सुर असुर


तीन गुणों की बद्ध और व्यामूढ़ क्रिया से छुटकारा पाकर गुणातीत मुक्त पुरुष की निःसीम एवं बंधनहीन क्रिया में प्रवेश किस प्रकार साधित किया जा सकता है, इस प्रश्न पर यदि हम अपने अंदर अधिक सूक्ष्मता के साथ विचार करें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि मनुष्य की अज्ञ एवं बंधनग्रस्त सामान्य प्रकृति को दिव्य आध्यात्मिक सत्ता की क्रियाशील मुक्ति स्थिति में परिवर्तित करने में क्रियात्मक कठिनाई क्या है। यह परिवर्तन किंवा त्रिगुण का अतिक्रमण परमावश्यक है; क्योंकि यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि उसे त्रिगुणातीत या निस्त्रैगुण्य होना होगा, अर्थात तीनों गुणों से ऊपर या फिर उनसे रहित होना होगा।


दूसरी ओर, इतने ही स्पष्ट रूप में, इतने ही बलपूर्ण शब्दों में यह भी कहा गया है कि भूतल पर प्रत्येक प्राकृत सत्ता में तीनों गुण एक-दूसरे के साथ अविच्छेद्य रूप से युक्त रहकर क्रिया कर रहे हैं और यह भी कहा गया है कि किसी मनुष्य या प्राणी या शक्ति की समस्त क्रिया केवल इन तीन गुणों की एक-दूसरे पर होने वाली क्रिया ही है, वह एक ऐसी क्रिया है जिसमें कोई एक या दूसरा गुण प्रबल होता है तथा शेष दोनों उसकी क्रिया एवं परिणमों को थोड़ा-बहुत प्रभावित करते हैं, गुणा गुणेष वर्तन्ते। तब भला और कोई सक्रिय एवं गतिशील प्रकृति या किसी और प्रकार के कर्म हो ही कैसे सकते हैं? कर्म करने का अर्थ प्रकृति के गुणों के अधीन होना है; उसकी क्रिया की इन अवस्थाओं के ऊपर उठने का अर्थ आत्मा में नीरव होकर स्थित रहना है।


ईश्वर, पुरुषोत्तम, जो प्रकृति के सब कर्मों के स्वामी है तथा अपने दिव्य संकल्प के द्वारा उन सबका परिचालन, निर्देशन और निर्धारण करते हैं, निःसदेह गुणों की इस यांत्रिक क्रिया से परे है; वे प्रकृति के गुणों से प्रभावित या आबद्ध नहीं होते। परंतु फिर भी ऐसा जान पड़ता है कि वे सदा इन्हीं के द्वारा कार्य करते हैं, सदा स्वभाव की शक्ति से तथा गुणों के मनोवैज्ञानिक यंत्र के द्वारा गठन करते हैं। ये तीन प्रकृति के मूलभूत गुण हैं, यहाँ हमारे अंदर जो कार्यवाहिका प्रकृति-शक्ति गठित हो रही है उसकी ये आवश्यक क्रियाएं हैं, और स्वयं जीव भी इस प्रकृति के अंदर भगवान का एक अंशमात्र है। अतएव यदि मुक्त व्यक्ति मुक्ति के बाद भी कर्म करता रहता है,,कर्म-प्रपंच में विचरण करता है, तो वह प्रकृति के अंदर रहता हुआ तथा उसके गुणों के द्वारा सीमाबद्ध एवं उनकी प्रतिक्रियाओं के अधीन होकर ही कर्म कर सकता।


तथा इस प्रकार विचरण कर सकता है, और जब तक उसकी सत्ता का प्राकृत भाग विद्यमान है तब तक यह भगवान की मुक्ततावस्था में कर्म नहीं कर सकता। परंतु गीता ने इससे ठीक उल्टी बात कही है, वह यह कि मुक्त योगी गुणों की प्रतिक्रियाओं से छुटकारा पा लेता है और वह चाहे जो भी कर्म करे, चाहे जिस प्रकार भी रहे, पर वह सदा ईश्वर में ही, उनके स्वातंत्र्य और अमृतत्त्व की शक्ति में ही, परमोच्च शाश्वत अनंत के विधान में ही रहता-सहता है, उसी में चलता-फिरता तथा सब काम-काज करता है, सर्वथा वर्तमानोअपि स योगी मयि वर्तते। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ एक परस्पर-विरोध एवं गहन समस्या विद्यमान है। परंतु ऐसा तभी दिखायी देता है जब हम विश्लेषक मन के कठोर तार्किक विरोधी के साथ गठबंधन कर लेते हैं, तब नहीं जब हम आत्मा के स्वरूप, तथा प्रकृति के अंदर विद्यमान अध्यात्म-सत्ता पर मुक्त एवं सूक्ष्म रूप से दृष्टिपात करते हैं। जो शक्ति जगत को चला रही है वह वास्तव में प्रकृति के गुण नहीं हैं, ये गुण तो हमारी साधरण प्रकृति का केवल निम्न पक्ष हैं, उसका एक यंत्र मात्र हैं। जगत की वास्तवकि चालक-शक्ति एक आध्यात्मिक भगवत्संकल्प है जो इस समय इन निम्न अवस्थाओं का प्रयोग कर रहा है, पर जो स्वयं मानवीय संकल्प की भाँति गुणों के द्वारा सीमाबद्ध एवं नियंत्रित नहीं होता, उनका यंत्र नहीं बन जाता। निःसंदेह, क्योंकि इन गुणों की क्रिया इतनी सार्वभौम है, इनका मूल परमात्मा की शक्ति के भीतर निहित किसी तत्त्व में ही होना चाहिये; दिव्य संकल्प-बल में ऐसी शक्तियां अवश्य होनी चाहिये जिनसे प्रकृति के ये गुण उदभूत होते हैं। कारण, निम्नतर सामान्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु पुरुषोत्तम की सत्ता की उच्चतर अध्यात्म-शक्ति से ही निःसृत हुई है, मत्त: प्रवर्तते; वह आध्यात्मिक मूल से रहित एक सर्वथा नीवन वस्तु के रूप में उद्भूत नहीं होती। आत्मा की मूल शक्ति में कोई ऐसी चीज अवश्य है जिससे हमारी प्रकृति का सात्त्विक प्रकाश एवं एवं सुख, उसकी राजसिक गति तथा तामसिक जड़ता निःसृत हुई और जिसके ये अपूर्ण या हीन रूप हैं। किंतु इन स्त्रोतों के जिस अपूर्ण एवं विकृत रूप के अंदर हम निवास करते हैं उसके परे जब हम एक बार इनके विशुद्ध रूप तक पहुँचते हैं तो हमें पता चलता है कि, ज्यों ही हम आत्मा के अंदर निवास करने लगते हैं त्यों ही, ये गतियां एक सर्वथा भिन्न रूप धारण कर लेती हैं। 


