82. प्रयत्न-मार्ग से भक्ति भिन्न नहीं
1. आज एक अर्थ में हम गीता के छोर पर आ पहुँचे हैं। पंद्रहवें अध्याय में सब विचारों की परिपूर्णता हो गयी है। सोलहवां और सत्रहवां अध्याय परिशिष्ट रूप है, अठारहवां उपसंहार है। यही कारण है कि भगवान ने इस अध्याय के अंत में ‘शास्त्र’ संज्ञा दी है। इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ- ऐसा अंत में भगवान ने कहा है। यह इसलिए नहीं कि यह अंतिम अध्याय है, बल्कि इसलिए कि अब तक जीवन के जो शास्त्र, जो सिद्धांत बताये, उनकी परिपूर्णता इस अध्याय में की गयी है। इस अध्याय में परमार्थ पूरा हो गया। वेदों का संपूर्ण सार इसमें आ गया। परमार्थ की चेतना मनुष्य में उत्पन्न कर देना ही वेदों का कार्य हैं वह इस अध्याय में किया गया है, अतः इसे वेद का सार यह गौरवपूर्ण पदवी मिली है।
2. परन्तु भक्ति-मार्ग प्रयत्न-मार्ग से भिन्न नहीं है। यह सूचित करने के लिए इस पंद्रहवें अध्याय के आरंभ में ही संसार को एक महान वृक्ष की उपमा दी गयी है। इस वृक्ष में त्रिगुणों से पोषित प्रचंड शाखाएं फूटी हैं। आरंभ में ही यह कह दिया है कि अनासक्ति और वैराग्यरूपी शस्त्रों से इस वृक्ष को काटना चाहिए। स्पष्ट है कि पिछले अध्याय में जो साधनमार्ग बताया गया है, वही फिर यहाँ आरंभ में दुहराया गया है। रज-तम को मिटाना और सत्त्वगुण की पुष्टि द्वारा अपना विकास कर लेना है। एक विनाशक है, दूसरा विधायक। दोनों को मिलाकर मार्ग एक ही होता है। घास-फूस काटना और बीज बोना दोनों एक ही क्रिया के दो अंग हैं। वैसी ही यह बात है।
3. रामायण में रावण, कुंभकर्ण और विभीषण, ये तीन भाई हैं। कुंभकर्ण तमोगुण है, रावण रजोगुण है, विभीषण सत्त्वगुण है। हमारे शरीर में इन तीनों की 'रामायण' रची जा रही है। इस रामायण में रावण और कुंभकर्ण का तो नाश ही विहित है। रहा केवल विभीषण-तत्त्व। यदि वह हरिचरण-शरण हो जाये, तो उन्नति का साधक और पोषक हो सकेगा। इसलिए वह अपनाने जैसा है। हमने चौदहवें अध्याय में इस चीज को समझ लिया है। इस पंद्रहवें अध्याय के आरंभ में फिर वह बात आयी है। सत्त्व-रज-तम से भरे संसार को असंगरूपी शस्त्र से छेद डालो। रज-तम का निरोध करो। सत्त्वगुण का विकास करके पवित्र बनो और उसकी आसक्ति को जीतकर अलिप्त रहो। कमल का यह आदर्श भगवद्गीता प्रस्तुत कर रही है।
4.
भारतीय संस्कृति में जीवन की आदर्श वस्तुओं को, उत्तमोत्तम वस्तुओं को कमल की उपमा
दी गयी है। कमल भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। उत्तमोत्तम विचार प्रकट करने का चिह्न
कमल है। कमल स्वच्छ और पवित्र होकर भी अलिप्त रहता है। पवित्रता और अलिप्तता, ऐसी दुहरी
शक्ति कमल में है। भगवान के भिन्न-भिन्न अवयवों को कमल की उपमा देते हैं। नेत्र-कमल,
पद-कमल, कर-कमल, मुख-कमल, नाभि-कमल, हृदय कमल, शिर-कमल आदि उपमाओं के द्वारा यह भाव
हमारे मन में बैठा दिया है कि सर्वत्र सौंदर्य और पावित्र्य के साथ ही अलिप्तता है।
5.
