गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार

 75. प्रकृति का विश्लेषण

1.. भाइयो, आज का चौदहवां अध्याय एक अर्थ में पिछले अध्यायों का पूरक ही है। सच पूछो तो आत्मा को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। वह स्वयं पूर्ण है। हमारी आत्मा की गति स्वभावतः ही ऊर्ध्वगामी है; परंतु किसी वस्तु के साथ कोई भारी वजन बांध दिया जाता है, तब जैसे वह नीचे खिंचती चली जाती है, उसी तरह शरीर का यह बोझ आत्मा को नीचे खींच ले जाता है। पिछले अध्याय में हमने यह देखा कि किसी भी उपाय से यदि देह और आत्मा को हम पृथक कर सकें, तो हमारी प्रगति हो सकती है। यह बात भले ही कठिन हो, पर इसका फल महान है। आत्मा के पांव की यह देह रूपी बेड़ी यदि हम काट सकें, तो हमें भारी आनंद प्राप्त होगा। फिर मनुष्य देह के दुःख से दुःखी नहीं होगा। वह स्वतंत्र हो जायेगा। इस देह रूपी वस्तु को मनुष्य जीत ले, तो फिर संसार में कौन उस पर सत्ता चला सकता है? जो स्वयं पर राज्य करता है, वह विश्व का सम्राट हो जाता है। अतः आत्मा पर देह की जो सत्ता हो गयी है, उसे हटा दो। देह के ये जो सुख-दुःख है, सब विदेशी हैं। सब विजातीय हैं। आत्मा से उनका तिल मात्र भी संबंध नहीं है।

2. इस सब सुख-दुःखों को किस अंश तक देह से अलग किया जाये, इसकी कल्पना मैंने भगवान ईसा के उदाहरण द्वारा बतायी है। उन्होंने दिखा दिया कि देह टूट रही हो, फिर भी हम किस तरह शांत और आनंदमय रहें; परंतु इस तरह देह को आत्मा से अलग रखना जैसे एक ओर से विवेक का काम है, वैसे ही दूसरी ओर से वह निग्रह का भी काम है। विवेकासहित वैराग्याचें बळ, ‘विवेक के साथ वैराग्य का बल- ऐसा तुकाराम ने कहा है। विवेक और वैराग्य, दोनों बातों की जरूरत है। वैराग्य ही एक प्रकार से निग्रह, तितिक्षा है। इस चौदहवें अध्याय में निग्रह की दिशा दिखायी गयी है। नाव को खेने का काम डांड़ करते हैं, परंतु दिशा दिखाने का काम पतवार करती है। डांड़ और पतवार, दोनों चाहिए। उसी तरह देह के सुख-दुःख से आत्मा को अलग रखने के लिए विवेक और निग्रह, दोनों की आवश्यकता है।

3. वैद्य जिस तरह मनुष्य की प्रकृति देखकर दवा बताता है, उसी तरह भगवान ने चौदहवें अध्याय में संपूर्ण प्रकृति की परीक्षा करके, पृथक्करण करके, कौन-कौन सी बीमारियां हैं, यह बताया है। इसमें प्रकृति के ठीक-ठीक विभाग किये गये हैं। राजनीति-शास्त्र में विभाजन का एक बड़ा सूत्र है। जो शत्रु सामने है, उसके दल में यदि विभाजन किया जा सके, भेद डाला जा सके, तो वह शीघ्र पराजित किया जा सकता है। भगवान ने यहाँ ऐसा ही किया है।

मेरी, आपकी, सब जीवों की, सारे चराचर की जो प्रकृति है, उसमें तीन गुण हैं। जिस तरह आयुर्वेद में कफ, पित्त, वात है; उसी तरह यहाँ सत्त्व, रज, तम, ये तीन गुण प्रकृति में भरे हुए हैं। सब जगह इन्हीं तीन गुणों का मसाला भरा है। कहीं कम है, तो कहीं ज्यादा, इतना ही अंतर है। जब इन तीनों से आत्मा को अलग करेंगे, तभी देह से आत्मा को अलग किया जा सकेगा। देह से आत्मा को अलग करने का तरीका ही है, इन तीन गुणों की परीक्षा करके इन्हें जीत लेना। निग्रह के द्वारा एक-वस्तु को जीतकर अंत में मुख्य वस्तु तक जा पहुँचना है।

76. तमोगुण और उसका उपाय शरीर-श्रम

4. पहले हम तमोगुण को लें। वर्तमान समाज-स्थिति में हमें तमोगुण के बहुत ही भयानक परिणाम दिखायी देते हैं। इसका मुख्य परिणाम है, आलस्य। इसी में से फिर नींद और प्रमाद का जन्म होता है। इन तीन बातों को जीत लिया, तो फिर तमोगुण को जीत लिया ही समझो। इनमें आलस्य तो बड़ा ही भयंकर है। अच्छे-से-अच्छे आदमी भी आलस्य के कारण बिगड़ जाते हैं। समाज की सारी सुख-शांति को मिटा डालने वाला यह रिपु है। यह छोटे से लेकर बड़े तक, सबको बिगाड़ देता है। इस शत्रु ने सबको घेर रखा है। यह हम पर हावी होने के लिए घात लगाकर बैठा ही रहता है। जरा-सा मौका मिला कि भीतर घुसा। दो कौर ज्यादा खा लिये कि इसने लेटने को विवश किया। जहाँ ज्यादा लेटे कि आंखों से आलस्य टपका। जब तक इस आलस्य को न पछाड़ा, तब तक सब व्यर्थ है। परंतु हम तो आलस्य के लिए उत्सुक रहते हैं। इच्छा रहती है कि एक बार दिन-रात मेहनत करके रुपया इकट्ठा कर लें, फिर सारी जिंदगी चैन से कटे। बहुत रुपये कमाने का अर्थ है, आगे के लिए आलस्य की तैयारी कर रखना। हम लोग आमतौर पर मानते हैं कि बुढ़ापे में आराम मिलना ही चाहिए; परंतु यह धारणा गलत है। यदि हम जीवन में ठीक तरह से रहें, तो बुढ़ापे में भी काम करते रहेंगे। बल्कि अधिक अनुभवी हो जाने से बुढ़ापे में ज्यादा उपयोगी साबित होंगे। लेकिन उसी समय, कहते हैं कि आराम करेंगे।

