भवतारण

 


अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।

 सर्वं ज्ञानपल्वेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ।। 4.36 ।। 

अगर कोई सब पापियों से भी अधिक पापी है, तो भी ज्ञानरूपी नौका के द्वारा निःसंदेह संपूर्ण पाप समुद्र से अच्छी तरह तर जायगा ऐसा भरोसा रखना होगा। ‘अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पाप कृत्तमः’- पाप करने वालों की तीन श्रेणियाँ होती हैं- 1. ‘पापकृत’ अर्थात पाप करने वाला, 2. ‘पापकृत्तर’ अर्थात दो पापियों में एक से अधिक पाप करने वाला और 3 ‘पापकृत्तम’ अर्थात संपूर्ण पापियों में सबसे अधिक पाप करने वाला। यहाँ ‘पापकृत्तमः’ पद का प्रयोग करके भगवान कहते हैं कि अगर तू संपूर्ण पापियों में भी अत्यंत पाप करने वाला है, तो भी तत्त्वज्ञान से तू संपूर्ण पापों से तर सकता है। भगवान का यह कथन बहुत आश्वासन देने वाला है। तात्पर्य यह है कि जो पापों का त्याग करके साधन में लगा हुआ है, उसका तो कहना ही क्या है! पर जिसने पहले बहुत पाप किये हों, उसको भी जिज्ञासा जाग्रत होने के बाद अपने उद्धार के विषय में कभी निराश नहीं होना चाहिये। कारण कि पापी-से-पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्म में अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते, जितने वर्तमान के पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमान में पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञान को प्राप्त करूँगा, तो उसके पापों का नाश होते देरी नहीं लगती। यदि कहीं सौ वर्षों से घना अंधेरा छाया हो और वहाँ दीपक जला दिया जाय, तो उस अंधेरे को दूर करके प्रकाश करने में दीपक को सौ वर्ष नहीं लगते, प्रत्युत दीपक जलाते ही तत्काल अंधेरा मिट जाता है। इसी तरह तत्त्वज्ञान होते ही पहले किये गये संपूर्ण पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। ‘चेत्’ (यदि) पद देने का तात्पर्य यह है कि प्रायः ऐसे पापी मनुष्य परमात्मा में नहीं लगते; परंतु वे परमात्मा में लग नहीं सकते- ऐसी बात नहीं है। किसी महापुरुष के संग से अथवा किसी घटना, परिस्थिति, वातावरण आदि के प्रभाव से यदि उनका ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि अब परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना ही है, तो वे भी संपूर्ण पाप समुद्र से भलीभाँति तर जाते हैं। नवें अध्याय के तीसवें-इकतीसवें श्लोक में भी भगवान ने ऐसी ही बात अनन्यभाव से अपना भजन करने वाले के लिये कही है कि महान दुराचारी मनुष्य भी अगर यह निश्चय कर ले कि अब मैं भगवान का भजन ही करूँगा, तो उसका भी बहुत जल्दी कल्याण हो जाता है। ‘सर्वं ज्ञानपल्वेनैव वृजिनं संतरिष्यसि’- प्रकृति के कार्य शरीर और संसार के संबंध से ही संपूर्ण पाप होते हैं। तत्त्वज्ञान होने पर जब इनसे सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाता है, तब पाप कैसे रह सकते हैं- ‘'मूलाभावे कुतः शाखा’? परमात्मा के स्वतः सिद्ध ज्ञान के साथ एक होना ही ‘ज्ञानपल्व’ अर्थात ज्ञानरूप नौका का प्राप्त होना है। मनुष्य कितना ही पापी क्यों न रहा हो, ज्ञानरूप नौका से वह संपूर्ण पाप समुद्र से अच्छी तरह तर जाता है। यह ज्ञानरूप नौका कभी टूटती-फूटती नहीं, इसमें कभी छिद्र नहीं होता और यह कभी डूबती भी नहीं। यह मनुष्य को पाप समुद्र से पार करा देती है। ‘ज्ञानयज्ञ’ से ही यह ज्ञानरूप नौका प्राप्त होती है। यह ज्ञानयज्ञ आरंभ से ही ‘विवेक’ को लेकर चलता है और ‘तत्त्वज्ञान’ में इसकी पूर्णता हो जाती है। पूर्णता होने पर लेशमात्र भी पाप नहीं रहता। 


यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।। 4.37 ।।


जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को सर्वथा भस्म कर देती है।


‘यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात कुरुतेऽर्जुन’- पीछे के श्लोक में भगवान ने ज्ञानरूपी नौका के द्वारा संपूर्ण पाप समुद्र को तरने की बात कही। उससे यह प्रश्न पैदा होता है कि पाप समुद्र तो शेष रहता है, फिर उसका क्या होगा? अतः भगवान पुनः दूसरा दृष्टांत देते हुए कहते हैं कि जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठादि संपूर्ण ईंधनों को इस प्रकार भस्म कर देती है कि उनका किञ्चिन्मात्र भी अंश शेष नहीं रहता, ऐसे ही ज्ञानरूप अग्नि संपूर्ण पापों को इस प्रकार भस्म कर देती है कि उनका किञ्चिन्मात्र भी अंश शेष नहीं रहता।


‘ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा’- जैसे अग्नि काष्ठ को भस्म कर देती हैं, ऐसे ही तत्त्व ज्ञान रूपी अग्नि संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण- तीनों कर्मों को भस्म कर देती है। जैसे अग्नि में काष्ठ का अत्यंत अभाव हो जाता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञान में संपूर्ण कर्मों का अत्यंत अभाव हो जाता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञान होने पर कर्मों से अथवा संसार से सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाता है। संबंध विच्छेद होने पर संसार की स्वतंत्र सत्ता का अनुभव नहीं होता, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही शेष रहता है।


वास्तव में मात्र क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती हैं। उन क्रियाओं से अपना संबंध मान लेने से कर्म होते हैं। नाड़ियों में रक्त प्रवाह होना, शरीर का बालक से जवान होना, श्वासों का आना-जाना, भोजन का पचना आदि क्रियाएँ जिस समष्टि प्रकृति से होती हैं, उसी प्रकृति से खाना-पीना, चलना, बैठना, देखना, बोलना आदि क्रियाएँ भी होती हैं। परंतु मनुष्य अज्ञानवश उन क्रियाओं से अपना संबंध मान लेता है अर्थात अपने को उन क्रियाओं का कर्ता मान लेता है। इससे वे क्रियाएँ ‘कर्म’ बनकर मनुष्य को बाँध देती हैं। इस प्रकार माने हुए संबंध से ही कर्म होते हैं, अन्यथा क्रियाएँ ही होती हैं।


तत्त्वज्ञान होने पर अनेक जन्मों के संचित कर्म सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। कारण कि सभी संचित कर्म अज्ञान के आश्रित रहते हैं; अतः ज्ञान होते ही वे नष्ट हो जाते हैं। तत्त्वज्ञान होने पर कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता; अतः सभी क्रियमाण कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फलजनक नहीं होते। प्रारब्ध कर्म का घटना-अंश तो जब तक शरीर रहता है, तब तक रहता है; परंतु ज्ञानी पर उसका कोई असर नहीं पड़ता। कारण कि तत्त्वज्ञान होने पर भोक्तृत्व नहीं रहता; अतः अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति सामने आने पर वह सुखी-दुःखी नहीं होता। इस प्रकार तत्त्वज्ञान होने पर संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण- तीनों कर्मों से किञ्चिंमात्र भी संबंध नहीं रहता। कर्मों से अपना संबंध न रहने से कर्म नहीं रहते, भस्म रह जाती है अर्थात सभी कर्म अकर्म हो जाते हैं।


