आत्मा का स्वरूप

न जायते म्रियते वा कदाचित्रायं भूत्वा भविता वा न भूयः। 

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। 2.20 ।। 

अर्थ- यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है। यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरंतर रहने वाला, शाश्वत और पुराण है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है। व्याख्या- [शरीर में छः विकार हगोते हैं- उत्पन्न होना, सत्ता वाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना, और नष्ट होना। यह शरीरी इन छहों विकारों से रहति है- यही बात भगवान इस श्लोक में बता रहे हैं।] ‘न जायते म्रियते वा कदाचित्र’- जैसे शरीर उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समय में उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदा से ही है। भगवान ने इस शरीर को अपना अंश बताते हुए इसको ‘सनातन’ कहा है ‘ममैवांशो जीवलो के जीवभूतः सनातनः’। यह शरीरी कभी मरता भी नहीं। मरता वही है, जो पैदा होता है; और ‘म्रियते’ का प्रयोग भी वहीं होता है, जहाँ पिंड-प्राण का वियोग होता है। पिंड-प्राण का वियोग शरीर में होता है। परंतु शरीरी में संयोग वियोग दोनों ही नहीं होते। यह ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसका मरना होता ही नहीं। सभी विकारों में जन्मना और मरना- ये दो प्रकार ही मुख्य हैं; अतः भगवान ने इनका दो बार निषेध किया है- जिसको पहले ‘न जायते’ कहा, उसी को दुबारा ‘अजः’ कहा है; और जिसको पहले ‘न प्रियते’ कहा, उसी को दुबारा ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ कहा है। ‘अयं भूत्वा भविता वा न भूयः’- यह अविनाशी नित्य-तत्त्व पैदा होकर फिर होने वाला नहीं है अर्थात यह स्वतः सिद्ध निर्विकार है। जैसे, बच्चा पैदा होता है, तो पैदा होने के बाद उसकी सत्ता होती है। जब तक वह गर्भ में नहीं आता, तब तक ‘बच्चा है’ ऐसे उसकी सत्ता कोई भी नहीं कहता। तात्पर्य है कि बच्चे की सत्ता पैदा होने के बाद होती है; क्योंकि उस विकारी सत्ता का आदि और अंत होता है। परंतु इस नित्य तत्त्व की सत्ता स्वतः सिद्ध और निर्विकार है; क्योंकि इस अविकारी सत्ता का आरंभ और अंत नहीं होता।


‘अजः’- इस शरीरी का कभी जन्म नहीं होता। इसलिए यह ‘अजः’ अर्थात जन्मरहित कहा गया है।


‘नित्यः’- यह शरीरी नित्य-निरंतर रहने वाला है; अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। अपक्षय तो अनित्य वस्तु में होता है, जो कि निरंतर रहने वाली नहीं है। जैसे, आधी उम्र बीतने पर शरीर घटने लगता है, बल क्षीण होने लगता है, इंद्रियों की शक्ति कम होने लगती है। इस प्रकार शरीर, इंद्रियाँ, अंतःकरण आदि का तो अपक्षय होता है, पर शरीरी का अपक्षय नहीं होता। स नित्य तत्त्व में कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती।


‘शाश्वतः’- यह नित्य तत्त्व निरंतर एकरूप, एकरस रहने वाला है। इसमें अव्यवस्था का परिवर्तन नहीं होता अर्थात यह कभी बदलता नहीं। इसमें बदलने की योग्यता है ही नहीं। ‘पुराणः’- यह अविनाशी तत्त्व पुराण[1] अर्थात अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में भी देखा जाता है कि जो वस्तु पुरानी हो जाती है, वह फिर बढ़ती नहीं, प्रत्युत नष्ट हो जाती है; फिर यह तो अनुत्पन्न तत्त्व है, इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार तो उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में ही होता है, इस नित्य-तत्त्व में नहीं।


‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’- शरीर का नाश होने पर भी इस अविनाशी शरीरी का नाश नहीं होता। यहाँ ‘शरीरे’ पद देने का तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होने वाला है। इस नष्ट होने वाले शरीर में ही छः विकार होते हैं, शरीरी में नहीं।


इन पदों में भगवान ने शरीर और शरीरी का जैसा स्पष्ट वर्णन किया है, ऐसा स्पष्ट वर्णन गीता में दूसरी जगह नहीं आया है।


अर्जुन युद्ध में कुटुम्बियों के मरने की आशंका से विशेष शोक कर रहे थे। उस शोक को दूर करने के लिए भगवान कहते हैं कि शरीर के मरने पर भी इस शरीर का मरना नहीं होता अर्थात इसका अभाव नहीं होता। इसलिए शोक करना अनुचित है।


वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।। 2.21 ।।


अर्थ- हे पृथानन्दन ! जो मनुष्य इस शरीरी को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये ?


व्याख्या- ‘वेदाविनाशिनम्..... घातयति हन्ति कम्’- इस शरीरी का कभी नाश नहीं होता, इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरह की कोई कमी नहीं आती- ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है, वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये? अर्थात दूसरों को मारने और मरवाने में उस पुरुष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रिया का न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है।


यहाँ भगवान ने शरीरी को अविनाशी, नित्य, अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारों का निषेध किया है; जैसे- ‘अविनाशी’ कहकर मृत्युरूप विकार का, ‘नित्य’ कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकार का, ‘अज’ कहकर जन्म होना और जन्म के बाद होने वाली सत्तारूप विकार का, तथा ‘अव्यय’ कहकर क्षयरूप विकार का निषेध किया गया है। शरीरी में किसी भी क्रिया से किञ्चिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता।


अगर भगवान को ‘न हन्यते हन्यामाने शरीरे’ और ‘कं घातयति हन्ति कम्’ इन पदों में शरीरी के कर्ता और कर्म बनने का ही निषेध करना था, तो फिर यहाँ करने न करने की बात न कहकर मरने मारने की बात क्यों कही? इसका उत्तर है कि युद्ध का प्रसंग होने से यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धि में मारने वाला नहीं बनता; क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है। जब शरीरी मारने वाला अर्थात कर्ता नहीं बन सकता, तब यह मारने वाला अर्थात कर्ता नहीं बन सकता, तब यह मरने वाला अर्थात क्रिया का विषय भी कैसे बन सकता है। तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रिया का कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरने-मारने में शोक नहीं करना चाहिए, प्रत्युत शास्त्र की आज्ञा के अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म का पालन करना चाहिए।


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। 2.22 ।।


अर्थ- मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।


व्याख्या- ‘वासांसि जीर्णानि......संयाति नवानि देही’- इसी अध्याय के तेरहवें श्लोक में सूत्र रूप से कहा गया था कि देहान्तर की प्राप्ति के विषय में धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बात को उदाहरण देकर स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ों के परिवर्तन पर मनुष्य को शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरों के परिवर्तन पर भी शोक नहीं होना चाहिए।


कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं, पशु-पक्षी नहीं; अतः यहाँ कपड़े बदलने के उदाहरण में ‘नरः’ पद मनुष्योनि का वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, जवान-बूढ़े आदि सभी जाते हैं।


जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़ों को धारण करता है, ऐसे ही यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों को धारण करता है। पुराना शरीर छोड़ने को ‘मरना’ कह देते हैं, और नया शरीर धारण करने को ‘जन्मना’ कह देते हैं। जब तक प्रकृति के साथ संबंध रहता है, तब तक यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर कर्मों के अनुसार या अंतकालीन चिंतन के अनुसार नये-नये शरीरों को प्राप्त होता रहता है।


