हुए अत्यंत कष्ट पाकर भी सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। जब सत्यवान के जीवन का अंतिम समय नज़दीक आ गया तब सावित्री ने ससुर से आज्ञा लेकर त्रिरात्र व्रत के लिए तैयारी करने लगी | सफलतापूर्वक व्रत रखते हुए जब चौथा दिन आ गया तब सावित्री अपने पति को किसी भी काम के लिए अकेला छोड़ना नहीं चाह रही थी | जब सत्यवान ने लकड़ी, फूल और फल लाने के लिए जंगल की ओर प्रस्थान किया तब सावित्री भी पति के साथ उस भयंकर जंगल में चल पड़ी |
वन में लकड़ी काटते समय सत्यवान तीव्र पीड़ा का अनुभव करने लगे | थकान अनुभव करते हुए सत्यवान सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गये | उसी समय उस जगह पर पीताम्बर धारी यमराज उपस्थित हुए और सत्यवान के जीवन के अंतिम घड़ी के बारे में बताते रहे | उनके पीछे मृत्यु सहित काल भी था। धर्मराज ने उस स्थान पर पहुँच कर उस समय सत्यवान के शरीर से प्राण को अलग करके उस स्थान से दूर चल पड़े अपने प्रियतम पति को प्राणरहित देखकर सावित्री जाते हुए धर्मराज के पीछे-पीछे चली और काँपते हुए ह्रदय से अपने दोनों हाथ जोड़कर बोली – " माता की भक्ति से इस लोक, पिता की भक्ति से मध्यम लोक और गुरु की भक्ति से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। जो इन तीनों का आदर करता है, उसने मानो सभी धर्मों का पालन कर लिया ऐसा मान लेना चाहिए | इसके विपरीत अगर ऐसा धर्माचरण कोई न कर सके तो उसके सारे कर्म माता, पिता और गुरु इन्हीं तीनों में समाप्त हो जाते हैं।"
सावित्री के ऐसा कहने पर भी यमराज उसे लौट जाने का ही परामर्श दिया और खुद सत्यवान को जीवनहीन करके चलते रहे |
सावित्री फिर बोली – ” स्त्रियों का पति ही देवता है, इसलिए साध्वी स्त्रियों को अपने पति का अनुगमन करना चाहिए। यही धर्माचरण है और शुद्धाचार भी | स्त्री के जीवन में पति अपरिमित संपत्ति का दाता है। भला ऐसे पति की कौन स्त्री भक्ति नहीं ! अतः मुझे भी वहीं ले चलिए जहाँ पातिदेव को लिए जा रहे हैं |
जब यमराज ने सावित्री से वरदान माँगने के लिए कहा तब उसने सबसे पहले अपने धर्म पिता के लिए जो उचित था वही माँगते हुए बोली – "जो राज्य से च्युत हो गए हैं तथा जिनकी आँखों की ज्योति चली गयी है, ऐसे मेरे महात्मा धर्म पिता को राज्य तथा नेत्रज्योति प्रदान कीजिये।"
यमराज के साथ संवाद करते करते सावित्री काफ़ी दूर निकल आई थी | यहाँ से वापस चले जाने के लिए यमराज बार बार बोलते रहे | सत्यवान के प्राण को वापस माँगने के विषय से ध्यान भटकाने के लिए और उसके मन को शांत करने के उद्देश्य से यमराज सावित्री से और वरदान माँगने के लिए कहने लगे | अपने सौ सहोदर भाई की अभिलाषा रखनेवाली सावित्री तदनुरूप वरदान पाकर भी यमराज के पीछे चलने लगी और यह तर्क देने लगी कि सतपुरुष का मार्ग अनुसरण करने में व्यक्ति के जीवन में कभी थकान नहीं आ सकता और उसे किसी प्रकार के पीड़ा का अनुभव होगा | यज्ञ, तप, दान, इन्द्रियनिग्रह, क्षमाशीलता, ब्रह्मचर्य, सत्य, तीर्थों की यात्रा, स्वाध्याय, सेवा, सत्संग, देवार्चन, गुरुजनों की सेवा तथा ब्राह्मणों की पूजा -- इन सत्कर्मों के ज़रिए व्यक्ति धर्मोपार्जन कर लेता है और उस धर्मोपार्जन के ज़रिए ही अग्रज बनता है | व्यक्ति जहाँ कहीं भी जाए उसका धर्म ही उसके साथ जाता है न कि प्रतिष्ठा, यश, संपदा और धन | कहते हैं तीनों लोकों में किसी पुत्र हीन व्यक्ति की सदगति नहीं होती | आख़िर सावित्री ने एक ऐसा वरदान माँग लिया जिसके बारे में स्वयं धर्मराज भी किसी भी प्रकार से प्रस्तुत नहीं थे | सावित्री ने कहा – ” देव ! मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ | “
