विभूति-चिंतन

  49. गीता के पूर्वार्ध पर दृष्टि 

1. मित्रों, गीता का पूर्वार्ध समाप्त हो गया। उत्तरार्ध में प्रवेश करने के पहले जो भाग हम समाप्त कर चुके, उसका थोड़े में सार देख लें, तो अच्छा होगा। पहले अध्याय में बताया गया कि गीता मोह-नाश के लिए और स्वधर्म में प्रवृत्त कराने के लिए है। दूसरे अध्याय में जीवन के सिद्धांत, कर्मयोग और स्थितप्रज्ञ का दर्शन हमें हुआ। तीसरे, चौथे और पांचवें अध्याय मे कर्म, विकर्म और अकर्म का स्पष्टीकरण हुआ। कर्म का अर्थ है- स्वधर्माचरण करना। विकर्म का अर्थ है- वह मानसिक कर्म जो बाहर से स्वधर्माचरण का कर्म करते हुए उसकी सहायता के लिए किया जाता है। कर्म और विकर्म, दोनों के एकरूप होने पर जब चित्त की पूर्ण शुद्धि हो जाती है, सब प्रकार के मैल धुल जाते हैं, वासना जाती रहती है, विकास शांत हो जाते हैं, भेद-भाव मिट जाता है, तब अकर्म-दशा प्राप्त होती है। यह अकर्म-दशा भी दो प्रकार की बतायी गयी है। इसका एक प्रकार तो यह कि दिन-रात कर्म करते हुए भी मानो लेशमात्र कर्म न कर रहे हों, ऐसा अनुभव होना। इसके विपरीत दूसरा प्रकार यह कि कुछ भी न करते हुए, सतत कर्म करते रहना। इस तरह अकर्म-दशा दो प्रकारों से सिद्ध होती है। ये दो प्रकार यों अलग-अलग दिखायी देते हैं, तथापि हैं पूर्णरूप से एक ही। इन्हें कर्म-योग और संन्यास, ऐसे दो नाम दिये गये हैं, फिर भी भीतर की सारवस्तु दोनों में एक ही है। अकर्म-दशा अंतिम साध्य, आखिरी मंज़िल है। इस स्थिति को ही ‘मोक्ष’ संज्ञा दी गयी है। अतः गीता के पहले पांच अध्यायों में जीवन का सारा शास्त्र पूरा हो गया। 


2. उसके बाद अकर्मरूपी साध्य प्राप्त करने के लिए विकर्म के जो अनेक मार्ग हैं, मन को भीतर से शुद्ध करने के जो अनेक साधन हैं, उनमें से कुछ मुख्य साधन बताने की छठे अध्याय से शुरूआत की गयी है। छठे अध्याय में चित्त का एकाग्रता के लिए ध्यान-योग बताकर अभ्यास और वैराग्य का सहारा उसे दिया गया है। सातवें अध्याय में विशाल भक्तिरूपी उच्च साधन बताया गया है। ईश्वर की ओर चाहे प्रेम-भाव से जाओ, जिज्ञासु-बुद्धि से जाओ, विश्व-कल्याण की व्याकुलता से जाओ या व्यक्तिगत कामना से जाओ- किसी भी तरीके से जाओ, परन्तु एक बार उसके दरबार में पहुँच जरूर जाओ। इस अध्याय का नाम मैंने ‘प्रपत्ति-योग’ अर्थात ‘ईश्वर की शरण जाने की प्रेरणा करने वाला योग’ दिया है। सातवें में प्रपत्ति-योग बताकर आठवें में ‘सातत्य-योग’ बताया हैं मैं जो ये नाम बता रहा हूं, वे पुस्तक में नहीं मिलेंगे। अपने लिए जो उपयोगी नाम मालूम हुए, वही मैं दे रहा हूँ। सातत्य-योग का अर्थ है- अपनी साधना को अंतकाल तक सतत चालू रखना। जिस रास्ते पर एक बार चल पड़े, उसी पर लगातार कदम बढ़ाते जाना। कभी चले, कभी नहीं ऐसा करने से मंज़िल पर पहुँचने की आशा नहीं हो सकती। ऊबकर निराशा से कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि कहाँ तक साधना करते रहें? जब तक फल न मिले, तब तक साधना जारी रखनी चाहिए।


49. गीता के पूर्वार्ध पर दृष्टि 

3. इस सातत्य-योग का परिचय देकर नौवें अध्याय में बहुत मामूली, परंतु जीवन का सारा रंग ही बदल देने वाली एक बात भगवान ने बतायी है, और वह है ‘राज-योग’। नौंवां अध्याय कहता है कि जो कुछ भी कर्म हर घड़ी होते हैं, वे सब ईश्वरार्पण कर दो। इस एक ही बात में सारे शास्त्रसाधन, सब कर्म-विकर्म डूब गये। सब कर्म-साधना इस समर्पण-योग में विलीन हो गयी। समर्पण-योग हो ही ‘राज-योग’ कहते हैं। यहाँ सब साधन समाप्त हो गये। यह व्यापक और समर्थ ईश्वरार्पणरूपी साधन यों बहुत मामूली और आसान दीखता है, परंतु हो बैठा है अत्यंत कठिन। यह साधना सरल इसलिए है कि अपने ही घर में बैठकर गंवार देहाती से लेकर महाविद्वान तक सब बिना विशेष श्रम के इसे साध सकते हैं। हालांकि यह इतनी सरल है, फिर भी इसे साधने के लिए बड़े भारी पुण्य की जरूरत है। बहुतां सुकृतांची जोड़ी। म्हणुनी विठ्ठलीं आवडी- ‘अनेक सुकृतों का योग हुआ है, इसलिए विठ्ठल में प्रेम उत्पन्न हुआ है।’ अनंत जन्मों का पुण्य संचित होता है, तभी ईश्वर में प्रीति उत्पन्न होती है। जरा कुछ हो, आंखों से आंसुओं की धारा लग जाती है। परंतु भगवान का नाम लेने पर आंखों में दो बूंद आंसू भी नहीं आते- इसका उपाय क्या? संतों के कथानुसार एक तरह से यह साधना बहुत ही सरल है। परंतु दूसरी तरह से वह कठिन भी है और आजकल तो और भी कठिन हो गयी है। 


