विश्वरूप-दर्शन

55. विश्वरूप-दर्शन की अर्जुन की उत्कंठा

1. भाइयों पिछली बार हमने देखा कि इस विश्व की अनंत वस्तुओं में व्याप्त परमात्मा को हम कैसे पहचाने और हमारी आंखों को जो यह विराट प्रदर्शनी दिखायी देती हैउसे आत्मसात कैसे करें। पहले स्थूल फिर सूक्ष्मपहले सरल फिर मिश्र, इस प्रकार सब चीजों में भगवान को देखेंउसका साक्षात्कार करेंअहर्निश अभ्यास करके सारे विश्व को आत्मरूप देखना सीखेंयह हमनेपिछले अध्याय में देखा। अबआज ग्यारहवां अध्याय देखना है। इस अध्याय में भगवान ने अपना प्रत्यक्ष रूप दिखाकर अर्जुन पर अपनी परम कृपा प्रकट की है। अर्जुन ने भगवान से कहा– "प्रभोमैं आपका वह संपूर्ण रूप देखना चाहता हूंजिसमें आपका सारा महान प्रभाव प्रकट हुआ होवह रूप मुझे आंखों से देखने को मिले।" अर्जुन की यह मांग विश्वरूप-दर्शन की थी।

2. हमविश्व’‚ ‘जगत्’‚ इन शब्दों का प्रयोग करते हैं। यहजगत्विश्व का एक छोटा-सा भाग है। इस छोटे-से टुकड़े का भी आकलन ठीक से हमें नहीं होता। सारे विश्व की दृष्टि से देखेंतो यह जगत् जो हमें इतना विशाल दिखायी देता हैअतिशय तुच्छ लगेगा। रात के समय आकाश की ओर जरा दृष्टि डालें तो अनंत गोले दिखायी देते हैं। आकाश के आंगन की वह रंगवल्लीवे छोटेछोटे सुंदर फूलवे लुक-लुक करने वाली लाखों तारिकाएं इस सबका स्वरूप क्या आप जानते हैं? ये छोटी-छोटी सी तारिकाएं महानप्रचंड हैं। उनके अंदर अनंत सूर्यों का समावेश हो जायेगा। वे रसमयतेजोमयज्वलंत धातुओं के गोल पिंड हैं। ऐसे इन अनंत पिंडों का हिसाब कौन लगायेगा? इनका अंत है पार। ख़ाली आंखों से ये हजारों दीखते हैं। दूरबीन से देखेंतो करोड़ों दिखायी देते हैं। उससे बड़ी दूरबीन होतो परार्धों दीखने लगेंगे और यह समझ में नहीं आयेगा कि आखिर इसका अंत कहाँ हैकैसा है? यह जो अनंत सृष्टि ऊपर-नीचे सब जगह फैली हुई हैउसका एक छोटा-सा टुकड़ाजगत्कहलाता है। परंतु यह जगत् भी कितना विशालकाय दीख पड़ता है।

 

