तत्व की समझ

 



प्राकृत पदार्थों के प्राप्त होने पर भी शोक दूर हो जाय, यह मैं नहीं देखता हूँ- ऐसा कहने के बाद अर्जुन ने क्या किया? इसका वर्णन संजय आगे के श्लोक में करते हैं।


एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परंतप ।

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ।। 2_9 ।।


अर्थ- संजय बोले- हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र ! ऐसा कहकर निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी भगवान गोविन्द से ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा स्पष्ट कहकर चुप हो गये।


व्याख्या- ‘एवमुक्त्वा हृषीकेशम्......बभूव ह’- अर्जुन ने अपना और भगवान का- दोनों का पक्ष सामने रखकर उन पर विचार किया, तो अंत में वे इसी निर्णय पर पहुँचे कि युद्ध करने से तो अधिक-से-अधिक राज्य प्राप्त हो जायगा, मान हो जायगा, संसार में यश हो जायगा, परंतु मेरे हृदय में जो शोक है, चिंता है, दुःख है, वे दूर नहीं होंगे। अतः अर्जुन को युद्ध न करना ही ठीक मालूम दिया।


यद्यपि अर्जुन भगवान की बात का आदर करते हैं और उसको मानना भी चाहते हैं; परंतु उनके भीतर युद्ध करने की बात ठीक-ठीक जँच नहीं रही है। इसलिए अर्जुन अपने भीतर जँची हुई बात को ही यहाँ स्पष्ट रूप से, साफ-साफ कह देते हैं कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’। इस प्रकार जब अपनी बात, अपना निर्णय भगवान से साफ-साफ कह दिया, तब भगवान से कहने के लिए और कोई बात बाकी नहीं रही; अतः वे चुप हो जाते हैं।


जब अर्जुन ने युद्ध करने के लिए साफ मना कर दिया, तब उसके बाद क्या हुआ- इसको संजय आगे के श्लोक में बताते हैं।


तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। 2_10 ।।


हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र ! दोनों सेनाओं के मध्यभाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हँसते हुए- से भगवान हृषीकेश ये[1] वचन बोले।


व्याख्या- ‘तमुवाच हृषीकेशः..... विषीदन्तमिदं वचः’- अर्जुन ने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओं को देखने के लिए भगवान से दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने के लिए कहा था। अब वहीं पर अर्थात दोनों सेनाओं के बीच में अर्जुन विषादमग्न हो गये! वास्तव में होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्देश्य से आये थे, उस उद्देश्य के अनुसार युद्ध के लिए खड़े हो जाते। परंतु उस उद्देश्य को छोड़कर अर्जुन चिंता-शोक में फँस गये। अतः अब दोनों सेनाओं के बीच में ही भगवान शोकमग्न अर्जुन को उपदेश देना आरंभ करते हैं।


‘प्रहसन्निव’ का तात्पर्य है कि अर्जुन के भाव बदलने को देखकर अर्थात पहले जो युद्ध करने का भाव था, वह अब विषाद में बदल गया- इसको देखकर भगवान को हँसी आ गयी। दूसरी बात, अर्जुन ने पहले कहा था कि मैं आपके शरण हूँ, मेरे को शिक्षा दीजिये अर्थात मैं युद्ध करूँ या न करूँ, मेरे को क्या करना चाहिये- इसकी शिक्षा दीजिये; परंतु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफ से ही निश्चय कर लिया कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’- यह देखकर भगवान को हँसी आ गयी। कारण कि शरणागत होने पर ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’ आदि कुछ भी सोचने का अधिकार नहीं रहता। उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे। अर्जुन भगवान के शरण होने के बाद ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा कहकर एक तरह से शरणागत होने से हट गये। इस बात को लेकर भगवान को हँसी आ गयी। ‘इव’ का तात्पर्य है कि जोर से हँसी आने पर भी भगवान मुस्कराते हुए ही बोले।


जब अर्जुन ने यह कह दिया कि ‘मैं युद्ध नही करूँगा’ तब भगवान को यहीं कह देना चाहिए था कि जैसी तेरी मर्जी आये, वैसा कर- ‘यथेच्छसि तथा कुरु’। परंतु भगवान ने यही समझा कि मनुष्य जब चिंता-शोक से विकल हो जाता है, तब वह अपने कर्तव्य का निर्णय न कर सकने के कारण कभी कुछ, तो कभी कुछ बोल उठता है। यही दशा अर्जुन की हो रही है। अतः भगवान के हृदय में अर्जुन के प्रति अत्यधिक स्नेह होने के कारण कृपालुता उमड़ पड़ी। कारण कि भगवान साधक के वचनों की तरफ ध्यान न देकर उसके भाव की तरफ ही देखते हैं। इसलिए भगवान अर्जुन के ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ इस वचन की तरफ ध्यान न देकर[5] उपदेश आरंभ कर देते हैं।


