यज्ञ के हेतु



वास्तव में संपूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से संबंध विच्छेद करने के लिये ही हैं- ऐसा जानने वाले ही ‘यज्ञवित्’ अर्थात यज्ञ के तत्त्व को जानने वाले हैं। कर्मों से सर्वथा संबंध विच्छेद होने पर परमात्मा का अनुभव हो जाता है। जो लोग अविनाशी परमात्मा का अनुभव करने के लिये यज्ञ नहीं करते, प्रत्युत इस लोक और परलोक के विनाशी भोगों की प्राप्ति के लिये ही यज्ञ करते हैं, वे यज्ञ के तत्त्व को जानने वाले नहीं है। कारण कि विनाशी पदार्थों की कामना का बंधन का कारम है- ‘गतागतं कामकामा लभन्ते’। अतः मन में कामना, वासना रखकर परिश्रमपूर्वक बड़े-बड़े यज्ञ करने पर भी जन्मरण का बंधन बना रहता है-


मिटी न मन की वासना, नौ तत भये न नास।

तुलसी केते पच मुये, दे दे तन को त्रास।।


यज्ञ करते समय अग्नि में आहुति दी जाती है। आहुति दी जाने वाली वस्तुओं के रूप पहले अलग-अलग होते हैं; परंतु अग्नि में आहुति देने के बाद उनके रूप अलग-अलग नहीं रहते, अपितु सभी वस्तुएँ अग्निरूप हो जाती है। इसी प्रकार परमात्मप्राप्ति के लिये जिन साधनों का यज्ञ रूप से वर्णन किया गया है, उनमें आहुति देने का तात्पर्य यही है कि आहुति दी जाने वाली वस्तुओं की अलग सत्ता रहे ही नहीं, सब स्वाहा हो जायँ। जब तक उनकी अलग सत्ता बनी हुई है, तब तक वास्तव में उनकी आहुति दी ही नहीं गयी अर्थात यज्ञ का अनुष्ठान हुआ ही नहीं।


इसी अध्याय के सोलहवें श्लोक से भगवान कर्मों के तत्त्व का वर्णन कर रहे हैं। कर्मों का तत्त्व है- कर्म करते हुए भी उनसे नहीं बँधना। कर्मों से न बँधने का ही एक साधन है- यज्ञ। जैसे अग्नि में डालने पर सब वस्तुएँ स्वाहा हो जाती हैं, ऐसे ही केवल लोकहित के लिये किये जाने वाले सब कर्म स्वाहा हो जाते हैं- ‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’।


निष्काम भाव पूर्वक केवल लोकहितार्थ किये गये साधारण-से-साधारण कर्म भी परमात्मा की प्राप्ति कराने वाले हो जाते हैं। परंतु सकाम भावपूर्वक किये गये बड़े से बड़े कर्मों से भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। कारण कि उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों की कामना ही बाँधने वाली है। पदार्थ और क्रियारूप संसार से अपना संबंध मानने के कारण मनुष्यमात्र में पदार्थ पाने और कर्म करने का राग रहता है कि मुझे कुछ-न-कुछ मिलता रहे और मैं कुछ -न-कुछ करता रहूँ। इसी को ‘पाने की कामना’ तथा ‘करने का वेग’ कहते हें।


मनुष्य में जो पाने की कामना रहती है, वह वास्तव में अपने अंशी परमात्मा को ही पाने की भूख है; परंतु परमात्मा से विमुख और संसार के सम्मुख होने के कारण मनुष्य इस भूख को सांसारिक पदार्थों से ही मिटाना चाहता है। सांसारिक पदार्थ विनाशी हैं और जीव अविनाशी है। अविनाशी की भूख विनाशी पदार्थों से मिट ही कैसे सकती है? परंतु जब तक संसार की सम्मुखता रहती है, तब तक पाने की कामना बनी रहती है। जब तक मनुष्य में पाने की कामना रहती है, तब तक उसमें करने का वेग बना रहता है। इस प्रकार जब तक पाने की कामना और करने का वेग बना हुआ है अर्थात पदार्थ और क्रिया से संबंध बना हुआ है, तब तक जन्म मरण नहीं छूटता। इससे छूटने का उपाय है- कुछ भी पाने की कामना न रखकर केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना। इसी को लोकसंग्रह, यज्ञार्थ कर्म, लोकहितार्थ कर्म आदि नामों से कहा गया है।


केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करने से संसार से संबंध छूट जाता है और असंगता आ जाती है। अगर केवल भगवान के लिये कर्म किये जायँ तो संसार से संबंध छूटकर असंगता तो आ जाती है, इसके साथ एक और विलक्षण बात यह होती है कि भगवान का ‘प्रेम’ प्राप्त हो जाता है।


यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । 

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।। 4.31 ।।


यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले मनुष्य के लिये यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?