सत्ता और कर्म तथा इन दोनों की त्रिगुणात्मक अवस्थाएं अपने वर्तमान सीमित रूप से अत्यंत परतर एवं सर्वथा विभिन्न वस्तुएं बन जाती हैं। इस द्वंद्वमय एवं संघर्षमय जगत की इस विक्षुब्ध गति के पीछे क्या चीज है? वह कौंन-सी चीज है जो मन को छूते ही, मानसिक रूप धारण करते ही कामना, चेष्टा, आयास, भ्रांत संकल्प, पाप और दुःख-दर्द की प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करती है? वह गति में प्रवृत्त आत्मा का संकल्प है, कर्मरत विराट भगवत-संकल्प है जिसे ये वस्तुएं स्पर्श नहीं करती; वह मुक्त एवं अनंत चिन्मय परमेश्वर की शक्ति[1] है जिसके अंदर कोई कामना नहीं, क्योंकि वह विश्व की समस्त संपदा की स्वामिनी है और अपनी गति के सहज-स्फूर्त आनंद की भोक्त्री है। किसी प्रकार के आयास-प्रयास से शांत न होती हुई वह अपने साधनों तथा उद्देश्यों के निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करती है; किसी भ्रांत संकल्प के कारण पथभ्रष्ट न होती हुई वह आत्मा और वस्तुओं के उस ज्ञान को अपने अंदर धारण किये हुए है जो उसके प्रभुत्व और आनंद का मूल स्त्रोत हैः दुःख, पाप या वेदना से अभिभूत न होती हुई वह अपनी सत्ता तथा शक्ति दोनों के आनंद और पवित्रता से नित्ययुक्त है।


जो जीव ईश्वर में निवास करता है वह इस आध्यात्मिक संकल्प के द्वारा कार्य करता है न कि बंधनग्रस्त मन के सामान्य संकल्प के द्वाराः उसकी समस्त क्रिया-प्रवृत्ति इस आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा प्रवाहित होती है, प्रकृति के रजोगुण के द्वारा नहीं, इसका कारण ठीक यही है कि वह अब और उस निम्नतर गति में निवास नहीं करता, जिसके साथ यह विकृति संबंध रखती है, बल्कि दिव्य प्रकृति में गति के विशुद्ध और पूर्ण मर्म पर पहुँच गया है। और फिर प्रकृति की यह जड़ता, यह तमस पराकाष्ठा को पहुँचने पर उसकी क्रिया को मशीन के अंध परिचालन जैसा रूप दे देता है, एक ऐसे यांत्रिक वेग का रूप दे देता है जो उस गरारी के सिवा और किसी चीज से सचेतन नहीं होता जिसमें इसकी गति शुरू करा दी जाती है, और यहाँ तक कि जो गति का नियम तक नहीं जानता,-यह समस्त अभस्त क्रिया के विलोप को मृत्यु एवं विघटन में परिणत कर देता तथा मन के अंदर निष्क्रियता एवं आन की शक्ति बन जाता है,-इस प्रकार के इस तमस के पीछे क्या चीज है? यह तमस एक प्रकार का अज्ञानन्धकार है, जो यह कहा जा सकता है कि, आत्मा के शांति और विश्रांतिरूपी शाश्वत तत्त्व को विकृत करके उसे शक्ति एवं ज्ञानसंबंधी निष्क्रियता में परिणत कर देता है। पर भगवान की वह विश्रांति ऐसी विश्रांति है जिसे वे कभी नहीं खोते, तब भी नहीं जबकि वे कर्म करते हैं, वह एक ऐसी शाश्वत विश्रांति है जो उनके ज्ञान के समग्र व्यापार को तथा उनके सर्जन-संकल्प की शक्ति को वहाँ और यहाँ दोनों जगह धारण करती है, वहाँ उसकी अपनी अनंतताओं में तथा यहाँ उसकी क्रिया और आत्म-संवित की प्रतीयमान अपूर्णता में। भगवान की शांति न तो शक्ति का विघटन है और न ही शून्य निष्क्रियता; चाहे ‘शक्ति’ यत्र-तत्र-सर्वत्र कुछ समय के लिये सक्रिय रूप से जानना तथा सृजन करना बंद कर दे तो भी भगवान की यह शांति उस सबके, जिसे ‘अनंत’ ने जाना तथा किया है।


एक सर्वसमर्थ नीरवता में संग्रहीत तथा चिद्घन रूप में सुरक्षित रखेगी। सनातन को सोने या विश्राम करने की आवश्यकता नहीं होती; वे न तो श्रांत होते हैं और न शिथिल; उन्हें अपनी क्लांत शक्तियों को फिर से नया और ताजा करने के लिये विराम की जरूरत नहीं; क्योंकि उनकी शक्ति अक्षय रूप में एकरस है, कभी श्रांत न होने वाली तथा असीम है। परमेश्वर अपने कर्म के बीच भी शांत और सुस्थिर रखते हैं; और दूसरी ओर उनकी कर्म से विरति उनकी गति की संपूर्ण शक्ति तथा समस्त संभाव्यताओं को अपने अंदर सुरक्षित रखती है। जीव इस स्थिर शांति में प्रवेश करता है तथा आत्मा की शाश्वत विश्रांति में भाग लेता है। जिस किसी को भी मुक्ति के आनंद का यक्तिंचित रसास्वाद प्राप्त हुआ है वह इस बात को जानता है कि इसमें शांति की शाश्वत शक्ति विद्यमान है। और वह गंभीर शांति कर्म के ठेठ अंतस्तल में भी रह सकती है, शक्तियों की अतीव प्रचंड गति में भी सुरक्षित रह सकती है।


विचार, कर्म, संकल्प एवं प्रवृत्ति का अदम्य प्रवाह, प्रेम का उद्दाम आवेग, स्वयंसत आध्यात्मिक आनंद का तीव्रतम उल्लास उपस्थित हो सकता है और वह जगत में तथा प्रकृति की गतिविधियों में वस्तुओं और सत्ताओं के तेजोमय एवं शक्तिपूर्ण आध्यात्मिक उपभोग की हदतक पहुँच सकता है, और फिर भी यह शांति एवं स्थिरता उस आवेग के पीछे तथा उसके अंदर उपस्थित रहेगी-अपनी गहराइयों से नित्य-सचेतन, सदा एकरस। मुक्त व्यक्ति की शांति आलस्य, अक्षमता, असंवेदन-शीलता एवं जड़ता-रूप नहीं होती; वह तो होती है अमर शक्ति से परिपूर्ण, समस्त कर्म करने में सक्षम, प्रगाढ़तम हर्ष के साथ समस्वरित, गंभीरतम प्रेम एवं करुणा तथा सब प्रकार के तीव्रतम आनंद की ओर अभिमुख।