55. विश्वरूप-दर्शन की अर्जुन की उत्कंठा

3. यह विशाल सृष्टि परमेश्वर के स्वरूप का एक पहलू है। अब उसका दूसरा पहलू लो। वह है काल। यदि हम पिछले काल पर दृष्टि दौड़ायेंतो इतिहास की मर्यादा में बहुत हुआ तो दस-बीस हजार साल तक पीछे जा सकेंगे। आगे का काल तो ध्यान में ही नहीं आता। इतिहास-काल दसबीस हजार वर्षों का और स्वयं हमारा जीवन-काल तो मुश्किल से सौ साल का हैǃ वास्तव में काल का विस्तार अनादि और अनंत है। कितना काल बीता है, इसका कोई हिसाब नहीं। आगे कितना काल है, इसकी कोई कल्पना नहीं होती। जैसे विश्व की तुलना में हमाराजगत्सर्वथा तुच्छ हैवैसे ही इतिहास के ये दस-बीस हजार साल अनंत काल की तुलना में कुछ भी नहीं हैं। भूतकाल अनादि है और भविष्यकाल अनंत है। यह छोटा-सा वर्तमान काल सचमुच कहाँ हैवह बताने जाते हैंतब तक वह भूतकाल में विलीन हो जाता है। ऐसा यह अत्यंत चपल वर्तमान काल मात्र हमारा है। मैं अभी बोल रहा हूंपरंतु मुंह से शब्द निकला कि वह भूतकाल में विलीन हुआǃ ऐसी यह महान काल-नदी सतत बह रही है। उसके उद्गम का पता है अंत का। बीच का थोड़ा-सा प्रवाहमात्र हमें दिखायी देता है। 4. इस प्रकार एक और स्थल का प्रचंड विस्तार और दूसरी ओर काल का प्रचंड प्रवाह- इन दोनों दृष्टियों से सृष्टि की ओर देखेंगेतो समझ में आयेगा कि कल्पना-शक्ति को चाहे जितना खींचने पर भी इसका कोई अंत नहीं लगने वाला। तीनों काल और तीनों स्थल मेंभूत-भविष्य-वर्तमान में एवं ऊपर-नीचेयहां-वहांसब जगह व्याप्त विराट परमेश्वरवह एक ही समय एकत्र दिखायी देपरमेश्वर का इस रूप में दर्शन हीऐसी इच्छा अर्जुन के मन में उत्पन्न हुई है। इस इच्छा में से ग्यारहवां अध्याय निकला है। 5. अर्जुन भगवान को बहुत प्यारा था। कितना प्यारा था? इतना कि दसवें अध्याय में किनकिन स्वरूपों में मेरा चिंतन करोयह बताते हुए भगवान कहते है- "पांडवों में जो अर्जुन हैउसके रूप में मेरा चिंतन करो।" श्रीकृष्ण कहते हैंपाण्डवानां धनंजयः। इससे अधिक प्रेम का पागलपनप्रेमोन्मत्तता कहाँ होगी? यह इस बात का उदाहरण है कि प्रेम कितना पागल हो सकता है। अर्जुन पर भगवान की अपार प्रीति थी। यह ग्यारहवां अध्याय उस प्रीति का प्रसाद रूप है। दिव्य रूप देखने की अर्जुन की इच्छा को भगवान उसे दिव्यदृष्टि देकर पूरा किया। अर्जुन को उन्होंने प्रेम का प्रसाद दिया।

 

56. छोटी मूर्ति में भी पूर्ण दर्शन संभव

6. उस दिव्य रूप का सुंदर वर्णनभव्य वर्णनइस अध्याय में है। इतना सब होते हुए भी कहना चाहिए कि विश्वरूप के लिए मुझे कोई खास लोभ नहीं। मैं छोटे-से रूप पर ही संतुष्ट हूँ। जो छोटा-सा सुंदर मनोहर रूप मुझे दीखता हैउसकी माधुरी का अनुभव करना मैं सीख गया हूँ। परमेश्वर टुकड़ों में विभाजित नहीं है। मुझे ऐसा नहीं लगता कि परमेश्वर का जो रूप हम देख पाते हैंवह उसका एक टुकड़ा है और शेष परमेश्वर बाहर बचा हुआ है। बल्कि मैं देखता हूँ कि जो परमेश्वर इस विराट विश्व में व्याप्त हैवही संपूर्ण रूप में जैसा-का-तैसा एक छोटी-सी मूर्ति मेंमिट्टी के एक कण में भी व्याप्त है। उसमें कोई कमी नही। अमृत के सिंधु में जो मिठास हैवही एक बिंदु में भी होती है। मुझे लगता हैअमृत की जो एक छोटीसी बूंद मुझे मिल गयी हैउसी की मिठास मैं चखूं। अमृत का दृष्टांत मैंने जान-बूझकर लिया है। पानी या दूध का दृष्टांत नहीं लिया है। एक प्याले दूध में जो मिठास होगीवही मिठास लोटे भर दूध में होगीपरंतु मिठास चाहे वही होपुष्टि उतनी ही नहीं है। एक बूंद दूध की अपेक्षा एक प्याले दूध में पुष्टि अधिक है। परंतु अमृत के उदाहरण में यह बात नहीं है। अमृत के समुद्र की मिठास तो अमृत के एक बूंद में है हीउसके अलावा पुष्टि भी उतनी ही है। बूंद भर अमृत भी गले के नीचे उतर गयातो उससे अमृतत्त्व ही मिलेगा। उसी तरह जो दिव्यतापवित्रता परमेश्वर के विराट स्वरूप में हैवही एक छोटीसी मूर्ति में भी है। किसी ने मुट्ठी भर गेहूँ मुझे नमूने के तौर पर लाकर दियेतब भी यदि मुझे गेहूँ की पहचान हुईतो फिर बोरी भर गेहूँ भी यदि मेरे सामने रख दिये जायेतो वह कैसे होगी? ईश्वर का जो छोटा नमूना मेरी आंखों के सामने हैउससे यदि ईश्वर को मैंने नहीं पहचानातो फिर विराट परमेश्वर को देखकर भी मैं कैसे पहचानूंगा? छोटे-बड़े में क्या है? छोटे रूप को पहचान लियातो बड़े की पहचान हो ही गयी। अतः मुझे यह आकांक्षा नहीं होती कि ईश्वर अपना बड़ा रूप मुझे दिखाये। अर्जुन की तरह विश्वरूप-दर्शन की मांग करने की योग्यता भी मुझमें नहीं है। फिर जो कुछ मुझे दीखता हैवह विश्वरूप का कोई टुकड़ा हैऐसी बात नहीं। किसी टूटी तस्वीर का कोई टुकड़ा ले आयेतो उससे सारे चित्र का खयाल हमें नहीं हो सकता। परंतु परमात्मा इस तरह टुकड़ों से बना हुआ नहीं है। परमात्मा कटा हुआ है खंड-खंड किया हुआ है। एक छोटे-से स्वरूप में भी वह अनंत परमेश्वर सारा-का-सारा समाया हुआ है। छोटे-फोटो और बड़े फोटो में क्या अंतर है? जो बातें बड़े फोटो में होती हैं वही सब जैसी-की-तैसी छोटे फोटो में भी होती हैं। छोटा फोटो बड़े फोटो का टुकड़ा नहीं है। छोटे टाइप के अक्षर होंतो भी वही अर्थ होगा और बड़े टाइप के अक्षर हो तो भी वही होगा। बड़े टाइप में बड़ा अर्थ और छोटे में छोटा अर्थ होता होसो बात नहीं। मूर्ति-पूजा का आधार यही विचार-पद्धति है।

