आत्मा का स्वरूप

न जायते म्रियते वा कदाचित्रायं भूत्वा भविता वा न भूयः। 

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। 2.20 ।। 

अर्थ- यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है। यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरंतर रहने वाला, शाश्वत और पुराण है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है। व्याख्या- [शरीर में छः विकार हगोते हैं- उत्पन्न होना, सत्ता वाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना, और नष्ट होना। यह शरीरी इन छहों विकारों से रहति है- यही बात भगवान इस श्लोक में बता रहे हैं।] ‘न जायते म्रियते वा कदाचित्र’- जैसे शरीर उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समय में उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदा से ही है। भगवान ने इस शरीर को अपना अंश बताते हुए इसको ‘सनातन’ कहा है ‘ममैवांशो जीवलो के जीवभूतः सनातनः’। यह शरीरी कभी मरता भी नहीं। मरता वही है, जो पैदा होता है; और ‘म्रियते’ का प्रयोग भी वहीं होता है, जहाँ पिंड-प्राण का वियोग होता है। पिंड-प्राण का वियोग शरीर में होता है। परंतु शरीरी में संयोग वियोग दोनों ही नहीं होते। यह ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसका मरना होता ही नहीं। सभी विकारों में जन्मना और मरना- ये दो प्रकार ही मुख्य हैं; अतः भगवान ने इनका दो बार निषेध किया है- जिसको पहले ‘न जायते’ कहा, उसी को दुबारा ‘अजः’ कहा है; और जिसको पहले ‘न प्रियते’ कहा, उसी को दुबारा ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ कहा है। ‘अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’- यह अविनाशी नित्य-तत्त्व पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है अर्थात यह स्वतः सिद्ध निर्विकार है। जैसे, बच्चा पैदा होता है, तो पैदा होने के बाद उसकी सत्ता होती है। जब तक वह गर्भ में नहीं आता, तब तक ‘बच्चा है’ ऐसे उसकी सत्ता कोई भी नहीं कहता। तात्पर्य है कि बच्चे की सत्ता पैदा होने के बाद होती है; क्योंकि उस विकारी सत्ता का आदि और अंत होता है। परंतु इस नित्य तत्त्व की सत्ता स्वतः सिद्ध और निर्विकार है; क्योंकि इस अविकारी सत्ता का आरंभ और अंत नहीं होता।


‘अजः’- इस शरीरी का कभी जन्म नहीं होता। इसलिए यह ‘अजः’ अर्थात जन्मरहित कहा गया है।


‘नित्यः’- यह शरीरी नित्य-निरंतर रहने वाला है; अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। अपक्षय तो अनित्य वस्तु में होता है, जो कि निरंतर रहने वाली नहीं है। जैसे, आधी उम्र बीतने पर शरीर घटने लगता है, बल क्षीण होने लगता है, इंद्रियों की शक्ति कम होने लगती है। इस प्रकार शरीर, इंद्रियाँ, अंतःकरण आदि का तो अपक्षय होता है, पर शरीरी का अपक्षय नहीं होता। स नित्य तत्त्व में कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती।


‘शाश्वतः’- यह नित्य तत्त्व निरंतर एकरूप, एकरस रहने वाला है। इसमें अव्यवस्था का परिवर्तन नहीं होता अर्थात यह कभी बदलता नहीं। इसमें बदलने की योग्यता है ही नहीं। ‘पुराणः’- यह अविनाशी तत्त्व पुराण[1] अर्थात अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में भी देखा जाता है कि जो वस्तु पुरानी हो जाती है, वह फिर बढ़ती नहीं, प्रत्युत नष्ट हो जाती है; फिर यह तो अनुत्पन्न तत्त्व है, इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार तो उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में ही होता है, इस नित्य-तत्त्व में नहीं।


‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’- शरीर का नाश होने पर भी इस अविनाशी शरीरी का नाश नहीं होता। यहाँ ‘शरीरे’ पद देने का तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होने वाला है। इस नष्ट होने वाले शरीर में ही छः विकार होते हैं, शरीरी में नहीं।


इन पदों में भगवान ने शरीर और शरीरी का जैसा स्पष्ट वर्णन किया है, ऐसा स्पष्ट वर्णन गीता में दूसरी जगह नहीं आया है।


अर्जुन युद्ध में कुटुम्बियों के मरने की आशंका से विशेष शोक कर रहे थे। उस शोक को दूर करने के लिए भगवान कहते हैं कि शरीर के मरने पर भी इस शरीर का मरना नहीं होता अर्थात इसका अभाव नहीं होता। इसलिए शोक करना अनुचित है।


वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।। 2.21 ।।


अर्थ- हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?


व्याख्या- ‘वेदाविनाशिनम्..... घातयति हन्ति कम्’- इस शरीरी का कभी नाश नहीं होता, इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरह की कोई कमी नहीं आती- ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है, वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये? अर्थात दूसरों को मारने और मरवाने में उस पुरुष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रिया का न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है।


यहाँ भगवान ने शरीरी को अविनाशी, नित्य, अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारों का निषेध किया है; जैसे- ‘अविनाशी’ कहकर मृत्युरूप विकार का, ‘नित्य’ कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकार का, ‘अज’ कहकर जन्म होना और जन्म के बाद होने वाली सत्तारूप विकार का, तथा ‘अव्यय’ कहकर क्षयरूप विकार का निषेध किया गया है। शरीरी में किसी भी क्रिया से किञ्चिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता।


अगर भगवान को ‘न हन्यते हन्यामाने शरीरे’ और ‘कं घातयति हन्ति कम्’ इन पदों में शरीरी के कर्ता और कर्म बनने का ही निषेध करना था, तो फिर यहाँ करने न करने की बात न कहकर मरने मारने की बात क्यों कही? इसका उत्तर है कि युद्ध का प्रसंग होने से यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धि में मारने वाला नहीं बनता; क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है। जब शरीरी मारने वाला अर्थात कर्ता नहीं बन सकता, तब यह मारने वाला अर्थात कर्ता नहीं बन सकता, तब यह मरने वाला अर्थात क्रिया का विषय भी कैसे बन सकता है। तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रिया का कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरने-मारने में शोक नहीं करना चाहिए, प्रत्युत शास्त्र की आज्ञा के अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म का पालन करना चाहिए।


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। 2.22 ।।


अर्थ- मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।


व्याख्या- ‘वासांसि जीर्णानि......संयाति नवानि देही’- इसी अध्याय के तेरहवें श्लोक में सूत्र रूप से कहा गया था कि देहान्तर की प्राप्ति के विषय में धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बात को उदाहरण देकर स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ों के परिवर्तन पर मनुष्य को शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरों के परिवर्तन पर भी शोक नहीं होना चाहिए।


कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं, पशु-पक्षी नहीं; अतः यहाँ कपड़े बदलने के उदाहरण में ‘नरः’ पद मनुष्योनि का वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, जवान-बूढ़े आदि सभी जाते हैं।


जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों को धारण करता है। पुराना शरीर छोड़ने को ‘मरना’ कह देते हैं, और नया शरीर धारण करने को ‘जन्मना’ कह देते हैं। जब तक प्रकृति के साथ संबंध रहता है, तब तक यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर कर्मों के अनुसार या अंतकालीन चिंतन के अनुसार नये-नये शरीरों को प्राप्त होता रहता है।


यहाँ ‘शरीराणि’ पद में बहुवचन देने का तात्पर्य है कि जब तक शरीरी को अपने वास्तविक स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं होता, तब तक यह शरीरी अनन्तकाल तक शरीर धारण करता ही रहता है। आज तक इसने कितने शरीर धारण किए हैं, इसकी गिनती भी संभव नहीं है। इस बात को लक्ष्य में रखकर ‘शरीराणि’ पद में बहुवचन का प्रयोग किया गया है तथा संपूर्ण जीवों का लक्ष्य कराने के लिए यहाँ ‘देही’ पद आया है। यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध में तो जीर्ण कपड़ों की बात कही है और उत्तरार्ध में जीर्ण शरीर की। जीर्ण कपड़ों का दृष्टान्त शरीर में कैसे लागू होगा? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानों के भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ों के जीर्ण शरीर मर जाते हों, यह बात तो है नहीं ! इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होने पर ही मरता और आयु समाप्त होना ही शरीर का जीर्ण होना है[1]। शरीर चाहे बच्चों का हो, चाहे जवानों का, हो, चाहे वृद्धों का हो, आयु समाप्त होने पर वे सभी जीर्ण ही कहलाएंगे। इस श्लोक में भगवान ने ‘यथा’ और ‘तथा’ पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है, वैसे यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीर में चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएं अपने-आप होती हैं, वैसे ही देहान्तर की प्राप्ति अपने-आप होती है यहाँ तो ‘यथा’ और ‘तथा’ घट जाते हैं। परंतु पुराने कपड़ों को छोड़ने में और नये कपड़े धारण करने में तो मनुष्य की स्वतंत्रता है, पर पुराने शरीरों को छोड़ने में और नये शरीर धारण करने में देह की स्वतंत्रता नहीं है। इसलिए यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ कैसे घटेंगे ? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान का तात्पर्य स्वतंत्रता-परतंत्रता की बात कहने में नहीं है, प्रत्युत शरीर के वियोग से होने वाले शोक को मिटाने में है।


जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण करने पर भी धारण करने वाला वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों में चले जाने पर भी देही ज्यों का त्यों निर्लिप्त रूप से रहता है; अतः शोक करने की कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टि से यह दृष्टांत ठीक ही है।


दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़ने में और नये कपड़े धारण करने में तो सुख होता है, पर पुराने शरीर में दुःख होता है। अतः यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ कैसे घटेंगे? इसका समाधान यह है कि शरीरों के मरने का जो दुःख होता है, वह मरने से नहीं होता, प्रत्युत जीने की इच्छा से होता है। ‘मैं जीता रहूँ’- ऐसी जीने की इच्छा भीतर में रहती है और मरना पड़ता है, तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीर के साथ एकात्मक कर लेता है, तब वह शरीर के मरने से अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है। परंतु जो शरीर के साथ अपनी एकात्मकता नहीं मानता, उसको मरने में दुःख नहीं होता, प्रत्युत आनंद होता है ! जैसे, मनुष्य कपड़ों के साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, तो कपड़ों को बदलने में उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत रहता है कि कपड़े अलग हैं और मैं अलग हूँ। परंतु वही कपड़ों का बदलना अगर छोटे बच्चे का किया जाए, तो वह पुराने कपड़े उतारने में और नये कपड़े धारण करने में भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खता से, नासमझी से होता है। इस मूर्खता को मिटाने के लिए ही भगवान यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ पद देकर कपड़ों का दृष्टांत दिया है।


यहाँ भगवान ने कपड़ों के धारण करने में तो ‘गृह्णाति’ क्रिया दी, पर शरीरों के धारण करने में ‘संयाति’ क्रिया दी, ऐसा क्रिया भेद भगवान ने क्यों किया? लौकिक दृष्टि से बेसमझी के कारण ऐसा दीखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ों को धारण करता है और देहान्तर की प्राप्ति में देही को उन-उन देहों में जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टि को लेकर ही भगवान क्रिया भेद किया है।