इसी प्रकार, प्रकृति का यह शुद्धतम गुण अर्थात सत्त्वगुण या सत्त्वशक्ति जो सात्म्य एवं समरसता, यथार्थ ज्ञान एवं यथार्थ व्यवहार, सुन्दर सामंजस्य, दृढ़ संतुलन, यथार्थ कर्म-विधान तथा यथार्थ प्रभुत्व को अधिगत करने में सहायक होती है और मन को इनती पूर्ण तृप्ति प्रदान करती है, यह सत्त्वगुण जो अपने-आपमें, अपनी सीमाओं के भीतर तथा अपने स्थिति-काल में तो अवश्य सराहनीय है पर फिर भी जिसकी स्थिति अनिश्चित है, इस प्रकार के इस सत्त्वगुण के अवर प्रकाश एवं सुख के परे,साधारण प्रकृति की इस उच्चतम ज्योति एवं आनंद विद्यमान है।


वह ज्योति एवं आनंद सीमाबद्ध नहीं है, वह नियम-मर्यादा या विधि-विधान पर अवलंबित नहीं है, बल्कि स्वयं-स्थित और अपरिवर्तनीय है, वह हमारी प्रकृति के वैषमय-विरोधों के बीच इस या उस सामंजसय का परिणाम नहीं है बल्कि सामंजस्य मात्र का मूल स्त्रोत है और चाहे जिस किसी भी सामंजस्य की सृष्टि कर सकता है। वह ज्ञान की एक ज्योतिर्मयी आध्यात्मिक शक्ति है, ज्योतिः है, वह हमारा विकृत और परोक्ष मानसिक प्रकाश नहीं है। वह विशालतम स्वयंस्थित सत्ता की, सहजस्फूर्त आत्म ज्ञान, घनिष्ठ विश्वगत तादात्म्य तथा गंभीरतम तथा गंभीरतम आत्म-विनयम की ज्योति एवं आनंद है, न कि अर्जुन, आत्मसात्करण, सामंजस्य-साधन तथा कष्टसाध्य साम्य-स्थापन की। वह ज्योति भास्वर अध्यात्म-संकल्प से परिपूर्ण है और उसके ज्ञान तथा कर्म में कोई खाई या विषमता नहीं हैं वह आनंद द्वारा हमारा क्षीणतर मानसिक सुख नहीं है, बल्कि गंभीर, तीव्र, प्रगाढ़ स्वयंसत आनंद है; हमारी सत्ता जो कुछ भी करती है, जिस भी वस्तु की परिकल्पना एवं सृष्टि करती है उस सबमें वह आनंद व्याप्त रहता है, वह एक स्थिर दिव्य आनंद है।


मुक्त जीव इस ज्योति और आनंद में अधिकाधिक गंभीर रूप से भाग लेता है, जितना ही अधिक पूर्ण रूप में वह इसके अंदर वर्धित होता है, उतना ही अधिक समग्र रूप में वह भगवान के साथ युक्त होता है। निम्न प्रकृति के गुणों में, अनिवार्य रूप से, एक असंतुलन रहता है, उनमें मात्रा की परिवर्तनशील अस्थिरता, तथा प्रभुत्व के लिये सतत संघर्ष पाया जाता है; पर इसके विपरीत, अध्यात्म-सत्ता की महत्तर ज्योति एवं आनंद, स्थिरता और गति-संकल्प एक-दूसरे का बहिष्कार नहीं करते, परस्पर संघर्ष नहीं करते, यहाँ तक कि ये केवल संतुलित ही नहीं रहते वरन् इनमें से प्रत्येक शेष दो का एक अंग है और अपनी पूर्णता में ये सब एक एवं अविभाज्य हैं।


हमारा मन जब भगवान के निकट पहुँचता है तो ऐसा प्रतीत हो सकता है कि वह इनमें से एक का वर्जन कर दूसरे में प्रवेश कर रहा है, उदाहरणार्थ, ऐसा दिखायी दे सकता है कि वह कर्म की प्रवृत्ति को त्यागकर शांति उपलब्ध करना चाहता है, पर इसका कारण यह है कि पहले-पहले हम अपने मन की चुनाव करने की वृत्ति के द्वारा ही उनकी ओर अग्रसर होते हैं। बाद में जब हम आध्यात्मिक मन से भी ऊपर उठने में समर्थ हो जाते हैं तो हम देखते हैं कि इन दिव्य शक्तियों में से प्रत्येक के अंदर शेष सब भी विद्यमान हैं और तब हम इस प्रारंभिक भूल से छुटकारा पा सकते हैं।


इस प्रकार हम देखते हैं कि जीव प्रकृति के गुणों की सामान्य हीन क्रिया के अधीन हुए बिना भी कर्म कर सकता है। मन-प्राण-शरीररूपी जिस सीमित सांचे में हम ढले हुए हैं उसी के ऊपर यह हीन क्रिया निर्भर करती है; यह एक विकृत हैं, एक अक्षमता एवं अयथार्थ या हीन अवस्था है जिसे देहबद्ध मन और प्राण हम पर लादते हैं। जब हम आत्मा में अभिवर्द्धित होते हैं तो प्रकृति के इस धर्म या निम्न विधान का स्थान आत्मा का अमर धर्म ले लेता है; तब मुक्त अमर कर्म, दिव्य असीम ज्ञान, परात्पर शक्ति और अपार शांति का अनुभव हमें प्राप्त होता है। पर फिर भी यह प्रश्न शेष रह जाता है कि यह संक्रमण किन अवस्थाओं के द्वारा संपन्न होगा; क्योंकि मध्यवर्ती अवस्थाओं किंवा प्रगति के क्रमों का रहना आवश्यक है; कारण, इस संसार में ईश्वर की कार्य परंपरा में कोई भी चीज बिना किसी प्रक्रिया या आधार के किसी आकस्मिक क्रिया के द्वारा नहीं होती।


