आत्मानात्म-विवेक

67. कर्मयोग के लिए उपकारक देहात्म-पृथक्करण

1. व्यासदेव ने अपने जीवन का सार भगवद्गीता में उड़ेल दिया है। उन्होंने विस्तारपूर्वक दूसरा भी बहुत कुछ लिखा है। महाभारत संहिता में ही लाख-सवा लाख श्लोक हैं। संस्कृत मेंव्यासशब्द का अर्थ हीविस्तारऐसा हो गया है। परंतु भगवद्गीता में उनका सुझाव विस्तार करने की ओर नहीं है। भूमिति में जिस प्रकार युक्लिड ने सिद्धांत बता दिये हैं, तत्त्व दिखला दिये हैं, उसी प्रकार व्यासदेव ने जीवन के लिए उपयोगी तत्त्व गीता में लिख दिये हैं। भगवद्गीता में तो विशेष चर्चा ही है, विस्तार ही। इसका मुख्य कारण यह है कि जो बातें गीता में कही गयी हैं, उन्हें प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में परख सकता है, बल्कि वे इसीलिए कही गयी हैं कि लोग उन्हें परखें। जितनी बातें जीवन के लिए उपयोगी हैं, उतनी ही गीता में कही गयी हैं। उनके कहने का उद्देश्य भी इतना ही था, इसीलिए व्यासदेव ने थोड़े तत्त्व बताकर संतोष मान लिया है। उनकी इस संतोष-वृत्ति में सत्य तथा आत्मानुभव पर का उनका महान विश्वास हमें दिखायी देता है। जो बात सत्य है, उसके समर्थन के लिए विशेष युक्ति काम में लाने की जरूरत नहीं रहती।

 

2. हम जो गीता की बात कर रहे हैं, उसका मुख्य उद्देश्य यह है कि जीवन में जब-जब हमें किसी सहायता की आवश्यकता प्रतीत हो, तब-तब वह गीता से हमें मिलती रहे। और वह हमें सदैव मिलने जैसी भी है। गीता जीवनोपयोगी शास्त्र है और इसीलिए उसमें स्वधर्म पर इतना जोर दिया है। मनुष्य के जीवन की बड़ी नींव अगर कोई है, तो वह स्वधर्माचरण ही है। उसकी सारी इमारत इस स्वधर्माचरणरूपरी नींव पर खड़ी करनी है। यह पाया जितना मजबूत होगा, इमारत उतनी ही टिकाऊ होगी। इस स्वधर्माचरण को गीताकर्मकहती है। इस स्वधर्माचरणरूप कर्म के इर्द-गिर्द गीता में विविध बातें खड़ी कर दी गयी हैं। उसकी रक्षा के लिए अनेक विकर्म रचे गये हैं। स्वधर्माचरण को सजाने के लिए, उसे सुंदर बनाने के लिए, और सफल करने के लिए जिन-जिन आधारों की और सहायता की जरूरत है, वह सारी मदद इस स्वधर्माचरणरूप कर्म को देना जरूरी है। इसलिए अब तक ऐसी बहुतेरी चीजें हमने देखीं। उनमें बहुत-सी भक्ति के रूप में थीं। आज तेरहवें अध्याय में जो चीज हमें देखनी है, वह भी स्वधर्माचरण में बहुत उपयोगी है। उसका संबंध विचार-पक्ष से है।

3. स्वधर्माचरण करने वाले को फलत्याग करना चाहिए, वह प्रधान बात गीता में सर्वत्र कही गयी है। कर्म तो करें, पर उसका फल छोड़ दें। पेड़ को पानी पिलायें, उसकी परवरिश करें; परंतु उसकी छाया की, फूल-फल की अपने लिए अपेक्षा रखें। यह स्वधर्माचरण कर्मयोग है। कर्मयोग का अर्थ केवल इतना ही नहीं कि कर्म करते रहो। कर्म तो इस सृष्टि में सर्वत्र हो ही रहा है। उसे बताने की जरूरत नहीं है; परंतु स्वधर्माचरण रूप कर्म- कोरा कर्म नहीं- भलीभाँति करके उसका फल छोड़ देना- यह बात कहने में, समझने में बड़ी सरल मालूम होती है, परंतु आचरण में कठिन है। किसी कार्य की प्रेरक शक्ति ही मूलतः फल-वासना मानी गयी है। फल-वासना को छोड़कर कर्म करना उलटा पंथ है। व्यवहार या संसार की रीति के विपरीत यह क्रिया है। जो व्यक्ति बहुत कर्म करता है, उसके जीवन में गीता का कर्मयोग है, ऐसा हम बहुत बार कहते हैं। बहुत कर्म करने वाले का जीवन कर्मयोगमय है, ऐसा हम कहते हैं; परंतु इस प्रयोग में भाषा-शैथिल्य है। गीता की व्याख्या के अनुसार वह कर्मयोग नहीं है। लाखों कर्म करने वालों में, केवल कर्म ही नहीं बल्कि स्वधर्माचरणरूप कर्म करने वाले लाखों लोगों में भी- गीता के कर्मयोग का आचरण करने वाला विरला ही मिलेगा। कर्मयोग को सूक्ष्म और सच्चे अर्थ में देखा जाये, तो ऐसा संपूर्ण कर्मयोगी शायद ही कहीं मिले। कर्म तो करें, परंतु उसके फल को छोड़ दें, यह बिलकुल असाधारण बात है। अब तक गीता में यही विश्लेषण, यही पृथक्करण किया गया है। 4. उस विश्लेषण या पृथक्करण के लिए ही उपयोगी एक दूसरा पृथक्करण इस तेरहवें अध्याय में बताया गया है। 'कर्म करें और उसके फल की आसक्ति छोड़ दें'- इस पृथक्करण का सहायक दूसरा महान पृथक्करण है, 'देह और आत्मा' का। यही तेरहवें अध्याय में उपस्थित किया गया है। आंखों से हम जिस रूप को देखते हैं, उसे हम मूर्ति, आकार, देह कहते हैं। बाह्य मूर्ति का परिचय हमारी आंखों को हो जाये, तो भी वस्तु के अंतरंग में हमें प्रवेश करना पड़ता है। फल का ऊपरी कवच- छिलका निकालकर उसका भीतरी गूदा चखना पड़ता है। नारियल हो तब भी उसे फोड़कर भीतर क्या है, ये देखना पड़ता है। कटहल पर कांटे लगे रहते हैं, लेकिन भीतर बढ़िया और रसीला गूदा भरा रहता है। हम चाहे अपनी ओर देखें, चाहे दूसरों की ओर, यह भीतर और बाहर का पृथक्करण आवश्यक हो जाता है। तो अब छिलका अलग करने का अर्थ क्या? इसका अर्थ यह कि प्रत्येक वस्तु के भीतरी और बाहरी रूप का पृथक्करण किया जाये। बाह्य देह और भीतरी आत्मा, इस तरह प्रत्येक वस्तु का दुहरा रूप है। कर्म में भी यह बात है। बाहरी फल कर्म का शरीर है और कर्म की बदौलत जो चित्त-शुद्धि होती है, वह उस कर्म की आत्मा है। स्वधर्माचरण का बाहरी फलरूप शरीर छोड़कर भीतरी चित्तशुद्धि रूप सारभूत आत्मा को हम ग्रहण करें, हृदय में धारण कर लें। इस प्रकार देखने की आदत, देह को हटाकर प्रत्येक वस्तु का सार ग्रहण करने की सारग्राही दृष्टि, हमें प्राप्त कर लेनी चाहिए। आंखों को, मन को, विचार को, ऐसी शिक्षा, ऐसी आदत, ऐसा अभ्यास करा देना चाहिए। हर बात में देह को अलग करके आत्मा की पूजा करनी चाहिए। विचार के लिए यह पृथक्करण तेरहवें अध्याय में दिया गया है।

