समभाव

सुख-दुःख में सम रहने वाले जिस धीर मनुष्य को ये मात्रास्पर्श[1] व्यथा नहीं पहुँचाते, वह अमर होने में समर्थ हो जाता है अर्थात वह अमर हो जाता है। व्याख्या- ‘पुरुषर्षभ’- मनुष्य प्रायः परिस्थितियों को बदलने का ही विचार करता है, जो कभी बदली नहीं जा सकतीं और जिनको बदलना संभव ही नहीं। युद्धरूपी परिस्थिति के प्राप्त होने पर अर्जुन ने उसको बदलने का विचार न करके अपने कल्याण का विचार कर लिया है। यह कल्याण का विचार करना ही मनुष्यों में उनकी श्रेष्ठता है। 'समदुःखसुखं धीरम्'- धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम होता है। अंतःकरण की वृत्ति से ही सुख और दुःख- ये दोनों अलग-अलग दीखते हैं। सुख-दुःख के भोगने में पुरुष[2] हेतु है, और वह हेतु बनता है प्रकृति में स्थित होने से।[3] जब वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, तब सुख-दुःख को भोगने वाला कोई नहीं रहता। अतः अपने आप में स्थित होने से वह सुख-दुःख में स्वाभाविक ही सम हो जाता है। ‘यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषम्’- धीर मनुष्य को ये मात्रास्पर्श अर्थात प्रकृति के मात्र पदार्थ व्यथा नहीं पहुँचाते। प्राकृत पदार्थों के संयोग से जो सुख होता है, वह भी व्यथा है और उन पदार्थों के वियोग से जो दुःख होता है, वह भी व्यथा है। परंतु जिसकी दृष्टि समता की तरफ है, उसको ये प्राकृत पदार्थ सुखी-दुःखी नहीं कर सकते। समता की तरफ दृष्टि रहने से अनुकूलता को लेकर उस सुख का ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होने से अंतःकरण में उस सुख का स्थायी रूप से संस्कार नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रतिकूलता आने पर उस दुःख का ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होने से अंतःकरण में उस दुःख का स्थायी रूप से संस्कार नहीं पड़ता। इस प्रकार सुख-दुःख के संस्कार न पड़ने से वह व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि अंतःकरण में सुख-दुख का ज्ञान होने से वह स्यवं सुखी-दुःखी नहीं होता। ‘सोऽमृतत्त्वाय कल्पते’- ऐसा धीर मनुष्य अमरता के योग्य हो जाता है अर्थात उसमें अमरता प्राप्त करने की सामर्थ्य आ जाती है। सामर्थ्य, योग्यता आने पर वह अमर हो ही जाता है, इसमें देरी का कोई काम नहीं। कारण कि उसकी अमरता तो स्वतःसिद्ध है। केवल पदार्थों के संयोग-वियोग से जो अपने में विकार मानता था, यही गलती थी।


यह मनुष्य-योनि सुख-दुःख भोगने के लिए नहीं मिली है, प्रत्युत सुख-दुःख से ऊँचा उठकर महान आनंद, परम शांति की प्राप्ति के लिए मिली है, जिस आनंद, सुख-शांति के प्राप्त होने के बाद और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।[1] अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदि के होने में अथवा उनकी संभावना में हम सुखी होंगे अर्थात हमारे भीतर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति आदि को प्राप्त करने की कामना, लोलुपता रहेगी तो हम अनुकूलता का सदुपयोग नहीं कर सकेंगे। अनुकूलता का सदुपयोग करने की सामर्थ्य, शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो सकेगी। कारण कि अनुकूलता का सदुपयोग करने की शक्ति अनुकूलता के भोग में खर्च हो जायगी, जिससे अनुकूलता का सदुपयोग नहीं होगा; किंतु भोग ही होगा। इसी रीति से प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदि के आने पर अथवा उनकी आशंका से हम दुःखी होंगे तो प्रतिकूलता का सदुपयोग नहीं होगा; किंतु भोग ही होगा। दुःख को सहने की सामर्थ्य हमारे में नहीं रहेगी। अतः हम प्रतिकूलता के भोग में ही फँसे रहेंगे और दुःखी होते रहेंगे।


अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि के प्राप्त होने पर सुख-सामग्री का अपने सुख, आराम, सुविधा के लिए उपयोग करेंगे और उससे राजी होंगे तो यह अनुकूलता का भोग हुआ। परंतु निर्वाह-बुद्धि से उपयोग करते हुए उस सुख-सामग्री को अभावग्रस्तों की सेवा में लगा दें तो यह अनुकूलता का सदुपयोग हुआ। अतः सुख सामग्री को दुःखियों की ही समझें। उसमें दुःखियों का ही हक है। मान लो कि हम लखपति हैं तो हमें लखपति होने का सुख होता है, अभिमान होता है। परंतु यह सब तब होता है, जब हमारे सामने कोई लखपति न हो। अगर हमारे सामने, हमारे देखने-सुनने में जो आते हैं, वे सब के सब करोड़पति हों, तो क्या हमें लखपति होने का सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं मिलेगा। अतः हमें लखपति होने का सुख तो अभावग्रस्तों ने, दरिद्रों ने ही दिया है। अगर हम मिली हुई सुख-सामग्री से अभावग्रस्तों की सेवा न करके स्वयं सुख भोगते हैं, तो हम कृतघ्न होते हैं। इसी से सब अनर्थ पैदा होते हैं। कारण कि हमारे पास जो सुख सामग्री है, वह दु:खी आदमियों की ही दी हुई है। अतः उस सुख सामग्री को दुःखियों की सेवा में लगा देना हमारा कर्तव्य होता है।


यदि हम सुख-दुःख का उपभोग करते रहेंगे, तो भविष्य में हमें भोग-योनियों में अर्थात स्वर्ग, नरक आदि में जाना ही पड़ेगा। कारण कि सुख-दुःख भोगने के स्थान ये स्वर्ग, नरक आदि ही हैं। यदि हम सुख-दुख का भोग करते हैं, सुख-दुःख में सम नहीं रहते, सुख-दुःख से ऊँचे नहीं उठते, तो हम मुक्ति के पात्र कैसे होंगे? नहीं हो सकते।


चौदहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि ये सांसारिक पदार्थ आदि अनुकूलता-प्रतिकूलता के द्वारा सुख-दुःख देने वाले और आने-जाने वाले हैं, सदा रहने वाले नहीं हैं; क्योंकि ये अनित्य हैं, क्षणभंगुर है। इनके प्राप्त होने पर उसी क्षण इनका नष्ट होना शुरू हो जाता है। इनका संयोग होते ही इनसे वियोग होना शरू हो जाता है। ये पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमान में भी प्रतिक्षण अभाव में जा रहे हैं। इनको भोगकर हम केवल अपना स्वभाव बिगाड़ रहे हैं, सुख-दुःख के भोगी बनते जा रहे हैं। सुख-दुःख के भोगी बनकर हम भोग योनि के ही पात्र बनते जा रहे हैं, फिर हमें मुक्ति कैसे मिलेगी? हमें भुक्ति[1] की ही रुचि है, तो फिर भगवान हमें मुक्ति कैसे देंगे? इस प्रकार यदि हम सुख-दुःख का उपभोग न करके उनका सदुपयोग करेंगे, तो हम सुख-दुःख से ऊँचे उठ जायेंगे और महान आनंद का अनुभव कर लेंगे।


नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।। 2.16 ।।


अर्थ- असत का तो भाव[2] विद्यमान नहीं है और सत का अभाव विद्यमान नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इन दोनों का ही अंत अर्थात तत्त्व देखा है।


व्याख्या- ‘नासतो विद्यते भावः’- शरीर उत्पत्ति के पहले भी नहीं था, मरने के बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमान में भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत, भविष्य और वर्तमान- इन तीनों कालों में कभी भावरूप से नहीं रहता। अतः यह असत है। इसी तरह से संसार का भी भाव नहीं है, यह भी असत है। यह शरीर तो संसार का एक छोटा सा नमूना है; इसलिए शरीर के परिवर्तन से संसार मात्र के परिवर्तन का अनुभव होता है कि इस संसार का पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमान में भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमान में भी अभाव हो रहा है।


संसार मात्र कालरूपी अग्नि में लकड़ी की तरह निरंतर जल रहा है। लकड़ी के जलने पर तो कोयला और राख बची रहती है, पर संसार को कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीति से जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसार का अभाव ही अभाव कर देती है। इसलिए कहा गया है कि असत की सत्ता नहीं है।


‘नाभावो विद्यते सतः’- जो सत वस्तु है, उसका अभाव नहीं होता अर्थात जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था, तब भी देही था, देह नष्ट होने पर भी देही रहेगा और वर्तमान में देह के परिवर्तनशील होने पर भी देही उसमें ज्यों का त्यों ही रहता है। इसी रीति से जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था, उस समय भी परमात्मतत्त्व था, संसार का अभाव होने पर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमान में संसार के परिवर्तनशील होने पर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्यों-का त्यों ही है।


