विकर्म

  14. कर्म को विकर्म का योग चाहिए 

1. भाइयो, पिछले अध्याय में हमने निष्काम कर्मयोग का विवेचन किया। स्वधर्म को टालकर यदि हम अवांतर धर्म स्वीकार करेंगे, निष्कामतारूपी फल अशक्य ही है। स्वदेशी माल बेचना व्यापारी का स्वधर्म है। परन्तु इस स्वधर्म को छोडकर जब वह सात समुन्दर पार का विदेशी माल बेचने लगता है, तब मूलतः उसके सामने यही हेतु रहता है कि बहुत नफा मिलेगा। तो फिर उसे कर्म में निष्कामता कहाँ से आयेगी? अतएव कर्म को निष्काम बनाने के लिए स्वधर्म पालन की अत्यन्त आवश्यकता है। परन्तु यह स्वधर्माचरण भी ‘सकाम’ हो सकता है। अहिंसा की ही बात हम लें, जो अहिंसा का उपासक है, उसके लिए हिंसा तो वर्ज्य है; परन्तु यह सम्भव है कि ऊपर से अहिंसक होते हुए भी वह वास्तव में हिंसामय हो; क्योंकि हिंसा मन का एक धर्म है। महज बाहर से हिंसा कर्म न करने से ही मन अहिंसामय हो जायेगा, सो बात नहीं। तलवार हाथ में लेने से हिंसावृत्ति अवश्य प्रकट होती है, परन्तु तलवार छोड़ देने से मनुष्य अहिंसामय होता ही है, सो बात नहीं। ठीक यही बात स्वधर्माचरण की है। निष्कामता के लिए 'पर धर्म' से तो बचना ही होगा। परन्तु यह तो निष्कामता का आरम्भ मात्र हुआ। इससे हम साध्य तक नहीं पहुँच गये। निष्कामता मन का धर्म है। इसकी उत्पत्ति के लिए स्वधर्माचरण रूपी साधन ही काफी नहीं है। दूसरे साधनों का भी सहारा लेना पड़ेगा। अकेली तेल-बत्ती से दीया नहीं जल जाता। उसके लिए ज्योति की जरूरत होती है। ज्योति होगी, तो अंधेरा दूर होगा। यह ज्योति कैसे जलायें? इसके लिए मानसिक संशोधन की जरूरत है। आत्म-परीक्षण के द्वारा चित्त की मलिनता धो डालना चाहिए तीसरे अध्याय के अंत में यही मार्के की बात भगवान ने बतायी थी। इसी में से चौथे अध्याय का जन्म हुआ है। 


2. गीता में ‘कर्म’ शब्द ‘स्वधर्म’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हमारा खाना, पीना, सोना, ये कर्म ही है; परन्तु गीता का ‘कर्म’ शब्द से ये सब क्रियाएं सूचित नहीं होती हैं। कर्म से वहाँ मतलब स्वधर्माचरण से है। परन्तु इस स्वधर्माचरण रूपी कर्म को करके निष्कामता प्राप्त करने के लिए और भी एक महत्त्वपूर्ण सहायता जरूरी है। वह है, काम और क्रोध को जीतना। चित्त जब तक गंगाजल की तरह निर्मल और प्रशांत न हो जाये, तब तक निष्कामता नहीं आ सकती। इस तरह चित्त-संशोधन के लिए जो-जो कर्म किये जायें, उन्हें गीता ‘विकर्म’ कहती है। ‘कर्म’ ‘विकर्म’ और ‘अकर्म’- ये तीन शब्द इस चौथे अध्याय में बड़े महत्त्व के हैं। ‘कर्म’ का अर्थ है, स्वधर्माचरण की बाहरी स्थूल क्रिया। इस बाहरी क्रिया में चित्त को लगाना ही ‘विकर्म’ है। ऊपर से हम किसी को नमस्कार करते हैं, परन्तु सिर झुकाने की उस ऊपरी क्रिया के साथ ही यदि भीतर से मन भी न झुकता हो, तो बाह्य क्रिया व्यर्थ है। अंतर्बाह्य दोनों एक होना चाहिए। बाहर से मैं शिवलिंग पर सतत जल-धार गिराते हुए अभिषेक करता हूँ। परन्तु इस जल-धारा के साथ ही यदि मानसिक चिन्तन की धारा भी अखंड न चलती हो, तो उस अभिषेक की क्या कीमत रही? फिर तो सामने का वह शिव-लिंग भी पत्थर और मैं भी पत्थर। पत्थर के सामने पत्थर बैठा, यही उसका अर्थ होगा। निष्काम कर्मयोग तभी सिद्ध होता है, जब हमारे बाह्य कर्म के साथ अंदर से चित्त शुद्धिरूपी कर्म का भी संयोग होता है। 


