दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास

 

17. बाह्य कर्म मन का दर्पण 

1. संसार बड़ा भयानक है। बहुत बार उसे समुद्र की उपमा दी जाती है। समुद्र में जहाँ देखिए, पानी-ही-पानी दिखायी देता है। वही हाल संसार का है। संसार सर्वत्र भरा हुआ है। यदि कोई व्यक्ति घरबार छोड़कर सार्वजनिक सेवा में लग जाता है, तो वहाँ भी उसके मन में संसार अपना अड्डा जमाये बैठा मिलता है। कोई यदि गुफा में जाकर बैठ जाये, तो भी उसकी बित्ते भर लंगोटी में संसार ओतप्रोत रहता है। वह लंगोटी उसकी ममता का सार-सर्वस्व बन बैठती है। जैसे छोटे से नोट में हजार रुपये भरे रहते हैं, वैसे ही उस छोटी-सी लंगोटी में भी अपार आसक्ति भरी रहती है। घर-प्रपंच छोड़ा, विस्तार कम किया, तो इतने से संसार कम नहीं हो गया। 10/25 कहो या 2/5 कहो, दोनों का मतलब एक ही है। चाहे घर में रहो या वन में, आसक्ति तो पास ही रहती है। संसार लेशमात्र भी कम नहीं होता। दो योगी भले ही हिमालय की गुफा में जाकर बैठ जायें, पर वहाँ भी एक-दूसरे की कीर्ति उनके कानों में जा पड़े, तो वे जल-भुन जायेंगे। सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में भी ऐसा ही दृश्य दिखायी देता है। 


2. इस प्रकार यह संसार हाथ धोकर हमारे पीछे पड़ा है, जिससे स्वधर्माचरण की मर्यादा रहते हुए भी संसार से पिंड नहीं छूटता। बहुतेरा उखाड़-पछाड़ करना छोड़ दिया और झंझटे भी कम कर दीं, अपना संसार-प्रपंच भी छोटा कर दिया, तो भी वहाँ पूरा ममत्व भरा रहता है। राक्षस जैसे कभी छोटे हो जाते तो कभी बड़े, वही हाल इस संसार का है। छोटे हों या बड़े, आखिर वे हैं तो राक्षस ही! चाहे महलों में हो या झोपड़ी में, दुर्निवारत्व एक-सा ही है। स्वधर्म का बंधन डालकर यद्यपि संसार-प्रपंच को मर्यादित रखा, तो भी वहाँ अनेक झगड़े पैदा हो जायेंगे और आपका जी वहाँ से ऊब उठेगा। वहाँ भी अनेक संस्थाओं और अनेक व्यक्तियों से आपका सम्बन्ध आयेगा और आप त्रस्त हो जायेंगे। लगेगा, ‘कहां इस आफत में आ फंसे!’ लेकिन आपका मन कसौटी पर भी तभी चढ़ेगा। केवल स्वधर्माचरण को अपनाने से ही अलिप्तता नहीं आ जाती। कर्म की व्याप्ति को कम करना ही अलिप्त होना नहीं है। 


3. फिर अलिप्तता कैसे प्राप्त हो? उसके लिए मनोमय प्रयत्न जरूरी है। मन का सहयोग जब तक न हो, तब तक कोई भी बात सिद्ध नहीं हो सकती। मां-बाप किसी संस्था में अपना लड़का भेज देते हैं। वह वहाँ सबेरे उठता है, सूर्य-नमस्कार करता है, चाय नहीं पीता। परन्तु घर आते ही दो-चार दिनों में वह सब कुछ छोड़ देता है; ऐसे अनुभव हमें आते हैं। मनुष्य कोई मिट्टी का ढेला तो है नही। उसके मन को हम जो आकार देना चाहते हैं, वह उसके मन में बैठना तो चाहिए न ? मन यदि वह आकार स्वीकारता नहीं, तो कहना होगा कि बाहर की वह सारी तालीम व्यर्थ गयी, इसलिए साधना में मानसिक सहयोग की बहुत आवश्यकता है।


17. बाह्य कर्म मन का दर्पण 

4. साधन के रूप में बाहर से स्वधर्माचरण और भीतर से मन का विकर्म, दोनों बातें चाहिए। बाह्य कर्म की भी आवश्यकता है ही। कर्म किये बिना मन की परीक्षा नहीं होती। प्रातःकाल के प्रशांत समय में हमें अपना मन अत्यंत शांत मालूम होता है। परंतु बच्चे को जरा रोने दो, उस मनःशांति की असली कीमत हमें मालूम हो जाती है। अतः बाह्य कर्म को टालने से काम नहीं चलेगा। ऐसे कर्मों से हमारे मन का स्वरूप प्रकट होता है। पानी ऊपर से साफ दीखता है। परन्तु उसमें पत्थर डालिए, तुरंत ही अंदर की गंदगी ऊपर आयेगी। वैसी ही दशा हमारे मन की है। मन के अंतःसरोवर में घुटने भर गंदगी जमा रहती है। बाहरी वस्तु से उसका स्पर्श होते ही वह ऊपर आ जाती है। हम कहते हैं, उसे गुस्सा आ गया। तो यह गुस्सा कहीं बाहर से आ गया? वह तो अंदर ही था। मन में यदि न होता तो वह बाहर दिखायी ही न देता। लोग कहते हैं- "सफेद खादी नहीं चाहिए, वह मैली हो जाती है। रंगीन खादी मैली नहीं होती।" मैली तो वह भी होती है। हां, दिखायी नहीं देती। सफेद खादी का मैल दीख जाता है। वह कहती है- "मैं मैली हूं, मुझे धोओ।" यह मुंह से बोलने वाली खादी लोगों को पसंद नहीं आती। इसी तरह हमारा कर्म भी बोलता है। कर्म ये बतला देता है कि आप क्रोधी हैं, स्वार्थी हैं या और कुछ हैं। कर्म वह दर्पण है, जो हमारा स्वरूप हमें दिखा देता है। अतः हमें कर्म का आभार मानना चाहिए। दर्पण में यदि हमारा चेहरा मैला-कुचला दिखयी दे, तो क्या हम उसे फोड़ डालेंगे? नहीं, उल्टा उसका आभार मानेंगे। मुंह धो-धाकर फिर उसमें चेहरा देखेंगे। इसी तरह यदि कर्म की बदौलत हमारे मन की गंदगी, कचरा बाहर आता है, तो क्या इसलिए हम कर्म टालेंगे? कर्म को टालने से क्या हमारा मन निर्मल हो जायेगा? अतः कर्म करते रहें और निर्मल होने का उत्तरोत्तर प्रयत्न करते रहें। 5. कोई मनुष्य गुफा में जा बैठता है। वहाँ उसका किसी से भी संपर्क नहीं आता। वह समझने लगता है कि अब मैं बिलकुल शांतमति हो गया। परन्तु गुफा छोड़कर उसे किसी के यहाँ भिक्षा मांगने जाने दीजिए। वहाँ कोई छोटा बच्चा दरवाजे की सांकल बजाता है। वह बाल-ब्रह्म तो उस नाद-ब्रह्म में तल्लीन हो जाता है, परन्तु उस निष्पाप बच्चे का वह सांकल बजाना उस योगी को सहन नहीं होता। वह कहता है- "बच्चे ने क्या खट-खट लगा रखी है।" गुफा में रहकर उसने अपने मन को इतना कमज़ोर बना लिया है कि जरा-सा भी धक्का उसे सहन नहीं होता। जरा खट-खट हुई कि बस, उसकी शांति डिगने लगती है। मन की ऐसी दुर्बल स्थिति अच्छी नहीं।