न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । 

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।। 4.38 ।।


इस मनुष्य लोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला दूसरा कोई साधन नहीं है। जिसका योग भली-भाँति सिद्ध हो गया है, वह उस तत्त्वज्ञान को अवश्य ही स्वयं अपने आप में पा लेता है।

‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’- यहाँ ‘इह’ पद मनुष्य लोक का वाचक है; क्योंकि सब-की-सब पवित्रता इस मनुष्य लोक में ही प्राप्त की जाती है। पवित्रता प्राप्त करने का अधिकार और अवसर मनुष्य शरीर में ही है। ऐसा अधिकार किसी अन्य शरीर में नहीं है। अलग-अलग लोकों के अधिकार भी मनुष्य लोक से ही मिलते हैं।


संसार की स्वतंत्र सत्ता को मानने से तथा उससे सुख लेने की इच्छा से ही संपूर्ण दोष, पाप उत्पन्न होते हैं। तत्त्वज्ञान होने पर जब संसार की स्वतंत्र सत्ता ही नहीं रहती, तब संपूर्ण पापों का सर्वथा नाश हो जाता है और महान पवित्रता आ जाती है। इसलिये संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला दूसरा कोई साधन है ही नहीं।


संसार में यज्ञ, दान, तप, पूजा, व्रत, उपवास, जप, ध्यान, प्राणायाम आदि जितने साधन हैं तथा गंगा, यमुना, गोदावरी आदि जितने तीर्थ हैं, वे सभी मनुष्य के पापों का नाश करके उसे पवित्र करने वाला है। परंतु उन सब में भी तत्त्वज्ञान के समान पवित्र करने वाला कोई भी साधन, तीर्थ आदि नहीं है; क्योंकि वे सब तत्त्वज्ञान के साधन हैं और तत्त्वज्ञान उन सब का साध्य है।


परमात्मा पवित्रों के भी पवित्र हैं- ‘पवित्राणां पवित्रम्’। उन्हीं परम पवित्र परमात्मा का अनुभव कराने वाला होने से तत्त्वज्ञान भी अत्यंत पवित्र है।


‘योगसंसिद्ध’- जिसका कर्मयोग सिद्ध हो गया अर्थात कर्मयोग का अनुष्ठान सांगोपांग पूर्ण हो गया है, उस महापुरुष को यहाँ ‘योगसंसिद्ध’ कहा गया है, छठे अध्याय के चौथे श्लोक में उसी को ‘योगारूढ़ः’ कहा गया है। योगारूढ़ होना कर्मयोग की अंतिम अवस्था है। योगारूढ़ होते ही तत्त्वबोध हो जाता है। तत्त्वबोध हो जाने पर संसार से सर्वथा संबंध विच्चेद हो जाता है।


कर्मयोग की मुख्य बात है- अपना कुछ भी न मानकर संपूर्ण कर्म संसार के हित के लिये करना, अपने लिये कुछ भी न करना। ऐसा करने पर सामग्री और क्रिया-शक्ति- दोनों का प्रवाह संसार की सेवा में हो जाता है। संसार की सेवा में प्रवाह होने पर ‘मैं सेवक हूँ’ ऐसा[4] भाव भी नहीं रहता अर्थात सेवक नहीं रहता, केवल सेवा रह जाती है। इस प्रकार जब सेवक सेवा बनकर सेव्य में लीन हो जाता है, तब प्रकृति के कार्य शरीर तथा संसार से सर्वथा वियोग हो जाता है। वियोग होने पर संसार की स्वतंत्र सत्ता नहीं रह जाती, केवल क्रिया रह जाती है। इसी को योग की संसिद्धि अर्थात सम्यक् सिद्धि कहते हैं। कर्म और फल की आसक्ति से ही ‘योग’ का अनुभव नहीं होता। वास्तव में कर्मों और पदार्थों से संबंध विच्छेद स्वतः सिद्ध है। कारण कि कर्म और पदार्थ तो अनित्य हैं, और अपना स्वरूप नित्य है। अनित्य कर्मों से नित्य स्वरूप को क्या मिल सकता है? इसलिये स्वरूप को कर्मों के द्वारा कुछ नहीं पाना है- यह ‘कर्मविज्ञान’ है। कर्मविज्ञान का अनुभव होने पर कर्मफल से भी संबंध-विच्छेद हो जाता है अर्थात कर्मजन्य सुख लेने की आसक्ति सर्वथा मिट जाती है, जिसके मिटते ही परमात्मा के साथ अपने स्वाभाविक नित्य संबंध का अनुभव हो जाता है, जो ‘योगविज्ञान’ है। योगविज्ञान का अनुभव होना ही योग की संसिद्धि है।