गीता में ‘येन् सर्वमिदं ततम्’, ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुः’ आदि पदों से देही को सर्वत्र व्याप्त, नित्य, सर्वगत और स्थिर स्वभाव वाला बताया तथा ‘संयाति नवानि देही’, ‘शरीरं यदवाप्रोति’ आदि पदों से देही को दूसरे शरीरों में जाने की बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है, सर्वत्र व्याप्त है, उसका जाना-आना कैसे? क्योंकि जो जिस देश में न हो, उस देश में चला जाए, तो इसको ‘जाना’ कहते हैं; और जो दूसरे देश में है, वह इस देश में आ जाए, तो इसको ‘आना’ कहते हैं। परंतु देही के विषय में तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं। इसका समाधान यह है कि जैसे किसी की बाल्यावस्था से युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि ‘मैं जवान हो गया हूँ।’ परंतु वास्तव में वह स्वयं जवान नहीं हुआ है, प्रत्युत उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिए बाल्यावस्था में जो वह था, युवास्था में भी वह था, युवावस्था में भी वह वही है। परंतु शरीर तादात्म्य मानने के कारण वह शरीर के परिवर्तन को अपने आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आना-जाना वास्तव में शरीर का धर्म है, पर शरीर के साथ तादात्म्य होने से वह अपने में आना-जाना मान लेता है। अतः वास्तव में देही का कहीं भी आना-जाना नहीं होता, केवल शरीरों के तादात्म्य के कारण उसका आना-जाना प्रतीत होता है।


अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकाल से जो जन्म-मरण चला आ रहा है, उसमें कारण क्या है? कर्मों की दृष्टि से तो शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए जन्म-मरण होता है, ज्ञान की दृष्टि से भगवान की विमुखता के कारण जन्म-मरण होता है। इन तीनों में भी मुख्य कारण है कि भगवान ने जीव को जो स्वतंत्रता दी है, उसका दुरुपयोग करने से ही जन्म-मरण हो रहा है। अब वह जन्म-मरण मिटे कैसे? मिली हुई स्वतंत्रता का सदुपयोग करने से जन्म-मरण मिट जाएगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थ के लिए कर्म करने से जन्म मरण हुआ है, अतः अपने स्वार्थ का त्याग करके दूसरों के हित के लिए कर्म करने से जन्म मरण मिट जाएगा। अपनी जानकारी का अनादर करने से जन्म-मरण हुआ है; अतः अपनी जानकारी का आदर करने से जन्म मरण मिट जाएगा। भगवान से विमुख होने से जन्म मरण मिट जाएगा।


नैंन छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। 2.23 ।।


अर्थ- शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।


व्याख्या- ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि’- इस शरीरी को शस्त्र नहीं काट सकते हैं; क्योंकि ये प्राकृत शस्त्र वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकते।


जितने भी शास्त्र हैं, वे सभी पृथ्वी-तत्त्व से उत्पन्न होते हैं। यह पृथ्वी तत्त्व इस शरीरी में किसी तरह का कोई विकार नहीं पैदा कर सकता है। इतना ही नहीं, पृथ्वी तत्त्व इस शरीरी तक पहुँच ही नहीं सकता, फिर विकृति करने की बात तो दूर ही रही।


‘नैनं दहति पावकः’- अग्नि इस शरीरी को जला नहीं सकती; क्योंकि अग्नि वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती। जब वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती, तब उसके द्वारा जलाना कैसे संभव हो सकता है? तात्पर्य है कि अग्नि तत्त्व इस शरीर में कभी किसी तरह का विकार उत्पन्न कर ही नहीं सकता।


‘न चैनं क्लेदयन्त्यापः’- जल इसको गीला नहीं कर सकता; क्योंकि जल वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि जल तत्त्व इस शरीर में किसी प्रकार का विकार पैदा नहीं कर सकता।


‘न शोषयति मारुतः’- वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात वायु में इस शरीरी को सुखाने की सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि वायु वहाँ तक पहुँचती ही नहीं। तात्पर्य है कि वायु तत्त्व इस शरीरी में किसी तरह की विकृति पैदा नहीं कर सकता।


पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच महाभूत कहलाते हैं। भगवान ने इनमें से चार ही महाभूतों की बात कही है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस शरीरी में किसी तरह की विकृति नहीं कर सकते; परंतु पाँचवें महाभूत आकाश की कोई चर्चा ही नहीं की है। इसका कारण यह है कि आकाश में कोई भी क्रिया करने की शक्ति नही है। क्रिया करने की शक्ति तो इन चार महाभूतों में ही है। आकाश तो इन सबको अवकाश मात्र देता है।


पृथ्वी, जल, तेज और वायु- ये चारों तत्त्व आकाश से ही उत्पन्न होते हैं, पर व अपने कारणभूत आकाश में भी किसी तरह का विकार पैदा नहीं कर सकते अर्थात पृथ्वी आकाश का छेदन नहीं कर सकती, जल गीला नहीं कर सकता, अग्नि जला नहीं सकती और वायु सुखा नहीं सकती। जब ये चारों तत्त्व अपने कारणभूत आकाश को, आकाश के कारणभूत महत्तत्त्व को और महत्तत्त्व के कारणभूत प्रकृति को भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकते, तब प्रकृति से सर्वथा अतीत शरीरी तक ये पहुँच ही कैसे सकते हैं? इन गुणयुक्त पदार्थों की उस निर्गुण तत्त्व में पहुँच ही कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती।


शरीरी नित्य तत्त्व है। पृथ्वी आदि चारों तत्त्वों को इसी से सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः जिससे इन तत्त्वों को सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। उसको ये कैसे विकृत कर सकते हैं? यह शरीरी सर्वव्यापक है और पृथ्वी आदि चारों तत्त्व व्याप्य है अर्थात शरीरी के अंतर्गत हैं। अतः व्याप्य वस्तु व्यापक को कैसे नुकसान पहुँचा सकती है? उसको नुकसान पहुँचाना संभव ही नहीं है।


यहाँ युद्ध का प्रसंग है। ‘ये सब संबंधी मर जाएंगे’- इस बात को लेकर अर्जुन शोक कर रहे हैं। अतः भगवान कहते हैं कि ये कैसे मर जाएंगे? क्योंकि वहाँ तक अस्त्र-शस्त्रों की क्रिया पहुँचती ही नहीं अर्थात शस्त्र के द्वारा शरीर कट जाने पर भी शरीरी नहीं कटता, अग्न्यस्र के द्वारा शरीर जल जाने पर भी शरीरी नहीं जलता, वरुणास्र के द्वारा शरीर गल जाने पर भी शरीरी नहीं गलता और वायव्यास्त्र के द्वारा शरीर सूख जाने पर भी शरीरी नहीं सूखता। तात्पर्य है कि अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा शरीर मर जाने पर भी शरीरी नहीं मरता, प्रत्युत ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। अतः इसको लेकर शोक करना तेरी बिलकुल ही बेसमझी है।


अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलऽयं सनातनः ।। 2.24 ।।


अर्थ- यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहने वाला सब में परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाव वाला और अनादि है।


व्याख्या- [ शस्त्र आदि इस शरीरी में विकार क्यों नहीं करते- यह बात इस श्लोक में कहते हैं।]


‘अच्छेद्योऽयम्’- शस्त्र इस शरीरी का छेदन नहीं कर सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि शस्त्रों का अभाव है या शस्त्र चलाने वाला अयोग्य है, प्रत्युत छेदनरूप क्रिया शरीरी में प्रविष्टि ही नहीं हो सकती, यह छेदन होने के योग्य ही नहीं है।


शस्त्र के सिवाय मंत्र, शाप आदि से भी इस शरीरी का छेदन नहीं हो सकता है। जैसे, याज्ञवल्क्य के प्रश्न का उत्तर न दे सकने के कारण उनके शाप से शाकल्य का मस्तक कटकर गिर गया। इस प्रकार देह तो मंत्रों से, वाणी से कट सकता है, पर देही सर्वथा अछेद्य है।


‘अदाह्योऽयम्’- यह शरीरी अदाह्य है; क्योंकि इसमें जलने की योग्यता ही नहीं है। अग्नि के सिवाय मंत्र, शाप आदि से भी यह देही जल नहीं सकता। जैसे, दमयन्ती के शाप देने से व्याध बिना अग्नि के जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार अग्नि, शाप आदि से वही जल सकता है, जो जलने योग्य होता है। इस देही में तो दहन-क्रिया का प्रवेश ही नहीं हो सकता।


‘अक्लेद्यः’- यह देही गीला होने योग्य नहीं है अर्थात इसमें गीला होने की योग्यता ही नहीं है। जल से एवं मंत्र, शाप, औषधि आदि से यह गीला नहीं हो सकता। जैसे, सुनने में आता है कि ‘मालकोश’ राग के गाये जाने से पत्थर भी गीला हो जाता है; चंद्रमा को देखने से चंद्रकांतमणि गीली हो जाती है। परंतु यह देही राग-रागिनी आदि से गीली होने वाली वस्तु नहीं है।


‘अशोष्यः’- यह देही अशोष्य है। वायु से इसका शोषण हो जाए, यह ऐसी वस्तु नहीं है; क्योंकि इसमें शोषण क्रिया का प्रवेश ही नहीं होता। वायु से तथा मंत्र, शाप, औषधि आदि से यह देही सूख नहीं सकता। जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्र का शोषण कर गये, ऐसे इस देही का कोई अपनी शक्ति से शोषण नहीं कर सकता।


‘एव च’- अर्जुन नाश की संभावना को लेकर शोक कर रहे थे। इसलिए शरीरी को अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहकर भगवान ‘एव च’ पदों से विशेष जोर देकर कहते हैं कि यह शरीरी तो ऐसा ही है। इसमें किसी भी क्रिया का प्रवेश नहीं होता। अतः यह शरीरी शोक करने योग्य है ही नहीं।


‘नित्यः’- यह देही नित्य-निरंतर रहने वाला है। यह किसी काल में नहीं था और किसी काल में नहीं रहेगा- ऐसी बात नहीं है; किंतु यह सब काल में नित्य-निरंतर ज्यों-का-त्यों रहने वाला है।


‘सर्वगतः’- यह देही सब काल में ज्यों का त्यों ही रहता है, तो यह किसी देश में रहता होगा? इसके उत्तर में कहते हैं कि यह देही संपूर्ण व्यक्ति, वस्तु, शरीर आदि में एकरूप से विराजमान है।


‘अचलः’- यह सर्वगत है, तो यह कहीं आता-जाता भी होगा? इस पर कहते हैं कि यह देही स्थिर स्वभाव वाला है अर्थात इसमें कभी यहाँ और कभी वहाँ- इस प्रकार आने जाने की क्रिया नहीं है।