पिछले अध्याय में बतायी साधन को पूर्णता पर पहुँचाने के लिए यह अध्याय है। प्रयत्न
में आत्म-ज्ञान और भक्ति मिल जाये, तो फिर पूर्णता आ जायेगी। भक्ति भी प्रयत्न-मार्ग
का ही एक भाग है। आत्म-ज्ञान और भक्ति उसी साधन के अंग हैं। वेद में ऋषि कहते हैं-
यो
जागार तं ऋचः कामयन्ते, यो जागार तमु सामानि यन्ति।
‘जो जागृत रहता है, उससे वेद प्रेम करते है,
उससे भेंट करने के लिए वे आते हैं।’ अर्थात् जो जागृत है, उसके पास वेदनारायण
आते हैं। उसके पास ज्ञान आता है, भक्ति आती है। प्रयत्न-मार्ग से ज्ञान और भक्ति पृथक
नहीं हैं। इस अध्याय में यही दिखाना है कि ये दोनों तत्त्व प्रयत्न में ही मधुरता लाने
वाले हैं। अतः एकाग्रचित्त से भक्ति-ज्ञान का यह स्वरूप श्रवण कीजिए।
83. भक्ति से प्रयत्न सुकर होता है
मैं जीवन के टुकड़े नहीं कर सकता। कर्म, ज्ञान और भक्ति को मैं पृथक-पृथक नहीं कर सकता, न ये पृथक हैं ही। उदाहरण के लिए इस जेल के रसोई के काम को ही देखिए। पांच-सात सौ मनुष्यों की रसोई बनाने का काम अपने में से कुछ लोग करते हैं। यदि इनमें कोई ऐसा मनुष्य हो, जो रसोई बनाने का ठीक-ठीक ज्ञान न रखता हो, तो वह रसोई बिगाड़ देगा। रोटियां कच्ची रह जायेंगी या जल जायेंगी। परंतु यहा हम यह मानकर चलें कि रसोई बनाने का उत्तम ज्ञान है; फिर भी यदि उस व्यक्ति के हृदय में उस कर्म के प्रति प्रेम न हो, भक्ति का भाव न हो, ‘ये रोटियां मेरे भाइयों को अर्थात नारायण को ही खानी है, इन्हें अच्छी तरह बेलना और सेंकना चाहिए, यह प्रभु की सेवा है’- ऐसा भाव उसके हृदय में न हो, तो पूर्वोक्त ज्ञान रहने पर भी वह इस काम के लिए उपयुक्त सिद्ध नहीं होगा।
इस रसोई-काम के लिए जैसे ज्ञान आवश्यक है, वैसे ही प्रेम भी चाहिए। भक्ति तत्त्व का रस हृदय में न हो, तो रसोई स्वादिष्ट नहीं बन सकती। इसलिए तो बिना मां के यह काम नहीं होता। मां के सिवा कौन इस काम को इतनी आस्था से, प्रेम-भाव से करेगा? फिर इसके लिए तपस्या भी चाहिए। ताप सहन किये बिना, कष्ट उठाये बिना यह काम कैसे होगा? तीनों चीजों की जरूरत है। जीवन के सारे कर्म इन तीन गुणों पर खड़े हैं। तिपाई का यदि एक पांव भी टूट जाये, तो वह खड़ी नही रह सकती। तीनों पांव चाहिए। उसके नाम में ही उसका रूप निहित है। यही हाल जीवन का है। ज्ञान, भक्ति और कर्म अर्थात श्रम-सातत्य, ये जीवन के तीन पांव है। इन तीन खंभों पर जीवनरूपी 'द्वारका' खड़ी करनी है। ये तीन पांव मिलाकर एक ही वस्तु बनती है। उस पर तिपाई का दृष्टांत अक्षरशः लागू होता है। तर्क के द्वारा भले ही आप भक्ति, ज्ञान और कर्म को पृथक मानिए, परंतु प्रत्यक्ष रूप से इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। तीनों मिलकर एक ही विशाल वस्तु बनती है।
भगवान ईसा मसीह एक जगह कहते हैं- ‘यदि तू उपवास करता है, तो चेहरे पर उपवास के चिह्न नहीं दीखने चाहिए; बल्कि गालों पर सुगंधित उबटन लगे हों, ऐसा चेहरा प्रफुल्लित और आनंदित दीखना चाहिए। उपवास से कष्ट हो रहा है, ऐसा नहीं दीखना चाहिए।’ सारांश यह कि वृत्ति इतनी भक्तिमय हो कि कष्ट भूल जायें। हम कहते हैं न कि ‘फलां बहादुर देश भक्त हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गया।’ सुधन्वा तेल की कढ़ाई में हंस रहा था। मुंह से कृष्ण, विष्णु, हरि, गोविंद की ध्वनि निकल रही थी। इसका अर्थ यही कि अपार कष्ट आ पड़ने पर भी भक्ति के प्रभाव से वे कुछ भी नहीं मालूम हुए। पानी पर पड़ी हुई नाव को धकेलना कठिन नहीं है; परंतु यदि उसी को धरती पर से, चट्टानों पर से खींचकर ले जाना हो, तो कितनी मेहनत पड़ेगी! नाव के नीचे यदि पानी होगा, तो हम सहज ही तर जायेंगे। इसी तरह हमारी जीवन-नौका के नीचे यदि भक्ति रूपी पानी होगा, तो वह आनंद से खेयी जा सकेगी। परंतु यदि जीवन शुष्क होगा, रास्ते में रेत पड़ी होगी, कंकड़, पत्थर होंगे, खाई-खड्डे होंगे, तो इस नौका को खींचकर ले जाना बड़ा कठिन काम हो जायेगा। भक्ति-तत्त्व हमारी जीवन-नौका को पानी की तरह सुलभता प्राप्त करा देता है।
