सगुण-निर्गुण-भक्ति

59. अध्याय 6 से 11 एकाग्रता से समग्रता 

1. गंगा प्रवाह यों तो सभी जगह पावन और पवित्र है; परंतु हरिद्धार‚ काशी‚ प्रयाग जैसे स्थान अधिक पवित्र हैं। उन्होंने सारे संसार को पवित्र बना दिया है। भगवद्गीता का यही हाल है। भगवद्गीता आदि से अंत तक सभी जगह पवित्र है। परंतु बीच में कुछ अध्याय ऐसे हैं‚ जो तीर्थ-क्षेत्र बन गये हैं। आज जिस अध्याय के संबंध में हमें कहना है‚ वह बड़ा पावन तीर्थ बन गया है। स्वयं भगवान ही उसे 'अमृतधारा' कहते हैं- ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। है तो यह छोटा-सा बीस श्लोकों का ही अध्याय‚ परंतु अमृत की धारा है। अमृत की तरह मधुर है‚ संजीवन-दायी है। इस अध्याय में भगवान ने श्रीमुख से भक्तिरस की महिमा का तत्त्व गाया है। 


2. वास्तव में छठे अध्याय से भक्ति-तत्त्व प्रारंभ हो गया है। पांचवें अध्याय के अंत तक जीवन-शास्त्र का प्रतिपादन हुआ। स्वधर्माचरण रूप कर्म‚ उसके लिए सहायक मानसिक साधनारूप विकर्म‚ इन दोनों की साधना से संपूर्ण कर्मों को भस्म करने वाली अंतिम अकर्म की भूमिका, इतनी बातों का विचार पहले पांच अध्यायों तक हुआ। इतने में जीवनशास्त्र समाप्त हो गया। फिर छठे अध्याय से ग्यारहवें अध्याय के अंत तक एक तरह से भक्ति तत्त्व का ही विचार चला। एकाग्रता से आरंभ हुआ। छठे अध्याय में यह बताया गया है कि चित्त की एकाग्रता कैसे हो सकती है‚ उसके क्या-क्या साधन हैं और उसकी क्यों आवश्यकता है? ग्यारहवें अध्याय में समग्रता बतायी गयी है। अब देखना यह है कि एकाग्रता से लेकर समग्रता तक की लंबी मंजिल हमने कैसे तय की? चित्त की एकाग्रता से शुरूआत हुई। एकाग्रता होने पर किसी भी विषय का विचार मनुष्य कर सकता है। चित्त की एकाग्रता उपयोग- मेरा प्रिय विषय लें तो गणित के अध्ययन में हो सकेगा। उससे अवश्य फल-लाभ होगा। परंतु यह चित्त की एकाग्रता सर्वोत्तम साध्य नहीं है। गणित के अध्ययन से एकाग्रता की पूरी परीक्षा नहीं होती। गणित में अथवा ऐसे ही किसी ज्ञान–प्रांत में चित्त की एकाग्रता से सफलता तो मिलेगी; परंतु यह सच्ची परीक्षा नहीं है। इसलिए सातवें अध्याय में यह बतलाया कि हमारी दृष्टि भगवान के चरणों की ओर होना चाहिए। आठवें अध्याय में कहा गया कि भगवान के चरणों में एकाग्रता सतत बनी रहे। हमारी वाणी‚ कान‚ आंख सतत उसी में लगी रहें‚ इसलिए आमरण प्रयत्न करना चाहिए। हमारी सभी इंद्रियों को ऐसा अभ्यास हो जाना चाहिए। पडिलें वळण इंद्रियां सकळां। भावतो निराळां नाही दुजा– 'सब इंदियों को आदत पड़ गयी‚ अब दूसरी भावना नहीं रही।' ऐसा हो जाना चाहिए। सब इंद्रियों को भगवान की धुन लग जानी चाहिए। हमारे समीप चाहे कोई विलाप कर रहा हो या भजन गा रहा हो‚ कोई वासना का जाल बुन रहा हो या विरक्त सज्जनों का‚ संतों का समागम हो रहा हो‚ सूर्य हो या अंधकार हो‚ मरणकाल में परमेश्वर ही चित्त के सामने खड़ा रहेगा। इस तरह का अभ्यास जीवन भर सब इंद्रियों से कराना‚ यह सातत्य की शिक्षा आठवें अध्याय में दी गयी है। छठे अध्याय में एकाग्रता‚ सातवें में ईश्वराभिमुख एकाग्रता यानि ‘प्रपत्ति‘‚ आठवें में सातत्ययोग और नवें में समर्पणता सिखायी है। दसवें में क्रमिकता बतायी है। एक-एक कदम आगे चलगकर ईश्वर का रूप कैसे हृदयंगम किया जाये‚ चींटी से लेकर ब्रह्मदेव तक में व्याप्त परमात्मा धीरे-धीरे कैसे आत्मसात किया जाये‚ यह बताया गया। ग्यारहवें अध्याय में समग्रता बतायी गयी। विश्वरूप-दर्शन को ही मैं 'समग्रता-योग' कहता हूँ। विश्वरूप-दर्शन यानि यह अनुभव करना कि मामूली रज-कण में भी सारा विश्व समाया हुआ है। यही विराट दर्शन है। छठे अध्याय से लेकर ग्यारहवें तक भक्ति-रस की ऐसी यह भिन्न-भिन्न प्रकार से छानबीन की गयी है।


60. सगुण उपासक और निर्गुण उपासकः मां के दो पुत्र

3. अब बारहवें अध्याय में भक्ति तत्त्व की समाप्ति करनी है। अर्जुन ने समाप्ति संबंधी प्रश्न पूछा। पांचवें अध्याय में जीवन-संबंधी पूरे शास्त्र का विचार समाप्त होते समय जैसा प्रश्न अर्जुन ने पूछा था‚ वैसा ही यहाँ भी पूछा है। अर्जुन पूछता है- "भगवन‚ कुछ लोग सगुण का भजन करते हैं‚ और कुछ निर्गुण की उपासना करते हैं। तो अब बताओ कि इन दोनों में कौन-सा भक्त आपको प्रिय है?" 