जिस चीज की हम खोज कर रहे हैं वह हमारे अपने ही अंदर है। पर, क्रियात्मक दृष्टि से, हमें अपनी प्रकृति के निम्नतर रूपों में से उसका विकास करना है।[1] अतएव स्वयं गुणों की क्रिया में भी किसी ऐसे उपाय या सुविधजनक साधन एवं आधार-बिंदु का होना आवश्यक है जिसके द्वारा हम यह रूपांतर साधित कर सकें।


गीता को यह उपाय सत्त्वगुण में उपलब्ध हुआ है, वह कहती है कि हमें सत्त्वगुण का पूर्ण विकास करना होगा ताकि वह अपने शक्तिशाली विस्तार में एक ऐसे स्थल पर पहुँच जाये जहाँ वह अपने को अतिक्रम कर सके तथा अपने उद्गम में विलीन हो सके। इसका कारण स्पष्ट ही है, क्योंकि सत्त्व प्रकाश और सुख की शक्ति है, एक ऐसी शक्ति है जो शांति और ज्ञान की प्राप्ति में सहायक है, और अपने सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने पर यह, जिस आध्यात्मिक ज्योति एवं आनंद से यह उत्पन्न हुआ है, उसे कुछ-न-कुछ प्रतिभासित कर सकता है, यहाँ तक कि उसके साथ लगभग एक मानसिक तादात्म्य प्राप्त कर सकता है। शेष दो गुण प्रकृति की सत्त्वगुण की शक्ति के हस्तक्षेप के बिना इस प्रकार का रूपांतर हो सकता है और न ही तम दिव्य शम और विश्रांति में। जड़ता का तत्त्व सदा शक्ति को जड़ निष्क्रियता या ज्ञान की अक्षमता ही बना रहेगा जब तक कि उसका अज्ञान प्रकाश में विलीन नहीं हो जाता।


इस प्रकार हम देखते हैं कि जीव प्रकृति के गुणों की सामान्य हीन क्रिया के अधीन हुए बिना भी कर्म कर सकता है। मन-प्राण-शरीररूपी जिस सीमित सांचे में हम ढले हुए हैं उसी के ऊपर यह हीन क्रिया निर्भर करती है; यह एक विकृत हैं, एक अक्षमता एवं अयथार्थ या हीन अवस्था है जिसे देहबद्ध मन और प्राण हम पर लादते हैं। जब हम आत्मा में अभिवर्द्धित होते हैं तो प्रकृति के इस धर्म या निम्न विधान का स्थान आत्मा का अमर धर्म ले लेता है; तब मुक्त अमर कर्म, दिव्य असीम ज्ञान, परात्पर शक्ति और अपार शांति का अनुभव हमें प्राप्त होता है। पर फिर भी यह प्रश्न शेष रह जाता है कि यह संक्रमण किन अवस्थाओं के द्वारा संपन्न होगा; क्योंकि मध्यवर्ती अवस्थाओं किंवा प्रगति के क्रमों का रहना आवश्यक है; कारण, इस संसार में ईश्वर की कार्य परंपरा में कोई भी चीज बिना किसी प्रक्रिया या आधार के किसी आकस्मिक क्रिया के द्वारा नहीं होती।


जिस चीज की हम खोज कर रहे हैं वह हमारे अपने ही अंदर है। पर, क्रियात्मक दृष्टि से, हमें अपनी प्रकृति के निम्नतर रूपों में से उसका विकास करना है।[1] अतएव स्वयं गुणों की क्रिया में भी किसी ऐसे उपाय या सुविधजनक साधन एवं आधार-बिंदु का होना आवश्यक है जिसके द्वारा हम यह रूपांतर साधित कर सकें।


गीता को यह उपाय सत्त्वगुण में उपलब्ध हुआ है, वह कहती है कि हमें सत्त्वगुण का पूर्ण विकास करना होगा ताकि वह अपने शक्तिशाली विस्तार में एक ऐसे स्थल पर पहुँच जाये जहाँ वह अपने को अतिक्रम कर सके तथा अपने उद्गम में विलीन हो सके। इसका कारण स्पष्ट ही है, क्योंकि सत्त्व प्रकाश और सुख की शक्ति है, एक ऐसी शक्ति है जो शांति और ज्ञान की प्राप्ति में सहायक है, और अपने सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने पर यह, जिस आध्यात्मिक ज्योति एवं आनंद से यह उत्पन्न हुआ है, उसे कुछ-न-कुछ प्रतिभासित कर सकता है, यहाँ तक कि उसके साथ लगभग एक मानसिक तादात्म्य प्राप्त कर सकता है। शेष दो गुण प्रकृति की सत्त्वगुण की शक्ति के हस्तक्षेप के बिना इस प्रकार का रूपांतर हो सकता है और न ही तम दिव्य शम और विश्रांति में। जड़ता का तत्त्व सदा शक्ति को जड़ निष्क्रियता या ज्ञान की अक्षमता ही बना रहेगा जब तक कि उसका अज्ञान प्रकाश में विलीन नहीं हो जाता।


उसकी जड़ अक्षमता सर्वशक्तिमान दिव्य संकल्प की ज्योति एवं शक्ति में विलुप्त नहीं हो जाती। उसके बिना हम परम शांति एवं स्थिरता कभी नहीं प्राप्त कर सकते। अतएव तमस को सत्त्व के वश में लाना आवश्यक है। इसी प्रकार, रज का तत्त्व सदैव एक चंचल, विक्षुब्ध, ज्वराकुल या उद्विग्न व्यापार ही रहेगा, क्योंकि उसके अंदर यथार्थ ज्ञान का अभाव है; उसकी स्वभावसिद्ध गति एक अयुक्त एवं विकृत क्रिया है जिसके विकृत होने का कारण है अज्ञान। हमें अपने संकल्प को ज्ञान के द्वारा शुद्ध करना होगा; उसे उत्तरोत्तर एक युक्त तथा ज्ञानदीप्त क्रिया का अभ्यासी बनाना होगा; तब कहीं हम उसे दिव्य गतिशील संकल्प में परिणत कर सकते हैं। इसका भी यही अर्थ हुआ कि सत्त्व का हस्तक्षेप आवश्यक है।


