कर्म की परिपूर्णता

 


एक ऐसी निर्व्यक्तिक स्वयंस्थित सत्ता की निस्पन्दता जिसमें न तो आत्म-निर्धारण का गुण या सामर्थ्य है और न सृजन की क्षमता या प्रेरणा। इस असंतोष-जनक द्वैत के द्वारा ख़ाली छोड़ दी गयी खाई भर जाती है और ज्ञान और कर्म तथा आत्मा और प्रकृति का उन्नायन एकत्व प्रकाशित हो जता है। प्रशांत निर्व्यक्तिक आत्मा एक सत्य है,-वह भगवान की स्थिरता एवं सनातन की नीरवता का सत्य है, परमेश्वर की समस्त जन्म, भूतभाव, कर्म और सृष्टि के बंधन से मुक्त अवस्था का, उनकी उस स्वयंभू सत्ता की स्थिर एवं अनंत मुक्तता का सत्य है जो उनकी सृष्टि के द्वारा बद्ध, विक्षुब्ध या प्रभावित नहीं होती और न उनकी प्रकृति की क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा स्पृष्ट ही होती है। तब स्वयं प्रकृति भी हमारे लिये कोई अव्याख्येय माया, कोई पृथक्कृत एवं विपरीत दृग्विषय नहीं रहती, बल्कि सनातन की एक गति प्रतीत होती है, उसकी समस्त क्रिया और चंचलता, उसका बहुत्व अक्षर पुरुष और आत्मा की अनासक्त तथा साक्षिभूत शांति पर प्रतिष्ठित और सुध्रत प्रतीत होता है प्रकृति के ईश्वर एक ही साथ विश्व के ‘एक’ और ‘बहु’ आत्मा हैं तथा अपनी आंशिक अभिव्यक्ति में वे ये सब बल, शक्तियां, चेतनाएं, देवता, जीवजन्तु, पदार्थ और मनुष्य बनते हैं और यह सब होते हुए भी वे वही अक्षर आत्मा बने रहते हैं। गुणात्मिका प्रकृति उनकी शक्ति की निम्नतर स्वतःसीमित क्रिया है; वह अपूर्ण-चेतन अभिव्यक्ति की प्रकृति है और अतएव वह एक प्रकार की अज्ञानमयी प्रकृति हैं उसकी जो स्थूल शक्ति यहाँ बाह्य कर्म में निमगन है उसे आत्मा का सत्य और भगवान का सत्य बहुत कुछ उसी प्रकार छिपे रहते हैं जिस प्रकार मनुष्य की गंभीरतर सत्ता उसकी बाह्य चेतना के ज्ञान से छिपी रहती है। जब तक प्रकृति के अंदर अवस्थित जीव-अंतर्मुख होकर इस गुप्त वस्तु को ढूंढ़ने तथा अपने अंदर पैठने का यत्न नहीं करता और अपने वास्तविक सत्यों, अपनी ऊंचाइयों तथा गहराइयों को नहीं खोज लेता तब तक आत्मा एवं भगवान का सत्य उससे छिपा ही रहता है। यही कारण है कि उसे आत्म-ज्ञान पाने में समर्थ बनने के लिये अपने क्षुद्र वैयक्तिक एवं अहमात्मक‘ स्व’ से पीछे हटकर अपने विशाल, निर्व्यक्तिक, अक्षर, विश्वव्यापी आत्मा की ओर लौटना होता है। परंतु परमेश्वर केवल उस आत्मा में ही नहीं बल्कि प्रकृति में भी विद्यमान हैं। वे प्रत्येक प्राणी के हृदेश में विराजमान हैं और अपनी उपस्थिति से इस महान प्रकृति-यंत्र के आवर्तनों का परिचालन कर रहे हैं। 


वे सबके अंदर उपस्थित हैं, सब उनके अंदर रहते हैं, सब कुछ स्वयं वे ही हैं क्योंकि सब कुछ उनकी सत्ता की संभूति है, उनकी सत्ता का अंश या रूप है। परंतु यहाँ सब कुछ एक निम्नतर आंशिक क्रिया के द्वारा ही चल रहा है जो एक गुप्त, उच्चतर, महत्तर एवं पूर्णतर भागवत प्रकृति से, परमेश्वर की शाश्वत अनंत प्रकृति या पूर्ण आत्म-शक्ति, देवात्मशक्ति, से उदभूत हुई हैं यदि हम सदा भागवत कर्म तथा अपनी सत्ता के इस वास्तविक सत्य में निवास करें तो मानव के अंदर छिपी हुई पूर्ण समग्र-चेतन आत्मा,-देवाधिदेव का सनातन अंश, सनातन भागवत पुरुष का अंशभूत आध्यात्मिक पुरुष -हमारे अंदर उद्घाटित हो सकती है और साथ ही हमें भगवान की ओर उद्घाटित भी कर सकती है। भगवान के जिज्ञासु को अपनी अक्षर और शाश्वत निर्व्यक्तिक सत्ता के सत्य में प्रवेश करना होगा और साथ ही उसे सर्वत्र उन भगवान को देखना होगा जिनसे वह उत्पन्न हुआ है, उन्हें सर्व के रूप में देखना होगा, इस सारी की सारी क्षर प्रकृति में तथा इसके हर एक भाग और हर एक परिणाम में तथा इसके सभी कार्यों में देखना होगा, और इन सबमें भी उसे अपने-आपको भगवान के साथ एक करना होगा, इनमें भी उसे भगवान के अंदर रहना होगा, इनमें भी उसे भागवत एकत्व के अंदर प्रवेश करना होगा।


इस तरह उस समग्रता में वह अपनी गंभीर तात्त्विक सत्ता की दिव्य स्थिरता एवं स्वतंत्रता को अपनी दिव्यीकृत प्राकृत सत्ता के अंदर रहने वाली यंत्रात्मक कर्म की परमोच्च शक्ति के साथ एकीभूत कर देगा। परंतु यह किया कैसे जाये? सर्वप्रथम, इसे अपने कर्म सम्बंधी संकल्प में यथार्थ भावना धारण करके संपन्न किया जा सकता है। जिज्ञासु के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने समस्त कर्म को उन सर्वकर्ममहेश्वर के प्रति यज्ञरूप समझे जो सनातन और विश्वव्यापी पुरुष हैं, उसकी अपनी उच्चतम आत्मा तथा अन्य सबकी भी आत्मा हैं और जगत के अंदर परम सर्वातर्यामी, सर्वाधार, सर्वनियंता परमेश्वर हैं। प्रकृति का संपूर्ण कर्म ऐसा ही यज्ञ है,-वास्तव में पहले उन दिव्य शक्तियों को अर्पित होता है, जो प्रकृति को गति देती तथा उसके अंदर गति करती हैं, परंतु वे शक्तियों को अर्पित एकमेव तथा असीम देव की केवल सीमित नामरूप ही हैं।




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