नित्य अनित्य



अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलऽयं सनातनः ।। 24 ।।


अर्थ- यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहने वाला सब में परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाव वाला और अनादि है।


व्याख्या- [ शस्त्र आदि इस शरीरी में विकार क्यों नहीं करते- यह बात इस श्लोक में कहते हैं।]


‘अच्छेद्योऽयम्’- शस्त्र इस शरीरी का छेदन नहीं कर सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि शस्त्रों का अभाव है या शस्त्र चलाने वाला अयोग्य है, प्रत्युत छेदनरूप क्रिया शरीरी में प्रविष्टि ही नहीं हो सकती, यह छेदन होने के योग्य ही नहीं है।


शस्त्र के सिवाय मंत्र, शाप आदि से भी इस शरीरी का छेदन नहीं हो सकता है। जैसे, याज्ञवल्क्य के प्रश्न का उत्तर न दे सकने के कारण उनके शाप से शाकल्य का मस्तक कटकर गिर गया[1]। इस प्रकार देह तो मंत्रों से, वाणी से कट सकता है, पर देही सर्वथा अछेद्य है।


‘अदाह्योऽयम्’- यह शरीरी अदाह्य है; क्योंकि इसमें जलने की योग्यता ही नहीं है। अग्नि के सिवाय मंत्र, शाप आदि से भी यह देही जल नहीं सकता। जैसे, दमयन्ती के शाप देने से व्याध बिना अग्नि के जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार अग्नि, शाप आदि से वही जल सकता है, जो जलने योग्य होता है। इस देही में तो दहन-क्रिया का प्रवेश ही नहीं हो सकता।


‘अक्लेद्यः’- यह देही गीला होने योग्य नहीं है अर्थात इसमें गीला होने की योग्यता ही नहीं है। जल से एवं मंत्र, शाप, औषधि आदि से यह गीला नहीं हो सकता। जैसे, सुनने में आता है कि ‘मालकोश’ राग के गाये जाने से पत्थर भी गीला हो जाता है; चंद्रमा को देखने से चंद्रकांतमणि गीली हो जाती है। परंतु यह देही राग-रागिनी आदि से गीली होने वाली वस्तु नहीं है।


‘अशोष्यः’- यह देही अशोष्य है। वायु से इसका शोषण हो जाए, यह ऐसी वस्तु नहीं है; क्योंकि इसमें शोषण क्रिया का प्रवेश ही नहीं होता। वायु से तथा मंत्र, शाप, औषधि आदि से यह देही सूख नहीं सकता। जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्र का शोषण कर गये, ऐसे इस देही का कोई अपनी शक्ति से शोषण नहीं कर सकता।


‘एव च’- अर्जुन नाश की संभावना को लेकर शोक कर रहे थे। इसलिए शरीरी को अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहकर भगवान ‘एव च’ पदों से विशेष जोर देकर कहते हैं कि यह शरीरी तो ऐसा ही है। इसमें किसी भी क्रिया का प्रवेश नहीं होता। अतः यह शरीरी शोक करने योग्य है ही नहीं।


‘नित्यः’- यह देही नित्य-निरंतर रहने वाला है। यह किसी काल में नहीं था और किसी काल में नहीं रहेगा- ऐसी बात नहीं है; किंतु यह सब काल में नित्य-निरंतर ज्यों-का-त्यों रहने वाला है।


‘सर्वगतः’- यह देही सब काल में ज्यों का त्यों ही रहता है, तो यह किसी देश में रहता होगा? इसके उत्तर में कहते हैं कि यह देही संपूर्ण व्यक्ति, वस्तु, शरीर आदि में एकरूप से विराजमान है।


‘अचलः’- यह सर्वगत है, तो यह कहीं आता-जाता भी होगा? इस पर कहते हैं कि यह देही स्थिर स्वभाव वाला है अर्थात इसमें कभी यहाँ और कभी वहाँ- इस प्रकार आने जाने की क्रिया नहीं है।


‘स्थाणुः’- यह स्थिर स्वभाव वाला है, कहीं आता जाता नहीं- यह बात ठीक है, पर इसमें कंपन तो होता होगा? जैसे वृक्ष एक जगह ही रहता है, कहीं भी आता-जाता नहीं, पर वह एक जगह रहता हुआ ही हिलता है, ऐसे ही इस देही में भी हिलने की क्रिया होती होगी? इसके उत्तर में कहते हैं कि यह देही स्थाणु है अर्थात इसमें हिलने की क्रिया नहीं है।


‘सनातनः’- यह देही अचल है, स्थाणु है- यह बात तो ठीक है, पर यह कभी पैदा भी होता होगा? इस पर कहते हैं कि यह सनातन है अनादि है, सदा से है। यह किसी समय नहीं था, ऐसा संभव ही नहीं है।

यह संसार अनित्य है, एक क्षण भी स्थिर रहने वाला नहीं है। परंतु जो सदा रहने वाला है, जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उस देही की तरफ लक्ष्य कराने में ‘नित्यः’ पद का तात्पर्य है।


देखने, सुनने, पढ़ने, समझने में जो कुछ प्राकृत संसार आता है, उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘सर्वगतः’ पद का तात्पर्य है।


संसार मात्र में जो कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि हैं, वे सब के सब चलायमान हैं। उन चलायमान वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि में जो अपने स्वरूप से कभी चलायमान[1] नहीं होता, उस तत्त्व की तरफ लक्ष्य कराने में ‘अचलः’ पद का तात्पर्य है।