4. आज तो जड़वाद का पर्दा हमारी आंखों पर पड़ा हुआ है। आज तो श्रीगणेश यहीं से होता है कि ईश्वर कहीं है भी? वह कहीं भी किसी को प्रतीत ही नहीं होता। सारा जीवन विकारमय विषयलोलुप और विषमता से भरा है। इस समय तो ऊंचे-ऊंचे विचार करने वाले जो तत्त्वज्ञानी हैं,उनके भी विचार इस बात से आगे नहीं जा पा रहे कि सबको पेट भर रोटी कैसे मिलेगी! इसमें उनका दोष नहीं; क्योंकि आज हालत ऐसी है कि बहुतों को खाने को भी नहीं मिलता। आज की बड़ी समस्या है- रोटी। इस समस्या को हल करने में आज सारी बुद्धि उलझ रही है। सायणाचार्य ने रुद्र की व्याख्या की है- बुभुक्षमाणः रुद्ररूपेण अवतिष्ठते। ‘भूखे लोग ही रुद्र के अवतार है।’ उनकी क्षुधा-शांति के लिए अनेक तत्त्वज्ञान, अनेक वाद और राजनीति के अनेक प्रकार उठ खड़े हुए हैं। इन समस्याओं में से सिर ऊपर उठाने के लिए आज फुरसत ही नहीं। आज हमारे सारे भगीरथ-प्रयत्न इसी दिशा में हो रहे हैं कि परस्पर न लड़ते हुए सुख-शांति से और प्रसन्न मन से दो कौर रोटी कैसे खायें। ऐसी विचित्र समाज-रचना जिस युग में हो रही है, वहाँ ईश्वरार्पणता जैसी सीधी-सादी और सरल बात भी बहुत कठिन हो बैठे, तो क्या आश्चर्य! परंतु इसका उपाय क्या है? दसवें अध्याय में आज हम यही देखने वाले है कि ईश्वरार्पण-योग कैसे साधा जाये, कैसे सरल बनाया जाये।


50. परमेश्वर-दर्शन की सुबोध रीति 

5. छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए जो उपाय हम करते है, वही उपाय परमात्मा का सर्वत्र दर्शन करने के लिए इस अध्याय में बताया गया है। बच्चों को वर्णमाला दो तरह से सिखायी जाती है। एक तरकीब है, पहले बड़े-बड़े अक्षर लिखकर बताने की। फिर उन्हीं अक्षरों को छोटा लिखकर बताया जाता है। वही ‘क’ और वही ‘ग’; परंतु पहले ये बड़े थे, अब छोटे हो गये। यह एक विधि हुई। दूसरी विधि है, पहले सीधे-सादे सरल अक्षर और बाद में जटिल संयुक्ताक्षर सिखाने की ठीक इसी तरह परमेश्वर को देखना सीखना चाहिए। पहले स्थूल स्पष्ट परमेश्वर को देखें। समुद्र, पर्वत आदि महान विभूतियों में प्रकटित परमेश्वर तुरंत आखों में समा जाता है। यह स्थूल परमात्मा समझ में आ जाये, तो एक जल-बिंदु में, मिट्टी के एक कण में, वही परमात्मा भरा हुआ है, यह भी आगे समझ में आ जायेगा। बड़े ‘क’ और छोटे ‘क’ में अंतर नहीं। जो स्थूल में वहीं सूक्ष्म में। यह एक पद्धति हुई। दूसरी पद्धति है, सीधे-सादे सरल परमात्मा को पहले देखें, फिर उसके जटिल रूप को। जिस व्यक्ति में शुद्ध परमेश्वरीय आविर्भाव सहज रूप से प्रकट हुआ है, वह बहुत जल्दी ग्रहण कर लिया जा सकता है, जैसे राम में प्रकटित परमेश्वरीय आविर्भाव तुरंत मन पर अंकित हो जाता है। राम सरल अक्षर है। यह बिना झंझट का परमेश्वर है। परंतु रावण? यह संयुक्ताक्षर है। उसमें कुछ मिश्रण है। रावण की तपस्या, कर्म-शक्ति महान है। परंतु उसमें क्रूरता मिली हुई है। पहले रामरूपी सरल अक्षर को सीख लो। जिसमें दया है, वत्सलता है, प्रेमभाव है, ऐसा राम सरल परमेश्वर है, वह तुरंत पकड़ में आ जायेगा। रावण में रहने वाले परमेश्वर को समझने में जरा देर लगेगी। पहले सरल अक्षर, फिर संयुक्ताक्षर। सज्जनों में पहले परमात्मा को देखकर अंत में दुर्जनों में भी उसे देखने का अभ्यास करना चाहिए। समुद्रस्थित विशाल परमेश्वर ही पानी की उस बूंद में है। रामचंद्र अंदर का परमेश्वर ही रावण में है। जो स्थूल में है, वही सूक्ष्म में भी। जो सरल में है, वही कठिन में भी इन दो विधियों से हमें यह संसारूपी ग्रंथ पढ़ना सीखना है।


6. यह अपार सृष्टि मानो ईश्वर की पुस्तक है। आंखों पर गहरा पर्दा पड़ने से यह पुस्तक हमें बंद हुई-सी जान पड़ती है। इस सृष्टिरूपी पुस्तक में सुंदर अक्षरों में सर्वत्र परमेश्वर लिखा हुआ है। परंतु वह हमें दिखायी नहीं देता। ईश्वर का दर्शन होने में एक बड़ा विघ्न है। वह यह कि मामूली, सरल, नजदीक का ईश्वर-स्वरूप मनुष्य की समझ में नहीं आता और दूर का प्रखररूप उसे हजम नहीं होता। यदि किसी से कहें कि माता में ईश्वर को देखो, तो वह कहेगा- "क्या ईश्वर इतना सीधा और सरल है?" पर यदि प्रखर परमात्मा प्रकट हुआ, तो उसका तेज तुम सह सकोगे? कुंती की इच्छा हुई कि वह दूर वाला सूर्य मुझे प्रत्यक्ष आकर मिले; परंतु उसके निकट आते ही वह जलने लगी। उसका तेज उससे सहन नहीं हुआ। ईश्वर यदि अपने सारे सामर्थ्य के साथ सामने आकर खड़ा हो जाये, तो हमें पचता नहीं। यदि माता के सौम्यरूप में आकर खड़ा हो जाये, तो जंचता नहीं। पेड़ा-बर्फी पचती नहीं और मामूली दूध रुचता नहीं ये लक्षण हैं फूटी किस्मत के, मरण के, ऐसी यह रूग्ण मनःस्थिति परमेश्वर के दर्शन में बड़ा भारी विघ्न है। इस मनःस्थिति का त्याग करना चाहिए। पहले हम अपने पास के स्थूल और सरल परमात्मा को पढ़ लें और फिर सूक्ष्म और जटिल परमात्मा को पढ़ें।


