ईश्वर अनुकम्पा

 

गीता के बारे में शास्त्री, महात्मा, आचार्य, गुरु और तत्व-वेत्ता मनीषी समय समय पर भिन्न मत पोषण करते आए; उन मतों और विचारों का सम्मेलन हमें गीता में दर्ज तत्वों को और अधिक सुगमता से समझने में मदद रूप होगा; सहायक और समपोषक भी होता रहेगा | इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि गीता कर्मयोग-शास्त्र हैपर उन कर्मों का जो ज्ञान में अर्थात् आध्यात्मिक सिद्धि में और शांति में परिसमाप्त होते हैंउन कर्मों का जो भक्ति प्रेरित हैंअर्थात् यह वह ज्ञान युक्त सचेतन शरणागति है जिसमें भक्त कर्मी अपनेआप को पहले भगवान् के हाथों में सौंप देते है और फिर भगवान् की सत्ता के सान्निध्य को काफ़ी करीबी से महसूस भी करता रहता   है,  यह उन कर्मों का शास्त्र नहीं है जिन्हें आजकल कर्म नाम से भौतिक और विधायक कर्म के विषय और नित्य क्रिया से समझा जाना शुरू हुआ हैउन कर्मों का बिल्कुल नहीं जो अहंकार से ग्रसित मन के द्वारा किसी के कल्यणार्थ किए जाते होंजिसमें कर्तापन का भान हो गया होजो वैयक्तिकसामाजिक और भूतदया के विचारोंसिद्धांतों और महानता के भान से ग्रसित हुए हों। यह भी सत्यापित करना कुछ ग़लत ही होगा जिसके आधार पर हम यह मानने लगें कि गीता ने आधुनिक नित्य कर्म के सिद्धांतों और क्रियाशीलता के विचारों को आत्मसात किया हो; उन कर्मों को अहम माना हो और नित्य क्रिया से साधक को जुड़े रहने की वकालत किया हो |  दावा यह भी करता आ रहा होगा कि गीता सभी साधकों को नित्य जीवन से अलग कर देगी, सन्यासी, वैरागी, त्यागी और महात्मा बना देगी; व्यक्ति जीवन के नित्य क्रिया से अलग कर देगी यह भी संपूर्ण ग़लत है | 