प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार में प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है, परिवर्तन होता रहता है। ऐसे परिवर्तिनशील संसार में जो क्रियारहित, परिवर्तनरहित, स्थायी स्वभाव वाला तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘स्थाणुः’ पद का तात्पर्य है।


मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं तथा ये पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे। परंतु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट तक ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा- उस तत्त्व[2] की तरफ लक्ष्य कराने में ‘सनातनः’ पद का तात्पर्य है।


उपर्युक्त पाँचों विशेषणों का तात्पर्य है कि शरीर संसार के साथ तादात्म्य होने पर भी और शरीर-शरीरी-भाव का अलग-अलग अनुभव न होने पर भी शरीरी नित्य निरंतर एकरस, एकरूप रहता है।


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।। 25 ।। अर्थ- यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिंतन का विषय नहीं है और इसमें कोई विकार नहीं है। अतः इस देही को ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिए। व्याख्या- ‘अव्यक्तोऽयम्’- जैसे शरीर संसार स्थूल रूप से देखने में आता है, वैसे यह शरीरी स्थूल रूप से देखने में आने वाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल दृष्टि से रहित है। ‘अचिन्त्योऽयम्’- मन, बुद्धि आदि देखने में तो नहीं आते, पर चिंतन में आते ही हैं अर्थात ये सभी चिंतन के विषय हैं। परंतु यह देही चिंतन का भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म दृष्टि से रहित है। ‘अविकार्योऽयमुच्यते’- यह देही विकार रहित कहा जाता है अर्थात इसमें कभी किंञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है, उस कारणभूत प्रकृति में भी विकृति होती है। परंतु इस देही में किसी प्रकार की विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टि से रहित है। यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य- इन आठ विशेषणों के द्वारा इस देही का निषेधमुख से और नित्य, सर्वगत, स्थाणु और सनातन- इन चार विशेषणों के द्वारा इस देही का विधिमुख से वर्णन किया गया है। परंतु वास्तव में इसका वर्णन हो नहीं सकता; क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं, उस देही को वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं? अतः इस देही का ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है। ‘तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि’- इसलिए इस देही को अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता।

अगर शरीरी को निर्विकार न मानकर विकारी मान लिया जाए[1], तो भी शोक नहीं हो सकता- यह बात आगे के दो श्लोकों में कहते हैं।


अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।। 26 ।।


अर्थ- हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही को नित्य पैदा होने वाले और नित्य मरने वाला भी मानो, तो भी तुम्हें इसका शोक नहीं करना चाहिए।


व्याख्या- ‘अथ चैनं......शोचितुमर्हसि’- भगवान यहाँ पक्षान्तर में ‘अथ च’ और ‘मन्यसे’ पद देकर कहते हैं कि यद्यपि सिद्धांत की और सच्ची बात यही है कि देही किसी भी काल में जन्मने मरने वाला नहीं है।[2], तथापि अगर तुम सिद्धांत से बिलकुल विरुद्ध बात भी मान लो कि देही नित्य जन्मने वाला और नित्य मरने वाला है, तो भी तुम्हें शोक नहीं होना चाहिए। कारण कि जो जन्मेगा, वह मरेगा ही और जो मरेगा, वह जन्मेगा ही- इस नियम को कोई टाल नहीं सकता।


अगर बीज को पृथ्वी में बो दिया जाए, तो वह फूलकर अंकुर दे देता है और वही अंकुर क्रमशः बढ़कर वृक्षरूप हो जाता है। इसमें सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए कि क्या वह बीज एक क्षण भी एकरूप से रहा? पृथ्वी में वह पहले अपने कठोर रूप को छोड़कर कोमल रूप में हो गया, फिर कोमल रूप को छोड़कर अंकुर रूप में हो गया, इसके बाद अंकुर रूप को छोड़कर वृक्षरूप में हो गया और अंत में आयु समाप्त होने पर वह सूख गया। इस तरह बीज एक क्षण भी एकरूप से नहीं रहा, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता रहा। अगर बीज एक क्षण भी एकरूप से रहता, तो वृक्ष के सूखने तक की क्रिया कैसे होती? उसने पहले रूप को छोड़ा- यह उसका मरना हुआ, और दूसरे रूप को धारण किया- यह उसका जन्मना हुआ। इस तरह वह प्रतिक्षण ही जन्मता-मरता रहा। बीज की ही तरह यह शरीर है। बहुत सूक्ष्म रूप से वीर्य का जन्तु रज के साथ मिला। वह बढ़ते-बढ़ते बच्चे के रूप में हो गया और फिर जन्म गया। जन्म के बाद वह बढ़ा, फिर घटा और अंत में मर गया। इस तरह शरीर एक क्षण भी एकरूप से न रहकर बदलता रहा अर्थात प्रतिक्षण जन्मता मरता रहा। भगवान कहते हैं कि अगर तुम शरीर की तरह शरीरी को भी नित्य जन्मने-मरने वाला मान लो, तो भी यह शोक का विषय नहीं हो सकता।


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। 27 ।।


अर्थ- क्योंकि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा- इस[1] का परिहार अर्थात निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।


व्याख्या- ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च’- पूर्व श्लोक के अनुसार अगर शरीरी को नित्य जन्मने और मरने वाला भी मान लिया जाए, तो भी वह शोक का विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा। ‘तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि’- इसलिए कोई भी इस जन्म मृत्यरूप प्रवाह का परिहार[2] नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसी का किञ्चिंमात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इस दृष्टि से तुम्हारे लिए शोक करना उचित नहीं है। ये धृतराष्ट्र के पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जाएंगे वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बात का?