संसार को हम एक ही बार देख सकते हैं, दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है; अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी, दूसरे क्षण में वह वैसी नहीं रहती, जैसे- सिनेमा देखते समय परदे पर दृश्य स्थिर दीखता है; पर वास्तव में उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीन पर फिल्म तेजी से घूमने के कारण वह परिवर्तन इतनी तेजी से होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं[1]।

इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तव में संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जिन कारणों से हम संसार को देखते हैं- अनुभव करते हैं, वे कारण भी संसार के ही हैं। अतः वास्तव में संसार से ही संसार दीखता है। जो शरीर-संसार से सर्वथा संबंध रहित है, उस स्वरूप से संसार कभी दीखता ही नहीं ! तात्पर्य यह है कि स्वरूप में संसार की प्रतीति नहीं है। संसार के संबंध से ही संसार की प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूप का संसार से कोई संबंध है ही नहीं। दूसरी बात, संसार[2] की सहायता के बिना चेतन स्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसार में ही है, स्वरूप में नहीं। स्वरूप का क्रिया से कोई संबंध है ही नहीं। संसार का स्वरूप है- क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूप का न तो क्रिया से और न पदार्थ ही कोई संबंध है, तब यह सिद्ध हो गया है कि शरीर-इंद्रियाँ-मन-बुद्धि-सहित संपूर्ण संसार का अभाव है। केवल परमात्मतत्त्व का ही भाव[3] है, जो निर्लिप्तरूप से सबका प्रकाशक और आधार है। ‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’- इन दोनों के अर्थात सत-असत, देही देह के तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों ने इनका तत्त्व देखा है, इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत-तत्त्व ही विद्यमान है। असत वस्तु का तत्त्व भी सत है और सत वस्तु का तत्त्व भी सत है अर्थात दोनों का तत्त्व एक ‘सत्’ ही है, दोनों का तत्त्व भावरूप से एक ही है। अतः सत और असत- इन दोनों के तत्त्व को जानने वाले महापुरुषों के द्वारा जानने में आने वाला एक सत-तत्त्व ही है। असत की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह सत्ता भी वास्तव में सत की ही है। सत की सत्ता से ही असत सत्तावान प्रतीत होता है। इसी सत को ‘परा प्रकृति’[4], ‘क्षेत्रज्ञ’[5], ‘पुरुष’[6] और ‘अक्षर’[7] कहा गया है; तथा असत को ‘अपरा प्रकृति’, ‘क्षेत्र’, ‘प्रकृति’ और ‘क्षर’ कहा गया है।

अर्जुन भी शरीरों को लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करने ये सब मर जायेंगे। इस पर भगवान कहते हैं कि क्या युद्ध न करने से ये नहीं मरेंगे? असत तो मरेगा ही और निरंतर मर ही रहा है। परंतु इसमें जो सत रूप से है, उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है।


ग्यारहवें श्लोक में आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं, उन दोनों के लिए पंडितजन शोक नहीं करते। बारहवें-तेरहवें श्लोकों में देही की नित्यता का वर्णन है और उसमें ‘धीर’ शब्द आया है। चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकों में संसार की अनित्यता का वर्णन आया है, तो उसमें भी ‘धीर’ शब्द आया है। ऐसी ही यहाँ[8] सत-असत का विवेचन आया है, तो इसमें ‘तत्त्वदर्शी’[9] शब्द आया ।

इन श्लोकों में ‘पंडित’, ‘धीर’ और ‘तत्त्वदर्शी’ पद देने का तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं, समझदार होते हैं, उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है, तो वे विवेकी नहीं है, समझदार नहीं है।


अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। 17 ।।


अर्थ- अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशी विनाश कोई भी नहीं कर सकता।


व्याख्या- ‘अविनाशि तु तद्विद्धि’- पूर्व श्लोक में जो सत-असत की बात कही थी, उसमें से पहले ‘सत्’ की व्याख्या करने के लिए यहाँ ‘तु’ पद आया है। ‘उस अविनाशी तत्त्व को तू समझ’- ऐसा कहकर भगवान ने उस तत्त्व को परोक्ष बताया है। परोक्ष बताने में तात्पर्य है कि इदंता से दीखने वाले इस संपूर्ण संसार में वह परोक्ष तत्त्व ही व्याप्त है, परिपूर्ण है। वास्तव में जो परिपूर्ण है, वही ‘है’ और जो सामने संसार दीख रहा है, यह ‘नहीं’ है।


यहाँ ‘तत्’ पद से सत-तत्त्व को परोक्ष रीति से कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वह तत्त्व बहुत दूर है; किंतु वह इंद्रियों और अंतःकरण का विषय नहीं है, इसलिए उसको परोक्ष रीति से कहा गया है।