सत्त्वगुण परा और अपना प्रकृति के बीच प्रथम मध्यस्थ है। निःसंदेह एक विशेष बिंदुतक पहुँचकर इसे रूपांतरित हो जाना होगा या फिर इसे अपने को अतिक्रम करना होगा एवं खंडित होकर अपने उद्गम में विलीन हो जाना होगा; इसके परिछिन्न, अन्यलब्ध एवं अन्वेषण-तत्पर प्रकाश तथा साधानता पूर्वक आयोजित कार्य को आत्मा की मुक्त साक्षात कर्मशक्ति तथा स्वयंस्फूर्त ज्योति में रूपांतरित होना होगा। परंतु इस बीच सत्त्वगुण की अपरिमित वृद्धि हमें तामसिक एवं राजसिक अक्षमता से बहुत हदतक मुक्त कर देती है; और एक बार जब ऐसी स्थिति आ जाती है कि रज और तम हमें बहुत अधिक नीचे खींच सकते तब स्वयं सत्त्वगुण की अपनी अक्षमता भी अतीव सुगमता से पार की जा सकती है। जब तक सत्त्वगुण आध्यात्मिक ज्योति, शांति और प्रसाद से परिपूर्ण नहीं हो जाता, तब तक उसे विकसित करते जाना ही प्रकृति की इस प्रारंभिक साधना की पहली शर्त है।


हम देखेंगे कि गीता के शेष अध्यायों का संपूर्ण आशय यही है। परंतु इस ज्ञानप्रद प्रक्रिया की विवेचना करने से पहले इसकी भूमिका के रूप में वह दो प्रकार की सत्ताओं, देव और असुर के बीच भेद दिखलाती है; क्योंकि देव ही अपने-आपको रूपांतरित करने का उच्च सात्त्विक कार्य कर सकता है, असुर नहीं। हमें यह देखना होगा कि इस भूमिका का उद्देश्य तथा इस भेद की यथार्थ उपयोगिता क्या है। मनुष्य मात्र की सामान्य प्रकृति एक-सी है; वह तीन गुणों के मिश्रण से बनी हुई है। अतएव, ऐसा प्रतीत होगा कि सत्त्वगुण को विकसित और परिपुष्ट करने तथा उसे दिव्य रूपांतर की ऊंचाइयों की ओर उन्मुख कर देने की क्षमता सबके अंदर है।


परंतु हमारी यह साधारण प्रवृत्ति है कि व्यवहार में हम अपनी बुद्धि और संकल्प को अपने राजसिक या तामसिक अहंभाव के दास बनाने के साथ-साथ अपनी चंचल एवं असंतुलित कर्मैंषणा या स्व-विलासी अकर्मण्यता और निष्क्रिय जड़ता के सहायक भी बना देते हैं। इस प्रवृत्ति के सम्बंध में हम यह मान ले सकते हैं कि यह हमारी अविकसित आध्यात्मिक सत्ता की एक अस्थायी प्रवृत्ति एवं इसके अपूर्ण विकास की अपरिपक्व अवस्था ही हो सकती है, और जब हमारी चेतना का आध्यात्मिक स्तर ऊंचा हो जायेगा तब यह अवश्य दूर हो जायेगी। परंतु कार्यतः हम यह देखते हैं कि मनुष्य, कम-से-कम एक स्तर-विशेष से ऊपर के मनुष्य, अधिकतर दो श्रेणियों के अंदर आते हैं, एक तो वे लोग होते हैं जिनमें सात्त्विक प्रकृति अत्यंत प्रबल होती है जो कि स्वभावतः ही ज्ञान, आत्म-संयम, परोपकार तथा पूर्णता की ओर मुड़ी रहती है और दूसरे वे जिसमें राजसिक प्रकृति अति प्रबल होती है जो अहम्मय महत्ता एवं कामना-पूर्ति की ओर तथा अपने निजी दृढ़ संकल्प एवं व्यक्तित्व में आसक्तिपूर्ण रति की ओर मुड़ी रहती है; अपने उस दृढ़ संकल्प और व्यक्तित्व को वे मनुष्य भगवान की सेवा के लिये नहीं, बल्कि अपने अभिमान, यश और सुख के लिये जगत पर लादना चाहते हैं।


ये देवों और दानवों या असुरों के मानवीय प्रतिनिधि हैं। यह भेद भारतीय धार्मिक प्रतीकवाद में अत्यंत प्राचीन है। ऋग्वेद का मूल विचार देवताओं और उनके अंधकारमय विरोधियों के बीच, ज्योति के अधिपतियों एवं अनंतता के पुत्रों और अंधकार एवं विभाजन की संतानों के बीच होने वाला संग्राम ही है, वह एक ऐसा संग्राम है जिसमें मनुष्य भाग लेता है और जो कुछ समस्त आंतर जीवन और कर्म में प्रतिबिंबित होता है। जरदुश्त के धर्म का भी मूलतत्त्व यही था। परवर्ती साहित्य में भी इसी विचार की प्रधानता पायी जाती है। रामायण, अपने मूल नैतिक भाव में, मानव-रूपधारी देव तथा मूर्तिमंत राक्षस के बीच, उच्च संस्कृति एवं धर्म के प्रतिनिधि तथा अतिरंजित अहं की विराट असंयत शक्ति एवं राक्षसी सभ्यता के बीच होने वाले घनघोर संघर्ष का रूपक है। महाभारत,-गीता जिसका एक अंश है,-मानवरूप देवों और असुरों के जीवनव्यापी संघर्ष को आपना विषय बनाती है; देव वे शक्तिशाली मनुष्य हैं, देवताओं के पुत्र हैं जो उच्च नैतिक धर्म के प्रकाश द्वारा परिचलित होते हैं और असुर वे मूर्तिमंत दानव हैं, वे शक्तिशाली मनुष्य हैं जो अपने बौद्धिक, प्राणिक एवं भौतिक अहं की सेवा में रत हैं।



प्राचीन मानव का मन भौतिक आवरण के पीछे छिपे हुए वस्तुओं के सत्य की ओर हमारी अपेक्षा अधिक खुला हुआ था; वह मनुष्य-जीवन के पीछे उन महान वैश्व शक्यिों की, दैवी, असुर, राक्षस और विशाच समझे जाते थे। गीता अपने प्रयोजनों के लिये इस भेद को स्वीकार करती है और इन दो प्रकार की सत्ताओं के विभेद को विशद रूप से पल्लवित करती है। ईश्वर-ज्ञान, मुक्ति और पूर्णता का प्रतिरोध करने वाली आसुरी और राक्षसी प्रकृति का वर्णन वह पहले कर चुकी है; अब वह इन चीजों की ओर मुड़ी हुई दैवी प्रकृति के साथ इसकी तुलना करती है। भगवान गुरु कहते हैं कि अर्जुन देव-प्रकृति का मनुष्य है। उसे यह विचार कर शोक करना उचित नहीं कि युद्ध और वध को अंगीकार करने से वह आसुरी आवेगों का दास बन जायेगा।