शोक उसी का कीजिए, जो अनहोनी हो ।

अनहोनी होती नहीं, होनी है सो होय ।।


जैसे, इस बात को सब जानते हैं कि सूर्य का उदय हुआ है, तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिए मनुष्य सूर्य का अस्त होने पर शोक चिंता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन ! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीर के साथ ये भीष्म, द्रोण आदि सभी मर जाएंगे, तो फिर शरीर के साथ जन्म भी जाएंगे। अतः इस दृष्टि से भी शोक नहीं हो सकता।


भगवान ने इन दो[3] श्लोकों में जो बात कही है, वह भगवान का कोई वास्तविक सिद्धांत नहीं है। अतः ‘अथ च’ पद देकर भगवान ने दूसरे[4] पक्ष की बात कही है कि ऐसा सिद्धांत तो है नहीं, पर अगर तू ऐसा भी मान ले, तो भी शोक करना उचित नहीं है।


इन दो श्लोकों का तात्पर्य यह हुआ कि संसार की मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने से पहले रूप को छोड़कर दूसरे रूप को धारण करती रहती है। इसमें पहले रूप को छोड़ना- यह मरना हो गया और दूसरे रूप को धारण करना- यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है, उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है, वह फिर जन्मता है- यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टि से भी क्या शोक करें?


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।। 28 ।।


अर्थ- हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद अप्रकट हो जाएंगे, केवल बीच में प्रकट दीखते हैं; अतः इसमें शोक करने की बात ही क्या हैं?


व्याख्या- ‘अव्यक्तादीनि भूतानि’- देखने, सुनने और समझने में आने वाले जितने भी प्राणी[1] हैं, वे सब-के-सब जन्म से पहले अप्रकट थे अर्थात दीखते नहीं थे। ‘अव्यक्तनिधनान्येव’- ये सभी प्राणी मरने के बाद अप्रकट हो जाएंगे अर्थात इनका नाश होने पर ये सभी 'नहीं' में चले जायँगे, दीखेंगे नहीं।


‘व्यक्तमध्यानि’- ये सभी प्राणी बीच में अर्थात जन्म के बाद और मृत्यु के पहले प्रकट दिखायी देते हैं। जैसे सोने से पहले भी स्वप्न नहीं था और जगने पर भी स्वप्न नहीं रहा, ऐसे ही इन प्राणियों के शरीरों का पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव रहेगा। परंतु बीच में भावरूप से दीखते हुए भी वास्तव में इनका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है।

‘तत्र का परिदेवना’- जो आदि और अंत में नहीं होता, वह बीच में भी नहीं होता- यह सिद्धांत है[2]। सभी प्राणियों के शरीर पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे; अतः वास्तव में वे बीच में भी नहीं है। परंतु यह शरीरी पहले भी था और पीछे भी रहेगा; अतः वह बीच में भी रहेगा ही। निष्कर्ष यह निकला कि शरीरों का सदा अभाव है और शरीरी का कभी भी अभाव नहीं है। इसलिए इन दोनों के लिए शोक नहीं हो सकता।


आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।। 29 ।।


अर्थ- कोई इस शरीरी की आश्चर्य की तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है; और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता।


व्याख्या- ‘आश्यर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्’- इस देही को कोई आश्चर्य की तरह जानता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने, सुनने, पढ़ने और जानने में आती हैं, वैसे इस देही का जानना नहीं होता। कारण कि दूसरी वस्तुएँ इदंता से[1] जानते हैं अर्थात वे जानने का विषय होती है, पर यह देही इंद्रिय मन बुद्धि का विषय नहीं है। इसको तो स्वयं से, अपने आपसे ही जाना जाता है। अपने आपसे जो जानना होता है, वह जानना लौकिक ज्ञान की तरह नहीं होता, प्रत्युत बहुत विलक्षण होता है।


‘पश्यति’ पद के दो अर्थ होते हैं- नेत्रों से देखना और स्वयं के द्वारा स्वयं को जानना। यहाँ ‘पश्यति’ पद स्वयं के द्वारा स्वयं को जानने के विषय में आया है[2] जहाँ नेत्र आदि कारणों से देखना जानना होता है, वहाँ द्रष्टा[3], दृश्य[4] और दर्शन[5] यह त्रिपुटी होती है। इस त्रिपुटी से ही सांसारिक देखना- जानना होता है। परंतु स्वयं के ज्ञान में यह त्रिपुटी नहीं होती अर्थात स्वयं का ज्ञान करण-सापेक्ष नहीं है। स्वयं का ज्ञान तो स्वयं के द्वारा ही होता है अर्थात वह ज्ञान करण-निरपेक्ष है। जैसे. ‘मैं हूँ’- ऐसा जो अपने होनेपन का ज्ञान है, इसमें किसी प्रमाण की या किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। इस अपने होने पन को ‘इदंता’ से अर्थात दृश्य रूप से नहीं देख सकते। इसका ज्ञान अपने-आपको ही होता है। यह ज्ञान इंद्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है। इसलिए स्वयं को[6] जानना आश्चर्य की तरह होता है।