जो वचन मात्र से भी भगवान के शरण हो जाते हैं, भगवान उसको स्वीकार कर लेते हैं। भगवान के हृदय में प्राणियों के प्रति कितनी दयालुता है! ‘हृषीकेश’ कहने का तात्पर्य है कि भगवान अंतर्यामी हैं अर्थात प्राणियों के भीतरी भावों को जानने वाले हैं। भगवान अर्जुन के भीतरी भावों को जानते हैं कि अभी तो कौटुम्बिक मोह के वेग के कारण और राज्य मिलने से अपना शोक मिटता न दीखने के कारण यह कह रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’; परंतु जब इसको स्वयं चेत होगा, तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही यह करेगा। ‘इदं वचः उवाच’ पदों में केवल ‘उवाच’ कहने से ही काम चल सकता था; क्योंकि ‘उवाच’ के अंतर्गत ही ‘वचः’ पद का अर्थ आ जाता है। अतः ‘वचः’ पद देना पुनरुक्तिदोष दीखता है। परंतु वास्तव में यह पुनरुक्तिदोष नहीं है, प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है। अभी आगे के श्लोक से भगवान जिस रहस्यमय ज्ञान को प्रकट करके उसे सरलता से, सुबोध भाषा में समझाते हुए बोलेंगे, उसकी तरफ लक्ष्य करने के लिए यहाँ ‘वचः’ पद दिया गया है। सम्बन्ध:- शोकाविष्ट अर्जुन को शोक-निवृत्तिका उपदेश देने के लिये भगवान आगे का प्रकरण कहते है।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ।। 2_11 ।।


अर्थ- श्री भगवान बोले- तुमने शोक न करने योग्य का शोक किया है और पंडिताई की बातें कह रहे हो; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पंडित लोग शोक नहीं करते।


व्याख्या- [मनुष्य को शोक तब होता है, जब वह संसार के प्राणी-पदार्थों में दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं है; ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं; ये हमारे वर्ण के हैं और ये हमारे वर्ण के नहीं हैं; ये हमारे आश्रम के हैं और ये हमारे आश्रम के नहीं है; ये हमारे पक्ष के हैं और ये हमारे पक्ष के नहीं है। जो हमारे होते हैं, उनमें ममता, कामना, प्रियता, आसक्ति हो जाती है। इन ममता, कामना आदि से ही शोक, चिंता, भय, उद्वेग, हलचल, संताप आदि दोष पैदा होते हैं। ऐसा कोई भी दोष, अनर्थ नहीं है, जो ममता, कामना आदि से पैदा न होता हो- यह सिद्धांत है।

गीता में सबसे पहले धृतराष्ट्र ने कहा कि मेरे और पांडु के पुत्रों ने युद्धभूमि में क्या किया? यद्यपि पांडव धृतराष्ट्र को अपने पिता से भी अधिक आदर दृष्टि से देखते थे, तथापि धृतराष्ट्र के मन में अपने पुत्रों के प्रति ममता थी। अतः उनका अपने पुत्रों में और पांडवों में भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं है।

जो ममता धृतराष्ट्र में थी, वह ममता अर्जुन में भी पैदा हुई। परंतु अर्जुन की वह ममता धृतराष्ट्र की ममता के समान नहीं थी। अर्जुन में धृतराष्ट्र की तरह पक्षपात नहीं था; अतः वे सभी को स्वजन कहते हैं- ‘दृष्ट्‍वेमं स्वजनम्’, और दुर्योधन आदि को भी स्वजन कहते हैं- ‘स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव’। तात्पर्य है कि अर्जुन की संपूर्ण कुरुवंशियों में ममता थी और उस ममता के कारण ही उनके मरने की आशंका से अर्जुन को शोक हो रहा था। इस शोक को मिटाने के लिए भगवान ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया है, जो इस ग्यारहवें श्लोक से आरंभ होता है। इसके अंत में भगवान इसी शोक को अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत कर- ‘मा शुचः’।[3] कारण कि संसार का आश्रय लेने से ही शोक होता है कि और अनन्यभाव से मेरा आश्रय लेने से तेरे शोक, चिंता आदि सब मिट जाएयँगे।]


‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्’- संसार मात्र में दो चीजें हैं- सत् और असत्, शरीरी और शरीर। इन दोनों में शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही अशोच्य हैं। अविनाशी का कभी विनाश नहीं होता, इसलिए उसके लिए शोक करना बनता ही नहीं और विनाशी का विनाश ही होता है, वह एक क्षण भी स्थायी रूप से नहीं रहता, इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरी को लेकर बन सकता है और न शरीरों को लेकर ही बन सकता है। शोक के होने में तो केवल अविवेक[4] ही कारण है।


मनुष्य के सामने जन्मना-मरना, लाभ-हानि आदि के रूप में जो कुछ परिस्थिति आती है, वह प्रारब्ध का अर्थात अपने किये हुए कर्मों का ही फल है। उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता ही है। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये, चाहे प्रतिकूल आये, उसका आरंभ और अंत होता है अर्थात वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अंत में भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदि में और अंत में नहीं होती, वह बीच में एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे? और मिटती है तो स्थायी कैसे? ऐसी प्रतिक्षण मिटने वाली अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर हर्ष-शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है।

‘प्रज्ञावादांश्च भाषसे’- एक तरफ तो तू पंडिताई की बातें बघार रहा है, और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है। अतः तू केवल बातें ही बनाता है। वास्तव में तू पंडित नहीं है; क्योंकि जो पंडित होते हैं, वे किसी के लिए भी कभी शोक नहीं करते।


कुल का नाश होने से कुल धर्म नष्ट हो जायगा। धर्म के नष्ट होने से स्त्रियाँ दूषित हो जायँगी, जिससे वर्णसंकर पैदा होगा। वह वर्णसंकर कुलघातियों को और उनके कुल को नरकों में ले जाने वाला होगा। पिंड और पानी न मिलने से उनके पितरों का भी पतन हो जायगा- ऐसी तेरी पंडिताई की बातों से भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान है और शरीरी अविनाशी है। अगर शरीरी स्वयं अविनाशी न होता, तो कुलघाती और कुल के नरकों में जाने का भय नहीं होता, पितरों का पतन होने की चिंता नहीं होती। अगर तुझे कुल की और पितरों की चिंता होती है, उनका पतन होने का भय होता है तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान है और उसमें रहने वाला शरीरी नित्य है। अतः शरीरों के नाश को लेकर तेरा ही शोक करना अनुचित है।


‘गतासूनगतासूंश्च’- सबके पिंड- प्राण का वियोग अवश्यम्भावी है। उनमें से किसी के पिंड का प्राण का वियोग हो गया है और किसी का होने वाला है। अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिए। तुमने जो शोक किया है, यह तुम्हारी गलती है।

जो मर गए हैं, उनके लिए शोक करना तो महान गलती है। कारण कि मरे हुए प्राणियों के लिये शोक करने से उन प्राणियों को दुःख भोगना पड़ता है। जैसे मृतात्मा के लिए जो पिंड और जल दिया जाता है, वह उसको परलोक में मिल जाता है, ऐसे ही मृतात्मा के लिए जो कफ और आँसू बहाते हैं, वे मृतात्मा को परवश होकर खाने-पीने पड़ते हैं। [1]। जो कभी जी रहे हैं, उनके लिए भी शोक नहीं करना चाहिये। उनका तो पालन-पोषण करना चाहिये, प्रबंधन करना चाहिए।


उनकी क्या दशा होगी! उनका भरण-पोषण कैसे होगा! उनकी सहायता कौन करेगा! आदि चिंता शोक कभी नहीं करने चाहिये; क्योंकि चिंता शोक करन से कोई लाभ नहीं है। मेरे शरीर के अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है आदि विकारों के पैदा होने में मूल कारण है- शरीर के साथ एकता मानना। कारण कि शरीर के साथ एकता मानने से ही शरीर का पालन-पोषण करने वालों के साथ अपनापन हो जाता है, और उस अपनेपन के कारण ही कुटुम्बियों के मरने की आशंका से अर्जुन के मन में चिंता-शोक हो रहे हैं, तथा चिंता-शोक से ही अर्जुन के शरीर में उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं। इसमें भगवान ने ‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’ के शोक को ही हेतु बताया है। जिनके प्राण चले गये हैं, वे ‘गतासून्’ हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, वे ‘अगतासून्’ हैं। पिंड और जल न मिलने से पितरों का पतन हो जाता है[1]- यह अर्जुन की ‘गतासून्’ की चिंता है। और ‘जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही प्राणों की और धन की आशा छोड़कर युद्ध में खड़े हैं’[2]- यह अर्जुन की ‘अगतासून्’ की चिंता है। ये दोनों चिंताएं शरीर को लेकर ही हो रही हैं; अतः ये दोनों चिंताएँ धातुरूप से एक ही हैं। कारण कि ‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’ दोनों ही नाशवान् हैं।