6. सारांश यह कि अपने मन का स्वरूप समझने के लिए कर्म बड़े काम की चीज है? जब दोष दिखायी देंगे, तो वे दूर भी किये जा सकेंगे। यदि दोष मालूम ही न हो, तो प्रगति रुकी, विकास समाप्त। कर्म करेंगे तो दोष दिखायी देंगे। उन्हें दूर करने के लिए विकर्म की योजना करनी पड़ती है। भीतर जब ऐसे विकर्म के प्रयत्न रात-दिन जारी रहने लगेंगे, तो फिर स्वधर्म का आचरण करते हुए भी अलिप्त कैसे रहें, काम-क्रोधातीत, लोभ-मोहातीत कैसे रहें, यह बात यथा समय समझ में आ जायेगी। कर्म को निर्मल रखने का सतत प्रयत्न हो, तो फिर आगे चलकर निर्मल कर्म अपने-आप होने लगेगा। निर्विकार कर्म जब एक के बाद एक सहज भाव से होने लगते हैं, तो फिर यह पता भी नहीं लगता कि कर्म कब हो गया। जब कर्म सहज हो जाता है, तो वह अकर्म हो जाता है। सहज कर्म को ही ‘अकर्म’ कहते हैं, यह हमने चौथे अध्याय में देख लिया है। कर्म ‘अकर्म’ कैसे होता है, सो संत-चरणों में बैठने से मालूम होगा, यह भी भगवान ने चौथे अध्याय के अंत में बता दिया है। इस अकर्म-स्थिति का वर्णन करने के लिए वाणी अपर्याप्त है।



18. अकर्म-दशा का स्वरूप 

7. कर्म की सहजता को समझने के लिए हम अपने परिचय का एक उदाहरण लें। छोटा बच्चा पहले चलना सीखता है। उस समय उसे कितना कष्ट होता है। किन्तु हमें उसकी इस लीला से आनंद होता है। हम कहते हैं- 'देखो, लल्ला चलने लगा।' परन्तु पीछे वही चलना सहज हो जाता है वह चलता भी रहता है और बातचीत भी करता रहता है। चलने की ओर ध्यान भी नहीं रहता। यही बात खाने के सम्बन्ध में है। हम छोटे बच्चे का अन्नप्राशन करते हैं, मानो खाना कोई बड़ा काम हो। परन्तु पीछे वही खाना एक सहज कर्म हो जाता है। मनुष्य जब तैरना सीखता है, तो कितना कष्ट होता है। शुरू में उसे तैरने से थकान आती है, पर बाद में जब वह दूसरा श्रम करके थक जाता है, तो कहता है 'चलो, जरा तैर आयें तो थकान निकल जाये।' अब वह तैरना कष्टकर नहीं मालूम होता। शरीर यों ही सहज भाव से पानी पर तैरता रहता है। श्रमित होना मन का धर्म हैं मन जब उन कर्मों में फंसा रहता है तब श्रम मालूम होता है, परन्तु कर्म जब सहज होने लगते हैं, तो फिर उनका बोझ नहीं मालूम होता। कर्म मानों अकर्म हो जाता है। कर्म आनंदमय हो जाता है। 


8. कर्म का अकर्म हो जाये यही हमारा ध्येय है। इसके लिए स्वधर्माचरण रूपी कर्म करने हैं। उन्हें करते हुए दोष नजर आयेगा जिन्हें दूर करने के लिए विकर्म का पल्ला पकड़ना होगा। ऐसा अभ्यास करते रहने से मन की फिर ऐसी स्थिति हो जाती है कि कर्म में त्रास या कष्ट बिलकुल नहीं मालूम होता। हजारों कर्म हाथों से होते रहेने पर भी मन निर्मल और शांत रहता है। आप आकाश से पूछिए- "भाई आकाश, तुम गर्मी में झुलसते होगे, वर्षा में भीगते होगे और सर्दी में ठिठुरते होगे!" तो वह क्या जवाब देगा? वह कहेगा- "मुझे क्या होता है, इसका फैसला तुम करो, मैं कुछ नहीं जानता।" पिसें नेसलें कां नागवें। हें लोकीं येऊनि जाणावें- 'पागल नंगा है या कपड़े पहने है, इसका फैसला लोग करें। पागल को इसका भान नहीं।' इसका भावार्थ यही है कि स्वधर्माचरण सम्बन्धी कर्म, विकर्म की सहायता से निर्वकार बनाने की आदत होते-होते स्वाभाविक हो जाते है। बड़े-बड़े विकट अवसर भी फिर मुश्किल नहीं मालूम होते। कर्मयोग की यह कुंजी है। कुंजी न हो तो ताले को तोड़ते-तोड़ते हाथों में छाले पड़ जायेंगे। परन्तु कुंजी हाथ लग जाने पर पल भर में सब-कुछ खुल जायेगा। कर्मयोग की इस कुंजी के कारण सब कर्म निरुपद्रवी मालूम होते हैं। यह कुंजी मनोजय से मिलती है। अतः मनोजय का अविरित प्रयत्न होना चाहिए। कर्म करते हुए जो मनोमल दिखायी दें, उन्हें धो डालने का प्रयत्न करना चाहिए। तो फिर बाह्य कर्मो की झंझट नहीं मालूम होती। कर्म का अहंकार ही मिट जाता है। काम-क्रोध के वेग नष्ट हो जाते हैं। क्लेशों का अनुभव तक नहीं होता। कर्म का भी भान बाकी नहीं रहता।