इस वरदान को यशस्वी बनाने का आशय लेकर सावित्री को पुनः वापस जाने के लिए कहने लगे |
आखरी वरदान को यशस्वी करने के लिए और सावित्री के ज्ञान से संतुष्ट होकर अंततः धर्मराज के पपास से सत्यवान के प्राण को मुक्ति मिली और सावित्री को अपना पति वापस मिला |
ज्ञान का भंडार कभी न ख़त्म होनेवाला है और इसमें निरंतर बढ़त हो रही है | जानकारी पप्रत कर लेने का नाम ज्ञान ऐसा भी नहीं कहा जा सकता | हमें जानकारी प्राप्त करते हुए उस जानकारी से जुड़े हुए समझदारी के क्षेत्र क्षेत्र का निर्माण हो यही अपेक्षित हो सकता और इस दिशा में ही एक अभ्यासू को काम करना होगा | प्रश्न यह भी उठता है कि जिस ज्ञान की बात हम करने जा रहे हैं और जिसके साथ ज्ञान और भक्ति के समन्वय की विवेचना समय समय पर आनेवाली है उस विवेचना को अधिकाधिक पुष्ट करने के निमेटत् से हमें कई कथा , कहानी और उपाख्यान की चर्चा समय समय पर करते रहना होगा | सिर्फ़ इतना ही नहीं उन सभी विमर्शों और चर्चाओं में से शिक्षणीय बिंदुओं अलग करके स्वाध्याय की कड़ी को भी एक सही स्वरूप देना होगा | लोग कहते हैं कि अपने ही देश में कोई एक क्रांतिकारी ऐसे भी हुए जिनके व्यक्तिगत संग्रह में कई हज़ार ग्रंथ जमा हो चुके थे | कुछ ऐसे भी संत हुए जिन्होंने सिर्फ़ एक ही ग्रंथ को जीवन का अंश बना लिए और उसीसे जनता जनार्दन की सेवा करते रहे | ईश्वर के स्वरूप से एकरूप हो जानेवाले महात्माओं के लिए हज़ारों ग्रंथ के अरबों पन्नों कोई आवश्याकता शायद ही हो |
स्वाध्याय के क्रम में व्यक्ति का अहंकार, दंभ, ख़ुदगरजी आदि कई बाधाएँ उत्पन्न हो सकते हैं | उन सभी बाधाओं से खुद को बचाते हुए हमें स्वाध्याय को एक व्रत के रूप में स्वीकारना होगा | तपस्या, ईश्वर के प्रति अनुराग और अंतर मन की स्वच्छता सिर्फ़ स्वाध्याय पर ही निर्भर करता है |
विचार के साथ अर्थ ( पैसा , सम्पद, ज़मीन आदि
) का रिश्ता ही कुछ अजीब सा है | लोग पैसों के बल पर हर एक को झुका देने की तमन्ना रखते हैं | कभी कभी उन्हें इतिहास के पन्नों से सीख लेते हुए अपनी भूमिका तय करना होगा | हम सब यह भली भाँति जानते हैं कि एक लुटेरा जब भारत से लूट का पैसा लेकर जा रहा था तो वह अपने ही साथियों के हाथों मारा गया | वो पैसा आख़िर किसी के भी काम न आ सका | अगर किसी को यह लगता है कि मंगल विचार के धनी सिर्फ़ पैसों के लिए काम करेंगे तो उन्हें अनति विलंब अपना विचार बदलते हुए यह समझ लेना हूगा कि पैसों की ओर भागने वाला व्यक्ति मंगल और क्रांतिकारी विचार का धनी कदापि नहीं हो सकता | जिन संस्थाओं के पास पैसे, ज़मीनें और इमारतें आ चुकी है उन्हें लगता है कि अब दुनिया को किसी भी तरफ मोड़ सकेंगे और जनता जनार्दन को उनके पास आना ही होगा | उन संस्था