‘येन सर्वमिदं ततम्’[1] जिसको परोक्ष कहा है, उसी का वर्णन करते हैं कि यह सब-का-सब संसार उस नित्य-तत्त्व से व्याप्त है। जैसे सोने से बने हुए गहनों में सोना, लोहे से बने हुए अस्त्र-शस्त्रों में लोहा, मिट्टी से बने हुए बर्तनों में मिट्टी और जल से बनी हुई बर्फ में जल ही व्याप्त[2] है, ऐसे ही संसार में वह सत-तत्त्व ही व्याप्त है। अतः वास्तव में इस संसार में वह सत- तत्त्व ही जानने योग्य है।


‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’- यह शरीरी अव्यय[3] अर्थात अविनाशी है। इस अविनाशी का कोई विनाश कर ही नहीं सकता। परंतु शरीर विनाशी है- क्योंकि वह नित्य निरंतर विनाश की तरफ जा रहा है। अतः इस विनाशी के विनाश को कोई रोक ही नहीं सकता। तू सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो ये नहीं मरेंगे, पर वास्तव में तेरे युद्ध करने से अथवा न करने से इस अविनाशी और विनाशी तत्त्व में कुछ फरक नहीं पड़ेगा अर्थात अविनाशी तो रहेगा ही और विनाशी का नाश होगा ही। यहाँ ‘अस्य’ पद से सत-तत्त्व को इदंता से कहने का तात्पर्य है कि प्रतिक्षण बदलने वाले शरीर में जो सत्ता दीखती है, वह इसी सत-तत्त्व की है। ‘मेरा शरीर है और मैं शरीरधारी हूँ’- ऐसा जो अपनी सत्ता का ज्ञान है, उसी को लक्ष्य करके भगवान ने यहाँ ‘अस्य’ पद दिया है।


अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।। 18 ।।


अर्थ- अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहने वाले इस शरीरी के ये देह अंत वाले कहे गये हैं। इसलिए हे अर्जुन ! तुम युद्ध करो।


व्याख्या- ‘अनाशिनः’- किसी काल में, किसी कारण से कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम ‘अनाशी’ अर्थात अविनाशी है।


‘अप्रमेयस्य’- जो प्रमा[1] का विषय नहीं है अर्थात जो अंतःकरण और इंद्रियों का विषय नहीं है, उसको ‘अप्रमेय’ कहते हैं। इसमें अंतःकरण और इंद्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और संत-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और संत-महापुरुष उन्हीं के लिए प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और संत में श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और संत के वचनों को मानता है। इसलिए यह तत्त्व केवल श्रद्धा का विषय है[2], प्रमाण का विषय नहीं।


शास्त्र और संत किसी को बाध्य नहीं करते कि तुम हमारे में श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करने में मनुष्य स्वतंत्र है। अगर वह शास्त्र और संत के वचनों में श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धा का विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धा का विषय नहीं है।


‘नित्यस्य’- यह नित्य-निरंतर रहने वाला है। किसी काल में यह न रहता हो- ऐसी बात नहीं है अर्थात यह सब काल में सदा ही रहता है। ‘अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः’- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरी के संपूर्ण संसार में जितने भी शरीर हैं, वे सभी अंत वाले कहे गये हैं। अंत वाले कहने का तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अंत हो रहा है। इनमें अंत के सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अंत ही अंत है।

उपर्युक्त पदों में शरीरी के लिए तो एकवचन दिया है और शरीरों के लिए बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणी के स्थूल, सूक्ष्म और कारण- ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसार के संपूर्ण शरीरों में एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोक में भी इसको ‘सर्वगतः’ पद से सब में व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जाने वाले संपूर्ण शरीर नाशवान है। जैसे अविनाशी का कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात उसका तो नाश ही होगा।


यहाँ ‘अन्तवन्त इमे देहाः’ कहने का तात्पर्य है कि ये जो देह देखने में आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान हैं। पर ये देह किसके हैं? ‘नित्यस्य’, ‘अनाशिनः’- ये देह नित्य के हैं, अविनाशी के हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्व ने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना मानने का अर्थ है कि अपने को शरीर में रख दिया और शरीर को अपने में रख लिया। अपने को शरीर में रखने से ‘अहंता’ अर्थात ‘मैं’- पन पैदा हो गया और शरीर को अपने में रखने से ‘ममता’ अर्थात ‘मेरा’- पन पैदा हो गया।