68. सुधार का मूलाधार 5.सारग्राही दृष्टि रखने का विचार बहुत महत्त्वपूर्ण है। यदि बचपन से ही हम ऐसी आदत डाल लें, तो कितना अच्छा हो! यह विषय हजम कर लेने जैसा है। यह दृष्टि स्वीकार करने योग्य है। बहुतों को ऐसा लगता है कि अध्यात्म-विद्या का जीवन से कोई संबंध नहीं। कुछ लोगों का ऐसा भी मत है कि यदि ऐसा कोई संबंध भी हो, तो वह नहीं होना चाहिए। देह से आत्मा को अलग समझने की शिक्षा बचपन से ही देने की योजना की जा सके, तो बड़े आनंद की बात होगी। यह शिक्षा का विषय है। आजकल कुशिक्षा के फलस्वरूप बड़े बुरे संस्कार हो रहे हैं। 'मैं केवल देहरूप हूं'- इस कल्पना में से यह शिक्षा हमें बाहर लाती ही नहीं। सब देह के ही चोंचले चल रहे हैं। किंतु इसके बावजूद देह को जो स्वरूप प्राप्त होना चाहिए, या देना चाहिए, वह तो कहीं दिखायी ही नहीं देता। इस तरह इस देह की यह वृथा पूजा हो रही है। आत्मा के माधुर्य की ओर ध्यान ही नहीं है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति से यह स्थिति बन गयी है। इस तरह देह की पूजा का अभ्यास दिन-रात कराया जाता है। ठेठ बचपन से ही हमें इस देह-देवता की पूजा-अर्चा करना सिखाया जाता है। जरा कहीं पांव में ठोकर लग गयी, तो मिट्टी लगाने से काम चल जाता है। बच्चे का इतने भर से काम निपट जाता है या मिट्टी लगाने की भी उसे जरूरत महसूस नहीं होती। थोड़ी-बहुत चोट-खुरच लगी तो वह चिंता भी नहीं करेगा, परंतु उस बच्चे का जो संरक्षक है, पालक है, उसका इतने से नहीं चलता। वह बच्चे को पास बुलाकर कहेगा- "हाय राम, चोट लग गयी! कैसे लगी, कहाँ लगी? अरेरे, खून निकल आया है!" ऐसा कहकर, वह बच्चा रोता हो तो उलटा उसे रुला देता है। रोने वाले बच्चे को रुलाने की इस वृत्ति को क्या कहा जाये? कहते हैं- "कूदफांद मत करो, खेलने मत जाओ, देखो गिर पड़ोगे, चोट लग जायेगी", इस तरह देह पर ही ध्यान देने वाली एकांगी शिक्षा दी जाती है।

6. बच्चे की प्रशंसा भी करते हैं, तो देहपक्ष को लेकर और उसकी निंदा भी देहपक्ष को लेकर ही करते हैं। कहते हैं- "कैसा गंदा है रे" इससे बच्चे को कितनी चोट लगती है। कैसा मिथ्या आरोप है यह! गंदगी है, यह सही है। उसे साफ करना चाहिए, यह भी सही है। लेकिन इस गंदगी को सहज साफ करके उस बच्चे पर इस तरह आघात किया जाता है। बच्चा उसे सहन नहीं कर पाता। वह बड़ा दुःखी हो जाता है। उसके अंतरंग में, उसकी आत्मा में स्वच्छता, निर्मलता भरी है, तो भी उस पर गंदे होने का यह कैसा व्यर्थ आरोप! वास्तव में वह लड़का गंदा नहीं है। जो अत्यंत सुंदर मधुर, पवित्र, प्रिय परमात्मा है, वही वह है। उसी का अंश उसमें विद्यमान है। परंतु उसे कहते हैं 'गंदा।' उस गंदगी से उसका क्या संबंध है; यह बात बच्चे की समझ में नहीं आती, इसलिए वह इस आघात को सहन नहीं कर पाता। उसके चित्त में क्षोभ होता है और क्षोभ उत्पन्न होने पर सुधार नहीं होता। अतः उसे अच्छी तरह समझाकर साफ-सुथरा रखना चाहिए। 7 इसके विपरीत कृति करके उस लड़के के मन पर हम यह अंकित करते हैं कि वह देह हैं शिक्षा-शास्त्र में इसे एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत मानना चाहिए। गुरु को यह भावना रखनी चाहिए कि मैं जिसे पढ़ा रहा हूं, वह सर्वांग सुंदर है। सवाल गलत होने पर मुंह पर थप्पड़ लगाते हैं। उस चांटे का और सवाल की गलती का क्या संबंध? स्कूल में देर से आया, तो लगाया चांटा। चांटे से उसके गाल पर रक्ताभिसरण तेज होने लगेगा, पर इससे क्या वह स्कूल में जल्दी आयेगा? खून की यह तेजी क्या यह बतला सकेगी कि इस समय कितने बजे हैं? बल्कि सच पूछिए कि इस तरह मार-पीट करके हम उस बच्चे की पशुवृत्ति ही बढ़ाते हैं। 'तुम यह देह ही हो'- यह भावना पक्की करते हैं। उसका जीवन डर की भावना पर खड़ा किया जाता है। यदि हमें सचमुच सुधार करना है, तो वह इस तरह जबरदस्ती करके देहासक्ति बढ़ाने से कभी नही हो सकता। जब मैं यह समझ लूंगा कि मैं देह से भिन्न हूं, तभी मेरा सुधार हो सकेगा।