परमार्थ-मार्ग में शर्त ही यह है कि ‘मैं निराशा को एक क्षण भी जगह न दूं। क्षण भर भी मैं निराश होकर न बैठूं। इसके सिवा परमार्थ का दूसरा साधन नहीं है। कभी-कभी साधक थक जाता है और कहने लगता है- तुम कारन तप संयम किरिया, कहो कहाँ लौ कीजै? ‘भगवन, मैं तुम्हारे लिए कहाँ तक तप करता रहूं?’ परंतु यह कहना गौण है। तप और संयम का हम इतना अभ्यास कर ले कि वे हमारा स्वभाव ही बन जायें। ‘कहां तक साधना करते रहें?’- यह भाषा भक्तिमार्ग में शोभा नहीं देती। भक्ति कभी भी अधीर भाव, निराशा भाव पैदा नहीं होने देती। जी ऊबने जैसी कोई बात उसमें नहीं होनी चाहिए। भक्ति में उत्तरोत्तर उल्लास और उत्साह मालूम होता रहे, इसके लिए बहुत सुंदर विचार इस अध्याय में बताया गया है।
84. सेवा की त्रिपुटि: सेव्य, सेवक, सेवा-साधन
8. इस विश्व में हमें अनंत वस्तुए दिखायी देती हैं। इनके तीन भाग करें। जब कोई भक्त सुबह उठता है, तो तीन ही चीजें उसकी आंखों के सामने आती हैं। पहले उसका ध्यान भगवान की तरफ जाता है। तब वह उनकी पूजा की तैयारी करता है। मैं सेवक भक्त, वह सेव्य भगवान स्वामी- ये दो चीजें उसके पास सदैव तैयार रहती हैं। अब रही बाकी सृष्टि, सो वह है उसकी पूजा का साधन। यह सारी सृष्टि फूल, गंध, धूप-दीप हैं। तीन ही चीजें हैं- सेवक भक्त, सेव्य परमात्मा और सेवा-साधन के रूप में यह सृष्टि। यही शिक्षा इस अध्याय में दी गयी है। परंतु जो सेवक किसी एक मूर्ति की पूजा करता है, उसे सृष्टि के सब पदार्थ पूजा के साधन नहीं मालूम होते। वह बगीचे से चार फूल तोड़कर लाता है, कहीं से अगरबत्ती ले आता है, कुछ नैवेद्य चढ़ाता हैं वह चुनकर-छांटकर ही चीजें लेना चाहता है; परंतु पंद्रहवें अध्याय में जो विशाल सीख दी गयी है, उसमें यह चुनाव करने की जरूरत नहीं है। जो कुछ भी तपस्या के साधन हैं, कर्म के साधन हैं, वे सब परमेश्वर की सेवा के साधन हैं। उनमें से कुछ को हम फूल कहेंगे, कुछ को गंध और कुछ को नैवेद्य। इस तरह जितने भी कर्म हैं उन सबको पूजा-द्रव्य बना देना है। ऐसी यह दृष्टि है। बस संसार में सिर्फ ये तीन ही चीजें हैं। गीता जिस वैराग्यमय साधन मार्ग को हमारे मन पर अंकित करना चाहती है, उसी को वह भक्तिमय स्वरूप दे रही है। उसमें से कर्मत्व हटा रही है और उसमें सुलभता ला रही है।
9. आश्रम में जब किसी को बहुत ज्यादा काम करना पड़ता है; तब उसके मन में यह विचार ही कभी नहीं आता- 'मैं ही क्यों ज्यादा काम करूं?' इस बात में बड़ा सार है। पूजा करने वाले को यदि दो की जगह चार घंटे पूजा करने को मिले, तो क्या वह उकताकर ऐसा कहेगा- ‘अरे राम, आज तो चार घंटा पूजा करनी पड़ी।’ बल्कि उससे उसे अधिक ही आनंद मालूम होगा। आश्रम में ऐसा अनुभव होता है। यही अनुभव हमें सारे जीवन में सर्वत्र आना चाहिए। जीवन सेवा-परायण हो जाना चाहिए। वह सेव्य पुरुषोत्तम, उसकी सेवा के लिए सदैव तत्पर मैं अक्षर पुरुष हूँ। ‘अक्षर पुरुष’ का अर्थ है, कभी भी न थकनेवाला, सृष्टि के आरंभ से ही सेवा करने वाला, सनातन सेवक। जैसे हनुमान राम के सामने सदैव हाथ जोड़कर खड़े ही हैं। उन्हें आलस्य मालूम नहीं। हनुमान की तरह ही चिरंजीव यह सेवक खड़ा है।