5. ऐसी सावधानी रखनी चाहिए कि जिससे आलस्य को जरा-सा भी मौका न मिले। नल राजा इतना महान! परंतु पांव धोते हुए जरा-सा हिस्सा सूखा रह गया, तो कहते हैं कि उसी में से कलि भीतर पैठ गया! नल राजा था तो अत्यंत शुद्ध, सब तरह से स्वच्छ, परंतु जरा-सा शरीर सूखा रह गया, इतना आलस्य रह गया, तो फौरन ‘कलि भीतर घुस गया। हमारा तो सारा-का-सारा शरीर खुला पड़ा है। कहीं से भी आलस्य हमारे अंदर घुस सकता है। शरीर अलसाया कि मन-बुद्धि भी अलसाने लगती है। आज के समाज की रचना इस आलस्य पर ही खड़ी है। इससे अनंत दुःख उत्पन्न हो गये हैं। यदि हम इस आलस्य को निकाल सकें तो सब न सही पर बहुत-से दुःखों को तो अवश्य ही हम दूर कर सकेंगे।

6. आजकल चारों ओर समाज-सुधार की चर्चा चलती है। साधारण आदमी को भी कम-से-कम इतना सुख मिलना चाहिए और इसके लिए अमुक तरह की समाज-रचना होनी चाहिए, आदि चर्चा चलती है। एक ओर अतिशय सुख है, तो दूसरी ओर अतिशय दुःख। एक ओर संपत्ति का ढेर, तो दूसरी ओर दरिद्रता की गहरी खाई। यह सामाजिक विषमता कैसे दूर हो? सभी आवश्यक सुख सहज रूप से प्राप्त करने का एक ही उपाय है और वह है आलस्य छोड़कर सब श्रम करने को तैयार हों। मुख्य दुःख हमारे आलस्य के ही कारण है। यदि सब लोग शारीरिक श्रम का निश्चय कर लें, तो बहुत-से दुःख दूर हो जायेंगे।

परंतु आज समाज में हमें क्या दीखता है? एक ओर जंग चढ़कर निरुपयोगी बने हुए लोग हैं। श्रीमानों की इंद्रियां जंग खा रही हैं। उनके शरीर का उपयोग ही नहीं किया जा रहा। दूसरी ओर इतना काम करना पड़ रहा है कि सारा शरीर घिस-घिसकर गल गया है। सारे समाज में शारीरिक श्रम से बचने की प्रवृत्ति है। जो मर-पचकर काम करते हैं, वे खुशी-खुशी ऐसा नहीं करते। छुटकारा नहीं है, इसलिए करते हैं। पढ़े-लिखे समझदार लोग श्रम से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं। कोई कहते हैं- ‘व्यर्थ क्यों शारीरिक श्रम में समय गंवायें?, परंतु कोई ऐसा नही कहता- ‘यह नींद क्यों लें?, 'भोजन में समय क्यों नष्ट करें?', भूख लगती है, तो खाते हैं। नींद आती है, तो सो जाते हैं। परंतु जब शारीरिक श्रम का प्रश्न आता है, तभी हम कहते हैं- 'व्यर्थ क्यों अपना समय नष्ट करें? हम क्यों यह काम करें, क्यों हम अपने शरीर को इतने कष्ट में डालें? हम मानसिक श्रम तो कर ही लेते हैं!' भले आदमी! यदि मानसिक काम करते हैं, तो फिर खाना भी मानसिक खा लीजिए और नींद भी मानसिक ले लीजिए! मनोमय नींद और मनोमय भोजन करने की योजना बना लीजिए न!

7. इस तरह समाज में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे, जो दिन-रात पिसते-मरते हैं और दूसरे वे, जो हाथ तक नहीं हिलाते। मेरे एक मित्र ने एक दिन कहा- 'कुछ रुंड हैं, तो कुछ मुंड।', एक ओर धड़ है, दूसरी ओर सिर। धड़ सिर्फ खपता है, सिर सिर्फ विचार करता है। इस तरह समाज में ये राहु-केतु, रुंड और मुंड, ऐसे दो प्रकार हो गये हैं। परंतु यदि सचमुच ही ये रुंड-मुंड होते, तो अच्छा होता। तब अंध-पंगु-न्याय से ही कोई व्यवस्था हो सकती थी। अंधे को लंगड़ा रास्ता दिखाता, लंगड़े को अंधा कंधे पर बैठाता। परंतु यहाँ केवल रुंड के अथवा केवल मुंड के अलग-अलग गुट नहीं हैं। प्रत्येक में रुंड और मुंड दोनों हैं। ये जुड़े रुंड-मुंड सब जगह हैं। तब क्या करें? उपाय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति आलस्य छोड़ दे।

8. आलस्य छोड़ने के लिए शारीरिक श्रम करना चाहिए। आलस्य को जीतने का यही एक उपाय है। यदि शरीर से काम न लिया गया, तो इसकी सजा भी प्रकृति की ओर से मिले बिना नहीं रहेगी। बीमारियों के या किसी और कष्ट के रूप में वह सजा भोगनी ही पड़ेगी। जबकि हमें शरीर मिला है, तो श्रम करना ही होगा। शरीर-श्रम में जो समय लगता है, वह व्यर्थ नहीं जाता। इसका पुरस्कार अवश्य मिलता है। उत्तम आरोग्य प्राप्त होता है। बुद्धि सतेज, तीव्र और शुद्ध होती है। कई विचारकों के विचारों में भी उनके पेट-दर्द और सिर-दर्द का प्रतिबिंब प्रकट होता है। विचारशील लोग यदि धूप में, खुली हवा में, सृष्टि के सान्निध्य में श्रम करेंगे, तो उनके विचार भी तेजस्वी बनेंगे। शारीरिक रोग का जैसे मन पर असर होता है, वैसे ही शारीरिक आरोग्य भी होता है, यह अनुभव सिद्ध है। बाद में क्षय रोग होने पर कहीं पहाड़ पर शुद्ध हवा में जाने या सूर्य-किरणों का प्रयोग करने के पहले ही यदि बाहर कुदाली लेकर खोदने, बाग में पेड़ों को पानी देने और लकड़ी चीरने का काम करें, तो क्या बुरा है?