8. देह में अथवा मन में रहने वाले किसी दोष का ज्ञान होना बुरा नहीं। इससे उस दोष को दूर करने में सहायता मिलती है; परंतु हमें यह बात साफ तौर से मालूम रहनी चाहिए कि 'मैं देह नहीं हूँ।' 'मैं' जो हूं, सो इस देह से सर्वथा भिन्न, पृथक, अत्यंत सुंदर, उज्ज्वल, पवित्र, निर्दोष हूँ। अपने दोषों को दूर करने के लिए जो आत्म-परीक्षण करता है, वह भी तो अपने को देह से पृथक करके ही ऐसा करता है। अतः जब कोई उसे उसका दोष दिखाता है तो उसे गुस्सा नहीं आता; बल्कि इस शरीररूप, इस मनोरूपी यंत्र में क्या दोष है, इसका विचार करके वह अपना दोष दूर करता है। इसके विपरीत जो देह हो अपने से पृथक नहीं मानता, वह सुधार कर ही नहीं सकता। 'यह देह, यह पिंड, यह मिट्टी का पुतला, यही मैं'- ऐसा जो मानता है, वह अपना सुधार कैसे करेगा? सुधार तभी हो सकेगा, जब हम यह मानेंगे कि यह देह साधन रूप में मुझे मिली है। चरखे में यदि किसी ने कोई कमी या दोष दिखाया, तो क्या मुझे गुस्सा आता है? बल्कि कोई दोष होता है, तो मैं उसे दूर करता हूँ। ऐसी ही बात देह की है। जैसे खेती के औजार, वैसी ही यह देह है। देह भगवान के घर की खेती का एक औजार ही है। यह औजार यदि खराब हो जाये, तो उसे अवश्य सुधारना चाहिए। यह देह एक साधन के रूप में प्रस्तुत है। अतः देह से अपने को अलग रखकर दोषों से मुक्त होने का प्रयत्न हमें करना चाहिए। इस देहरूपी साधन से मैं पृथक हूं, मैं स्वामी हूं, मालिक हूं, इस देह से काम कराने वाला, इससे उत्कृष्ट सेवा लेने वाला मैं हूँ। बचपन से ही इस प्रकार देह से अलग होने की वृत्ति सिखानी चाहिए।

9. खेल से अलग रहने वाले तटस्थ लोग जैसे खेल के गुण-दोषों को अच्छी तरह देख सकते हैं, उसी तरह हम भी देह-मन-बुद्धि से अपने को अलग रखकर ही उनके गुण-दोष परख सकेंगे। कोई कहता है- 'इधर जरा मेरी स्मरण-शक्ति कम हो गयी है, इसका कोई उपाय बताइए !' जब मनुष्य ऐसा कहता है तब वह उस स्मरण-शक्ति से भिन्न है, यह स्पष्ट हो जाता है। वह कहता है- 'मेरी स्मरण-शक्ति खराब हो गयी है।' इसका अर्थ यह हुआ कि उसका कोई साधन, कोई औजार बिगड़ गया है। किसी का लड़का खो जाता है, किसी की पुस्तक खो जाती है, पर कोई स्वयं खो गया है, ऐसा नहीं होता। अंत में मरते समय भी उसकी देह ही सब तरह नष्ट होती है, बेकार हो जाती है, पर वह स्वयं तो भीतर से ज्यों-का-त्यों रहता है। वह निर्दोष और निरोग रहता है। यह बात समझ लेने जैसी है और यदि समझ में जाये, तो इससे बहुतेरी झंझटों से छुटकारा मिल जायेगा।

69. देहासक्ति से जीवन अवरुद्ध

10. ‘देह ही मैं हूं, यह जो भावना सर्वत्र फैल रही है, इसके फलस्वरूप मनुष्य के बिना विचारे ही देह-पुष्टि के लिए नाना प्रकार के साधन निर्माण कर लिये हैं। उन्हें देखकर बड़ा भय मालूम होता है। मनुष्य को सदैव लगता रहता है कि यह देह पुरानी हो गयी, जीर्ण-शीर्ण हो गयी, तो भी येन-केन प्रकारेण इसे बनाये ही रखना चाहिए; परंतु आखिर इस देह को, इस छिलके को आप कब तक टिकाकर रख सकेंगे? मृत्यु तक ही न? जब मौत की घड़ी आ जाती है तो क्षण भर भी शरीर टिकाये नहीं रख सकते। मृत्यु के आगे सारा गर्व ठंडा पड़ जाता है। फिर भी तुच्छ देह के लिए मनुष्य नाना प्रकार के साधन जुटाता है। दिन-रात इस देह की चिंता करता है। कहते हैं कि देह की रक्षा के लिए मांस खाने में कोई हर्ज नहीं है। मानो मनुष्य की देह बड़ी कीमती है! उसे बचाने के लिए मांस खाओ। तो पशु की देह क्या कीमत में कम है? और है, तो क्यों? मनुष्य-देह क्यों कीमती सिद्ध हुई? क्या कारण है? पशु चाहे जिसे खाते हैं, सिवा स्वार्थ के वे दूसरा कोई विचार ही नहीं करते! मनुष्य ऐसा नही करता, वह अपने आसपास की सृष्टि की रक्षा करता है। अतः मानव-देह का मोल है, इसलिए वह कीमती है। परंतु जिस कारण मनुष्य की देह कीमती साबित हुई, उसी को तुम मांस खाकर नष्ट कर देते हो! भले आदमी, तुम्हारा बड़प्पन तो इसी बात पर अवलंबित है न कि तुम संयम से रहते हो, सब जीवों की रक्षा के लिए उद्योग करते हो, सबकी सार-संभाल रखने की भावना तुममें है। पशु से भिन्न जो यह विशेषता तुममें है उसी से न मनुष्य श्रेष्ठ कहलाता है? इसी से मानव-देह ‘दुर्लभ कही गयी है। परंतु जिस आधार पर मनुष्य बड़ा, श्रेष्ठ हुआ है, उसी को यदि वह उखाड़ने लगे, तो फिर उसके बड़प्पन की इमारत टिकेगी कैसे? साधारण पशु जो अन्य प्राणियों का मांस खाने की क्रिया करते हैं, वही क्रिया यदि मनुष्य निःसंकोच होकर करने लगे, तो फिर उसके बड़प्पन का आधार ही खींच लेने जैसा होगा। यह तो जिस डाल पर मैं बैठा हूं, उसी को काटने का प्रयत्न करने जैसा हुआ।

11. आजकल वैद्यक-शास्त्र नाना प्रकार के चमत्कार दिखा रहा है। पशु की देह पर शल्यक्रिया करके उसके शरीर में- उस जीवित पशु के शरीर में रोग-जंतु उत्पन्न करते हैं और देखते हैं कि उन रोगों का उस पर क्या असर होता है। सजीव पशु को इस तरह महान कष्ट देकर जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसका उपयोग इस क्षुद्र मानव-देह को बचाने के लिए किया जाता है! और यह सब चलता हैभूत-दयाके नाम पर। पशु के शरीर में जंतु पैदा करके उसकी लस निकालकर मनुष्य शरीर में डालते हैं। नाना प्रकार के भीषण कृत्य हो रहे हैं। जिस देह के लिए हम यह सब करते हैं, वह तो कच्चे कांच की तरह है, जो पल भर में ही फूट सकता है। वह कब फूटेगा, इसका जरा भी भरोसा नहीं। यद्यपि मानव देह की रक्षा के लिए ये सारे उद्योग हो रहे हैं, फिर भी अंत में अनुभव क्या आता है? ज्यों-ज्यों इस नाजुक देह को संभालने का प्रयत्न किया जाता है, त्यों-त्यों इसका नाश हो रहा है। यह प्रतीति हमें हो रही है, फिर भी इस देह को मोटी-ताजी करने का प्रयत्न जारी ही है।