यह स्पष्ट शब्दों में कर्म के मानव सिद्धांत काअर्थात् सामाजिक कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से करने के आदर्श काइतना ही नहींबल्कि समाज सेवा के सर्वथा आधुनिक आदर्श का भी प्रतिपादन करती है। क्या गीता आधुनिक समाज में मुल्यबोध संप्रेषित करने के निमित्त से सफल प्रयास के रूप में एक स्वीकार्य पहल बनी रहेगी? क्या इसे विस्तृत समुदाय के अरमानों और ब्रह्म जिज्ञासा प्रशमित करने के लिए एक सफल प्रयास के रूप में अपनाया जा सकेगा? इन सब बातों का उत्तर तलाशे जाने के क्रम में इतना ही कहा जा सकता कि गीता में, स्पष्ट रूप से कुछ सामेकित समाज विज्ञान के नियमन और सामाजीकरण के अनुरूप, और केवल तत्व चिंतन के साथ मिश्रित ब्रह्म जिज्ञासा  का ऊपरी अर्थ ग्रहण करते हुए भी, इस तरह की कोई बात मान्य नहीं की जा सकती, यह केवल विज्ञान मानस्क और सामाजिक उलटफेर के कराल ग्रास में ग्रसित विचारकों के प्रयातनों से उपजे भ्रम का नतीजा मानें, जिसके अड़हार पर कुछ न कुछ समझ लेने की जल्दबाजी पनपती रहेगी; चित्त , बुद्धि और मन का उतावलापन भी परिलक्षित होगा; एक प्राचीन ग्रंथ को अर्वाचीन बुद्धि से समझने का प्रतिफल भी मान सकेंगे जिसके आधार पर कुछ भी व्याख्या किसी भी क्रम में चल पड़ती है, सर्वथा पुरातन, प्राच्य और भारतीय शिक्षा को पश्चिम के भोगवाद की संस्कृति के आलोक में समझने की व्यर्थ चेष्टा ही मानें जो व्यक्ति मानस को भटका देगी । गीता जिस कर्म का प्रतिपादन करती है वह मानव-कर्म नहीं बल्कि दिव्य कर्म है, सामाजिक कर्तव्यों का पालन नहीं बल्कि कर्तव्य और आचरण के अन्य सब पैमानों को त्यागकर अपने स्वभाव के द्वारा कर्म करने वाले भागवत-अधिकृत महापुरुषों का कर्म है जो नाहंकृत भाव से संसार के लिये नहीं उन सर्वशक्तिमान के प्रति नैवेद्य के रूप में सम्पूर्ण श्रद्धा भाव और सार्विक आत्म निवेदन के साथ यज्ञ रूप से किया जाता हो ; सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय विधायक कर्म के रूप में किया जाता हो; सभी स्वार्थ सिद्धि के आग्रह को दर किनार करते हुए सामाजिक संवेदनशीलता कू पुष्ट करने के निमित्त से किया जाता हो; जो मनुष्य और प्रकृति के अंतर परिवर्थन्शीलता की कड़ी में सार्विक रूप से सदा मौजूद रहेगा। अन्य बिंदुओं के आधार पर अगर गीता के शिक्षाप्रद पहलुओं के आधार पर विचार करें तो पाएँगे, गीता नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र, या फिर तर्क शास्त्र व उग्र जातीयातावाद, का ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि अपने आध्यात्मिक जीवन को समृद्ध कर पाने लायक शिक्षण बिंदुओं से पुष्ट विचारों, सिद्धांतों और नीतियों का संकलन ही मानें। आधुनिकों की बुद्धि वर्तमान समय में पश्चिमी भोगवाद से ग्रसित उग्र जातीयातावाद से आच्छादित या फिर तीव्र पाखंडवाद से पल्लवित  भोगवाद और इंद्रिय उत्पीड़न को उत्सर्जित करानेलायक प्रपंचक क्रियाओं का संवर्धक संकुचित बुद्धि है जो अपने मूल सूत्र-स्वरूप यूनानी-रोमन संस्कृति की परमोच्च अवस्था के दार्शनिक आदर्शवाद का ही नहीं, बल्कि मध्यकालीन युग में पनपनेवाले ईसाई और इस्लामी भक्तिवाद का भी परित्याग करते करते अंततः आधुनिक स्वरूप पा चुकी ; प्रपंचकों का आधार बन चुकी; नीति और मानव मूल्यों को झुठलानेवाले समाज का आधार बन चुकी; अपितु गहन वैचारिक अंधत्व का शिकार बन चुकी। दार्शनिक आर्दशवाद और भक्तिवाद के स्थान पर इसने व्यावहारिक आर्दशवाद और समाज सेवा, देशसेवा और मानव सेवा का भाव अपना तो लिया पर उस भाव को संपुष्ट करने के लिए समग्र प्रयत्नशीलता के साथ धर्मार्थ साधना के मार्ग का परित्याग कर डाला। ईश्वर से इसने छुटकारा पाने का प्रयास करते करते उस सर्वशक्तिमान के महज भौतिक स्वरूप तक विचार और चित्त को सन्निविष्ट कर डाला; अथवा यह कहिये कि ईश्वर को केवल क्षणिक अवसर तक ध्यान में लाने के लिए रख छोड़ा; सिर्फ़ सौदे का आधार बनाते हुए पाप-पुण्य के तराजू तक सीमित रख छोड़ा; अर्थ और सामर्थ के मानकों के अनुसार ईश्वर आराधना के विषय को केंद्रित कर डाला; ईश्वर अनुकंपा को प्रकृति जन्य विषयों से अलग करके देखना चाहा; और ईश्वर के स्थान पर देवरूप से मनुष्य को और प्रत्यक्ष पूज्य प्रतिमा रूप में समाज,  संप्रदाय और कृष्टि को प्रतिष्ठित करते हुए भौतिकता का आधार अपना लिया। अपनी सर्वोत्तम अवस्था में यह व्यवहार्य, नैतिक और सामाजिक विधायक अनुक्रिया का आधार स्वरूप होने के साथ साथ कर्मनिष्ठा और कर्तव्य निष्ठा का भी नियामक है;, परोपकार करने की अहमिका, समाज से समाज को जोड़ने की उत्कंठा, विस्तारवाद को सत्यापित करने की अभिलाषा के साथ साथ समग्र जाति को सुखी और समृद्ध करने की प्रबल इच्छा भी रहेगी ।