51. मानवस्थित परमेश्वर 

7. परमेश्वर की बिलकुल पहली मूर्ति जो हमारे पास है, वह है स्वयं हमारी मां। श्रुति कहती है- मातृदेवो भव। पैदा होते ही बच्चे को मां के सिवा और कौन दिखायी देता है? वत्सलता के रूप में वह परमेश्वर की मूर्ति ही वहाँ खड़ी है। उस माता की व्याप्ति को हम बढ़ा लें और वंदे मातरम् कहकर राष्ट्रमाता की और फिर अखिल भू-माता पृथ्वी की पूजा करें। परंतु प्रारंभ में सबसे ऊंची परमेश्वर की पहली प्रतिमा, जो बच्चों के सामने आती है, वह है माता के रूप में। माता की पूजा से मोक्ष मिलना असंभव नहीं है। माता की पूजा क्या है, मानो वत्सलता से खड़े परमेश्वर की ही पूजा है। मां तो एक निमित्तमात्र है। परमेश्वर उसमें अपनी वत्सलता उंड़ेलकर उसे नचाता है। उस बेचारी को मालूम भी नहीं होता कि इतनी माया-ममता भीतर से क्यों उमड़ती है? क्या वह यह हिसाब लगाकर बच्चों को लालन-पालन करती है कि बुढ़ापे में काम आयेगा? नहीं-नहीं, उसने उस बालक को जन्म दिया है। उसे प्रसव-वेदना हुई है। इन वेदनाओं ने उसे उस बच्चे के लिए पागल बना दिया है। वे वेदनाएं उसे वत्सल बना देती हैं। वह प्यार किये बिना रह ही नहीं सकती। वह लाचार है। वह मां मानो निस्सीम सेवा की मूर्ति है। परमेश्वर की यदि कोई सबसे उत्कृष्ट पूजा है, तो वह है, मातृ-पूजा। ईश्वर को ‘माँ’ के नाम से ही पुकारो। ‘माँ’ से बढ़कर और ऊंचा शब्द है कहां? माँ पहला स्थूल अक्षर है। उसमें परमेश्वर देखना सीखो। फिर पिता, गुरु इनमें भी देखो। गुरु शिक्षा देते हैं। वे हमें पशु से मनुष्य बनाते हैं। कितने हैं उनके उपकार! पहले माता, फिर पिता, फिर गुरु, फिर दयालु संत। अत्यंत स्थूल रूप में खड़े इस परमेश्वर को पहले देखो। यदि परमेश्वर यहाँ नहीं दिखायी देगा, तो फिर दीखेगा कहां?


8. माता, पिता, गुरु, संत- इनमें परमात्मा को देखो। इसी तरह यदि छोटे बालकों में भी हम परमात्मा को देख सकें तो कितना मजा आये? ध्रुव, प्रह्लाद, नचिकेता, सनक , सनंदन, सनत्कुमार- ये सब छोटे बालक ही तो थे। परंतु पुराणकारों को, व्यासादि को समझ में नहीं आता कि उन्हें कहाँ रखें, कहाँ न रखें? शुकदेव, शंकराचार्य बचपन से ही विरक्त थे। ज्ञानदेव का भी यही हाल था। सब-के-सब बालक! परंतु उनमें परमेश्वर जितने शुद्धरूप में प्रकट हुआ है, उतना कहीं अन्यत्र नहीं। ईसा मसीह बच्चों को बहुत प्यार करते थे। एक बार उनके शिष्यों ने उनसे पूछा- "आप हमेशा ईश्वरीय राज्य का जिक़्र करते हैं, उस ईश्वर के राज्य में कौन जा सकेगा?" पास ही एक बच्चा बैठा था। ईसा ने उसे मेज पर खड़ा करके कहा- "जो इस बच्चे की तरह होंगे, वे वहाँ जा सकेंगे।" ईसा का कहना पूर्णतः सत्य था। रामदास स्वामी एक बार बच्चों के साथ खेल रहे थे। बच्चों के साथ समर्थ खेल रहे हैं, यह देखकर कुछ बड़े-बूढ़ों को आश्चर्य हुआ। एक ने उनसे पूछा- "यह आज आप क्या कर रहे हैं?" समर्थ ने जवाब दिया- वयें पोर ते थोर होऊन गेले। वयें थोर ते चोर होऊन ठेले।- ‘आयु में जो छोटे थे वे बड़े हो गये और आयु में जो बड़े थे, वे चोर साबित हुए।’ उम्र बढ़ती है तो सींग फूटते हैं, फिर परमेश्वर का स्मरण कहां। छोटे बच्चों के मन पर कोई लेप नहीं रहता। उनकी बुद्धि निर्मल होती है। बच्चे को हम सिखाते हैं- "झूठ मत बोला।" वह पूछता है- ‘झूठ किसे कहते हैं?’ तब उसे सत्य का सिद्धांत बताते हैं, "बात जैसी हो, वैसी ही कहनी चाहिए।" बच्चा उलझन में पड़ता है कि क्या जैसा हो वैसा कहने के अलावा भी कोई दूसरा तरीका है? जैसा न हो, वैसा कहें कैसे? चौकोर को चौकोर कहो, गोल मत कहो, ऐसा ही समझाने जैसा हैं बच्चे को आश्चर्य होता है। बच्चे विशुद्ध परमात्मा की मूर्ति हैं। प्रौढ़ लोग उन्हें गलत शिक्षा देते हैं। सारांश, मां, बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा न देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे? इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। परमेश्वर के इन सादे, सौम्य रूपों को पहले पहचानो। इनमें परमेश्वर स्पष्ट और मोटे अक्षरों में लिखा हुआ है।


52. सृष्टिस्थित परमेश्वर 

9. पहले हम मानव की सौम्यतम और पावन मूर्तियों में परमात्मा का दर्शन करना सीखें। उसी तरह इस सृष्टि में भी जो-जो विशाल और मनोहर रूप है, उनमें उसके दर्शन पहले करें। 


10. वह उषा! सूर्योदय के पहले की वह दिव्य प्रभा! उस उषा देवी के गीत गाते हुए मस्त होकर ऋषि नाचने लगते थे- "उषे, तू परमेश्वर का संदेश लाने वाली दिव्य दूतिका है, तू हिमकणों से नहाकर आयी है। तू अमृतत्त्व की पताका है।" ऐसे भव्य और हृदयस्पर्शी वर्णन ऋषियों ने उषा के किये हैं। वैदिक ऋषि कहते हैं- "तू जो परमेश्वर की संदेश-वाहिका है, तुझे देखकर यदि परमेश्वर की पहचान मुझे न हो, उसके स्वरूप का ज्ञान न हो, तो फिर मुझे परमेश्वर का स्वरूप कौन समझा सकेगा?" इतने सुंदर रूप में सज-धजकर यह उषा सामने खड़ी है, परंतु हमारी दृष्टि उस पर जाती कहाँ है? 