4. भगवान इसका क्या उत्तर दें? किसी मां के दो बच्चे हों और उससे उनके बारे में प्रश्न किया जाये; वैसा ही यह है। दो में एक बच्चा छोटा हो‚ वह मां को बहुत प्यार करता हो‚ मां को देखते ही आनंदित होता हो और मां के जरा दूर जाते ही व्याकुल होता हो‚ वह मां से दूर जा ही नहीं सकता‚ उसे छोड़ नहीं सकता‚ उसका वियोग वह सहन नहीं कर सकता। मां न हो‚ तो उसे सारा संसार सूना ǃ ऐसा यह छोटा है। दूसरा बच्चा बड़ा है। वह भी है तो उसी तरह प्रेम-भाव से सराबोर‚ पर समझदार हो गया है। मां से दूर रह सकता है। साल-छह मास भी मां के दर्शन न हो‚ तो भी वह रह सकता है। वह मां की सेवा करने वाला है। सारा बोझ अपने सिर पर लेकर काम करता है। काम-काज में लग जाने से मां का विछोह सह सकता है। लोगों में उसकी प्रतिष्ठा है और चारों ओर उसका नाम सुनकर मां को बड़ा सुख मिलता है। ऐसा यह दूसरा बेटा है। ऐसे दो बेटों के बारे में मां से कहिए- "मांǃ इन दो बेटों में से एक ही बेटा आपको दिया जायेगा। आप जिसे चाहें पसंद करेंǃ" तो वह क्या उत्तर देगी? किस बेटे को पसंद करेगी? क्या वह दोनों बेटों को तराजू में रखकर तौलने बैठेगी? माता की भूमिका पर ध्यान दीजिए। उसका स्वाभाविक उत्तर क्या होगा? वह निरुपाय होकर कहेगी- "यदि बिछोह ही होना है, तो बड़े बेटे का वियोग मैं सह लूंगी।" छोटे बेटे को उसने छाती से लगाया है। उसे वह अपने से दूर नहीं कर सकती। छोटे बेटे के विशेष आकर्षण को देखकर "बड़ा बेटा दूर जाये तो भी चलेगा" ऐसा कुछ तो भी जवाब वह देगी। परंतु उसे अधिक प्रिय कौन है‚ इस प्रश्न का यह उत्तर नहीं कहा जा सकता। कुछ-न-कुछ उत्तर देना है इसलिए दो–चार शब्द वह बोल देगी; परंतु उन शब्दों को तोड़–मरोड़ करके अर्थ निकालने लगेंगे‚ तो वह ठीक नहीं होगा।

5. इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जैसे उस मां की विचित्र दशा होगी‚ ठीक वैसी ही स्थिति भगवान के मन की हो गयी है। अर्जुन कहता है- "भगवन‚ दो तरह के आपके भक्त हैं। एक आपके प्रति अत्यंत प्रेम रखता है‚ आपका सतत स्मरण करता है। उसकी आंखे आपकी प्यासी हैं‚ कान आपका गान सुनने को उत्सुक हैं‚ हाथ–पांव आपकी सेवा‚ पूजा के लिए उत्कंठित हैं। दूसरा है स्वावलंबी‚ इंद्रियों को सतत वश में रखने वाला‚ सर्वभूतहित में रत‚ रात-दिन समाज की निष्काम सेवा में ऐसा मग्न कि मानो उसे परमेश्वर का स्मरण ही न होता हो। यह है आपका अद्धैतमय दूसरा भक्त। अब मुझे यह बताइए कि इन दोनों में आपका प्रिय भक्त कौन-सा है?" अर्जुन का भगवान से यह प्रश्न है। अब जिस तरह उसे मां ने जवाब दिया‚ ठीक उसी तरह भगवान ने उत्तर दिया है- "वह सगुण भक्त मुझे प्रिय है। वह दूसरा भी मेरा ही है।" इस तरह भगवान असमंजस में पड़ गये हैं। कुछ-न-कुछ उत्तर देना था‚ इसलिए दे डाला। 


6. और सचमुच बात भी ऐसी ही है। अक्षरशः दोनों भक्त एकरूप हैं। दोनों की योग्यता एक सी है। उनकी तुलना करना मर्यादा का अतिक्रमण करना है। पांचवें अध्याय में कर्म के विषय में जैसा प्रश्न अर्जुन ने पूछा था‚ वैसा ही यहाँ भक्ति के संबंध में पूछा है। पांचवें अध्याय में कर्म और विकर्म की सहायता से मनुष्य अकर्मदशा को प्राप्त होता है। वह अकर्मावस्था दो रूपों में प्रकट होती है। एक व्यक्ति रात-दिन कर्म करते हुए भी मानो लेशमात्र कर्म नहीं करता‚ और दूसरा चौबीस घंटों में एक भी कर्म न करते हुए मानो दुनिया भर के व्यवहार करता है। इन दोनों रूपों में अकर्म-दशा प्रकट होती है। अब इनकी तुलना कैसे की जाये? किसी वर्तुल की एक बाजू से दूसरी बाजू की तुलना कीजिए। एक ही वर्तुल की दो बाजूǃ उनकी तुलना कैसे करें? दोनों बाजू समान योग्यता रखती हैं‚ एकरूप हैं। अकर्म-भूमिका का विवेचन करते हुए भगवान ने एक को ‘संन्यास‘ और दूसरे को ‘योग‘ कहा है। शब्द भले ही दो हों‚ पर अर्थ एक ही है। संन्यास और योग दोनों मे निर्णय अंत में सरलता के आधार पर ही किया गया है। 


7. सगुण-निर्गुण का प्रश्न भी ऐसा ही है। एक सगुण भक्त इंद्रियों के द्वारा परमेश्वर की सेवा करता है। दूसरा निर्गुण भक्त मन से विश्वकल्याण की चिंता करता है। पहला बाह्य सेवा में मग्न दिखायी देता है। परंतु भीतर से उसका चिंतन सतत जारी है। दूसरा कुछ भी प्रत्यक्ष सेवा करता हुआ नहीं दिखायी देता‚ परंतु भीतर से उसकी महासेवा चल ही रही है। इस प्रकार के दो भक्तों में श्रेष्ठ कौन है? रात-दिन कर्म करके भी लेशमात्र कर्म न करने वाला वह सगुण भक्त है। तो दूसरा निर्गुण उपासक भीतर से सबके हित का चिंतन सबकी चिंता करता है। ये दोनों भक्त भीतर से एकरूप ही हैं। शायद बाहर से भिन्न दिखायी देते हों‚ परंतु दोनों हैं एक-से ही‚ दोनों भगवान के प्यारे हैं। फिर भी इनमें सगुण भक्ति अधिक सुलभ है। इस तरह भगवान ने जो उत्तर पांचवे अध्याय में दिया‚ वही यहाँ भी दिया है। 