9. एक बार मुझे एक भले आदमी ने पत्र लिखा- "अमुक संख्या में रामनाम का जप करना है तुम भी इसमें शरीक होओ और बताओ कि रोज कितना जप करोगे।" वह बेचारा अपनी बुद्धि के अनुसार प्रयास कर रहा था। मैं उसका दोष नहीं बता रहा हूँ। परन्तु राम-नाम कोई गिनती की चीज नही है। मां बच्चे की सेवा करती है तो क्या व उसकी रिपोर्ट छपाने जाती है? यदि वह रिपोर्ट डलवाने लगे, तो 'थैंक यू' कहकर उसके ऋण से बरी हो सकेंगे। परन्तु माता रिपोर्ट नहीं लिखती। वह तो कहती है- "मैंने क्या किया? मैंने कुछ नहीं किया। यह क्या मेरे लिए कोई बोझ है?" विकर्म की सहायता से मन लगाकर, हृदय उंड़ेलकर जब मनुष्य कर्म करता है, तब वह कर्म ही नहीं रहता, अकर्म हो जाता है। वहाँ क्लेश, कष्ट, झंझट कुछ नहीं रहता। 10. इस स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता। एक धुंधली-सी कल्पना करायी जा सकती है। सूर्य उगता है, पर उसके मन में क्या कभी यह भाव आता है कि अब मैं अंधेरा मिटाऊंगा, पंछियों को उड़ने की प्रेरणा दूंगा, लोगों को कर्म करने में प्रवृत्त करूंगा? वह उगता है, खड़ा रहता है। उसका वह अस्तित्व ही विश्व को गति देता है। परन्तु सूर्य को उसका पता नहीं। आप यदि सूर्य से कहेंगे- "हे सूर्यदेव, आपके अनंत उपकार हैं, आपने कितना अंधेरा दूर कर दिया।" तो वह चक्कर में पड़ जायेगा। कहेगा- "जरा-सा अंधेरा लाकर मझे दिखाओ। यदि उसे मैं दूर कर सका, तो कहूँगा कि यह मेरा कर्तृव्य है।" क्या सूर्य के पास अंधेरा ले जाया जा सकेगा? सूर्य के अस्तित्व से अंधकार दूर होता होगा, उसके प्रकाश में काई सद्ग्रन्थ भी पढ़ता होगा, तो कोई असद्ग्रंथ भी पढ़ता होगा; कोई आग लगाता होगा, तो कोई किसी का भला करता होगा। परन्तु इस पाप-पुण्य का जिम्मेदार सूर्य नही है। सूर्य कहता है- "प्रकाश मेरा सहज धर्म है। मेरे पास यदि प्रकाश न होगा, तो फिर होगा क्या? मैं जानता ही नहीं कि मैं प्रकाश दे रहा हूँ। मेरा होना ही प्रकाश है। प्रकाश देने की क्रिया का कष्ट मैं नहीं जानता। मुझे नहीं लगता कि मैं कुछ कर रहा हूँ।" सूर्य का यह प्रकाश-दान जैसा स्वाभाविक है वैसा ही हाल संतों का है। उनका जीवित रहना ही मानो प्रकाश देना है। आप यदि किसी ज्ञानी पुरुष से कहें कि "आप महात्मा सत्यवादी हैं" तो वह कहेगा- "मैं सत्य पर न चलूं तो और करूं क्या? मैं विशेष क्या करता हूँ?" ज्ञानी पुरुष में असत्यता हो ही नही सकती।


11. अकर्म की यह ऐसी भूमिका है। साधन इतने नैसर्गिक और स्वाभाविक हो जाते हैं कि उनका आना-जाना मालूम नहीं पड़ता। इंद्रियां उनकी सहज आदी हो जाती है। सहज बोलणें हित उपदेश- 'सहज बोलना ही हित उपदेश हो जाता है।' जब ऐसी स्थिति प्राप्त हो जाती है तब कर्म अकर्म हो जाता है। ज्ञानी पुरुष के लिए सत्कर्म सहज हो जाते हैं। चहचाहते रहना पक्षियों का सहज धर्म है। मां की याद आना बच्चों का सहज धर्म है। इसी तरह ईश्वर का स्मरण होना संतों का सहज धर्म हो जाता है। सुबह होते ही ‘कुकडू-कूं’ करना मुर्गे का सहज धर्म है। स्वरों का ज्ञान कराते हुए भगवान पाणिनि ने मुर्गे की बांग का उदाहरण दिया है। पाणिनि के समय से आज तक मुर्गा सुबह बांग देता है। पर क्या इसके लिए उसे किसी ने मानपत्र अर्पित किया है ? मुर्गे का वह सहज धर्म है। उसी तरह सच बोलना, भूतमात्र के प्रति दया, किसी का दोष न देखना, सबकी सेवा-शुश्रूषा करना आदि सत्पुरुषों के कर्म सहज रूप से होते रहते हैं। उन्हें किये बिना वे जिंदा नहीं रह सकते। किसी ने भोजन किया, तो क्या हम उसका गौरव करते हैं? खाना, पीना, सोना जैसे सांसारिकों के सहज कर्म हैं, वैसे ही सेवाकर्म ज्ञानियों के लिए सहज कर्म है। उपकार करना ज्ञानी का स्वभाव हो जाता है। ज्ञानी यदि कहे कि 'मैं उपकार नहीं करूंगा' तो उसके लिए वह असंभव है। ऐसे ज्ञानी पुरुष का वह कर्म अकर्म दशा को पहुँच गया है, ऐसा समझना चाहिए। इसी दशा को ‘संन्यास’ नामक अति पवित्र पदवी दी गयी है। संन्यास ही परम धन्य अकर्म-दशा है। इस दशा को ‘कर्मयोग’ भी कहना चाहिए। कर्म करता रहता है, अतः वह ‘योग’ हैं परन्तु करते हुए भी कर रहा है ऐसा नहीं लगता, इसलिए वही ‘संन्यास है। वह कुछ ऐसी युक्ति से कर्म करता है कि उसका लेप उसे नहीं लगता, इसलिए वह ‘योग’ है; और करके भी कुछ नहीं किया, इसलिए वह ‘संन्यास’ है।


19 अकर्म का एक पहलू - योग 

12. ‘संन्यास’ की कल्पना क्या है? कुछ कर्म छोड़ना, कुछ कर्म करना, यह कल्पना है क्या? नहीं। मूलतः संन्यास की व्याख्या ही है- "सब कर्मो को छोड़ना।" सब कर्मों से मुक्त होना, कर्म जरा भी न करना संन्यास है। परन्तु कर्म न करने का अर्थ क्या? कर्म बड़ी विचित्र वस्तु है। सर्व-कर्म-संन्यास होगा कैसे? कर्म तो आगे-पीछे, अगल-बगल, सब ओर व्याप्त हो रहा है। अजी, बैठे तो भी क्रिया ही हुई न? 'बैठना' यह क्रियापद है। केवल व्याकरण की दृष्टि से ही वह क्रिया नहीं हुई, परंतु सृष्टिशास्त्र में भी ‘बैठना’ क्रिया ही है। सतत बैठे रहने से पैर दुखने लगते हैं। बैठने में भी श्रम तो है ही। जहाँ न करना भी कर्म सिद्ध होता है वहाँ कर्म-संन्यास हो भी कैसे? भगवान ने अर्जुन को विश्वरूप दिखलाया। सर्वत्र फैला हुआ वह विश्वरूप देखकर अर्जुन डर गया और घबराकर उसे आंखे मूंद लीं। परन्तु आंखे मूंदकर देखा, तो वह भीतर भी दिखायी देने लगा। अब आंख मूंद लेने पर भी जो दीखता है, उससे कैसे बचा जाये? न करने से भी जो होता है, उसे कैसे टाला जाये? 