12. हमारा ध्यान कभी इस बात की ओर नहीं जाता कि किस प्रकार का आहार करने से बुद्धि सात्त्विक होगी। मनुष्य देखता भी नहीं कि मन को अच्छा बनाने के लिए क्या करना चाहिए और किस वस्तु की सहायता लेनी चाहिए। वह तो इतना ही देखता है कि शरीर का वजन किस तरह बढ़ेगा। वह इसी की चिंता करता दीखता है कि जमीन पर मिट्टी उठकर उसके शरीर पर कैसे चिपक जाये, मिट्टी के लोंदे उसके शरीर पर कैसे लद जायें! पर जैसे थोपा हुआ गोबर का कंडा सूखने पर नीचे गिर पड़ता है, उसी तरह शरीर पर चढ़ाया यह मिट्टी का लेप, यह चरबी, अंत में गल जाती है और शरीर फिर अपनी असली स्थिति में जाता है। आखिर इसका मतलब क्या कि हम शरीर पर इतनी मिट्टी चढ़ा लें, इतना वजन बढ़ा लें कि शरीर उसका बोझ ही सह सके? शरीर को इतना थुलथुल बनाया ही क्यों जाये? यह शरीर हमारा एक साधन है, अतः इसे ठीक रखने के लिए जो कुछ आवश्यक है, वह सब हमें करना चाहिए। यंत्र से काम लेना चाहिए। लेकिन क्या कहीं यंत्र का भी अभिमान- 'यंत्राभिमान' भी होता है? फिर इस शरीररूपी यंत्र के संबंध में भी हम इसी तरह विचार क्यों करें?

13. सारांश, यह देह साध्य नहीं, साधन है। यदि हमारा यह भाव दृढ़ हो जाये, तो फिर शरीर का जो वृथा आडंबर रचा जाता है, वह रहेगा। जीवन हमें निराले ही ढंग का दीखने लगेगा। फिर इस देह को सजाने में हमें गौरव का अनुभव नहीं होगा। वस्तुतः इस देह के लिए एक सादा कपड़ा काफी है। पर नहीं, हम चाहते हैं वह नरम हो, मुलायम हो, उसका बढ़िया रंग हो, सुंदर छपाई हो, अच्छे किनारे-बेल-बूटे हों, कलाबत्तू हो आदि। उसके लिए हम अनेक लोगों से तरह-तरह की मेहनत कराते हैं।' यह सब क्यों? उस भगवान को क्या अक्ल नहीं थी? यदि इस देह के लिए सुंदर बेल-बूटों और नक्काशी की जरूरत होती, तो जैसे बाघ के शरीर पर उसने धारियां डाल दी हैं, वैसे क्या तुम्हारे हमारे शरीर पर नहीं डाल देता? उसके लिए क्या यह असंभव था? वह मोर की तरह सुंदर पिच्छ हमें भी लगा सकता था; परंतु ईश्वर ने मनुष्य को एक ही रंग दिया है। उसमें जरा-सा दाग पड़ जाता है, तो उसका सौंदर्य नष्ट हो जाता है। मनुष्य जैसा है वैसा ही सुंदर है। परमेश्वर का यह उद्देश्य ही नहीं है कि मनुष्य देह को सजाया जाये। सृष्टि में क्या सामान्य सौंदर्य है? मनुष्य का काम इतना ही है कि वह अपनी आंखों से इसे निहारता रहे; परंतु वह रास्ता भूल गया है। कहते हैं कि जर्मनी ने हमारे रंग को मार दिया। अरे भाई, तुम्हारे मन का रंग तो पहले ही मर चुका, बाद में तुम्हें इस बनावटी रंग का शोक लगा! उसी के लिए तुम परावलंबी हो गये। व्यर्थ ही तुम इस शरीर-श्रृंगार के चक्कर में पड़ गये। मन को सजाना, बुद्धि का विकास करना, हृदय को सुंदर बनाना तो एक तरफ ही रह गया।

70. तत्त्वमसि

14. इसलिए भगवान ने इस तेरहवें अध्याय में जो विचार हमें दिया है, वह बड़ा कीमती है। 'तू देह नहीं, आत्मा है।' तत् त्वमसि- वह आत्मरूप तू है। यह बड़ा उच्च, पवित्र उद्गार है। पावन और उदात्त वचन है। संस्कृत-साहित्य में यह बड़ा ही महान विचार समाविष्ट किया गया है- "यह ऊपर का कवच, छिलका, तू नहीं है। वह असल अविनाशी फल तू है।" जिस क्षण मनुष्य के हृदय में यह विचार स्फुरित होगा कि 'सो तू है', 'यह देह मैं नहीं, वह परमात्मा मैं हूं'- यह भाव मन में जग जायेगा, उसी क्षण उसके मन में एक प्रकार का अननुभूत आनंद लहराने लगेगा। मेरे उस रूप को मिटाने का- नष्ट कर डालने का- सामर्थ्य संसार की किसी भी वस्तु में नहीं है, किसी भी व्यक्ति में नहीं है। यह सूक्ष्म विचार इस उद्गार में भरा हुआ है।

15. इस देह से परे अविनाशी और निष्कलंक जो आत्मतत्त्व है, वही मैं हूँ। उस आत्मतत्त्व के लिए मुझे यह शरीर मिला हुआ है। जब-जब उस परमेश्वरीय तत्त्व के दूषित हो जाने की संभावना होगी, तब-तब मैं उसे बचाने के लिए इस देह को फेंक दूंगा। परमेश्वरीय तत्त्व को उज्ज्वल रखने के लिए यह देह होमने को मैं सदा तैयार रहूंगा। मैं जो इस देह पर सवार होकर आया हूं, सो क्या इसलिए कि अपनी दुर्दशा कराऊं? देह पर मेरी सत्ता चलनी चाहिए। मैं इस देह का उपयोग करूंगा और इसके द्वारा हित-मंगल की वृद्धि करूंगा। आनंदें भरीन तिन्ही लोक- 'त्रिलोक में आनंद भरूंगा।' इस देह को मैं महान तत्त्वों के लिए फेंक दूंगा और ईश्वर का जयजयकार करूंगा। रईस आदमी कपड़ा मैला होते ही उसे फेंक देता है और दूसरा पहन लेता है, वैसे ही मैं भी करूंगा। काम के लिए इस देह की जरूरत है। जिस समय यह देह काम के लायक नहीं रह जायेगी, उस समय इसे फेंक देने में मुझे कोई हर्ज नहीं।