जैसे अंधेरे कमरे में हम किसी चीज को लाने जाते हैं, तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिए और नेत्र भी चाहिए अर्थात उस अंधेरे कमरे में प्रकाश की सहायता से हम उस चीज को नेत्रों से देखेंगे, तब उसको लायेंगे। परंतु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपक को देखने जाएंगे, तो उस दीपक को देखने के लिए हमें दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं पड़ेगी; क्योंकि दीपक स्वयं प्रकाश है। वह अपने-आपको स्वयं ही प्रकाशित करता है। ऐसे ही अपने स्वरूप को देखने के लिए किसी दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि यह देही[7] स्वयं प्रकाश है। अतः यह अपने-आपसे ही अपने-आपको जानता है।


स्थूल, सूक्ष्म और कारण- ये तीन शरीर हैं। अन्न, जल से बना हुआ ‘स्थूल शरीर’ है। यह स्थूल शरीर इंद्रियों का विषय है। इस स्थूल शरीर के भीतर पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि- इन सत्रह तत्त्वों से बना हुआ ‘सूक्ष्म शरीर’ है। यह सूक्ष्म शरीर इंद्रियों का विषय नहीं है, जिसमें प्रकृति स्वभाव रहता है, वह ‘कारणशरीर’ है। इन तीनों शरीरों पर विचार किया जाए तो यह स्थूल शरीर मेरा स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह प्रतिक्षण बदलता है और जानने में आता है। सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जानने में आता है; अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है। कारण शरीर प्रकृति स्वरूप है, पर देही[8] प्रकृति से भी अतीत है, अतः कारण शरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है।

यह देही जब प्रकृति को छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, तब यह अपने-आपसे अपने-आपको जान लेता है। यह जानना सांसारिक वस्तुओं को जानने का अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है, इसलिए इसको ‘आश्चर्यवत् पश्यति’ कहा गया है।


यहाँ भगवान ने कहा है कि अपने आपका अनुभव करने वाला कोई एक ही होता है- ‘कश्चित्’ और आगे सातवें अध्याय के तीसरे श्लोक में भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरे को तत्त्व से जानता है- ‘कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।’ इन पदों से ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्व को जानना बड़ा कठिन है, दुर्लभ है। परंतु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्व को जानना कठिन नहीं है, दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत इस तत्त्व को सच्चे हृदय से जानने वाले की इस तरफ लगने वाले की कमी है। यह कमी जानने की जिज्ञासा कम होने के कारण ही है।


‘आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः’- ऐसे ही दूसरा पुरुष इस देही का आश्चर्य की तरह वर्णन करता है; क्योंकि यह तत्त्व वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है, वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है? जो महापुरुष इस तत्त्व का वर्णन करता है वह तो शाखा-चंद्रन्याय की तरह वाणी से इसका केवल संकेत ही करता है, जिससे सुनने वाला का इधर लक्ष्य हो जाए। अतः इसका वर्णन आश्चर्य की तरह ही होता है।


यहाँ जो ‘अन्यः’ पद आया है, उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जानने वाला है, उससे यह कहने वाला अन्य है; क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं, वह वर्णन क्या करेगा? अतः इस पद का तात्पर्य यह है कि जितने जानने वाले हैं, उनमें वर्णन करने वाला कोई एक ही होता है। कारण कि सब-के-सब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्व का विवेचन करके सुनने वाले को उस तत्त्व तक नहीं पहुँचा सकते। उसकी शंकाओं का, तर्कों का पूरी तरह समाधान करने की क्षमता नहीं रखते। अतः वर्णन करने वाले की विलक्षण क्षमता का द्योतन करने के लिए ही यह ‘अन्यः’ पद दिया गया है।


‘आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति’- दूसरा कोई इस देही को आश्चर्य की तरह सुनता है। तात्पर्य है कि सुनने वाला शास्त्रों की, लोक-लोकान्तरों की जितनी बातें सुनता आया है, उन सब बातों से इस देही को बात विलक्षण मालूम देती है। कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है, वह सब-का-सब इंद्रियाँ मन, बुद्धि आदि का विषय है; परंतु यह देही इंद्रियों आदि का विषय नहीं है, प्रत्युत यह इंद्रियों आदि के विषय को प्रकाशित करता है। अतः इस देही की विलक्षण बात वह आश्चर्य की तरह सुनता है।


यहाँ ‘अन्यः’ पद देने का तात्पर्य है कि जानने वाला और कहने वाला- इन दोनों से सुनने वाला[1] अलग है।


‘श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्’- इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया तो अब वह जानेगा ही नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके[1] इसको कोई भी नहीं जान सकता। सुनने के बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा, तब वह अपने-आपसे ही अपने आपको जानेगा[2]। यहाँ कोई कहे कि शास्त्रों और गुरुजनों से सुनकर ज्ञान तो होता ही है, फिर यहाँ ‘सुन करके भी कोई नहीं जानता’- ऐसा कैसे कहा गया है? इस विषय पर थोड़ी गंभीरता से विचार करके देखें कि शास्त्रों पर श्रद्धा स्वयं शास्त्र नहीं कराते और गुरुजनों पर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते; किंतु साधक स्वंय ही शास्त्र और गुरु पर श्रद्धा विश्वास करता है, स्वयं ही उनके सम्मुख होता है। अगर स्वयं के सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता, तो आज तक भगवान के बहुत अवतार हुए हैं, बड़े-बड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं, उनके सामने को अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिए था। अर्थात सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिए था। पर ऐसा देखने में नहीं आता। श्रद्धा विश्वास पूर्वक सुनने से स्वरूप में स्थित होने में सहायता तो जरूर मिलती है, पर स्वरूप में स्थित स्वयं ही होता है। अतः उपर्युक्त पदों का तात्पर्य तत्त्वज्ञान को असंभव बताने में नहीं, प्रत्युत उसे करण निरपेक्ष बताने में है। मनुष्य किसी भी रीति से तत्त्व को जानने का प्रयत्न क्यों न करे, पर अंत में अपने आपसे ही अपने आपको जानेगा। श्रवण, मनन आदि साधन तत्त्व के ज्ञान में परंपरागत साधन माने जा सकते हैं, पर वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष[3] ही होता है।