11. उसी तरह उस सूर्य को देखो। उसके दर्शन मानो परमात्मा के ही दर्शन हैं। वह नाना प्रकार के रंग-बिरंगे चित्र आकाश में खींचता है। चित्रकार महीनों तक कूंची चलाकर सूर्योदय के चित्र बनाते रहते हैं। प्रातः काल में उठकर परमेश्वर की कला को देखो! उस दिव्य कला के लिए, उस अनंत सौंदर्य के लिए भला कोई उपमा दी जा सकेगी? परंतु देखता कौन है? उधर वह सुंदर भगवान खड़ा है और इधर यह मुंह पर और भी रजाई ओढ़कर नींद में पड़ा है! सूर्य कहता है- "अरे आलसी, तू पड़ा रहना चाहेगा, किंतु मैं तुझे अवश्य उठाऊंगा।" ऐसा कहकर वह अपनी जीवनदायी किरणें खिड़कियों में से भेजकर उस आलसी को जगा देता है। सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च- सूर्य समस्त स्थावर-जंगम की आत्मा है। चराचर का आधार है। ऋषि ने उसे ‘मित्र नाम दिया है- मित्रो जनान् यातयति ब्रुवाणः, मित्रो दाधार पृथ्वीमुत द्याम्- ‘यह मित्र लोगों को पुकारता है, उन्हें काम में लगाता है। उसने स्वर्ग और पृथ्वी का धारण किया है।’ सचमुच ही वह सूर्य जीवन का आधार है। उसमें परमात्मा के दर्शन करो।


12. और वह पावन गंगा! जब मैं काशी में था, तो गंगा के किनारे जाकर बैठता था। रात्रि के एकांत समय में जाता था। कितना सुंदर और प्रसन्न उसका प्रवाह! उसका वह भव्य-गंभीर प्रवाह और उसमें प्रतिबिंबित वे आकाश के अनंत तारेǃ मैं मुग्ध हो जाता। शंकर के जटाजूट से अर्थात उस हिमालय से बहकर आनेवाली वह गंगा, जिसके तीर पर राज–पाट को तृणवत त्यागकर राजा लोग तप करने जा बैठते थे, उस गंगा का दर्शन करके मुझे असीम शांति मिलती थी। उस शांति का वर्णन मैं कैसे करूं? वाणी की वहाँ सीमा आ जाती है। यह समझ में आता कि हिंदू यह क्यों चाहता है कि मरने पर कम–से–कम मेरी अस्थि तो गंगा मं पड़े। आप हंसिए‚ आपके हंसने से कुछ बिगड़ता नहीं। परंतु मुझे ये भावनाएं बहुत पवित्र और संग्रहणीय लगती हैं। मरते समय गंगा–जल की दो बूंदें मुंह में डालते हैं। ये दो बूंदें क्या हैं? मानो परमेश्वर ही मुंह में उतर आता है। उस गंगा को परमात्मा ही समझो। वह परमेश्वर की करुणा बह रही है। तुम्हारा सारा भीतर–बाहर का कूड़ा–कर्कट वह माता धो रही है‚ बहा ले जा रही है। गंगामाता में यदि परमेश्वर प्रकटित न दिखायी दे‚ तो कहाँ दिखायी देगा? सूर्य, नदियां, धू–धू करके हिलोरें मारने वाला वह विशाल सागर– ये सब परमेश्वर की ही मूर्तियां हैं। 


13. और वह पवनǃ कहाँ से आता है‚ कहाँ जाता है‚ कुछ पता नहीं। मानो भगवान का दूत ही है। हिंदुस्तान में कुछ वायु स्थिर हिमालय पर से आती है‚ कुछ गंभीर सागर पर से। यह पवित्र वायु हमारे हृदय को छूती है‚ हमें जागृत करती है‚ हमारे कानों में गुनगुनाती है। परंतु इस वायु का संदेश सुनता कौन है? जेलर ने यदि हमारा चार पंक्तियों का पत्र न दिया तो हमारा दिल खट्टा हो जाता है। अरे मंदभागी क्या रखा है उस चिट्ठी में? परमेश्वर का यह प्रेमभरा संदेश वायु के साथ हर घड़ी आ रहा है‚ उसे सुनǃ


14. वेदों में अग्नि की उपासना बतायी गयी है। अग्नि साक्षात नारायण है। कैसी उसकी देदीप्यमान मूर्तिǃ दो लकड़ियों को रगड़ते ही वह प्रकट हो जाता है। कौन जाने पहले कहाँ छिपा था। कितना गरम‚ कितना तेजस्वीǃ वेदों की जो पहली ध्वनि निकली‚ वह अग्नि की उपसना को लेकर ही– अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ जिस अग्नि की उपासना वेदों का आरंभ हुआ‚ उसकी ओर देखो तो। उसकी वे ज्वालाएं देखने से मुझे जीवात्मा की छटपटाहट याद आ जाती है। वे ज्वालाएं‚ वे लपटें‚ चाहे घर के चूल्हे की हों‚ चाहे जंगल के दावाग्नि की हों। विरक्त को घर-बार नहीं होता। वे ज्वालाएं जहाँ होंगी‚ वहाँ उनकी वह दौड़–धूप शुरू ही है। वे लगातार छटपटाती हैं। वे ज्वालाएं ऊपर जाने के लिए आतुर रहती हैं। ये वैज्ञानिक कहेंगे कि ईथर के कारण ये ज्वालाएं हिलती हैं‚ हवा के दबाव के कारण हिलती हैं। परंतु मेरा तो अर्थ यह है कि ऊपर जो परमात्मा है, तेजस-समुद्र सूर्यनारायण है‚ उससे मिलने के लिए वें निरंतर उछल रही हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक उनकी दौड़-धूप जारी रहती है। सूर्य अंशी है और ये ज्वालाएं अंश हैं। अंश अंशी की ओर जाने के लिए छटपटाता रहता है। वे लपटें बुझ जायेंगी‚ तभी वह दौड़–धूप बंद होगी‚ वरना नहीं। सूर्य से हम बहुत दूरी पर हैं‚ यह विचार भी उनके मन में नहीं आता। वे इतना ही जानती है कि अपनी शक्ति भर पृथ्वी से ऊपर उछलती चली जायें। ऐसा यह अग्नि क्या‚ मानो उसके रूप में प्रज्वलित वैराग्य ही प्रकट हुआ है। इसलिए वेद ही पहली ध्वनि निकली–अग्निमीळेǃ