ऐसे आजन्म सेवक का ही नाम ‘अक्षर-पुरुष’ है। ‘परमात्मा’ यह संस्था जीवित है और मैं उसका ‘सेवक’ भी सदैव कायम हूँ। प्रभु कायम है, तौ मैं भी कायम हूँ। देखें, वह सेवा लेते हुए थकता है या मैं सेवा करते हुए? यदि उसने दस अवतार लिये हैं, तो मेरे भी दस अवतार हुए हैं। वह राम हुआ तो मैं हनुमान, वह कृष्ण हुआ तो मै उद्धव। जितने उसके अवतार, उतने मेरे भी लगने दो ऐसी मीठी होड़! परमेश्वर की इस तरह युग-युग सेवा करने वाला, कभी नाश न पानेवाला यह जीव अक्षर-पुरुष है। वह पुरुषोत्तम स्वामी और मैं उसका बंदा सेवक। यह भावना सतत हृदय में रखनी चाहिए। और यह प्रतिक्षण बदलनेवाली, अनंत रूपों से सजने वाली सृष्टि, इसे पूजा साधन, सेवा का साधन बनाना है। प्रत्येक क्रिया मानो पुरुषोत्तम की पूजा ही है।
10. सेव्य परमात्मा पुरुषोत्तम, सेवक
जीव अक्षर-पुरुष। परंतु यह साधन रूप सृष्टि क्षर है। इसके ‘क्षर’
होने में बड़ा अर्थ है। सृष्टि का यह दूषण नहीं, भूषण हैं इससे सृष्टि में नित्य-नवीनता
है। कल के फूल आज का काम नहीं दे सकते। वे निर्माल्य हो गये। सृष्टि नाशवान है, यह
बड़े भाग्य की बात है। यह सेवा का वैभव है। रोज नवीन फूल सेवा के लिए तैयार मिलते हैं।
उसी तरह मैं शरीर भी नया-नया धारण करके परमेश्वर की सेवा करूंगा। अपने साधनों को मैं
नित्य नवीन रूप दूंगा और उन्हीं से उसकी पूजा करूंगा। इस नश्वरता के कारण यह सौंदर्य
है।
11. चंद्र की कला जो आज है, वह कल नहीं। चंद्र का नित्य निराला लावण्य है। दूज के उस वर्धमान चंद्र को देखकर कितना आनंद होता है। शंकर के ललाट पर उस द्वितीया के चंद्र की शोभा प्रकट है। अष्टमी के चंद्रमा का सौंदर्य कुछ और ही होता है। उस दिन आकाश में गिने-चुने मोती ही दिखायी देते हैं। पूर्णिमा को चंद्रमा के तेज से तारे नहीं दीखते। पूर्णिमा को परमेश्वर का मुखचंद्र दीखता है। अमावास्या का आनंद तो बड़ा गंभीर होता है। उस रात्रि में कितनी निःस्तब्ध शांति छायी रहती है! चंद्रमा के सर्वग्रासी प्रकाश के हट जाने से छोटे-बड़े अगणित तारे पूरी आजादी से खुलकर जगमगाते रहते हैं। अमावास्या की रात में स्वतंत्रता पूर्ण रूप से विलास करती है। अपने तेज की शान दिखाने वाला चंद्रमा आज वहाँ नहीं है। अपने प्रकाश-दाता सूर्य से वह आज एकरूप हो गया है। वह परमेश्वर में मिल गया। उस दिन मानो वह दिखाता है कि जीव खुद आत्मार्पण करके किस तरह संसार को जरा भी दुःख न पहुँचाये। चंद्र का स्वरूप क्षर है, परिवर्तनशील है; परंतु वह भिन्न-भिन्न रूपों में आनंद देता है।
12. सृष्टि की जो नश्वरता है, वही उसकी अमरता है। सृष्टि का रूप छल-छल बह रहा है।यह रूप-गंगा यदि बहती न रहे, तो उसका एक डबरा बन जायेगा। नदी का पानी अखंड रूप से बहता रहता है। वह सतत बदलता रहता है। एक बूंद गयी, दूसरी आयी। वह पानी जीवित रहता है। वस्तु में जो आनंद मालूम होता है, वह उसकी नवीनता के कारण। ग्रीष्म ऋतु में परमात्मा को और तरह के फूल चढ़ाये जाते हैं। वर्षा ऋतु में हरी-हरी दूब चढ़ायी जाती है। शरद ऋतु में सुरम्य कमल के पुष्प चढ़ाते हैं। तत्तत् ऋतुकालोद्धव फल-पुष्पों से भगवान की पूजा की जाती है। इसी से वह पूजा ताजी और नित्य नूतन प्रतीत होती है। उससे जी नहीं ऊबता। छोटे बच्चे को जब ‘क’ लिखकर कहते हैं कि ‘उस पर हाथ फेरो‚ इसे मोटा बनाओ‘ तो यह क्रिया उसे उबा देने वाली मालूम होती है। वह समझ नहीं पाता कि इसे मोटा क्यों बनाया जाता है। वह पेंसिल आड़ी करके उसे जल्दी मोटा बना देता है। परंतु आगे चलकर वह नये-नये अक्षरों को, उनके समुदाय को देखता है। तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ने लगता है। साहित्य की नानाविध सुमन -मालाओं का अनुभव लेता है, तब उसे अपार आनंद मालूम होता है। यही बात सेवा के क्षेत्र की है। साधनों की नित्य, नवीनता से सेवा की उमंग बढ़ती है। सेवा वृत्ति का विकास होता है।