अपने आपसे अपने आपको जानना क्या होता है? एक होता है करना, एक होता है देखना और एक होता है जानना। करने में कर्मेंद्रियों की, देखने में ज्ञानेंद्रियों की और जानने में स्वयं की मुख्यता होती है।


ज्ञानेंद्रियों के द्वारा जानना नहीं होता, प्रत्युत देखना होता है, जो कि व्यवहार में उपयोगी है। स्वयं के द्वारा जो जानना होता है, वह दो तरह का होता है- एक तो शरीर संसार के साथ मेरी सदा भिन्नता है और दूसरा, परमात्मा के साथ मेरी सदा अभिन्नता है। दूसरे शब्दों में परिवर्तनशील नाशवान पदार्थों के साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी संबंध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्मा के साथ मेरा नित्य संबंध है। ऐसा जानने के बाद फिर स्वतः अनुभव होता है। उस अनुभव का वाणी से वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है।


देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।। 30 ।।


अर्थ- हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! सबके देह में यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिए संपूर्ण प्राणियों के लिए अर्थात किसी भी प्राणी के लिए तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।


व्याख्या- ‘देवी नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत’- मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, कीट पतंग आदि स्थावर- जंगम संपूर्ण प्राणियों के शरीर में यह देही नित्य अवध्य अर्थात अविनाशी है। ‘अवध्यः’- शब्द के दो अर्थ होते हैं-


इसका वध नहीं करना चाहिए और

इसका वध हो ही नहीं सकता। जैसे गाय अवध्य है अर्थात कभी किसी भी अवस्था में गाय को नहीं मारना चाहिए; क्योंकि गाय को मारने में बड़ा भारी दोष है, पाप है। परंतु देही के विषय में ‘देही का वध नहीं करना चाहिए’- ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत इस देही का वध[1] कभी किसी भी तरह से हो ही नहीं सकता और कोई कर भी नहीं सकता- ‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’[2]

‘तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि’- इसलिए तुम्हें किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए; क्योंकि इस देही का विनाश कभी हो ही नहीं सकता और विनाशी देह क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता। यहाँ ‘सर्वाणि भूतानि’ पदों में बहुवचन देने का आशय है कि कोई भी प्राणी बाकी न रहे अर्थात किसी भी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए। शरीर विनाशी ही है; क्योंकि उसका स्वभाव ही नाशवान है। वह प्रतिक्षण ही नष्ट हो रहा है। परंतु जो अपना नित्य स्वरूप है, उसका कभी नाश होता ही नहीं। अगर इस वास्तविकता को जान लिया जाए तो फिर शोक होना संभव ही नहीं है।




ईश्वर अनुकम्पा

 

गीता के बारे में शास्त्री, महात्मा, आचार्य, गुरु और तत्व-वेत्ता मनीषी समय समय पर भिन्न मत पोषण करते आए; उन मतों और विचारों का सम्मेलन हमें गीता में दर्ज तत्वों को और अधिक सुगमता से समझने में मदद रूप होगा; सहायक और समपोषक भी होता रहेगा | इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि गीता कर्मयोग-शास्त्र हैपर उन कर्मों का जो ज्ञान में अर्थात् आध्यात्मिक सिद्धि में और शांति में परिसमाप्त होते हैंउन कर्मों का जो भक्ति प्रेरित हैंअर्थात् यह वह ज्ञान युक्त सचेतन शरणागति है जिसमें भक्त कर्मी अपनेआप को पहले भगवान् के हाथों में सौंप देते है और फिर भगवान् की सत्ता के सान्निध्य को काफ़ी करीबी से महसूस भी करता रहता   है,  यह उन कर्मों का शास्त्र नहीं है जिन्हें आजकल कर्म नाम से भौतिक और विधायक कर्म के विषय और नित्य क्रिया से समझा जाना शुरू हुआ हैउन कर्मों का बिल्कुल नहीं जो अहंकार से ग्रसित मन के द्वारा किसी के कल्यणार्थ किए जाते होंजिसमें कर्तापन का भान हो गया होजो वैयक्तिकसामाजिक और भूतदया के विचारोंसिद्धांतों और महानता के भान से ग्रसित हुए हों। यह भी सत्यापित करना कुछ ग़लत ही होगा जिसके आधार पर हम यह मानने लगें कि गीता ने आधुनिक नित्य कर्म के सिद्धांतों और क्रियाशीलता के विचारों को आत्मसात किया हो; उन कर्मों को अहम माना हो और नित्य क्रिया से साधक को जुड़े रहने की वकालत किया हो |  दावा यह भी करता आ रहा होगा कि गीता सभी साधकों को नित्य जीवन से अलग कर देगी, सन्यासी, वैरागी, त्यागी और महात्मा बना देगी; व्यक्ति जीवन के नित्य क्रिया से अलग कर देगी यह भी संपूर्ण ग़लत है | 