‘स्थाणुः’- यह स्थिर स्वभाव वाला है, कहीं आता जाता नहीं- यह बात ठीक है, पर इसमें कंपन तो होता होगा? जैसे वृक्ष एक जगह ही रहता है, कहीं भी आता-जाता नहीं, पर वह एक जगह रहता हुआ ही हिलता है, ऐसे ही इस देही में भी हिलने की क्रिया होती होगी? इसके उत्तर में कहते हैं कि यह देही स्थाणु है अर्थात इसमें हिलने की क्रिया नहीं है।


‘सनातनः’- यह देही अचल है, स्थाणु है- यह बात तो ठीक है, पर यह कभी पैदा भी होता होगा? इस पर कहते हैं कि यह सनातन है अनादि है, सदा से है। यह किसी समय नहीं था, ऐसा संभव ही नहीं है।


यह संसार अनित्य है, एक क्षण भी स्थिर रहने वाला नहीं है। परंतु जो सदा रहने वाला है, जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उस देही की तरफ लक्ष्य कराने में ‘नित्यः’ पद का तात्पर्य है।


देखने, सुनने, पढ़ने, समझने में जो कुछ प्राकृत संसार आता है, उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘सर्वगतः’ पद का तात्पर्य है।


संसार मात्र में जो कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि हैं, वे सब के सब चलायमान हैं। उन चलायमान वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि में जो अपने स्वरूप से कभी चलायमान नहीं होता, उस तत्त्व की तरफ लक्ष्य कराने में ‘अचलः’ पद का तात्पर्य है।


प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार में प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है, परिवर्तन होता रहता है। ऐसे परिवर्तिनशील संसार में जो क्रियारहित, परिवर्तनरहित, स्थायी स्वभाव वाला तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘स्थाणुः’ पद का तात्पर्य है।


मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं तथा ये पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे। परंतु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट तक ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा- उस तत्त्व की तरफ लक्ष्य कराने में ‘सनातनः’ पद का तात्पर्य है।


उपर्युक्त पाँचों विशेषणों का तात्पर्य है कि शरीर संसार के साथ तादात्म्य होने पर भी और शरीर-शरीरी-भाव का अलग-अलग अनुभव न होने पर भी शरीरी नित्य निरंतर एकरस, एकरूप रहता है।


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । 

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।। 2.25 ।। 

अर्थ- यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिंतन का विषय नहीं है और इसमें कोई विकार नहीं है। अतः इस देही को ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिए। व्याख्या- ‘अव्यक्तोऽयम्’- जैसे शरीर संसार स्थूल रूप से देखने में आता है, वैसे यह शरीरी स्थूल रूप से देखने में आने वाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल दृष्टि से रहित है। ‘अचिन्त्योऽयम्’- मन, बुद्धि आदि देखने में तो नहीं आते, पर चिंतन में आते ही हैं अर्थात ये सभी चिंतन के विषय हैं। परंतु यह देही चिंतन का भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म दृष्टि से रहित है। ‘अविकार्योऽयमुच्यते’- यह देही विकार रहित कहा जाता है अर्थात इसमें कभी किंञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है, उस कारणभूत प्रकृति में भी विकृति होती है। परंतु इस देही में किसी प्रकार की विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टि से रहित है। यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य- इन आठ विशेषणों के द्वारा इस देही का निषेधमुख से और नित्य, सर्वगत, स्थाणु और सनातन- इन चार विशेषणों के द्वारा इस देही का विधिमुख से वर्णन किया गया है। परंतु वास्तव में इसका वर्णन हो नहीं सकता; क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं, उस देही को वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं? अतः इस देही का ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है। ‘तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि’- इसलिए इस देही को अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता।


अगर शरीरी को निर्विकार न मानकर विकारी मान लिया जाए[1], तो भी शोक नहीं हो सकता- यह बात आगे के दो श्लोकों में कहते हैं।


अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।। 2.26 ।।


अर्थ- हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही को नित्य पैदा होने वाले और नित्य मरने वाला भी मानो, तो भी तुम्हें इसका शोक नहीं करना चाहिए।


व्याख्या- ‘अथ चैनं......शोचितुमर्हसि’- भगवान यहाँ पक्षान्तर में ‘अथ च’ और ‘मन्यसे’ पद देकर कहते हैं कि यद्यपि सिद्धांत की और सच्ची बात यही है कि देही किसी भी काल में जन्मने मरने वाला नहीं है।[2], तथापि अगर तुम सिद्धांत से बिलकुल विरुद्ध बात भी मान लो कि देही नित्य जन्मने वाला और नित्य मरने वाला है, तो भी तुम्हें शोक नहीं होना चाहिए। कारण कि जो जन्मेगा, वह मरेगा ही और जो मरेगा, वह जन्मेगा ही- इस नियम को कोई टाल नहीं सकता।


अगर बीज को पृथ्वी में बो दिया जाए, तो वह फूलकर अंकुर दे देता है और वही अंकुर क्रमशः बढ़कर वृक्षरूप हो जाता है। इसमें सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए कि क्या वह बीज एक क्षण भी एकरूप से रहा? पृथ्वी में वह पहले अपने कठोर रूप को छोड़कर कोमल रूप में हो गया, फिर कोमल रूप को छोड़कर अंकुर रूप में हो गया, इसके बाद अंकुर रूप को छोड़कर वृक्षरूप में हो गया और अंत में आयु समाप्त होने पर वह सूख गया। इस तरह बीज एक क्षण भी एकरूप से नहीं रहा, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता रहा। अगर बीज एक क्षण भी एकरूप से रहता, तो वृक्ष के सूखने तक की क्रिया कैसे होती? उसने पहले रूप को छोड़ा- यह उसका मरना हुआ, और दूसरे रूप को धारण किया- यह उसका जन्मना हुआ। इस तरह वह प्रतिक्षण ही जन्मता-मरता रहा। बीज की ही तरह यह शरीर है। बहुत सूक्ष्म रूप से वीर्य का जन्तु रज के साथ मिला। वह बढ़ते-बढ़ते बच्चे के रूप में हो गया और फिर जन्म गया। जन्म के बाद वह बढ़ा, फिर घटा और अंत में मर गया। इस तरह शरीर एक क्षण भी एकरूप से न रहकर बदलता रहा अर्थात प्रतिक्षण जन्मता मरता रहा। भगवान कहते हैं कि अगर तुम शरीर की तरह शरीरी को भी नित्य जन्मने-मरने वाला मान लो, तो भी यह शोक का विषय नहीं हो सकता।


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। 2.27 ।। 

अर्थ- क्योंकि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा- इस[1] का परिहार अर्थात निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। व्याख्या- ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च’- पूर्व श्लोक के अनुसार अगर शरीरी को नित्य जन्मने और मरने वाला भी मान लिया जाए, तो भी वह शोक का विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा। ‘तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि’- इसलिए कोई भी इस जन्म मृत्यरूप प्रवाह का परिहार नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसी का किञ्चिंमात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इस दृष्टि से तुम्हारे लिए शोक करना उचित नहीं है। ये धृतराष्ट्र के पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जाएंगे वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बात का? शोक उसी का कीजिए, जो अनहोनी हो । अनहोनी होती नहीं, होनी है सो होय ।। जैसे, इस बात को सब जानते हैं कि सूर्य का उदय हुआ है, तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिए मनुष्य सूर्य का अस्त होने पर शोक चिंता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन ! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीर के साथ ये भीष्म, द्रोण आदि सभी मर जाएंगे, तो फिर शरीर के साथ जन्म भी जाएंगे। अतः इस दृष्टि से भी शोक नहीं हो सकता। भगवान ने इन दो[3] श्लोकों में जो बात कही है, वह भगवान का कोई वास्तविक सिद्धांत नहीं है। अतः ‘अथ च’ पद देकर भगवान ने दूसरे पक्ष की बात कही है कि ऐसा सिद्धांत तो है नहीं, पर अगर तू ऐसा भी मान ले, तो भी शोक करना उचित नहीं है। इन दो श्लोकों का तात्पर्य यह हुआ कि संसार की मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने से पहले रूप को छोड़कर दूसरे रूप को धारण करती रहती है। इसमें पहले रूप को छोड़ना- यह मरना हो गया और दूसरे रूप को धारण करना- यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है, उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है, वह फिर जन्मता है- यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टि से भी क्या शोक करें?



समभाव

सुख-दुःख में सम रहने वाले जिस धीर मनुष्य को ये मात्रास्पर्श[1] व्यथा नहीं पहुँचाते, वह अमर होने में समर्थ हो जाता है अर्थात वह अमर हो जाता है। व्याख्या- ‘पुरुषर्षभ’- मनुष्य प्रायः परिस्थितियों को बदलने का ही विचार करता है, जो कभी बदली नहीं जा सकतीं और जिनको बदलना संभव ही नहीं। युद्धरूपी परिस्थिति के प्राप्त होने पर अर्जुन ने उसको बदलने का विचार न करके अपने कल्याण का विचार कर लिया है। यह कल्याण का विचार करना ही मनुष्यों में उनकी श्रेष्ठता है। 'समदुःखसुखं धीरम्'- धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम होता है। अंतःकरण की वृत्ति से ही सुख और दुःख- ये दोनों अलग-अलग दीखते हैं। सुख-दुःख के भोगने में पुरुष[2] हेतु है, और वह हेतु बनता है प्रकृति में स्थित होने से।[3] जब वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, तब सुख-दुःख को भोगने वाला कोई नहीं रहता। अतः अपने आप में स्थित होने से वह सुख-दुःख में स्वाभाविक ही सम हो जाता है। ‘यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषम्’- धीर मनुष्य को ये मात्रास्पर्श अर्थात प्रकृति के मात्र पदार्थ व्यथा नहीं पहुँचाते। प्राकृत पदार्थों के संयोग से जो सुख होता है, वह भी व्यथा है और उन पदार्थों के वियोग से जो दुःख होता है, वह भी व्यथा है। परंतु जिसकी दृष्टि समता की तरफ है, उसको ये प्राकृत पदार्थ सुखी-दुःखी नहीं कर सकते। समता की तरफ दृष्टि रहने से अनुकूलता को लेकर उस सुख का ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होने से अंतःकरण में उस सुख का स्थायी रूप से संस्कार नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रतिकूलता आने पर उस दुःख का ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होने से अंतःकरण में उस दुःख का स्थायी रूप से संस्कार नहीं पड़ता। इस प्रकार सुख-दुःख के संस्कार न पड़ने से वह व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि अंतःकरण में सुख-दुख का ज्ञान होने से वह स्यवं सुखी-दुःखी नहीं होता। ‘सोऽमृतत्त्वाय कल्पते’- ऐसा धीर मनुष्य अमरता के योग्य हो जाता है अर्थात उसमें अमरता प्राप्त करने की सामर्थ्य आ जाती है। सामर्थ्य, योग्यता आने पर वह अमर हो ही जाता है, इसमें देरी का कोई काम नहीं। कारण कि उसकी अमरता तो स्वतःसिद्ध है। केवल पदार्थों के संयोग-वियोग से जो अपने में विकार मानता था, यही गलती थी।