यह स्वयं जिन-जिन चीजों में अपने को रखता चला जाता है, उन-उन चीजों में ‘मैं’-पन होता ही चला जाता है; जैसे- अपने को धन में रख दिया तो ‘मैं धनी हूँ’; अपने को राज्य में रख दिया तो ‘मैं राजा हूँ’; अपने को विद्या में रख दिया तो ‘मैं विद्वान हूँ’; अपने को बुद्धि में रख दिया तो ‘मैं बुद्धिमान हूँ’; अपने को सिद्धियों में रख दिया तो ‘मैं सिद्ध हूँ’; अपने को शरीर में रख दिया तो ‘मैं शरीर हूँ’; आदि-आदि।


यह स्वयं जिन-जिन चीजों को अपने में रखता चला जाता है, उन-उन चीजों में ‘मेरा’- पन होता ही चला जाता है; जैसे- कुटुम्ब को अपने में रख लिया तो ‘कुटुम्ब मेरा है’; धन को अपने में रख लिया तो ‘धन मेरा है’; बुद्धि को अपने में रख लिया तो ‘बुद्धि मेरी है’; शरीर को अपने में रख लिया तो ‘शरीर मेरा है’; आदि-आदि।

जड़ता के साथ ‘मैं’ और ‘मेरा’- पन होने से ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं[1] दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेक को महत्त्व न देने से ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परंतु जो इस विवेक को आदर देते हैं, महत्त्व देते हैं वे पंडित होते हैं। ऐसे पंडित लोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है- इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है। ‘तस्मात्[2]युध्यस्व’- भगवान अर्जुन के लिए आज्ञा देते हैं कि सत्-असत् को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात प्राप्त कर्तव्य का पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अंत वाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों- शरीर-शरीरी की दृष्टि से शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोक का त्याग करके युद्ध करो।


विशेष बात

यहाँ सत्रहवें और अठारहवें- इन दोनों श्लोकों में विशेषता से सत्-तत्त्व का ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरण में भगवान का लक्ष्य सत् का बोध कराने में ही है। सत् का बोध हो जाने से असत् की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकार का किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं रहता। इस प्रकार सत् का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इस विवेचन से यह बात सिद्ध होती है कि सांख्य योग में कर्मयोग में किसी विशेष वर्ण और आश्रम की आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याण के लिए चाहे सांख्ययोग का अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोग का अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्रता है। परंतु व्यावहारिक काम करने में वर्ण और आश्रम के अनुसार शास्त्रीय विधान की परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोग के अनुसार सत्-असत् का विवेचन करते हुए भगवान युद्ध करने की अर्थात कर्तव्य कर्म करने की आज्ञा देते हैं।


आगे तेरहवें अध्याय में जहाँ ज्ञान के साधनों का वर्णन किया गया है, वहाँ भी ‘असक्तिरनभिषंगः पुत्रदार गृहादिषु’[3] कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदि की आसक्ति का निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्ययोग के अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदि में आसक्तिरहित होने के लिए कहने की आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासी के पुत्र स्त्री आदि होते ही नहीं।


इस तरह गीता पर विचार करने से सांख्ययोग एव कर्मयोग- दोनों परमात्मप्राप्ति के स्वतंत्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रम पर किञ्चिन्मात्र भी अविलंबित नहीं है।

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।। 19 ।।


अर्थ- जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरी को मारने वाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।


व्याख्या- ‘य एनं[1] वेत्ति हन्तारम्’- जो इस शरीरी को मारने वाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता। कारण कि शरीर में कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजार के बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शऱीरी शरीर के बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः तेरहवें अध्याय में भगवान ने कहा कि सब प्रकार की क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती है- ऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरी के अकर्तापन का अनुभव करता है[2]। तात्पर्य यह हुआ कि शरीरी में कर्तापन नहीं है, पर यह शरीर के साथ तादात्म्य करके, संबंध जोड़कर शरीर से होने वाले क्रियाओं में अपने को कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीर के साथ अपना संबंध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं है।


‘यश्चैनं मन्यते हतम्’- जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारने वाला नहीं है, ऐसे ही यह मरने वाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात जो उत्पत्ति-विनाश शील होता है, वही मर सकता है।


‘उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते’- वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात जो इस शरीर को मारने वाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरने वाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता।


यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीर को मारने वाला और मरने वाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तव में ऐसा नहीं है। यह नाश करने वाला भी नहीं है और नष्ट होने वाला भी नहीं है। यह निर्विकार रूप से नित्य-निरंतर ज्यों का त्यों रहने वाला है। अतः इस शरीरी को लेकर शोक नहीं करना चाहिए।


अर्जुन के सामने युद्ध का प्रसंग होने से ही यहाँ शरीरी को मरने-मारने की क्रिया से रहित बताया गया है। वास्तव में यह संपूर्ण क्रियाओं से रहित है।




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