13. एक मनुष्य की बात है। उसके पास सोने के अनेक बहुमूल्य गहने थे। वह उन्हें एक बड़े संदूक में बंद करके रखना चाहता था। नौकर एक खासा बड़ा-सा लोहे का संदूक बनवा लाया। उसे देखकर उसने कहा- "तू कैसा बेवकूफ है रे गंवार! तुझे सुंदरता की कोई कल्पना भी है क्या? ऐसे बेशकीमती जेवर रखने हैं, तो क्या भद्दे लोहे के संदूक में रखे जायेंगे? जा, अच्छा सोने का संदूक बनवाकर ला!" नौकर सोने का संदूक बनवा लाया। "अब ताला भी सोने का ही ले आ। सोने के संदूक में सोने का ही ताला फबेगा।" वह व्यक्ति गया था जेवर को छिपाने, उसे ढांककर रखने, लेकिन वह सोना छिपा या खुला? चोरों को जेवर खोजने की जरूरत ही नहीं रही। संदूक उड़ाया और काम बना। सारांश यह है कि कर्म न करना भी कर्म करने का ही एक प्रकार हो जाता है। इतना व्यापक जो कर्म है उसका संन्यास कैसे किया जाये? 


14. ऐसे कर्मों का संन्यास करने की रीति ही यह है कि ऐसी युक्ति साधी जाये, जिससे दुनिया भर के कर्म करते हुए भी वे सब गल जायें। जब ऐसा हो सकेगा, तभी कह सकते हैं कि ‘संन्यास’ प्राप्त हुआ। कर्म करके भी उन सबका ‘गल जाना’ यह बात आखिर है कैसी? सूर्य के जैसी है। सूर्य रात-दिन कर्म कर रहा है। रात को भी वह कर्म करता ही है। उसका प्रकाश दूसरे गोलार्ध में काम करता रहता है। परन्तु इतना कर्म करते हुए भी ऐसा भी कहा जाता जा सकता है कि वह कुछ भी नहीं करता। इसीलिए चौथे अध्याय में भगवान कहते हैं, "मैंने यह योग पहले सूर्य को सिखाया। फिर विचार करने वाले, मनन करने वाले मनु ने सूर्य से इसे सीखा।" चौबीस घंटे कर्म करते हुए भी सूर्य लेशमात्र कर्म नहीं करता। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह स्थिति सचमुच अद्भुत है।


20. अकर्म का दूसरा पहलू: संन्यास 

15. परन्तु यह तो संन्यास का सिर्फ एक प्रकार हुआ। वह कर्म करके भी नहीं करता, यह उसकी स्थिति एक पहलू हुआ। वह कुछ भी कर्म नहीं करता, फिर भी सारी दुनिया को कर्म करने में प्रवृत्त करता है, यह उसका दूसरा पहलू है। उसमें अपरंपार प्रेरक शक्ति है। अकर्म की खूबी भी यही है। अकर्म में अनंत कार्य के लिए आवश्यक शक्ति भरी रहती है। भाप का भी ऐसा ही है न? भाप को रोककर रखिए, वह कितना प्रचंड कार्य करती है। उस रोकी हुई भाप में अपार शक्ति आ जाती है। बड़े-बड़े जहाज और रेल-गाड़ियों को बात-की बात में खींच ले जाती है। सूर्य की भी ऐसी ही बात है। वह लेश-मात्र भी कर्म नहीं करता, परन्तु चौबीस घंटे लगातार काम करता है। उससे पूछेंगे तो वह कहेगा- "मैं कुछ नहीं करता।" रात-दिन कर्म करते हुए न करना जैसे सूर्य का एक प्रकार हुआ, वैसे ही कुछ न करते हुए रात-दिन अनन्त कर्म करना, यह दूसरा प्रकार हुआ। संन्यास इन दोनों प्रकारों से विभूषित होता है। दोनों असाधारण हैं। एक प्रकार में कर्म प्रकट है और अकर्मावस्था गुप्त है। दूसरे प्रकार में अकर्मावस्था प्रकट दिखायी देती है, परन्तु उसकी बदौलत अनन्त कर्म होते रहते हैं। इस अवस्था में अकर्म में कर्म लबालब भरा रहता है। इसलिए उससे प्रचंड कार्य होता है। इस अवस्था को प्राप्त मनुष्य में और आलसी में बड़ा अन्तर है। आलसी मनुष्य थकेगा, ऊबेगा। लेकिन यह अकर्मी संन्यासी कर्म शक्ति को रोक रखता है। लेशमात्र भी कर्म नहीं करता। वह हाथ-पांव से, किसी इंद्रिय से कोई कर्म नहीं करता। परन्तु कुछ न करते हुए भी वह अनन्त कर्म करता है।


16. किसी मनुष्य को गुस्सा आ गया। यदि हमारी भूल से वह गुस्सा हुआ है, तो हम उसके पास जाते हैं। वह चुप रहता है, बोलना छोड़ देता है। उसके न बोलने का, उस कर्मत्याग का कितना प्रचंड परिणाम होता है। दूसरा फटाफट बोल देगा। दोनों हैं तो गुस्से में ही, परन्तु एक चुप है, दूसरा बड़बड़ाता है। दोनों हैं गुस्से के ही प्रकार। न बोलना, यह भी क्रोध का ही एक रूप है। उससे भी कार्य होता है। मां या बाप ने बच्चे से बोलना बंद कर दिया तो उसका परिणाम कितना प्रचंड होता है। उस बोलने के कर्म को छोड़ देने से, उस कर्म को न करने से ही इतना प्रचंड कर्म होता है कि प्रत्यक्ष कर्म करने पर भी उसका इतना परिणाम नहीं हो सकता था। उस न बोलने का जो प्रभाव हुआ, वह बोलने से नहीं हो सकता। ज्ञानी पुरुष की ऐसी ही स्थिति होती है। उसका अकर्म ही, उसका खामोश बैठना ही, प्रचंड कर्म करता है, प्रचंड सामर्थ्य उत्पन्न करता है। अकर्मी रहकर वह इतने कर्म करता है कि वे सब क्रिया के द्वारा प्रकट ही नहीं हो सकते। इस तरह यह संन्यास का दूसरा प्रकार है। ऐसे संन्यासी की सारी प्रवृत्तियां, उसके सारे उद्योग एक आसन पर आकर बैठ जाते हैं। द्योगाची धांव बैसली आसनीं, पडिलें नारायणीं मोटळें हें। सकळ निश्चिंती झाली हा भरंवसा, नाहीं गर्भवासा येणें ऐसा॥ आपुलिये सत्ते नहीं आम्हां जिणें, अभिमान तेणें नेला देवें। तुका म्हणे चळे एकाचिये सत्ते, आपुलें मी रितेपणें असें॥ {उद्योग की भाग-दौड़ शान्त होकर आसनस्थ हो गयी है। नारायण के चरणों में यह गठरी पड़ी है। मैं पूर्णतः निश्चिंत हो गया हूँ। यह विश्वास हो गया है कि अब मेरा गर्भवास छूट गया है। मैं अब अपनी अहंता से नहीं जीता। भगवान ने मेरा यह अभिमान छीन लिया है। तुकाराम कहता है कि अब सब उसकी ही सत्ता से चल रहा है। मैं अब शून्य-रिक्त बन गया हूँ।} तुकाराम कहते हैं- "मैं अब ख़ाली हो गया हूँ, गठरी होकर पड़ा हूँ। सब उद्योग समाप्त हो गये।" तुकाराम ख़ाली हो गये, परन्तु उस ख़ाली बोरे में प्रचंड प्रेरक शक्ति है। सूर्य खुद आवाज नहीं लगाता, परन्तु उगते ही पंछी उड़ने लगते हैं, मेमने नाचने लगते हैं, गायें वन में चरने जाती हैं। व्यापारी दुकान खोलते हैं। किसान खेत पर जाते हैं, संसार के नाना व्यवहार शुरू हो जाते हैं। सूर्य केवल है, उतने से ही अनन्त कर्म शुरू हो जाते हैं। इस अकर्मावस्था में अनन्त कर्मों की प्रेरणा, सामर्थ्य ठसाठस भरा रहता है। ऐसा यह संन्यास दूसरा अद्भुत प्रकार है।