यह स्पष्ट शब्दों में कर्म के मानव सिद्धांत काअर्थात् सामाजिक कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से करने के आदर्श काइतना ही नहींबल्कि समाज सेवा के सर्वथा आधुनिक आदर्श का भी प्रतिपादन करती है। क्या गीता आधुनिक समाज में मुल्यबोध संप्रेषित करने के निमित्त से सफल प्रयास के रूप में एक स्वीकार्य पहल बनी रहेगी? क्या इसे विस्तृत समुदाय के अरमानों और ब्रह्म जिज्ञासा प्रशमित करने के लिए एक सफल प्रयास के रूप में अपनाया जा सकेगा? इन सब बातों का उत्तर तलाशे जाने के क्रम में इतना ही कहा जा सकता कि गीता में, स्पष्ट रूप से कुछ सामेकित समाज विज्ञान के नियमन और सामाजीकरण के अनुरूप, और केवल तत्व चिंतन के साथ मिश्रित ब्रह्म जिज्ञासा  का ऊपरी अर्थ ग्रहण करते हुए भी, इस तरह की कोई बात मान्य नहीं की जा सकती, यह केवल विज्ञान मानस्क और सामाजिक उलटफेर के कराल ग्रास में ग्रसित विचारकों के प्रयातनों से उपजे भ्रम का नतीजा मानें, जिसके अड़हार पर कुछ न कुछ समझ लेने की जल्दबाजी पनपती रहेगी; चित्त , बुद्धि और मन का उतावलापन भी परिलक्षित होगा; एक प्राचीन ग्रंथ को अर्वाचीन बुद्धि से समझने का प्रतिफल भी मान सकेंगे जिसके आधार पर कुछ भी व्याख्या किसी भी क्रम में चल पड़ती है, सर्वथा पुरातन, प्राच्य और भारतीय शिक्षा को पश्चिम के भोगवाद की संस्कृति के आलोक में समझने की व्यर्थ चेष्टा ही मानें जो व्यक्ति मानस को भटका देगी । गीता जिस कर्म का प्रतिपादन करती है वह मानव-कर्म नहीं बल्कि दिव्य कर्म है, सामाजिक कर्तव्यों का पालन नहीं बल्कि कर्तव्य और आचरण के अन्य सब पैमानों को त्यागकर अपने स्वभाव के द्वारा कर्म करने वाले भागवत-अधिकृत महापुरुषों का कर्म है जो नाहंकृत भाव से संसार के लिये नहीं उन सर्वशक्तिमान के प्रति नैवेद्य के रूप में सम्पूर्ण श्रद्धा भाव और सार्विक आत्म निवेदन के साथ यज्ञ रूप से किया जाता हो ; सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय विधायक कर्म के रूप में किया जाता हो; सभी स्वार्थ सिद्धि के आग्रह को दर किनार करते हुए सामाजिक संवेदनशीलता कू पुष्ट करने के निमित्त से किया जाता हो; जो मनुष्य और प्रकृति के अंतर परिवर्थन्शीलता की कड़ी में सार्विक रूप से सदा मौजूद रहेगा। अन्य बिंदुओं के आधार पर अगर गीता के शिक्षाप्रद पहलुओं के आधार पर विचार करें तो पाएँगे, गीता नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र, या फिर तर्क शास्त्र व उग्र जातीयातावाद, का ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि अपने आध्यात्मिक जीवन को समृद्ध कर पाने लायक शिक्षण बिंदुओं से पुष्ट विचारों, सिद्धांतों और नीतियों का संकलन ही मानें। आधुनिकों की बुद्धि वर्तमान समय में पश्चिमी भोगवाद से ग्रसित उग्र जातीयातावाद से आच्छादित या फिर तीव्र पाखंडवाद से पल्लवित  भोगवाद और इंद्रिय उत्पीड़न को उत्सर्जित करानेलायक प्रपंचक क्रियाओं का संवर्धक संकुचित बुद्धि है जो अपने मूल सूत्र-स्वरूप यूनानी-रोमन संस्कृति की परमोच्च अवस्था के दार्शनिक आदर्शवाद का ही नहीं, बल्कि मध्यकालीन युग में पनपनेवाले ईसाई और इस्लामी भक्तिवाद का भी परित्याग करते करते अंततः आधुनिक स्वरूप पा चुकी ; प्रपंचकों का आधार बन चुकी; नीति और मानव मूल्यों को झुठलानेवाले समाज का आधार बन चुकी; अपितु गहन वैचारिक अंधत्व का शिकार बन चुकी। दार्शनिक आर्दशवाद और भक्तिवाद के स्थान पर इसने व्यावहारिक आर्दशवाद और समाज सेवा, देशसेवा और मानव सेवा का भाव अपना तो लिया पर उस भाव को संपुष्ट करने के लिए समग्र प्रयत्नशीलता के साथ धर्मार्थ साधना के मार्ग का परित्याग कर डाला। ईश्वर से इसने छुटकारा पाने का प्रयास करते करते उस सर्वशक्तिमान के महज भौतिक स्वरूप तक विचार और चित्त को सन्निविष्ट कर डाला; अथवा यह कहिये कि ईश्वर को केवल क्षणिक अवसर तक ध्यान में लाने के लिए रख छोड़ा; सिर्फ़ सौदे का आधार बनाते हुए पाप-पुण्य के तराजू तक सीमित रख छोड़ा; अर्थ और सामर्थ के मानकों के अनुसार ईश्वर आराधना के विषय को केंद्रित कर डाला; ईश्वर अनुकंपा को प्रकृति जन्य विषयों से अलग करके देखना चाहा; और ईश्वर के स्थान पर देवरूप से मनुष्य को और प्रत्यक्ष पूज्य प्रतिमा रूप में समाज,  संप्रदाय और कृष्टि को प्रतिष्ठित करते हुए भौतिकता का आधार अपना लिया। अपनी सर्वोत्तम अवस्था में यह व्यवहार्य, नैतिक और सामाजिक विधायक अनुक्रिया का आधार स्वरूप होने के साथ साथ कर्मनिष्ठा और कर्तव्य निष्ठा का भी नियामक है;, परोपकार करने की अहमिका, समाज से समाज को जोड़ने की उत्कंठा, विस्तारवाद को सत्यापित करने की अभिलाषा के साथ साथ समग्र जाति को सुखी और समृद्ध करने की प्रबल इच्छा भी रहेगी ।