सृष्टि की यह नश्वरता नित्य नये पुष्प खिला रही है। गांव के निकट श्मशान है, इसी से गांव रमणीय मालूम होता है। पुराने लोग जा रहे हैं, नये बालक जन्म ले रहे हैं। सृष्टि नित्य नवीन बढ़ रही है। बाहर का यह श्मशान यदि मिटा दोगे, तो वह घर में आकर बैठ जायेगा। तुम ऊब उठोगे उन्हीं-उन्हीं व्यक्तियों को रोज-रोज देखकर। गर्मियों में गर्मी पड़ती है, पृथ्वी तपती है, परंतु इस से घबराओं नहीं। यह रूप बदल जायेगा। वर्षा का सुख लेने के लिए यह तपन आवश्यक है। यदि जमीन खूब तपी न होगी, तो पानी बरसते ही कीचड़ हो जायेगी। फिर तृणधान्य उसमें नहीं मिल पायेंगे।
मैं एक बार गर्मियों में घूम रहा था। सिर तप रहा था। बड़ा आनंद आ रहा था। एक मित्र ने मुझसे कहा- ‘सिर तप जायेगा, तो तकलीफ होगी।’ मैंने कहा- ‘नीचे जमीन भी तो तप रही है। इस मिट्टी के पुतले को जरा तपने दो।’ सिर तपा हुआ हो, उस पर पानी की धार पड़ने लगे, तो कितना आनंद होता है! परंतु जो गर्मियों में तपता नहीं, वह पानी बरसने पर भी अपनी पुस्तक में सिर घुसाकर बैठा रहेगा। अपने कमरे में, उस क़ब्र में ही घुसा रहेगा। बाहर के इस विशाल अभिषेक पात्र के नीचे खड़ा रहकर आनंद से नाचेगा नहीं; परंतु हमारे वे महर्षि मनु, बड़े रसिक और सृष्टि-प्रेमी थे। वे स्मृति में लिखते हैं- ‘जब पानी बरसने लगे, तो छुट्टी कर दो।’ जब वर्षा हो रही हो, तो क्या आश्रम मैं बैठे पाठ घोखते रहें? वर्षा में तो नाचना-गाना चाहिए। सृष्टि से एकरूप होना चाहिए। वर्षा में पृथ्वी और आकाश एक-दूसरे से मिलते हैं। यह भव्य दृश्य कितना आनंददायी होता है। यह सृष्टि स्वयं हमें शिक्षा दे रही है।
सारांश,
सृष्टि की क्षरता, नश्वरता का अर्थ है, साधनों की नवीनता। इस तरह यह नव-नव-प्रसवा साधनदात्री
सृष्टि, कमर कसकर सेवा के लिए खड़ा सनातन सेवक और वह सेव्य परमात्मा। अब चलने दो खेल।वह
परमपुरुष पुरुषोत्तम नये-नये विविध सेवा-साधन देकर मुझसे प्रेममूलक सेवा ले रहा है।
नाना प्रकार के साधन देकर वह मुझे खिला रहा है। मुझसे तरह-तरह के प्रयोग करा रहा है।
यदि हमारे जीवन में ऐसी दृष्टि आ जाये तो कितना आनंद मिलेगा!
85. अहं-शून्य सेवा का ही अर्थ भक्ति
13. गीता चाहती है कि हमारी प्रत्येक कृति भक्तिमय हो। हम जो घड़ी, आध-घड़ी ईश्वर की पूजा करते हैं, सो तो ठीक ही है। सुबह-शाम जब सुंदर सूर्य-प्रभा अपना रंग छिटकाती है, तब चित्त को स्थिर करके घंटा, आध-घंटा संसार को भूल जाना और अनंत का चिंतन करना उत्तम विचार है। इस सदाचार को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। परंतु गीता को इतने से संतोष नहीं है। सुबह से शाम तक होने वाली तमाम क्रियाएं भगवान की पूजा के लिए होनी चाहिए। नहाते, खाते, सफाई करते उसका स्मरण रहना चाहिए। झाड़ते समय यह भावना होनी चाहिए कि मैं अपने प्रभु, अपने जीवन-देव का आंगन साफ कर रहा हूँ। हमारे समस्त कर्म इस तरह पूजा-कर्म हो जाने चाहिए। यदि यह दृष्टि आ जाये, तो फिर देखिएगा, आपके व्यवहार में कितना अंतर पड़ जाता है! हम कितनी सावधानी से पूजा के लिए