16. सत्याग्रह के द्वारा हमें यही शिक्षा मिलती है। देह और आत्मा, ये अलग-अलग चीजें हैं। जिस दिन मनुष्य के यह ध्यान में आयेगा, जब वह इस मर्म को समझ जायेगा, उसी दिन उसकी सच्ची शिक्षा की, वास्तविक विकास की शुरूआत होगी। उसी समय हमें सत्याग्रह सधेगा। अतः प्रत्येक को यह भावना हृदय में अंकित कर लेनी चाहिए। देह तो निमित्तमात्र साधन है, परमेश्वर का दिया हुआ एक औजार है। जिस दिन उसका उपयोग समाप्त होगा, उसी दिन उसे फेंक देना है। सर्दी के गरम कपड़े हम गर्मियों में फेंक देते हैं, रात को ओढ़े हुए कंबल सुबह हटा देते हैं, सुबह के कपड़े दोपहर को निकाल देते हैं, उसी तरह इस देह को समझो। जब तक देह का उपयोग है, तब तक उसे रखेंगे। जिस दिन इसका उपयोग नहीं रहेगा, उसी दिन यह देहरूपी कपड़ा फेंक देंगे। आत्मा के विकास के लिए भगवान यह युक्ति हमें बता रहे हैं।

71. जालिम की सत्ता समाप्त

17. जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि देह से मैं अलग हूं, तब तक जालिम लोग, हम पर जरूर जुल्म ढाते रहेंगे, हमें बंदा, ‘गुलामबनाते रहेंगे, हमें बेहाल कर डालेंगे। भय के कारण ही जुल्म शक्य होता है। एक राक्षस ने एक आदमी को पकड़ रखा था। वह उससे बराबर काम लेता रहता था। जब कभी वह काम करता, तो राक्षस कहता- 'खा जाऊंगा, तुझे चट् कर डालूंगा।' शुरू में तो वह मनुष्य डरता रहा, परंतु जब वह धमकी असह्य हो गयी, तो उसने कहा- ' ले खा डाल। खाना हो तो खा जा।' पर राक्षस उसे थोड़े ही खा जानेवाला था। उसे एक बंदा, गुलाम चाहिए था। खा जाने पर उसका काम कौन करता? वह तो सिर्फ उसे खा जाने की धमकी दिया करता था, परंतु ज्यों ही यह जवाब मिला 'ले, खा जा', त्यों ही उसका जुल्म बंद हो गया। जालिम लोग यह जानते हैं कि ये लोग देह से चिपके रहने वाले हैं। इनकी देह को कष्ट पहुँचा कि ये गुलाम बने। परंतु जहाँ आपने देह की आसक्ति छोड़ दी तुरंत सम्राट बन जायेंगे। सारा सामर्थ्य आपके हाथ में जायेगा। फिर आप पर किसी का हुक्म नहीं चलेगा। जुल्म करने का आधार ही टूट जायेगा। उसकी बुनियाद ही इस भावना पर है कि 'देह मैं हूँ।' वे समझते हैं कि इनकी देह को सताया कि ये वश में आये। इसीलिए वे धमकी की भाषा बोलते हैं।

18. 'मैं देह हूं'- मेरा इस भावना के कारण ही दूसरों को मुझ पर जुल्म करने की सताने की इच्छा होती है। परंतु इंग्लैण्ड के शहीद क्रेन्मर ने क्या कहा था? "मुझे जलाते हो। अच्छा जला डालो। लो, पहले यह दाहिना हाथ जलाओ।" इसी तरह रिड्ले और लॅटिमर ने कहा था- "तुम जलाना चाहते हो? हमें कौन जला सकता है? हम तो धर्म की ऐसी ज्योति जला रहे हैं कि उसे कोई बुझा नहीं सकता। शरीररूपी इस मोमबत्ती को, इस चरबी को जलाकर सत तत्त्वों की ज्योति जलाये रखना तो हमारा काम ही है। देह मिट जायेगी, वह तो मिटने वाली ही है।"

19. सुकरात को विष देकर मारने की सजा दी गयी। उसने कहा- "मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ। चार दिन के बाद देह छूटने वाली ही थी। जो मरने वाला था, उसे मारकर, आप लोग कौन-सी बहादुरी कर रहे हैं? जरा सोचो तो कि यह शरीर एक दिन अवश्य मरने वाला है। जो मर्त्य है, उसे मारने में कौन सी बहादुरी है?" जिस दिन सुकरात को विष दिया जाने वाला था, उससे पहली रात वह शिष्यों को आत्मा के अमरत्व की शिक्षा दे रहा था। शरीर में विष का प्रवेश होने पर उसे क्या-क्या वेदनाएं होंगी, इसका वर्णन वह मजे से कर रहा था। उसे उसकी रत्ती भर भी चिंता थी। आत्मा की अमरता संबंधी यह चर्चा समाप्त होने पर उसके एक शिष्य ने पूछा- "मरने पर आपकी अंत्येष्टि कैसे की जाये?" उसने जवाब दिया- "खूब, वे मारेंगे और तुम गाड़ोगे! तो क्या वे मारने वाले मेरे दुश्मन और तुम गाड़ने वाले मुझसे बड़ा प्रेम करने वाले हो? वे अक्लमंदी से मुझे मारेंगे और तुम समझदारी से मुझे गाड़ोगे? तुम कौन हो मुझे गाड़ने वाले? मैं तुम सबको गाड़कर शेष बचने वाला हूँ। किसमें गाड़ोगे मुझे? मिट्टी में या नास में? मुझे कोई मार सकता है कोई गाड़ ही सकता है। अब तक मैंने क्या समझाया तुम लोगों को? आत्मा अमर है, उसे कौन मार सकता है, कौन गाड़ सकता है?" और सचमुच आज दो-ढाई हजार वर्षों से वह महान सुकरात सबको गाड़कर जिंदा है।

72. परमात्म-शक्ति पर विश्वास

20. सारांश, जब तक देह की आसक्ति, भय है, तब तक वास्तविक रक्षा नहीं हो सकती। तब तक सतत डर लगा रहेगा। यह डर बना रहेगा कि कहीं नदीं में सांप आकर काट खाये, चोर आकर घात कर जाये। मनुष्य सिरहाने डंडा लेकर सोता है।क्यों?’ तो कहता है- 'पास में रखना अच्छा है, कहीं चोर-वोर जाये तो? अरे भले आदमी! कहीं चोर वही डंडा उठाकर तुम्हारे सिर पर मार दे तो? चोर यदि डंडा लाना भूल गया हो, तो तुम उसके लिए पहले से ही तैयारी कर रखते हो। तुम किसके भरोसे सोते हो? उस समय तो तुम दुनिया के हाथ में रहते हो। तुम जागते होगे, तभी बचाव करोगे? नींद में तुम्हारी रक्षा कौन करेगा?