यहाँ ‘शरीराणि’ पद में बहुवचन देने का तात्पर्य है कि जब तक शरीरी को अपने वास्तविक स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं होता, तब तक यह शरीरी अनन्तकाल तक शरीर धारण करता ही रहता है। आज तक इसने कितने शरीर धारण किए हैं, इसकी गिनती भी संभव नहीं है। इस बात को लक्ष्य में रखकर ‘शरीराणि’ पद में बहुवचन का प्रयोग किया गया है तथा संपूर्ण जीवों का लक्ष्य कराने के लिए यहाँ ‘देही’ पद आया है। यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध में तो जीर्ण कपड़ों की बात कही है और उत्तरार्ध में जीर्ण शरीर की। जीर्ण कपड़ों का दृष्टान्त शरीर में कैसे लागू होगा? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानों के भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ों के जीर्ण शरीर मर जाते हों, यह बात तो है नहीं ! इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होने पर ही मरता और आयु समाप्त होना ही शरीर का जीर्ण होना है[1]। शरीर चाहे बच्चों का हो, चाहे जवानों का, हो, चाहे वृद्धों का हो, आयु समाप्त होने पर वे सभी जीर्ण ही कहलाएंगे। इस श्लोक में भगवान ने ‘यथा’ और ‘तथा’ पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है, वैसे यह देही पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीर में चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएं अपने-आप होती हैं, वैसे ही देहान्तर की प्राप्ति अपने-आप होती है यहाँ तो ‘यथा’ और ‘तथा’ घट जाते हैं। परंतु पुराने कपड़ों को छोड़ने में और नये कपड़े धारण करने में तो मनुष्य की स्वतंत्रता है, पर पुराने शरीरों को छोड़ने में और नये शरीर धारण करने में देह की स्वतंत्रता नहीं है। इसलिए यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ कैसे घटेंगे ? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान का तात्पर्य स्वतंत्रता-परतंत्रता की बात कहने में नहीं है, प्रत्युत शरीर के वियोग से होने वाले शोक को मिटाने में है।


जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े धारण करने पर भी धारण करने वाला वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों में चले जाने पर भी देही ज्यों का त्यों निर्लिप्त रूप से रहता है; अतः शोक करने की कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टि से यह दृष्टांत ठीक ही है।


दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़ने में और नये कपड़े धारण करने में तो सुख होता है, पर पुराने शरीर में दुःख होता है। अतः यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ कैसे घटेंगे? इसका समाधान यह है कि शरीरों के मरने का जो दुःख होता है, वह मरने से नहीं होता, प्रत्युत जीने की इच्छा से होता है। ‘मैं जीता रहूँ’- ऐसी जीने की इच्छा भीतर में रहती है और मरना पड़ता है, तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीर के साथ एकात्मक कर लेता है, तब वह शरीर के मरने से अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है। परंतु जो शरीर के साथ अपनी एकात्मकता नहीं मानता, उसको मरने में दुःख नहीं होता, प्रत्युत आनंद होता है ! जैसे, मनुष्य कपड़ों के साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, तो कपड़ों को बदलने में उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत रहता है कि कपड़े अलग हैं और मैं अलग हूँ। परंतु वही कपड़ों का बदलना अगर छोटे बच्चे का किया जाए, तो वह पुराने कपड़े उतारने में और नये कपड़े धारण करने में भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खता से, नासमझी से होता है। इस मूर्खता को मिटाने के लिए ही भगवान यहाँ ‘यथा’ और ‘तथा’ पद देकर कपड़ों का दृष्टांत दिया है।


यहाँ भगवान ने कपड़ों के धारण करने में तो ‘गृह्णाति’ क्रिया दी, पर शरीरों के धारण करने में ‘संयाति’ क्रिया दी, ऐसा क्रिया भेद भगवान ने क्यों किया? लौकिक दृष्टि से बेसमझी के कारण ऐसा दीखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ों को धारण करता है और देहान्तर की प्राप्ति में देही को उन-उन देहों में जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टि को लेकर ही भगवान क्रिया भेद किया है।