77. तमोगुण का एक और उपाय

9. पहली बात है आलस्य जीतना; दूसरी बात है नींद जीतना। नींद वस्तुतः पवित्र वस्तु है। सेवा करके थके हुए साधु-संतों की नींद एक योग ही है। इस प्रकार की शांत गहरी नींद परम भाग्यवानों को ही मिलती है। नींद गहरी, गाढ़ी होनी चाहिए। नींद का महत्त्व लंबाई-चौड़ाई पर नहीं है। बिछौना कितना लंबा था और उस पर मनुष्य कितनी देर पड़ा रहा, इस बात पर नींद अवलंबित नहीं है। कुआं जितना गहरा होगा, उतना ही उसका पानी अधिक साफ और मीठा होगा। उसी तरह नींद चाहे थोड़ी हो, पर यदि गहरी हो, तो उससे बड़ा काम बनता है। मन लगा कर किया आधा घंटे का अध्ययन, चंचलता से किये गये तीन घंटे के अध्ययन से ज्यादा फलदायी होता है। यही बात नींद की है। लंबी नींद अंत में हितकर ही होती है, ऐसा नहीं कह सकते। बीमार चौबीसों घंटे बिस्तर पर पड़ा रहता है। बिस्तर की और उसकी लगातर भेंट है; लेकिन नींद से भेंट ही नहीं। सच्ची नींद वह, जो गहरी और निःस्वप्न हो। मरने पर यम-यातना जो कुछ होती हो सो हो, परंतु जिसे नींद अच्छी नहीं आती, दुःस्वप्न आते रहते हैं, उसकी यातना का हाल मत पूछिए। वेद में ऋषि त्रस्त होकर कहते हैं- 'परा दुःस्वप्न्यं सुव।' ‘ऐसी दुष्ट नींद मुझे नहीं चाहिए, नहीं चाहिए। नींद आराम के लिए होती है, परंतु यदि उसमें भी तरह-तरह के स्वप्न और विचार पिंड न छोड़ते हों, तो आराम कहां?

10. तो, गहरी और गाढ़ी नींद आये कैसे? जो उपाय आलस्य के लिए बताया है, वही नींद के लिए भी है। शरीर से सतत काम लेते रहना चाहिए। फिर बिछौने पर जाते ही मनुष्य मुर्दे की तरह पड़ेगा। नींद एक छोटी-सी मृत्यु ही है। ऐसी सुंदर मृत्यु आने के लिए दिन में पूर्व तैयारी अच्छी होनी चाहिए। शरीर थककर चूर हो जाना चाहिए। अंग्रेज कवि शेक्सपियर ने कहा है- ‘राजा के सिर पर तो मुकुट है, परंतु सिर में चिंता है! राजा को नींद नहीं आती। उसका एक कारण यह है कि वह शारीरिक श्रम नहीं करता। जागने के समय जो सोता है, वह सोने के समय जागता रहेगा। दिन में बुद्धि और शरीर का उपयोग न करना, नींद नहीं तो क्या है? फिर नींद के समय बुद्धि विचार करती फिरती है और शरीर भी वास्तविक निद्रा-सुख नहीं पाता। तब देर तक सोते पड़े रहते हैं। जिस जीवन में परम पुरुषार्थ साधना है, उसे यदि नींद ने खा डाला, तो पुरुषार्थ कब किया जायेगा? आधा जीवन यदि नींद में ही चला गया, तो फिर क्या प्राप्त कर सकेंगे?

11. जब बहुत-सा समय नींद में ही चला जाता है, तो फिर तमोगुण का तीसरा दोष- ‘प्रमाद सहज ही होने लगता है। निद्रालु मनुष्य का चित्त दक्ष और सावधान नहीं रह सकता। उससे अनवधान उत्पन्न होता है। अधिक नींद से फिर आलस्य बढ़ता है और आलस्य से विस्मृति। विस्मृति परमार्थ के लिए नाशक हो जाती है। व्यवहार में भी विस्मृति से हानि होती है; परंतु हमारे समाज में तो विस्मृति एक स्वाभाविक बात बन बैठी है। विस्मृति कोई बड़ा दोष है, ऐसा किसी को लगता ही नहीं। किसी से मिलने का समय निश्चित करते हैं, परंतु समय पर जाते नहीं। पूछने पर कहते हैं- ‘अरे भाई, मैं तो भूल ही गया।' कहने वाले को भी कोई बड़ी भूल हो गयी है, ऐसा नहीं लगता और सुनने वाला भी संतुष्ट हो जाता है। विस्मरण का कोई इलाज ही नहीं है, ऐसा लोगों का ख्याल बना हुआ-सा दीखता हैं परंतु यह गफलत परमार्थ में भी हानिकर है और सांसारिक जीवन में भी। वास्तव में विस्मरण एक बड़ा रोग है। उससे बुद्धि में घुन लग जाती है। जीवन खोखला हो जाता है।

12. मन का आलस्य विस्मरण का कारण है। मन यदि जागृत रहे, तो वह भूलेगा नहीं। लेटे रहने वाले मन को विस्मरण रूपी बीमारी हुए बिना नहीं रहती। इसीलिए भगवान बुद्ध कहते हैं- 'पमादो मच्चुनो पदम्'- ‘प्रमाद, विस्मरण, मृत्यु ही है।' इस प्रमाद पर विजय पाने के लिए आलस्य और निद्रा को जीतिए। शरीर-श्रम कीजिए और सतत सावधान रहिए। जो-जो काम करेंगे, विचारपूर्वक करिए, यों ही बिना विचारे कोई काम नहीं होना चाहिए, कृति के पहले विचार, बाद में भी विचार। आगे-पीछे सर्वत्र विचार रूपी परमेश्वर खड़ा रहना चाहिए। जब ऐसी आदत डाल लेंगे तो फिर अनवधानरूपी रोग दूर हो जायेगा। सारे समय को ठीक तौर से बांधे रखिए। एक-एक क्षण का हिसाब रखिए, तो फिर आलस्य को घुसने की जगह नहीं रहेगी। इस रीति से सारे तमोगुण को जीतने का प्रयत्न करना चाहिए।

