88. पुरुषोत्तम-योग की पूर्व-प्रभाः दैवी संपत्ति
1.
गीता के पहले पांच
अध्यायों में हमने देखा कि जीवन की
कुल योजना क्या है, और हम अपना
जन्म सफल कैसे कर सकते हैं।
उसके बाद छठे अध्याय से ग्यारहवें अध्याय
तक हमने भक्ति का भिन्न-भिन्न
प्रकार से विचार किया।
ग्यारहवें अध्याय में भक्ति का दर्शन हुआ।
बाहरवें में सगुण और निर्गुण भक्ति
की तुलना करके भक्त के महान लक्षण
देखे। बारहवें अध्याय के अंत तक
कर्म और भक्ति, इन
दोनों तथ्यों की छानबीन हुई।
ज्ञान का तीसरा विभाग
रह गया था, उसे हमने तेरहवें, चौदहवें और पंद्रहवें अध्यायों
में देख लिया- आत्मा को देह से
अलग करना और उसके लिए
तीनों गुणों को जीतकर अंत
में सर्वत्र प्रभु को देखना। पंद्रहवें
अध्याय में जीवन का संपूर्ण शास्त्र
देख लिया। पुरुषोत्तम-योग में जीवन की पूर्णता होती
है। उसके बाद फिर कुछ बाकी नहीं रहता।
2. कर्म, ज्ञान और भक्ति की पृथक्ता मुझे सहन नहीं होती। कुछ साधकों की ऐसी निष्ठा होती है कि उन्हें केवल कर्म ही सूझता है। कोई भक्ति के स्वतंत्र मार्ग की कल्पना करते हैं और उसी पर सारा जोर देते हैं। कुछ लोगों को झुकाव ज्ञान की ओर होता है। जीवन का अर्थ केवल कर्म, केवल भक्ति, केवल ज्ञान- ऐसा केवल-वाद मुझे मंजूर नहीं। इसके विपरीत कर्म भक्ति, कुछ ज्ञान और कुछ कर्म, इस तरह का उपयोगिता-वाद भी मुझे नहीं जंचता।
उसी
तरह जीवन की प्रत्येक क्रिया
में परमार्थ भरा रहना चाहिए- प्रत्येक कृत्य सेवामय, प्रेममय और ज्ञानमय होना
चाहिए। जीवन के अंग-प्रत्यंग
में कर्म, भक्ति और ज्ञान भरा
रहना चाहिए, इसे ‘पुरुषोत्तम-योग’ कहते है। सारे जीवन को केवल परमार्थमय
ही बना डालना- यह बात बोलने
में तो बड़ी आसान
है। परंतु इस कथन में
जो भाव है, उसका यदि विचार करने लगें, तो केवल निर्मल
सेवा करने के लिए अंतःकरण
में शुद्ध ज्ञान-भक्ति की हार्दिकता गृहीत
समझकर चलना होगा। इसलिए कर्म, भक्ति और ज्ञान अक्षरक्षः
एकरूप हैं, इस परम दशा
को ‘पुरुषोत्तम-योग’ कहते हैं। यहाँ जीवन की अंतिम सीमा
आ गयी।
3.
अब, आज हम देखें
कि इस सोलहवें अध्याय
में क्या कहा गया है? जिस प्रकार सूर्योदय होने के पहले उसकी
प्रभा फैलने लगती है, उसी प्रकार जीवन में कर्म, भक्ति और ज्ञान से
पूर्ण पुरुषोत्तम-योग के उदय होने
के पहले सद्गुणों की प्रभा बाहर
प्रकट होने लगती है। परिपूर्ण जीवन की इस आगामी
प्रभा का वर्णन इस
सोलहवें अध्याय में किया गया है। किस अंधकार से झगड़कर यह
प्रभा प्रकट होती है, उसका भी वर्णन इसमें
किया गया है।
89.
अहिंसा की और हिंसा
की सेना
4. जिस तरह पहले अध्याय में एक ओर कौरव-सेना और दूसरी ओर पांडव-सेना आमने-सामने खड़ी है, उसी तरह यहाँ सद्गुणरूपी दैवी-सेना और दुर्गुणरूपी आसुरी-सेना एक-दूसरे के सामने खड़ी की है। बहुत प्राचीनकाल से मानवीय मन में सदसत्-प्रवृत्तियों का जो झगड़ा चलता है, उसका रूपकात्मक वर्णन करने की परिपाटी पड़ गयी है। वेद मे इंद्र और वृत्र, पुराणों में देव और दानव, वैसे ही राम और रावण, पारसियों के धर्मग्रंथों में अहुरमज्द और अहरिमान, ईसाई मजहब में प्रभु और शैतान, इस्लाम मे अल्लाह और इब्लीस- इस तरह के झगड़े सभी धर्मों में आते हैं। काव्य में स्थूल और मोटे विषयों का वर्णन सूक्ष्म वस्तुओं के रूपकों के द्वारा किया जाता है, तो धर्मग्रन्थों में सूक्ष्म मनोभावों का वर्णन उन्हें ठोस स्थूल रूप देकर किया जाता है। काव्य में स्थूल का सूक्ष्म द्वारा वर्णन किया जाता है, तो यहाँ सूक्ष्म का स्थूल के द्वारा। इससे यह नहीं सुझाना है कि गीता के आरंभ में युद्ध का जो वर्णन है वह केवल काल्पनिक है। हो सकता है कि वह ऐतिहासिक घटना हो, परंतु कवि यहाँ उसका उपयोग अपने इष्ट हेतु को सिद्ध करने के लिए कर रहा है। कर्त्तव्य के विषय में जब मन में मोह पैदा हो जाता है, तब मनुष्य को क्या करना चाहिए, यह बात युद्ध के रूपक के द्वारा समझायी गयी है। इस सोलहवें अध्याय में भलाई और बुराई का झगड़ा बताया गया है। गीता में युद्ध का रूपक भी दिया गया है।
5.