गीता में ‘येन् सर्वमिदं ततम्’, ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुः’ आदि पदों से देही को सर्वत्र व्याप्त, नित्य, सर्वगत और स्थिर स्वभाव वाला बताया तथा ‘संयाति नवानि देही’, ‘शरीरं यदवाप्रोति’ आदि पदों से देही को दूसरे शरीरों में जाने की बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है, सर्वत्र व्याप्त है, उसका जाना-आना कैसे? क्योंकि जो जिस देश में न हो, उस देश में चला जाए, तो इसको ‘जाना’ कहते हैं; और जो दूसरे देश में है, वह इस देश में आ जाए, तो इसको ‘आना’ कहते हैं। परंतु देही के विषय में तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं। इसका समाधान यह है कि जैसे किसी की बाल्यावस्था से युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि ‘मैं जवान हो गया हूँ।’ परंतु वास्तव में वह स्वयं जवान नहीं हुआ है, प्रत्युत उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिए बाल्यावस्था में जो वह था, युवास्था में भी वह था, युवावस्था में भी वह वही है। परंतु शरीर तादात्म्य मानने के कारण वह शरीर के परिवर्तन को अपने आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आना-जाना वास्तव में शरीर का धर्म है, पर शरीर के साथ तादात्म्य होने से वह अपने में आना-जाना मान लेता है। अतः वास्तव में देही का कहीं भी आना-जाना नहीं होता, केवल शरीरों के तादात्म्य के कारण उसका आना-जाना प्रतीत होता है।


अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकाल से जो जन्म-मरण चला आ रहा है, उसमें कारण क्या है? कर्मों की दृष्टि से तो शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए जन्म-मरण होता है, ज्ञान की दृष्टि से भगवान की विमुखता के कारण जन्म-मरण होता है। इन तीनों में भी मुख्य कारण है कि भगवान ने जीव को जो स्वतंत्रता दी है, उसका दुरुपयोग करने से ही जन्म-मरण हो रहा है। अब वह जन्म-मरण मिटे कैसे? मिली हुई स्वतंत्रता का सदुपयोग करने से जन्म-मरण मिट जाएगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थ के लिए कर्म करने से जन्म मरण हुआ है, अतः अपने स्वार्थ का त्याग करके दूसरों के हित के लिए कर्म करने से जन्म मरण मिट जाएगा। अपनी जानकारी का अनादर करने से जन्म-मरण हुआ है; अतः अपनी जानकारी का आदर करने से जन्म मरण मिट जाएगा। भगवान से विमुख होने से जन्म मरण मिट जाएगा।


नैंन छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। 2.23 ।।


अर्थ- शस्त्र इस शरीरी को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।


व्याख्या- ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि’- इस शरीरी को शस्त्र नहीं काट सकते हैं; क्योंकि ये प्राकृत शस्त्र वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकते।


जितने भी शास्त्र हैं, वे सभी पृथ्वी-तत्त्व से उत्पन्न होते हैं। यह पृथ्वी तत्त्व इस शरीरी में किसी तरह का कोई विकार नहीं पैदा कर सकता है। इतना ही नहीं, पृथ्वी तत्त्व इस शरीरी तक पहुँच ही नहीं सकता, फिर विकृति करने की बात तो दूर ही रही।


‘नैनं दहति पावकः’- अग्नि इस शरीरी को जला नहीं सकती; क्योंकि अग्नि वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती। जब वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती, तब उसके द्वारा जलाना कैसे संभव हो सकता है? तात्पर्य है कि अग्नि तत्त्व इस शरीर में कभी किसी तरह का विकार उत्पन्न कर ही नहीं सकता।


‘न चैनं क्लेदयन्त्यापः’- जल इसको गीला नहीं कर सकता; क्योंकि जल वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि जल तत्त्व इस शरीर में किसी प्रकार का विकार पैदा नहीं कर सकता।


‘न शोषयति मारुतः’- वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात वायु में इस शरीरी को सुखाने की सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि वायु वहाँ तक पहुँचती ही नहीं। तात्पर्य है कि वायु तत्त्व इस शरीरी में किसी तरह की विकृति पैदा नहीं कर सकता।


पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- ये पाँच महाभूत कहलाते हैं। भगवान ने इनमें से चार ही महाभूतों की बात कही है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस शरीरी में किसी तरह की विकृति नहीं कर सकते; परंतु पाँचवें महाभूत आकाश की कोई चर्चा ही नहीं की है। इसका कारण यह है कि आकाश में कोई भी क्रिया करने की शक्ति नही है। क्रिया करने की शक्ति तो इन चार महाभूतों में ही है। आकाश तो इन सबको अवकाश मात्र देता है।


पृथ्वी, जल, तेज और वायु- ये चारों तत्त्व आकाश से ही उत्पन्न होते हैं, पर व अपने कारणभूत आकाश में भी किसी तरह का विकार पैदा नहीं कर सकते अर्थात पृथ्वी आकाश का छेदन नहीं कर सकती, जल गीला नहीं कर सकता, अग्नि जला नहीं सकती और वायु सुखा नहीं सकती। जब ये चारों तत्त्व अपने कारणभूत आकाश को, आकाश के कारणभूत महत्तत्त्व को और महत्तत्त्व के कारणभूत प्रकृति को भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकते, तब प्रकृति से सर्वथा अतीत शरीरी तक ये पहुँच ही कैसे सकते हैं? इन गुणयुक्त पदार्थों की उस निर्गुण तत्त्व में पहुँच ही कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती।


शरीरी नित्य तत्त्व है। पृथ्वी आदि चारों तत्त्वों को इसी से सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः जिससे इन तत्त्वों को सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। उसको ये कैसे विकृत कर सकते हैं? यह शरीरी सर्वव्यापक है और पृथ्वी आदि चारों तत्त्व व्याप्य है अर्थात शरीरी के अंतर्गत हैं। अतः व्याप्य वस्तु व्यापक को कैसे नुकसान पहुँचा सकती है? उसको नुकसान पहुँचाना संभव ही नहीं है।


यहाँ युद्ध का प्रसंग है। ‘ये सब संबंधी मर जाएंगे’- इस बात को लेकर अर्जुन शोक कर रहे हैं। अतः भगवान कहते हैं कि ये कैसे मर जाएंगे? क्योंकि वहाँ तक अस्त्र-शस्त्रों की क्रिया पहुँचती ही नहीं अर्थात शस्त्र के द्वारा शरीर कट जाने पर भी शरीरी नहीं कटता, अग्न्यस्र के द्वारा शरीर जल जाने पर भी शरीरी नहीं जलता, वरुणास्र के द्वारा शरीर गल जाने पर भी शरीरी नहीं गलता और वायव्यास्त्र के द्वारा शरीर सूख जाने पर भी शरीरी नहीं सूखता। तात्पर्य है कि अस्त्र-शस्त्रों के द्वारा शरीर मर जाने पर भी शरीरी नहीं मरता, प्रत्युत ज्यों का त्यों निर्विकार रहता है। अतः इसको लेकर शोक करना तेरी बिलकुल ही बेसमझी है।


अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलऽयं सनातनः ।। 2.24 ।।


अर्थ- यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहने वाला सब में परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाव वाला और अनादि है।


व्याख्या- [ शस्त्र आदि इस शरीरी में विकार क्यों नहीं करते- यह बात इस श्लोक में कहते हैं।]


‘अच्छेद्योऽयम्’- शस्त्र इस शरीरी का छेदन नहीं कर सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि शस्त्रों का अभाव है या शस्त्र चलाने वाला अयोग्य है, प्रत्युत छेदनरूप क्रिया शरीरी में प्रविष्टि ही नहीं हो सकती, यह छेदन होने के योग्य ही नहीं है।


शस्त्र के सिवाय मंत्र, शाप आदि से भी इस शरीरी का छेदन नहीं हो सकता है। जैसे, याज्ञवल्क्य के प्रश्न का उत्तर न दे सकने के कारण उनके शाप से शाकल्य का मस्तक कटकर गिर गया। इस प्रकार देह तो मंत्रों से, वाणी से कट सकता है, पर देही सर्वथा अछेद्य है।