3. ‘निष्काम कर्म ‘इस शब्द-प्रयोग में ‘कर्म’ पद की अपेक्षा ‘निष्काम’ पद को ही अधिक महत्त्व है, जिस तरह ‘अहिंसात्मक असहयोग’ शब्द प्रयोग में असहयोग इस शब्द से ‘अहिंसात्मक’ इस विशेषण को अधिक महत्त्व है। अहिंसा को दूर हटाकर यदि केवल असहयोग का अवलंबन करेंगे, तो वह एक भयंकर चीज बन सकती है। उसी तरह स्वधर्माचरण रूपी कर्म करते हुए यदि मन का विकर्म उसमें नहीं जुड़ा है, तो उसमें खतरा है। आज जो लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, वे स्वधर्म का ही आचरण करते हैं। जब लोग गरीब और दुःखी होते हैं। तब उनकी सेवा करके उन्हें सुखी बनाना प्रवाह-प्राप्त धर्म है। परन्तु इससे यह अनुमान नहीं कर लेना चाहिए कि जितने लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, वे सब कर्मयोगी हो गये हैं। लोक-सेवा करते हुए यदि मन में शुद्ध भावना न हो, तो वह लोक-सेवा भयानक होने की संभावना है। अपने कुटुंब की सेवा करते हुए जितना अहंकार, जितना द्वेष-मत्सर, जितना स्वार्थ आदि हम उत्पन्न करते हैं, उतना सब लोक- सेवा में भी हम उत्पन्न करेंगे और इसका प्रत्यक्ष दर्शन हमें आजकल के लोक-सेवकों के जमघट में दिखायी भी दे रहा है।


15. उभय संयोग से अकर्म-स्फोट 

4. कर्म के साथ मन का मेल जरूरी है। मन के इस मेल को ही गीता ‘विकर्म’ कहती है। बाहर का स्वर्धरूप सामान्य कर्म और यह आंतरिक विशेष कर्म। यह विशेष कर्म अपनी-अपनी मानसिक आवश्यकता के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। विकर्म के ऐसे अनेक प्रकार, नमूने के तौर पर, चौथे अध्याय में बताये गये हैं। उसी का विस्तार आगे छठे अध्याय से किया गया है। इस विशेष कर्म का, इस मानसिक अनुसंधान का योग जब हम करेंगे, तभी उसमें निष्कामता की ज्योति जलेगी। कर्म के साथ जब विकर्म मिलता है, तब फिर धीरे-धीरे निष्कामता हमारे अन्दर आती है। यदि शरीर और मन भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं, तो साधन भी दोनों के लिए भिन्न-भिन्न ही होंगे। जब इन दोनों का मेल बैठ जाता है, तो साध्य हमारे हाथ लग जाता है। मन एक तरफ और शरीर दूसरी तरफ, ऐसा न हो जाये, इसलिए शास्त्रकारों ने दुहरा मार्ग बताया है। भक्तियोग में बाहर से तप और भीतर से जप बताया है। उपवास आदि बाहरी तप के चलते हुए यदि भीतर से मानसिक जप न हो, तो वह सारा तप व्यर्थ चला जाता है। जिस भावना से मैं तप कर रहा हूँ, वह भावना अन्दर सतत जलती रहनी चाहिए। ‘उपवास’ शब्द का अर्थ ही है, भगवान के पास बैठना। परमात्मा के नजदीक हमारा चित्त रहे, इसके लिए बाहरी भोगों का दवाजा बंद करने की जरूरत है। परन्तु बाहर से विषय भोगों को छोड़कर यदि मन में भगवान का चिंतन न किया जाये, तो फिर इस बाहरी उपवास की क्या कीमत रही? ईश्वर का चिंतन न करते हुए यदि उस समय खाने-पीने की चीजों का ही चिंतन करते रहें, तो फिर वह बड़ा भयंकर भोजन हो जायेगा। यह जो मानसिक भोजन, मन में विषयों का चिन्तन, उससे बढ़कर भयंकर वस्तु दूसरी नहीं। तंत्र के साथ मंत्र होना चाहिए। केवल बाह्य तंत्र का कोई महत्त्व नहीं। केवल कर्महीन मंत्र का भी कोई महत्त्व नहीं। हाथ में भी सेवा हो और हृदय में भी सेवा हो, तभी सच्ची सेवा हमारे हाथों बन पड़ेगी। 