कुरुक्षेत्र बाहर भी है और
हमारे भीतर भी। बारीकी से देखा जाये,
तो झगड़ा हमारे मन में होता
है, वही हमें बाहरी जगत में मूर्तिमान दिखायी देता है। बाहर जो शत्रु खड़ा
है, वह मेरे ही
मन का विकार साकार
होकर खड़ा है। दर्पण में जिस प्रकार मेरा ही बुरा-भला
प्रतिबिंब मुझे दीखता है, उसी तरह मेरे मन के बुरे-भले विचार मुझे बाहर शत्रु-मित्र के रूप में
दिखायी देते हैं। जैसे हम जागृति की
ही बातें स्वप्न में देखते हैं, वैसे ही जो हमारे
मन में है, वही हम बाहर देखते
हैं। भीतर के और बाहर
के युद्ध में कोई अंतर नहीं है। सच पूछिए, तो
असली युद्ध भीतर ही है।
6.
हमारे अंतःकरण में एक और सद्गुण,
तो दूसरी ओर दुर्गुण खड़े
हैं। उन्होंने अपनी व्यवस्थित व्यूह-रचना कर रखी है।
सेना में जिस प्रकार सेनापति आवश्यक है, उसी प्रकार यहाँ भी सद्गुणों ने
एक सेनापति बना रखा है। उसका नाम है- ‘अभय’। इस अध्याय
में ‘अभय’ को पहला स्थान
दिया गया है। यह कोई आकस्मिक
बात नहीं है। जान-बूझकर ही इस ‘अभय’
शब्द को पहला स्थान
दिया होगा। बिना अभय के कोई भी
गुण पनप नहीं सकता। सच्चाई के बिना सद्गुण
का कोई मूल्य नहीं है, किंतु सच्चाई के लिए निर्भयता
आवश्यक है। भयभीत वातावरण में सद्गुण फैल नहीं सकते, बल्कि भयभीत वातावरण में सद्गुण भी दुगुर्ण बन
जायेंगे, सत्य प्रवृत्तियां भी कमज़ोर पड़
जायेंगी। निर्भयत्व सब सद्गुणों का
नायक है; परंतु सेना को आगा और
पीछा, दोनों संभालना पड़ता है। सीधा हमला तो सामने से
होता है, परंतु पीछे से चुपचाप चोर-हमला भी हो सकता
है। सद्गुणों के सामने ‘अभय’
खम ठोंककर खड़ा है, तो पीछे से
‘नम्रता’ रक्षा कर रही है।
इस तरह बड़ी सुंदर रचना की गयी है।
यहाँ कुल छब्बीस गुण बताये गये हैं। इनमें से पच्चीस गुण
प्राप्त हो जायें और
यदि कहीं उसका अहंकार हो जाये, तो
पीछे से एकाएक चोर-हमले से सारी कमाई
खो जाने का भय है।
इसीलिए पीछे ‘नम्रता’ नामक सद्गुण रखा गया है। यदि नम्रता न हो, तो
यह ‘जय’ कब ‘पराजय’ में परिणत हो जायेगी, इसका
पता भी नहीं चलेगा।
इस
तरह सामने ‘निर्भयता’ और पीछे ‘नम्रता’
को रखकर सब सद्गुणों का
विकास किया जा सकेगा। इन
दो महान गुणों के बीच जो
चौबीस गुण रखे गये हैं, वे सब अधिकतर
अहिंसा के पर्यायवाची हैं,
ऐसा कहा जा सकता है।
भूतदया, मार्दव, क्षमा, शांति, अक्रोध, अहिंसा, अद्रोह- ये सब अहिंसा
के ही दूसरे नाम
हैं। अहिंसा और सत्य, इन
दो गुणों में इन सब सद्गुणों
का समावेश हो जाता है।
जीवन
विशाल है। उसमें अनिरुद्ध संचार करते चले जाना चाहिए। पांव गलत न पड़ जाये,
इसके लिए सदा नम्र रहें, फिर कोई खतरा नहीं रह जाता। तब
निर्भयतापूर्वक सत्य-अहिंसा के प्रयोग सर्वत्र
करते हुए आगे बढ़ सकते हैं। तात्पर्य यह कि सत्य
और अहिंसा का विकास निर्भयता
और नम्रता के द्वारा होता
है।
7. एक ओर जहाँ सद्गुणों की फौज खड़ी है, वहाँ दूसरी ओर दुर्गुणों की भी फौज तैयार है। दंभ, अज्ञान आदि दुर्गुणों के संबंध में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। इनसे हमारा नित्य का परिचय है। दंभ तो जैसे हम आदी हो गये हैं, सारा जीवन ही मानो दंभ पर खड़ा किया गया है।
90. अहिंसा के विकास की चार मंज़िलें