फूल चुनते हैं, उन्हें जतन से डलिया में संभालकर रखते हैं। वे दब न जायें, कुचल न जायें, कुम्हला न जायें इसका कितना ध्यान रखते हैं। कहीं मलिन न हो जायें, इस ख्याल से उन्हें नाक के पास भी नहीं ले जाते। यह दृष्टि, यही भावना हमारे जीवन के प्रतिदिन के कर्मो में आ जानी चाहिए। अपने इस गांव में मेरे पड़ोसी के रूप में मेरा नारायण, मेरा प्रभु ही तो निवास करता है। इस गांव को मैं साफ-सुथरा, निर्मल रखूंगा। गीता हमें यह दृष्टि देना चाहती है। हमारे सभी कर्म प्रभु-पूजा ही हो जायें, इस बात का गीता को बड़ा शौक है। गीता जैसे ग्रंथराज को घड़ी आध-घड़ी पूजा से समाधान नहीं। सारा जीवन हरिमय होना चाहिए, यह गीता की उत्कट इच्छा है।
14. गीता पुरुषोत्तम-योग बताकर कर्ममय जीवन
को पूर्णता पर पहुँचाती है। वह सेव्य पुरुषोत्तम, मैं उसका सेवक और सेवा के साधन रूप यह सारी सृष्टि यदि इस बात का दर्शन हमें एक बार हो जाये, तो फिर और क्या चाहिए? तुकाराम कह रहे हैं- झालिया दर्शन करीन मी सेवा। आणीक कांहीं देवा नलग दुजे - दर्शन हो जाने पर तेरी सेवा करूंगा। मुझे और कुछ नहीं चाहिए प्रभो! फिर तो अखंड सेवा ही होती रहेगी। तब ‘मै’ जैसा कुछ रहेगा ही नहीं मै-मेरापन सब मिट जायेगा। जो होगा सब परमात्मा के लिए! पर-हितार्थ जीने के सिवा दूसरा विषय ही नहीं रहेगा। गीता बार-बार यही कर रही है कि मैं अपने में से ‘मैं’ को निकालकर हरिपरायण जीवन बनाऊं, भक्तिमय जीवन रचूं। सेव्य परमात्मा, मैं सेवक और साधनरूप यह सृष्टि! परिग्रह का नाम ही कहाँ रहा? जीवन में अब किसी बात की चिंता ही नहीं रही।
86. ज्ञान-लक्षण: मैं पुरुष, वह पुरुष, यह भी पुरुष
15. अब तक हमने देखा कि किस तरह कर्म में भक्ति का मिश्रण करना
चाहिए; परंतु उमसें ज्ञान भी चाहिए, अन्यथा गीता को संतोष नहीं होगा। परंतु इसका अर्थ
यह नही कि ये तीनों चीजें भिन्न-भिन्न हैं। केवल बोलने के लिए हम भिन्न-भिन्न भाषा
बोलते हैं। कर्म का अर्थ ही है भक्ति। भक्ति कोई अलग से लाकर कर्म में मिलानी नहीं
पड़ती। यही बात ज्ञान की है। यह ज्ञान मिलेगा कैसे? गीता कहती है सर्वत्र पुरुष दर्शन
से तुम सेवा करने वाले सनातन सेवक, यौम सेवा-पुरुष ; वह पुरुषोत्तम सेव्य पुरुष और
नानारूपधारिणी, नानासाधनदायिनी, प्रवाहमयी यह सृष्टि भी पुरुष ही!
16. ऐसी दृष्टि रखने का अर्थ क्या? सर्वत्र त्रुटिरहित निर्मल सेवाभाव रखना! तुम्हारे पैर की चप्पल चर्र-चूं बोल रही है, जरा उसे तेल दे दो। उसमें भी परमात्मा का ही अंश है, अतः उसे संभालकर रखो। यह सेवा का साधन चरखा, इसमें भी तेल डालो। देखो, यह आवाज दे रहा है, ‘नेति-नेति’- ‘सूत नहीं कातूंगा’- कहता है। यह चरखा, यह सेवा साधन भी पुरुष ही है। इसकी माल, इसका यह जनेऊ भली-भाँति रखो। सारी सृष्टि को चैतन्यमय मानो। इसे जड़ मत समझो। ऊँ कार का सुंदर गान करने वाला यह चरखा क्या जड़ है? यह तो परमात्मा की मूर्ति ही है। भाद्रपद की अमावस्या को हम अहंकार छोड़कर बैल[1] की पूजा करते हैं। बड़ी भारी बात है यह। रोज अपने मन में इस उत्सव का ध्यान रख करके, बैलों को अच्छी हालत में रखकर उनसे उचित काम लेना चाहिए। उत्सव के दिन की भक्ति उसी दिन समाप्त नहीं होनी चाहिए। बैल भी परमात्मा की मूर्ति है। वह हल, खेती के सब औजार अच्छी हालत में रखो। सेवा के सभी साधन पवित्र होते हैं कितनी विशाल है दृष्टि! पूजा करने का अर्थ यह नहीं कि गुलाल, गंधाक्षत और फूल चढायें। बरतनों को कांच की तरफ साफ सुथरा रखना, बरतनों की पूजा है। दीपक को स्वच्छ करना दीपक-पूजा है। हंसिये को तेज करके घास काटने के लिए तैयार रखना उसकी पूजा है। दरवाजे का कब्जा जंग खाये, तो उसे तेल लगाकर संतुष्ट कर देना उसकी पूजा है। जीवन में सर्वत्र इस दृष्टि से काम लेना चाहिए। सेवाद्रव्य उत्कृष्ट और निर्मल रखना चाहिए।