5. यदि बाह्य कर्म में हृदय की आर्द्रता न रही, तो वह स्वधर्माचरण सूखा रह जायेगा। उसमें निष्कामतारूपी फूल-फल नहीं लगेंगे। मान लो, हमने किसी रोगी की सेवा-शुश्रूषा शुरू की, परन्तु उस सेवा-कर्म के साथ यदि मन में दयाभाव न हो, तो वह रुग्ण-सेवा नीरस मालूम होगी और उससे जी ऊब उठेगा। वह एक बोझ होगी। रोगी को भी वह सेवा एक बोझ मालूम पड़ेगी। उस सेवा में यदि मन का सहयोग न हो, तो उससे अहंकार पैदा होगा। ‘मैं आज उसके काम आया हूँ, तो उसे भी मेरे काम आना चाहिए। उसे मेरी तारीफ करनी चाहिए। लोगों को मेरा गौरव करना चाहिए‘- आदि अपेक्षाएं मन में उत्पन्न होंगी। अथवा हम त्रस्त होकर कहेंगे- "हम इसकी सेवा करते हैं, फिर भी यह बड़बड़ाता रहता है।" बीमार आदमी वैसे ही चिड़चिड़ा हो जाता है। उसके ऐसे स्वभाव से वह सेवक, जिसके मन में सच्चा सेवा-भाव नहीं होगा, ऊब जायेगा।


15. उभय संयोग से अकर्म-स्फोट 

6. कर्म के साथ जब आंतरिक भाव का मेल हो जाता है तो वह कर्म कुछ निराला ही हो जाता है। तेल और बाती के साथ जब ज्योति का मेल होता है, तब प्रकाश उत्पन्न होता है। कर्म के साथ विकर्म का मेल हुआ कि निष्कामता आती है। बारूद में बत्ती लगाने से धड़ाका होता है। उस बारूद में एक शक्ति उत्पन्न होती है। कर्म बंदूक की बारूद की तरह है। उसमें विकर्म की बत्ती लगी कि काम बना। जब तक विकर्म आकर नहीं मिलता, तब तक वह कर्म जड़ है। उसमें चैतन्य नहीं। एक बार जहाँ विकर्म की चिंगारी उसमें गिरी कि फिर उस कर्म में जो सामर्थ्य पैदा होता है, वह अवर्णनीय है। चिमटी भर बारूद जेब में पडी रहती है, हाथ में उछलती रहती है, पर जहाँ उसमें बत्ती लगी कि शरीर की धज्जियां उड़ी। स्वधर्माचरण का अनन्त सामर्थ्य इसी तरह गुप्त रहता है। उसमें विकर्म को जोड़िए, फिर देखिए क्या चमत्कार होते हैं! उसके स्फोट से अहंकार, काम, क्रोध भस्म हो जायेंगे और उसमें से उस परम ज्ञान की निष्पत्ति होगी। 


7. कर्म ज्ञान का ईंधन है। लकड़ी का बड़ा-सा कुंदा कहीं पड़ा हो, उसे आप जलाइये। वह अंगार हो जाता है। उस लकड़ी और उस आग में कितना अंतर है परंतु उस लकड़ी की ही वह आग होती है। कर्म में विकर्म डाल देने से कर्म दिव्य दिखायी देने लगता है। मां बच्चे की पीठ पर हाथ फेरती है। एक पीठ है, जिस पर हाथ यों ही इधर-उधर फिर गया। परन्तु इस एक मामूली कर्म से उन मां-बेटे के मन में जो भावनाएं उठीं, उनका वर्णन कौन कर सकेगा? यदि कोई ऐसा समीकरण बिठाने लगे कि इतनी लंबी-चौड़ी पीठ पर इतने वजन का एक मुलायम हाथ घुमाने से वह आनंद उत्पन्न होगा; तो वह एक मजाक ही होगा। हाथ फिराने की वह नगण्य क्रिया, परन्तु उसमें मां का हृदय उंड़ेला हुआ है। विकर्म उंड़ेला हुआ है, इसी से यह अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है। तुलसी-रामायण में एक प्रसंग है। राक्षसों से लड़कर बंदर आते है। वे जख्मी हो गये हैं। बदन से खून टपक रहा है। परन्तु प्रभु रामचन्द्र के एक बार प्रेमपूर्वक दृष्टिगत करने भर से उन बंदरों की वेदना मिट जाती है- राम कृपा कर चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥ अब यदि किसी दूसरे मनुष्य ने, राम की उस समय आंख कितनी खुली थी, इसका फोटो लेकर किसी की ओर उसी प्रकार देखा होता, तो क्या उसका वैसा प्रभाव पड़ा होता? वैसा करने का यत्न हास्यास्पद है। 