8. इस तरह एक ओर दैवी संपत्ति और दूसरी ओर आसुरी संपत्ति- ऐसी दो सेनाएं खड़ी हैं। इनमें से आसुरी संपत्ति को छोड़ना है और दैवी संपत्ति को पकड़ना है। सत्य, अहिंसा आदि दैवी गुणों का विकास अनादि काल से होता आया है। बीच में जो काल गया, उसमें भी बहुत-कुछ विकास हुआ है। तो भी अभी विकास के लिए बहुत गुंजाइश है। विकास की मर्यादा समाप्त हो गयी हो, सो बात नहीं। जब तक हमें सामाजिक शरीर प्राप्त है, तब तक विकास के लिए हमें अनंत अवकाश है। वैयक्तिक विकास हो जाये फिर भी सामाजिक, राष्ट्रीय, जागतिक विकास शेष रहता ही है। व्यक्ति को अपने विकास की खाद देकर फिर समाज, राष्ट्र के लाखों व्यक्तियों के विकास की शुरूआत करनी होती है। मानव द्वारा अहिंसा का विकास अनादिकाल से हो रहा है, तो भी आज वह विकास-क्रिया जारी ही है।
9. अहिंसा का विकास किस तरह होता आया है, यह देखने लायक है। उससे यह समझ में आ जायेगा कि पारमार्थिक जीवन का विकास उत्तरोत्तर किस तरह हो रहा है और उसे अभी कितना अवसर है। पहले अहिंसक मानव यह विचार करने लगा कि हिंसक लोगों के हमले से कैसे बचाव किया जाये? शुरू में समाज की रक्षा के लिए क्षत्रिय-वर्ग बनाया गया; परंतु वही आगे चलकर समाज-भक्षण करने लगा। तब अहिंसक ब्राह्मण यह विचार करने लगे कि इन उन्मत्त क्षत्रियों से समाज का बचाव कैसे किया जाये?
परशुराम
ने स्वयं अहिंसक होकर भी हिंसा का
अवलंबन किया है। वे क्षत्रियों का
विनाश करने लगे। क्षत्रिय हिंसा छोड़ दें, इसलिए वे स्वयं हिंसक
बने। यह अहिंसा का
ही प्रयोग था, परंतु सफल नहीं हुआ। उन्होंने इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया,
फिर भी क्षत्रिय बचे
ही रहे, क्योंकि यह प्रयोग मूल
में ही गलत था।
जिन क्षत्रियों को नष्ट करने
वे चले थे, उनमें एक और क्षत्रिय
की वृद्धि उन्होंने की; तो फिर वह
क्षत्रिय-वर्ग नष्ट कैसे होता? वे स्वयं ही
हिंसक क्षत्रिय बन गये। वह
बीज तो कायम ही
रहा। बीज को कायम रखकर
पेड़ों को काटने वाले
को वे पेड़ पुनः-
पुनः पैदा हुए ही दीखेंगे।
परशुराम
थे भले आदमी, परंतु उनका प्रयोग बड़ा विचित्र हुआ। स्वयं क्षत्रिय बनकर वे पृथ्वी को
निःक्षत्रिय बनाना चाहते थे। वस्तुतः उन्हें अपने से ही प्रयोग
शुरू करना चाहिए था। उन्हें चाहिए था कि पहले
वे अपना ही सिर उड़ा
देते। मैं जो यह परशुराम
का दोष दिखा रहा हूँ, इसका यह अर्थ नहीं
कि मैं उनसे ज़्यादा बुद्धिमान हूँ | मैं तो बच्चा हूँ
परंतु उनके
कंधे पर खड़ा हूँ
| इससे अनायास ही मुझे अधिक
दूर का दिखाई देता
है |परशुराम के प्रयोग का
आधार ही गलत था।
हिंसामय होकर हिंसा दूर करना संभव नहीं। इससे उल्टे हिंसकों की संख्या ही
बढ़ती है। परंतु उस सयम यह
बात ध्यान में नहीं आयी। उस समय के
भले-भले आदमियों ने, परम अहिंसामय व्यक्तियों ने, जैसा उन्हें सूझा, प्रयोग किया। परशुराम उस काल के
महान अहिंसावादी थे। हिंसा के उद्देश्य से
उन्होंने हिंसा नहीं की। अहिंसा की स्थापना के
लिए उन्होंने हिंसा की।
10. वह प्रयोग असफल हो गया। बाद में राम का युग आया। उस समय फिर ब्राह्मणों ने विचार शुरू किया। उन्होंने हिंसा छोड़ दी थी और यह निश्चय किया था कि हम स्वंय हिंसा करेंगे ही नहीं। तब राक्षसों के आक्रमणों से बचाव कैसे हो? उन्होंने सोचा कि ये क्षत्रिय तो हिंसा करने वाले हैं ही, इन्हीं राक्षसों का संहार करा डालना चाहिए। कांटे से कांटा निकाल डालना चाहिए। हम स्वतः दूर रहें। अतः विश्वामित्र ने यज्ञ-रक्षणार्थ राम-लक्ष्मण को ले जाकर उनके द्वारा राक्षसों का संहार करवाया।
आज
हम ऐसा सोचते हैं कि ‘जो अहिंसा स्व-संरक्षित नहीं है, जिसके पांव नहीं है, ऐसी लंगड़ी-लूली अहिंसा खड़ी कैसे रहेगी?‘ परंतु वसिष्ठ, विश्वामित्र जैसों को क्षत्रियों के
बल पर अपनी रक्षा
करा लेने में कोई दोष या त्रुटि नहीं
मालूम हुई। परंतु यदि राम के जैसा क्षत्रिय