इस बात से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता कि सर्वजन हिताय- सर्वजन सुखाय विधायक कर्म को प्रधानता देना कोई विपरीत धारा का द्योतक होता हो; अगर यही युग धर्म हो गया हो और इसे ही समग्र विकास को सुनिश्चित कर पाने की कुंजी मान लिया गया हो तो उसे गीता के आलोक में मान्य करनेआक नित्य कर्म का हिस्सा बनाना होगा और साधक वर्ग को उस क्रिया को अपनाते हुए अध्यात्मिक उत्कर्ष पाने के ध्येय से साधना के मार्ग पर अडिग भी रहना होगा; और, ऐसा मान लेने का कोई कारण शायद ही सत्यापित हो सके कि जिस मनुष्य ने भागवत स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्रह्म स्थिति से पुष्ट चिन्मय अवस्था को पहचानता हो; ईश्वर अनुकंपा से पुष्ट जीव की उपस्थिति को अनुभव कर सकता हो; सनातन परंपरा से संचालित सृष्टि-विनाश के क्रमिक चक्र को समझता हो; चैतन्य अवस्था में, आनंदमय अवस्था मे तथा भागवत सत्ता में रहता हो, उसके कर्म में ये सब बातें हों, जबकि इसे ही सर्वसमावेशक युग धर्म मान लिया गया हो;, ये ही काल-विशेष की सबसे उत्कृष्ट ध्येय वस्तुएं हों, और उस समय इनसे बड़ी और कोई चीज हो, महत् आमूल परिवर्तन को अपनानेलायक कोई विधायक परिवर्तन हुआ हो; किसी समाज को जोड़े जाने की बात प्राथमिकता से अपनाया गया हो; तो ये सब बातें साधक  के विधायक और साध्य कर्म अवश्य ही बनी रहेंगी। कारण, जैसा कि भगवान् अपने शिष्य से कहते हैं, वह श्रेष्ठ पुरुष है और उसे ऐसा आचरण करके दिखाना है जो दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरूप हो, और सचमुच  जंग में उतरे और मैदान में दोनों सेनाओं के बीचों बीच खड़े भ्रम, शंका, प्रमाद आदि से ग्रसित एक योद्धा से जो बात कही जा रही है वह यही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट आदर्श और तत्कालीन संस्कृति के अनुसार क्षात्र धर्म के अनुसार कर्तव्य कर्म को अपना ले , आचरण करे, पर ज्ञान युक्त होकर करे, उस वस्तु को जानकर करे जो इन सब के पीछे प्रत्यक्ष या परीक्ष रूप से निहित है; एक विशिष्ट ज्ञान और भक्ति की धारा में स्नात प्रबुद्ध साधक की भाँति; कि  सामान्य मनुष्यों की तरह जो केवल बाह्य धर्म और विधि का ही अनुसरण करते रह जाते हैं और जीवन के अपने ध्येय को समझ ही नहीं पाते।

परंतु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकता से ग्रस्त व्यक्तिमानस ने, तथा उस परिखा में विचरण करनेवाले तत्वदर्शियों ने,  अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो तत्वों को अर्थात्ईश्वर या सनातन ब्रह्म” को औरआध्यात्मिकता या के दिव्य स्वरूप के उत्सर्जन के वैधानिक अनुक्रिया” को अपसारित कर दिया है; ऐसा करने का प्रयास भर किया हो; या फिर विषयों को विकृत कर प्रस्तुत करने का प्रयास भर किया हो; सम्यक दृष्टि को धूमिल कर पाने की लालसा लिए शास्त्र में खुद के अरमानों और अभिलाषा को चढ़ाया हो; या फिर उस विधायक तत्व, आत्म तत्व और योग तिवेणी के मंगल कलश को कलुषित करने का प्रयास किया हो; वे दोनों ही तत्व गीता में दर्ज आधारभूत तत्व के रूप में मान्य की गई | उसी मान्यता के परिपन्थि सनातन परंपरा भी चल पड़ी। जिसे हम अभी आधुनिकता या भोगवाद मान रहे हैं उसमें और सनातन परंपरा में कई द्वन्द परिलक्षित होते हैं: यह कहती है मानवता, मानविकता में रहें, क्षार पुरुष में सीमित रहें; प्राण,  और बुद्धि का सम्मेलन करें; सदा परिवर्थन्शील काल प्रवाह के साथ चलें | जबकि गीता का मत है कि देवत्व प्राप्ति की अभिलाषा लिए क्षार  अक्षर के अस्तित्व का ज्ञान रखते हुए आत्मा, परमात्मा और जीवात्मा के अस्तित्व को मानते हुए सनातन परंपरा पर आस्था बनाए रखें न कि परिवर्तन की धारा में बहे चलें |