15. और हमारे घर के मवेशी। वह गो-माता कितनी वत्सल‚ कितनी ममतामयी और प्रेममयीǃ दो–दो‚ तीन–तीन मील से‚ जंगल–झाड़ियों से अपने बछड़ों के लिए कैसी दौड़ी चली आती हैǃ वैदिक ऋषियों को‚ पहाड़ों-पर्वतों से स्वच्छ जल-धाराओं को लेकर कल-कल करती हुई दौड़ी आने वाली‚ उन नदियों को देखकर बछ़डों के लिए दूध-भरे स्तनों से रंभाती हुई आने वाली वत्सल गायों की याद हो आती है। ऋषि नदी से कहता है– "हे देविǃ दूध की तरह पवित्र‚ मधुर जल लाने वाली तू धेनु जैसी है। जैसे गाय बछड़े को छोड़कर जंगल में नहीं रह सकती वैसे तू भी पर्वतों में नहीं रह सकती। तू सरपट दौड़ती हुई प्यासे बालकों से मिलने के लिए आती है।" वाश्रा इव धेनवः स्यंदमानाः। वत्सल गाय के रूप में भगवान दरवाजे पर खड़ा है। 


16. और वह घोड़ाǃ कितना उम्दा‚ कितना ईमानदार‚ कितना वफादारǃ अरब लोग अपने घोड़ों से कितना प्यार करते हैंǃ उस अरब की कहानी आपको मालूम है न? वह विपत्तिग्रस्त अरब एक सौदागर को घोड़ा बेचने के लिए तैयार हो जाता है‚ परंतु घोड़े की उन गंभीर और प्रेमपूर्ण आंखों पर उसकी निगाह पड़ती है’ तो वह मोहरों की थैली फैंक देता है और कहता है कि "मेरी जान चली जाये‚ पर मैं घोड़ा नहीं बेचूंगा। मेरा जो होगा‚ सो होगा। खाना न मिलेगा‚ तो न सही। खुदा मेरी मदद करेगा।" पीठ थपथपाते ही वह कैसे प्रेम से फुरफुराता हैǃ कैसा बढ़िया उसका आयालǃ सचमुच घोड़े में अनमोल गुण हैं। उन साइकिल में क्या रखा है? घोड़े को खरहरा करो‚ वह तुम्हारे लिए जान दे देगा। तुम्हारा साथी होकर रहेगा। मेरा एक मित्र घोड़े पर बैठना सीख रहा था। घोड़ा उसे गिरा देता। वह मुझसे कहने लगा– "घोड़ा तो बैठने ही नहीं देता।" मैंने उससे कहा– "तुम सिर्फ घोड़े पर बैठने ही जाते हो या उसकी कुछ सेवा भी करते हो? सेवा करे दूसरा और पीठ पर सवारी करो तुम‚ ऐसा कैसे चलेगा? तुम स्वयं उसे दाना–पानी दो‚ खरहरा करो और तब सवारी करो।" वह मित्र यही करने लगा। कुछ दिनों बाद मुझसे आकर बोला– "अब घोड़ा गिराता नहीं।" घोड़ा तो परमेश्वर है। वह भक्तों को क्यों गिरायेगा? उसकी भक्ति देखकर घोड़ा झुक गया। घोड़ा जानना चाहता है कि यह भक्त है या कोई पराया आदमी? भगवान श्रीकृष्ण स्वयं खरहरा करते थे और अपने पीतांबर में दाना लाकर उसे खिलाते थे। टेकरी आयी‚ नाला आया‚ कीचड़ आया कि साइकिल रुकी‚ मगर घोड़ा कूदता–फांदता चला ही जाता है। यह सुंदर प्रेममय घोड़ा मानो परमेश्वर की ही मूर्ति है।


53. प्राणी स्थित परमेश्वर

17. और वह सिंहǃ बड़ौदा में रहता था। सबेरे–सबेरे ही उसकी गर्जना की गंभीर ध्वनि कानों में पड़ती। उसकी आवाज इतनी गंभीर और उम्दा होती कि हृदय डोलने लगता। मंदिर के गर्भगृह में जैसी आवाज गूंजती है, वैसी ही उसके हृदय–गर्भ की वह गंभीर ध्वनि होती थी। और सिंह की वह धीरोदात्त‚ भव्य‚ सहृदय मुद्रा‚ उसकी वह शाही शान और शाही वैभवǃ वह भव्य सुंदर आयाल‚ मानो चंवर ही उस वनराज पर ढल रहे हों। बड़ौदा के एक बगीचे में यह सिंह था। वह आजाद नहीं था‚ पिंजड़े में चक्कर काटता था। उसकी आंखों में क्रूरता का नाम भी नहीं था। उसकी मुद्रा और दृष्टि में करुणा भरी थी। संसार की मानो उसे कोई चिंता ही नहीं थी। अपने ही ध्यान में वह मग्न दिखायी देता था। सचमुच ही ऐसा लगता था‚ मानो सिंह परमेश्वर की एक पावन विभूति है। बचपन में एण्ड्रोक्लीज और सिंह की कहानी पढ़ी थी। कितनी बढ़िया कहानी है वह। वह भूखा सिंह एण्ड्रोक्लीज के पहले के उपकार को स्मरण करके उसका मित्र बन जाता है और उसके पैर चाटने लगता है। यह क्या है? एण्ड्रोक्लीज ने सिंह में रहने वाले परमेश्वर का दर्शन कर लिया था। भगवान शंकर के पास सिंह सदैव रहता है। सिंह भगवान की दिव्य विभूति है। 