‘गतासून्’ और ‘अगतासून्’- इन दोनों के लिये कर्तव्य-कर्म करना चिंता की बात नहीं है। ‘गतासून्’ के लिए पिंड पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करना- यह कर्तव्य है, और ‘अगतासून्’ के लिए व्यवस्था कर देना, निर्वाह का प्रबंध कर देना- यह कर्तव्य है। कर्तव्य चिंता का विषय नहीं होता, प्रत्युत विचार का विषय होता है। विचार से कर्तव्य का बोध होता है, और चिंता से विचार नष्ट होता है।

‘नानुशोचन्ति पंडिताः’- सत्-असत्-विवेकवती बुद्धि का नाम ‘पंडा’ है। वह ‘पंडा’ जिनकी विकसित हो गयी है अर्थात जिनको सत्-असत् का स्पष्टतया विवेक हो गया है, वे पंडित है। ऐसे पंडितों में सत्-असत् को लेकर शोक नहीं होता; क्योंकि सत् को सत् मानने से भी शोक नहीं होता और असत् को असत् मानने से भी शोक नहीं होता। स्वयं सत्-स्वरूप है, और बदलने वाला शरीर असत्-स्वरूप है। असत् को सत् मान लेने से ही शोक होता है अर्थात ये शरीर आदि से ही बने रहें, मरे नहीं- इस बात को लेकर ही शोक होता है। सत् को लेकर कभी चिंता-शोक होते ही नहीं।


सत-तत्त्व को लेकर शोक करना अनुचित क्यों है- इस शंका के समाधान के लिये आगे दो श्लोक कहते है।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।। 12 ।।


अर्थ- किसी काल में मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद मैं, तू और राजालोग- ये सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।


व्याख्या- [मात्र संसार में दो ही वस्तुएँ हैं- शरीरी[1] और शरीर[2]। ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात् शोक न शरीरी[3] को लेकर हो सकता है और न शरीर को लेकर ही हो सकता है। कारण कि शरीरी का कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं। इन दोनों के लिए पूर्व श्लोक में जो ‘अशोच्यान्’ पद आया है, उसकी व्याख्या अब शरीरी की नित्यता और शरीर की अनित्यता के रूप में करते हैं।]

‘न त्वेवाहं जातु...... जनाधिपाः’- लोगों की दृष्टि से मैंने जब तक अवतार नहीं लिया था, तब तक मैं इस रूप से[4] सबके सामने प्रकट नहीं था और तेरा जब तक जन्म नहीं हुआ था, तब तक तू भी इस रूप से[5] सबके सामने प्रकट नहीं था तथा इन राजाओं का भी जब तक जन्म नहीं हुआ था, तब तक ये भी इस रूप से[6] सबके सामने प्रकट नहीं थे। परंतु मैं तू और ये राजा लोग इस रूप से प्रकट न होने पर भी पहले नहीं थे- ऐसी बात नहीं है। यहाँ ‘मैं, तू और ये राजालोग पहले थे- ऐसा कहने से ही काम चल सकता था, पर ऐसा न कहकर ‘मैं, तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं’- ऐसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि ‘पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं’ ऐसा कहने से ‘पहले हम सब जरूर थे’- यह बात दृढ़ हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि नित्य-तत्त्व सदा ही नित्य है। इसका कभी अभाव था ही नहीं। ‘जातु’ कहने का तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान काल में तथा किसी भी देश, परिस्थिति, अवस्था, घटना, वस्तु आदि में नित्य तत्त्व का किञ्चिंमात्र भी अभाव नहीं हो सकता।

यहाँ ‘अहम्’ पद देकर भगवान ने एक विलक्षण बात कही है। आगे चौथे अध्याय के पाँचवें श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि ‘मेरे और तेरे बहुत से जन्म हुए हैं, पर उनको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता।’ इस प्रकार भगवान ने अपना ईश्वरपना प्रकट करके जीवों से अपने को अलग बताया है। परंतु यहाँ भगवान जीवों के साथ अपनी एकता बता रहे हैं। इसका तात्पर्य है कि वहाँ[7] भगवान का आशय अपनी महत्ता, विशेष प्रकट करने में है और यहाँ भगवान का आशय तात्त्विक दृष्टि से नित्य-तत्त्व को जनाने में है।