न मिला होता तो? विश्वामित्र कहते हैं- ‘मैं भले ही मर जाऊं,
पर हिंसा नहीं करूंगा।’ क्योंकि हिंसक बनकर हिंसा दूर करने का प्रयोग हो
चुका था। अब इतना तो
निश्चय हो ही चुका
था कि स्वयं अहिंसा
नहीं छोड़ेंगे- यदि कोई क्षत्रिय नहीं मिला, तो अहिंसक व्यक्ति
मर जाना पसंद करेंगे- यह भूमिका अब
तैयार हो चुकी थी।
अरण्यकांड
में एक प्रसंग है।
राम पूछते हैं- ‘ये ढेर किस
चीज के हैं?‘ ऋषि
कहते हैं- ‘ये ब्राह्मणों की
हड्डियों के ढेर हैं।
अहिंसक ब्राह्मणों ने आक्रमणकारी हिंसक
राक्षसों का प्रतिकार नहीं
किया। वे मर मिटे।
उन्हीं की हड्डियों के
ये ढेर हैं।’ इस अहिंसा में
ब्राह्मणों का त्याग तो
था; परंतु साथ ही दूसरों से
अपने सरंक्षण की अपेक्षा भी
वे रखते थे। ऐसी कमज़ोरी से अहिंसा पूर्णता
को नहीं पहुँच सकती थी।
11. संतो ने आगे चलकर तीसरा प्रयोग किया। उन्होंने निश्चय किया- ‘हम अपने बचाव के लिए दूसरों की सहायता कदापि नहीं लेंगे। हमारी अहिंसा ही हमारा बचाव करेगी। ऐसा बचाव ही सच्चा बचाव होगा।’ संतो का यह प्रयोग व्यक्तिनिष्ठ था। इस व्यक्तिगत प्रयोग को उन्होंने पूर्णता तक पहुँचा दिया, परंतु रहा यह व्यक्तिगत ही। समाज पर यदि हिंसक लोगों के हमले होते और समाज संतों से आकर पूछता कि ‘अब क्या करें?‘ तो शायद संत उसका निश्चित उत्तर न दे पाते। व्यक्तिगत जीवन में परिपूर्ण अहिंसा का पालन करने वाले वे संत समाज से यही कहते- ‘भाई, हम निर्बल हैं।' संतों की यह कमी बताना मेरा बाल-साहस होगा, परंतु उनके कंधे पर बैठकर मुझे जो दीखता है, वही मैं बता रहा हूँ। वे मुझे इसके लिए क्षमा करें और वे कर भी देंगे क्योंकि उनकी क्षमा महान है। अहिंसा के साधनों से सामूहिक प्रयोग करने की उन्हें प्रेरणा नहीं हुई, ऐसा तो नहीं कह सकते; लेकिन उस समय की परिस्थिति उन्हें शायद अनुकूल न लगी हो। उन्होंने अपने लिए अलग-अलग प्रयोग किये; परंतु ऐसे पृथक्-पृथक् किये हुए प्रयोगों से ही शास्त्र की रचना होती है। सम्मिलित अनुभवों से शास्त्र बनता है।
12. संतों के प्रयोग के बाद आज हम चौथा प्रयोग कर रहे हैं। वह है- सारा समाज मिलकर अहिंसात्मक साधनों से हिंसा का प्रतिकार करे। इस तरह चार प्रयोग अब तक हुए हैं। प्रत्येक प्रयोग में अपूर्णता थी और है। विकास-क्रम में यह बात अपरिहार्य ही है। परंतु यह तो कहना ही होगा कि उस-उस काल के लिए वे-वे प्रयोग पूर्ण ही थे और दस हजार साल के बाद आज के इस हमारे अहिंसक यृद्ध में भी बहुत-कुछ हिंसा का अंश दिखायी देगा।
शुद्ध
अहिंसा के और प्रयोग
होते ही रहेंगे। ज्ञान
कर्म और भक्ति का
ही नहीं, सभी सद्गुणों का विकास हो
रहा है। पूर्ण वस्तु एक ही है।
वह है परमात्मा। भगवद्गीता
का पुरुषोत्तम योग पूर्ण है, परंतु व्यक्ति और समुदाय के
जीवन में अभी उनका पूर्ण विकास होना बाकी है। वचनों का भी विकास
होता है। ऋषि मंत्रों के द्रष्टा समझे
जाते थे, कर्ता नहीं, क्योंकि उन्हें मंत्रों का जो अर्थ
दीखा, वही उसका अर्थ हो, सो बात नहीं।
उन्हें उनका एक दर्शन हुआ।
उसके बाद हमें उसका और विकसित अर्थ
दीख सकता है। उनसे यदि हमें कुछ अधिक दीख जाता है, तो यह हमारी
विशेषता नहीं है, क्योंकि उन्हीं के आधार पर
हम आगे बढ़ते हैं।
मैं
यहाँ अहिंसा के ही विकास
की जो बात कर
रहा हूं, वह इसलिए कि
यदि हम सब सद्गुणों
का साधारण रूप से सार निकालें,
तो वह अहिंसा ही
निकलेगा, और दूसरे, हम
आज अहिंसात्मक युद्ध में पड़े हुए भी हैं। इस
तरह हमने देखा कि इस तत्त्व
का विकास कैसे हो रहा है।
91. अहिंसा का एक महान प्रयोग: मांसाहार-परित्याग
13.