सारांश यह कि मैं अक्षर पुरुष, वह पुरुषोत्तम और साधनरूप यह सृष्टि, सब पुरुष ही, परमात्मा ही। सर्वत्र एक ही चैतन्य रम रहा है। जब यह दृष्टि आ गयी, तो समझ लो कि हमारे कर्म में ज्ञान भी आ गया।
17. पहले कर्म में भक्ति का पुट दिया, अब ज्ञान का भी योग कर दिया, तो जीवन का एक दिव्य रसायन बन गया। गीता ने हमें अंत में अद्वैतमय सेवा के रास्ते पर ला पहुँचाया। इस सारी सृष्टि में तीन पुरुष विद्यमान है। एक ही पुरुषोत्तम ने ये तीन रूप धारण किये हैं। तीनों को मिलाकर वास्तव में एक ही पुरुष है। केवल अद्वैत है। यहाँ गीता के हमें सबसे ऊंचे शिखर पर लाकर छोड़ दिया है। कर्म, भक्ति, ज्ञान, सब एकरूप हो गये। जीव, शिव, सृष्टि, सब एकरूप हो गये। कर्म, भक्ति और ज्ञान में कोई विरोध नहीं रह गया।
18. ज्ञानदेव ने ‘अमृतानुभव’ में महाराष्ट्र का प्रिय दृष्टांत दिया है-
देव देऊळ परिवारू। कीजे कोरूनि डोंगरू।
तैसा भक्तीचा वेव्हारू। कां न होआवा॥
-‘पर्वत कुरेद कर देव, मंदिर आदि परिवार बनाया; भक्ति का भी ऐसा व्यवहार क्यों न हो?’ एक ही पत्थर को कुरेदकर उसी का मंदिर, उस मंदिर में पत्थर की गढ़ी हुई भगवान की मूर्ति और उसके सामने पत्थर ही भक्त, उसके पास पत्थर के ही बनाये हुए फूल, ये सब जैसे एक ही पत्थर की चट्टान खोद-काटकर बनाते हैं- एक ही अखंड पत्थर अनेक रूपों में सजा हुआ है, वैसा ही भक्ति के व्यवहार में भी क्यों न होना चाहिए? स्वामी-सेवक-संबंध रहकर भी एकता क्यों नहीं हो सकती? यह बाह्य सृष्टि, यह पूजा-द्रव्य पृथक होते हुए भी आत्मरूप क्यों न बन जायें? तीनों पुरुष एक ही तो हैं’ ज्ञान, कर्म भक्ति, इन तीनों को मिलाकर एक विशाल जीवन-प्रवाह बना दिया जाये, ऐसा यह परिपूर्ण पुरुषोत्तम-योग है। स्वामी, सेवक और सेवा-द्रव्य सब एकरूप ही हैं, अब भक्ति-प्रेम का खेल खेलना है।
19. ऐसा यह पुरुषोत्तम-योग जिसके हृदय में अंकित हो जाये, वही सच्ची भक्ति करता है। स सर्वविद् भजति मां सर्वभावेन भारत।- ऐसा पुरुष ज्ञानी होकर भी संपूर्ण भक्त रहता है। जिसमें ज्ञान है, उसमें प्रेम तो है ही। परमेश्वर का ज्ञान और परमेश्वर का प्रेम ये दो अलग चीजें नहीं हैं। ‘करेला कडुआ है’- ऐसा ज्ञान हो, तो उसके प्रति प्रेम नही उत्पन्न होता। एकाध अपवाद हो सकता है; पर जहाँ कडुएपन का अनुभव हुआ कि जी ऊबा। पर मिश्री का ज्ञान होते ही प्रेम बहने लगता है। तुरंत ही प्रेम का श्रोत उमड़ पड़ता है। परमेश्वर के विषय में ज्ञान होना और प्रेम उत्पन्न होना, दोनों बातें एक ही हैं। परमेश्वर के रूप में माधुर्य की उपमा क्या रद्दी शक्कर से ही जायेॽ उस मधुर परमेश्वर का ज्ञान होते ही उसी क्षण प्रेम-भाव भी पैदा हो जायेगा। यही मानिए कि ज्ञान होना और प्रेम होना, ये दोनों मानो भिन्न क्रियाएं ही नहीं हैं। अद्वैत में भक्ति को स्थान है या नहीं, इस बहस में कुछ नहीं रखा। ज्ञानदेव कहते हैं-
हे चि भक्ति हें चि ज्ञान। एक विठ्ठल चि जाण॥
– ‘एक विठ्ठल को ही जान। वही भक्ति है, वही ज्ञान है।’ भक्ति और ज्ञान एक ही वस्तु के दो नाम है।