‘अदाह्योऽयम्’- यह शरीरी अदाह्य है; क्योंकि इसमें जलने की योग्यता ही नहीं है। अग्नि के सिवाय मंत्र, शाप आदि से भी यह देही जल नहीं सकता। जैसे, दमयन्ती के शाप देने से व्याध बिना अग्नि के जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार अग्नि, शाप आदि से वही जल सकता है, जो जलने योग्य होता है। इस देही में तो दहन-क्रिया का प्रवेश ही नहीं हो सकता।


‘अक्लेद्यः’- यह देही गीला होने योग्य नहीं है अर्थात इसमें गीला होने की योग्यता ही नहीं है। जल से एवं मंत्र, शाप, औषधि आदि से यह गीला नहीं हो सकता। जैसे, सुनने में आता है कि ‘मालकोश’ राग के गाये जाने से पत्थर भी गीला हो जाता है; चंद्रमा को देखने से चंद्रकांतमणि गीली हो जाती है। परंतु यह देही राग-रागिनी आदि से गीली होने वाली वस्तु नहीं है।


‘अशोष्यः’- यह देही अशोष्य है। वायु से इसका शोषण हो जाए, यह ऐसी वस्तु नहीं है; क्योंकि इसमें शोषण क्रिया का प्रवेश ही नहीं होता। वायु से तथा मंत्र, शाप, औषधि आदि से यह देही सूख नहीं सकता। जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्र का शोषण कर गये, ऐसे इस देही का कोई अपनी शक्ति से शोषण नहीं कर सकता।


‘एव च’- अर्जुन नाश की संभावना को लेकर शोक कर रहे थे। इसलिए शरीरी को अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहकर भगवान ‘एव च’ पदों से विशेष जोर देकर कहते हैं कि यह शरीरी तो ऐसा ही है। इसमें किसी भी क्रिया का प्रवेश नहीं होता। अतः यह शरीरी शोक करने योग्य है ही नहीं।


‘नित्यः’- यह देही नित्य-निरंतर रहने वाला है। यह किसी काल में नहीं था और किसी काल में नहीं रहेगा- ऐसी बात नहीं है; किंतु यह सब काल में नित्य-निरंतर ज्यों-का-त्यों रहने वाला है।


‘सर्वगतः’- यह देही सब काल में ज्यों का त्यों ही रहता है, तो यह किसी देश में रहता होगा? इसके उत्तर में कहते हैं कि यह देही संपूर्ण व्यक्ति, वस्तु, शरीर आदि में एकरूप से विराजमान है।


‘अचलः’- यह सर्वगत है, तो यह कहीं आता-जाता भी होगा? इस पर कहते हैं कि यह देही स्थिर स्वभाव वाला है अर्थात इसमें कभी यहाँ और कभी वहाँ- इस प्रकार आने जाने की क्रिया नहीं है।


‘स्थाणुः’- यह स्थिर स्वभाव वाला है, कहीं आता जाता नहीं- यह बात ठीक है, पर इसमें कंपन तो होता होगा? जैसे वृक्ष एक जगह ही रहता है, कहीं भी आता-जाता नहीं, पर वह एक जगह रहता हुआ ही हिलता है, ऐसे ही इस देही में भी हिलने की क्रिया होती होगी? इसके उत्तर में कहते हैं कि यह देही स्थाणु है अर्थात इसमें हिलने की क्रिया नहीं है।


‘सनातनः’- यह देही अचल है, स्थाणु है- यह बात तो ठीक है, पर यह कभी पैदा भी होता होगा? इस पर कहते हैं कि यह सनातन है अनादि है, सदा से है। यह किसी समय नहीं था, ऐसा संभव ही नहीं है।


यह संसार अनित्य है, एक क्षण भी स्थिर रहने वाला नहीं है। परंतु जो सदा रहने वाला है, जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उस देही की तरफ लक्ष्य कराने में ‘नित्यः’ पद का तात्पर्य है।