 

21. मैं किसी--किसी शक्ति पर विश्वास करके सोता हूँ। जिस शक्ति पर भरोसा रखकर बाघ, गाय आदि जानवर सोते हैं, उसी के भरोसे मैं भी सोता हूँ। बाघ को भी तो नींद आती है। जो सारी दुनिया से वैर होने के कारण हर घड़ी पीछे देखता है, ऐसा सिंह भी सोता ही है। उस शक्ति पर यदि विश्वास होता, तो कुछ बाघ सोते और कुछ जगकर पहरा देते- ऐसी व्यवस्था उन्हें करनी पड़ती। जिस शक्ति पर विश्वास रखकर क्रूर ऐसे भेड़िया, बाघ, सिंह आदि जीव भी सोते हैं, उसी विश्वव्यापक शक्ति की गोद में मैं भी सो रहा हूँ। मां की गोद में बच्चा निश्चिंत सोता है। वह मानो उस समय दुनिया का बादशाह होता है। हमें चाहिए कि आप और हम भी उसी विश्वंभर माता की गोद में इसी तरह प्रेम, विश्वास और ज्ञानपूर्वक सोने का अभ्यास करें। जिस शक्ति के आधार पर मेरा यह सारा जीवन चल रहा है। उसका मुझे अधिकाधिक परिचय कर लेना चाहिए। उस शक्ति की मुझे उत्तरोत्तर प्रतीति होनी चाहिए। इस शक्ति में मुझे जितना विश्वास पैदा होगा, उतना ही अधिक मेरा रक्षण हो सकेगा। जैसे-जैसे मुझे इस शक्ति का अनुभव होता जायेगा, वैसे-वैसे मेरा विकास होता जायेगा। इस तेरहवें अध्याय में इसका किंचित क्रम भी दिग्दर्शित किया गया है।

73. परमात्म-शक्ति का उत्तरोत्तर अनुभव

22. जब तक देहस्थित आत्मा का विचार नहीं आता, तब तक मनुष्य साधारण क्रियाओं में ही तल्लीन रहता है। भूख लगी तो खा लिया, प्यास लगी तो पानी पी लिया, नींद आयी तो सो गये। इससे अधिक वह कुछ नहीं जानता। इन्हीं बातों के लिए वह लड़ेगा, इन्हीं की प्राप्ति का लोभ मन में रखेगा। इस तरह इन दैहिक क्रियाओं में ही वह मग्न रहता है। विकास का आरंभ तो इसके बाद होता है। इस समय तक आत्मा सिर्फ देखती रहती है। मां जिस तरह कुएं की ओर रेंगते जाने वाले बच्चे के पीछे सतत सतर्क खड़ी रहती है, उसी प्रकार आत्मा हम पर निगाह रखे खड़ी रहती है। शांति के साथ वह सब क्रियाओं को देखती है। इस स्थिति कोउपद्रष्टा’- साक्षी रूप से सब देखने वाला कहा है।

 

23. इस अवस्था में आत्मा देखती है, परंतु अभी वह सम्मति नहीं देती। परंतु यह जीव, जो अब तक अपने को देहरूप समझकर सब क्रिया, सब व्यवहार, करता है, वह आगे चलकर जागता है। उसे भान होता है कि अरे, मैं पशु की तरह जीवन बिता रहा हूँ। जीव जब इस तरह विचार करने लगता है तब उसकी नैतिक भूमिका शुरू होती है। तब पग-पग पर वह उचित-अनुचित का विचार करता है। विवेक से काम लेने लगता है। उसकी विश्लेषण-बुद्धि जाग्रत होती है। स्वैर क्रियाएं रुकती हैं। स्वच्छंदता की जगह संयम आता है।

 

24. जब जीव इस नैतिक भूमिका में आता है, तब आत्मा केवल चुप बैठकर नहीं देखती, वह भीतर से अनुमोदन करती है।शाबाशऐसी धन्यता की आवाज अंदर से आती है। अब आत्मा केवलउपद्रष्टा रहकरअनुमंताबन जाती है।

कोई भूखा अतिथि द्वार पर जाये, आप अपनी परोसी थाली उसे दे दें और फिर रात को अपनी इस सत्कृति का स्मरण हो, तो देखिए मन को कितना आनंद होता है! भीतर से आत्मा की हल्की-सी आवाज आती है, ‘बहुत अच्छा किया’! मां जब बच्चे की पीठ पर हाथ फिराकर कहती है- "अच्छा किया बेटा", तो उसे ऐसा लगता है, मानो दुनिया सारी बख्शिश उसे मिल गयी। उसी तरह हृदयस्थ परमात्मा केशाबाश बेटा’, शब्द हमें प्रोत्साहन और प्रेरणा देते हैं, ऐसे समय जीव भोगमय जीवन छोड़कर नैतिक जीवन की भूमिका में खड़ा होता है।

 

25. इसके बाद की भूमिका है - नैतिक जीवन में कर्तव्य करते हुए अपने मन के सभी मैलों को धोने का यत्न करना! परंतु जब मनुष्य ऐसा प्रयत्न करते-करते थकने लगता है, तब जीव ऐसी प्रार्थना करने लगता है- 'हे भगवन! मेरे प्रयत्नों की, मेरी शक्ति की पराकाष्ठा हो गयी। मुझे अधिक शक्ति दे, अधिक बल दे।' जब तक मनुष्य को यह अनुभव नहीं होता कि अपने सभी प्रयत्नों के बावजूद वह अकेला ही पर्याप्त नहीं है, तब तक प्रार्थना का मर्म उसकी समझ में नहीं आता। अपनी सारी शक्ति लगाने पर भी, जब वह पर्याप्त नहीं जान पड़ती, तब आर्तभाव से द्रौपदी की तरह परमात्मा को पुकारना चाहिए। परमेश्वर की कृपा और सहायता का स्त्रोत तो सतत बहता ही रहता है। जिस किसी को प्यास लग रही हो, वह अपना हक समझकर उसमें से पानी पी सकता है। जिसे कमी पड़ती हो, वह मांग ले। इस तरह का संबंध इस तीसरी भूमिका में आता है। परमात्मा और अधिक निकट आता है। अब वह केवल शाब्दिक शाबाशी देते हुए सहायता करने के लिए दौड़ आता है।