प्रमुखों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि क़ानून का शिकंजा कभी भी कसा जा सकता है और किसी लोकतांत्रिक ढाँचों में इसकी संभावना कुछ ज़्यादा ही रहेगी | अतः कुछ ऐसा संतुलन बनाकर संस्थाओं को चलना होगा जिससे जनता जनार्दन के बीच उन संस्थाओं के चलते किसी प्रकार का रोष उत्पन्न न हो | एक ऐसी भी संस्था के बारे में पता चला जिन्होंने अपने ही कार्यकर्ताओं को काफ़ी अपमानित करके उनकी भावनाओं को कुचलकर काम से निकाल बाहर करने का निर्णय लिया | कभी कभी हमें भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है; ताकि कोई व्यक्ति आवेश में आकर कोई ग़लत कदम न उठा ले | जिन कार्यकर्ताओं को निकाला गया उनमें से अधिकांश लोगों का नौकरी पाने का उम्र ही निकल चुका था और वो न तो नई व्यवस्था में ढलने के लिए मानसिक रू से तैयार थे | इसका यह अर्थ भी नहीं है कि संस्थाओं को कामगार लोगों की संख्या में कटौती करने का कोई हक ही नहीं है | संस्था उन अधिकारों का उपयोग करते समय वयक्ति की भावनाओं का भी यथोचित सम्मान करे | किसी नौकर के अपमानजनक कारनामों का असर संस्था प्रमुख और उनके साथ जुड़े लोगों की प्रतिष्ठा को भी चपेट में ले सकता है | और यह एक प्रकार की मूर्खता ही है जिसके बदौलत कोई संस्था बने बनाए कुशल कार्यकर्ताओं को छोड़ दे |
कार्यकर्ता निर्माण
अपने देश में ऐसे और भी संस्थाओं का परिचय हमें मिलता है जिनका मुख्य काम ही है कार्यकर्ता निर्माण | उनके पास कई युवा जीवन की तलाश में आते हैं और उनमें से कई पूर्ण रूप से जुड़ जाते हैं और ध्येय मार्ग पर अडिग भी रहते हैं | उन संस्थाओं की प्रगति इन दिनों तीव्र गति पर है और धीरे धीरे भारत के प्रत्यन्त भागों तक फैल रही है | इसको किसी दबी पाँव चलनेवाले तूफान से भी तुलना कर सकते हैं जिसमें खर पतवारों के साथ साथ बड़े पेड़ पौधों को भी उड़ा ले जाने की असीम शक्ति है; उनका भान भी कुछ इस प्रकार का ही है | इस बात से समझदार लोगों को एक तो मौका मिल ही जाएगा कि वो अपने बिखरे हुए वस्तुओं को समेटकर उस तीव्र तूफान के वापस जाने का इंतजार करते रहें या फिर खुद को किसी सुरक्षित जगह पर स्थानांतरित कर लें | नासमझ और घमंडी लोगों के लिए आने वाला काल और अधिक विकराल होने जा रहा है |
संस्था का प्रमुख काम ही है विचार का संकर्षन और उस विचार पर चल पड़ने वाले लोगों का संरक्षण |
कभी बंगाल के एक आश्रम से एक युवा सन्यासी यह कहकर निकल गये कि उन्हें उपयाचक और परिव्राजक
का जीवन बिताना है | उपयाचक का अर्थ हुआ किसी से कुछ न माँगना और परिव्राजक
से उनका अभिप्राय था कहीं भी ज़्यादे दिन का प्रवास न करना | उन्होंने गुरु माँ से अनुमति माँगकर निकलने का फ़ैसला भी कर लिया | सबसे ज़्यादा चिंता उस गुरु माँ को होने लगी; कारण था कि जिस देश में बिना माँगे पानी भी नहीं मिलता उस देश में कहीं इस युवा का हौसला न टूट पाए | उस यूवा का आश्रम से निकल आने का कारण तो कुछ और ही था | कभी कभी हमें कड़वाहट
को गुप्त रखना होता है ताकि लोगों की भावनाओं को अनावश्यक ठेस न पहुँचे | इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि हमारे किसी कारनामे से दूसरों की प्रगति बाधित न हो | कभी कभी दूरियाँ बना लेना मंगलकारक भी होता है | उस युवा सन्यासी ने आश्रम से दूरी इसलिए भी बना लिया था ताकि और साथियों को काम करने का अनुभव प्राप्त हो और उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारियों से नवाजा जा सके |