देखने, सुनने, पढ़ने, समझने में जो कुछ प्राकृत संसार आता है, उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘सर्वगतः’ पद का तात्पर्य है।


संसार मात्र में जो कुछ वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि हैं, वे सब के सब चलायमान हैं। उन चलायमान वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ आदि में जो अपने स्वरूप से कभी चलायमान नहीं होता, उस तत्त्व की तरफ लक्ष्य कराने में ‘अचलः’ पद का तात्पर्य है।


प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार में प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है, परिवर्तन होता रहता है। ऐसे परिवर्तिनशील संसार में जो क्रियारहित, परिवर्तनरहित, स्थायी स्वभाव वाला तत्त्व है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने में ‘स्थाणुः’ पद का तात्पर्य है।


मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं तथा ये पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे। परंतु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट तक ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा- उस तत्त्व की तरफ लक्ष्य कराने में ‘सनातनः’ पद का तात्पर्य है।


उपर्युक्त पाँचों विशेषणों का तात्पर्य है कि शरीर संसार के साथ तादात्म्य होने पर भी और शरीर-शरीरी-भाव का अलग-अलग अनुभव न होने पर भी शरीरी नित्य निरंतर एकरस, एकरूप रहता है।


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । 

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।। 2.25 ।। 

अर्थ- यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिंतन का विषय नहीं है और इसमें कोई विकार नहीं है। अतः इस देही को ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिए। व्याख्या- ‘अव्यक्तोऽयम्’- जैसे शरीर संसार स्थूल रूप से देखने में आता है, वैसे यह शरीरी स्थूल रूप से देखने में आने वाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल दृष्टि से रहित है। ‘अचिन्त्योऽयम्’- मन, बुद्धि आदि देखने में तो नहीं आते, पर चिंतन में आते ही हैं अर्थात ये सभी चिंतन के विषय हैं। परंतु यह देही चिंतन का भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म दृष्टि से रहित है। ‘अविकार्योऽयमुच्यते’- यह देही विकार रहित कहा जाता है अर्थात इसमें कभी किंञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है, उस कारणभूत प्रकृति में भी विकृति होती है। परंतु इस देही में किसी प्रकार की विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टि से रहित है। यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकों में अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य- इन आठ विशेषणों के द्वारा इस देही का निषेधमुख से और नित्य, सर्वगत, स्थाणु और सनातन- इन चार विशेषणों के द्वारा इस देही का विधिमुख से वर्णन किया गया है। परंतु वास्तव में इसका वर्णन हो नहीं सकता; क्योंकि यह वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं, उस देही को वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं? अतः इस देही का ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है। ‘तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि’- इसलिए इस देही को अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता।


अगर शरीरी को निर्विकार न मानकर विकारी मान लिया जाए[1], तो भी शोक नहीं हो सकता- यह बात आगे के दो श्लोकों में कहते हैं।


अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।। 2.26 ।।


अर्थ- हे महाबाहो ! अगर तुम इस देही को नित्य पैदा होने वाले और नित्य मरने वाला भी मानो, तो भी तुम्हें इसका शोक नहीं करना चाहिए।


व्याख्या- ‘अथ चैनं......शोचितुमर्हसि’- भगवान यहाँ पक्षान्तर में ‘अथ च’ और ‘मन्यसे’ पद देकर कहते हैं कि यद्यपि सिद्धांत की और सच्ची बात यही है कि देही किसी भी काल में जन्मने मरने वाला नहीं है।[2], तथापि अगर तुम सिद्धांत से बिलकुल विरुद्ध बात भी मान लो कि देही नित्य जन्मने वाला और नित्य मरने वाला है, तो भी तुम्हें शोक नहीं होना चाहिए। कारण कि जो जन्मेगा, वह मरेगा ही और जो मरेगा, वह जन्मेगा ही- इस नियम को कोई टाल नहीं सकता।