अंत तक हमने अहिंसा
का एक यह पहलू
देखा कि यदि हिंसकों
के हमले हों, तो अहिंसक अपना
बचाव कैसे करें। मनुष्यों के पारस्परिक झगड़ों
में अहिंसा का विकास किस
तरह हो रहा है
यह हमने देखा। किंतु झगड़ा तो मनुष्य और
पशुओं में भी हो रहा
है। मनुष्य अभी तक अपने आपस
के झगड़े मिटा नही पाया। पशु को पेट में
ठूंसकर वह जी रहा
है। उसे अपने झगड़े अभी तक मिटाने नहीं
आते और अपने से
हीन दुर्बल पशुओं, जीवों को खाये बिना
वह जी नहीं सकता।
हजारों वर्ष जीकर भी किस तरह
जीयें, इसका विचार अभी तक मनुष्य ने
नहीं किया। मनुष्य को मनुष्य की
तरह जीना आता नहीं, परंतु अब बात का
भी विकास हो रहा है।
आदिमानव शायद कंद-मूल फलाहारी ही होगा। लेकिन
बाद में दुर्मतिवश बहुत-सा मानव-समाज
मांसाहारी बना। जो उत्तम और
बुद्धिमान व्यक्ति थे, उन्हें यह नहीं जंचा।
उन्होंने यह प्रतिबंध लगाया
कि यदि मांस ही खाना हो,
तो यज्ञ में बलि दिये पशुओं का ही मांस
खाना चाहिए। इसमें हेतु यह था कि
हिंसा रुके। बहुतों ने तो पूर्ण
रूप से मांस छोड़
दिया, परंतु जो पूर्णतः मांस
नहीं छोड़ सकते थे, उन्हें यह अनुमति दी
गयी कि वे उसे
यज्ञ में परमेश्वर को अर्पण कर,
कुछ तपस्या करें, तब खायें, उस
समय यह माना गया
था कि ‘यज्ञ में ही मांस खा
सकते हैं’- ऐसा प्रतिबंध लगा देने से हिंसा रुक
जायेगी, परंतु बाद में यज्ञ का सामान्य-क्रम
बन गया। ऐसा होने लगा कि जो चाहता,
यज्ञ करता और मांस खाता।
तब भगवान बुद्ध आगे आये। उन्होंने कहा- ‘तुम्हें मांस खाना हो तो खाओ,
परंतु भगवान का नाम लेकर
तो मत खाओ।’ इन
दोनों वचनों का हेतु एक
ही था- हिंसा पर अंकुश रहे,
गाड़ी किसी-न-किसी तरह
संयम के मार्ग पर
आये। यज्ञ-याग करो या न करो-
दोनों से हमने मांसाशन
का त्याग ही सीखा। इस
तरह हम धीरे-धीरे
मांस-भक्षण छोड़ते गये।
14. संसार के इतिहास में अकेले भारतवर्ष में ही यह महान प्रयोग हुआ। करोड़ों लोगों ने मांस खाना छोड़ दिया। आज हम मांस नहीं खाते, इसमें हमारा कोई बड़प्पन नहीं है। पूर्वजों की पुण्याई से हम इसके आदी हो गये हैं। परंतु पहले के ऋषि मांस खाते थे, ऐसा यदि हम पढ़ें या सुनें, तो हमें आश्चर्य मालूम होता है। ‘क्या बकते हो? ऋषि मांस खाते थे? कभी नहीं।’ परंतु मांसाशन करते हुए उन्होंने संयम करके उसका त्याग किया, इसका श्रेय उन्हें है। उन कष्टों का अनुभव आज हमें नहीं होता। उनकी पुण्याई मुफ्त में हमें मिल गयी है।
पहले वे मांसाशन करते थे और आज हम नहीं करते, इसका अर्थ यह नहीं कि हम आज उनसे बड़े हो गये हैं। उनके अनुभव का लाभ हमें अनायास ही मिल गया है। हमें उनके इस अनुभव का विकास करना चाहिए। हमें दूध बिलकुल ही छोड़ देने का प्रयोग करना चाहिए। मनुष्य अन्य जीवों का दूध पीये, यह बात भी तो हीनता की है। दस हजार वर्ष बाद लोग हमारे विषय में कहेंगे- ‘क्या, हमारे पूर्वजों को दूध न पीने का व्रत लेना पड़ा था? राम-राम, वे दूध कैसे पीते होंगे, इतने कैसे वे जंगली थे।’ सारांश यह कि हमें निडर होकर, नम्रतापूर्वक अपने प्रयोग करते हुए निरंतर आगे बढ़ते जाना चाहिए। सत्य का क्षितिज विशाल करते जाना चाहिए। विकास के लिए अभी पर्याप्त अवकाश है। किसी भी गुण का पूर्ण विकास नहीं हुआ है।
92.