हर समय संकट की बात करें और समाधान का कोई सूत्र न हो ऐसा कभी हो ही नहीं सकता | हम जिस व्यवस्था से निकलकर आते हैं हमारी मानसिकता और दैनिक व्यवहार भी उसी के मुताबिक बन जाता है , और फिर उसमें आधुनिकता का कुछ अंश मिल जाता है | कोई सूचना और प्रौद्योगिकी का विद्यार्थी एक सरलता और सादगी का जीवन जी रहा है इस बात से लोग परेशान हो उठते हैं और कभी कभी ऐसा उन्हें यकीन भी नहीं होता | जाहिर सी बात लोग किसी भी स्थिति का जायजा अपने नज़रिए से ही लेते हैं और उन्हें उसी नज़रिए से समाधान सूत्र भी दिखने लगता है | आधुनिक प्रबंधन विज्ञान कहता है कि जिसे जिस प्रकार की भूख लगी उसे उसी प्रकार का भोजन दिया जाय नहीं तो विरोध का बादल मंडराने लगेगा | पर सर्वोदय का विज्ञान इससे बिल्कुल ही अलग है : प्रबंधन को तभी कारगर और यशस्वी माना जाएगा जब परिसर में रहने वाले जानवर तक को भोजन और आसरा मिले | महात्मा का भी इसी से मिलता जुलता एक विचार था कि किसी परिसर में अहिंसा की प्रतिष्ठा है कि नहीं इसका पता लगाने के लिए हमें वहाँ रहनेवाले जानवरों और उनके साथ किए जाने वाले व्यवहारों को देखकर पता चलता है |
आत्म प्रत्यय का विज्ञान यह कहता है कि प्रयास करते रहना है | निरंतर प्रयास करते रहने से शत्रु
का भी दिल जीता जा सकेगा | उसी आत्म प्रत्यय से अर्जुन को सारथि के रूप में श्री कृष्ण का साथ मिला और उतनी बड़ी सेना को परास्त करने में कामयाब हुए | मौके मिलते रहें और निरंतर समय जाता रहे यह भी संतोष पाने लायक नहीं हो सकता | लंका नरेश रावण के सामने उसी के उपास्य देवता का रुद्र अवतार जीवन बचाने के उद्देश्य से समझाने आया और घमंड के बादलों से घिरे रावण को नियती के कराल ग्रास से बच नहीं पाया | उस समय कई ऐसे भी दिन बीत रहे थे जब रावण नर्ताकियों और किन्नरों से घिरा रहता था और मर्यादा
पुरुषोत्तम घास के मखमली विस्तर पर चंद्रमा को निहारते हुए निद्रा विहीन रातें बिताया करते थे | बजरंगी के पराक्रम और उनके शौर्य, धैर्य के पहिए वाले धर्म रथ ने उन्हें विजय श्री दिलवाया |
कभी कभी हम यह भी समझ नहीं पाते कि अगर संहार वृत्ति का प्रयोग करना भी रहा तो यह कैसे समझ लें कि वो समय अब आ चुका! जब हमारे
देश में आश्रम परम्परा
का विद्यालय चलता था उन दिनों एक आश्रम के कुछ विद्यार्थियों को नज़दीक के गाँव में एक कुटिया में आग की चिंगारी दिखी
| उन्होंने अपने गुरु को बताया और उन्हें लगा कि गुरुदेव तुरंत ही आग बुझाने के काम में जुट जाने का आदेश देंगे | पर गुरुदेव ग्रामींन के संकुचित वृत्ति से भली भाँति परिचित थे | उन्होंने इंतजार करने और स्थिति का जायज़ा लेते रहने के लिए कहा और खुद भी जागे रहे , और दूर से ही सही उस घटना को निहारते रहे | आग और बढ़ी, तब भी गुरुदेव चुप रहे और अन्य शिक्षुओं से भी चुप्पी बनाए रखने के लिए कहा | जब ग्रामीणों के बीच से "बचाओ, बचाओ " ऐसी पुकार आने लगी तब गुरुजी खुद कमर कसकर दौड़ पड़े, जाहिर सी बात थी कि उनके सभी विद्यार्थी साथ हो लिए | पूरी प्रक्रिया और आग बुझाने का काम पूरा होने के बाद जब विद्यार्थियों ने गुरुजी के ऐसे काम करने का कारण पूछा तो शिक्षक बोले , "लोगों की सामान्य वृत्ति का ही फल है कि उनके मन में किसी के भी प्रति सहज रूप से संदेह पैदा हो