8. कर्म के साथ जब विकर्म का जोड़ मिल जाता है, तो शक्ति स्फोट होता है। और उसमें से ‘अकर्म’ निमार्ण होता है। लकड़ी जलने पर राख हो जाती है। पहले का वह इतना बड़ा लकड़ी का कुंदा, अंत में चिमटी पर बेचारी राख रह जाती है उसकी! खुशी से उसे हाथ में लीजिए और सारे बदन पर मलिए। इस तरह कर्म में विकर्म ज्योति लगाने से अंत में अकर्म हो जाता है। कहाँ लकड़ी और कहाँ राख! कः केन संबंधः! उनके गुण-धर्मों में अब बिलकुल साम्य नहीं रह गया। परन्तु इसमें कोई शक नहीं है कि वह राख उस लकड़ी के कुंदे की ही है।


15. उभय संयोग से अकर्म-स्फोट 

9. कर्म में विकर्म उंड़ेने से अकर्म होता है, इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ यह कि ऐसा मालूम ही नहीं होता कि कोई कर्म किया है। उस कर्म का बोझ नहीं मालूम होता। करके भी अकर्ता रहते हैं। गीता कहती है कि मारकर भी तुम मारते नहीं। मां बच्चे को पीटती है, इसलिए तुम भी उसे पीटकर देखो! तुम्हारी मार बच्चा नहीं सहेगा। मां मारती है, फिर भी वह उसके आंचल में मुंह छिपाता है, क्योंकि मां के बाह्य कर्म में चित्त-शुद्धि का मेल है। उसका यह मारना निष्काम भाव से है। उस कर्म में उसका स्वार्थ नहीं है। विकर्म के कारण, मन की शुद्धि के कारण, कर्म का कर्मत्व उड़ जाता है। राम की वह दृष्‍टि, आंतरिक विकर्म के कारण केवल प्रेम-सुधा सागर हो गयी थी; परन्तु राम को उस कर्म का कोई श्रम नहीं था। चित्त शृद्धि से किया हुआ कर्म निर्लेप रहता है। उसका पाप-पुण्य बाकी नहीं रहता। नहीं तो कर्म का कितना बोझ, कितना जोर, हमारी बुद्धि और हृदय पर पड़ता है। यदि ऐसी खबर अभी दो बजे आये कि कल सारे राजनैतिक कैदी छूटनेवाले हैं, तो फिर देखो, कैसी हलचल मच जाती है। चारों ओर धूमधाम शुरू हो जायेगी। हम कर्म के अच्छे-बुरे होने की वजह से व्यग्र रहते हैं। कर्म हमें चारों ओर से घेर लेता है, मानो कर्म ने हमारी गर्दन धर दबायी है। जिस तरह समुद्र का प्रवाह जोर से जमीन में धंसकर खाड़ियां बना देता है, उसी तरह कर्म का यह जंजाल चित्त में घुसकर क्षोभ पैदा कर देता है। सुख-दुख के द्वंद्व निर्माण होते हैं। सारी शांति नष्ट हो जाती है। कर्म हुआ और होकर चला भी गया; परन्तु उसका वेग बाकी बचा ही रहता है। कर्म चित्त पर हावी हो जाता है। फिर उसकी नींद हराम हो जाती है। परन्तु ऐसे इस कर्म में यदि विकर्म को मिला दें; तो फिर चाहे जितने कर्म करें, उनका श्रम नहीं मालूम होता। मन ध्रुव की तरह शांत, स्थिर और तेजोमय बना रहता है। कर्म में विकर्म डाल देने से वह अकर्म हो जाता है, मानो कर्म करके फिर उसे पोंछ दिया हो।