78. रजोगुण और उसका उपाय स्वधर्म-मर्यादा

13. इसके उपरांत रजोगुण से मोर्चा लेना है। रजोगुण भी एक भयानक शत्रु है। तमोगुण का ही दूसरा पहलू है, बल्कि यही कहना चाहिए कि दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। जब शरीर बहुत सो चुकता है, तो वह हलचल करने लगता है और जब शरीर बहुत दौड़-धूप कर चुकता है, तब बिस्तर पर पड़ना चाहता है। तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से तमोगुण पैदा होता है। जहाँ एक है, वहाँ दूसरा आया ही समझिए, जिस तरह रोटी आग और गरम राख के बीच फंस जाती है, उसी तरह मनुष्य के आगे-पीछे ये रजोगुण-तमोगुण लगे ही रहते हैं। रजोगुण कहता है- ‘इधर आ, तुझे तमोगुण की तरफ उड़ाऊं।' तमोगुण कहता है- ‘मेरी तरफ आ, तुझे रजोगुण की ओर फेंकता हूँ।' इस प्रकार ये रजोगुण और तमोगुण परस्पर सहायक होकर मनुष्य का नाश कर डालते हैं। फुटबॉल का जन्म जैसे ठोकरें खाने के लिए है, वैसे ही मनुष्य का जीवन रजोगुण और तमोगुण की ठोकरें खाने में ही बीतता है।

14. रजोगुण का प्रधान लक्षण है- नाना प्रकार के काम करने की लालसा, प्रचंड कर्म करने की अपार आसक्ति। रजोगुण के द्वारा अपरंपार कर्म-संग चिपकता है। लोभात्मक कर्मासक्ति उत्पन्न होती है। फिर वासना-विकारों का वेग काबू में नहीं रह पाता। इधर का पहाड़ उठाकर उधर का गड्ढा भर डालने की इच्छा होती है। समुद्र में मिट्टी डालकर उसे पाटने और उधर सहारा के रेगिसतान में पानी भरकर समुद्र बनाने की प्रेरणा होती है। इधर स्वेज नहर खोदूं, उधर पनामा नहर बनाऊं, ऐसी उधेड़-बुन शुरू होती है। जोड़-तोड़ के सिवा चैन नहीं पड़ता। छोटा बच्चा जैसे कपडों की धज्जी को लेकर उसे फाड़ता है, फिर कुछ बनाता है, ऐसी ही यह क्रिया है। इसमें वह मिलाओ, उसमें यह मिलाओ; उसे डुबाओ, इसे उड़ाओ, ऐसे ये अनंत खेल रजोगुण के होते हैं। पक्षी आकाश में उड़ता है, हम भी आकाश में क्यों न उड़ें? मछली पानी में रहती है, हम भी पनडुब्बी बनाकर जल में क्यों न रहें? इस तरह, नर-देह में आकर पक्षियों और मछलियों की बराबरी करने में उसे कृतार्थता मालूम होती है।

परकाया-प्रवेश की तथा दूसरी देहों के आश्चर्यों का अनुभव करने की हवस उसे नर-देह में सूझती है। कोई कहता है- ‘चलो, मंगल की सैर कर आयें और वहाँ की आबादी देख आयें चित्त सतत भ्रमण करता रहता है, मानो अनेक वासनाओं का भूत ही हमारे शरीर में बैठ गया है। जो जहाँ है, वह वहाँ देखा ही नहीं जाता। उथल-पुथल होनी चाहिए। उसे लगता है- मैं इतना बड़ा मनुष्य, मेरे जीवित रहते यह सृष्टि जैसी-की-तैसी कैसे रहे? किसी पहलवान के शरीर में मस्ती चढ़ती है। उसे उतारने के लिए वह कभी दीवार से टक्कर लेता है, तो कभी पेड़ को धक्का मारता है। रजोगुण की ऐसी ही ऊर्मियां होती हैं। इनके प्रभाव में आकर मनुष्य धरती को गहरा खोदता है; उसके पेट में से कुछ पत्थर निकालता है और उन्हें वह हीरा, माणिक, जवाहर नाम देता है। इसी तरह उमंग के वशीभूत होकर वह समुद्र में गोता लगाता है और उसकी तली का कूड़ा-करकट ऊपर लाकर उसे ‘मोती नाम देता है। मोती में छेद नहीं होता, फिर उसमें छेद करता है। अब ये मोती पहने कहां? तो सुनार से नाक-कान छिदवाता है। मनुष्य यह सब उखाड़-पछाड़ क्यों करता है? यह सारा रजोगुण प्रभाव है।

15. रजोगुण का दूसरा परिणाम यह होता है कि मनुष्य में स्थिरता नहीं रहती। रजोगुण तत्काल फल चाहता है। अतः जरा-सी विघ्नबाधा आते ही वह अंगीकृत मार्ग छोड़ देता है। रजोगुणी मनुष्य सतत इसे ले, उसे छोड़, ऐसे करता रहता है। उसका चुनाव रोज बदलता रहता है। इसका परिणाम यही होता है कि अंत में पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता। राजसं चलमध्रुवम्- रजोगुण की सारी कृति चंचल और अनिश्चित रहती है। छोटे बच्चे गेहूँ बोते हैं और तुरंत खोदकर देखते हैं। वैसा ही हाल रजोगुणी मनुष्य का होता है। झटपट सबकुछ उसके पल्ले पड़ना चाहिए। वह अधीर हो उठता है। संयम खो देता है। एक जगह पांव जमाना वह जानता ही नहीं। यहाँ जरा-सा काम किया, वहाँ कुछ प्रसिद्धि हुई कि चला दूसरी जगह। आज मद्रास में मानपत्र, कल कलकत्ते में और परसों बंबई-नागपुर में! सभी म्युनिसिपैलिटियों से मानपत्र पाने की उसे लालसा रहती है। सन्मान यह एक ही चीज उसे दीखती है। एक जगह जमकर काम करने की उसे आदत ही नहीं होती। इससे रजोगुणी मनुष्य की स्थिति बड़ी भयानक होती है।