जिस कार्य पर सब कुछ निर्भर करता है, जो युद्ध अर्जुन को करना है, जिसमें देहधारी ईश्वर उसके सारथि हैं और जगत के प्रभु ने काल-पुरुष के रूप में प्रकट होकर जिसके लिये आदेश दिया है, वह धर्म के राज्य, सत्य, सदाचार और न्याय के साम्राज्य की स्थपना का संघर्ष है। वह स्वयं देवजाति में उत्पन्न हुआ है; उसने अपने अंदर सात्त्विक स्वभाव का विकास किया है, यहाँ तक कि अब वह उस अवस्था में पहुँच गया है, जहाँ वह उच्च रूपांतर के योग्य है तथा त्रैगुण्य से और इसलिये सात्त्विक प्रकृति से भी मुक्त लाभ करने में समर्थ है। देव और असुर का यह विभाग सारी-की-सारी मनुष्य जाति में व्याप्त नहीं है, यह न तो इसके सभी व्यक्तियों पर कठोर रूप से लागू हो सकता है ओर न ही मनुष्य जाति के नैतिक या आध्यात्मिक इतिहास की सब अवस्थाओं में अथवा वैयक्तिक विकास के सब पक्षों में तीव्र और सुनिश्चित रूप से पाया जाता है।


तामसिक मनुष्य, जो संपूर्ण जाति का कितना ही बड़ा भाग है, गीता में वर्णित श्रेणियों में से किसी के भी अंदर नहीं आता, यद्यपि उसके अंदर अल्प मात्रा में दोनों ही तत्त्व हो सकते हैं यद्यपि अधिकांश में वह डरते-डरते निम्नतर गुणों की ही सेवा करता है। सामान्य मनुष्य साधारणतः एक मिश्रण होता है; परंतु कोई एक या दूसरी प्रवृत्ति अधिक सुनिश्चित होती है, वह उसे प्रधान रूप से राजस-तामसिक-राजसिक बनाती चली जाती है और ऐसा कहा जा सकता है कि वह उसे दैवी निर्मलता या दानवी विक्षुब्धता में से किसी एक परिणति के लिये तैयार कर रही होती है।


क्योंकि, यहाँ गुणात्मिका प्रकृति के विकास में एक प्रकार की विशेष परिणति ही गीता का लक्ष्य है, जैसा कि मूल में किये गये वर्णनों से स्पष्ट पता लग जायेगा। एक ओर तो सत्त्वगुण का उन्नयन, अजात देवता का उत्कर्ष या आविर्भाव हो सकता है, दूसरी ओर प्रकृतिगत जीव के रजोगुण का उन्नयन एवं असुर का पूर्ण प्रादुर्भाव हो सकता है। इनमें से एक तो मोक्ष के उस पुरुषार्थ की ओर ले जाता है जिस पर गीता अब बल देने वाली है; इसके द्वारा सत्त्वगुण से बहुत ऊपर उठ जाना तथा भागवत सत्ता के साधर्म्य में रूपांतरित होना संभव हो जाता है विमोक्षाय। दूसरा हमें इस विश्वगत संभावना से दूर ले जाता है तथा हमारे अहं-बंधन को बड़ी तेजी से बढ़ाता है। दैवासुर-संपद-विभाग का मर्म यही है।


दैवी प्रकृति का लक्षण सात्त्विक अभ्यासों एवं गुणों का चरमोत्कर्ष; आत्म-संयम, आत्मत्याग, धार्मिक प्रवृत्ति शुद्धता और पवित्रता, ऋजुता और सरलता, सत्य, शांति और स्वार्थत्याग, भूतदया, शालीनता मृदुता, क्षमा, धीरता और स्थिरता; समस्त चंचलता, लघुता और अस्थिरता से गंभीर, मधुर और यथार्थ मुक्ति इसकी स्वाभाविक विशेषताएं हैं। आसुरी गुण क्रोध, लोभ, धूर्तता, छल-कपट, परद्रोह, दर्प, अभिमान और अति आत्मादर का इसकी गठन में कोई स्थान नहीं। परंतु इसकी मृदुत, आत्म-त्याग और आत्म-संयम में भी दुर्बलता का नाम-निशान नहीं होते; इसमें होता है तेज और आत्मबल, धृति या दृढ़ संकल्प, न्याय के अुनसार तथा सत्य और अहिंसा के अनुसार जीवन-यापन करने वाली आत्मा की निर्भयता, तेज: अभयम्, धृति:, अहिंसा, सत्यम्। दैवी संपदा से संपन्न मनुष्य की समस्त सत्ता एवं समस्त प्रकृति पूर्ण रूप से शुद्ध होती है; उसके अंदर होती है ज्ञान-पिपासा और ज्ञानयोग में दृढ़ एवं स्थिर प्रतिष्ठा, ज्ञान-योगव्यवस्थिति:। दैवी प्रकृति में उत्पन्न मनुष्य की संपदा, उसकी समृद्धि यही होती है।


आसुरी प्रकृति की भी अपनी संपदा एवं बल-समृद्धि, उसकी समृद्धि होती है, पर वह अत्यंत भिन्न प्रकार की, शक्तिशली तथा अशुभ होती है। आसुरी मनुष्यों को प्रवृत्तिमार्ग या निवृत्तिमार्ग के संबंध में, प्रकृति को बाह्य रूप से चरितार्थ करने या उसे अंतर्मुख करने के संबंध में सच्चा ज्ञान नहीं होता। उनके अंदर न तो सत्य होता है, न शुद्ध कर्म, न सत्याचरण। स्वभावतः ही वे इस जगत में स्वतुष्टि की विशाल क्रीड़ा के सिवा और कुछ नहीं देखते; उनका जगत एक ऐसा जगत है जिसका मूल, बीज, नियामक शक्ति एवं विधान है ‘कामना’, उनका जगत ‘आकस्मिकता’ का जगत है जो युक्तिसंगत सम्बंध या कर्मश्रृंखला से रहित है, ईश्वर-विहीन है, असत्य है तथा सत्य-रूप आधार से वियुक्त है।