7. मूर्तिपूजा पर अनेक लोगों ने हमला किया है। बाहर के और यहाँ के भी कई विचारकों ने मूर्ति-पूजा को दोष दिया है। किंतु मैं ज्यों-ज्यों विचार करता हूँ त्योंत्यों मूर्ति-पूजा की दिव्यता मेरे सामने स्पष्ट होती जाती है। मूर्ति-पूजा का अर्थ क्या है? एक छोटी-सी चीज में सारे विश्व का अनुभव करने को सीखना मूर्ति-पूजा है। एक छोटे-से गांव में भी ब्रह्मांड देखने को सीखना क्या गलत है? यह कल्पना की बात नहींप्रत्यक्ष अनुभव की बात है। विराट स्वरूप में जो कुछ हैवही सब एक छोटीसी मूर्ति में हैवही एक मृत-कण में है। उस मिट्टी के ढेले में आमकेलेगेहूंसोनातांबाचांदीसभी कुछ है। सारी सृष्टि उस कण के भीतर भरी है। जिस तरह किसी छोटी नाटक मंडली में वे ही पात्र बार-बार भिन्न-भिन्न रूप बनाकर रंगमंच पर आते हैंउसी तरह परमेश्वर को समझो। जैसे कोई एक नाटककार खुद ही नाटक लिखता है और खुद ही नाटक में काम भी करता हैउसी तरह परमात्मा भी अनंत नाटक लिखता है और स्वयं अनंत पात्रों के रूप में सजकर रंगभूमि पर अभिनय करता है। इस अनंत नाटक का एक पात्र पहचान लेने पर सारे पात्र पहचान लियेऐसा हो जायेगा। 8. काव्य की उपमादृष्टांत आदि के लिए जो आधार हैवही मूर्ति-पूजा के लिए भी है। किसी गोल वस्तु को हम देखते हैंतो हमें आनंद होता है; क्योंकि उसमें एक व्यवस्थितता होती है। व्यवस्थितता ईश्वर का स्वरूप है। ईश्वर की सृष्टि सर्वांग-सुंदर है। उसमें व्यवस्थितता है। वह गोल वस्तु यानि व्यवस्थित ईश्वर की मूर्ति। परंतु जंगल में उगा टेड़ा-तिरछा पेड़ भी ईश्वर की ही मूर्ति है। उसमें ईश्वर की स्वच्छंदता है। उस पेड को कोई बंधन नहीं है। ईश्वर को कौन बंधन में डाल सकता है? वह बंधनातीत परमेश्वर उस टेढ़े-मेढ़े पेड़ में है। कोई सीधा सरल खंभा देखते हैतो उसमें ईश्वर की समता दिखायी देती है। नक्काशीदार खंभा देखते हैंतो आकाश में नक्षत्रों के बेल-बूटे काढ़ने वाला परमेश्वर उसमें दिखायी देता है। किसी कटे-छंटे व्यवस्थित बाग में ईश्वर का संयमी रूप दिखायी देता हैतो किसी विशाल वन में ईश्वर की भव्यता और स्वतंत्रता के दर्शन होते हैं। जंगल में भी आनंद मिलता है और व्यवस्थित बगीचे में भी। तो फिर क्या हम पागल हैं? नहींआनंद दोनों में ही होता हैक्योंकि ईश्वरीय गुण प्रत्येक में प्रकट हुआ है। गोल-चिकने शालग्राम की बटिया में जो ईश्वरी तेज हैवही नर्मदा के ऊबड़खाबड़ पत्थर के गणपति में है। अतः मुझे वह विराट स्वरूप अलग से देखने को मिलातो चिंता नहीं।