16 रजोगुण के प्रभाव से मनुष्य विविध धंधों, कार्यों में टांग अड़ाता रहता है। उसे स्वधर्म नहीं रहता। वास्तविक स्वधर्माचरण का अर्थ है, अन्य बहुतेरे कार्यों का त्याग। गीता का कर्मयोग रजोगुण का रामबाण उपाय है। रजोगुण में सब कुछ चंचल है। पर्वत के शिखर पर से गिरने वाला पानी यदि विविध दिशाओं में बहने लगे, तो फिर वह कहीं का नहीं रहता। सारा-का-सारा बिखरकर बेकार हो जाता है। परंतु वही यदि एक दिशा में बहेगा, तो आगे चलकर उसकी एक नदी बन जायेगी। उसमें से शक्ति उत्पन्न होगी। देश को उससे लाभ पहुँचेगा। इसी तरह मनुष्य यदि अपनी शक्ति विविध उद्योगों में न लगाकर उसे एकत्र करके एक ही कार्य में सुव्यवस्थित रूप से लगाये, तो उसके हाथ से कुछ कार्य हो सकेगा। इसलिए स्वधर्म का महत्त्व है।

 स्वधर्म का सतत चिंतन करके उसी में सारी शक्ति लगानी चाहिए। दूसरी बात की ओर ध्यान ही न जाने पाये। यही स्वधर्म की कसौटी है। कर्मयोग यानि कोई बड़ा प्रचंड कर्म नहीं। केवल बहुत कर्म करना भी कर्मयोग नहीं है। गीता का कर्मयोग कुछ और ही चीज है। उसकी विशेषता है कि फल की ओर ध्यान न देते हुए केवल स्वभाव-प्राप्त अपरिहार्य स्वधर्म का पालन करना और उसके द्वारा चित्त-शुद्धि करते रहना। यों तो सृष्टि में सतत कर्म-कलाप होता ही रहता है। कर्मयोग का अर्थ है, विशिष्ट मनोवृत्ति से समस्त कर्म करना। हम देखते ही हैं कि अनाज बोने से कितना फल मिलता है और यों ही उसे फेंक देने से कितना नुकसान होता है। गीता जिस कर्म का उपदेश देती है, वह बुआई की तरह है। ऐसे स्वधर्म रूप कर्तव्य में असीम शक्ति रहती है। वहाँ सभी परिश्रम अधूरे पड़ते हैं। अतः उसमें भारी दौड़-धूप के लिए कोई अवसर ही नहीं रहता।

79. स्वधर्म का निश्चय कैसे करें?

17. ‘यह स्वधर्म निश्चित कैसे किया जाये?’- ऐसा कोई प्रश्न करे, तो उसका उत्तर है- ‘वह स्वाभाविक होता है। स्वधर्म सहज होता है। उसे खोजने की कल्पना ही विचित्र मालूम होती है। मनुष्य के जन्म के साथ ही उसका स्वधर्म भी जनमा है। बच्चे के लिए जैसे उसकी मां खोजनी नहीं पड़ती, वैसे ही स्वधर्म भी किसी को खोजना नहीं पड़ता। वह तो पहले से ही प्राप्त है। हमारे जन्म के पहले भी दुनिया थी, हमारे बाद भी वह रहेगी। हमारे पीछे भी एक बड़ा प्रवाह था और आगे भी वह है ही- ऐसे प्रवाह में हमारा जन्म हुआ है। जिन मां-बाप के यहाँ मैंने जन्म लिया है, उनकी सेवा; जिन पास-पड़ोसियों के बीच जनमा हूं, उनकी सेवा- ये कर्म मुझे निसर्गतः ही मिले हैं। फिर मेरी वृत्तियां तो मेरे नित्य अनुभव की ही हैं न? मुझे भूख लगती है, प्यास लगती है; अतः भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, यह धर्म मुझे सहज ही प्राप्त हो गया। इस प्रकार यह सेवा रूप, भूतदया रूप स्वधर्म हमें खोजना नहीं पड़ता। जहाँ कहीं स्वधर्म की खोज हो रही हो, वहाँ निश्चित समझ लेना चाहिए कि कुछ-न-कुछ परधर्म अथवा अधर्म हो रहा है।

सेवक को सेवा खोजने कहीं जाना नहीं पड़ता। वह खुद होकर उसके पास आ जाती है। परंतु एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जो अनायास प्राप्त हो, वह सदा धर्म्य ही होता है, ऐसी बात नहीं हैं। कोई किसान रात को मुझसे कहे- 'चलो, वह बाड़ चार-पांच हाथ आगे हटा दें। मेरा खेत बढ़ जायेगा। अभी कोई है नहीं, बिना शोरगुल के सब काम हो जायेगा!’ यद्यपि यह काम मुझे अपना पड़ोसी बता रहा है और यह सहज प्राप्त-सा भी दीखता है, तो भी असत्य होने के कारण वह मेरा कर्तव्य नहीं ठहरता।

18. चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था जो मुझे अच्छी लगती है, उसका कारण यही है कि उसमें स्वाभाविकता और धर्म दोनों हैं। इस स्वधर्म को टालने से काम नहीं चल सकता। जो मां-बाप मुझे प्राप्त हुए हैं, वे ही मेरे मां-बाप रहेंगे। यदि मै कहूँ कि वे मुझे पसंद नहीं हैं, तो कैसे काम चलेगा? माता-पिता का व्यवसाय स्वभावतः ही लड़के को विरासत में मिलता है। जो व्यवसाय वंश-परंपरा से चला आया है वह यदि नीति-विरुद्ध न हो तो उसी को करना, उसी उद्योग को आगे चलाना, चातुर्वर्ण्य की एक बड़ी विशेषता है। यह वर्ण-व्यवस्था आज अस्त-व्यस्त हो गयी है। उसका पालन आज बहुत कठिन हो गया है, परंतु यदि वह फिर से सुव्यवस्थित स्थापित की जा सके, तो बहुत अच्छा होगा।