वे चाहे कोई भी इससे अच्छा बौद्धिक या उच्चतर धार्मिक सिद्धांत क्यों न मानते हों, फिर भी कार्य-क्षेत्र में उनकी मन-बुद्धि का वास्तविक सिद्धांत यही होता है; वे सदैव कामना तथा अहं की उपासना करते हैं। वास्तव में वे जीवन को देखने की इसी दृष्टि का आश्रय लेते हैं और इसके मिथ्यात्व के द्वारा अपनी आत्मा और बुद्धि का सर्वनाश करते हैं। आसुरी मनुष्य एक भयानक, दानवीय, उग्र कर्म का केंन्द्र या यंत्र, जगत में एक संहारकारी शक्ति अहित और अनिष्ट का मूल स्त्रोत बन जाता है। दंभ और मान से परिपूर्ण, अभिमान के नशे में चूर ये पथभ्रष्ट जीव अज्ञान से विमूढ़ हो जाते हैं, मिथ्या और आग्रहपूर्ण उद्देश्य पर अड़े रहते हैं तथा अपनी लालसाओं के अपवित्र संकल्प का दृढ़तापूर्वक अनुसरण करते हैं वे समझते हैं कि कामना एवं उपभोग ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और इस दुष्पूरणीय लक्ष्य का बेहद पीछा करते हुए वे मृत्युकाल-पर्यन्त एक सर्वग्रासी, अनंत-अपरिमेय चिंता और उधेड़-बुन, आयास और आतुरता के शिकार रहते हैं।


सैकड़ों पाशों से बद्ध, काम और क्रोध से ग्रस्त, दिन-रात अपने कामोपयोग तथा तृष्णा की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक अर्थ-संचय करने में निरत वे सदा यही सोचते हैं कि, ‘‘आज मेरा यह मनोरथ पूरा हो गया है, कल वह दूसरा पूरा हो जायेगा; आज मुझे इतना धन प्राप्त हो गया है, कल और प्राप्त हो जायेगा, अपने अमुक शत्रु का मैनें वध कर दिया है, बाकियों का भी वध कर डालूंगा। मैं मनुष्यों का ईश्वर और राजा हूं, मैं पूर्ण, सिद्ध, बलवान, सुखी और भाग्यशाली हूं, मैं ही जगत के सब भोगों का अधिकारी हूं; मैं धनवान हूं, मैं कुलीन हूं; मेरे समान यहाँ और कौंन है? मैं यज्ञ करूंगा, मैं दान दूंगा, मैं मौज करूंगा। ‘‘सुतरां, अनेक अहंभावपूर्ण विचारों से अभिभूत, अज्ञान से विमोहित, कार्यों को करते हुए पर गलत ढंग से करते हुए, शक्तिशाली रूप से कर्म करते हुए पर अपने में तथा मनुष्य में विद्यमान भगवान के लिये नहीं, वरन् अपने लिये, कामना तथा उपभोग के लिये ही तो करते हैं, पर आत्माभिमानपूर्ण प्रदर्शन के साथ, गर्व तथा कठोर एवं जड़तापूर्ण मद के साथ। अपने बल-सामर्थ्य के अहंकार में, दर्प और क्रोध के आवेश में आकर वे अपने अंदर छिपे हुए तथा मनुष्य मात्र में विद्यमान परमेश्वर को घृणा, तुच्छता और अवहेलना की दृष्टि से देखते हैं।


और, क्योंकि वे शुभ से और भगवान से इस प्रकार अभिमानपूर्वक घृणा और द्वेष करते हैं, क्योंकि वे क्रूर और दुष्ट होते हैं, अतएव, भगवान उन्हें निरंतर अधिकाधिक आसुरी योनियों में डालते रहते हैं। उनकी खोज न करने के कारण वे उन्हें नहीं पाते, और अंत में उनकी प्राप्ति के मार्ग को सर्वथा खोकर वे जीव-प्रकृति की निम्नतम स्थिति में जा गिरते हैं, अधमां गतिम्। यह जो जीवं वर्णन है इसके द्वारा द्योतित भेद का पूरा महत्त्व स्वीकार करते हुए भी, इसका जितना अर्थ है उससे अधिक इसमें से खींचतानकर निकालना उचित नहीं।


जब यह कहा जाता है इस जड़ जगत में देव और असुर-दो प्रकार की जीव-सृष्टि पायी जाती है[1], तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि परमेश्वर ने आरंभ से ही मानव-जीवों को इसी प्रकार का बनाया है और अतएव, प्रकृति के अंदर प्रत्येक की जीवन धारा अटल रूप से निश्चित है। न ही इसका यह अर्थ होता है कि सबकी आध्यात्मिक नियति पहले सही कठोरतापूर्वक नियत है और जिन लोगों को भगवान ने आरम्भ से ही त्याग रखा है उन्हें वे अंध बना देते हैं, ताकि उन्हें शाश्वत विनाश तथा नरक की अशुचि में धकेला जा सके। सभी जीव भगवान के सनातन अंश है, जैसे देवता वैसे ही असुर भी; सभी मोक्ष लाभ कर सकते हैं; यहाँ तक कि घोर-से-घोर पापी भी भगवान की ओर मुड़ सकता है।


परंतु प्रकृति के अंदर जीव का विकास एक साहसपूर्ण कर्म है जिसमें स्वभाव तथा स्वभावनियत कर्म सदा ही मुख्य शक्तियां होते हैं, और यदि जीव के स्वभाव की अभिव्यक्ति में कोई अति, उसकी क्रीड़ा में कोई अव्यवस्था सत्ता के धर्म को कुटिल पथ की ओर फेर दे, यदि राजसिक गुणों को प्रधानता दी जाये, सत्त्व का हृास करके उनका विकास किया जाये, तो निश्चय ही, कर्म-प्रवृत्ति तथा उसके परिणाम उस सत्त्वगुण के उत्कर्ष में पर्यवसति नहीं होते जो मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करने में समर्थ हैं बल्कि वे निम्न प्रकृति के विकारों की पराकाष्ठा में ही परिसमाप्त होते हैं। यदि मनुष्य इस भ्रांत पथ पर चलता बंद नहीं करता एवं इसे तिलांजलि नहीं दे देता तो अंततः उसके अंदर असुर पूर्णरूपेण जन्म ले लेता, और जब एक बार वह ज्योति एवं सत्य से प्रबल रूप से पराडमुख हो जाता है, तो अपने अंदर दिव्य शक्ति का अत्यधिक दुरुपयोग होने के कारण ही वह फिर अपने पतन की घातक गति को तब तक नहीं उलट सकता जब तक वह उन गहरे गर्तों की थाह नहीं ले लेता जिनमें कि वह पतित हुआ है।