73. परमात्म-शक्ति का उत्तरोत्तर अनुभव

26. पहले परमेश्वर दूर खड़ा था। गुरु जिस तरह शिष्य से यह कहकर कि 'सवाल हल करो' दूर खड़ा रहता है, उसी तरह जब तक जीव भोगमय जीवन में लिप्त रहता है, तब तक परमात्मा दूर खड़ा रहता है। वह कहता है- 'ठीक है, मारने दो हाथ-पैर।' फिर जीव नैतिक भूमिका में आता है। तब परमात्मा केवल तटस्थ नहीं रहता। जीवन के हाथ से सत्कर्म हो रहा है, ऐसा देखते ही भगवान धीरे-से झांकता है और कहता है- 'शाबाश!' इस तरह सत्कर्म होते-होते जब चित्त के स्थूल मैल धुल जाते हैं, सूक्ष्म मैल का धुलने का समय आता है और जब उसके सारे प्रयत्न थकने लगते हैं, तब वह परमात्मा को पुकारता है और वह 'आया' कहकर दौड़ आता है। भक्त का उत्साह कम पड़ते ही वह वहाँ आ खड़ा होता है।

जगत् का सेवक सूर्यनारायण आपके द्वारा पर सदैव खड़ा ही है। बंद द्वार को तोड़कर सूर्य भीतर नहीं घुसेगा, क्योंकि वह सेवक है। वह स्वामी की मर्यादा का पालन करता है। वह दरवाजे को घक्का नहीं देता। भीतर मालिक सोया है, इसलिए सूर्यरूपी सेवक दरवाजे के बाहर खड़ा रहता है। जरा-सा दरवाजा खोलते ही वह सारा-का सारा प्रकाश लेकर भीतर घुस आता है और अंधेरा दूर कर देता है। परमात्मा भी ऐसा ही है। उससे मदद मांगी कि वह बांह फैलाकर आया ही। भीमा के किनारे (पंढरपुर में) कमर पर हाथ रखकर वह तैयार ही खड़ा है।

 उभारूनि बाहे। विठो पालवीत आहे॥ (बांह उठाकर विठ्ठल बुला रहे हैं)। ऐसा वर्णन तुकाराम आदि ने किया है। नाक खुली रखी कि हवा भीतर घुसी। दरवाजा जरा-सा खोला कि प्रकाश भीतर आया। वायु और प्रकाश के दृष्टांत भी मुझे अधूरे मालूम होते हैं। उनकी अपेक्षा भी परमात्मा अधिक समीप, अधिक उत्सुक है। वह उपद्रष्टा, अनुमंता न रहकर 'भर्ता'- सब तरह सहायक- बनता है। मन की मलिनता मिटाने के लिए असहाय होकर जब हम पुकारते हैं- मारी नाड तमारे हाथे हरि संभाळजो रे; हम प्रार्थना करते हैं- तू ही एक मेरा मददगार है, तेरा आसरा मुझको दरकार है; तब फिर वह दयाधन कैसे दूर रहेगा? भक्त की सहायता करने वाला वह भगवान, अधूरे को पूरा करने वाला वह प्रभु, दौड़ पड़ता है। तब वह रैदास के चमड़े धोता है, सजन कसाई का मांस बेचता है, कबीर की चादर बुनता है और जनाबाई के साथ चक्की पीसता है।

27. इसके बाद की सीढ़ी है- परमेश्वर के कृपा-प्रसाद से कर्म का जो फल मिले, उसे स्वयं लेकर उसी को अर्पण कर देना। इस भूमिका में जीव परमेश्वर से कहता है- "तेरे ये फल तू ही ले।" नामदेव धरना देकर बैठ गया कि "प्रभु, तुझे दूध पीना ही पड़ेगा।" कितना मधुर प्रसंग है! वह सारा कर्मफलरूपी दूध नामदेव भगवान को अर्पण कर रहा है। इस तरह जीवन की सारी पूंजी, सारी कमाई जिस परमात्मा की कृपा से प्राप्त हुई, उसी को वह समर्पित करनी है। धर्मराज स्वर्ग में चरण रखने वाले ही थे कि उनके साथ के कुत्ते को आगे नहीं जाने दिया गया। तब उन्होंने अपने सारे जीवन का पुण्यफल - स्वर्गलाभ - एक क्षण में छोड़ दिया। इसी तरह भक्त भी सारा फल-लाभ तत्काल ईश्वरार्पण कर देता है।उपद्रष्टा’, ‘अनुमंता’‚ ‘भर्ता’- इन स्वरूपों में प्रतीत होने वाला परमात्मा अबभोक्ताहो जाता है। अब जीव उस भूमिका में जाता है, जब परमात्मा ही इस शरीर में भोगों को भोगता है।

28. इसके बाद संकल्प करना भी छोड़ देना है। कर्म में तीन सीढ़ियां आती हैं। पहले हम संकल्प करते हैं, फिर कार्य करते हैं और बाद में फल आता है। कर्म के लिए प्रभु की सहायता लेकर जो फल मिला, वह भी उसी को अर्पण कर दिया। कर्म करने वाला परमेश्वर, फल चखने वाला भी परमेश्वर! अब उस कर्म का संकल्प करने वाला भी परमेश्वर ही हो जाने दो। इस प्रकार कर्म के आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र प्रभु को ही रहने दो। ज्ञानदेव ने कहा है-

माळीये जेउतें नेलें। तेउतें निवांत चि गेलें।

तया पाणिया ऐसें केलें। होआवें गा।

-'माली जिधर ले जाये, उधर ही चुपचाप चले जाने वाले पानी की तरह बनो।' माली पानी को जिधर ले जाना चाहता है, उधर ही वह बिना चीं-चपड़ किये चला जाता है। माली की पसंद के फल-फूल के पौधों को पानी पोसता और बढ़ाता है। इसी तरह मेरे हाथों जो होना है, वह उसी को तय करने दो। अपने चित्त के सभी संकल्पों की जिम्मेदारी मुझे उसी पर सौंपने दो। यदि मैंने अपना सारा बोझ घोड़े पर डाल ही दिया है, तो बाकी बोझा मैं अपने सिर पर क्यों लादकर बैठूं? वह भी घोड़े की पीठ पर ही क्यों लाद दूं? अपने सिर पर बोझ रखकर भी यदि मैं घोड़े पर बैठूंगा, तो भी बोझ घोड़े पर ही पड़ेगा, फिर सारा ही बोझ उसकी पीठ पर क्यों लाद दूं? इस तरह जीवन की सभी हलचल, नाच-कूद, फूलना-फुलाना, सब कुछ कराने वाला अंत में परमात्मा ही हो जाता है। मेरे जीवन का वहमहेश्वरही बन जाता है। इस तरह विकास होते-होते सारा जीवन ही परमेश्वरमय हो जाता है, केवल देह का पर्दा ही बाकी रहता है। वह हटते ही जीव और शिव, आत्मा और परमात्मा एक हो जाते हैं।