यह मनुष्य-योनि सुख-दुःख भोगने के लिए नहीं मिली है, प्रत्युत सुख-दुःख से ऊँचा उठकर महान आनंद, परम शांति की प्राप्ति के लिए मिली है, जिस आनंद, सुख-शांति के प्राप्त होने के बाद और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।[1] अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि के होने में अथवा उनकी संभावना में हम सुखी होंगे अर्थात हमारे भीतर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति आदि को प्राप्त करने की कामना, लोलुपता रहेगी तो हम अनुकूलता का सदुपयोग नहीं कर सकेंगे। अनुकूलता का सदुपयोग करने की सामर्थ्य, शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो सकेगी। कारण कि अनुकूलता का सदुपयोग करने की शक्ति अनुकूलता के भोग में खर्च हो जायगी, जिससे अनुकूलता का सदुपयोग नहीं होगा; किंतु भोग ही होगा। इसी रीति से प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदि के आने पर अथवा उनकी आशंका से हम दुःखी होंगे तो प्रतिकूलता का सदुपयोग नहीं होगा; किंतु भोग ही होगा। दुःख को सहने की सामर्थ्य हमारे में नहीं रहेगी। अतः हम प्रतिकूलता के भोग में ही फँसे रहेंगे और दुःखी होते रहेंगे।


अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि के प्राप्त होने पर सुख-सामग्री का अपने सुख, आराम, सुविधा के लिए उपयोग करेंगे और उससे राजी होंगे तो यह अनुकूलता का भोग हुआ। परंतु निर्वाह-बुद्धि से उपयोग करते हुए उस सुख-सामग्री को अभावग्रस्तों की सेवा में लगा दें तो यह अनुकूलता का सदुपयोग हुआ। अतः सुख सामग्री को दुःखियों की ही समझें। उसमें दुःखियों का ही हक है। मान लो कि हम लखपति हैं तो हमें लखपति होने का सुख होता है, अभिमान होता है। परंतु यह सब तब होता है, जब हमारे सामने कोई लखपति न हो। अगर हमारे सामने, हमारे देखने-सुनने में जो आते हैं, वे सब के सब करोड़पति हों, तो क्या हमें लखपति होने का सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं मिलेगा। अतः हमें लखपति होने का सुख तो अभावग्रस्तों ने, दरिद्रों ने ही दिया है। अगर हम मिली हुई सुख-सामग्री से अभावग्रस्तों की सेवा न करके स्वयं सुख भोगते हैं, तो हम कृतघ्न होते हैं। इसी से सब अनर्थ पैदा होते हैं। कारण कि हमारे पास जो सुख सामग्री है, वह दु:खी आदमियों की ही दी हुई है। अतः उस सुख सामग्री को दुःखियों की सेवा में लगा देना हमारा कर्तव्य होता है।


यदि हम सुख-दुःख का उपभोग करते रहेंगे, तो भविष्य में हमें भोग-योनियों में अर्थात स्वर्ग, नरक आदि में जाना ही पड़ेगा। कारण कि सुख-दुःख भोगने के स्थान ये स्वर्ग, नरक आदि ही हैं। यदि हम सुख-दुख का भोग करते हैं, सुख-दुःख में सम नहीं रहते, सुख-दुःख से ऊँचे नहीं उठते, तो हम मुक्ति के पात्र कैसे होंगे? नहीं हो सकते।


चौदहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि ये सांसारिक पदार्थ आदि अनुकूलता-प्रतिकूलता के द्वारा सुख-दुःख देने वाले और आने-जाने वाले हैं, सदा रहने वाले नहीं हैं; क्योंकि ये अनित्य हैं, क्षणभंगुर है। इनके प्राप्त होने पर उसी क्षण इनका नष्ट होना शुरू हो जाता है। इनका संयोग होते ही इनसे वियोग होना शरू हो जाता है। ये पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमान में भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहे हैं। इनको भोगकर हम केवल अपना स्वभाव बिगाड़ रहे हैं, सुख-दुःख के भोगी बनते जा रहे हैं। सुख-दुःख के भोगी बनकर हम भोग योनि के ही पात्र बनते जा रहे हैं, फिर हमें मुक्ति कैसे मिलेगी? हमें भुक्ति[1] की ही रुचि है, तो फिर भगवान हमें मुक्ति कैसे देंगे? इस प्रकार यदि हम सुख-दुःख का उपभोग न करके उनका सदुपयोग करेंगे, तो हम सुख-दुःख से ऊँचे उठ जायेंगे और महान आनंद का अनुभव कर लेंगे।


नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।। 2.16 ।।


अर्थ- असत का तो भाव[2] विद्यमान नहीं है और सत का अभाव विद्यमान नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही अंत अर्थात तत्त्व देखा है।


व्याख्या- ‘नासतो विद्यते भावः’- शरीर उत्पत्ति के पहले भी नहीं था, मरने के बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमान में भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत, भविष्य और वर्तमान- इन तीनों कालों में कभी भावरूप से नहीं रहता। अतः यह असत है। इसी तरह से संसार का भी भाव नहीं है, यह भी असत है। यह शरीर तो संसार का एक छोटा सा नमूना है; इसलिए शरीर के परिवर्तन से संसार मात्र के परिवर्तन का अनुभव होता है कि इस संसार का पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमान में भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमान में भी अभाव हो रहा है।


संसार मात्र कालरूपी अग्नि में लकड़ी की तरह निरंतर जल रहा है। लकड़ी के जलने पर तो कोयला और राख बची रहती है, पर संसार को कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीति से जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसार का अभाव ही अभाव कर देती है। इसलिए कहा गया है कि असत की सत्ता नहीं है।


‘नाभावो विद्यते सतः’- जो सत वस्तु है, उसका अभाव नहीं होता अर्थात जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था, तब भी देही था, देह नष्ट होने पर भी देही रहेगा और वर्तमान में देह के परिवर्तनशील होने पर भी देही उसमें ज्यों का त्यों ही रहता है। इसी रीति से जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था, उस समय भी परमात्मतत्त्व था, संसार का अभाव होने पर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमान में संसार के परिवर्तनशील होने पर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्यों-का त्यों ही है।


संसार को हम एक ही बार देख सकते हैं, दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है; अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी, दूसरे क्षण में वह वैसी नहीं रहती, जैसे- सिनेमा देखते समय परदे पर दृश्य स्थिर दीखता है; पर वास्तव में उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीन पर फिल्म तेजी से घूमने के कारण वह परिवर्तन इतनी तेजी से होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं[1]।

इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तव में संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जिन कारणों से हम संसार को देखते हैं- अनुभव करते हैं, वे कारण भी संसार के ही हैं। अतः वास्तव में संसार से ही संसार दीखता है। जो शरीर-संसार से सर्वथा संबंध रहित है, उस स्वरूप से संसार कभी दीखता ही नहीं ! तात्पर्य यह है कि स्वरूप में संसार की प्रतीति नहीं है। संसार के संबंध से ही संसार की प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूप का संसार से कोई संबंध है ही नहीं। दूसरी बात, संसार[2] की सहायता के बिना चेतन स्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसार में ही है, स्वरूप में नहीं। स्वरूप का क्रिया से कोई संबंध है ही नहीं। संसार का स्वरूप है- क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूप का न तो क्रिया से और न पदार्थ ही कोई संबंध है, तब यह सिद्ध हो गया है कि शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि-सहित संपूर्ण संसार का अभाव है। केवल परमात्मतत्त्व का ही भाव[3] है, जो निर्लिप्तरूप से सबका प्रकाशक और आधार है। ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’- इन दोनों के अर्थात सत-असत, देही देह के तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों ने इनका तत्त्व देखा है, इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत-तत्त्व ही विद्यमान है। असत वस्तु का तत्त्व भी सत है और सत वस्तु का तत्त्व भी सत है अर्थात दोनों का तत्त्व एक ‘सत्’ ही है, दोनों का तत्त्व भावरूप से एक ही है। अतः सत और असत- इन दोनों के तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों के द्वारा जानने में आने वाला एक सत-तत्त्व ही है। असत की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह सत्ता भी वास्तव में सत की ही है। सत की सत्ता से ही असत सत्तावान प्रतीत होता है। इसी सत को ‘परा प्रकृति’[4], ‘क्षेत्रज्ञ’[5], ‘पुरुष’[6] और ‘अक्षर’[7] कहा गया है; तथा असत को ‘अपरा प्रकृति’, ‘क्षेत्र’, ‘प्रकृति’ और ‘क्षर’ कहा गया है।

अर्जुन भी शरीरों को लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करने ये सब मर जायेंगे। इस पर भगवान कहते हैं कि क्या युद्ध न करने से ये नहीं मरेंगे? असत तो मरेगा ही और निरंतर मर ही रहा है। परंतु इसमें जो सत रूप से है, उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है।


ग्यारहवें श्लोक में आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं, उन दोनों के लिए पंडितजन शोक नहीं करते। बारहवें-तेरहवें श्लोकों में देही की नित्यता का वर्णन है और उसमें ‘धीर’ शब्द आया है। चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकों में संसार की अनित्यता का वर्णन आया है, तो उसमें भी ‘धीर’ शब्द आया है। ऐसी ही यहाँ[8] सत-असत का विवेचन आया है, तो इसमें ‘तत्त्वदर्शी’[9] शब्द आया ।

इन श्लोकों में ‘पंडित’, ‘धीर’ और ‘तत्त्वदर्शी’ पद देने का तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं, समझदार होते हैं, उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है, तो वे विवेकी नहीं है, समझदार नहीं है।


अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। 17 ।।


अर्थ- अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशी विनाश कोई भी नहीं कर सकता।


व्याख्या- ‘अविनाशि तु तद्विद्धि’- पूर्व श्लोक में जो सत-असत की बात कही थी, उसमें से पहले ‘सत्’ की व्याख्या करने के लिए यहाँ ‘तु’ पद आया है। ‘उस अविनाशी तत्त्व को तू समझ’- ऐसा कहकर भगवान ने उस तत्त्व को परोक्ष बताया है। परोक्ष बताने में तात्पर्य है कि इदंता से दीखने वाले इस संपूर्ण संसार में वह परोक्ष तत्त्व ही व्याप्त है, परिपूर्ण है। वास्तव में जो परिपूर्ण है, वही ‘है’ और जो सामने संसार दीख रहा है, यह ‘नहीं’ है।


यहाँ ‘तत्’ पद से सत-तत्त्व को परोक्ष रीति से कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वह तत्त्व बहुत दूर है; किंतु वह इंद्रियों और अंतःकरण का विषय नहीं है, इसलिए उसको परोक्ष रीति से कहा गया है।