9. परमेश्वर सर्वत्र भिन्नभिन्न वस्तुओं में भिन्न-भिन्न गुणों के द्वारा प्रकट हुआ हैइसीलिए हमें आनंद होता हैऔर उस वस्तु के प्रति आत्मीयता प्रतीत होती है। जो आनंद होता हैवह अकारण नहीं। आनंद क्यों होता है? उससे हमारा कुछ--कुछ संबंध रहता हैइसी से आनंद होता है। बच्चे को देखते ही माँ को आनंद होता है; क्योंकि वह संबंध पहचानती है। इसी तरह प्रत्येक वस्तु से परमात्मा का नाता जोड़ो। मुझमें जो परमेश्वर है, वही उस वस्तु में है। इस प्रकार का संबंध बढ़ाना ही आनंद बढ़ाना है। आनंद की और कोई उपपत्ति नहीं है। आप प्रेम का संबंध सब जगह जोड़ने लगिएफिर देखिएक्या चमत्कार होता है। फिर अनंत सृष्टि में व्याप्त परमात्मा अणु-रेणु में दिखायी देगा। एक बार यह दृष्टि जायेतो फिर क्या चाहिए? परंतु इसके लिए इंद्रियों को आदत डालने की जरूरत है। हमारी भोग-वासना छूटकर जब हमें प्रेम की पवित्र दृष्टि प्राप्त होगीतब फिर प्रत्येक-वस्तु में ईश्वर दिखायी देगा। उपनिषदों में आत्मा का रंग कैसा है, इसका बड़ा सुंदर वर्णन है। आत्मा का रंग कौन-सा बताया जाये? ऋषि प्रेमपूर्वक कहते हैं- यथा अयं इंद्रगोपः। यह जो लाल-लाल रेशम-सा मुलायम इंद्रगोप है, मृग का कीड़ा है - बीरबहूटी हैउसकी तरह आत्मा का रूप है। उस इंद्रगोप को देखते हैंतो कितना आनदं होता हैǃ यह आनंद क्यों होता है? मुझमें जो भाव हैवही उस इंद्रगोप में है। मुझसे उसका कोई संबंध होतातो आनंद होता? मेरे अंदर जो सुंदर आत्मा हैवही इंद्रगोप में भी है। इसीलिए उसकी उपमा दी। उपमा क्यों देते हैं? उससे आनंद क्यों होता है? हम उपमा इसलिए देते है कि उन दो वस्तुओं में साम्य होता है और इसी से आनंद होता है। यदि उपमेय और उपमान सर्वथा भिन्न होंतो आनंद नहीं आयेगा। यदि कोई कहे किनमक मिर्च की तरह’‚ तो हम उसे पागल कहेंगे। पर यदि कोई यह कहे कितारे फूलों की तरह हैं’‚ तो उनमें साम्य दिखायी देने से आनंद होगा। नमक मिर्च की तरह हैऐसा करने से सादृश्य का अनुभव नहीं होता। परंतु किसी की दृष्टि यदि इतनी विशाल हो गयी होउसे ऐसा दर्शन हुआ हो कि जो परमात्मा नमक में हैवही मिर्च में हैवहनमक कैसा?’ तोमिर्च की तरह हैइस कथन में भी आनंद अनुभव करेगा। सारांश यह है कि ईश्वरीय रूप प्रत्येक वस्तु में ओतप्रोत है। उसके लिए विराट दर्शन की आवश्यकता नहीं।