18. और बाघ की भी क्या कम मौज है? उसमें बड़ा ईश्वरीय तेज व्यक्त हुआ है। उससे मित्रता रखना असंभव नहीं। भगवान पाणिनि अरण्य में बैठे शिष्यों को पाठ पढ़ा रहे थे। इतने में बाघ आ गया। बालक घबराकर चिल्लाने लगे– व्याघ्रःǃ व्याघ्र:ǃ पाणिनि ने कहा– "अच्छा‚ व्याघ्र का अर्थ क्या है? व्याजिघ्रतीति व्याघ्रः‚ अर्थात‚ जिसकी घ्राणेन्द्रिय तीव्र है‚ वह व्याघ्र है।" बालकों को भले ही उससे कुछ डर लगा हो‚ पर भगवान पाणिनि के लिए तो वह व्याघ्र एक निरुपद्रवी‚ आनंदमय शब्दमात्र हो गया था। बाघ को देखकर वे उस शब्द की व्युत्पत्ति बताने लगे। बाघ पाणिनि को खा गया, परंतु बाघ के खा जाने से क्या हुआ? पाणिनि के शरीर की गंध उसे मीठी लगी‚ उसने खा डाला। परंतु पाणिनी वहाँ से भागे नहीं‚ क्योंकि वे तो शब्दब्रह्म के उपासक थे। उनके लिए सब कुछ अद्वैतमय हो गया था। व्याघ्र में भी वे शब्दब्रह्म का अनुभव कर रहे थे। पाणिनी की इस महत्ता के कारण ही भाष्यों में जहां–जहाँ उनका नाम आता है‚ वहां-वहाँ ‘भगवान पाणिनि’ कहकर पूज्यभाव से उनका उल्लेख किया जाता है। पाणिनि का अत्यंत उपकार मानते हैं– अज्ञानांधस्य लोकस्य ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै पाणिनये नमः॥ ऐसे भगवान पाणिनि व्याघ्र में परमात्मा का दर्शन कर रहे हैं। ज्ञानदेव ने कहा है– घरा येवो पां स्वर्ग। कां वरिपडो व्याघ्र। परी आत्मबुद्धीसि भंग। कदा नोहे॥ –‘भले ही घर में स्वर्ग उतर आये या व्याघ्र आकर चढ़ाई कर दे‚ फिर भी आत्मबुद्धि में कोई भंग न हो।’ ऐसी महर्षि पाणिनि की स्थिति हो गयी थी। वे इस बात को समझ गये थे कि बाघ एक दैवी विभूति है।


19. वैसा ही वह सांपǃ सांप से लोग बहुत डरते हैं। परंतु सांप मानो कर्मठ शुद्धि–प्रिय ब्राह्मण ही है। कितना स्वच्छǃ कितना सुंदरǃ जरा भी गंदगी उसे बर्दाश्त नहीं होती। गंदे ब्राह्मण कितने ही दिखायी देते हैं‚ परंतु गंदा सांप कभी किसी ने देखा है? वह मानो एकांतवासी ऋषि ही हो। निर्मल‚ सतेज‚ मनोहर हार जैसा वह सांपǃ उससे क्या डरनाǃ हमारे पूर्वजों ने तो उसकी पूजा का विधान किया है। भले ही आप कहिए कि हिंदू–धर्म में न जाने कैसी–कैसी मूर्खताएं भरी पड़ी हैं; परंतु नाग–पूजा का विधान उसमें अवश्य है। बचपन में मैं अपनी मां के लिए चंदन से नाग का चित्र बना दिया करता था। मैं मां से कहता– "बाजार में तो अच्छा चित्र मिलता है मांǃ" वह कहती– "वह रद्दी है‚ मुझे नहीं चाहिए। अपने बच्चों को बनाया चित्र ही अच्छा होता है।" फिर उस नागा की पूजा की जाती है। यह क्या पागलपन है? परंतु जरा विचार कीजिए। वह सर्प श्रावण मास में अतिथि बनकर हमारे घर आता है। बरसात हो जाने से उस बेचारे के सारे घर में पानी भर जाता है। तब वह क्या करेगा? दूर एकांत में रहने वाला वह ऋषि आपको व्यर्थ कष्ट न हो‚ इस विचार से किसी छप्पर के नीचे‚ कहीं लकड़ियों में पड़ा रहता है। वह कम–से–कम जगह घेरता है। परंतु हम डंडा लेकर दौड़ते हैं। संकटग्रस्त अतिथि यदि हमारे घर आ जाये‚ तो क्या उसे मारना उचित है? कहते हैं कि संत फ्रांसिस को जब जंगल में सांप दिखायी देता‚ तो वह उससे बड़े प्रेम-भाव से कहता– "आ‚ भाई आ।" सांप उसकी गोद में खेलते' उसके शरीर पर इधर–उधर चढ़ते। इसे झूठ मत समझिए। प्रेम में अवश्य ऐसी शक्ति रहती है। सांप को विषैला कहा जाता है; परंतु मनुष्य क्या कम विषैला है? सांप तो कभी-कभी काटता है। जान–बूझकर नहीं काटता। सौ में नब्बे तो निर्विष ही होते हैं। आपकी खेती की वह रक्षा करता है। खेती का नाश करने वाले असंख्य कीड़ों और जंतुओं को खाकर रहता है। ऐसा यह उपकारी‚ शुद्ध‚ तेजस्वी‚ एकांत-प्रिय सर्प भगवान का रूप है। हमारे तमाम–देवताओं में कहीं न कहीं सांप जरूर आता है। गणेश जी की कमर में हमने सांप का कमर-पट्टा बांध दिया है। शंकर के गले में साँप लपेट दिये हैं और भगवान विष्णु को तो नागशय्या ही दे दी है। इसका मर्म‚ इसका माधुर्य जरा समझो। इन सबका भावार्थ यह है कि नाग रूप में यह ईश्वरीय मूर्ति ही व्यक्त हुई है। इस सर्पस्थ परमेश्वर का परिचय प्राप्त कर लो।