अगर बीज को पृथ्वी में बो दिया जाए, तो वह फूलकर अंकुर दे देता है और वही अंकुर क्रमशः बढ़कर वृक्षरूप हो जाता है। इसमें सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए कि क्या वह बीज एक क्षण भी एकरूप से रहा? पृथ्वी में वह पहले अपने कठोर रूप को छोड़कर कोमल रूप में हो गया, फिर कोमल रूप को छोड़कर अंकुर रूप में हो गया, इसके बाद अंकुर रूप को छोड़कर वृक्षरूप में हो गया और अंत में आयु समाप्त होने पर वह सूख गया। इस तरह बीज एक क्षण भी एकरूप से नहीं रहा, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता रहा। अगर बीज एक क्षण भी एकरूप से रहता, तो वृक्ष के सूखने तक की क्रिया कैसे होती? उसने पहले रूप को छोड़ा- यह उसका मरना हुआ, और दूसरे रूप को धारण किया- यह उसका जन्मना हुआ। इस तरह वह प्रतिक्षण ही जन्मता-मरता रहा। बीज की ही तरह यह शरीर है। बहुत सूक्ष्म रूप से वीर्य का जन्तु रज के साथ मिला। वह बढ़ते-बढ़ते बच्चे के रूप में हो गया और फिर जन्म गया। जन्म के बाद वह बढ़ा, फिर घटा और अंत में मर गया। इस तरह शरीर एक क्षण भी एकरूप से न रहकर बदलता रहा अर्थात प्रतिक्षण जन्मता मरता रहा। भगवान कहते हैं कि अगर तुम शरीर की तरह शरीरी को भी नित्य जन्मने-मरने वाला मान लो, तो भी यह शोक का विषय नहीं हो सकता।


जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। 2.27 ।। 

अर्थ- क्योंकि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा- इस[1] का परिहार अर्थात निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। व्याख्या- ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च’- पूर्व श्लोक के अनुसार अगर शरीरी को नित्य जन्मने और मरने वाला भी मान लिया जाए, तो भी वह शोक का विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा। ‘तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि’- इसलिए कोई भी इस जन्म मृत्यरूप प्रवाह का परिहार नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसी का किञ्चिंमात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। इस दृष्टि से तुम्हारे लिए शोक करना उचित नहीं है। ये धृतराष्ट्र के पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जाएंगे वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बात का? शोक उसी का कीजिए, जो अनहोनी हो । अनहोनी होती नहीं, होनी है सो होय ।। जैसे, इस बात को सब जानते हैं कि सूर्य का उदय हुआ है, तो उसका अस्त होगा ही और अस्त होगा तो उसका उदय होगा ही। इसलिए मनुष्य सूर्य का अस्त होने पर शोक चिंता नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन ! अगर तुम ऐसा मानते हो कि शरीर के साथ ये भीष्म, द्रोण आदि सभी मर जाएंगे, तो फिर शरीर के साथ जन्म भी जाएंगे। अतः इस दृष्टि से भी शोक नहीं हो सकता। भगवान ने इन दो[3] श्लोकों में जो बात कही है, वह भगवान का कोई वास्तविक सिद्धांत नहीं है। अतः ‘अथ च’ पद देकर भगवान ने दूसरे पक्ष की बात कही है कि ऐसा सिद्धांत तो है नहीं, पर अगर तू ऐसा भी मान ले, तो भी शोक करना उचित नहीं है। इन दो श्लोकों का तात्पर्य यह हुआ कि संसार की मात्र चीजें प्रतिक्षण परिवर्तनशील होने से पहले रूप को छोड़कर दूसरे रूप को धारण करती रहती है। इसमें पहले रूप को छोड़ना- यह मरना हो गया और दूसरे रूप को धारण करना- यह जन्मना हो गया। इस प्रकार जो जन्मता है, उसकी मृत्यु होती है और जिसकी मृत्यु होती है, वह फिर जन्मता है- यह प्रवाह तो हरदम चलता ही रहता है। इस दृष्टि से भी क्या शोक करें?



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