 

57. विराट विश्वरूप पचेगा भी नहीं

10. अलावा वह विराट दर्शन मुझे सहन भी कैसे होगा? छोटे, सगुण सुंदर रूप के प्रति मुझे जो प्रेम मालूम होता हैजो अपनापन लगता हैजो मधुरता मालूम होती हैउसका अनुभव विश्वरूप देखने में कदाचित हो। यही स्थिति अर्जुन की हो गयी। वह थर-थर कांपते हुए अंत में कहता है‚ "भगवानǃ अपना वही पहले वाला मनोहर रूप दिखाओ।" अर्जुन स्वानुभव से कहता है कि विराट स्वरूप देखने की इच्छा मत करो। यही अच्छा है कि ईश्वर जो तीनों कालों और तीनों स्थलों में व्याप्त हैवैसा ही रहे। वह सिमट कर यदि धधकता हुआ गोला बनकर मेरे सामने खड़ा होतो मेरी क्या दशा होगीǃ ये तारे कितने शांत दिखायी देते हैंǃ ऐसा प्रतीत होता हैमानो इतनी दूर से वे मुझसे बात कर रहे हों। परंतु दृष्टि को शांत करने वाली वही तारिका यदि निकट जाये तो? वह धधकती हुई आग ही है। मैं उसमें भस्म ही होकर रहूँगा। ईश्वर के ये अनंत ब्रह्मांड जहाँ हैंवहाँ वैसे ही रहने दीजिए। उन सबको एक ही कमरे में इकट्ठा कर देने में क्या आनंद हैॽ बंबई के उस कबूतरखाने में हजारों कबूतर रहते हैंवहाँ क्या मुक्तता है? वह दृश्य बड़ा अटपटा मालूम होता है। यह सृष्टि ऊपरनीचेयहाँ तीनों स्थलों में विभाजित है। इसी में मजा है।

 

11. जो बात स्थलात्मक सृष्टि को लागू है, वही कालात्मक सृष्टि पर भी लागू होती है। हमें भूतकाल की स्मृति नहीं रहती और भविष्य का ज्ञान नहीं होताइसमें हमारा कल्याण ही है। कुरान शरीफ में पांच ऐसी वस्तुएं बतायी गयी हैंजिनमें सिर्फ परमेश्वर की ही सत्ता हैमनुष्य प्राणी की सत्ता बिलकुल नहीं है। उनमें एक हैभविष्यकाल का ज्ञान। हम अंदाज जरूर लगाते हैंपरंतु अंदाज का अर्थ ज्ञान नहीं है। भविष्य का ज्ञान हमें नहीं होतायह हमारे कल्याण की ही बात है। वैसे ही भूतकाल की स्मृति हमें नहीं रहतीयह भी सचमुच बड़ी अच्छी बात है। कोई दुर्जन यदि सज्जन बनकर भी मेरे सामने आयेतो भी उसके भूतकाल की स्मृति के कारण मेरे मन में उसके प्रति आदर नहीं होता। वह कितना ही कहेउसके पिछले पापों को मैं सहसा भूल नहीं सकता। संसार उसके पापों को उसी अवस्था में भूल सकेगाजबकि वह मनुष्य मरकर दूसरे रूप में हमारे सामने आयेगा। पूर्व-स्मरण से विकार बढ़ते हैं। यदि पहले का यह सारा ज्ञान ही नष्ट हो जाये तो फिर सब समाप्तǃ पाप-पुण्य को भूल जाने की कोई युक्ति होनी चाहिए। वह युक्ति है मरण जब हमें इसी जन्म की वेदनाएं असह्य लगती हैं तब फिर पिछले जन्मों के कूड़ा-करकट की खोज क्यों करें? अपने इसी जन्म के कमरे में क्या कम कूड़ा-करकट है? अपना बचपन भी हम बहुत कुछ भूल जाते हैं। यह भूलना अच्छा ही है। हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के लिए भूतकाल का विस्मरण ही एकमात्र उपाय है। औरंगजेब ने जुल्म किया था, इसको कितने दिनों तक रटते रहोगे? गुजराती में रतन बाई का एक गरबा-गीत है। उसे हम बहुत बार यहाँ सनुते हैं। उसके अंत में कहा है– "संसार में सबकी कीर्ति ही शेष रहेगी। पाप को लोग भूल जायेंगे।" यह काल छननी कर रहा है। इतिहास में जितना अच्छा होउतना ले लेना चाहिए। पाप फेंक देना चाहिए। मनुष्य यदि बुराई को छोड़कर सिर्फ अच्छाई को ही याद रखेतो कैसी बहार होǃ परंतु ऐसा नहीं होता। इसलिए विस्मृति की बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए भगवान ने मृत्यु का निर्माण किया है।