आसुरी संपत्ति की तिहरी महत्त्वाकांक्षा:
सत्ता, संस्कृति और संपत्ति
15.
हमें दैवी संपत्ति का विकास करना
है और आसुरी संपत्ति
से दूर रहना है। आसुरी संपत्ति का वर्णन भगवान
ने इसीलिए किया है कि उससे
दूर रह सकें। इसमें
कुल तीन बातें मुख्य हैं। असुरों के चरित्र का
सार ‘सत्ता, संस्कृति और संपत्ति’ में
है। वे कहते हैं-
एक हमारी ही संस्कृति उत्कृष्ट
है। और उनकी महत्त्वाकांक्षा
होती है कि वही
सारे संसार पर लादी जाये।
आपकी ही संस्कृति क्यों
लादी जाये? तो कहते हैं-
‘वही सबसे अच्छी है।’ ‘अच्छी क्यों है?’ क्योंकि वह ‘हमारी’ है। चाहे आसुरी व्यक्ति हो, चाहे ऐसे व्यक्तियों से बने साम्राज्य
हों, वे इन तीन
चीजों का आग्रह रखते
हैं।
16.
ब्राह्मण भी तो ऐसा
ही समझते हैं कि हमारी संस्कृति
सर्वश्रेष्ठ है। सारा ज्ञान हमारे वेदों में भरा हुआ है। वैदिक संस्कृति की विजय सारे
संसार में होनी चाहिए। अग्रत
चतुरो वेदान् पृष्ठतः सशरं
धनुः-
इस तरह सज्ज होकर सारी पृथ्वी पर अपनी संस्कृति
का झंडा फहराओ। परंतु पीछे पर जहाँ ‘सशरं
धनुः’ होगा वहाँ आगे वाले बेचारे वेदों की समाप्ति ही
समझिए। मुसलमान भी तो ऐसा
ही समझते हैं कि कुरानशरीफ में
जितना कुछ लिखा है, वही सच है। ईसाई
भी ऐसा ही मानते हैं।
अन्य धर्म का मनुष्य कितना
ही उच्च कोटि का क्यों न
हो, उसका यदि ईसामसीह पर विश्वास नहीं
होगा तो उसे स्वर्ग
मिलने वाला नहीं। भगवान के घर को
उन्होंने केवल एक ही दरवाजा
रखा है वह है
इसा मसीह वाला। लोग
तो अपने घरों
में अनेक दरवाजे और खिड़कियां लगाते
हैं, परंतु बेचारे भगवान के घर को
केवल एक ही दरवाजा
रखते हैं।
17. आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया- मैं ही कुलीन हूं, मैं ही श्रीमंत हूं, मेरे जोड़ का दूसरा कौन है? सब यही मानते हैं। मैं कौन? भारद्वाज-कुल का। मेरी यह परंपरा अबाधित रूप से चल रही है। यही हाल पश्चिमी लोगों का है। कहते हैं, हमारी नसों में नार्मन सरदारों का रक्त बहता है। हमारे यहाँ गुरु-परंपरा है न? मूल आदिगुरु है शंकर। फिर ब्रह्मदेव या और कोई, फिर नारद, व्यास, फिर कोई और ऋषि, फिर बीच में दस-पांच नाम और आते हैं, बाद में अपने गुरु का नाम और फिर मैं- ऐसी परंपरा बतायी जाती है। इस वंशावलि से यह सिद्ध किया जाता है कि हम श्रेष्ठ, हमारी संस्कृति श्रेष्ठ। भाई, यदि आपकी संस्कृति सचमुच ही श्रेष्ठ है, तो उसे अपने आचरण में दीखने दो न! अपने जीवन में उसकी प्रभा फैलने दो न! परंतु ऐसा नहीं होता। जो संस्कृति स्वयं हमारे जीवन में नहीं है, हमारे घर में नहीं है, उसे संसारभर में फैलाने की आकांक्षा रखना- इस विचार-पद्धति को ‘आसुरी’ कहते हैं।
18.