21. दोनों की तुलना शब्दों से परे 

17. पांचवे अध्याय में संन्यास के दो प्रकारों की तुलना की गयी है। एक चौबीसों घंटे कर्म करके भी कुछ नहीं करता और दूसरा क्षणभर भी कुछ न करके सब कुछ करता है। एक बोलकर न बोलने का प्रकार, तो दूसरा न बोलकर बोलने का प्रकार। इन दो प्रकारों की यहाँ तुलना की गयी है। ये जो दिव्य प्रकार हैं, उनका अवलोकन करें, विचार करें, मनन करें, इसमें अपूर्व आनन्द है। 18. यह विषय ही अपूर्व और उदात्त है। सचमुच संन्यास की यह कल्पना बहुत ही पवित्र और भव्य है। जिस किसी ने यह विचार, यह कल्पना पहले-पहल खोज निकाली, उसे जितने धन्यवाद दिये जायें, थोड़े है। यह बड़ी उज्ज्वल कल्पना है। मानवीय बुद्धि ने, मानवीय विचार ने अब तक जो ऊंची उड़ानें भरी हैं, उन सबमें ऊंची उड़ान इस संन्यास तक पहुँची है। इससे आगे अभी तक कोई उड़ान नहीं भर सका। उड़ान भरना तो जारी है, परन्तु मुझे पता नहीं कि विचार और अनुभव में इतनी ऊंची उड़ान किसी ने भरी हो। इन दो प्रकारों से युक्त संन्यास की केवल कल्पना ही आंखों के सामने आने से अपूर्व आनन्द होता है। किन्तु भाषा और व्यवहार के इस जगत् में जब आते हैं, तब वह आनन्द कम हो जाता है। जान पड़ता है, नीचे गिर रहे हैं। मैं अपने मित्रों से इसके विषय में हमेशा कहता रहता हूँ। आज कितने ही वर्षों से मैं इन दिव्य विचारों का मनन कर रहा हूँ। यहाँ भाषा अधूरी पड़ती है। शब्दों की श्रेणी में यह आता ही नही। 

19. न करके सब कुछ कर डाला और सबकुछ करके भी लेशमात्र नहीं किया- कितनी उदात्त, रसमय और काव्यमय कल्पना है यह! अब काव्य और क्या बाकी रहा? जो कुछ काव्य के नाम से प्रसिद्ध है, वह सब इस काव्य के आगे फीका है। इस कल्पना में जो आनन्द, जो उत्साह, जो स्फूर्ति और जो दिव्यता है, वह किसी भी काव्य में नहीं। इस तरह यह पांचवां अध्याय ऊंची- बड़ी -ऊंची भूमिका पर प्रतिष्ठित किया गया है। चौथे अध्याय तक कर्म, विकर्म बताकर यहाँ बहुत ही ऊंची उड़ान भरी है। यहाँ अकर्म दशा के दो प्रकारों की प्रत्यक्ष तुलना ही की है। यहाँ भाषा लड़खड़ाती है। कर्मयोगी श्रेष्ठ या कर्म संन्यासी श्रेष्ठ? कर्म कौन ज्यादा करता है, यह कहना संभव ही नहीं है। सब करके भी कुछ न करना और कुछ भी न करते हुए सब-कुछ करना, ये दोनों योग ही हैं; परन्तु तुलना के लिए एक को ‘योग’ कहा है, दूसरे को ‘संन्यास’।


22. भूमिति और मीमांसकों का दृष्टांत 

20. अब इनकी तुलना कैसे की जाये? इसके लिए उदाहरणों से ही काम लेना पड़ेगा। जब उदाहरण देने जाते हैं, तो प्रतीत होता है, मानो नीचे गिर रहे हैं। परन्तु नीचे गिरना ही होगा। सच पूछिए तो पूर्ण कर्म संन्यास अथवा पूर्ण कर्मयोग, ये कल्पनाएं ऐसी हैं, जो इस शरीर में नही समा सकती। वे इस देह को फोड़ डालेंगी। परन्तु जो महापुरुष इन कल्पनाओं के नजदीक तक पहुँच गये है, उनके उदाहरण से हमें काम चलाना होगा। उदाहरण तो सदा अधूरे ही रहने वाले हैं, परन्तु थोड़ी देर के लिए यही मान लेना होगा कि वे पूर्ण हैं। 


21. रेखा-गणित में कहते है कि ‘कल्पना’ करो ‘अ ब क’ एक त्रिकोण है। भला ‘कल्पना’ क्यों करें? क्योंकि इस त्रिकोण की रेखाएं यथार्थ रेखाएं नहीं है। रेखा की तो व्याख्या ही यह है कि उसमें लंबाई है, पर चौडाई नहीं। श्यामपट्ट पर बिना चौड़ाई के यह लंबाई दिखायी कैसे जाये? लंबाई जहाँ आयी, वहाँ चौडाई आ ही जाती है। जो भी रेखा हम खींचेंगे, उसमें कुछ-न-कुछ चौड़ाई रहेगी है। इसलिए भूमिति-शास्त्र में रेखा 'माने' बिना काम नहीं चलता। भक्ति-शास्त्र में क्या ऐसी ही बात नहीं है? वहाँ भी भक्त कहता है- "इस छोटी-सी शालग्राम की बटिया में अखिल ब्रह्मांड का स्वामी है, यह 'मानो'।" यदि कोई कहे- "यह क्या पागलपन है।" तो उससे कहो- "तुम्हारी यह भूमिति क्या पागलपन नहीं है? सर्वथा स्पष्ट मोटी रेखा दिखायी पड़ती है और कहते हो कि इसे बिना चौडाई की मानो। यह कैसा पागलपन है! खुर्दबीन से देखोगे, तो वह आधी इंच चौड़ी दिखायी देगी।" 