 

12. सारांश यह कि यह जगत् जैसा हैवैसा ही मंगल है। इस कालस्थलात्मक जगत् को एक जगह एकत्र करने की जरूरत नहीं है। अति परिचय में मजा नहीं है। कुछ चीजों से घनिष्ठता बढ़ानी होती हैपरंतु मां की गोद में जाकर बैठेंगे। जिस मूर्ति के साथ जैसा व्यवहार करने की जरूरत होवैसा ही करना चाहिए। फूल को हम निकट लेंपरंतु आग से बचकर रहें। तारे दूर से ही सुंदर लगते हैं। यही हाल सृष्टि का है। अति दूरवाली वह सृष्टि अति निकट लाने से हमें अधिक आनंद होगासो बात नहीं। जो चीज जहाँ हैउसे वहीं रहने देने में मजा है। जो चीज दूर से रम्य मालूम होती है। वह निकट लाने से सुखदायी ही होगीऐसा नहीं कर सकते। उसे वहीं दूर रखकर ही उसका रस चखना चाहिए। ढीठ बनकर, बहुत घनिष्ठता बढ़ाकरअति परिचय कर लेने में कुछ सार नहीं। 13. सारांश यह कि तीनों काल हमारे सामने खड़े नहीं हैसो अच्छा ही है। तीनों कालों का ज्ञान होने से आनंद अथवा कल्याण होगा ही, ऐसा नहीं कह सकते। अर्जुन ने प्रेमवश हठ पकड़ लियाप्रार्थना कीतो भगवान ने उसे स्वीकार कर लिया। उन्होंने उसे अपना वह विराट रूप दिखलाया; परंतु मुझे तो भगवान का छोटा-सा रूप ही पर्याप्त है। यह छोटा रूप परमेश्वर का टुकड़ा तो है नहींऔर यदि टुकड़ा भी होतो उस अपार और विशाल मूर्ति का एक चरण या चरण की एक अंगुली ही मुझे दीख गयीतो भी मैं कहूंगा- "धन्य है मेरा भाग्यǃ" अनुभव से मैंने यह सीखा है। जमनालाल जी ने जब वर्धा में लक्ष्मीनारायण मंदिर हरिजनों के लिए खोल दियातो उस समय मैं दर्शन के लिए गया था। पंद्रह-बीस मिनट तक उस रूप को देखता रहा। समाधि लगने जैसी स्थिति मेरी हो गयी। भगवान का वह मुखवह छातीवे हाथ देखते-देखते पांवों तक पहुँचा और अंत में चरणों पर जाकर दृष्टि स्थिर हो गयी। गोड तुझी चरणसेवा- ‘मधुर तेरी चरण सेवा‘– यही भावना अंत में रह गयी। यदि छोटे-से रूप में यह महान प्रभु समाता होतो फिर उस महापुरुष के चरण ही दीख जाना पर्याप्त है। अर्जुन ने ईश्वर से प्रार्थना कीउसका अधिकार बड़ा था। उसकी कितनी घनिष्ठताकितना प्रेमकैसा सख्यभाव थाǃ मेरी क्या पात्रता है? मुझे तो चरण ही बस हैंमेरा अधिकार उतना ही है।