‘येन सर्वमिदं ततम्’[1] जिसको परोक्ष कहा है, उसी का वर्णन करते हैं कि यह सब-का-सब संसार उस नित्य-तत्त्व से व्याप्त है। जैसे सोने से बने हुए गहनों में सोना, लोहे से बने हुए अस्त्र-शस्त्रों में लोहा, मिट्टी से बने हुए बर्तनों में मिट्टी और जल से बनी हुई बर्फ में जल ही व्याप्त[2] है, ऐसे ही संसार में वह सत-तत्त्व ही व्याप्त है। अतः वास्तव में इस संसार में वह सत- तत्त्व ही जानने योग्य है।


‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’- यह शरीरी अव्यय[3] अर्थात अविनाशी है। इस अविनाशी का कोई विनाश कर ही नहीं सकता। परंतु शरीर विनाशी है- क्योंकि वह नित्य निरंतर विनाश की तरफ जा रहा है। अतः इस विनाशी के विनाश को कोई रोक ही नहीं सकता। तू सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो ये नहीं मरेंगे, पर वास्तव में तेरे युद्ध करने से अथवा न करने से इस अविनाशी और विनाशी तत्त्व में कुछ फरक नहीं पड़ेगा अर्थात अविनाशी तो रहेगा ही और विनाशी का नाश होगा ही। यहाँ ‘अस्य’ पद से सत-तत्त्व को इदंता से कहने का तात्पर्य है कि प्रतिक्षण बदलने वाले शरीर में जो सत्ता दीखती है, वह इसी सत-तत्त्व की है। ‘मेरा शरीर है और मैं शरीरधारी हूँ’- ऐसा जो अपनी सत्ता का ज्ञान है, उसी को लक्ष्य करके भगवान ने यहाँ ‘अस्य’ पद दिया है।


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।। 18 ।।


अर्थ- अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहने वाले इस शरीरी के ये देह अंत वाले कहे गये हैं। इसलिए हे अर्जुन ! तुम युद्ध करो।


व्याख्या- ‘अनाशिनः’- किसी काल में, किसी कारण से कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम ‘अनाशी’ अर्थात अविनाशी है।


‘अप्रमेयस्य’- जो प्रमा[1] का विषय नहीं है अर्थात जो अंतःकरण और इंद्रियों का विषय नहीं है, उसको ‘अप्रमेय’ कहते हैं। इसमें अंतःकरण और इंद्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और संत-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और संत-महापुरुष उन्हीं के लिए प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और संत में श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और संत के वचनों को मानता है। इसलिए यह तत्त्व केवल श्रद्धा का विषय है[2], प्रमाण का विषय नहीं।


शास्त्र और संत किसी को बाध्य नहीं करते कि तुम हमारे में श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करने में मनुष्य स्वतंत्र है। अगर वह शास्त्र और संत के वचनों में श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धा का विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धा का विषय नहीं है।


‘नित्यस्य’- यह नित्य-निरंतर रहने वाला है। किसी काल में यह न रहता हो- ऐसी बात नहीं है अर्थात यह सब काल में सदा ही रहता है। ‘अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः’- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरी के संपूर्ण संसार में जितने भी शरीर हैं, वे सभी अंत वाले कहे गये हैं। अंत वाले कहने का तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अंत हो रहा है। इनमें अंत के सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अंत ही अंत है।

उपर्युक्त पदों में शरीरी के लिए तो एकवचन दिया है और शरीरों के लिए बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणी के स्थूल, सूक्ष्म और कारण- ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसार के संपूर्ण शरीरों में एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोक में भी इसको ‘सर्वगतः’ पद से सब में व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जाने वाले संपूर्ण शरीर नाशवान है। जैसे अविनाशी का कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात उसका तो नाश ही होगा।


यहाँ ‘अन्तवन्त इमे देहाः’ कहने का तात्पर्य है कि ये जो देह देखने में आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान हैं। पर ये देह किसके हैं? ‘नित्यस्य’, ‘अनाशिनः’- ये देह नित्य के हैं, अविनाशी के हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्व ने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना मानने का अर्थ है कि अपने को शरीर में रख दिया और शरीर को अपने में रख लिया। अपने को शरीर में रखने से ‘अहंता’ अर्थात ‘मैं’- पन पैदा हो गया और शरीर को अपने में रखने से ‘ममता’ अर्थात ‘मेरा’- पन पैदा हो गया।


यह स्वयं जिन-जिन चीजों में अपने को रखता चला जाता है, उन-उन चीजों में ‘मैं’-पन होता ही चला जाता है; जैसे- अपने को धन में रख दिया तो ‘मैं धनी हूँ’; अपने को राज्य में रख दिया तो ‘मैं राजा हूँ’; अपने को विद्या में रख दिया तो ‘मैं विद्वान हूँ’; अपने को बुद्धि में रख दिया तो ‘मैं बुद्धिमान हूँ’; अपने को सिद्धियों में रख दिया तो ‘मैं सिद्ध हूँ’; अपने को शरीर में रख दिया तो ‘मैं शरीर हूँ’; आदि-आदि।


यह स्वयं जिन-जिन चीजों को अपने में रखता चला जाता है, उन-उन चीजों में ‘मेरा’- पन होता ही चला जाता है; जैसे- कुटुम्ब को अपने में रख लिया तो ‘कुटुम्ब मेरा है’; धन को अपने में रख लिया तो ‘धन मेरा है’; बुद्धि को अपने में रख लिया तो ‘बुद्धि मेरी है’; शरीर को अपने में रख लिया तो ‘शरीर मेरा है’; आदि-आदि।

जड़ता के साथ ‘मैं’ और ‘मेरा’- पन होने से ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं[1] दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेक को महत्त्व न देने से ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परंतु जो इस विवेक को आदर देते हैं, महत्त्व देते हैं वे पंडित होते हैं। ऐसे पंडित लोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है- इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है। ‘तस्मात्[2]युध्यस्व’- भगवान अर्जुन के लिए आज्ञा देते हैं कि सत्-असत् को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात प्राप्त कर्तव्य का पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अंत वाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों- शरीर-शरीरी की दृष्टि से शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोक का त्याग करके युद्ध करो।


विशेष बात

यहाँ सत्रहवें और अठारहवें- इन दोनों श्लोकों में विशेषता से सत्-तत्त्व का ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरण में भगवान का लक्ष्य सत् का बोध कराने में ही है। सत् का बोध हो जाने से असत् की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकार का किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं रहता। इस प्रकार सत् का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इस विवेचन से यह बात सिद्ध होती है कि सांख्य योग में कर्मयोग में किसी विशेष वर्ण और आश्रम की आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याण के लिए चाहे सांख्ययोग का अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोग का अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्रता है। परंतु व्यावहारिक काम करने में वर्ण और आश्रम के अनुसार शास्त्रीय विधान की परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोग के अनुसार सत्-असत् का विवेचन करते हुए भगवान युद्ध करने की अर्थात कर्तव्य कर्म करने की आज्ञा देते हैं।


आगे तेरहवें अध्याय में जहाँ ज्ञान के साधनों का वर्णन किया गया है, वहाँ भी ‘असक्तिरनभिषंगः पुत्रदार गृहादिषु’[3] कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदि की आसक्ति का निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्ययोग के अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदि में आसक्तिरहित होने के लिए कहने की आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासी के पुत्र स्त्री आदि होते ही नहीं।


इस तरह गीता पर विचार करने से सांख्ययोग एव कर्मयोग- दोनों परमात्मप्राप्ति के स्वतंत्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रम पर किञ्चिन्मात्र भी अविलंबित नहीं है।

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।। 19 ।।


अर्थ- जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरी को मारने वाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।


व्याख्या- ‘य एनं[1] वेत्ति हन्तारम्’- जो इस शरीरी को मारने वाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता। कारण कि शरीर में कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजार के बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शऱीरी शरीर के बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः तेरहवें अध्याय में भगवान ने कहा कि सब प्रकार की क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती है- ऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरी के अकर्तापन का अनुभव करता है[2]। तात्पर्य यह हुआ कि शरीरी में कर्तापन नहीं है, पर यह शरीर के साथ तादात्म्य करके, संबंध जोड़कर शरीर से होने वाले क्रियाओं में अपने को कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीर के साथ अपना संबंध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है।


‘यश्चैनं मन्यते हतम्’- जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारने वाला नहीं है, ऐसे ही यह मरने वाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात जो उत्पत्ति-विनाश शील होता है, वही मर सकता है।


‘उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते’- वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात जो इस शरीर को मारने वाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरने वाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता।


यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीर को मारने वाला और मरने वाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तव में ऐसा नहीं है। यह नाश करने वाला भी नहीं है और नष्ट होने वाला भी नहीं है। यह निर्विकार रूप से नित्य-निरंतर ज्यों का त्यों रहने वाला है। अतः इस शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिए।


अर्जुन के सामने युद्ध का प्रसंग होने से ही यहाँ शरीरी को मरने-मारने की क्रिया से रहित बताया गया है। वास्तव में यह संपूर्ण क्रियाओं से रहित है।




तत्व की समझ

 



प्राकृत पदार्थों के प्राप्त होने पर भी शोक दूर हो जाय, यह मैं नहीं देखता हूँ- ऐसा कहने के बाद अर्जुन ने क्या किया? इसका वर्णन संजय आगे के श्लोक में करते हैं।


एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप ।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।। 2_9 ।।


अर्थ- संजय बोले- हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र ! ऐसा कहकर निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी भगवान गोविन्द से ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा स्पष्ट कहकर चुप हो गये।


व्याख्या- ‘एवमुक्त्वा हृषीकेशम्......बभूव ह’- अर्जुन ने अपना और भगवान का- दोनों का पक्ष सामने रखकर उन पर विचार किया, तो अंत में वे इसी निर्णय पर पहुँचे कि युद्ध करने से तो अधिक-से-अधिक राज्य प्राप्त हो जायगा, मान हो जायगा, संसार में यश हो जायगा, परंतु मेरे हृदय में जो शोक है, चिंता है, दुःख है, वे दूर नहीं होंगे। अतः अर्जुन को युद्ध न करना ही ठीक मालूम दिया।


यद्यपि अर्जुन भगवान की बात का आदर करते हैं और उसको मानना भी चाहते हैं; परंतु उनके भीतर युद्ध करने की बात ठीक-ठीक जँच नहीं रही है। इसलिए अर्जुन अपने भीतर जँची हुई बात को ही यहाँ स्पष्ट रूप से, साफ-साफ कह देते हैं कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’। इस प्रकार जब अपनी बात, अपना निर्णय भगवान से साफ-साफ कह दिया, तब भगवान से कहने के लिए और कोई बात बाकी नहीं रही; अतः वे चुप हो जाते हैं।


जब अर्जुन ने युद्ध करने के लिए साफ मना कर दिया, तब उसके बाद क्या हुआ- इसको संजय आगे के श्लोक में बताते हैं।


तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। 2_10 ।।


हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओं के मध्यभाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हँसते हुए- से भगवान हृषीकेश ये[1] वचन बोले।