फिर जैसे मेरी संस्कृति सुंदर है, वैसा ही यह विचार
है कि संसार की
सारी संपत्ति रखने के योग्य भी
मैं ही हूँ। संसार
की सारी संपत्ति मुझे चाहिए और मैं उसे
प्राप्त करूंगा ही। वह संपत्ति किसलिए
प्राप्त करनी है? तो, सबमें समान रूप से बांटने के
लिए! इसके लिए मैं स्वतः अपने को धन-संपत्ति
में गाड़ लेता हूँ। अकबर ने यही तो
कहा था- ‘ये राजपूत अभी
मेरे साम्राज्य में क्यों नहीं दाखिल होते? एक साम्राज्य बनेगा,
तो शांति स्थापित होगी।’ वह प्रामाणिक रूप
से ऐसा मानता था। वर्तमान असुरों की भी ऐसी
धारणा है कि सारी
संपत्ति बटोरना है। क्यों? उसे फिर सबमें बांटने के लिए।
19. उसके लिए मुझे सत्ता चाहिए। सारी सत्ता एक हाथ में केंद्रीभूत होनी चाहिए। सारी दुनिया मेरे तंत्र में आ जानीं चाहिए। स्व-तंत्र- मेरे तंत्र के अनुसार चलनी चाहिए। जो मेरे अधीन होगा, जो मेरे तंत्र के अनुसार चलेगा, वही स्वतंत्र। इस तरह संस्कृति, सत्ता और संपत्ति- इन तीन मुख्य बातों पर आसुरी संपत्ति में जोर दिया जाता है।
20. एक समय ऐसा था, जब समाज में ब्राह्मणों का प्रामुख्य था। शास्त्र वे लिखते, कानून वे बनाते, राजा उनके समक्ष नतमस्तक होते। वह युग बदला। क्षत्रियों का युग आया। घोड़े छोड़े जाने लगे, दिग्विजय किये जाने लगे। वह क्षत्रिय-संस्कृति भी आयी और चली गयी। ब्राह्मण कहता- ‘मैं विद्या देने वाला, दूसरे लेनेवाले, मेरे सिवा गुरु कौन?‘ ब्राह्मणों को अपनी संस्कृति का अभिमान था। क्षत्रियों का जोर सत्ता पर था- ‘आज इसे मारा, कल उसे मारूंगा।’ इस बात पर उनका सारा जोर रहता था। फिर वैश्यों का युग आया। ‘पीठ पर मारो, पर पेट पर मत मारो!’ इसमें वैश्यों का सारा तत्त्वज्ञान है। पेट की सारी अक्ल! ‘यह धन मेरा है और वह भी मेरा हो जायेगा’- यही जप और यही संकल्प! अंग्रेज हमें कहते हैं न- ‘स्वराज्य चाहिए तो ले लो, परंतु हमारा तैयार माल बेचने की सुविधा, सहूलियतें हमें दे दो, फिर अपनी संस्कृति का खूब अध्ययन करते रहो। लंगोटी लगाओ और अपनी संस्कृति को लिये बैठे रहो। आजकल जो युद्ध होते हैं, वे व्यापार के लिए होते हैं। यह युग भी जायेगा, जाने का आरंभ भी हो गया है। इस तरह ये सब आसुरी संपत्ति के प्रकार हैं।
93. काम-क्रोध-लोभ-मुक्ति का शास्त्रीय संयम-मार्ग
21. हम आसुरी संपत्ति को दूर हटाते रहें। संक्षेप में कहें, तो आसुरी संपत्ति का अर्थ है- ‘काम, क्रोध, लोभ।’ ये ही तीनों सारे संसार को नचा रहे हैं। अब इस नृत्य को समाप्त करो। हमें यह छोड़ देना ही चाहिए। क्रोध और लोभ काम से पैदा होते हैं। काम के अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न होने से लोभ पैदा होता है और प्रतिकूलता आने से क्रोध। गीता में पद-पद पर यह कहा है कि इन तीनों से बचते रहो। सोलहवें अध्याय के अंत में यही कहा है। काम, क्रोध और लोभ, ये ही नरक के तीन बड़े द्वार हैं। इनमें बहुत बड़ा आवागमन होता है। अनेक लोग आते-जाते हैं। नरक का रास्ता खूब चौडा है। उसमें मोटरें चलती हैं। बहुतेरे साथी भी रास्ते में मिल जाते हैं; परंतु सत्य की राह संकरी है।
22.