61. सगुण सुलभ और सुरक्षित 

8. सगुण भक्ति-योग में प्रत्यक्ष इंद्रियों से काम लिया जा सकता है। इंद्रियां साधन हैं‚ विघ्नरूप हैं‚ या दोनों हैं। वे मारक हैं या तारक- यह देखने वाले की दृष्टि पर अवलंबित है। मान लो कि किसी की मां मृत्यु पर पड़ी हुई है और वह उससे मिलना चाहता है। दोनों के बीच पंद्रह मील का रास्ता है। उस पर मोटर नहीं जा सकती। टूटी-फूटी पगडंडी है। ऐसे समय यह रास्ता साधन है या विघ्न? कोई कहेगा- "कहां का यह मनहूस रास्ता बीच में आ गया‚ यह दूरी न होती तो मैं कब का मां से जाकर मिल लेताǃ" ऐसे व्यक्ति के लिए वह रास्ता शत्रु है। किसी तरह रास्ता काटते हुए वह जाता है। वह रास्ते को कोस रहा है। परंतु मां को देखने के लिए उसे हर हालत में जल्दी–जल्दी कदम उठाकर जाना जरूरी है। रास्ते को शत्रु समझकर वह वहीं नीचे बैठ जायेगा‚ तो दुश्मन जान पड़ने वाले उस रास्ते की विजय हो जोयगी। वह सरपट चलकर ही उस शत्रु को जीत सकता है। दूसरा व्यक्ति कहेगा- "यह जंगल है‚ फिर भी इसमें से होकर जाने का रास्ता तो बना हुआ है‚ यही गनीमत है। किसी तरह मां तक जा पहुँचूंगा। यह न होता‚ तो इस दुर्गम पहाड़ पर से कैसे आगे जा पाता?" यह कहकर वह उस पगडंडी को एक साधन समझता हुआ तेजी से आगे कदम बढ़ाता जाता है। रास्ते के प्रति उसके मन में स्नेह भाव होगा‚ उसे वह मित्र मानेगा। अब आप उस रास्ते को चाहे मित्र मानिए या शत्रु‚ अंतर बढ़ाने वाला कहिए या अंतर कम करने वाला‚ जल्दी-जल्दी कदम तो आपको उठाना ही होगा। रास्ता विघ्नरूप है या साधन रूप‚ यह तो मनुष्य के चित्त की भूमिका पर, उसकी दृष्टि पर अवलंबित है। यही बात इंद्रियों की है। वे विघ्न रूप हैं या साधन रूप हैं, यह आपकी अपनी दृष्टि पर निर्भर करता है। 


9. सगुण उपासक के लिए इंद्रियां साधन हैं। इंद्रियां मानो पुष्प हैं; उन्हें परमात्मा को अर्पित करना है। आंखों से हरि का रूप देखें‚ कानों से हरि-कथा सुनें‚ जीभ से हरि-नाम का उच्चारण करें, पांवों से तीर्थ यात्रा करें और हाथों से सेवा-कार्य करें- इस तरह समस्त इंद्रियों को वह परमेश्वर को अर्पण कर देता है। इंद्रियाँ भोग के लिए नहीं रह जातीं। पुष्प तो भगवान पर चढ़ाने के लिए होते हैं। फूलों की माला स्वयं अपने गले में डालने के लिए नहीं होती। इसी तरह इंद्रियों का उपयोग ईश्वर की सेवा के लिए करना है। यह हुई सगुणोपासक की दृष्टि; परंतु निर्गुणोपासक को इंद्रियां विघ्न रूप मालूम होती हैं। वह उन्हें संयम में रखता है‚ बंद करके रखता है। उनका आहार बंद कर देता है। उन पर पहरा बैठा देता है। सगुणोपासक को यह सब कुछ नहीं करना पड़ता। वह सब इंद्रियों में चढ़ा देता है। ये दोनों विधियां इंद्रिय-निग्रह की ही हैं- इंद्रियदमन के ही ये दोनों प्रकार हैं। आप किसी भी विधि को लेकर चलिए‚ परंतु इंद्रियों को अपने काबू में रखिए। ध्येय दोनों का एक ही है‚ इंद्रियों को विषयों में भटकने न देना। एक विधि सुलभ है‚ दूसरी कठिन है।

सर्वभूतहित-रत होता है। यह कोई मामूली बात नहीं है। ‘सारे विश्व का कल्याण करना’ कहने में सरल है; पर करना बहुत कठिन है। जिसे समग्र विश्व के कल्याण की चिंता है‚ वह चिंतन के सिवा दूसरा कुछ नहीं कर सकेगा। इसीलिए निर्गुण-उपासना कठिन है। सगुण-उपासना अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार अनेक प्रकार से की जा सकती है। जहाँ हमारा जन्म हुआ‚ उस छोटे से देहात की सेवा करना अथवा मां-बाप की सेवा करना सगुण-पूजा है। इसमें केवल इतना ही ध्यान रखना है कि हमारी यह सेवा जगत् के हित की विरोधी न हो। आपकी सेवा कितनी ही छोटी क्यों न हो‚ वह यदि दूसरों के हित में बाधा न डालती हो‚ तो अवश्य भक्ति की श्रेणी में पहुँच जायेगी‚ नहीं तो वह सेवा आसक्ति का रूप ग्रहण कर लेगी। मां-बाप हों‚ मित्र हों‚ दुःखी बंधु-बांधव हों‚ साधु-संत हों‚ उन्हें ही परमेश्वर समझकर सेवा करनी चाहिए। इस सबमें परमेश्वर की मूर्ति की कल्पना करके संतोष मानों। यह सगुण-पूजा सुलभ है; परंतु निर्गुण-पूजा कठिन है। यों दोनों का अर्थ एक ही है। सुलभता की दृष्टि से सगुण श्रेयस्कर है‚ बसǃ 


11. सुलभता के अलावा एक और भी मुद्दा है। निगुर्ण-उपासना में भय है। निर्गुण ज्ञानमय है। सगुण प्रेममय‚ भावनामय है। सगुण में आर्द्रता है। उसमें भक्त अधिक सुरक्षित है। निर्गुण में कुछ खतरा है। एक समय ऐसा था‚ जब ज्ञान पर मैं अधिक निर्भर था; परंतु अब मुझे ऐसा अनुभव हो गया है कि केवल ज्ञान से मेरा काम नहीं चलता। ज्ञान से मन का स्थूल मैल जलकर भस्म हो जाता है; परंतु सूक्ष्म मैल को मिटाने का सामर्थ्य उसमें नहीं है। स्वावलंबन‚ विचार‚ विवेक‚ अभ्यास‚ वैराग्य- इन सभी साधनों को लें तो भी इनके द्वारा मन के सूक्ष्म मैल नहीं मिट सकते। भक्ति रूपी पानी की सहायता के बिना ये मैल नहीं धुल सकते। भक्ति रूपी पानी में ही यह शक्ति है। इसे आप चाहें तो परावलंबन कर दीजिए। परंतु ‘पर’ का अर्थ ‘दूसरा’ न करके ‘वह श्रेष्ठ परमात्मा’ कीजिए और उसका अवलंबन- ऐसा अर्थ ग्रहण कीजिए। परमात्मा का आधार लिये बिना चित्त के मैल नष्ट नहीं होते।