इस बात से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता कि सर्वजन हिताय- सर्वजन सुखाय विधायक कर्म को प्रधानता देना कोई विपरीत धारा का द्योतक होता हो; अगर यही युग धर्म हो गया हो और इसे ही समग्र विकास को सुनिश्चित कर पाने की कुंजी मान लिया गया हो तो उसे गीता के आलोक में मान्य करनेआक नित्य कर्म का हिस्सा बनाना होगा और साधक वर्ग को उस क्रिया को अपनाते हुए अध्यात्मिक उत्कर्ष पाने के ध्येय से साधना के मार्ग पर अडिग भी रहना होगा; और, ऐसा मान लेने का कोई कारण शायद ही सत्यापित हो सके कि जिस मनुष्य ने भागवत स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्रह्म स्थिति से पुष्ट चिन्मय अवस्था को पहचानता हो; ईश्वर अनुकंपा से पुष्ट जीव की उपस्थिति को अनुभव कर सकता हो; सनातन परंपरा से संचालित सृष्टि-विनाश के क्रमिक चक्र को समझता हो; चैतन्य अवस्था में, आनंदमय अवस्था मे तथा भागवत सत्ता में रहता हो, उसके कर्म में ये सब बातें हों, जबकि इसे ही सर्वसमावेशक युग धर्म मान लिया गया हो;, ये ही काल-विशेष की सबसे उत्कृष्ट ध्येय वस्तुएं हों, और उस समय इनसे बड़ी और कोई चीज हो, महत् आमूल परिवर्तन को अपनानेलायक कोई विधायक परिवर्तन हुआ हो; किसी समाज को जोड़े जाने की बात प्राथमिकता से अपनाया गया हो; तो ये सब बातें साधक  के विधायक और साध्य कर्म अवश्य ही बनी रहेंगी। कारण, जैसा कि भगवान् अपने शिष्य से कहते हैं, वह श्रेष्ठ पुरुष है और उसे ऐसा आचरण करके दिखाना है जो दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरूप हो, और सचमुच  जंग में उतरे और मैदान में दोनों सेनाओं के बीचों बीच खड़े भ्रम, शंका, प्रमाद आदि से ग्रसित एक योद्धा से जो बात कही जा रही है वह यही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट आदर्श और तत्कालीन संस्कृति के अनुसार क्षात्र धर्म के अनुसार कर्तव्य कर्म को अपना ले , आचरण करे, पर ज्ञान युक्त होकर करे, उस वस्तु को जानकर करे जो इन सब के पीछे प्रत्यक्ष या परीक्ष रूप से निहित है; एक विशिष्ट ज्ञान और भक्ति की धारा में स्नात प्रबुद्ध साधक की भाँति; कि  सामान्य मनुष्यों की तरह जो केवल बाह्य धर्म और विधि का ही अनुसरण करते रह जाते हैं और जीवन के अपने ध्येय को समझ ही नहीं पाते।

परंतु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकता से ग्रस्त व्यक्तिमानस ने, तथा उस परिखा में विचरण करनेवाले तत्वदर्शियों ने,  अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो तत्वों को अर्थात्ईश्वर या सनातन ब्रह्म” को औरआध्यात्मिकता या के दिव्य स्वरूप के उत्सर्जन के वैधानिक अनुक्रिया” को अपसारित कर दिया है; ऐसा करने का प्रयास भर किया हो; या फिर विषयों को विकृत कर प्रस्तुत करने का प्रयास भर किया हो; सम्यक दृष्टि को धूमिल कर पाने की लालसा लिए शास्त्र में खुद के अरमानों और अभिलाषा को चढ़ाया हो; या फिर उस विधायक तत्व, आत्म तत्व और योग तिवेणी के मंगल कलश को कलुषित करने का प्रयास किया हो; वे दोनों ही तत्व गीता में दर्ज आधारभूत तत्व के रूप में मान्य की गई | उसी मान्यता के परिपन्थि सनातन परंपरा भी चल पड़ी। जिसे हम अभी आधुनिकता या भोगवाद मान रहे हैं उसमें और सनातन परंपरा में कई द्वन्द परिलक्षित होते हैं: यह कहती है मानवता, मानविकता में रहें, क्षार पुरुष में सीमित रहें; प्राण,  और बुद्धि का सम्मेलन करें; सदा परिवर्थन्शील काल प्रवाह के साथ चलें | जबकि गीता का मत है कि देवत्व प्राप्ति की अभिलाषा लिए क्षार  अक्षर के अस्तित्व का ज्ञान रखते हुए आत्मा, परमात्मा और जीवात्मा के अस्तित्व को मानते हुए सनातन परंपरा पर आस्था बनाए रखें न कि परिवर्तन की धारा में बहे चलें |

व्यवहार में हमारे अंदर कुछ संकीर्णता और कुटिलता अगर रह भी गये होंगे तो उन सबको हटाते हुए और गीता के आत्म तत्व के सिद्धांतों को प्रतिस्थापित करते हुए भक्त वत्सल से कुछ उच स्तर के कार्य करा लिए जाएँ, या उन्हें ऐसा कर पाने के मार्ग में सहायक बनें; उत्साह और उद्दीपन के तरंग के आधार पर यह भी मान्य करें कि व्यक्ति मात्र के चैतन्य में उच्च आदर्श का उद्दीपक और सकारात्मक पक्ष है; भले ही भक्त वत्सल किसी भी देवता, किसी भी अवतार , या फिर किसी भी धर्मादर्श का अनुसरण करते हों | इसी आलोक में यह भी प्रतिपाद्य विषय मान लेना होगा कि गीता सेर्फ निस्वार्थ भाव से कर्म करते रहने की शिक्षा दिलाने लायक विधायक कर्म तत्व का विज्ञान नहीं ; अपितु यह विधायक कर्म के साथ साथ परमार्थ के लिए कर्तव्य पथ पर बिना रुके बिना थके और निडर होकर लगे रहने का उत्तम विज्ञान है|