तो अब इन काम,
क्रोध, लोभसे बचें कैसे? संयम-मार्ग का अंगीकार करके।
शास्त्रीय संयम का पल्ला पकड़
लेना चाहिए। संतों का अनुभव ही
शास्त्र है। प्रयोग द्वारा जो अनुभव संतों
को हुए उन्हीं से शास्त्र बनता
है। इस संयम-सिद्धांत
का हाथ पकड़ों। व्यर्थ की शंका-कुंशका
मत रखो। कृपा करके ऐसा तर्क, ऐसी शंका मत लाइए कि
यदि काम-क्रोध उठ गये, तो
फिर संसार का क्या हाल
होगा? वह तो चलना
ही चाहिए। क्या थोड़े-से भी काम-क्रोध नहीं रहने चाहिए? भाइयो, काम-क्रोध पहले से ही भरपूर
हैं। आपको जितने चाहिए, उससे भी कहीं अधिक
है। फिर क्यों व्यर्थ में बुद्धि-भेद पैदा करते हैं? काम, क्रोध लोभ आपकी इच्छा से रत्तीभर अधिक
ही हैं। यह चिंता न
करें कि काम मर
जायेगा, तो संतति कैसे
पैदा होगी? आप चाहे कितनी
ही संतति पैदा करें, एक दिन ऐसा
आनेवाला है, जब पृथ्वी पर
से मनुष्य का नाम सर्वथा
मिट जायेगा। ऐसा वैज्ञानिकों का कहना है।
पृथ्वी धीरे-धीरे ठंडी होती जा रही है।
एक समय पृथ्वी अत्यंत उष्ण थी। तब उस पर
जीवधारी नहीं रहते थे। जीव पैदा ही नहीं हुआ
था। एक समय ऐसा
आयेगा कि पृथ्वी अत्यंत
ठंडी हो जोयगी और
सारी जीवसृष्टि का लय हो
जोयगा। इस बात में
लाखों वर्ष लग जायेंगे। आप
कितनी ही संतान-वृद्धि
क्यों न करें, अंत
में प्रलय निश्चित है। परमेश्वर जो अवतार लेता
है, सो धर्म-संरक्षण
के लिए, संख्या-संरक्षण के लिए नहीं।
जब तक एक भी
धर्मपरायण मनुष्य है, एक भी पापभीरू
और सत्यनिष्ठ मनुष्य है, तब तक कोई
चिंता नहीं। उसकी ओर ईश्वर की
दृष्टि बनी रहेगी। जिनका धर्म मर चुका है,
ऐसे हजारों लोगों का जीवित रहना,
न रहना बराबर है।
23. इन सब बातों पर ध्यान रखकर सृष्टि में ढंग से रहिए, संयम से चलिए। मनमानी न कीजिए। ‘लोक-संग्रह’ का अर्थ यह नहीं कि लोग जैसा कहें, वैसा किया जाये। मनुष्यों का संघ बढ़ाते जाना? संपत्ति का ढेर इकट्ठा करते जाना- इसे सुधार नहीं कहते। विकास संख्या पर अवलंबित नहीं है। समाज यदि बेशुमार बढ़ने लगेगा, तो लोग एक-दूसरे का खून करने लग जायेंगे। पहले पशु-पक्षियों को खाकर मनुष्य मत्त बनेगा; फिर अपने बाल-बच्चों को खाने लगेगा। काम-क्रोध में सार है, यह बात यदि मान लें, तो फिर अंत में मनुष्य मनुष्य को फाड़ खायेगा, इसमें अणुमात्र संदेह नहीं है। लोक-संग्रह का अर्थ है, सुंदर और विशुद्ध नीतिमार्ग लोगों को दिखाना। काम-क्रोध से मुक्त हो जाने के कारण यदि पृथ्वी से मनुष्य का लोप हो जायेगा, तो वह मंगल पर उत्पन्न हो जायेगा। आप चिंता न करें। अव्यक्त परमात्मा सब जगह व्याप्त है। वह हमारी चिंता कर लेगा। अतः पहले हम मुक्त हो लें। आगे बहुत दूर देखने की जरूरत नहीं है। सारी सृष्टि और मानव जाति की चिंता मत करो। तुम अपनी नैतिक शक्ति बढ़ाओ। काम-क्रोध को पल्ला झाड़कर फेंक दो। आपुला तू गळा घेई उगवूनि- पहले अपना गला तो छुड़ा लो! तुम्हारी गर्दन जो फंसी है, पहले उसे बचाओं। इतना कर लो, तो भी काफी है।
24. संसार-समुद्र से दूर किनारे खड़े रहकर समुद्र की मौज देखने में आनंद है। जो समुद्र में डूब रहा है, जिसमी आंख-नाक में पानी भर रहा है, उसे समुद्र का क्या आनंद है? संत समुद्र-तट पर खड़े रहकर आनंद लूटते हैं। संसार से अलिप्त रहने की इस संत-वृत्ति का जीवन में संचार हुए बिना आनंद नहीं। अतः कमल-पत्र की तरह अलिप्त रहो। बुद्ध ने कहा है- ‘संत ऊँचें पर्वत के शिखर पर खड़े रहकर नीचे संसार की ओर देखते हैं, तब उन्हें संसार क्षुद्र मालूम होता है।’ आप भी ऊपर चढ़कर देखिए, तो फिर यह विशाल विस्तार क्षुद्र दिखायी देगा। फिर संसार में मन ही नहीं लगेगा। सारांश, भगवान ने इस अध्याय में आग्रहपूर्वक कहा है कि आसुरी संपत्ति को हटाकर दैवी संपत्ति प्राप्त करो। आइए, हम ऐसा ही यत्न करें ।