‘यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्’- यज्ञ करने से अर्थात निष्काम भावपूर्वक दूसरों को सुख पहुँचाने से समता का अनुभव हो जाना ही ‘यज्ञशिष्ट अमृत’ का अनुभव करना है। अमृत अर्थात अमरता का अनुभव करने वाले सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।


स्वरूप से मनुष्य अमर है। मरने वाली वस्तुओं के संग से ही मनुष्य को मृत्यु का अनुभव होता है। इन वस्तुओं को संसार के हित में लगाने से जब मनुष्य असंग हो जाता है, तब उसे स्वतः सिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है।


कर्तव्य मात्र केवल कर्तव्य समझकर किया जाय, तो वह यज्ञ हो जाता है। केवल दूसरों के हित के लिये किया जाने वाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है, वह कर्तव्य नहीं होता, प्रत्युत कर्ममात्र होता है, जिससे मनुष्य बँधता है। इससे यज्ञ में देना-ही-देना होता है, लेना केवल निर्वाह मात्र के लिये होता है। शरीर यज्ञ करने के लिये समर्थ रहे- इस दृष्टि से शरीर निर्वाहमात्र के लिये वस्तुओं का उपयोग करना भी यज्ञ के अंतर्गत है। मनुष्य शरीर यज्ञ के लिये ही है। उसे मान बड़ाई, सुख आराम आदि में लगाना बंधन कारक है। केवल यज्ञ के लिये कर्म करने से मनुष्य बंधनरहित हो जाता है और उसे सनातन ब्रह्म की पाप्ति हो जाती है।


‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम’- जैसे तीसरे अध्याय के आठवें श्लोक में भगवान ने कहा कि कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा, ऐसे ही यहाँ कहते हैं कि यज्ञ न करने से तेरा यह लोक भी लाभदायक नहीं रहेगा, फिर परलोक का तो कहना ही क्या है! केवल स्वार्थभाव से कर्म करने से इस लोक में संघर्ष उत्पन्न हो जायगा और सुख शांति भंग हो जायगी तथा परलोक में कल्याण भी नहीं होगा।


अपने कर्तव्य का पालन न करने से घर में भी भेद और संघर्ष पैदा हो जाता है, खटपट मच जाती है। घर में कोई स्वार्थी, पेटू व्यक्ति हो, तो घर वालों को उसका रहना सुहाता नहीं। स्वार्थ त्याग पूर्वक अपने कर्तव्य से सब को सुख पहुँचाना घर में अथवा संसार में रहने की विद्या है। अपने कर्तव्य का पालन करने से दूसरों को भी कर्तव्य पालन की प्रेरणा मिलती है। इससे घर में एकता और शांति स्वाभाविक आ जाती है। परंतु अपने कर्तव्य का पालन न करने से इस लोक में सुख पूर्वक जीना भी कठिन हो जाता है और अन्य लोकों की तो बात ही क्या है? इसके विपरीत अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करने से यह लोक भी सुखदायक हो जाता है और परलोक भी।


एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्त्वा विमोक्ष्यसे ।। 4.32 ।।


बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गये हैं। उन सब यज्ञों को तू कर्मजन्य जान। इस प्रकार जानकर यज्ञ करने से साधक और सतपुरुष  मुक्त हो जायगा।

 ‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’- चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक जिन बारह यज्ञों का वर्णन किया गया है, उनके सिवाय और भी अनेक प्रकार के यज्ञों का वेद की वाणी में विस्तार से वर्णन किया गया है। कारण कि साधकों की प्रकृति के अनुसार उनकी निष्ठाएँ भी अलग-अलग होती हैं और तदनुसार उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं।