22. जैसे तुम अपनी भूमिति में मानते हो, वैसे ही भक्ति-शास्त्र कहता है कि इस "शालग्राम में परमेश्वर मानो।" अब कोई यदि कहे कि "परमेश्वर न टूटता है, न फूटता। तुम्हारा यह शालग्राम तो टूट जायेगा, लगांऊ एक चोट?" तो यह समझदारी नहीं कही जायेगी; क्योंकि जब भूमिति में 'मानो' चलता है, तो भक्ति-शास्त्र में क्यों न चलना चाहिए? बिंदु को कहते हैं, 'मानो' और श्यामपट्ट पर बिंदु (प्रत्यक्ष) बनाते हैं। बिंदु भी क्या, एक खासा वर्तुल होता है। बिंदु की व्याख्या यानि ब्रह्म की व्याख्या है। बिंदु को न लंबाई, न चौडाई, न मोटाई कुछ भी नहीं। किन्तु व्याख्या ऐसी करते हुए उसे तख्ते पर बनाकर दिखाते हैं। बिन्दु तो वास्तव में अस्तित्व मात्र है, त्रि-परिणामरहित है। सारांश यह कि सच्चा त्रिकोण, सच्चा बिन्दु व्याख्या में ही रहते हैं, परन्तु हमें उसे मानकर चलना पड़ता है। भक्ति-शास्त्र में भी शालग्राम में न टूटने-फूटने वाला सर्वव्यापी परमेश्वर मानना पड़ता है। हम भी ऐसे ही काल्पनिक दृष्टांत लेकर इनकी तुलना करेंगे।


22. भूमिति और मीमांसकों का दृष्टांत 

23. मीमांसकों ने तो बड़ा मजा ही किया है। परमेश्वर कहाँ है- इसकी मीमांसा करते हुए उन्होंने बड़ा सुन्दर निरूपण किया है। वेदों में इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि देवता हैं। इन देवताओं का विचार मीमांसा में करते हुए एक ऐसा प्रश्न पूछा जाता है- "यह इन्द्र कैसा है? इसका रूप कैसा है? यह रहता कहाँ है?" मीमांसक उत्तर देते हैं- ‘इन्द्र’ शब्द ही इन्द्र का रूप है। ‘इन्द्र’ शब्द में ही वह रहता है। ‘इ’ और उस पर ‘अनुस्वार’, फिर ‘द्र’- यही उसका स्वरूप है। वही उसकी मूर्ति, वही प्रमाण। वरुण देवता कैसा? वैसे ही। पहले ‘व’ फिर ‘रु’ फिर ‘ण’। व रु ण यह है वरुण का रूप। इसी तरह अग्नि आदि देवताओं के विषय में समझिए। ये सारे देवता अक्षररूपधारी हैं। देवता सब अक्षर-मूर्ति हैं, इस कल्पना में- इस विचार में बड़ी मिठास है। देव यह कल्पना, यह वस्तु आकार में न समाने जैसी है। उस कल्पना को दर्शाने के लिए अक्षर, यही एक चिह्न पर्याप्त होगा। ईश्वर कैसा है? तो ‘ई’ फिर ‘श्व’ फिर ‘र’ आखिर में ‘ॐ’ ने तो कमाल ही कर डाला। 'ॐ’ अक्षर ही ईश्वर हो गया। ईश्वर के लिए वह एक संज्ञा ही बना दी। ऐसी संज्ञाएं बनानी पड़ती हैं, क्योंकि मूर्ति में, आकार में ये विशाल कल्पनाएं समा ही नहीं सकतीं। परन्तु मनुष्य की इच्छा बड़ी प्रचंड होती है। वह इन कल्पनाओं को मूर्ति में बैठाने का प्रयत्न करता ही है।


23. संन्यासी और योगी एक ही: शुक-जनकवत् 24. संन्यास और योग, ये बहुत ऊंची उड़ानें हैं। पूर्ण संन्यास और पूर्ण योग की कल्पना इस देह में नही समा सकती। भले ही देह में ये ध्येय न समा सकें, तो भी विचार में जरूर समा जाते हैं। पूर्ण योगी और पूर्ण संन्यासी तो व्याख्या में ही रहने वाले हैं। वे ध्येयभूत और अप्राप्य ही रहेंगे, परन्तु उदाहरण के तौर पर ऐसे व्यक्ति लेने होंगे जो इन कल्पनाओं के अधिक-से-अधिक नजदीक पहुँच पाये होंगे। फिर भूमिति की तरह कहना होगा कि इसे ‘पूर्ण योगी’ और इसे ‘पूर्ण संन्यासी’ समझो। संन्यास का उदाहरण देते समय शुक, याज्ञवल्क्य के नाम लिये जाते है। इधर कर्मयोगी के रूप में जनक और श्रीकृष्ण का नाम भगवद् गीता में ही लिया गया है। लोकमान्य ने ‘गीतारहस्य’ में एक नामावली ही दे दी है। "जनक, श्रीकृष्ण आदि इस मार्ग से गये; शुक, याज्ञवल्क्य आदि उस मार्ग से गये।" परन्तु थोड़ा विचार करने से यह सूची उसी तरह मिटायी जा सकती है, जैसे भीगे हाथ से लिखा हुआ मिटाया जा सकता है। याज्ञवल्क्य संन्यासी थे, जनक कर्मयोगी थे यानि संन्यासी याज्ञवल्क्य के कर्मयोगी जनक शिष्य थे, लेकिन उसी जनक के शिष्य शुकदेव संन्यासी हुए। याज्ञवल्क्य के शिष्य जनक और जनक के शिष्य शुक। संन्यासी, फिर कर्मयोगी, फिर संन्यासी- ऐसी यह मालिका बनती है। इस तरह योग और संन्यास एक ही परम्परा में आ जाते हैं। 25. शुकदेव से व्यास ने कहा- "बेटा शुक, तुम ज्ञानी तो हो, परन्तु गुरु की मोहर (छाप) अभी तुम पर नहीं लगी। इसलिए तुम जनक के पास जाओ।" शुकदेव चले। जनक तीसरी मंजिल पर अपने दीवानखाने में बैठे थे। शुक थे वनवासी। नगर देखते-देखते चले। जनक ने शुकदेव से पूछा- "क्यों आये?" शुक ने कहा- "ज्ञान पाने के लिए।" "किसने भेजा?" "व्यासदेव ने।" "कहां से आये?" "आश्रम से।" "आते हुए यहाँ बाजार में क्या-क्या देखा?" "चारों तरफ एक ही शक्कर की मिठाई सजी हुई दिखायी दी।" "और क्या देखा?" "चलते-बोलते शक्कर के पुतले देखे।" "फिर क्या देखा?" "यहाँ आते हुए शक्कर की सख्त सीढ़ियां मिलीं।" "फिर क्या मिला?" "शक्कर के चित्र यहाँ भी सर्वत्र देखे।" "अब क्या दीख रहा है?" "शक्कर का एक पुतला शक्कर के दूसरे पुतले से बात कर रहा है।" जनक ने कहा- "जाओ, तुम्हें सब ज्ञान मिल चुका।" शुकदेव को जनक के हस्ताक्षर का प्रमाणपत्र चाहिए था, वह मिल गया। मुद्दा यह कि कर्मयोगी जनक ने संन्यासी शुकदेव को शिष्य के रूप में पास किया। शुक है संन्यासी, परन्तु देखो कैसा मजेदार है! परीक्षित को शाप मिला ‘सात दिन में तुम मर जाओगे।’ परीक्षित को मरने की तैयारी करनी थी। उसे ऐसा गुरु चाहिए था, जो यह सिखाये कि मरें कैसे? उसने शुकाचार्य को बुलाया। शुकाचार्य जो आकर बैठे तो 24 × 7 = 168 घंटे पालथी मारकर भागवत सुनाते रहे। जो आसन जमाया, सो फिर छोड़ा ही नहीं। लगातार कथा कहते ही रहे। आप कहेंगे, ‘इसमें कौन बड़ी बात है?’ बड़ी बात यह कि सतत सात दिन तक उनसे भारी श्रम कराया गया, फिर भी उन्हें कुछ नहीं मालूम हुआ। सतत कर्म करते रहकर भी मानो वे कर्म कर ही नहीं रहे थे। श्रम की भावना ही वहाँ नहीं थी। सार यह कि संन्यास और कर्मयोग, दोनों भिन्न हैं ही नहीं।