‘न चैव...... वयमतः परम्’- भविष्य में शरीरों की ये अवस्थाएं नहीं रहेंगी और एक दिन ये शरीर भी नहीं रहेंगे; परंतु ऐसी अवस्था में भी हम सब नहीं रहेंगे- यह बात नहीं है अर्थात हम सब जरूर रहेंगे। कारण कि नित्य-तत्त्व का कभी अभाव था नहीं और होगा भी नहीं।


मैं, तू औ राजा लोग- हम सभी पहले नहीं थे, यह बात भी नहीं है, और आगे नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है- इस प्रकार भूत और भविष्य की बात तो भगवान ने कह दी, पर वर्तमान की बात भगवान ने नहीं कही। इसका कारण यह है कि शरीरों की दृष्टि से तो हम सब वर्तमान में प्रत्यक्ष ही हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। इसलिए ‘हम सब अभी नहीं हैं, यह बात नहीं है’- ऐसा कहने की जरूरत नहीं है। अगर तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय, तो हम सभी वर्तमान में हैं और ये शरीर प्रतिक्षण बदल रहे हैं- इस तरह शरीरों से अलगाव का अनुभव हमें वर्तमान में ही कर लेना चाहिए। तात्पर्य है कि जैसे भूत और भविष्य में अपनी सत्ता का अभाव नहीं है, ऐसे ही वर्तमान में भी अपनी सत्ता का अभाव नहीं है- इसका अनुभव करना चाहिये।

जैसे प्रत्येक प्राणी को नींद खुलने से पहले भी यह अनुभव रहता है कि ‘अभी हम हैं’ और नींद खुलने पर भी यह अनुभव रहता ह कि ‘अभी हम हैं’ तो नींद की अवस्था में भी हम वैसे के वैसे ही थे। केवल बाह्य जानने की सामग्री का अभाव था, हमारा अभाव नहीं था। ऐसे ही मैं, तू और राजा लोग- हम सब के शरीर पहले भी नहीं थे और बाद में भी नहीं रहंगे तथा अभी भी शरीर प्रतिक्षण नाश की ओर जा रहे हैं, परंतु हमारी सत्ता पहले भी थी, पीछे भी रहेगी और अभी भी वैसी-की-वैसी ही है।

हमारी सत्ता कालातीत तत्त्व है; क्योंकि हम उस काल के भी ज्ञाता हैं अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान- ये तीनों काल हमारे जानने में आते हैं। उस कालातीत तत्त्व को समझाने के लिए ही भगवान् ने यह श्लोक कहा है।

विशेष बात

मैं, तू और राजा लोग पहले नहीं थे- यह बात नहीं और आगे नहीं रहेंगे- यह बात भी नहीं, ऐसा कहने का तात्पर्य है कि जब ये शरीर नहीं थे, तब भी हम सब थे और जब ये शरीर नहीं रहेंगे तब भी हम रहेंगे अर्थात ये सब शरीर तो हैं नाशवान और हम सब हैं अविनाशी। ये शरीर पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे- इससे शरीरों की अनित्यता सिद्ध हुई और हम सब पहले थे और आगे रहेंगे- इससे सब के स्वरूप की नित्यता सिद्ध हुई। इन दो बातों से यह एक सिद्धांत सिद्ध होता है कि जो आदि और अंत में रहता है, वह मध्य में भी रहता है; तथा जो आदि और अंत में नहीं रहता, वह मध्य में भी नहीं रहता।

जो आदि और अंत में नहीं रहता, वह मध्य में कैसे नहीं रहता; क्योंकि वह तो हमें दीखता है? इसका उत्तर यह है कि जिस दृष्टि से अर्थात जिन मन, बुद्धि और इंद्रियों से दृश्य का अनुभव हो रहा है, उन मन-बुद्धि-इंद्रियों सहित वह दृश्य प्रतिक्षण बदल रहा है। वे एक क्षण भी स्थायी नहीं है।