आज शुरू के पच्चीस-तीस साल तो नये धंधे सीखने में ही चले जाते हैं। काम सीख लेने पर फिर मनुष्य अपने लिए सेवा-क्षेत्र, कार्य-क्षेत्र खोजता है। इस तरह शुरू के पच्चीस साल तो वह सीखता ही रहता है। इस शिक्षा का उसके जीवन से कोई संबंध नहीं रहता। कहते हैं, वह भावी जीवन की तैयारी कर रहा है। शिक्षा प्राप्त करते समय मानो वह जीता ही न हो! कहते हैं, पहले सब सीखना और बाद में जीना। मानो जीना और सीखना, ये दोनों चीजें अलग-अलग कर दी गयी हों। जिसका जीने के साथ संबंध नहीं, उसे मरना ही तो कहेंगे। हिंदुस्तान की औसत उम्र तेईस साल है और पच्चीस साल तक तो वह तैयारी ही करता रहता है। इस तरह नया काम-धंधा सीखने में ही दिन चले जाते हैं, फिर कहीं काम-धंधा शुरू होता है। इससे उमंग और महत्त्व के वर्ष व्यर्थ चले जाते हैं। जो उत्साह, जो उमंग जनसेवा में खर्च करके जीवन सार्थक किया जा सकता है, वह यों ही व्यर्थ चला जाता है। जीवन कोई खेल नहीं है। पर दुःख की बात है कि जीवन का पहला अमूल्य अंश तो जीवन का काम-धंधा खोजने में ही चला जाता है। हिंदू-धर्म ने इसीलिए वर्णधर्म की युक्ति निकाली है।

19. चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था को एक ओर रख दें, तो भी सभी राष्ट्रों में सर्वत्र जहाँ यह व्यवस्था नहीं है वहाँ भी, स्वधर्म सबको प्राप्त ही है। हम सब एक प्रवाह में किसी एक परिस्थिति को साथ लेकर जनमे हैं, इसीलिए स्वधर्माचरणरूपी कर्तव्य स्वतः ही हमें प्राप्त रहता है। अतः जो दूरवर्ती कर्तव्य हैं- जिन्हें वास्तव में कर्तव्य कहना ठीक नहीं वे कितने ही अच्छे दिखायी देने पर भी ग्रहण नहीं करने चाहिए। बहुत बार दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। मनुष्य दूर की बातों पर लट्टू हो जाता है। मनुष्य जहाँ खड़ा है, वहाँ भी गहरा कुहरा फैला रहता है, परंतु पास का घना कुहरा उसे नहीं दीखता। वह दूर अंगुली बताकर कहता है- ‘वहाँ घना कुहरा फैला है। उधर का मनुष्य इसकी ओर अंगुली बताकर कहता है- ’उधर कुहरा घना है। कुहरा सब जगह है, परंतु पास का दिखायी नहीं देता। मनुष्य को दूर का आकर्षण रहता है। निकट का कोने में पड़ा रहता है और दूर का स्वप्न में दीखता है। परंतु यह मोह है। इसे छोड़ना ही चाहिए। प्राप्त स्वधर्म यदि साधारण हो, घटिया हो, नीरस लगता हो, तो भी जो मुझे प्राप्त है, वही अच्छा है। वही मेरे लिए सुंदर है। जो मनुष्य समुद्र में डूब रहा हो, उसे कोई टेढ़ा-मेढ़ा और भद्दा सा लकड़ी का टुकड़ा मिले, पॉलिश किया हुआ चिकना और सुंदर न मिले, तो भी वही तारने वाला है। बढ़ई के कारखाने में बहुत-से बढ़िया चिकने और बेल-बूटेदार टुकड़े पड़े होंगे, परंतु वे तो कारखाने में और यह यहाँ समुद्र में डूब रहा है! अतएव वह बेढंगा लकड़ी का टुकड़ा ही उसका तारक है, उसी को उसे पकड़ लेना चाहिए। इसी तरह जो सेवा मुझे प्राप्त हुई है, गौण मालूम होने पर भी वही मेरे काम की है। उसी में मग्न हो जाना मुझे शोभा देता है। उसी में मेरा उद्धार है।  यदि मैं दूसरी सेवा खोजने के चक्कर में पड़ूंगा, तो पहली सेवा भी जायेगी और दूसरी भी। इससे मनुष्य सेवा-वृत्ति से दूर भटक जाता है। अतः स्वधर्मरूप कर्तव्य में ही मग्न रहना चाहिए।

20. जब हम स्वधर्म में मग्न रहने लगते हैं, तो रजोगुण फीका पड़ जाता है, क्योंकि तब चित्त एकाग्र होता है और वह स्वधर्म छोड़कर कहीं जाता ही नहीं। इससे चंचल रजोगुण का सारा जोर ही ढीला पड़ जाता है। नदी जब शांत और गहरी होती है, तो कितना ही पानी उसमें बढ़ जाये, तो भी वह उसे अपने पेट में समा लेती है। इसी तरह स्वधर्मरूपी नदी मनुष्य का सारा बल, सारा वेग, सारी शक्ति अपने भीतर समा ले सकती है। स्वधर्म में जितनी शक्ति लगाओगे, उतनी कम ही है। स्वधर्म में आप शक्ति-सर्वस्व लगा दोगे, तो फिर रजोगुण की दौड़-धूपवाली वृत्ति समाप्त हो जायेगी। मानो चंचलता का डंक ही कुचल दिया। यह रीति है रजोगुण को जीतने की।

80. सत्त्वगुण और उसका उपाय

21. अब रहा सत्त्वगुण। इससे बहुत संभलकर बरतना चाहिए। इससे आत्मा को अलग कैसे करें? बड़े सूक्ष्म विचार की यह बात है। सत्त्वगुण को पूर्णतः निर्मूल नहीं करना है। रज-तम का तो पूर्ण उच्छेद ही करना पड़ता है। परंतु सत्त्व गुण की भूमिका कुछ अलग है। जब बहुत भीड़ इकट्ठी हो गयी हो और उसे तितर-बितर करना हो, तो सिपाहियों को हुक्म दिया जाता है कि कमर के ऊपर नहीं, पांव की तरफ गोलियां चलाओ। इससे मनुष्य मरता नहीं, घायल हो जाता है। इसी तरह सत्त्वगुण को घायल कर देना है, मार नहीं डालना है। रजोगुण और तमोगुण के चले जाने पर शुद्ध सत्त्वगुण रह जाता है। जब तक हमारा शरीर कायम है, तब तक हमें किसी-न-किसी भूमिका में रहना ही पड़ेगा। तो फिर रज-तम के चले जाने पर जो सत्त्वगुण रहेगा, उससे अलग रहने का अर्थ क्या है?