वेदों में सकाम अनुष्ठानों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। परंतु उन सबसे नाशवान फल की ही प्राप्ति होती है, अविनाशी की नहीं। इसलिये वेदों में वर्णित सकाम अनुष्ठान करने वाले मनुष्य स्वर्ग लोक को जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्यु लोक में आ जाते हैं। इस प्रकार वे जन्म मरण के बंधन में पड़े रहते हैं। परंतु यहाँ उन सकाम अनुष्ठानों की बात नहीं कही गयी है। यहाँ निष्काम कर्मरूप उन यज्ञों की बात कही गयी है, जिनके अनुष्ठान से परमात्मा की प्राप्ति होती है- ‘यान्ति ब्रह्म सनातनम्’।


वेदों में केवल स्वर्ग प्राप्ति के साधन रूप सकाम अनुष्ठानों का ही वर्णन हो, ऐसी बात नहीं है। उनमें परमात्मप्राप्ति के साधन रूप श्रावण, मनन, निदिध्यासन, प्राणायाम, समाधि आदि अनुष्ठानों का भी वर्णन हुआ है। उपर्युक्त पदों में उन्हीं का लक्ष्य है।


तीसरे अध्याय के चौदहवें पंद्रहवें श्लोकों में कहा गया है कि यज्ञ वेद से उत्पन्न हुए हैं और सर्वव्यापी परमात्मा उन यज्ञों में नित्य प्रतिष्ठित हैं। यज्ञों में परमात्मा नित्य प्रतिष्ठित रहने से उन यज्ञों का अनुष्ठान केवल परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये ही करना चाहिये।


‘कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान्’- चौबीसवें से तीसवें श्लोक तक जिन बारह यज्ञों का वर्णन हुआ है तथा उसी प्रकार वेदों में जिन यज्ञों का वर्णन हुआ है, उन सब यज्ञों के लिए यहाँ ‘तान् सर्वान्’ पद आये हैं।


‘कर्मजान् विद्धि’ पदों का तात्पर्य है कि वे सब के सब यज्ञ कर्मजन्य हैं अर्थात कर्मों से होने वाले हैं। शरीर से जो क्रियाएँ होती हैं, बाण से जो कथन होता है और मन से जो संकल्प होते हैं, वे सभी कर्म कहलाते हैं- ‘शरीरवांग्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः’।


अर्जुन अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर युद्धरूप कर्तव्यकर्म को पाप मानकर उसका त्याग करना चाहते हैं। इसलिये ‘कर्मजान विद्धि’ पदों से भगवान अर्जुन के प्रति ऐसा भाव प्रकट कर रहे हैं कि युद्धि रूप कर्तव्य कर्म का त्याग करके अपने कल्याण के लिये तू जो साधन करेगा, वह भी तो कर्म ही होगा। वास्तव में कल्याण कर्म से नहीं होता, प्रत्युत कर्मों से सर्वथा संबंध विच्छेद होने से होता है। इसलिये यदि तू युद्धरूप कर्तव्य कर्म को भी निर्लिप्त रहकर करेगा, तो उससे भी तेरा कल्याण हो जायगा; क्योंकि मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते, प्रत्युत आसक्ति ही बाँधती है। युद्ध तो तेरा सहज कर्म है, इसलिये उसे करना तेरे लिये भी सुगम भी है।


‘एवं ज्ञात्त्वा विमोक्ष्यसे’- भगवानने इसी अध्याय के चौदहवें श्लोक में बताया कि कर्मफल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुजे कर्म नहीं बाँधते- इस प्रकार जो मुझे जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता। तात्पर्य यह है कि जिसने कर्म करते हुए भी उनसे निर्लिप्त रहने की विद्या को सीखकर उसका अनुभव कर लिया है, वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है। फिर पंद्रहवें श्लोक में भगवान ने इसी बात को ‘एवं ज्ञात्वा’ पदों से कहा। वहाँ भी यही भाव है कि मुमुक्षु पुरुष भी इसी प्रकार जानकर कर्म करते आये हैं।


सोलहवें श्लोक में कर्मों से निर्लिप्त रहने के इसी तत्त्व को विस्तार से कहने के लिये भगवान ने प्रतिज्ञा की और ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ पदों से उसे जानने का फल मुक्त होना बताया। अब इस श्लोक में ‘एवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे’ पदों से ही उस विषय का उपसंहार करते हैं। तात्पर्य यह है कि फल की इच्छा का त्याग करके केवल लोकहितार्थ कर्म करने से मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।