जब तक वह उनके तल तक नहीं पहुँच जाता और यह नहीं देख लेता कि यह मार्ग उसे कहाँ ले आया है, कैसे इसने उसकी शक्ति को समाप्त कर दिया है तथा व्यर्थ में गंवा दिया और कैसे वह स्वयं भी जीव-प्रकृति की निम्नतर अवस्था में, अर्थात नरक में जा गिरा है। जब वह यह सब समझकर ज्योति की ओर मुड़ जाता है केवल तभी गीता का यह दूसरा सत्य उसके सामने आता है कि अधम से अधम पापी भी, अत्यंत अपवित्र एवं घोर दुराचारी भी ज्यों ही अपने अंतःस्थ परमेश्वर का भजन और अनुसरण करने की ओर झुकता है त्यों ही उसका उद्धार आरंभ हो जाता है। तब केवल उस झुकाव के द्वारा ही वह अत्यंत शीघ्र सात्त्विक मार्ग पर पहुँच जाता है जो पूर्णता और मुक्ति की ओर ले जाता है।


आसुरिक प्रकृति राजसिक प्रकृति की ही चरम सीमा है; वह प्रकृति के अंदर जीव की दासता की ओर तथा राजसिक अहंकार की तीन शक्तियों, काम, क्रोध और लोभ की ओर ले जाती है, और ये नरक त्रिविध द्वार हैं। जब प्राकृत जीव अपनी निम्नतर या विकृत अंधप्रेरणाओं की अपवित्रत, दुष्टता एवं भ्रांति में आसक्त होता है तब वह इस तीन द्वारों वाले नरक में जा गिरता है। और, फिर, ये तीनों महान अंधकार के द्वार हैं, ये मूल अविद्या की विशिष्ट शक्ति, तमस की ओर ले जाते है; क्योंकि राजसी प्रकृति की उद्दाम शक्ति जब समाप्त होती है तो वह जीव की निकृष्टतम तामसिक अवस्था की दुर्बलता, अधोगति, अंधकार एवं अक्षमता में जा गिरती। इस पतन से बचने के लिये मनुष्य को इन तीन अशुभ शक्तियों से छुटकारा पाना होगा और सत्त्वगुण के प्रकाश की ओर मुड़ना होगा, यथातथ रीति से, यथार्थ सम्बंधी के अनुसार, सत्य और धर्म के अनुसार जीवन यापन करना होगा; तभी वह अपने उच्चतर श्रेय का अनुसरण कर सकता है तथा उच्चतम आत्म-पर उपलब्ध कर सकता है।


कामना के नियम का अुनसरण करना हमारी प्रकृति का सच्चा विधान नहीं है; इसके कर्मों का एक अधिक उच्च और न्यायसंगत आदर्श भी है। परंतु वह कहाँ निहित है या उसे कैसे प्राप्त किया जाये? पहली बात यह है कि मनुष्य जाति इस न्याय और उच्च विधान की खोज सदा ही करती आयी है और जो कुछ उसने उपलब्ध किया है वह उसके शास्त्र में लिपिबद्ध है, वह शास्त्र है ज्ञान और विज्ञान का विधान, नैतिकता, धर्म तथा श्रेष्ठ सामाजिक जीवन का विधान, मनुष्य, ईश्वर और प्रकृति के साथ हमारे यथार्थ संबंधों का विधान। शास्त्र का अभिप्राय उन रीति-रिवाजों का समूह नहीं जिनमें से कुछ अच्छे होते हैं तो कुछ खराब, और जिनका अनुसरण तामसिक मनुष्य का अभ्यास-परवश रूढ़िबद्ध मन बिना समझे-बूझे ही करता है।


शास्त्र का मतलब है अंतर्बोध, अनुभव और प्रज्ञा के द्वारा प्रस्थापित ज्ञान एवं शिक्षा, शास्त्र है जीवन की विद्या, कला और आचार नीति, और साथ ही जो श्रेष्ठ आदर्श मनुष्य जाति को उपलब्ध हैं वे सभी शास्त्र हैं। जो अर्द्ध-प्रबुद्ध मनुष्य शास्त्र के नियमों का पालन करना छोड़कर अपनी अंध प्रेरणाओं एवं कामनाओं के मार्गनिर्देश का अनुसरण करता है वह इन्द्रिय-तृप्ति तो प्राप्त कर सकता है, पर सुख नहीं, क्योंकि आंतरकि सुख की प्राप्ति तो केवल ठीक ढंग से जीवन यापन करने से ही हो सकती है। वह पूर्णता की ओर नहीं बढ़ सकता, सर्वोच्च आध्यात्मिक स्थिति नहीं प्राप्त नहीं कर सकता। पशु-जगत में सहज-प्रवृत्ति और कामना का विधान प्रमुख नियम प्रतीत होता है, परंतु मनुष्य का मनुष्यतत्त्व सत्य, धर्म, ज्ञान और यथातथ जीवन धारा का अनुसरण करने से ही विकसित होता है। इसलिये पहले उसे उस शास्त्र के अनुसार, लोकसम्मत सत्य-विधान के अनुसार आचरण करना होगा, जिसे उसने अपने निम्नतर अंगों को अपनी बुद्धि तथा ज्ञानपूर्ण संकल्प के द्वारा नियंत्रित करने के लिये निर्मित किया है, उसी को उसे आचार-व्यवहार, कार्य-कलाप तथा कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने के लिये प्राणरूप मानना होगा। और यह उसे तब तक करना होगा जब तक अंधप्रेरित कामनात्मक प्रकृति आत्म-संयम के अभ्यास के द्वारा शिक्षित नहीं हो जाती, क्षीण होकर दब नहीं जाती और जब तक मनुष्य पहले तो मुक्ततर ज्ञानपूर्ण मार्ग-दर्शन के लिये और फिर आध्यात्मिक प्रकृति के परमोच्च विधान एवं परम स्वातंत्र्य के लिये तैयार नहीं हो जाता।


कारण, शास्त्र अपने साधारण रूप में ऐसा अध्यात्म जीवन का विज्ञान एवं शिल्प अथार्थ अध्यात्म-शास्त्र कहती है। अपने सर्वोच्च शिखर पर शास्त्र सात्त्विक प्रकृति के अतिक्रमण की विधि का निरूपण कर देता है और आध्यात्मिक रूपांतर की साधना का विकास करता है। तो भी समस्त शास्त्र कुछ एक प्रारंभिक धर्मों के आधार पर निर्मित होते हैं; वे साधन होते हैं, लक्ष्य नहीं। परम लक्ष्य तो है आत्मा का स्वातंत्र्य जिसमें जीव सब धर्मों का परित्याग कर कर्म के अपने एकमात्र विधान के लिये परमेश्वर की ओर मुड़ता है, सीधे भागवत संकल्प के द्वारा कर्म करता है और दिव्य प्रकृति के स्वातंत्र्य में निवास करता है, धर्म में नहीं, बल्कि आत्मा में निवास करता है। अर्जुन का अगला प्रश्न गीता की शिक्षा के इसी प्रकार के विकास का सूत्रपात करता है।




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