20. जीवन में परम भक्ति का संचार हो जाने पर जो कर्म होता है, वह भक्ति और ज्ञान से अलग नहीं रहता। कर्म, भक्ति और ज्ञान मिलाकर एक ही रमणीय रूप बन जाता है। इस रमणीय रूप में से अद्भुत प्रेममय और ज्ञानमय सेवा सहज ही उत्पन्न होती है। मां पर मेरा प्रेम है, किंतु यह प्रेम कर्म के द्वारा प्रकट होना चाहिए। प्रेम सदैव मरता-खपता रहता है। सेवारूप में व्यक्त होता रहता है। प्रेम का बाह्यरूप है सेवा। प्रेम अनंत सेवा-कर्मो से सजकर नाचता है। प्रेम हो तो ज्ञान भी वहाँ आ जाता है। जिसकी सेवा मुझे करनी है, उसे कौन-सी सेवा प्रिय होगी, इसका ज्ञान मुझे होना चाहिए, नहीं तो वह सेवा कु-सेवा होगी। सेव्य वस्तु का ज्ञान प्रेम को होना चाहिए। प्रेम का प्रभाव कार्य द्वारा फैलाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है, परंतु मूल में प्रेम होना चाहिए। वह न हो, तो ज्ञान निरुपयोगी हो जाता है। प्रेम के द्वारा होने वाला कर्म मामूली कर्म से भिन्न होता है। खेत से थके-मांद आये लड़के पर मां प्रेम की दृष्टि डालती है और कहती है- ‘बेटा, थक गये हो!’ परंतु छोटे कर्म में, देखिए तो कितना सामर्थ्य है। अपने जीवन के समस्त कर्म में ज्ञान और भक्ति को ओतप्रोत कीजिए। यही ‘पुरुषोत्तम योग’ कहलाता है।
87. सर्व वेद-सार मेरे ही हाथों में
21. यह सब वेदों का सार है। वेद अनंत हैं, परंतु उन अनंत वेदों का सार-संक्षेप यह पुरुषोत्तम-योग है। वेद हैं कहां? वेदों की बात विचित्र है। वेदों का सार है कहां? अध्याय के प्रारंभ में ही कहा है- छंदांसि यस्य पर्णानि- ‘पत्ते हैं जिसके वेद।’ भाई, वेद तो इस वृक्ष के एक-एक पत्ते में भरे हुए हैं। वेद उन संहिताओं में, आपके ग्रंथों और पोथियों में छिपे हुए नहीं हैं। वे विश्व में सर्वत्र फैले हैं। वह अंग्रेज कवि शेक्सपियर कहता है- ‘बहते हुए झरनों में सदग्रंथ मिलते हैं, पत्थरों-चट्टानों से प्रवचन सुनायी पड़ते हैं।’ सारांश यह कि वेद न संस्कृत में हैं, न संहिताओं में, वे सृष्टि में हैं। सेवा करो तो दिखायी देंगे।
22. प्रभाते करदर्शनम्- सुबह उठते ही अपनी हथेली देखनी चाहिए। सारे वेद हाथ में हैं। वह वेद कहता है, ‘सेवा करो।’ कल हाथ ने काम किया था या नहीं, आज करने को तैयार है या नहीं, उसमें काम से घट्टे पड़े हैं या नहीं, यह देखिए। सेवा करके जब हाथ घिस जाता है, तो फिर ब्रह्य लिखित प्रकट होता है, यह अर्थ है ‘प्रभाते करदर्शनम्’ का।
23. पूछते हैं, वेद कहाँ है? भाई, तुम्हारे पास ही तो हैं। हमें-तुम्हें तो जन्मतः ही वे प्राप्त हैं। मैं खुद ही जीता-जागता वेद हूँ। अब तक की सारी परंपरा मुझमें आत्मसात् हुई है। मैं उस परंपरा का फल हूँ। उस वेद बीज का जो फल है, वही तो मैं हूँ। अपने फल में मैंने अनंत वेदों का बीच संचित कर रखा है। मेरे उदर में वेद पांच-पचास गुना बड़े हो गये।
24. सारांश, वेदों का सार हमारे हाथों में है। सेवा, प्रेम और ज्ञान की नींव पर हमें जीवन गढ़ना होगा। इसी का अर्थ है, वेद हाथों में हैं। मैं जो अर्थ करूंगा, वही वेद होगा, वेद कहीं बाहर नहीं हैं। सेवामूर्ति संत कहते हैं- वेदाचा तो अर्थ आम्हांसी च ठावा- ‘वेदों का जो अर्थ है, वह एक हम ही जानते हैं।’ भगवान कह रहे हैं - ‘सारे वेद मुझे ही जानते हैं। मैं ही बस वेदों का सत्त्वांश, सार पुरुषोत्तम हूँ। ‘यह जो वेदों का सार पुरुषोत्तम-योग है, उसे यदि हम अपने जीवन में आत्मसात् कर सकें, तो कितना आनंद होगा? ऐसा पुरुष फिर जो कुछ करता है, उसमें से वेद ही प्रकट होते हैं, ऐसा गीता सुझाती है। इस अध्याय में सारी गीता का सार आ गया है। गीता की शिक्षा इसमें पूर्णरूप से प्रकट हुई है। उसे अपने जीवन में उतारने का हमें रात-दिन प्रयत्न करना चाहिए। और क्या?