‘तत्स्वयं कालेनात्मनि विन्दति’- जिस तत्त्वज्ञान से संपूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं और जिसके समान पवित्र करने वाला संसार में दूसरा कोई साधन नहीं है, उसी तत्त्वज्ञान को कर्मयोगी योगसंसिद्ध होने पर दूसरे किसी साधन के बिना स्वयं अपने आप में ही तत्काल प्राप्त कर लेता है।


चौंतीसवें श्लोक में भगवान ने बताया था कि प्रचलित प्रणाली के अनुसार कर्मों का त्याग करके गुरु के पास जाने पर वे तत्त्वज्ञान का उपदेश देंगे- ‘उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानम्।’ किंतु गुरु तो उपदेश दे देंगे, पर उससे तत्त्वज्ञान हो ही जायगा- ऐसा निश्चित नहीं है। फिर भी भगवान यहाँ बताते हैं कि कर्मयोग की प्रणाली से कर्म करने वाले मनुष्य को योगसंसिद्धि मिल जाने पर तत्त्वज्ञान हो ही जाता है।


उपर्युक्त पदों में आया ‘कालेन’ पद विशेष ध्यान देने योग्य है। भगवान ने व्याकरण की दृष्टि से ‘कालेन’ पद तृतीया में प्रयुक्त करके यह बताया है कि कर्मयोग से अवश्य ही तत्त्वज्ञान अथवा परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है।


‘स्वयम्’ पद देने का तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिये कर्मयोगी को किसी गुरु की, ग्रंथ की या दूसरे किसी साधन की अपेक्षा नहीं है। कर्मयोग की विधि से कर्तव्य कर्म करते हुए ही उसे अपने आप तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जायगा।


‘आत्मनि विन्दति’- पदों का तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने के लिये कर्मयोगी को किसी दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं है। कर्मयोग सिद्ध होने पर उसे अपने आप में ही स्वतः सिद्ध तत्त्वज्ञान का अनुभव हो जाता है।


परमात्मा सब जगह परिपूर्ण होने से अपने में भी हैं। जहाँ साधक ‘मैं हूँ’- रूप से अपने आपको मानता है, वहीं परमात्मा विराजमान हैं, परंतु परमात्मा से विमुख होकर संसार से अपना संबंध मान लेने के कारण अपने आप में स्थित परमात्मा का अनुभव नहीं होता। कर्मयोग का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से जब संसार से सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाता है अर्थात संसार से तादात्म्य, ममता और कामना मिट जाती है, तब उसे अपने आप में ही तत्त्व का सुखपूर्वक अनुभव हो जाता है- ‘निर्द्वद्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’।