ऐसा होने पर भी जब स्वयं दृश्य के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह द्रष्टा अर्थात देखने वाल बन जाता है। जब देखने के साधन[1] और दृश्य[2] ये सभी एक क्षण भी स्थायी नहीं है, तो देखने वाला स्थायी कैसे सिद्ध होगा? तात्पर्य है कि देखने वाले की संज्ञा तो दृश्य और दर्शन के संबंध से ही है। दृश्य और दर्शन से संबंध न हो तो देखने वाले की कोई संज्ञा नहीं होती, प्रत्युत उसका आधार रूप जो नित्य-तत्त्व है, वही रह जाता है। उस नित्य-तत्त्व को हम सबकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का आधार और संपूर्ण प्रतीतियों का प्रकाशक कह सकते हैं। परंतु ये आधार और प्रकाशक नाम भी आधेय और प्रकाश्य के संबंध से ही हैं। आधेय और प्रकाश्य के न रहने पर भी उसकी सत्ता ज्यों-की-त्यों ही है। उस सत्य-तत्त्व की तरफ जिसकी दृष्टि है, उसको शोक कैसे हो सकता है? अर्थात नहीं हो सकता। इसी दृष्टि से मैं, तू और राजा लोग स्वरूप से अशोच्य हैं।


देहिनोऽस्मन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ।। 13 ।।


अर्थ- देहधारी के इस मनुष्य शरीर में जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।


व्याख्या- ‘देहिनोऽस्मिन्यथा देहे[1]कौमारं यौवनं जरा’- शरीरधारी के शरीर में पहले बाल्यावस्था आती है, फिर युवावस्था आती है और फिर वृद्धावस्था आती है। तात्पर्य है कि शरीर में कभी एक अवस्था नहीं रहती, उसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है।

यहाँ ‘शरीरधारी के इस शरीर में’ ऐसा कहने से सिद्ध होता है कि शरीरी अलग है और शरीर अलग है। शरीरी द्रष्टा है और शरीर दृश्य है। अतः शरीर में बालकपन आदि अवस्थाओं का जो परिवर्तन है, वह परिवर्तन शरीरी में नहीं है।

‘तथा देहान्तरप्राप्ति’- जैसे शरीर की कुमार, युवा आदि अवस्थाएं होती हैं, ऐसे ही देहान्तर की अर्थात दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। जैसे स्थूल शरीर बालक से जवान एवं जवान से बूढ़ा हो जाता है, तो इन अवस्थाओं के परिवर्तन को लेकर कोई शोक नहीं होता, से ही शरीरी एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है, तो इस विषय में भी शोक नहीं होना चाहिये। जैसे स्थूल शरीर के रहते-रहते कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीर के रहते-रहते देहान्तर की प्राप्ति होती है अर्थात जैसे बालकपन, जवानी आदि स्थूल शरीर की अवस्थाएँ हैं, ऐसे देहान्तर की प्राप्ति[2] सूक्ष्म और कारण शरीर की अवस्था है।

स्थूल शरीर के रहते-रहते कुमार आदि अवस्थाओं का परिवर्तन होता है- यह तो स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो अवस्थाओं की तरह स्थूल शरीर में भी परिवर्तन होता रहता है। बाल्यावस्था में जो शरीर था, वह युवावस्था में नहीं है। वास्तव में ऐसा कोई भी क्षण नहीं है, जिस क्षण में स्थूल शरीर का परिवर्तन न होता हो। ऐसे ही सूक्ष्म और कारण शरीर में भी प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, जो देहान्तर रूप से स्पष्ट देखने में आता है।[3] अब विचार यह करना है कि स्थूल शरीर का तो हमें ज्ञान होता है, पर सूक्ष्म और कारण शरीर का हमें ज्ञान नहीं होता। अतः जब सूक्ष्म और कारण शरीर का ज्ञान भी नहीं होता, तो उनके परिवर्तन का ज्ञान हमें कैसे हो सकता है? इसका उत्तर है कि जैसे स्थूल शरीर का ज्ञान उसकी अवस्थाओं को लेकर होता है, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण शरीर का ज्ञान भी उसकी अवस्थाओं को लेकर होता है। स्थूल शरीर की ‘जाग्रत’ सूक्ष्म शरीर की ‘स्वप्न’ और कारण शरीर की ‘सुषुप्ति’ अवस्था मानी जाती है। मनुष्य अपनी बाल्यावस्था में अपने को स्वप्न में बालक देखता है, युवावस्था में स्वप्न में युवा देखता है और वृद्धावस्था में स्वप्न में वृद्ध देखता है। इससे सिद्ध हो गया कि स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर का भी परिवर्तन होता है।