12. कोई यह कहेंगे कि "यहाँ 'ज्ञान' शब्द अर्थ संकुचित कर दिया है। यदि 'ज्ञान' से चित्त के मैल नहीं धुल सकते, तो ज्ञान का दर्जा हलका हो जाता है।" मैं इस आक्षेप को स्वीकार करता हूँ। परंतु मेरा कहना यह है कि शुद्ध ज्ञान इस मिट्टी के पुतले में रहते हुए होना कठिन है। इसमें रहते हुए जो ज्ञान होगा‚ वह कितना ही शुद्ध क्यों न हो‚ उसमें कुछ कमी रह ही जायेगी। इस देह में जो ज्ञान उत्पन्न होगा‚ उसकी शक्ति मर्यादित ही रहेगी। यदि शुद्ध ज्ञान का उदय हो जाये‚ तो उससे सारे मैल भस्म हो जायेंगे‚ इसमें मुझे तिल मात्र शंका नहीं है। चित्त सहित सारे मैलों को भस्म कर डालने का सामर्थ्य ज्ञान में है। परंतु इस विकारवान देह में ज्ञान का बल कम पड़ता है‚ इसलिए उसके द्वारा सूक्ष्म मैलों का मिटना संभव नहीं है। अतः भक्ति का आश्रय लिये बिना सूक्ष्म मैल मिटते नहीं। इसीलिए भक्ति में मनुष्य अधिक सुरक्षित है। यह ‘अधिक’ शब्द मेरी ओर से समझिए। सगुण भक्ति सुलभ है। इसमें परमेश्वरावलंबन है‚ निर्णुण में स्वावलंबन। इसमें ‘स्व’ का भी क्या अर्थ है? "अपने अंतःस्थ परमात्मा का आधार"- यही उस स्वावलंबन का अर्थ है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिल सकता‚ जो केवल बुद्धि के सहारे शुद्ध हो गया हो। स्वावलंबन से अर्थात अंतस्थ आत्मज्ञान से शुद्ध ज्ञान प्राप्त होगा। सारांश‚ निर्णुण भक्ति के स्वावलंबन में भी आत्मा का ही आधार है।


62. निर्गुण के अभाव में सगुण भी सदोष 

13. जैसे सगुण-उपासना के पक्ष में मैंने सुलभता और सुरक्षितता रूपी वजन डाल दिया‚ वैसे ही निर्गुण के पक्ष में भी डाल सकता हूँ। निर्गुण में एक मर्यादा रहती है। उदाहरणार्थ‚ हम भिन्न-भिन्न कामों के लिए, सेवा के लिए संस्था स्थापित करते हैं। संस्थाएं शुरू में व्यक्ति को लेकर बनती हैं। वह व्यक्ति मुख्य आधार रहता है। संस्था पहले व्यक्तिनिष्ठ रहती है। परंतु जैसे-जैसे उसका विकास होता जाये‚ वैसे-वैसे वह व्यक्तिनिष्ठ न रहकर तत्त्वनिष्ठ होती जानी चाहिए। यदि उसमें ऐसी तत्त्वनिष्ठा उत्पन्न हुई‚ तो स्फूर्तिदाता का लोप होते ही संस्था में अंधेरा छा जाता है। मैं अपना प्रिय उदाहरण दूं। चरखे की माल टूटते ही सूत कातना तो दूर‚ कता हुआ सूत लपेटना भी संभव नहीं होता। व्यक्ति का आधार टूटते ही वैसी ही दशा उस संस्था की हो जाती है। फिर वह अनाथ हो जाता है पर यदि व्यक्ति-निष्ठा तत्त्व-निष्ठा पैदा हो जाये, तो फिर ऐसा नहीं होगा। 


14. सगुण को निर्गुण की सहायता चाहिए। कभी तो व्यक्ति से‚ आकार से‚ निकलकर बाहर जाने का अभ्यास करना चाहिए। गंगा हिमालय से‚ शंकर के जटाजूट से निकली‚ परंतु वहीं थम नहीं गयी। जटाजूट छोड़कर वह हिमालय की गिरि-कंदराओं’ घाटियों‚ जंगलों को पार करती हुई सपाट मैदान में कल-कल बहती हुई जब आयी, तभी वह विश्वजनों के काम आ सकी। इसी प्रकार व्यक्ति का आधार टूट जाने पर भी तत्त्व के मजबूत खंभों पर खड़ी रहने के लिए संस्था को तैयार रहना चाहिए। कमान बनाते हैं‚ तो पहले उसे आधार देते हैं‚ परंतु बाद में आधार निकाल लेना होता है। आधार के निकाल डालने पर जब मेहराब टिकी रहती है‚ तभी समझा जाता है कि वह आधार सही था। यह तो ठीक है कि पहले स्फूर्ति का प्रवाह सगुण से चला‚ परंतु अंत में उसकी परिपूर्णता तत्त्वनिष्ठा में‚ निर्गुण में होनी चाहिए। भक्ति के उदर से ज्ञान का जन्म होना चाहिए। भक्ति रूपी लता में ज्ञान के पुष्प खिलने चाहिए।


15. बुद्धदेव के ध्यान में यह बात आ गयी थी। इसीलिए उन्होंने तीन प्रकार की निष्ठाएं बतायी हैं। पहले व्यक्तिनिष्ठा हो। उसमें से तत्त्वनिष्ठा। और यदि एकाएक तत्त्वनिष्ठा न हो, तो कम-से-कम संघ-निष्ठा उत्पन्न होनी चाहिए। एक व्यक्ति के प्रति जो आदर था‚ वह दस-पंद्रह के लिए होना चाहिए। संघ के प्रति यदि सामुदायिक प्रेम न होगा तो आपस में अनबन होगी‚ झगड़े होंगे। व्यक्ति-शरणता मिटकर संघ-शरणता उत्पन्न होनी चाहिए और फिर सिद्धांत-शरणता आनी चाहिए। इसीलिए बौद्ध-धर्म में तीन प्रकार की शरणागति बतायी गयी है- बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। पहले व्यक्ति के प्रति प्रीति हो‚ फिर संघ के प्रति; परंतु ये दोनों निष्ठाएं अस्थिर ही हैं। अंत में सिद्धांत-निष्ठा उत्पन्न होनी चाहिए‚ तभी संस्था लाभदायी हो सकेगी। स्फूर्ति का स्त्रोत यद्यपि सगुण में शुरू हुआ‚ तो भी वह निर्गण-सागर में जाकर मिलना चाहिए। निर्गुण के अभाव से सगुण सदोष हो जाता है। निर्णय की मर्यादा सगुण को समतोल रखती है‚ इसके लिए सगुण‚ निर्गुण का आभारी है। 