व्याख्या- ‘तमुवाच हृषीकेशः..... विषीदन्तमिदं वचः’- अर्जुन ने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओं को देखने के लिए भगवान से दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने के लिए कहा था। अब वहीं पर अर्थात दोनों सेनाओं के बीच में अर्जुन विषादमग्न हो गये! वास्तव में होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्देश्य से आये थे, उस उद्देश्य के अनुसार युद्ध के लिए खड़े हो जाते। परंतु उस उद्देश्य को छोड़कर अर्जुन चिंता-शोक में फँस गये। अतः अब दोनों सेनाओं के बीच में ही भगवान शोकमग्न अर्जुन को उपदेश देना आरंभ करते हैं।


‘प्रहसन्निव’ का तात्पर्य है कि अर्जुन के भाव बदलने को देखकर अर्थात पहले जो युद्ध करने का भाव था, वह अब विषाद में बदल गया- इसको देखकर भगवान को हँसी आ गयी। दूसरी बात, अर्जुन ने पहले कहा था कि मैं आपके शरण हूँ, मेरे को शिक्षा दीजिये अर्थात मैं युद्ध करूँ या न करूँ, मेरे को क्या करना चाहिये- इसकी शिक्षा दीजिये; परंतु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफ से ही निश्चय कर लिया कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’- यह देखकर भगवान को हँसी आ गयी। कारण कि शरणागत होने पर ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’ आदि कुछ भी सोचने का अधिकार नहीं रहता। उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे। अर्जुन भगवान के शरण होने के बाद ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा कहकर एक तरह से शरणागत होने से हट गये। इस बात को लेकर भगवान को हँसी आ गयी। ‘इव’ का तात्पर्य है कि जोर से हँसी आने पर भी भगवान मुस्कराते हुए ही बोले।


जब अर्जुन ने यह कह दिया कि ‘मैं युद्ध नही करूँगा’ तब भगवान को यहीं कह देना चाहिए था कि जैसी तेरी मर्जी आये, वैसा कर- ‘यथेच्छसि तथा कुरु’। परंतु भगवान ने यही समझा कि मनुष्य जब चिंता-शोक से विकल हो जाता है, तब वह अपने कर्तव्य का निर्णय न कर सकने के कारण कभी कुछ, तो कभी कुछ बोल उठता है। यही दशा अर्जुन की हो रही है। अतः भगवान के हृदय में अर्जुन के प्रति अत्यधिक स्नेह होने के कारण कृपालुता उमड़ पड़ी। कारण कि भगवान साधक के वचनों की तरफ ध्यान न देकर उसके भाव की तरफ ही देखते हैं। इसलिए भगवान अर्जुन के ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ इस वचन की तरफ ध्यान न देकर[5] उपदेश आरंभ कर देते हैं।


जो वचन मात्र से भी भगवान के शरण हो जाते हैं, भगवान उसको स्वीकार कर लेते हैं। भगवान के हृदय में प्राणियों के प्रति कितनी दयालुता है! ‘हृषीकेश’ कहने का तात्पर्य है कि भगवान अंतर्यामी हैं अर्थात प्राणियों के भीतरी भावों को जानने वाले हैं। भगवान अर्जुन के भीतरी भावों को जानते हैं कि अभी तो कौटुम्बिक मोह के वेग के कारण और राज्य मिलने से अपना शोक मिटता न दीखने के कारण यह कह रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’; परंतु जब इसको स्वयं चेत होगा, तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही यह करेगा। ‘इदं वचः उवाच’ पदों में केवल ‘उवाच’ कहने से ही काम चल सकता था; क्योंकि ‘उवाच’ के अंतर्गत ही ‘वचः’ पद का अर्थ आ जाता है। अतः ‘वचः’ पद देना पुनरुक्तिदोष दीखता है। परंतु वास्तव में यह पुनरुक्तिदोष नहीं है, प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है। अभी आगे के श्लोक से भगवान जिस रहस्यमय ज्ञान को प्रकट करके उसे सरलता से, सुबोध भाषा में समझाते हुए बोलेंगे, उसकी तरफ लक्ष्य करने के लिए यहाँ ‘वचः’ पद दिया गया है। सम्बन्ध:- शोकाविष्ट अर्जुन को शोक-निवृत्तिका उपदेश देने के लिये भगवान आगे का प्रकरण कहते है।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।। 2_11 ।।


अर्थ- श्री भगवान बोले- तुमने शोक न करने योग्य का शोक किया है और पंडिताई की बातें कह रहे हो; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पंडित लोग शोक नहीं करते।


व्याख्या- [मनुष्य को शोक तब होता है, जब वह संसार के प्राणी-पदार्थों में दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं है; ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं; ये हमारे वर्ण के हैं और ये हमारे वर्ण के नहीं हैं; ये हमारे आश्रम के हैं और ये हमारे आश्रम के नहीं है; ये हमारे पक्ष के हैं और ये हमारे पक्ष के नहीं है। जो हमारे होते हैं, उनमें ममता, कामना, प्रियता, आसक्ति हो जाती है। इन ममता, कामना आदि से ही शोक, चिंता, भय, उद्वेग, हलचल, संताप आदि दोष पैदा होते हैं। ऐसा कोई भी दोष, अनर्थ नहीं है, जो ममता, कामना आदि से पैदा न होता हो- यह सिद्धांत है।

गीता में सबसे पहले धृतराष्ट्र ने कहा कि मेरे और पांडु के पुत्रों ने युद्धभूमि में क्या किया? यद्यपि पांडव धृतराष्ट्र को अपने पिता से भी अधिक आदर दृष्टि से देखते थे, तथापि धृतराष्ट्र के मन में अपने पुत्रों के प्रति ममता थी। अतः उनका अपने पुत्रों में और पांडवों में भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं है।

जो ममता धृतराष्ट्र में थी, वह ममता अर्जुन में भी पैदा हुई। परंतु अर्जुन की वह ममता धृतराष्ट्र की ममता के समान नहीं थी। अर्जुन में धृतराष्ट्र की तरह पक्षपात नहीं था; अतः वे सभी को स्वजन कहते हैं- ‘दृष्ट्‍वेमं स्वजनम्’, और दुर्योधन आदि को भी स्वजन कहते हैं- ‘स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव’। तात्पर्य है कि अर्जुन की संपूर्ण कुरुवंशियों में ममता थी और उस ममता के कारण ही उनके मरने की आशंका से अर्जुन को शोक हो रहा था। इस शोक को मिटाने के लिए भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया है, जो इस ग्यारहवें श्लोक से आरंभ होता है। इसके अंत में भगवान इसी शोक को अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत कर- ‘मा शुचः’।[3] कारण कि संसार का आश्रय लेने से ही शोक होता है कि और अनन्यभाव से मेरा आश्रय लेने से तेरे शोक, चिंता आदि सब मिट जाएयँगे।]


‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्’- संसार मात्र में दो चीजें हैं- सत् और असत्, शरीरी और शरीर। इन दोनों में शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही अशोच्य हैं। अविनाशी का कभी विनाश नहीं होता, इसलिए उसके लिए शोक करना बनता ही नहीं और विनाशी का विनाश ही होता है, वह एक क्षण भी स्थायी रूप से नहीं रहता, इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरी को लेकर बन सकता है और न शरीरों को लेकर ही बन सकता है। शोक के होने में तो केवल अविवेक[4] ही कारण है।


मनुष्य के सामने जन्मना-मरना, लाभ-हानि आदि के रूप में जो कुछ परिस्थिति आती है, वह प्रारब्ध का अर्थात अपने किये हुए कर्मों का ही फल है। उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता ही है। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये, चाहे प्रतिकूल आये, उसका आरंभ और अंत होता है अर्थात वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अंत में भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदि में और अंत में नहीं होती, वह बीच में एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे? और मिटती है तो स्थायी कैसे? ऐसी प्रतिक्षण मिटने वाली अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर हर्ष-शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है।

‘प्रज्ञावादांश्च भाषसे’- एक तरफ तो तू पंडिताई की बातें बघार रहा है, और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है। अतः तू केवल बातें ही बनाता है। वास्तव में तू पंडित नहीं है; क्योंकि जो पंडित होते हैं, वे किसी के लिए भी कभी शोक नहीं करते।


कुल का नाश होने से कुल धर्म नष्ट हो जायगा। धर्म के नष्ट होने से स्त्रियाँ दूषित हो जायँगी, जिससे वर्णसंकर पैदा होगा। वह वर्णसंकर कुलघातियों को और उनके कुल को नरकों में ले जाने वाला होगा। पिंड और पानी न मिलने से उनके पितरों का भी पतन हो जायगा- ऐसी तेरी पंडिताई की बातों से भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान है और शरीरी अविनाशी है। अगर शरीरी स्वयं अविनाशी न होता, तो कुलघाती और कुल के नरकों में जाने का भय नहीं होता, पितरों का पतन होने की चिंता नहीं होती। अगर तुझे कुल की और पितरों की चिंता होती है, उनका पतन होने का भय होता है तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान है और उसमें रहने वाला शरीरी नित्य है। अतः शरीरों के नाश को लेकर तेरा ही शोक करना अनुचित है।


‘गतासूनगतासूंश्च’- सबके पिंड- प्राण का वियोग अवश्यम्भावी है। उनमें से किसी के पिंड का प्राण का वियोग हो गया है और किसी का होने वाला है। अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिए। तुमने जो शोक किया है, यह तुम्हारी गलती है।

जो मर गए हैं, उनके लिए शोक करना तो महान गलती है। कारण कि मरे हुए प्राणियों के लिये शोक करने से उन प्राणियों को दुःख भोगना पड़ता है। जैसे मृतात्मा के लिए जो पिंड और जल दिया जाता है, वह उसको परलोक में मिल जाता है, ऐसे ही मृतात्मा के लिए जो कफ और आँसू बहाते हैं, वे मृतात्मा को परवश होकर खाने-पीने पड़ते हैं। [1]। जो कभी जी रहे हैं, उनके लिए भी शोक नहीं करना चाहिये। उनका तो पालन-पोषण करना चाहिये, प्रबंधन करना चाहिए।


उनकी क्या दशा होगी! उनका भरण-पोषण कैसे होगा! उनकी सहायता कौन करेगा! आदि चिंता शोक कभी नहीं करने चाहिये; क्योंकि चिंता शोक करन से कोई लाभ नहीं है। मेरे शरीर के अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है आदि विकारों के पैदा होने में मूल कारण है- शरीर के साथ एकता मानना। कारण कि शरीर के साथ एकता मानने से ही शरीर का पालन-पोषण करने वालों के साथ अपनापन हो जाता है, और उस अपनेपन के कारण ही कुटुम्बियों के मरने की आशंका से अर्जुन के मन में चिंता-शोक हो रहे हैं, तथा चिंता-शोक से ही अर्जुन के शरीर में उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं। इसमें भगवान ने ‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’ के शोक को ही हेतु बताया है। जिनके प्राण चले गये हैं, वे ‘गतासून्’ हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, वे ‘अगतासून्’ हैं। पिंड और जल न मिलने से पितरों का पतन हो जाता है[1]- यह अर्जुन की ‘गतासून्’ की चिंता है। और ‘जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही प्राणों की और धन की आशा छोड़कर युद्ध में खड़े हैं’[2]- यह अर्जुन की ‘अगतासून्’ की चिंता है। ये दोनों चिंताएं शरीर को लेकर ही हो रही हैं; अतः ये दोनों चिंताएँ धातुरूप से एक ही हैं। कारण कि ‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’ दोनों ही नाशवान् हैं।

‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’- इन दोनों के लिये कर्तव्य-कर्म करना चिंता की बात नहीं है। ‘गतासून्’ के लिए पिंड पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करना- यह कर्तव्य है, और ‘अगतासून्’ के लिए व्यवस्था कर देना, निर्वाह का प्रबंध कर देना- यह कर्तव्य है। कर्तव्य चिंता का विषय नहीं होता, प्रत्युत विचार का विषय होता है। विचार से कर्तव्य का बोध होता है, और चिंता से विचार नष्ट होता है।

‘नानुशोचन्ति पंडिताः’- सत्-असत्-विवेकवती बुद्धि का नाम ‘पंडा’ है। वह ‘पंडा’ जिनकी विकसित हो गयी है अर्थात जिनको सत्-असत् का स्पष्टतया विवेक हो गया है, वे पंडित है। ऐसे पंडितों में सत्-असत् को लेकर शोक नहीं होता; क्योंकि सत् को सत् मानने से भी शोक नहीं होता और असत् को असत् मानने से भी शोक नहीं होता। स्वयं सत्-स्वरूप है, और बदलने वाला शरीर असत्-स्वरूप है। असत् को सत् मान लेने से ही शोक होता है अर्थात ये शरीर आदि से ही बने रहें, मरे नहीं- इस बात को लेकर ही शोक होता है। सत् को लेकर कभी चिंता-शोक होते ही नहीं।


सत-तत्त्व को लेकर शोक करना अनुचित क्यों है- इस शंका के समाधान के लिये आगे दो श्लोक कहते है।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।। 12 ।।


अर्थ- किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद मैं, तू और राजालोग- ये सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।


व्याख्या- [मात्र संसार में दो ही वस्तुएँ हैं- शरीरी[1] और शरीर[2]। ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात् शोक न शरीरी[3] को लेकर हो सकता है और न शरीर को लेकर ही हो सकता है। कारण कि शरीरी का कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं। इन दोनों के लिए पूर्व श्लोक में जो ‘अशोच्यान्’ पद आया है, उसकी व्याख्या अब शरीरी की नित्यता और शरीर की अनित्यता के रूप में करते हैं।]

‘न त्वेवाहं जातु...... जनाधिपाः’- लोगों की दृष्टि से मैंने जब तक अवतार नहीं लिया था, तब तक मैं इस रूप से[4] सबके सामने प्रकट नहीं था और तेरा जब तक जन्म नहीं हुआ था, तब तक तू भी इस रूप से[5] सबके सामने प्रकट नहीं था तथा इन राजाओं का भी जब तक जन्म नहीं हुआ था, तब तक ये भी इस रूप से[6] सबके सामने प्रकट नहीं थे। परंतु मैं तू और ये राजा लोग इस रूप से प्रकट न होने पर भी पहले नहीं थे- ऐसी बात नहीं है। यहाँ ‘मैं, तू और ये राजालोग पहले थे- ऐसा कहने से ही काम चल सकता था, पर ऐसा न कहकर ‘मैं, तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं’- ऐसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि ‘पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं’ ऐसा कहने से ‘पहले हम सब जरूर थे’- यह बात दृढ़ हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि नित्य-तत्त्व सदा ही नित्य है। इसका कभी अभाव था ही नहीं। ‘जातु’ कहने का तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान काल में तथा किसी भी देश, परिस्थिति, अवस्था, घटना, वस्तु आदि में नित्य तत्त्व का किञ्चिंमात्र भी अभाव नहीं हो सकता।

यहाँ ‘अहम्’ पद देकर भगवान ने एक विलक्षण बात कही है। आगे चौथे अध्याय के पाँचवें श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि ‘मेरे और तेरे बहुत से जन्म हुए हैं, पर उनको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता।’ इस प्रकार भगवान ने अपना ईश्वरपना प्रकट करके जीवों से अपने को अलग बताया है। परंतु यहाँ भगवान जीवों के साथ अपनी एकता बता रहे हैं। इसका तात्पर्य है कि वहाँ[7] भगवान का आशय अपनी महत्ता, विशेष प्रकट करने में है और यहाँ भगवान का आशय तात्त्विक दृष्टि से नित्य-तत्त्व को जनाने में है।

‘न चैव...... वयमतः परम्’- भविष्य में शरीरों की ये अवस्थाएं नहीं रहेंगी और एक दिन ये शरीर भी नहीं रहेंगे; परंतु ऐसी अवस्था में भी हम सब नहीं रहेंगे- यह बात नहीं है अर्थात हम सब जरूर रहेंगे। कारण कि नित्य-तत्त्व का कभी अभाव था नहीं और होगा भी नहीं।


मैं, तू औ राजा लोग- हम सभी पहले नहीं थे, यह बात भी नहीं है, और आगे नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है- इस प्रकार भूत और भविष्य की बात तो भगवान ने कह दी, पर वर्तमान की बात भगवान ने नहीं कही। इसका कारण यह है कि शरीरों की दृष्टि से तो हम सब वर्तमान में प्रत्यक्ष ही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। इसलिए ‘हम सब अभी नहीं हैं, यह बात नहीं है’- ऐसा कहने की जरूरत नहीं है। अगर तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय, तो हम सभी वर्तमान में हैं और ये शरीर प्रतिक्षण बदल रहे हैं- इस तरह शरीरों से अलगाव का अनुभव हमें वर्तमान में ही कर लेना चाहिए। तात्पर्य है कि जैसे भूत और भविष्य में अपनी सत्ता का अभाव नहीं है, ऐसे ही वर्तमान में भी अपनी सत्ता का अभाव नहीं है- इसका अनुभव करना चाहिये।

जैसे प्रत्येक प्राणी को नींद खुलने से पहले भी यह अनुभव रहता है कि ‘अभी हम हैं’ और नींद खुलने पर भी यह अनुभव रहता ह कि ‘अभी हम हैं’ तो नींद की अवस्था में भी हम वैसे के वैसे ही थे। केवल बाह्य जानने की सामग्री का अभाव था, हमारा अभाव नहीं था। ऐसे ही मैं, तू और राजा लोग- हम सब के शरीर पहले भी नहीं थे और बाद में भी नहीं रहंगे तथा अभी भी शरीर प्रतिक्षण नाश की ओर जा रहे हैं, परंतु हमारी सत्ता पहले भी थी, पीछे भी रहेगी और अभी भी वैसी-की-वैसी ही है।

हमारी सत्ता कालातीत तत्त्व है; क्योंकि हम उस काल के भी ज्ञाता हैं अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान- ये तीनों काल हमारे जानने में आते हैं। उस कालातीत तत्त्व को समझाने के लिए ही भगवान् ने यह श्लोक कहा है।

विशेष बात

मैं, तू और राजा लोग पहले नहीं थे- यह बात नहीं और आगे नहीं रहेंगे- यह बात भी नहीं, ऐसा कहने का तात्पर्य है कि जब ये शरीर नहीं थे, तब भी हम सब थे और जब ये शरीर नहीं रहेंगे तब भी हम रहेंगे अर्थात ये सब शरीर तो हैं नाशवान और हम सब हैं अविनाशी। ये शरीर पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे- इससे शरीरों की अनित्यता सिद्ध हुई और हम सब पहले थे और आगे रहेंगे- इससे सब के स्वरूप की नित्यता सिद्ध हुई। इन दो बातों से यह एक सिद्धांत सिद्ध होता है कि जो आदि और अंत में रहता है, वह मध्य में भी रहता है; तथा जो आदि और अंत में नहीं रहता, वह मध्य में भी नहीं रहता।

जो आदि और अंत में नहीं रहता, वह मध्य में कैसे नहीं रहता; क्योंकि वह तो हमें दीखता है? इसका उत्तर यह है कि जिस दृष्टि से अर्थात जिन मन, बुद्धि और इंद्रियों से दृश्य का अनुभव हो रहा है, उन मन-बुद्धि-इंद्रियों सहित वह दृश्य प्रतिक्षण बदल रहा है। वे एक क्षण भी स्थायी नहीं है।

ऐसा होने पर भी जब स्वयं दृश्य के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह द्रष्टा अर्थात देखने वाल बन जाता है। जब देखने के साधन[1] और दृश्य[2] ये सभी एक क्षण भी स्थायी नहीं है, तो देखने वाला स्थायी कैसे सिद्ध होगा? तात्पर्य है कि देखने वाले की संज्ञा तो दृश्य और दर्शन के संबंध से ही है। दृश्य और दर्शन से संबंध न हो तो देखने वाले की कोई संज्ञा नहीं होती, प्रत्युत उसका आधार रूप जो नित्य-तत्त्व है, वही रह जाता है। उस नित्य-तत्त्व को हम सबकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का आधार और संपूर्ण प्रतीतियों का प्रकाशक कह सकते हैं। परंतु ये आधार और प्रकाशक नाम भी आधेय और प्रकाश्य के संबंध से ही हैं। आधेय और प्रकाश्य के न रहने पर भी उसकी सत्ता ज्यों-की-त्यों ही है। उस सत्य-तत्त्व की तरफ जिसकी दृष्टि है, उसको शोक कैसे हो सकता है? अर्थात नहीं हो सकता। इसी दृष्टि से मैं, तू और राजा लोग स्वरूप से अशोच्य हैं।


देहिनोऽस्मन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।। 13 ।।


अर्थ- देहधारी के इस मनुष्य शरीर में जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।


व्याख्या- ‘देहिनोऽस्मिन्यथा देहे[1]कौमारं यौवनं जरा’- शरीरधारी के शरीर में पहले बाल्यावस्था आती है, फिर युवावस्था आती है और फिर वृद्धावस्था आती है। तात्पर्य है कि शरीर में कभी एक अवस्था नहीं रहती, उसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है।

यहाँ ‘शरीरधारी के इस शरीर में’ ऐसा कहने से सिद्ध होता है कि शरीरी अलग है और शरीर अलग है। शरीरी द्रष्टा है और शरीर दृश्य है। अतः शरीर में बालकपन आदि अवस्थाओं का जो परिवर्तन है, वह परिवर्तन शरीरी में नहीं है।