जाया करता है | अगर उन्हें नींद से उठाकर हम कहें कि हम उनके इमारत में लगे आग को बुझाने आए हैं तो उनके मन में हमारे ऐसा करने को लेकर संदेह पैदा होगा | उन्हें ऐसा भी लग सकता है कि हम कुछ चोरी करने आए हैं और आग लगने का बहाना बना रहे हैं | बुलावा आने से हमारा वहाँ जाना यह हमारा एक सहज मानव धर्म है | "
सहज़ीवन की कला से भी हम यही सीखते हैं कि मदद माँगे जाने पर मुँह नहीं मोड़ना चाहिए | हमें हमारी हैसियत के मुताबिक लोगों तक मदद का हाथ बढ़ा देना चाहिए | संस्था को अगर समाज के लिए बनाया गया होगा तो उस संस्था को समाज से हटकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए | कभी कभी संस्था चालकों में भी वैचारिक मतभेद पनपने लगता है और उन्हें लगता है कि संस्था की हर गतिविधि से आमदनी हो | अगर आम के पेड़ से फल पाते पाते हमें यह लगने लगे कि उसकी जड़ों को भी निकाल लें और किसी न किसी काम में लगा डालें तो यह हमारी वैचारिक दीनता समझी जाएगी न कि सैद्धांतिक परिपक्वता | हम कभी कभी शराफ़त का चोला पहनकर कड़वाहट से दूर भागना चाहते हैं, पर कभी परछाईं व्यक्ति का साथ नहीं छोड़ता ; अतः हमें दोनों को साथ लेकर ही एक निर्णायक की भूमिका में खरा उतरना होगा | अगर हम उस नेतृत्व शक्ति के आदि न बन पाते हों तो तुरंत उस व्यवस्था और परिसर से हट जाना होगा | यही वक्त की नज़ाकत होने के साथ साथ सार्विक समाधान का सूत्र भी है | जीवन में स्वाध्याय की अहमियत सिद्ध होती है |
समत्व बुद्धि
हम कर्म ,ज्ञान और भक्ति तीनों को ही जीवन का अभिन्न अंश मान लेते हैं और उसी त्रिवेणी के आधार पर जीवन की धारा एक निरंतरता के साथ तबतक गतिशील रह सकेगी जबतक कि अंतिम पड़ाव न आ जाए; यह एक ऐसी अवस्था है जिसके आधार पर हम जीवन के अन्य सभी समीकरणों को बदलता हुआ देख सकेंगे | कर्म से यही आशय है जो व्यक्ति को ध्येय मार्ग पर डटे रहने के लिए प्रेरित करे और एक निरंतरता भी प्रदान करे ; अपितु यह भी सुनिश्चित करे कि व्यक्ति एक ऐसे आनंदमय पल का साक्षात्कार कर सके जहाँ बंधन मुक्ति का आस्वाद एक भक्त के हृदय में पनपनेवाले भक्ति की धारा को समपृक्त करे और ज्ञनगनी दग्ध कर्म में सदा लगे रहने के लिए भक्त वत्सल का उत्साह वर्धन करे | हम जिस परिस्थिति को समत्व बुद्धि कहते हैं वह असल में चित्त के अविचल स्थिति को दर्शाते हुए साधक को ध्येय और विधायक कर्म में लगे रहने की प्रेरणा देते रहेगी; अग्रज की भूमिका में बने रहने के लिए भी अनुकूलता का निर्माण करेगी और चित्त की स्थिरता को सुनिश्चित करेगी; ऐसा करते हुए व्यक्ति को यह भी महसूस करने में सहायक होगी जिसके आधार पर दिव्य पुरुष और देवत्व को काफ़ी करीब से पूर्णतः अनुभव किया जा सके; उस सनातन सत्ता के साथ एकरूपता को समझा जा सके; सूक्ष्म अनुभूति में सर्वशक्तिमान परमेश्वर की उपस्थिति को प्रत्यक्ष किया जा सके; उसके द्वारा नियंत्रित विधायक कर्म के सिद्धांत