16. हिंदू‚ ईसाई‚ इस्लाम आदि सभी धर्मों में किसी-न-किसी रूप में मूर्ति-पूजा प्रचलित है। भले ही वह नीचे दर्जे की मानी गयी हो‚ तो भी मान्य है और महान है। मूर्ति-पूजा जब तक निर्गुण की सीमा में रहती है‚ तभी तक वह निर्दोष रहती है। परंतु इस मर्यादा के छूटते ही सगुण सदोष हो जाता है। निर्गुण की मर्यादा के अभाव में सारे धर्मों के सगुण रूप अवनति को प्राप्त हो गये हैं। पहले यज्ञयाग में पशुहत्या होती थी। आज भी शक्ति-देवी को बलि चढ़ाते हैं। यदि मूर्ति-पूजा का अत्याचार हो गया। मर्यादा को छोड़कर मूर्ति-पूजा गलत दिशा में चली गयी। यदि निर्गुण-निष्ठा की मर्यादा रहती, तो फिर यह अंदेशा नहीं रहता।


63. दोनों परस्पर पूरक: राम-चरित्र के दृष्टांत 

17. सगुण सुलभ और सुरक्षित है। परंतु सगुण को निर्गुण की आवश्यकता है। सगुण के विकास के लिए उसमें निर्गुणरूपी‚ तत्त्वनिष्ठारूपी बौर आना चाहिए। निर्गुण-सगुण परस्पर पूरक हैं‚ परस्पर विरुद्ध नहीं। सगुण से निर्गुण तक मंजिल तय करनी चाहिए और निर्गुण को भी चित्त के सूक्ष्म मैल धोने के लिए सगुण की आर्द्रता चाहिए। दोनों एक-दूसरे के कारण सुशोभित हैं। 


18. यह दोनों प्रकार की भक्ति रामायण में बड़े ढंग से दिखायी गयी है। अयोध्या कांड में भक्ति के दोनों प्रकार आये हैं। इन्हीं दो भक्तियों का विस्तार रामायण में है। भरत की भक्ति पहले प्रकार की है और लक्ष्मण की दूसरे प्रकार की। इनके उदाहरण से निर्गुण-भक्ति और सगुण-भक्ति का स्वरूप समझ में आ जायेगा। 


19. राम जब वनवास के लिए निकले तो वे लक्ष्मण को अपने साथ ले जाने के लिए तैयार नहीं थे। राम को उन्हें साथ ले जाने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती थी। उन्होंने लक्ष्मण से कहा- "लक्ष्मण‚ मैं वन में जा रहा हूँ। मुझे पिताजी की ऐसी ही आज्ञा है। तुम घर पर रहो। मेरे साथ चलकर दुःखी माता-पिता को और अधिक दुःखी न बनाओ। माता-पिता की और प्रजा की सेवा करो। तुम उनके पास रहोगे, तो मैं निश्चिंत रहूंगा। तुम मेरे प्रतिनिधि के तौर पर रहो। मैं वन में जा रहा हूँ। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी संकट में पड़ रहा हूँ। बल्कि ऋषियों के आश्रम में जा रहा हूँ।" इस तरह राम लक्ष्मण को समझा रहे थे; परंतु लक्ष्मण ने राम की सारी बातें एक ही झटके में उड़ा दीं। एक घाव दो टुकड़ेǃ तुलसीदास जी ने इसका बढ़िया चित्र खींचा है। लक्ष्मण कहते हैं– "आपने मुझे उत्कृष्ट निगम नीति बतायी है। वास्तव में मुझे इसका पालन भी करना चाहिए; परंतु यह राजनीति का बोझ मुझसे नहीं उठ सकेगा। आपके प्रतिनिधि होने की शक्ति मुझमें नहीं। मैं तो बालक हूँ। दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥ नरबर धीर धरम-धुर-धारी। निगम-नीति कहुं ते अधिकारी॥ मैं सिसु प्रभु-सनेह-प्रतिपाला। मंदरु-मेरु कि लेहिं मराला॥ हंस क्या मेरु मंदर का भार उठा सकता है? भैया राम‚ मैं तो आज तक आपके प्रेम से पला-पुसा हूँ। आप यह राजनीति किसी दूसरे को सिखाइए। मैं तो एक बालक हूँ।" यह कहकर लक्ष्मण ने सारी बात खत्म कर डाली।


63. दोनों परस्पर पूरक: राम-चरित्र के दृष्टांत 

20. मछली जिस तरह पानी से जुदा नहीं रह सकती‚ वही हाल लक्ष्मण का था। राम से दूर रहने की शक्ति उसमें नहीं थी। उसके रोम-रोम में सहानुभूति भरी थी। राम सो जायें‚ तब भी स्वयं जागता रहे‚ उनकी सेवा करे। इसी में उसे आनंद मालूम होता था। हमारी आंख पर कोई कंकड़ मारे‚ तो जैसे हाथ फौरन उठकर आंख पर आ जाता है और कंकड़ की मार झेल लेता है, उसी तरह लक्ष्मण राम का हाथ बन गया था। राम पर यदि प्रहार हो‚ तो पहले लक्ष्मण उसे झेलता। तुलसीदास जी ने लक्ष्मण के लिए एक बढ़िया दृष्टांत दिया है। झंडा ऊंचा लहराता रहता है। मान-वंदना सब झंडे की ही करते हैं। उसके रंग‚ आकार आदि के गीत गाये जाते हैं। परंतु उस सीधे खड़े डंडे को कौन पूछता है? राम के यश की जो पताका फहर रही है‚ उसको डंडे की तरह आधार लक्ष्मण ही था। वह सीधा तना खड़ा रहा। झंडे का डंडा कभी झुक नहीं सकता‚ उसी तरह राम के यश को फहराने वाला लक्ष्मण रूपी डंडा कभी झुका नहीं। यश किसका? तो रामकाǃ संसार को पताका दीखती है‚ डंडे की याद नहीं रहती। मंदिर का कलश दीखता है‚ नींव नहीं। राम का यश संसार में फैल रहा है, परंतु लक्ष्मण का कहीं पता नहीं। चौदह साल तक यह डंडा सीधा ही तना रहा, जरा भी नहीं झुका। खुद पीछे रहकर वह राम का यश फहराता रहा। राम बड़े-बड़े दुर्धर काम लक्ष्मण से करवाते। सीता को वन में छोड़ने का काम अंत में लक्ष्मण को ही सौंपा गया। बेचारा लक्ष्मण सीता को पहुँचा आया। लक्ष्मण कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं रह गया था। वह राम की आंखें‚ राम के हाथ-पांव‚ राम का मन बन गया था। जिस तरह नदी समुद्र में मिल जाती है, उसी तरह लक्ष्मण की सेवा राम में मिल गयी थी। वह राम की छाया बन गया था। लक्ष्मण की यह भक्ति सगुण थी।