परमात्मतत्त्व का ज्ञान करण-निरपेक्ष है। इसलिये उसका अनुभव अपने आपसे ही हो सकता है, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कारणों से नहीं। साधक किसी भी उपाय से तत्त्व को जानने का प्रयत्न क्यों न करे, पर अंत में वह अपने आपसे ही तत्त्व को जानेगा। श्रवण मनन आदि साधन तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में असंभावना, विपरीत भावना आदि ज्ञान की बाधाओं को दूर करने वाले परंपरागत साधन माने जा सकते हैं, पर वास्तविक बोध अपने आपसे ही होता है; कारण कि मन, बुद्धि आदि सब जड़ हैं। जड़ के द्वारा उस चिन्मय तत्त्व को कैसे जाना जा सकता है, जो जड़ से सर्वथा अतीत है? वास्तव में तत्त्व का अनुभव जड़ के संबंध विच्छेद से होता है, जड़ के द्वारा नहीं। जैसे, आँखों से संसार को तो देखा जा सकता है, पर आँखों-से-आँखों को नहीं देखा जा सकता; परंतु यह कहा जा सकता है कि जिससे देखते हैं, वही आँख है। इसी प्रकार जो सब को जानने वाला है, उसे किसके द्वारा जाना जा सकता है- ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्’? परंतु जिससे संपूर्ण वस्तुओं का ज्ञान होता है, वही परमात्मतत्त्व है।


गीता के इस अध्याय के तैंतीसवें से सैंतीसवें श्लोक तक भगवान ने ज्ञान की जो प्रशंसा की है, उससे ज्ञानयोग की ही महिमा मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता। गहरा विचार करें तो इसमें अर्जुन के प्रति भगवान का एक गूढ़ अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो तत्त्वज्ञान इतना महान और पवित्र है, तथा जिस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये मैं तुझे तत्त्वदर्शी महापुरु के पास जाने की आज्ञा दे रहा हूँ, उस ज्ञान को तू स्वयं कर्मयोग के द्वारा अवश्वमेव प्राप्त कर सकता है- ‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’। इस प्रकार ज्ञानयोग की प्रशंसा के ये श्लोक वास्तव में प्रकारान्तर से कर्मयोग की ही विशेषता, महिमा बताने के लिये हैं। भगवान का अभिप्राय यह नहीं था कि अर्जुन ज्ञानियों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करे। भगवान का अभिप्राय यह था कि जो ज्ञान इतनी दुर्लभता से, ज्ञानियों के पास रहकर उनकी सेवा करके और विनय पूर्वक प्रश्नोत्तर करके तथा उसके अनुसार श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके प्राप्त करेगा, वही ज्ञान तुझे कर्मयोग की विधि से कर्तव्य का पालन करने से ही प्राप्त हो जायगा। जिस तत्त्वज्ञान के लिये मैंने तत्त्वदर्शी महापुरुषों के पास जाने की प्रेरणा की है, वह तत्त्वज्ञान प्राप्त हो ही जायगा, यह निश्चित नहीं है; क्योंकि जिस पुरुष के पास जाओगे, वह तत्त्वदर्शी ही है- इसका क्या पता? और उस महापुरुष के प्रति श्रद्धा की कमी भी रह सकती है। दूसरी बात, इस प्रक्रिया में पहले संपूर्ण प्राणियों को अपने में देखेगा और उसके बाद संपूर्ण प्राणियों को एक परमात्मतत्त्व में देखेगा। इस प्रकार ज्ञान प्राप्त करने की इस प्रक्रिया में संशय तथा विलम्ब की संभावना है। परंतु कर्मयोग के द्वारा अन्य पुरुष की अपेक्षा के बिना, अवश्यमेव और तत्काल उस तत्त्वज्ञान का अनुभव हो जाता है। इसलिये मैं तेरे लिये कर्मयोग को ही ठीक समझता हूँ; अतः तुझे प्रचलित प्रणाली के ज्ञान का उपदेश मैं नहीं दूँगा। भगवान तो महापुरुष के भी महापुरुष हैं। अतः वे अर्जुन को किसी दूसरे महापुरुष के पास जाकर ज्ञान सीखने के लिये कैसे कह सकते हैं? आगे इसी अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में भगवान ने कर्मयोग की प्रशंसा करके बयालीसवें श्लोक में अर्जुन को समता में स्थित होकर युद्ध करने की स्पष्ट रूप से आज्ञा दी है। 




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