को जागतिक घटनाक्रम के सन्दर्भ में परखा जा सके | शास्त्रों में जिस समत्व का विधान स्थान स्थान आर प्रतिपादित हुआ है उसे जागतिक परिप्रेक्ष्य में काफ़ी उच्च कोटि के नियामक होते रहनेवाले अध्यात्मिक सत्ता के साथ तुलना कर सकेंगे जिसे आधार मानकर चित्त, बुद्धि और मन की सार्विक स्थिरता को परखी जा सके | उस स्थिरता के संवर्धन में साधु महात्मा के तपोबल का सम्मेलन, आत्म तृप्ति का संचरण; कर्म, भक्ति और ज्ञान के सम्मिलित प्रयत्न से विधायक क्रिया को अनजाम देते रहने का प्रयास; इंद्रिय पीड़न से चित्त, मन और बुद्धि को मुक्त रख पाने का कौशल आदि सभी विषय भगवत अनुकम्पा के अधीन घटित हनेवाले घटनाक्रम के रूप में ही मान्य हो सकेगा|
इस समत्व के क्रमिक प्रगति के बल पर सिर्फ़ देवत्व गुणों के उत्कर्ष से ही परिचित होने का अवसर नहीं मिलता, अपितु उस निष्ठा और सजग विवेक के साथ साथ ईश्वर अनुराग के तरंग को पैदा होते हुए, विचरित होते हुए और क्रियाशील रहते हुए भी समझा जा सकेगा; उस समझ के आधार पर भगवत अनुराग के ध्येय मार्ग की रचना हो सकेगी; निश्चित ध्येय मार्ग पर चल पड़ने की प्रेरणा का उद्भव होगा; प्रेरक प्रसंगों के अनुसार मन और चित्त की परिपूर्णता बनेगी; समय और ऊर्जा की गति के साथ तालबद्ध रहते हुए विधायक कर्म में लगे रहने का आग्रह पैदा होगा; समयानुवर्ती सृष्टि और विनाश के चक्र को समझा जा सकेगा; उस विरोधाभाषी कालचक्र से मुक्त हो पाने की उत्कंठा भी बनेगी | हम यह भी उम्मीद नहीं रख सकते कि सभी व्यक्ति पूर्णतः विवेकवान रहते हुए सभी विधायक कर्म और कर्तव्य निष्ठा का धनी होते हुए हर प्रकार से समग्रता को आधार मानकर कर्तव्य पथ पर बने रहें | कई ऐसी परिस्थितियों का भी निर्माण होता रहता है जिस परिस्थिति के मद्दे नज़र व्यक्ति इंद्रिय उत्पीड़न का शिकार हो जाते हैं और ध्येय मार्ग से भटक भी जाते हैं | कभी कभी यह भी परिलक्षित होता है कि संत महात्मा सभी भटके हुए भक्तों को ध्येय मार्ग पर वापस लाने का प्रयास करते रहते हैं, यह भी प्रयास करते रहते हैं कि सबका मंगल हो और सबको सुख मिले; सभी भक्त वत्सल का संरक्षण हो; सबके विवेक को जाग्रत और समृद्ध किया जा सके; सर्व कल्याण के लिए सर्वोदय के विज्ञान को प्रत्यक्ष किया जा सके |
यह एक संकुचित विचारधारा के अनुरूप अनुक्रमण का नतीजा है जिसके आधार पर लोग स्वर्ग सुख, धन आहरण, प्रतिष्ठा आदि विविध अध्रुव विषयों के आवेश में आ जाते हैं, ईश्वर अनुराग, ज्ञान, भक्ति आदि ध्रुव से नाता टूटता रहता है और ध्येय मार्ग से स्खलित हो जाते हैं | निरंतर परिवर्तन शीलता का ही नतीजा है कि निम्न और मध्यम स्तर के साधक अहम के आवेश में आकर राजस और तमस वृत्ति का संवर्धन कर बैठते हैं और शाश्वत् ब्रह्म की करीबी ; जहाँ से जीव के अस्तित्व में आने और देदीप्यमान होने की अनुक्रिया चलती हो; उसका अनुभव ही नहीं कर पाते |
. कामनामय व्यक्ति के कामना पूर्ति चरितार्थ करने लायक विधायक कर्म से अध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति और क्रमोन्नति दिलाने लायक कर्म उतना भी कठिन नहीं माना जाता; न ही अध्यात्म कर्म में इंद्रिय उत्पीड़न या कार्मेन्द्रिय के स्खलित होने की कोई संभावना बनेगी |