26. इसलिए भगवान कहते हैं- एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति। संन्यास और योग में जो एकरूपता देखेगा, उसी ने वास्तविक रहस्य को समझा है। एक न करके करता है और दूसरा करके भी नहीं करता। जो सचमुच श्रेष्ठ संन्यासी है, जिसकी सदैव समाधि लगी रहती है, जो बिलकुल निर्विकार है, ऐसे संन्यासी पुरुष को दस दिन हमारे- आपके बीच आकर रहने दो। कितना प्रकाश, कितनी स्फूर्ति उससे मिलेगी! अनेक वर्षों तक काम का ढेर लगाकर भी जो नहीं हुआ होगा, वह केवल उसके दर्शन से- अस्तित्व मात्र से- हो जायेगा। फोटो देखकर यदि मन में पावनता उत्पन्न होती है, मृत लोगों के चित्रों से यदि भक्ति, प्रेम और पवित्रता हृदय में उत्पन्न होती है, तो जीवित संन्यासी को देखने से पता नहीं कितनी प्रेरणा प्राप्त होगी? 


27. संन्यासी और योगी, दोनों भी लोकसंग्रह करते हैं। एक जगह बाहर से कर्मत्याग दिखायी दिया, तो भी उस कर्मत्याग में कर्म ठसाठस भरा हुआ है। उसमें अनन्त स्फूर्ति भरी हुई है। ज्ञानी संन्यासी, और ज्ञानी कर्मयोगी, दोनों एक ही सिंहासन पर बैठने वाले हैं। संज्ञा भिन्न-भिन्न होने पर भी अर्थ एक ही है। एक ही तत्त्व के ये दोनों पहलू या प्रकार हैं। यंत्र जब वेग से घूमता है, तो वह ऐसा दिखायी देता है मानो स्थिर है, घूम ही नहीं रहा। संन्यासी की भी स्थिति ऐसी ही होती है। उसकी शांति में से, स्थिरता में से अनंत शक्ति, अपार प्रेरणा मिलती है। महावीर, बुद्ध, निवृत्तिनाथ ऐसी ही विभूतियां थीं। संन्यासी के सभी उद्योगों की दौड़ एक आसन पर आकर स्थिर हो जाये, तो भी वह प्रचंड कर्म करता है। सारांश यह कि योगी ही संन्यासी है और संन्यासी ही योगी है। दोनों में कुछ भी भेद नहीं है। शब्द अलग-अलग हैं, पर अर्थ एक ही है। जैसे पत्थर के मानी पाषाण और पाषाण मानी पत्थर हे, वैसे ही कर्मयोगी मानी संन्यासी और संन्यासी के मानी कर्मयोगी है।


24. फिर भी संन्यास से कर्मयोग विशेष माना गया है 

28. बात यद्यपि ऐसी है, तथापि भगवान ने एक बिंदू चढ़ा ही दिया है। भगवान कहते हैं- "संन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।" जब दोनों ही एक-से हैं, तो फिर भगवान ऐसा क्यों कहते हैं? इसमें क्या रहस्य है? जब भगवान कहते हैं कि कर्मयोग श्रेष्ठ है, तब वे साधक की दृष्टि से कहते हैं। बिलकुल कर्म न करते हुए सब कर्म करने की विधि एक सिद्ध के लिए ही शक्य है, साधक के लिए नहीं। परन्तु सब कर्म करके भी कुछ न करना, इस तरीके का थोड़ा-बहुत अनुकरण किया जा सकता है। एक विधि ऐसी है, जो साधक के लिए शक्य नहीं, सिर्फ सिद्ध के लिए ही शक्य है। दूसरी ऐसी है, जो साधक के लिए भी थोड़ी-बहुत शक्य है। बिलकुल कर्म न करते हुए कर्म कैसे करना, यह साधक के लिए एक पहेली ही रहेगी। यह उसकी समझ में नही आ सकता। कर्मयोग साधक के लिए मार्ग भी है और मंजिल भी है, परन्तु संन्यास तो आखिरी मंजिल पर ही है, मार्ग में नहीं है। इसी कारण साधक की दृष्टि से संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है। 


29. इसी न्याय से भगवान ने आगे बारहवें अध्याय में निर्गुण की अपेक्षा सगुण को विशेष माना है। सगुण में सब इंद्रियों के लिए काम है, निर्गुण में ऐसा नहीं है। निर्गुण में हाथ बेकार, पांव बेकार, आंखें बेकार- सब इंद्रियां कर्मशून्य ही रहती हैं। साधक से यह सब नहीं सध सकता। परन्तु सगुण में ऐसी बात नहीं है। आंखों से रूप देख सकते हैं, कानों से कीर्तन सुन सकते हैं, हाथों से पूजा कर सकते हैं, लोगों की सेवा कर सकते हैं, पांवों से तीर्थयात्रा हो सकती है। इस तरह सब इंद्रियों को काम देकर उनसे वैसा काम कराते हुए धीरे-धीरे उन्हें हरिमय बना देना सगुण में शक्य रहता हैं परन्तु निर्गुण में सब बंद- जीभ बंद, कान बंद, हाथ-पैर बंद। यह सारा ‘बंदी’ प्रकार देखकर बेचारा साधक घबरा जाता है। फिर उसके चित्त में निर्गुण पैठैगा कैसे? वह यदि खामोश बैठा रहेगा, तो उसके चित्त में ऊटपटांग विचार आने लगेंगे। इंद्रियों का यह स्वभाव ही है कि उन्हें कहते हैं कि न करो, तो वे जरूर करेंगी। विज्ञापनों में क्या ऐसा नहीं होता? ऊपर लिखते हैं ‘मत पढ़ो।’ तो पाठक मन में कहता है कि यह जो न पढ़ने को लिखा है, तो पहले इसी को पढ़ों। ‘मत पढ़ो’ कहना इसी उद्देश्य से होता है कि पाठक उसे जरूर पढ़े। मनुष्य अवश्य ही उसे ध्यानपूर्वक पढ़ता है। निर्गुण में मन भटकता रहेगा। सगुण भक्ति में ऐसी बात नहीं। वहाँ आरती है, पूजा है, सेवा है, भूतदया है, इंद्रियो के लिए वहाँ काम है। इन्हीं इंद्रियों को ठीक काम में लगाकर फिर मन से कहो- ‘‘अब जाओ, जहाँ जी चाहे।’’ परन्तु तब मन नहीं जायेगा। वही रमा रहेगा, अनजाने ही एकाग्र हो जायेगा। परन्तु यदि उसे जान-बूझकर एक स्थान पर बैठाना चाहोगे, तो वह भागा ही समझो। भिन्न-भिन्न इंद्रियों को उत्तम, सुंदर काम में लगा दो, फिर मन को खुशी से भटकने के लिए कह दो। वह नहीं भटकेगा। उसे जाने की बिलकुल छुट्टी दे तो, तो वह कहेगा- "लो, मैं यहीं बैठ गया।" यदि उसे हुक्म दिया कि "चुप बैठो" तो कहेगा "मैं यह चला।" 