21. भरत निर्गुण भक्ति करने वाला था। उसका भी चित्र तुलसीदासजी ने सुंदर खींचा है। राम वन को गये‚ तब भरत अयोध्या में नहीं था। जब भरत आया‚ तब दशरथ मर चुके थे। गुरु वसिष्ठ उसे समझा रहे थे कि "तुम राज चलाओ।" भरत ने कहा- "मुझे राम से भेंट करनी चाहिए।" राम से मिलने के लिए वह भीतर से छटपटा रहा था; परंतु साथ ही राज्य का प्रबंध भी वह कर रहा था। उसकी भावना यह थी कि यह राज्य राम का है, इसका प्रबंध करना- यह राम का ही काम करने जैसा है। सारी संपत्ति उस मालिक की है, उसकी व्यवस्था करना उसे अपना कर्त्तव्य मालूम होता था। लक्ष्मण की तरह भरत मुक्त नहीं हो सकता था। यह भरत की भूमिका है। राम की भक्ति का अर्थ है‚ राम का काम करना‚ नहीं तो वह भक्ति किस काम की? राज-काज की सारी व्यवस्था करके भरत राम से भेंट करने वन में आया है। "भैया‚ यह आपका राज्य है। आप......" इतना ज्यों ही वह कहता है‚ त्यों ही राम उससे कहते हैं‚ "भरत‚ तुम्ही राज-काज चलाओ।" भरत संकोच में खड़ा रहता है। वह कहता है‚ "आपकी आज्ञा सिर-आंखों पर।" राम जो कहें‚ सो मंजूर। उसने अपना सब कुछ राम पर निछावर कर रखा था। 


22. भरत गया और राज-काज चलाने लगा; परंतु देखो कैसा अजीब दृश्य है कि अयोध्या से दो मील की दूरी पर वह तपस्या करता रहा। तपस्वी रहकर उसने राज-काज चलाया। अंत में राम जब भरत से मिले‚ तब यह पहचानना मुश्किल हो गया कि वन में रहकर तप करने वाला असली तपस्वी कौन है? दोनों के एक से चेहरे‚ उसमें थोड़ा-सा फर्क‚ मुख मुद्रा पर वही तपस्या के चिह्न‚ दोनों को देखकर पहचाना नहीं जाता कि इनमें राम कौन और भरत कौनǃ इस तरह का चित्र यदि कोई निकाले‚ तो वह कितना पावन चित्र होगाǃ इस तरह भरत यद्यपि शरीर से राम से दूर था, तो भी मन से वह क्षण भर के लिए भी दूर नहीं था। एक ओर वह राजकाज चला रहा था, तो मन से वह राम के पास ही था। निर्गुण में सगुण भक्ति खचाखच भरी रहती है। अतः वहाँ वियोग की भाषा मुंह से निकले ही कैसे? इसलिए भरत को राम का वियोग नहीं लगता था। वह अपने प्रभु का कार्य कर रहा था।


63. दोनों परस्पर पूरक: राम-चरित्र के दृष्टांत 

23. आजकल के युवक कहते हैं- "राम का नाम‚ राम की भक्ति‚ राम की उपासना- से सब बातें हमारी समझ में नहीं आतीं। हम तो भगवान का काम करेंगे।" भगवान का काम कैसे करना चाहिए‚ इसका नमूना भरत ने दिखला दिया है। भगवान का काम करके भरत ने वियोग को पचा डाला है। भगवान का काम करते हुए भगवान के वियोग का भान होने के लिए समय न रहना एक बात है और जिसका भगवान से कुछ लेना-देना नहीं‚ उसका बोलना दूसरी बात है। भगवान का कार्य करते हुए संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करना बड़ी दुर्लभ वस्तु है। यद्यपि भरत की यह वृत्ति निर्गुण रूप से काम करने की थी‚ तो भी वहाँ सगुण का आधार टूट नहीं गया था। "प्रभो राम‚ आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। आप जो कहेंगे उसमें मुझे संदेह नहीं होगा" - ऐसा कहकर भरत लौटने लगा तो भी उसने फिर पीछे मुड़कर राम की ओर देखा और कहा- "प्रभो‚ मन को समाधान नहीं होता‚ कुछ-न-कुछ भूला हुआ-सा लगता है।" राम ने तुरंत उसका भाव पहचान लिया और कहा- "ये पादुकाएं ले जाओ।" अंत में सगुण के प्रति आदर रहा ही। निर्गुण को सगुण ने अंत में आर्द्र कर ही दिया। लक्ष्मण को पादुकाएं लेकर समाधान न हुआ होता। उसकी दृष्टि से यह दूध की भूख छाछ से मिटाने जैसा होता। भरत की भूमिका इससे भिन्न थीं। वह बाहर से दूर रहकर कर्म कर रहा था‚ परंतु मन से राममय था। भरत यद्यपि अपने कर्त्तव्य का पालन करने में ही राम-भक्ति मानता था‚ तो भी उसे पादुकाओं की आवश्यकता महसूस हुई। उनके अभाव में वह राजकाज का भार नहीं उठा सकता था। उन पादुकाओं की आज्ञा शिरोधार्य करके वह अपना कर्त्तव्य कर रहा था। लक्ष्मण राम का भक्त था वैसा ही भरत भी था। दोनों की भूमिकाएं बाहर से भिन्न-भिन्न थीं। भरत यद्यपि कर्त्तव्यनिष्ठ था‚ तत्त्वनिष्ठ था‚ तो भी उसकी तत्त्वनिष्ठा को पादुका की आर्द्रता की जरूरत महसूस हुई।