ऐसे ही सुषुप्ति-अवस्था बाल्यावस्था में ज्यादा होती है, युवावस्था में कम होती है और वृद्धावस्था में वह बहुत कम हो जाती है; अतः इससे कारण शरीर का परिवर्तन भी सिद्ध हो गया। दूसरी बात, बाल्यावस्था और युवावस्था में नींद लेने पर शरीर और इंद्रियों में जैसी ताजगी आती है, वैसी ताजगी वृद्धावस्था में नींद लेने पर नहीं आती अर्थात वृद्धावस्था में बाल्य और युवा-अवस्था-जैसा विश्राम नहीं मिलता। इस रीति से भी कारण शरीर का परिवर्तन सिद्ध होता है।


जिसको दूसरा- देवता, पशु, पक्षी आदि का शरीर मिलता है, उसको उस शरीर में ‘मैं यही हूँ’- ऐसा अनुभव होता है, तो यह सूक्ष्म शरीर का परिवर्तन हो गया। ऐसे ही कारण शरीर में स्वभाव[2] रहता है, जिसको स्थूल दृष्टि से आदत कहते हैं। वह आदत देवता की और होती है तथा पशु-पक्षी आदि की और होती है, तो यह कारण शरीर का परिवर्तन हो गया।

अगर शरीरी[3]का परिवर्तन होता, तो अवस्थाओं के बदलने पर भी ‘मैं वहीं हूँ’- ऐसा ज्ञान नहीं होता।[4] परंतु अवस्थाओं के बदलने पर भी ‘जो पहले बालक था, जवान था, वहीं मैं अब हूँ’- ऐसा ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीर में अर्थात स्वयं में परिवर्तन नहीं हुआ है।

यहाँ एक शंका हो सकती है कि स्थूल शरीर की अवस्थाओं के बदलने पर तो उनका ज्ञान होता है, पर शरीरान्तर की प्राप्ति होने पर पहले के शरीर का ज्ञान क्यों नहीं होता? पूर्व शरीर का ज्ञान न होने में कारण यह है कि मृत्यु और जन्म के समय बहुत ज्यादा कष्ट होता है। उस कष्ट के कारण बुद्धि में पूर्व जन्म की स्मृति नहीं रहती। जैसे लकवा मार जाने पर, अधिक वृद्धावस्था होने पर बुद्धि में पहले जैसा ज्ञान नहीं रहता, ऐसे ही मृत्यु काल में तथा जन्म काल में बहुत बड़ा धक्का लगने पर पूर्वजन्म का ज्ञान नहीं रहता।[5] परंतु जिसकी मृत्यु में ऐसा कष्ट नहीं होता अर्थात शरीर की अवस्थान्तर की प्राप्ति की तरह अनायास ही देहान्तर की प्राप्ति हो जाती है, उसकी बुद्धि में पूर्वजन्म की स्मृति रह सकती है।[6] अब विचार करें कि जैसा ज्ञान अवस्थान्तर की प्राप्ति में होता है, वैसा ज्ञान देहान्तर की प्राप्ति में नहीं होता; परंतु ‘मैं हूँ’ इस प्रकार अपनी सत्ता ज्ञान तो सबको रहता है। जैसे सुषुप्ति में अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, पर जगने पर मनुष्य कहता है कि ऐसी गाढ़ नींद आयी कि मेरे को कुछ पता नहीं रहा, तो ‘कुछ पता नहीं रहा’- इसका ज्ञान तो है ही। सोने से पहले मैं जो था, वही मैं जगने के बाद हूँ, तो सुषुप्ति के समय भी मैं वही था- इस प्रकार अपनी सत्ता का ज्ञान अखंड रूप से निरंतर रहता है। अपनी सत्ता के अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। शरीरधारी की सत्ता का सद्भाव अखंड रूप से रहता है, तभी तो मुक्ति होती है और मुक्त अवस्था में वह रहता है। हाँ, जीवन्मुक्त- अवस्था में उसको शरीरान्तरों का ज्ञान भले ही न हो, पर मैं तीनों शरीरों से अलग हूँ- ऐसा अनुभव तो होता ही है।

‘धीरस्तत्र न मुह्यति’- धीर वही है, जिसको सत्-असत् का बोध हो गया है। ऐसा धीर मनुष्य उस विषय में कभी मोहित नहीं होता, उसको कभी संदेह नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस धीर मनुष्य को देहान्तर की प्राप्ति होती है। ऊँच-नीच योनियों में जन्म होने का कारण गुणों का संग है, और गुणों से संबंध-विच्छेद होने पर धीर मनुष्य को देहान्तर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती।