20. ऐसे कितने उदाहरण दूं? मैं तो केवल कल्पना दे रहा हूँ। रामायण का सारा सार इस प्रकार की रमणीय कल्पना में ही है। रामायण में पिता–पुत्रों का प्रेम‚ मां-बेटों का प्रेम‚ भाई-भाई का प्रेम‚ पति-पत्नी का प्रेम‚ सब कुछ है; परंतु मुझे रामायण इस कारण प्रिय नहीं है। मुझे वह इसलिए प्रिय है कि राम की मित्रता वानरों से हुई। आजकल कहते हैं कि वे वानर तो नाग-जाति के थे। इतिहासज्ञों का काम ही है‚ गड़े को उखाड़ना। उनके इस कार्य पर मैं आपत्ति नहीं उठाता‚ लेकिन राम ने यदि असली वानरों से मित्रता की हो‚ तो इसमें असंभव क्या है? राम का रामत्व‚ रमणीयत्व सचमुच इसी बात में है कि राम और वानर मित्र हो गये। ऐसा ही कृष्ण का और गायों का संबंध है। सारी कृष्ण पूजा का आधार यह कल्पना है। श्रीकृष्ण के किसी चित्र को लीजिए‚ तो आपको इर्द-गिर्द गायें खड़ी मिलेंगी। गोपाल कृष्णǃ गोपाल कृष्णǃ यदि कृष्ण से गायों को अलग कर दें‚ तो फिर कृष्ण में बाकी क्या रहा? राम से यदि वानर हटा दिये‚ तो फिर राम में भी क्या ‘राम’ रहेगा? राम ने वानरों में भी परमात्मा के दर्शन किये और उनके स प्रेम और घनिष्ठता संबंध स्थापित किया। यह है रामायण की कुंजीǃ इस कुंजी को आप छोड़ देंगे’ तो रामायण की मधुरता खो देंगे। पिता-पुत्र, मां-बेटे का प्रेम तो और जगह भी मिल जोयगा‚ परंतु नर-वानर की अन्यत्र न दीखने वाली यह मधुर मैत्री केवल रामायण में ही मिलेगी। वानर में स्थित भगवान को रामायण ने आत्मसात किया। वानरों को देखकर ऋषियों को बड़ा कौतुक होता था। ठेठ रामटेक से लेकर कृष्णा-तट तक जमीन पर पैर न रखते हुए वे वानर एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कूदते-फांदते और क्रीड़ा करते घूमते थे। ऐसे उस सघन वन को और उसमें क्रीड़ा करने वाले वानरों को देखकर उन सहृदय ऋषियों के मन में कवित्व जाग उठता‚ कौतुक होता। ब्रह्म की आंखें कैसी होती हैं‚ यह बताते हुए उपनिषदों ने बंदरों की आंखों की उपमा दी है। बंदरों की आंखें बड़ी चंचल होती हैं। चारों ओर उनकी निगाह दौड़ती है। ब्रह्म की आंखें ऐसी ही होनी चाहिए। आंखें स्थिर रखने से ईश्वर का काम नहीं चलेगा। हम–आप ध्यानस्थ होकर बैठ सकते हैं‚ परंतु यदि ईश्वर ध्यानस्थ हो जाये‚ तो फिर संसार का क्या हाल होगा? अतः ऋषियों को बंदरों में सब की चिंता रखने वाले ब्रह्म की आंखें दिखायी देती हैं। वानरों में परमात्मा के दर्शन करना सीख लो।


21. और वह मोरǃ महाराष्ट्र में मोर बहुत नहीं है‚ परंतु गुजरात में उनकी विपुलता है। मैं गुजरात में था। रोज दस-बारह मील घूमने की मेरी आदत थी। घूमते हुए मुझे मोर दिखायी देते थे। जब आकाश में बादल छा रहे हों‚ मेघ बरसने की तैयारी हो‚ आकाश का रंग गहरा श्याम हो गया हो‚ तब मोर कूकता है। हृदय से खिंचकर निकलने वाली उसकी वह तीव्र पुकार एक बार सुनो‚ तो पता चलेǃ हमारा सारा संगीत-शास्त्र मयूर की इस ध्वनि पर ही रचा गया है। मयूर की ध्वनि ही षड्जं रौति। यह पहला ‘षड्ज’ हमें मोर से मिला। फिर घटा-बढ़ाकर दूसरे स्वर हमने बिठाये। मेघ की ओर गड़ी हुई उसकी वह दृष्टि‚ उसकी वह गंभीर ध्वनि और मेघ की गड़गड़ गर्जना सुनते ही फैलने वाली उसकी वह पुच्छ की छतरी। अहा हाǃ उसकी उस छतरी के सौंदर्य के सामने मनुष्य की सारी शान चूर हो जाती है। राजा-महाराजा भी सजते हैं‚ परंतु मयूर–पुच्छ की छतरी के सामने वे क्या सजेंगे? कैसा वह भव्य दृश्यǃ वे हजारों आंखें‚ वे नाना रंग‚ अनंत छटाए‚ वह अद्भुत सुंदर‚ मृदु‚ रमणीय रचना‚ वह बेल-बूटाǃ जरा देखिए तो उस छतरी को और उसमें परमात्मा भी देखिएǃ यह सारी सृष्टि इसी तरह सजी हुई है। सर्वत्र परमात्मा दर्शन देता हुआ खड़ा है‚ परंतु उसे न देखने वाले हम अभागे हैं। तुकाराम ने कहा– देव आहे सुकाळ देशीं‚ अभाग्यासी दुर्भिक्ष– ‘प्रभु’ सर्वत्र फला–फूला है; लेकिन अभागी को अकाल है।’ संतों के लिए सर्वत्र समृद्धि हैǃ परंतु हमारे लिए सर्वत्र अकाल है। 


22. और मैं उस कोयल को कैसे भुलाऊं? किसे पुकारती है वह? गर्मियों में नदी-नाले सूख गये‚ परंतु वृक्षों में नव-पल्लव छिटक रहे हैं। वह यह तो नहीं पूछ रही है कि किसने उन्हें यह वैभव प्रदान किया, कहाँ है वह वैभवदाता? कैसी वह उत्कट मधुर कूकǃ हिंदू-धर्म में कोयल के व्रत का तो विधान ही है। स्त्रियां व्रत लेती हैं कि कोयल की आवाज सुने बिना वे भोजन नहीं करेंगी। कोयल के रूप में प्रकट परमात्मा का दर्शन करना सिखाने वाला यह व्रत है। वह कोयल कितनी सुंदर कूक लगाती है मानों उपनिषद ही गाती है। उसकी कुहू-कुहू तो कानों में पड़ती है? परंतु वह दिखायी नहीं देती। कवि वर्डस्वर्थ उसके पीछे पागल होकर जंगल-जंगल उसकी खोज में भटकता है। इंग्लैण्ड का महान कवि कोयल खोजता है? परंतु भारत में तो घरों की सामान्य स्त्रियां कोयल न दिखायी दे, तो खाना भी नहीं खातीं। इस कोकिलाव्रत की बदौलत भारतीय स्त्रियों ने महान कवि की पदवी प्राप्त कर ली है। जो कोयल परम आनंद की मधुर ध्वनि सुनाती है, उसके रूप में सुंदर परमात्मा ही प्रकट हुआ है।