64. दोनों परस्पर पूरक: कृष्ण-चरित्र के दृष्टांत 

24. हरिभक्ति रूपी आर्द्रता अवश्य होनी चाहिए। इसलिए भगवान ने अर्जुन से बार-बार कहा है- मय्यासक्तमनाः पार्थ- "अर्जुन‚ मुझमें आसक्त रह, मुझमें भक्ति रख और फिर कर्म करता रह।" जिस भगवद्गीता को ‘आसक्ति’ शब्द न तो सूझता है‚ न रुचता है‚ जिसने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि अनासक्त रहकर कर्म करो‚ राग-द्वेष छोड़कर कर्म करो‚ निरपेक्ष कर्म करो‚ ‘अनासक्ति’‚ ‘निःसंगता, जिसका ध्रुपद या पालुपद है, वही गीता कहती है- "अर्जुन मुझमें आसक्ति रख।" पर यहाँ याद रखना चाहिए कि भगवान में आसक्ति रखना बड़ी ऊंची बात है। वह किसी पार्थिव वस्तु के प्रति आसक्ति थोड़े ही है। सगुण और निर्गुण‚ दोनों में एक-दूसरे में गुंथे हुए हैं। सगुण निर्गुण का आधार सर्वथा तोड़ नहीं सकता और निर्गुण को सगुण के रस की जरूरत होती है। जो मनुष्य सदैव कर्त्तव्य-कर्म करता है‚ वह उस कर्म द्वारा पूजा ही कर रहा है‚ परंतु पूजा के साथ रस आर्द्रता चाहिए। मामनुस्मर युध्य च- मेरा स्मरण रखते हुए कर्म करो। कर्म स्वयं भी एक पूजा ही है‚ परंतु अंत में भावना सजीव रहनी चाहिए। केवल फूल चढ़ा देना ही पूजा नहीं है। उसमें भावना आवश्यक है। फूल चढ़ाना पूजा का एक प्रकार है‚ सत्कर्मों द्वारा पूजा करना दूसरा प्रकार है‚ परंतु दोनों में भावना रूपी आर्द्रता आवश्यक है। फूल चढ़ा दिये, पर मन में भावना नहीं है, तो वे फूल मानो पत्थर पर ही चढ़े। अतः असली वस्तु भावना है। सगुण और निर्णुण, कर्म और प्रीति, ज्ञान और भक्ति ये सब चीजें एकरूप ही हैं। दोनों का अंतिम अनुभव एक ही है। 


25. उद्धव और अर्जुन की मिसाल देखो। रामायण से मैं एकदम महाभारत में आ कूदा। इसका मुझे अधिकार भी है, क्योंकि राम और कृष्ण दोनों एकरूप ही हैं। जैसे भरत और लक्ष्मण, वैसे ही उद्धव और अर्जुन हैं। जहाँ कृष्ण, वहाँ उद्धव होंगे ही। उद्धव को कृष्ण का वियोग क्षण भर भी सहन नहीं होता था। वह सतत कृष्ण की सेवा में निमग्न रहता। कृष्ण के बिना सारा संसार उसे फीका मालूम होता। अर्जुन भी कृष्ण का सखा था, परंतु वह दूर, दिल्ली में रहता था। अर्जुन कृष्ण का काम करने वाला था; परंतु कृष्ण द्वारका में, तो अर्जुन हस्तिनापुर में! ऐसा दोनों का था। 


26. जब कृष्ण को देह छोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई, तो उन्होंने उद्धव से कहा- "ऊधो, अब मैं जा रहा हूँ।" उद्धव ने कहा- "मुझे क्या अपने साथ नहीं ले चलेंगे? चलो, हम दोनों साथ ही चलेंगे।" परंतु कृष्ण ने कहा- "यह मुझे पसंद नहीं। सूर्य अपना तेज अग्नि में रखकर जाता है, उसी तरह मैं अपनी ज्योति तुझमें छोड़ जाने वाला हूँ।" इस तरह भगवान ने अंतकालीन व्यवस्था की और उद्धव को ज्ञान देकर रवाना किया। फिर यात्रा में उद्धव को मैत्रेय ऋषि से मालूम हुआ कि भगवान निजधाम को चले गये। उसके मन पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ, मानो कुछ हुआ ही नहीं। मरका गुरु, रडका चेला, दोहींचा बोध वायां गेला- ‘मरियल गुरु, रोवना चेला, दोनों का बोध व्यर्थ गया! ऐसा हाल उसका नहीं था। उसे लगा, मानो वियोग हुआ ही नहीं। उसके जीवन भर सगुण उपासना की थी। वह परमेश्वर के सान्निध्य में ही रहता था। पर अब उसे निर्गण में ही आनंद आने लगा था। इस तरह उसे निगुर्ण की मंजिल तय करनी पड़ी। सगुण पहले, परंतु उसके बाद निर्गुण की सीढ़ी आनी ही चाहिए, नहीं तो परिपूर्णता नहीं होगी। 


27. इससे उलटा हाल हुआ अर्जुन का। श्रीकृष्ण ने उसे क्या करने के लिए कहा था? अपने बाद सब स्त्रियों की रक्षा का भार अर्जुन पर सौंपा था। अर्जुन दिल्ली से आया और द्वारका से श्रीकृष्ण के घर की स्त्रियों को लेकर चला। रास्ते में हिसार के पास पंजाब के चोरों ने उसे लूट लिया। जो अर्जुन उस समय एकमात्र नर, उत्कृष्ट वीर के नाम से प्रसिद्ध था; जो पराजय जानता ही नहीं था और इसलिए 'जय' नाम से प्रसिद्ध हो गया था, जिसने प्रत्यक्ष शंकर का सामना किया और उन्हें झुका दिया, वही अजमेर के पास भागते-भागते बचा। कृष्ण के चले जाने का उसके मन पर बड़ा असर हुआ। मानों उसका प्राण ही चला गया और केवल निस्त्राण और निष्प्राण शरीर ही बाकी रह गया। सारांश यह कि सतत कर्म करने वाले, कृष्ण से दूर रहने वाला उपासक अर्जुन को अंत में यह वियोग दुःसह और भारी हो गया। उसका निर्गुण अंत में मुखर हो उठा। उसका सारा कर्म ही मानो समाप्त हो गया। उसके निर्गुण को आखिर सगुण का अनुभव आया। सारांश, सगुण को निर्गुण में जाना पड़ता है और निर्गुण को सगुण में आना पड़ता है। इस तरह दोनों को एक-दूसरे से परिपूर्णता आती है।