‘तथा देहान्तरप्राप्ति’- जैसे शरीर की कुमार, युवा आदि अवस्थाएं होती हैं, ऐसे ही देहान्तर की अर्थात दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। जैसे स्थूल शरीर बालक से जवान एवं जवान से बूढ़ा हो जाता है, तो इन अवस्थाओं के परिवर्तन को लेकर कोई शोक नहीं होता, से ही शरीरी एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है, तो इस विषय में भी शोक नहीं होना चाहिये। जैसे स्थूल शरीर के रहते-रहते कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीर के रहते-रहते देहान्तर की प्राप्ति होती है अर्थात जैसे बालकपन, जवानी आदि स्थूल शरीर की अवस्थाएँ हैं, ऐसे देहान्तर की प्राप्ति[2] सूक्ष्म और कारण शरीर की अवस्था है।

स्थूल शरीर के रहते-रहते कुमार आदि अवस्थाओं का परिवर्तन होता है- यह तो स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो अवस्थाओं की तरह स्थूल शरीर में भी परिवर्तन होता रहता है। बाल्यावस्था में जो शरीर था, वह युवावस्था में नहीं है। वास्तव में ऐसा कोई भी क्षण नहीं है, जिस क्षण में स्थूल शरीर का परिवर्तन न होता हो। ऐसे ही सूक्ष्म और कारण शरीर में भी प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, जो देहान्तर रूप से स्पष्ट देखने में आता है।[3] अब विचार यह करना है कि स्थूल शरीर का तो हमें ज्ञान होता है, पर सूक्ष्म और कारण शरीर का हमें ज्ञान नहीं होता। अतः जब सूक्ष्म और कारण शरीर का ज्ञान भी नहीं होता, तो उनके परिवर्तन का ज्ञान हमें कैसे हो सकता है? इसका उत्तर है कि जैसे स्थूल शरीर का ज्ञान उसकी अवस्थाओं को लेकर होता है, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण शरीर का ज्ञान भी उसकी अवस्थाओं को लेकर होता है। स्थूल शरीर की ‘जाग्रत’ सूक्ष्म शरीर की ‘स्वप्न’ और कारण शरीर की ‘सुषुप्ति’ अवस्था मानी जाती है। मनुष्य अपनी बाल्यावस्था में अपने को स्वप्न में बालक देखता है, युवावस्था में स्वप्न में युवा देखता है और वृद्धावस्था में स्वप्न में वृद्ध देखता है। इससे सिद्ध हो गया कि स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर का भी परिवर्तन होता है।

ऐसे ही सुषुप्ति-अवस्था बाल्यावस्था में ज्यादा होती है, युवावस्था में कम होती है और वृद्धावस्था में वह बहुत कम हो जाती है; अतः इससे कारण शरीर का परिवर्तन भी सिद्ध हो गया। दूसरी बात, बाल्यावस्था और युवावस्था में नींद लेने पर शरीर और इंद्रियों में जैसी ताजगी आती है, वैसी ताजगी वृद्धावस्था में नींद लेने पर नहीं आती अर्थात वृद्धावस्था में बाल्य और युवा-अवस्था-जैसा विश्राम नहीं मिलता। इस रीति से भी कारण शरीर का परिवर्तन सिद्ध होता है।


जिसको दूसरा- देवता, पशु, पक्षी आदि का शरीर मिलता है, उसको उस शरीर में ‘मैं यही हूँ’- ऐसा अनुभव होता है, तो यह सूक्ष्म शरीर का परिवर्तन हो गया। ऐसे ही कारण शरीर में स्वभाव[2] रहता है, जिसको स्थूल दृष्टि से आदत कहते हैं। वह आदत देवता की और होती है तथा पशु-पक्षी आदि की और होती है, तो यह कारण शरीर का परिवर्तन हो गया।

अगर शरीरी[3]का परिवर्तन होता, तो अवस्थाओं के बदलने पर भी ‘मैं वहीं हूँ’- ऐसा ज्ञान नहीं होता।[4] परंतु अवस्थाओं के बदलने पर भी ‘जो पहले बालक था, जवान था, वहीं मैं अब हूँ’- ऐसा ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीर में अर्थात स्वयं में परिवर्तन नहीं हुआ है।

यहाँ एक शंका हो सकती है कि स्थूल शरीर की अवस्थाओं के बदलने पर तो उनका ज्ञान होता है, पर शरीरान्तर की प्राप्ति होने पर पहले के शरीर का ज्ञान क्यों नहीं होता? पूर्व शरीर का ज्ञान न होने में कारण यह है कि मृत्यु और जन्म के समय बहुत ज्यादा कष्ट होता है। उस कष्ट के कारण बुद्धि में पूर्व जन्म की स्मृति नहीं रहती। जैसे लकवा मार जाने पर, अधिक वृद्धावस्था होने पर बुद्धि में पहले जैसा ज्ञान नहीं रहता, ऐसे ही मृत्यु काल में तथा जन्म काल में बहुत बड़ा धक्का लगने पर पूर्वजन्म का ज्ञान नहीं रहता।[5] परंतु जिसकी मृत्यु में ऐसा कष्ट नहीं होता अर्थात शरीर की अवस्थान्तर की प्राप्ति की तरह अनायास ही देहान्तर की प्राप्ति हो जाती है, उसकी बुद्धि में पूर्वजन्म की स्मृति रह सकती है।[6] अब विचार करें कि जैसा ज्ञान अवस्थान्तर की प्राप्ति में होता है, वैसा ज्ञान देहान्तर की प्राप्ति में नहीं होता; परंतु ‘मैं हूँ’ इस प्रकार अपनी सत्ता ज्ञान तो सबको रहता है। जैसे सुषुप्ति में अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, पर जगने पर मनुष्य कहता है कि ऐसी गाढ़ नींद आयी कि मेरे को कुछ पता नहीं रहा, तो ‘कुछ पता नहीं रहा’- इसका ज्ञान तो है ही। सोने से पहले मैं जो था, वही मैं जगने के बाद हूँ, तो सुषुप्ति के समय भी मैं वही था- इस प्रकार अपनी सत्ता का ज्ञान अखंड रूप से निरंतर रहता है। अपनी सत्ता के अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। शरीरधारी की सत्ता का सद्भाव अखंड रूप से रहता है, तभी तो मुक्ति होती है और मुक्त अवस्था में वह रहता है। हाँ, जीवन्मुक्त- अवस्था में उसको शरीरान्तरों का ज्ञान भले ही न हो, पर मैं तीनों शरीरों से अलग हूँ- ऐसा अनुभव तो होता ही है।

‘धीरस्तत्र न मुह्यति’- धीर वही है, जिसको सत्-असत् का बोध हो गया है। ऐसा धीर मनुष्य उस विषय में कभी मोहित नहीं होता, उसको कभी संदेह नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस धीर मनुष्य को देहान्तर की प्राप्ति होती है। ऊँच-नीच योनियों में जन्म होने का कारण गुणों का संग है, और गुणों से संबंध-विच्छेद होने पर धीर मनुष्य को देहान्तर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती।

यहाँ ‘तत्र’ पद का अर्थ ‘देहान्तर-प्राप्ति के विषय में’ नहीं है, प्रत्युत ‘देह-देही के विषय में’ है। तात्पर्य है कि देह क्या है? देही क्या है? परिवर्तनशील क्या है? अपरिवर्तनशील क्या है? अनित्य क्या है? असत् क्या है? सत्य क्या है? विकारी क्या है? अविकारी क्या है?- इसका विषय में वह मोहित नहीं होता। देह और देही सर्वथा अलग हैं- उस विषय में उसको कभी मोह नहीं होता। उसको अपनी असंगता का अखंड ज्ञान रहता है।


अनित्य वस्तु- शरीर आदि को लेकर जो शोक होता है, उसकी निवृत्ति के लिये कहते हैं- मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुः खदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।। 1_14 ।। अर्थ- हे कुंतीनंदन! इंद्रियों के जो विषय हैं, वे तो शीत और उष्ण के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं। वे आने-जाने वाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो। व्याख्या- [यहाँ एक शंका होती है कि इन चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकों से पहले और आगे देही और देह- इन दोनों का ही प्रकरण है। फिर बीच में ‘मात्रास्पर्श’ के ये दो श्लोक कैसे आये? इसका समाधान यह है कि जैसे बारहवें श्लोक में भगवान ने संपूर्ण जीवों के नित्य-स्वरूप को बताने के लिए ‘किसी काल में मैं नहीं था, ऐसी बात नहीं है- ऐसा कहकर अपने को उन्हीं की पंक्ति में रख दिया, ऐसे ही शरीर आदि मात्र प्राकृत पदार्थों को अनित्य, विनाशी, परिवर्तनशील बताने के लिए भगवान ने यहाँ ‘मात्रास्पर्श’ की बात कही है।] ‘तु’- नित्य-तत्त्व से देहादि अनित्य वस्तुओं को अलग बताने के लिए यहाँ ‘तु’ पद आया है। ‘मात्रास्पर्शाः’- जिनसे माप-तौल होता है अर्थात जिनसे ज्ञान होता है, उन इंद्रियों और अंतःकरण का नाम ‘मात्रा’ है। मात्रा से अर्थात इंद्रियों और अंतःकरण से जिनका संयोग होता है उनका नाम ‘स्पर्श’ है। अतः इंद्रियों और अंतःकरण से जिनका ज्ञान होता है, ऐसे सृष्टि के मात्र पदार्थ ‘मात्रास्पर्शाः’ हैं। यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से केवल पदार्थ ही क्यों लिए जायँ, पदार्थों का संबंध क्यों न लिया जाय? अगर हम यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से केवल पदार्थों का संबंध ही लें तो उस संबंध को ‘आगमापायिनः’[8] नहीं कह सकते; क्योंकि संबंध की स्वीकृति केवल अंतःकरण में न होकर स्वयं में[9] होती है। स्वयं नित्य है, इसलिये उसमें जो स्वीकृति हो जाती है, वह भी नित्य-जैसी ही हो जाती है। स्वयं जब तक उस स्वीकृति को नहीं छोड़ता, तब तक वह स्वीकृति ज्यों-की-त्यों बनी रहती हैं अर्थात पदार्थों का वियोग हो जाने पर भी, पदार्थों के न रहने पर भी, उन पदार्थों का संबंध बना रहता है। जैसे कोई स्त्री विधवा हो गयी है अर्थात उसका पति से सदा के लिये वियोग हो गया है, पर पचास वर्ष के बाद भी उसको कोई कहता है कि यह अमुक की स्त्री है, तो उसके कान खड़े हो जाते हैं ! इससे सिद्ध हुआ कि संबंधी के न रहने पर भी उसके साथ माना हुआ संबंध सदा बना रहता है। इस दृष्टि से उस संबंध को आने जाने वाला कहना बनता नहीं; अतः यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से पदार्थों का संबंध न लेकर मात्र पदार्थ लिये गये हैं। ‘शीतोष्णसुखदुःखदाः’- यहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलता के वाचक हैं। अगर इनका अर्थ सरदी और गरमी लिया जाय तो ये केवल त्वगिन्द्रिय के विषय हो जायँगे, जो कि एकदेशीय हैं। अतः शीत का अर्थ अनुकूलता और उष्ण का अर्थ प्रतिकूलता लेना ही ठीक मालूम देता है।





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