58. सर्वार्थ-सार

14. उस परमेश्वर के दिव्य रूप का जो वर्णन हैउसमें बुद्धि चलाने की मेरी इच्छा नहीं। उसमें बुद्धि चलाना पाप है। विश्व-रूप वर्णन के उन पवित्र श्लोकों को हम पढ़ें और पवित्र बनें। बुद्धि चलाकर परमेश्वर के उस रूप के टुकड़े किये जायेंयह मुझे नहीं भाता। वह अघोर उपासना हो जायेगी। अघोरपंथी लोग श्मशान में जाकर मुर्दे चीरते हैं और तंत्रोपासना करते हैं। वैसी ही वह क्रिया हो जायेगी। परमेश्वर का वह दिव्य रूप- विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। ऐसा वह विशाल और अंतरूप ǃ उसके वर्णन के श्लोकों को गायें और गाकर उपना मन निष्पाप और पवित्र बनायें। 15. परमेश्वर के इस सारे वर्णन में केवल एक ही जगह बृद्धि विचार करने लगती है। परमेश्वर अर्जुन से कहते हैं- "अर्जुनये सब-के-सब मरने वाले हैंतू निमित्त मात्र हो जा। सब कुछ करने वाला तो मैं हूँ।" यही ध्वनि मन में गूंजती रहती है। जब यह विचार मन में आता है कि हमें ईश्वर के हाथों का एक हथियार बनना हैतो बुद्धि सोचने लगती है कि ईश्वर के हाथ का औजार बनें कैसे? कृष्ण के हाथ की मुरली कैसे बनूं? वे अपने होंठ से मुझे लगा लें और मुझसे मधुर स्वर निकालेंमुझे बजाने लगें यह कैसे होगा? मुरली बनना यानि पोला बननाǃ पर मुझमें तो विकार और वासनाएं ठसाठस भरी हुई हैंऐसी दशा से मधुर स्वर कैसे निकलेगा? मेरा स्वर तो दबा हुआ निकलता है। मैं घन वस्तु हूँ। मझमें अहंकार भरा हुआ है। मुझे निरहंकार होना चाहिए। जब मैं पूर्ण रूप से मुक्त, पोला हो जाऊंगातभी परमेश्वर मुझे बजायेगा; परंतु परमेश्वर के होंठों की मुरली बनना बड़े साहस का काम है। यदि उसके पैरों की जूतियां बनना चाहूंतो भी आसान नहीं है। परमेश्वर की जूती ऐसी मुलायम होनी चाहिए कि परमेश्वर के पांव में जरा-सा भी घाव लगे। परमेश्वर के चरण और कांटे-कंकड़ के बीच मुझे पड़ना है। मुझे अपने को कमाना होगा। अपनी खाल उतारकर उसे सतत कमाते रहना होगामुलायम बनाना होगा। अतः परमेश्वर के पांवों की जूती बनना भी सरल नहीं है। परमेश्वर के हाथ का औजार बनना होतो मुझे दस सेर वजन का लोहे का गोला नहीं बनना चाहिए। तपश्चर्या की सान पर अपने को चढ़ाकर तेज धार बनानी होगी। ईश्वर के हाथ में मेरी जीवन रूपी तलवार चमकनी चाहिए। यह ध्वनि मेरी बुद्धि में गूंजती रहती है। भगवान के हाथ का एक औजार बनना है- इसी विचार में निमग्न हो जाता हूँ। 16. अब यह कैसे किया जायेइसकी विधि स्वयं भगवान ने अंतिम श्लोक में बता दी है। श्रीशंकराचार्य ने अपने भाष्य में इस श्लोक को 'सर्वार्थ-सार'‚ सारी गीता का सार कहा है। वह कौन सा श्लोक है? वह हैमत्कर्मकृमत्परमो मदभक्तः संगवर्जितः निवैंरः सर्वभूतेषु यः मामेति पांडव॥ 'हे पांडवजो सब कर्म मुझे समर्पण करता हैमुझमें परायण रहता हैमेरा भक्त बनता है, आसक्ति का त्याग करता है और प्राणी मात्र में द्वेषरहित होकर रहता हैवह मुझे पाता है।' जिसका संसार में किसी से वैर नहींजो तटस्थ रहकर संसार की निरपेक्ष सेवा करता हैजो-जो करता हैसब मुझे अर्पित कर देता हैमेरी भक्ति से सराबोर हैक्षमावाननिःसंगविरक्तप्रेममय जो भक्त हैवह परमेश्वर के हाथ का हथियार बनता हैऐसा यह सार है।

 

 

 

 

 


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