23. कोयल सुंदर‚ तो वह कौआ क्या असुंदर है‚ कौए का भी गौरव करो। मुझे तो वह बहुत प्रिय है। उसका व घना काला रंग‚ वह तीव्र आवाजǃ वह आवाज क्या बुरी है? नहीं‚ वह भी मीठी है। वह पंख फड़फड़ाता हुआ आता है‚ कैसा सुंदर लगता हैं छोटे बच्चों का चित्त खींच लेता है। नन्हा बच्चा बंद घर में नहीं खाता। बाहर आंगन में बैठकर उसे खिलाना पड़ता है और चिड़िया‚ कौए दिखाकर उसे कौर खिलाना पड़ता है। कौए के प्रति स्नेह रखने वाला वह बच्चा क्या पागल है? वह पागल नहीं‚ उसमें ज्ञान भरा हुआ है। कौए के रूप में व्यक्त परमेश्वर से वह बच्चा तुरंत एकरूप हो जाता है। माता चावल पर चाहे दही परोसे‚ दूध परोसे‚ या शक्कर परोसे‚ बच्चे को उसमें कोई आनंद नहीं। उसे आनंद है‚ कौए के पंख फड़फड़ाने में‚ उसके मुंह बिचकाने में। सृष्टि के प्रति छोटे बच्चों को इतना कौतूहल मालूम होता है‚ उसी पर तो सारी ‘ईसप-नीति’ रची गयी है। 'ईसप' को सर्वत्र ईश्वर दिखयी देता था। अपनी प्रिय पुस्तकों की सूची में मैं ईसप-नीति का नाम पहले रखूंगा‚ भूलूंगा नहीं। ईसप के राज्य में दो हाथों वाला’ दो पावों वाला मनुष्य ही अकेला नहीं है। उसमें सियार‚ कुत्ते‚ कौए‚ हिरन‚ खरगोश‚ कछुए‚ सांप‚ केंचुए- सभी बातचीत करते हैं‚ हंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए नǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है। रामायण भी इसी तत्त्व पर‚ इसी दृष्टि पर खड़ी की गयी है। तुलसीदास जी ने राम की बाललीला का वर्णन किया है। राम आंगन में खेल रहे हैं। एक कौआ पास आता है‚ राम उसे धीरे से पकड़ना चाहते हैं। कौआ पीछे फुदक जाता है। अंत में राम थक जाते है; परंतु उन्हें एक युक्ति सूझती है। मिठाई का एक टुकड़ा लेकर कौए के पास जाते हैं। राम टुकड़ा जरा आगे बढ़ाते हैं‚ कौआ कुछ नजदीक आता है। इस तरह के वर्णन में तुलसीदास जी ने कई चौपाइयां लिख डाली हैं; क्योंकि वह कौआ परमेश्वर है। राम की मूर्ति का अंश ही उस कौए में भी है। राम और कौए की वह पहचान मानो परमात्मा से परमात्मा की पहचान है।


54. दुर्जन में भी परमेश्वर का दर्शन 

24. सारांश यह कि इस प्रकार इस सारी सृष्टि में‚ विविध रूपों में- पवित्र नदियों के रूप में‚ विशाल पर्वतों के रूप में‚ गंभीर सागर के रूप में‚ वत्सल गोमाता के रूप में‚ उम्दा घोड़े के रूप में‚ सहृदय सिंह के रूप में‚ मधुर कोयल के रूप में‚ सुंदर मोर के रूप में‚ स्वच्छ और एकांतप्रिय सर्प के रूप में‚ पंख फड़फड़ाने वाले कौए के रूप में‚ छटपटाने वाली ज्वालाओं के रूप में‚ प्रशांत तारों के रूप में‚ सर्वत्र परमात्मा भरा हुआ है। आंखों को उसे देखने का अभ्यास कराना है। पहले मोटे और सरल अक्षर‚ फिर बारीक और संयुक्ताक्षर सीखने चाहिए। संयुक्ताक्षर सीखने चाहिए। संयुक्ताक्षर नहीं सीख लेंगे‚ तब तक पढ़ने में प्रगति नहीं हो सकती। संयुक्ताक्षर कदम-कदम पर आयेंगे। दुर्जनों में स्थित परमात्मा को देखना भी सीखना चाहिए। राम समझ में आता है‚ परंतु रावण भी समझ में आना चाहिए। प्रह्लाद जंचता है, परंतु हिरण्यकशिपु भी जंचना चाहिए। वेद में कहा है– नमो नमः स्तेनानां पतये नमो नमः नमः पुंजिष्ठेभ्यो नमो निषादेभ्यः ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्मैवेमे कितवाः। –‘उन डाकुओं के सरदारों को नमस्कारǃ उन क्रूरों को‚ उन हिंसकों को नमस्कारǃ ये ठग‚ ये दुष्ट‚ ये चोर‚ सब ब्रह्म ही हैं। इन सबको नमस्कारǃ’ इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ यह कि सरल अक्षर तो सीख गये‚ अब कठिन अक्षरों को भी सीखो। कार्लाइल ने ‘विभूति-पूजा’ नामक एक पुस्तक लिखी है। उसने उसमें नेपोलियन को भी एक विभूति कहा है। यहाँ शुद्ध परमात्मा नहीं है‚ मिश्रण है; परंतु इस परमात्मा को भी चला लेना चाहिए। इसीलिए तुलसीदास जी ने रावण को राम का ‘विरोधी भक्त’ कहा है। हां‚ इस भक्त के रंग-ढंग कुछ भिन्न हैं। आग पर पांव पड़ने पर जलता है‚ सूज जाता है। परंतु सेक करने से सूजन उतर भी जाती है। तेज एक ही‚ पर आविर्भाव भिन्न–भिन्न हैं। राम और रावण में आविर्भाव भिन्न–भिन्न दिखायी दिया‚ तो भी वह है एक ही परमेश्सवर का। स्थूल और सूक्ष्म‚ सरल और मिश्र‚ सरल अक्षर और संयुक्ताक्षर सब सीखो और अंत में यह अनुभव करो कि परमेश्वार से ख़ाली एक भी स्थान नहीं है। अणु-रेणु में भी वही है। चींटी से लेकर ब्रह्मांड तक सर्वत्र परमात्मा ही व्याप्त है। सबकी एक सी चिंता करने वाला कृपालु‚ ज्ञान-मूर्ति‚ वत्सल‚ समर्थ‚ पावन‚ सुंदर परमात्मा चारों ओर सर्वत्र खड़ा है। 



आज का विषय

लोकप्रिय विषय