65. सगुण-निर्गुण की एकरूपता के विषय में स्वानुभव-कथन 


28. इसलिए जब यह कहने की नौबत आती है कि सगुण-उपासक और निर्गुण उपासक में क्या भेद है, तो वाणी कुंठित हो जाती है। सगुण और निर्णुण अंत में एक हो जाते हैं। भक्ति का स्त्रोत यद्यपि पहले सगुण से फूटा हो, तो भी अंत में वह निर्गुण तक जा पहुँचता है। पुरानी बात है। मैं वायकम का सत्याग्रह देखने गया था। मलबार के किनारे शंकराचार्य का जन्मग्राम है, यह बात मुझे याद थी। जहाँ होकर मैं जा रहा था, वहीं कहीं पास में भगवान शंकराचार्य का ‘कालड़ी’ ग्राम होगा, ऐसा मुझे लगा और मैंने साथ के मलयाली सज्जन से पूछा। उसने कहा- 'यहाँ से दस-बारह मील पर ही वह गांव है। आप जाना चाहते हैं क्या?' मैंने इनकार कर दिया। मैं आया था सत्याग्रह देखने के लिए, अतः मुझे और कहीं जाना उचित नहीं जान पड़ा और उस समय उस गांव को देखने के लिए नहीं गया। मुझे आज भी लगता है कि वह मैंने ठीक ही किया। परंतु रात को जब मैं सोने लगा, तो वह कालड़ी गांव और शंकराचार्य की वह मूर्ति मेरी आंखों के सामने बार-बार आ खड़ी होती। मेरी नींद उड़ जाती। वह अनुभव मुझे आज भी ताजा लग रहा है। शंकराचार्य का वह ज्ञानप्रभाव, उनकी वह दिव्य अद्वैतनिष्ठा, सामने फैले हुए संसार को मिथ्या ठहराने वाला उनका अलौकिक और ज्वलंत वैराग्य, उनकी गंभीर भाषा और मुझ पर हुए उनके अनंत उपकार- इन सबकी रह-रहकर मुझे याद आने लगती। रात को सारे भाव जाग्रत होते। तब मुझे इस बात का अनुभव हुआ कि निर्गुण में सगुण कैसे भरा हुआ है। प्रत्यक्ष भेंट होने में भी उतना प्रेम नहीं होता। निर्गुण में भी सगुण का परमोत्कर्ष ठसाठस भरा हुआ है। मैं अक्सर किसी को कुशलपत्र वगैरह नहीं लिखता। पर किसी मित्र को पत्र न लिखने पर भी भीतर से उसका सतत स्मरण होता रहता है। पत्र न लिखते हुए भी मन में उसकी स्मृति भरी रहती है। निर्गुण में इस तरह सगुण गुप्त रहता है। सगुण और निर्गुण, दोनों एक रूप हैं। प्रत्यक्ष मूर्ति को लेकर पूजा करना, या प्रकट रूप से सेवा करना और भीतर से सतत संसार के कल्याण का चिंतन करते हुए बाहर से पूजा की क्रिया दिखायी न देना- इन दोनों का समान मूल्य और महत्त्व है।


66. सगुण-निर्गुण केवल दृष्टिभेद, अतः भक्त लक्षण प्राप्त करें 

29. अंत में मुझे यह कहना है कि सगुण क्या और निर्गुण क्या, इसका निश्चय करना भी आसान नहीं है। एक दृष्टि से जो सगुण है, वह दूसरी दृष्टि से निर्गुण सिद्ध हो सकता है। सगुण की सेवा एक पत्थर को लेकर की जाती है। उस पत्थर में भगवान की कल्पना कर लेते हैं। माता में और संतों में प्रत्यक्ष चैतन्य प्रकट हुआ है। उनमें ज्ञान, प्रेम, हार्दिकता प्रकट है। पर उन्हें परमात्मा मानकर पूजा नहीं करते। ये चैतन्यमय लोग सबको प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं। अतः इनकी सेवा करनी चाहिए, उनमें सगुण परमात्मा के दर्शन करने चाहिए, परंतु ऐसा न करके लोग पत्थर में परमेश्वर देखते हैं। एक तरह से पत्थर में परमेश्वर को देखना निर्गुण की पराकाष्ठा है। सतं, मां-बाप, पड़ोसी- इनमें प्रेम, ज्ञान, उपकार-बुद्धि व्यक्त हुई है। उनमें ईश्वर मानना सरल है। परंतु पत्थर में ईश्वर मानना कठिन है। उस नर्मदा के पत्थर को हम गणपति मानते हैं। यह क्या निर्गुण पूजा नहीं है? 


30. बल्कि इसके विपरीत ऐसा मालूम होता है कि यदि पत्थर में परमेश्वर की कल्पना न की जाये, तो फिर कहाँ की जाये? भगवान की मूर्ति होने की पात्रता तो उस पत्थर में ही है। वह निर्विकार है, शांत है। अंधकार हो, प्रकाश हो; गर्मी हो, सर्दी हो, वह पत्थर जैसा-का-तैसा ही रहता है। ऐसा यह निर्विकार पत्थर ही परमेश्वर का प्रतीक होने के योग्य है। मां-बाप, जनता, अड़ोसी-पड़ोसी, ये सब विकारों से भरे हैं, अर्थात इनमें कुछ-न-कुछ विकार मिल ही जाता है। अतएव पत्थर की पूजा करने की अपेक्षा उनकी सेवा करना एक दृष्टि से कठिन ही है। 


31. सारांश यह कि सगुण-निर्गुण परस्पर पूरक हैं। सगुण सुलभ है, निर्गुण कठिन है, परंतु दूसरी तरह से सगुण भी कठिन है और निर्गुण भी सरल है। दोनों के द्वारा एक ही ध्येय की प्राप्ति होती है। पांचवें अध्याय में जैसा बताया है, चौबीसों घंटे कर्म करके भी लेशमात्र कर्म न करने वाला और चौबीसों घंटे कुछ भी कर्म न करके सब कर्म करने वाला, योगी और संन्यासी, दोनों एकरूप ही हैं, वैसे ही यहाँ भी सगुण कर्मदशा और निर्गुण संन्यास योग, दोनों एकरूप ही हैं। संन्यास श्रेष्ठ है या योग?- इसका उत्तर देने में भगवान को जैसी कठिनाई पड़ी, वैसी ही कठिनाई यहाँ भी आ पड़ी है। अंत में सुलभता-कठिनता के तारतम्य से उत्तर देना पड़ा है, अन्यथा योग और संन्यास, सगुण और निर्गुण, दोनों एकरूप ही हैं। 


32. अंत में भगवान कहते हैं- 'अर्जुन, तुम चाहे सगुण रहो या निर्गुण; पर भक्त जरूर रहो, पत्थर मत रहो।' यह कहकर भगवान ने अंत में भक्त के लक्षण बताये हैं। अमृत मधुर होगा, परंतु उसकी माधुरी चखने का अवसर हमें नहीं मिला। किंतु ये लक्षण प्रत्यक्ष मधुर हैं। इसमें कल्पना की जरूरत नहीं है। इन लक्षणों का हम अनुभव लें। बारहवें अध्याय के ये भक्त-लक्षण स्थितप्रज्ञ के लक्षणों की तरह हमें नित्य सेवन करने चाहिए, मनन करने चाहिए और इन्हें थोड़ा-थोड़ा अपने जीवन में उतारकर पुष्टि प्राप्त कर लेनी चाहिए। इस तरह हमें अपना जीवन धीरे-धीरे परमेश्वर की ओर ले जाना चाहिए। 



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