गीता के समग्र संकलन में से कुछ श्लोक चुनकर यह साबित कर देना बहुत ही आसान है कि इसमें निस्वार्थ भाव से सेवा करते रहने को श्रेष्ठ माना गया; कहीं शुद्ध भक्ति की वंदना दर्ज की गई; कहीं पर ज्ञान से पुष्ट कर्म की बात कही गई; यह भी प्रतिपाद्य की गई कि क्षार पुरुष के साथ अक्षर पुरुष भी एक ही ब्रह्म के प्रतिफलक, उद्योजक और क्रियात्मक स्वरूप होंगे (अद्वैत का सिद्धांत) जिसे गीता का केंद्रक भी माना जा सकेगा | यह भी प्रतिपादित टा आया कि गीतापुरुषोत्तम को सभी प्रकार से पूर्ण मानते हुए यह प्रतिस्थापना रखती है कि साधक का ध्येय उस पूर्णता की प्राप्ति का ही रहे और उसी मार्ग के लिए परिपूरक सिद्धांतों और विचारों का संकालन गीता का आधार स्वरूप है | 

गीता का प्रायोजन तभी सन्दर्भित होता हुआ पाया गया जब कर्तव्य बुद्धि से भटका हुआ एक योद्धा ईश्वर शरणागती लेते हुए यह सुनिश्चित करना चाहा की रण भूमि के बीचों बीच एक योद्धा की क्या भूमिका हो सकती: और वो भी तब जब यह पता चले कि उसी के रिश्तेदार, सगे संबंधी, गुरु और पितामह शत्रुपक्ष में खड़े हो जाएँ; वो भी तब जब धर्म, नीति, तत्व और कर्तव्य नामक विधाओं पर इंद्रिय उत्पीड़ण, अज्ञान और भ्रम का आच्छादन बन जाए! यह एक ऐसी परिस्थिति के आलोक में ईश्वर द्वारा प्रतिपादित की गई जब धर्म रक्षा को सुनिश्चित करने के निमित्त से एक योद्धा जंग की भूमि में उतर चुका था और वैराग्य, त्याग, सन्यास आदि की बातें करने लग गया था |

 

व्यक्ति जीवन में कभी न कभी किसी न किसी रूप में संघर्ष सदा ही चलते रहता है | कई ऐसे पड़ाव भी आते हैं जब व्यवहार ज्ञान, तत्व ज्ञान और कर्तव्य बुद्धि का सही सम्मेलन ही नहीं हो पाता; न ही भ्रम के भंवर से व्यक्ति सही तरीके से निकल पाता; न ही यह तय कर पाता कि ईश्वर शरणागति लें भी तो कैसे; अंतर मन और चित्त को बसेरा किए दिव्य पुरुष का सान्निध्य महसूस कर पाने लायक स्थिति बनते बनते बिगड़ जया करती; कभी कभी व्यक्ति इंद्रिय उत्पीड़न का शिकार हो जाता और चेतना का उन्नत तरंग अनुभव ही नहीं कर पाता; ऐसा होते होते कभी कभी जीवन की अनुक्रिया ही मंगल प्रभात की ओर बढ़ी जाती जहाँ से अगला सफ़र कैसा होगा इस बारे में किसी को भी सम्यक ज्ञान नहीं हो आता | यह वही पड़ाव है जहाँ साधक एक सामान्य जीवन चर्या से उभरते हुए दिव्य जीवन की ओर चल पड़ते हैं और अपने सभी इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित करते हुए उस दिव्य सनातन शक्ति को खुद के करीब पाते रहेंगे और क्रमिक उन्नति की ओर बढ़े चलेंगे | द्विविधा और भ्रम की स्थिति से उभर पाने के निमित्त से कोई भी व्यक्ति एक योद्धा रूप से खुद की भूमिका काफ़ी सरलता पूर्वक ही तय कर सकेगा यही अभिप्रेत हो | इसी ध्येय से पुष्ट गीता में समय समय पर और स्थान स्थान पर योग विद्याओं का सम्मेलन प्रतिभासित होता आया |


----- चंदन सुकुमार सेनगुप्ता

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