30. देहधारी मनुष्य के लिए सुलभता की दृष्टि से निर्गुण की अपेक्षा सगुण श्रेष्ठ है। कर्म करते हुए भी उसे उड़ा देने की युक्ति, कर्म न करते हुए कर्म करने की अपेक्षा श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें सुलभता है। कर्मयोग में प्रयत्न, अभ्यास के लिए जगह है। जब इंद्रियों को अपने वश में करके धीरे-धीरे सब उद्योगों से मन हटा लेने का अभ्यास कर्मयोग में किया जा सकता है। यह युक्ति आज न सधी, तो भी सधने जैसी है। कर्मयोग अनुकरण-सुलभ है, यही संन्यास की अपेक्षा उसकी विशेषता है। परन्तु पूर्णावस्था में कर्मयोग और संन्यास, दोनों समान ही हैं। पूर्ण संन्यास और पूर्ण कर्मयोग, दोनों एक ही हैं। नाम दो हैं, देखने में अलग-अलग है, परन्तु असल में दोनों है एक ही। एकप्रकार में कर्म का भूत बाहर नाचता हुआ दिखायी देता है, परन्तु भीतर शांति है। दूसरे प्रकार में कुछ न करते हुए त्रिभुवन को हिला डालने की शक्ति है। जैसा दीख पड़ता है, वैसा न होना- यह दोनों का स्वरूप है। पूर्ण कर्मयोग संन्यास है, तो पूर्ण संन्यास कर्मयोग है। कोई भेद नहीं, परन्तु साधक के लिए कर्मयोग सुलभ है। पूर्णावस्था में दोनों एक ही हैं। 


31. ज्ञानदेव को चांगदेव ने एक पत्र भेजा। वह सिर्फ कोरे कागज का पत्र था। चांगदेव से ज्ञानदेव उम्र में छोटे थे। ‘चिरंजीव’ लिखते हैं तो ज्ञानदेव ज्ञान में श्रेष्ठ। ‘पूज्य’ लिखते हैं, तो उम्र में कम। तब सिरनामा क्या लिखें? इसका कुछ निश्चय नहीं हो पाता था। अतः चांगदेव ने कोरा कागज ही भेज दिया। वह पहले निवृत्तिनाथ के हाथ में पड़ा। उन्होंने उसे पढ़कर ज्ञानदेव को दे दिया। ज्ञानदेव ने पढ़ा और मुक्ताबाई को दे दिया। मुक्ताबाई ने पढ़कर कहा- "चांगदेव इतना बड़ा हो गया है, पर है अभी कोरा-का-कोरा ही।" निवृत्तिनाथ ने और ही अर्थ पढ़ा था। उन्होंने कहा- "चांगदेव कोरे हैं, शुद्ध हैं, निर्मल हैं, उपदेश देने योग्य हैं।" फिर ज्ञानदेव से पत्र का जबाव देने के लिए कहा। ज्ञानदेव ने 65 ओवियों का पत्र भेजा। उसे ‘चांगदेव-पासष्टी’ कहते हैं। ऐसी इस पत्र की मनोरंजक कथा है। लिखा हुआ पढ़ना सरल है, परन्तु न लिखा हुआ पढ़ना कठिन। उसका पढ़ना कभी समाप्त नहीं होता। इसी तरह संन्यासी रीता-कोरा दिखायी दे, तो भी उसमें अपरंपार कर्म भरा रहता है।


32. संन्यास और कर्मयोग, पूर्ण रूप में दोनों की कीमत एक-सी है; परन्तु कर्मयोग को उसके अलावा व्यावहारिक कीमत ज्यादा की है। किसी एक नोट की कीमत पांच रूपये है। सोने का सिक्का भी पांच रूपये का होता है। जब तक सरकार स्थिर है, तब तक दोनों की कीमत एक सी है, परन्तु यदि सरकार बदल गयी तो फिर व्यवहार में उस नोट की कीमत एक पाई भी नहीं रहती। मगर सोने के सिक्के की कीमत जरूर कुछ-न-कुछ मिल जायेगी, क्योंकि आखिर वह सोना है। पूर्णावस्था में कर्मत्याग और कर्मयोग, दोनों की कीमत एक-सी है; क्योंकि ज्ञान दोनों में है। ज्ञान की कीमत अनंत है। अनंत में कुछ भी मिलाओ, कीमत अनंत ही रहती है, गणित शास्त्र का यह सिद्धान्त है। कर्मत्याग और कर्मयोग जब परिपूर्ण ज्ञान में मिल जाते हैं, तो दोनों की कीमत बराबर हो जाती है; परन्तु ज्ञान को यदि दोनों ओर से हटा लिया, तो फिर कर्मत्याग की अपेक्षा कर्मयोग ही साधक के लिए श्रेष्ठ सिद्ध होगा। ठोस, शुद्ध ज्ञान दोनों ओर डाला जाये तो कीमत एक-सी है। मंजिल पर पहुँच जाने पर ज्ञान + कर्म = ज्ञान + कर्माभाव। परन्तु ज्ञान को दोनों ओर से घटा दीजिए तो फिर कर्म के अभाव की अपेक्षा कर्म ही साधक की दृष्टि से श्रेष्ठ ठहरेगा। न करके करना साधक की समझ में ही नहीं आ सकता। करके न करना वह समझ सकता है। कर्मयोग मार्ग में भी है और मुकाम पर भी है परन्तु संन्यास सिर्फ मुकाम पर ही है, मार्ग में नहीं। यदि यही बात शास्त्र की भाषा में कहनी हो, तो कर्मयोग साधन भी है और निष्ठा भी, परन्तु संन्यास सिर्फ निष्ठा है। निष्ठा का अर्थ है, अंतिम अवस्था।



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