16. अकर्म की कला संतो से पूछें 

10. यह कर्म का अकर्म कैसे होता है? यह कला किसके पास देखने को मिलेगी? संतो के पास। इस अध्याय के अंत में भगवान कहते हैं- "संतों के पास जाकर बैठो और उनसे शिक्षा लो।" कर्म का अकर्म कैसे हो जाता है, इसका वर्णन करने में भाषा समाप्त हो जाती है। उसकी पूरी कल्पना कर पाने के लिए संतों के चरणों में बैठना चाहिए। परमेश्वर का वर्णन भी तो है शांताकारं भुजगशयनम्। परमेश्वर हजार फनों के शेषनाग पर सोते हुए भी शांत है। इसी तरह संत हजारों कर्म करते हुए भी रत्ती भर क्षोभ-तरंग अपने मानस-सरोवर में नहीं उठने देते। यह खूबी संतों के पास गये बिना समझ में नहीं आ सकती। 


11. आज के जमाने में पुस्तकें बहुत सस्ती हो गयी हैं। एक-एक, दो-दो आने में गीता, ‘मनाचे श्लोक’ आदि मिल जाते हैं। गुरुओं की भी कमी नहीं। शिक्षा उदार और सस्ती है। विद्यापीठ ज्ञान की खैरात बांटते हैं। परन्तु ज्ञानामृत भोजन की डकार किसी को नहीं आती। पुस्तकों के इस अंबार को देखकर संत सेवा की जरूरत दिन पर दिन ज्यादा महसूस हो रही है। पुस्तकों की मजबूत कपड़े की जिल्द के बाहर ज्ञान आता नहीं। ऐसे अवसर पर मुझे एक अभंग हमेशा याद आ जाता है- काम क्रोध आड पडिले पर्वत। राहिला अनंत पैलीकडे॥ 'काम-क्रोध के पहाड़ रास्ते में खड़े हैं। भगवान उनके उस पार है।' काम-क्रोध रूपी पहाड़ों के परले पार नारायण रहता है उसी तरह इन पुस्तकों की राशि के पीछे ज्ञान-राजा छिपकर बैठा है। पुस्तकालयों और ग्रंथालयों की भरमार होने पर भी अब तक मनुष्य सब जगह संस्कारहीन और ज्ञानहीन बंदर जैसा दिखायी देता है। बड़ौदा में बहुत बड़ी लाइब्रेरी है। एक बार एक सज्जन एक बड़ी सी पुस्तक लेकर जा रहे थे। उसमें तस्वीरें थीं। वे उसे यह समझकर ले जा रहे थे कि वह अंग्रेजी पुस्तक है। मैंने पूछा- "कौन-सी पुस्तक है?" उन्होंने पुस्तक आगे बढ़ा दी। मैने कहा- "यह तो फ्रेंच है", तो उन्होंने कहा "अच्छा, फ्रेंच आ गयी?" परम पवित्र रोमन लिपि, बढ़िया तस्वीरें, सुंदर जिल्द, फिर ज्ञान की क्या कमी। 


12. अंग्रेजी में हर साल कोई दस हजार नयी किताबें तैयार होती हैं। यही हाल दूसरी भाषाओं का समझिए। ज्ञान का इतना प्रसार होते हुए भी मनुष्य का दिमाग अब तक खोखला ही कैसे बना हुआ है? कोई कहता है, स्मरणशक्ति कमज़ोर हो गयी है। कोई कहता है, एकाग्रता नहीं सधती। कोई कहता है, जो भी पढ़ते हैं, सच ही मालूम होता है। कोई कहता है, अजी, विचार करने को फुरसत ही नहीं मिलती! श्रीकृष्ण कहते हैं- "अर्जुन, बहुत कुछ सुन-सुनकर चक्कर में पड़ी तेरी बृद्धि जब तक स्थिर नहीं होगी, तब तक तुझे योगप्राप्ति नहीं हो सकती। सुनना और पढ़ना अब बंद करके संतों की शरण ले! वहाँ जीवन-ग्रन्थ पढ़ने को मिलेगा। वहाँ का ‘मौन व्याख्यान’ सुनकर तू 'छिन्न-संशय' हो जायेगा। वहाँ जाने से तुझे मालूम हो जायेगा कि लगातार सेवा-कर्म करते हुए भी हम अत्यंत शान्त कैसे रहें; और बाहर से कर्म का जोर रहते हुए भी हृदय में अखंड संगीत की सितार कैसे मिलायी जा सकती है।"



आज का विषय

लोकप्रिय विषय