सत्त्वगुण का अभिमान हो जाता है। वह अभिमान आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप से नीचे खींच लाता है। लालटेन का प्रकाश स्वच्छ रूप में बाहर फैलाना हो तो उसके अंदर की सारी कालिख पोंछ देनी पड़ती है। यदि कांच पर धूल जम गयी हो, तो वह भी धो डालनी पड़ती है। इसी तरह आत्मा की प्रभा के आसपास जो तमोगुणरूपी कालिख जमा रहती है, उसे अच्छी तरह दूर करना चाहिए। उसके बाद रजोगुणरूपी धूल को भी साफ कर देना है। इस तरह जब तमोगुण धो डाला, रजोगुण को साफ कर डाला तो अब सत्त्वगुण रूपी कांच बाकी रह गया। इस सत्त्वगुण को भी दूर करने का अर्थ क्या यह है कि हम कांच को भी फोड़ डालें? नहीं! यदि कांच ही फोड़ डालेंगे तो फिर प्रकाश का कार्य नहीं होगा। ज्योति का प्रकाश फैलाने के लिए कांच तो चाहिए ही। अतः इस शुद्ध चमकदार कांच को फोड़े तो नहीं, परंतु एक ऐसा छोटा-सा कागज का टुकड़ा उसके सामने जरूर लगा दें, जिससे आंखें चकाचौंध न हो जायें। सिर्फ आंखों को चकाचौंध न होने देने की जरूरत है। सत्त्वगुण पर विजय पाने का अर्थ यह है कि उसके प्रति हमारा अभिमान, हमारी आसक्ति हट जाये। सत्त्वगुण से काम तो लेना है, परंतु सावधानी से और युक्ति से। सत्त्वगुण को निरहंकारी बना देना चाहिए।

22. इस सत्त्वगुण के अहंकार को जीता कैसे जाये? इसका एक उपाय है- सत्त्वगुण को हम अपने अंदर स्थिर कर लें। सातत्य से उसका अभिमान चला जाता है। सत्त्वगुण युक्त कर्मो को ही हम सतत करते रहें। उसे अपना स्वभाव ही बना लें। सत्त्वगुण हमारे यहाँ घड़ी भर के लिए आया हुआ मेहमान ही न रहे, बल्कि वह घर का आदमी बन जाये। जो क्रिया कभी-कभी हमसे होती है, उसका हमें अभिमान होता है। हम रोज सोते हैं, परंतु उसको दूसरों से कहते नहीं फिरते। लेकिन किसी बीमार को पंद्रह दिन नींद न आयी हो और फिर जरा-सी नींद आ जाये, तो वह सबसे कहता है- ‘कल तो भाई थोड़ी नींद आयी। उसे वह बात महत्त्वपूर्ण मालूम होती है। इससे भी अच्छा उदाहरण हम श्वासोच्छवास की क्रिया का ले सकते हैं। सांस हम चौबीसों घंटे लेते हैं, परन्तु हर किसी से उसका जिक़्र नहीं करते। कोई यह डींग नहीं मारता कि ‘मैं एक सांस लेने वाला महान प्राणी हूँ। हरिद्वार से गंगा में फेंका तिनका यदि बहता-बहता डेढ़ हजार मील दूर कलकत्ता में पहुँच जाये, तो क्या वह उस पर गर्व करेगा? वह तो धारा के साथ सहज रूप से बहता चला आया। परंतु यदि कोई बाढ़ की उलटी धारा में दस-बीस हाथ तैर गया, तो वह कितनी शेखी बघारेगा! सारांश यह कि जो बात स्वाभाविक होती है, उसका हमें अहंकार नहीं होता।

23. कोई एकाध अच्छा काम हमारे हाथ से हो जाता है, तो हमें उसका अभिमान मालूम होता है। क्यों? इसलिए कि वह बात सहज रूप से नहीं हुई। मुन्ना के हाथ से कोई काम अच्छा हो जाये, तो मां उसकी पीठ पर हाथ फेरती है। वरना यों तो मां की छड़ी से ही हमेशा उसकी पीठ की भेंट होती है। रात के घने अंधकार में एकाध जुगनू हो, तो फिर देखिए उसकी ऐंठ! वह एकबारगी अपनी सारी चमक नहीं दिखाता। बीच में लुक-लुक करता है, फिर रुकता है, फिर लुक-लुक करता है। वह प्रकाश की आंखमिचौनी खेलता है। परंतु उसका प्रकाश यदि सतत रहने लगे, तो फिर उसकी ऐंठ नहीं रहेगी। सातत्य के कारण विशेषता मालूम नहीं होती। इस तरह सत्त्वगुण यदि हमारी क्रियाओं में सतत प्रकट होने लगे, तो फिर वह हमारा स्वभाव हो जायेगा। सिंह को अपने शौर्य का अभिमान नहीं रहता, उसे उसका भान भी नहीं रहता। इसी तरह अपनी सात्त्विक वृत्ति को इतनी सहज हो जाने दो कि हम सात्त्विक हैं, इसकी स्मृति भी हमें न होने पाये। प्रकाश देना सूर्य की नैसर्गिक क्रिया है। उसका सूर्य को कोई अभिमान नहीं रहता। उसके लिए यदि कोई सूर्य को मानपत्र देने जाये, तो वह कहेगा- ‘इसमें मैंने विशेष क्या किया? मैं प्रकाश देता हूं, तो अधिक क्या करता हूं? प्रकाश देना ही मेरा जीवन है। प्रकाश न दूं, तो मैं मर जाऊंगा। मैं दूसरी कोई चीज जानता ही नहीं। ऐसी ही स्थिति सात्त्विक मनुष्य की हो जानी चाहिए। सत्त्वगुण का ऐसा स्वभाव ही बन जाये, तो हमें उसका अभिमान नहीं होगा। सत्त्वगुण को निस्तेज करने की, उसे जीतने की यह एक युक्ति हुई।