यहाँ ‘तत्र’ पद का अर्थ ‘देहान्तर-प्राप्ति के विषय में’ नहीं है, प्रत्युत ‘देह-देही के विषय में’ है। तात्पर्य है कि देह क्या है? देही क्या है? परिवर्तनशील क्या है? अपरिवर्तनशील क्या है? अनित्य क्या है? असत् क्या है? सत्य क्या है? विकारी क्या है? अविकारी क्या है?- इसका विषय में वह मोहित नहीं होता। देह और देही सर्वथा अलग हैं- उस विषय में उसको कभी मोह नहीं होता। उसको अपनी असंगता का अखंड ज्ञान रहता है।


अनित्य वस्तु- शरीर आदि को लेकर जो शोक होता है, उसकी निवृत्ति के लिये कहते हैं- मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुः खदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ।। 1_14 ।। अर्थ- हे कुंतीनंदन! इंद्रियों के जो विषय हैं, वे तो शीत और उष्ण के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं। वे आने-जाने वाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो। व्याख्या- [यहाँ एक शंका होती है कि इन चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकों से पहले और आगे देही और देह- इन दोनों का ही प्रकरण है। फिर बीच में ‘मात्रास्पर्श’ के ये दो श्लोक कैसे आये? इसका समाधान यह है कि जैसे बारहवें श्लोक में भगवान ने संपूर्ण जीवों के नित्य-स्वरूप को बताने के लिए ‘किसी काल में मैं नहीं था, ऐसी बात नहीं है- ऐसा कहकर अपने को उन्हीं की पंक्ति में रख दिया, ऐसे ही शरीर आदि मात्र प्राकृत पदार्थों को अनित्य, विनाशी, परिवर्तनशील बताने के लिए भगवान ने यहाँ ‘मात्रास्पर्श’ की बात कही है।] ‘तु’- नित्य-तत्त्व से देहादि अनित्य वस्तुओं को अलग बताने के लिए यहाँ ‘तु’ पद आया है। ‘मात्रास्पर्शाः’- जिनसे माप-तौल होता है अर्थात जिनसे ज्ञान होता है, उन इंद्रियों और अंतःकरण का नाम ‘मात्रा’ है। मात्रा से अर्थात इंद्रियों और अंतःकरण से जिनका संयोग होता है उनका नाम ‘स्पर्श’ है। अतः इंद्रियों और अंतःकरण से जिनका ज्ञान होता है, ऐसे सृष्टि के मात्र पदार्थ ‘मात्रास्पर्शाः’ हैं। यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से केवल पदार्थ ही क्यों लिए जायँ, पदार्थों का संबंध क्यों न लिया जाय? अगर हम यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से केवल पदार्थों का संबंध ही लें तो उस संबंध को ‘आगमापायिनः’[8] नहीं कह सकते; क्योंकि संबंध की स्वीकृति केवल अंतःकरण में न होकर स्वयं में[9] होती है। स्वयं नित्य है, इसलिये उसमें जो स्वीकृति हो जाती है, वह भी नित्य-जैसी ही हो जाती है। स्वयं जब तक उस स्वीकृति को नहीं छोड़ता, तब तक वह स्वीकृति ज्यों-की-त्यों बनी रहती हैं अर्थात पदार्थों का वियोग हो जाने पर भी, पदार्थों के न रहने पर भी, उन पदार्थों का संबंध बना रहता है। जैसे कोई स्त्री विधवा हो गयी है अर्थात उसका पति से सदा के लिये वियोग हो गया है, पर पचास वर्ष के बाद भी उसको कोई कहता है कि यह अमुक की स्त्री है, तो उसके कान खड़े हो जाते हैं ! इससे सिद्ध हुआ कि संबंधी के न रहने पर भी उसके साथ माना हुआ संबंध सदा बना रहता है। इस दृष्टि से उस संबंध को आने जाने वाला कहना बनता नहीं; अतः यहाँ ‘मात्रास्पर्शाः’ पद से पदार्थों का संबंध न लेकर मात्र पदार्थ लिये गये हैं। ‘शीतोष्णसुखदुःखदाः’- यहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलता के वाचक हैं। अगर इनका अर्थ सरदी और गरमी लिया जाय तो ये केवल त्वगिन्द्रिय के विषय हो जायँगे, जो कि एकदेशीय हैं। अतः शीत का अर्थ अनुकूलता और उष्ण का अर्थ प्रतिकूलता लेना ही ठीक मालूम देता है।





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