व्यवहार में हमारे अंदर कुछ संकीर्णता और कुटिलता अगर रह भी गये होंगे तो उन सबको हटाते हुए और गीता के आत्म तत्व के सिद्धांतों को प्रतिस्थापित करते हुए भक्त वत्सल से कुछ उच स्तर के कार्य करा लिए जाएँ, या उन्हें ऐसा कर पाने के मार्ग में सहायक बनें; उत्साह और उद्दीपन के तरंग के आधार पर यह भी मान्य करें कि व्यक्ति मात्र के चैतन्य में उच्च आदर्श का उद्दीपक और सकारात्मक पक्ष है; भले ही भक्त वत्सल किसी भी देवता, किसी भी अवतार , या फिर किसी भी धर्मादर्श का अनुसरण करते हों | इसी आलोक में यह भी प्रतिपाद्य विषय मान लेना होगा कि गीता सेर्फ निस्वार्थ भाव से कर्म करते रहने की शिक्षा दिलाने लायक विधायक कर्म तत्व का विज्ञान नहीं ; अपितु यह विधायक कर्म के साथ साथ परमार्थ के लिए कर्तव्य पथ पर बिना रुके बिना थके और निडर होकर लगे रहने का उत्तम विज्ञान है|

गीता के समग्र संकलन में से कुछ श्लोक चुनकर यह साबित कर देना बहुत ही आसान है कि इसमें निस्वार्थ भाव से सेवा करते रहने को श्रेष्ठ माना गया; कहीं शुद्ध भक्ति की वंदना दर्ज की गई; कहीं पर ज्ञान से पुष्ट कर्म की बात कही गई; यह भी प्रतिपाद्य की गई कि क्षार पुरुष के साथ अक्षर पुरुष भी एक ही ब्रह्म के प्रतिफलक, उद्योजक और क्रियात्मक स्वरूप होंगे (अद्वैत का सिद्धांत) जिसे गीता का केंद्रक भी माना जा सकेगा | यह भी प्रतिपादित टा आया कि गीतापुरुषोत्तम को सभी प्रकार से पूर्ण मानते हुए यह प्रतिस्थापना रखती है कि साधक का ध्येय उस पूर्णता की प्राप्ति का ही रहे और उसी मार्ग के लिए परिपूरक सिद्धांतों और विचारों का संकालन गीता का आधार स्वरूप है | 

गीता का प्रायोजन तभी सन्दर्भित होता हुआ पाया गया जब कर्तव्य बुद्धि से भटका हुआ एक योद्धा ईश्वर शरणागती लेते हुए यह सुनिश्चित करना चाहा की रण भूमि के बीचों बीच एक योद्धा की क्या भूमिका हो सकती: और वो भी तब जब यह पता चले कि उसी के रिश्तेदार, सगे संबंधी, गुरु और पितामह शत्रुपक्ष में खड़े हो जाएँ; वो भी तब जब धर्म, नीति, तत्व और कर्तव्य नामक विधाओं पर इंद्रिय उत्पीड़ण, अज्ञान और भ्रम का आच्छादन बन जाए! यह एक ऐसी परिस्थिति के आलोक में ईश्वर द्वारा प्रतिपादित की गई जब धर्म रक्षा को सुनिश्चित करने के निमित्त से एक योद्धा जंग की भूमि में उतर चुका था और वैराग्य, त्याग, सन्यास आदि की बातें करने लग गया था |

 

व्यक्ति जीवन में कभी न कभी किसी न किसी रूप में संघर्ष सदा ही चलते रहता है | कई ऐसे पड़ाव भी आते हैं जब व्यवहार ज्ञान, तत्व ज्ञान और कर्तव्य बुद्धि का सही सम्मेलन ही नहीं हो पाता; न ही भ्रम के भंवर से व्यक्ति सही तरीके से निकल पाता; न ही यह तय कर पाता कि ईश्वर शरणागति लें भी तो कैसे; अंतर मन और चित्त को बसेरा किए दिव्य पुरुष का सान्निध्य महसूस कर पाने लायक स्थिति बनते बनते बिगड़ जया करती; कभी कभी व्यक्ति इंद्रिय उत्पीड़न का शिकार हो जाता और चेतना का उन्नत तरंग अनुभव ही नहीं कर पाता; ऐसा होते होते कभी कभी जीवन की अनुक्रिया ही मंगल प्रभात की ओर बढ़ी जाती जहाँ से अगला सफ़र कैसा होगा इस बारे में किसी को भी सम्यक ज्ञान नहीं हो आता | यह वही पड़ाव है जहाँ साधक एक सामान्य जीवन चर्या से उभरते हुए दिव्य जीवन की ओर चल पड़ते हैं और अपने सभी इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित करते हुए उस दिव्य सनातन शक्ति को खुद के करीब पाते रहेंगे और क्रमिक उन्नति की ओर बढ़े चलेंगे | द्विविधा और भ्रम की स्थिति से उभर पाने के निमित्त से कोई भी व्यक्ति एक योद्धा रूप से खुद की भूमिका काफ़ी सरलता पूर्वक ही तय कर सकेगा यही अभिप्रेत हो | इसी ध्येय से पुष्ट गीता में समय समय पर और स्थान स्थान पर योग विद्याओं का सम्मेलन प्रतिभासित होता आया |


----- चंदन सुकुमार सेनगुप्ता

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