24. दूसरी युक्ति है, सत्त्वगुण की आसक्ति भी छोड़ देना। अहंकार और आसक्ति , ये दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं। यह भेद जरा सूक्ष्म है। दृष्टांत से जल्दी समझ में आ जायेगा। सत्त्वगुण का अहंकार चला जाने पर भी आसक्ति रह जाती है। श्वासोच्छ्वास का ही उदाहरण लें। सांस लेने का अभिमान तो नहीं होता, परंतु उसमें बड़ी आसक्ति रहती है। यदि कहो कि पांच मिनट तक सांस रोके रहो, तो नहीं बनता। नाक को श्वासोच्छ्वास का अभिमान भले ही न हो, परंतु वह हवा बराबर लेती रहती है। सुकरात की एक मजेदार कहानी है। उसकी नाक थी फूली हुई। अतः लोग उसे देखकर हंसा करते। परंतु हंसोड़ सुकरात कहता- ‘मेरी ही नाक सुंदर हैं। जिस नाक के नासापुट बड़े हों, वह भरपूर हवा ले सकती है और इसलिए वही सबसे सुंदर है। तात्पर्य यह कि नाक को श्वासोच्छ्वास का अभिमान तो नहीं पर आसक्ति है। सत्त्वगुण के प्रति भी इसी तरह आसक्ति हो जाती है। जैसे भूतदया। यह गुण अत्यंत उपयोगी है, परंतु उसकी भी आसक्ति से दूर रह सकें, ऐसा सधना चाहिए। भूतदया आवश्यक है, परंतु उसकी आसक्ति नही होनी चाहिए।

संत लोग इस सत्त्वगुण की ही बदौलत दूसरों के मार्गदर्शक बनते हैं। उनकी देह भूतदया के कारण सार्वजनिक हो जाती है। मक्खियां जिस प्रकार गुड़ की भेली को ढांक लेती हैं, उसी प्रकार सारी दुनिया संतों पर अपने प्रेम की चादर ओढ़ाती है। संतों के अंदर प्रेम का इतना प्रकर्ष हो जाता है कि सारा विश्व उनसे प्रेम करने लगता है। संत अपनी देह की आसक्ति छोड़ देते हैं, अतः सारे संसार की आसक्ति उन पर हो जाती है। सारी दुनिया उन के शरीर की चिन्ता करने लगती है। परन्तु यह आसक्ति भी संतों को दूर करनी चाहिए। यह जो संसार का प्रेम है, यह महान फल है, उससे भी आत्मा को पृथक करना चाहिए। मैं कोई विशेष हूं- ऐसा कभी नहीं लगना चाहिए। इस तरह सत्त्वगुण को शरीर में हजम कर डालना चाहिए।

25. पहले अहंकार को जीतो, फिर आसक्ति को। सातत्य से अहंकार जीत सकते हैं। फलासक्ति को छोड़कर सत्त्वगुण से प्राप्त फल को भी ईश्वरार्पण करके आसक्ति को जीतें। जीवन में सत्त्वगुण स्थिर हो जाता है, तब कभी सिद्धि के रूप में तो कभी कीर्ति के रूप में फल सामने आ खड़ा होता है। परंतु उस फल को भी तुच्छ मानिए। आम का पेड़ अपना एक भी फल खुद नहीं खाता। वह फल कितना ही बढ़िया हो, कितना ही मीठा हो, कितना ही रसीला हो, पर खाने की अपेक्षा, न खाना ही उसे मधुरतर लगता है। उपभोग की अपेक्षा त्याग अधिक मधुर है।

 26. धर्मराज ने जीवन के सारे पुण्य सारस्वरूप स्वर्ग-सुखरूपी फल को भी अंत में ठुकरा दिया। जीवन के सारे त्यागों पर उन्होंने कलश चढ़ा दिया। उन मधुर फलों को चखने का उन्हें अधिकार था। परंतु यदि वे उन्हें चख लेते तो सब स्वाहा हो जाता। क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति- यह चक्र फिर उनके पीछे लग जाता। धर्मराज का कितना महान यह त्याग! वह सदैव मेरी आंखों के सामने खड़ा रहता है। इस तरह सत्त्वगुण के सतत आचरण द्वारा उसके अहंकार को जीत लेना चाहिए। तटस्थ रहकर सब फल ईश्वर को सौंपकर उसकी आसक्ति से छूट जाना चाहिए। तब कह सकते हैं कि सत्त्वगुण पर विजय प्राप्त हो गयी।

81. अंतिम बात: आत्मज्ञान और भक्ति का आश्रय

27. अब अंतिम बात! भले ही आप सत्त्वगुणी हो जाइए। अहंकार को जीत लीजिए, फलासक्ति भी छोड़ दीजिए; फिर भी जब तक यह शरीर चिपका है, तब तक बीच-बीच में रज-तम के हमले होते ही रहेंगे। थोड़ी देर के लिए हमें ऐसा लगा भी कि हमने इन गुणों को जीत लिया, तो भी वे फिर-फिर जोर मारेंगे। अतः सतत जागृत रहना चाहिए। समुद्र का पानी वेग से भीतर घुसकर जिस तरह खाड़ियां बना लेता है, उसी तरह रज-तम के जोरदार प्रवाह हमारी मनोभूमि में प्रविष्ट होकर खाड़ियां बना लेते हैं। अतः जरा भी छिद्र न रहने दीजिए। पक्का इंतजाम और पहरा रखिए। चाहे कितनी ही सावधानी, दक्षता रखिए, जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ है, आत्मदर्शन नहीं हो पाया है, तब तक खतरा ही समझिए। अतः जैसे भी हो, आत्मज्ञान प्राप्त कर लीजिए।

28. आत्मज्ञान कोरी जागृति की कसरत से नहीं होगा। तो फिर कैसे होगा? क्या अभ्यास से? नहीं, उसका एक ही उपाय है। वह है- ‘सच्चे हृदय से प्रेमपूर्वक भगवान की भक्ति करना। आप रज और तम गुणों को जीतेंगे, सतत्त्वगुण को स्थिर करके उसकी फलासक्ति भी जीत लेंगे, परन्तु इतने से भी काम नहीं चलेगा। जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ है, तब तक काम चलने वाला नहीं। अतः अंत में भगवत्कृपा चाहिए ही। सच्ची हार्दिक भक्ति के द्वारा उसकी कृपा का पात्र बनना चाहिए। इसके सिवा मुझे दूसरा उपाय नहीं दिखायी देता। इस अध्याय के अंत में अर्जुन ने यही प्रश्न पूछा है और भगवान ने उत्तर दिया है- "अत्यंत एकाग्र मन से निष्काम भाव से मेरी भक्ति करो, मेरी सेवा करो। जो इस प्रकार मेरी सेवा करता है, माया के उस पार जा सकता है, नहीं तो इस गहन माया को तरा नहीं जा सकता।" यह भक्ति का सरल उपाय है। यह एक ही मार्ग है।

 

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