संसार में असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं; पंरतु जिन क्रियाओं से मनुष्य अपना संबंध जोड़ता है, उन्हीं से वह बँधता है। संसार में कहीं भी कोई क्रिया हो, जब मनुष्य उससे अपना संबंध जोड़ लेता है- उसमें राजी या नाराज होता है, तब वह उस क्रिया से बँध जाता है। जब शरीर या संसार में होने वाली किसी भी क्रिया से मनुष्य का संबंध नहीं रहता, तब वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।


श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप ।

सर्वं करमाखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। 4.33 ।।


द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। संपूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।

‘श्रेयान्द्रव्यमयाद्याज्ज्ञानयज्ञः परंतप’- जिन यज्ञों में द्रव्यों तथा कर्मों की आवश्यकता होती है, वे सब यज्ञ ‘द्रव्यमय’ होते हैं। ‘द्रव्य’ शब्द के साथ ‘मय’ प्रत्यय प्रचुरता के अर्थ में है। जैसे मिट्टी की प्रधानता वाला पात्र ‘मृन्मय’ कहलाता है, ऐसे ही द्रव्य की प्रधानता वाला यज्ञ ‘द्रव्यमय’ कहलाता है। ऐसे द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानयज्ञ में द्रव्य और कर्म की आवश्यकता नहीं होती।


सभी यज्ञों को भगवान ने कर्मजन्य कहा है। यहाँ भगवान कहते हैं कि संपूर्ण कर्म ज्ञानयज्ञ में परिसमाप्त हो जाते हैं अर्थात ज्ञानयज्ञ कर्मजन्य नहीं है, प्रत्युत विवेक विचारजन्य है। अतः यहाँ जिस ज्ञानयज्ञ की बात आयी है, वह पूर्व वर्णित बारह यज्ञों के अतंर्गत आये ज्ञानयज्ञ का वाचक नहीं है, प्रत्युत आगे के श्लोक में वर्णित ज्ञान प्राप्त करने की प्रचलित प्रक्रिया का वाचक है। पूर्ववर्णित बारह यज्ञों का वाचक यहाँ ‘द्रव्यमय यज्ञ’ है। द्रव्यमय यज्ञ समाप्त करके ही ज्ञानयज्ञ किया जाता है।


अगर सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो ज्ञानयज्ञ भी क्रियाजन्य ही है, परंतु इसमें विवेक विचार की प्रधानता रहती है।


‘सर्वं कर्मखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते’- ‘सर्वम्’ और ‘अखिलम्’- दोनों शब्द पर्यायवाची हैं और उनका अर्थ ‘संपूर्ण’ होता है। इसलिये यहाँ ‘सर्वम् कर्म’ का अर्थ संपूर्ण कर्म और ‘अखिलम्’ का अर्थ संपूर्ण द्रव्य लेना ही ठीक मालूम देता है।


जब तक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तब तक उसका संबंध क्रियाओं और पदार्थों से बना रहता है। जब तक क्रियाओं और पदार्थों से संबंध रहता है, तभी तक अंतःकरण में अशुद्धि रहती है, इसलिये अपने लिये कर्म न करने से ही अंतःकरण शुद्ध होता है।


अंतःकरण में तीन दोष रहते हैं- मल, विक्षेप और आवरण। अपने लिये कोई भी कर्म न करने से अर्थात संसार मात्र की सेवा के लिये ही कर्म करने से जब साधक के अंतःकरण में स्थित मल और विक्षेप- दोनों दोष मिट जाते हैं, तब वह ज्ञान प्राप्ति के द्वारा आवरण दोष को मिटाने के लिये कर्मों का स्वरूप से त्याग करके गुरु के पास जाता है। उस समय वह कर्मों और पदार्थों से ऊँचा उठ जाता है अर्थात कर्म और पदार्थ उसके लक्ष्य नहीं रहते, प्रत्युत एक चिन्मय तत्त्व ही उसका लक्ष्य रहता है। यही संपूर्ण कर्मों और पदार्थों का तत्त्वज्ञान में समाप्त होना है।



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