29. इस प्रकार उपद्रष्टानुमंता भर्ता भोक्ता महेश्वरः- इस स्वरूप में हमें परमात्मा का उत्तरोत्तर अधिकाधिक अनुभव करना है। प्रभु पहले केवल तटस्थ रहकर देखता है। फिर नैतिक जीवन का आरंभ होने पर हमारे हाथों से सत्कर्म होने लगते हैं, तब वह हमें 'शाबाशी' देता है। फिर चित्त के सूक्ष्म मैल धो डालने के लिए, अपने प्रयत्नों को अपर्याप्त देखकर भक्त जब पुकारता है, तो वह अनाथ-नाथ सहायता के लिए दौड़ पड़ता है। उसके बाद फल को भी भगवान को अर्पण करके उसेभोक्ताबना देना और अंत में सभी संकल्प उसी को अर्पण करके सारा जीवन हरिमय बनाना है। यही मानव का अंतिम साध्य है।कर्मयोगऔरभक्तियोगरूपी दो पंखों से उड़ते हुए साधक को इस अंतिम मंजिल तक जा पहुँचना है।

74. नम्रता, निर्दम्भता आदि मूलभूत ज्ञान-साधना

30. यह सब करने के लिए नैतिक साधना की मजबूत बुनियाद चाहिए। सत्य-असत्य का विवेक करके सत्य को ही सदा ग्रहण करना चाहिए। सार-असार का विचार करके सार ही लेना चाहिए। सीप को फेंककर मोती ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार जीवन का श्रीगणेश करना है। फिर आत्म-प्रयत्न और परमेश्वरीय कृपा के बल पर ऊपर चढ़ते जाना है। इस सारी साधना में यदि हम देह से आत्मा को अलग करने का अभ्यास डाल लें, तो हमें बड़ी मदद मिलगी। ऐसे समय मुझे ईसा का बलिदान याद आता है। उनके शरीर में कीलें ठोंक-ठोंककर, उनके प्राण ले रहे थे। कहते हैं, उस समय उनके मुंह से उद्गार निकले- 'भगवन, इतनी यातनाएं क्यों देते हैं?' किंतु फौरन भगवान ईसा ने अपने को संभाला और कहा- 'प्रभु, तेरी ही इच्छा पूर्ण हो। इन लोगों को क्षमा कर। ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।' ईसा के इस उदाहरण में बड़ा रहस्य भरा है। देह से आत्मा को कितना अलग करना चाहिए, इसका यह प्रतीक है। कहाँ तक मंजिल तय करनी है, कहाँ तक वह तय की जा सकती है, यह ईसा मसीह के जीवन से मालूम होता है, देह एक छिलके की तरह अलग हो रही है- यहाँ तक मंजिल पहुँची है। जब-जब आत्मा को देह से अलग करने का विचार मेरे मन में आता है, तब-तब ईसा मसीह का यह जीवन मेरी आंखों के सामने जाता है। देह से सर्वथा पृथक हो जाने का, उससे मानो संबंध टूट जाने का उदहारण ईसा मसीह का जीवन पेश करता है।

31. देह और आत्मा का यह पृथक्करण तब तक शक्य नहीं है, जब तक सत्य-असत्य का विवेक हो। यह विवेक, यह ज्ञान, हमारी रग-रग में व्याप्त हो जाना चाहिए। ज्ञान का अर्थ हम करते हैं 'जानना' परंतु 'बुद्धि से जानना', यह ज्ञान नहीं है। मुंह में कौर डालना भोजन कर लेना नहीं है। मुंह में डाला हुआ चबाकर गले में जाना चाहिए और वहाँ से पेट में जाकर, पचकर उसका रस, रक्त सारे शरीर में पहुँचकर पुष्टि मिलनी चाहिए। ऐसा होगा तभी वह सच्चा भोजन होगा। उसी तरह कोरे बुद्धिगत ज्ञान से काम नहीं चल सकता। वह जानकारी, वह ज्ञान सारे जीवन में व्याप्त होना चाहिए, हृदय में संचरित होना चाहिए। हमारे हाथ, पांव, आंख आदि इंद्रियों के द्वारा वह ज्ञान प्रकट होना चाहिए। ऐसी स्थिति हो जानी चाहिए कि सारी ज्ञानेंद्रियां और कर्मेद्रियां विचारपूर्वक ही सब कर्म कर रही है। इसलिए इस तेरहवें अध्याय में भगवान ने ज्ञान की बहुत बढ़िया व्याख्या की है। स्थितप्रज्ञ के लक्षण की तरह ही ज्ञान के लक्षण हैं- अमानित्वमदंभित्वमहिंसा क्षांतिरार्जवम्। ऐसे बीस गुण भगवान ने बताये हैं। वे केवल यह कहकर नहीं रुके कि इन गुणों कोज्ञानकहते हैं, बल्कि यह भी स्पष्ट बताया कि इसके विपरीत जो कुछ है, वह अज्ञान है। ज्ञान की जो साधना बतायी, उसी का अर्थ है ज्ञान। सुकरात कहता है कि 'सद्गुण को ही मैं ज्ञान मानता हूँ।' साधना और साध्य, दोनों एक रूप ही हैं।

32. गीता के इन बीस साधनों को ज्ञानदेव ने अठारह ही कर दिये हैं। उन्होंने इनका वर्णन बड़ी हार्दिकता से किया है। इन गुणों से संबंध रखने वाले केवल पांच ही श्लोक भगवद्गीता में हैं; परंतु ज्ञानदेव ने अपनी ज्ञानेश्वरी में इन पर सात सौ ओवियां (छंद) लिखी हैं। वे इस बात के लिए बड़े चिंतित थे कि समाज में सद्गुणों का विकास हो, सत्यस्वरूप परमेश्वर की महिमा फैले। इन गुणों का वर्णन करते हुए उन्होंने अपना सारा अनुभव उन ओवियों में उड़ेल दिया है। मराठी भाषा-भाषियों पर उनका यह अनंत उपकार है। ज्ञानदेव के रोम-रोम में ये गुण व्याप्त थे। भैंसे की पीठ पर जो चाबुक लगाया गया, उसका निशान ज्ञानदेव की पीठ पर उभर आया। भूतमात्र के प्रति इतनी दयार्द्रता उनमें थी। ज्ञान देव के ऐसे करुणापूर्ण हृदय सेज्ञानेश्वरीप्रकट हुई हैं। इन गुणों का उन्होंने विवेचन किया। उनका गुण-वर्णन हम पढ़ें, मनन करें और हृदय में भर लें। ज्ञानदेव की यह मधुर भाषा मैं चख सका इसके लिए मैं अपने को धन्य मानता हूँ। उनकी मधुर भाषा मेरे मुंह में आकर बैठ जाये, इसके लिए यदि मुझे फिर से जन्म लेना पड़े, तो मैं धन्यता का ही अनुभव करूंगा। अस्तु। सार यह कि उत्तरोत्तर अपना विकास करते हुए, आत्मा को देह से पृथक करते हुए सब लोग अपने जीवन को परमेश्वरमय बनाने का यत्न करें।

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